Book Title: Gunanuragkulak
Author(s): Jinharshgani, Yatindrasuri, Jayantsensuri
Publisher: Raj Rajendra Prakashak Trust

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Page 169
________________ अतएव एकान्त में या सभा के बीच में, सोते हुए या बैठे, और गाँव में या अरण्य में, सब जगह प्रतिक्षण उत्तम पुरुषों के गुणों का बहुमान ही करते रहना चाहिए। इसी से मनुष्य आश्चर्यकारक उन्नत दशा पर चढ़कर अपना और दूसरों का भला कर सकता है। पार्श्वस्थादिकों की भी निन्दा और प्रशंसा नहीं करना *पासत्थाऽऽइसु अहुणा, संजमसिढिलेषु मुक्कजोगेसु। नो गरिहा कायव्वा, नेव पसंसा सहामज्झे।।२३।। शब्दार्थ-(अहुणा) वर्तमान समय में (मुक्कजोगेसु) त्रिविध योग से रहित (संजमसिढिलेसु) संयम परिपालन में शिथिल (पासत्थाऽऽइस) पार्श्वस्यादिकों की (सहामज्झे) सभा के बीच में (नो) नहीं (गरिहा) निन्दा (कायवा) करना चाहिये, (नेव) नहीं (पसंसा) प्रशंसा करना चाहिए। भावार्थ-आजकल संयम पालने में ढीले पड़े हुए योगक्रिया से हीन पार्श्वस्थ आदि यतिवेषधारी पुरुषों की, सभा के बीच में न तो निन्दा और न प्रशंसा ही करना चाहिए। विवेचन संयम लेकर जो नहीं पालन करते और अनाचार में निमग्न रहते हैं उनको अधम से भी अधम समझना चाहिए। आजकल जैनसंप्रदाय में भी बाहर से तो साधुपन का आडम्बर रखते हैं और गुप्तरीति से अनाचारों का सेवन करते हैं, ऐसे एक नहीं किन्तु अनेक नामधारी साधु दीख पड़ते हैं। इसी प्रकार श्रावक भी-श्रावक के गुणों से शून्य, मायाचारी, अनाचारशील, देव-द्रव्य भक्षक, कलह प्रिय और धर्म श्रद्धा विहीन देखे जाते हैं। जो विषयादि भोगों में लब्ध चित्तवाले हैं, और जो बाह्य वृत्ति से राग रहित मालूम होते हैं, परन्तु अन्तःकरण में बद्धराग हैं, ऐसे लोगों को कपटी तथा केवल वेषाडम्बरी धूर्त समझना चाहिए। इस * पार्श्वस्थाऽऽदिष्वधुना, संयमशिथिलेषु मुक्तयोगेषु । नो गर्दा कर्त्ताव्या, नैव प्रशंसा सभामध्ये ।।२३।। श्री गुणानुरागकुलक १६३

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