Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

View full book text
Previous | Next

Page 708
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियों चरणानुयोग यही उपदेश देगा कि अभक्ष्य पदार्थ छोडो बाजार की चाट छोडों, जल छानकर पीओ, रात्रि में सभी प्रकार के आहार का त्याग करो, घर का त्याग करो, वस्त्र का त्याग करो, नग्न दिगम्बर मुनि बनो। चरणानुयोग की अपेक्षा मुनि लिंग सर्वथा निर्ग्रन्थ ही होता है जिसके पास में एक सूत्र मात्र परिग्रह है वह मुनि नहीं है परन्तु गृहस्थ है चरणुनयोग की अपेक्षा नग्न दिगम्बर मुनि उत्तम पात्र हैं। ऐलक छुल्लक आर्यिका क्षुल्लिका, ब्रह्मचारी आदि पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक हैं। वे ही मध्यम पात्र हैं और अव्रती श्रावक पाक्षिक हैं वह जघन्य पात्र हैं। चरणानुयोग की अपेक्षा जो नग्न दिगम्बर हैं जिसको व्यवहार से छह द्रव्य, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय, बंध मोक्ष के स्वरूप का ज्ञान है जो 28 मूलगुणों का आगमानुकूल पालन करता है । जो बाईस परीषहों को आगमानुकूल जीतता है जो देव मनुष्य तिर्यंच द्वारा आये हुए उपसर्गों को जीतता है उसको ही मुनि मानकर नमोऽस्तु कहना चाहिये और उसकी नवधा भक्ति होती है । ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, क्षुल्लिका की नवधा भक्ति में से पूजन छोडकर आठ प्रकार की भक्ति होती है, क्योंकि उसका पंचम गुणस्थान है और उनको नमोऽस्तु नहीं कहना चाहिये परन्तु इच्छाकार कहना चाहिये । (देखिये सूत्रपाहुड की गाथा 13) __ भक्ति चरणानुयोग का ही विषय है क्योंकि जिस आत्मा का ग्यारहवां गुणस्थान रूप परिणाम है वही आत्मा अपने परिणामों से च्युत होने पर समय मात्र में प्रथमादि गुणस्थानवर्ती हो जाता है जहां परिणामों की स्थिति ऐसी है वहां छदमस्थ जीव परिणाम देखकर भक्ति कर नहीं सकता । इसलिए भक्ति नियम से चरणानुयोग में होती है। चरणानुयोग की अपेक्षा जब तब वस्त्रादिक का त्याग नहीं किया जाता तब तक छठवां गुणस्थान नहीं माना जाता । इसी कारण स्त्रियों का पंचम गुणस्थान ही माना जाता है। और उनकी पंचम गुणस्थान के अनुकूल भक्ति करनी चाहिये। जब तक वस्त्रादिक का त्याग और केशलोंच नहीं होगा तब तक चरणानुयोग तीर्थंकर का छठवां गुणस्थान स्वीकार नहीं करता है। चरणानुयोग मात्र बाह्य प्रवृत्ति देखता है कि जो प्रवृत्ति छदमस्थ जीवों के ज्ञानगोचर है इसलिए चरणानुयोग में ही पद के अनुकूल भक्ति होती है। चरणानुयोग ब्राह्य वस्तु के संयोग में परिग्रह मानता है। दान देने से चरणानुयोग कहता है महादानेश्वर धर्मात्मा है जबकि करणानुयोग कहता है कि कहां दानेश्वर है, महामान कषायी पापी आत्मा है। मान से धन का त्याग कर रहा है। करणानुयोग और चरणानुयोग परस्पर विरोधी कथन करते हैं। चरणानुयोग रस छोडकर भोजन लेने वालों को धर्मात्मा कहता है जब करणानुयोग कहता है कि भोजन में महान लालसा है इस कारण पापी है। जिसने स्त्री का त्याग किया है उसको चरणानुयोग कहता है। ब्रह्मचारी है जब करणानुयोग कहता है वह तो भाव से नारी सेवन करने से भोगी है। चरणानुयोग कार्य देखकर कहता है कि मनुष्य उच्च एवं नीच गोत्री होता है जब करणानुयोग हिम्मत से कहता है कि मनुष्य नीच गोत्री होता ही नहीं है, उच्चगोत्री में ही मनुष्य पर्याय मिलती है । संमूर्छन मनुष्य जिसकी आयु श्वास के अठारहवें भाग मात्रहै वह भी उच्चगोत्री है । (देखिये गोम्मटसार गाथा 13 और 285) करणानुयोग - करणानुयोग बाहय पदार्थो को अर्थात् नोकर्म को साधक बाधक नहीं मानता है परन्तु -605 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772