Book Title: Dharmvarddhan Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

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Page 454
________________ सस्कृत स्तोत्रादि सग्रह ३७३ (चूलिकापसाची) मतनमतसरवनवनदहनपावक, सिद्धिसुभजुवतिसिंगारवरजावकं । जो हु तुह चलनजुकमचते सततं चकति सव्वे चना पास पनमंति ते ॥७॥ (अपभ्र सिका) तुहु राउल-राउलह सामि हु राउल रकह, हिणसु दुहाइ सुहाइ कुगु सुमइ मा अवहीरह । पिक्खइ जुगु अजुग्गु ठाणु वरसतउ किं घणु, पत्तउ पड़ जड होसु दुहियसा तुह अवहीरणु ॥८॥ (समसस्कृत) सज्जन्तु कामितविधाननिधानरूपं, चित्त धरामि तव नाम सुगेयरूपं । इच्छामि कान्त मिदमेव भवे भवेऽह, वामाङ्गजेह गुणगेह सुपूरितेहं 18 इम अरज अम्हारी ता हि पक्षीकुरु त्व, गिणइज हित कीधु तस्य सत्यं गुरुत्वं । हिव मुझ सुख आपो, सा तवैवास्ति शोभा, तुझ विण कहि स्वामी कस्य नो सन्ति लोभाः ॥१०॥ स्वर्भापा संस्कृतीया तदनु प्रकृतिजा मागधी शौरसेनी, पेशाची द्वय गरुपाऽनुसृतविधिरपभ्रांसिकासूत्रवाक्यः ।

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