Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 716
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की बनी हुई हार यष्टि- मोतियों की माला ही दुर्लभ नहीं है किन्तु गुण-श्लेष, प्रसाद आदि गुणों से सहित, निर्दोष श्रेष्ठ छंदों से बनाई गई तथा नरोत्तम - श्रेष्ठ विद्वज्जनों द्वारा कण्ठ का आभूषण बनाई हुई कण्ठस्थ की हुई समंतभद्रादि ऋषियों से उत्पन्न भारती - वाणी भी दुर्लभ है। __ श्रवण बेलगोला के शिला लेख नं. 108 में भी आचार्य समंतभद्र का उल्लेख है । इन्होंने पूर्व पश्चिम, उत्तर - दक्षिण सर्वत्र विहार कर जिनधर्म की महिमा स्थापित की थी।करहाटक नगर में पहुंचने पर आचार्य समंतभद्र ने जो परिचय दिया था, वह उनकी बौद्धिक क्षमता प्रदर्शित करता है। समंतभद्र आचार्य रचित ग्रन्थ : _ इनके द्वारा लिखित ग्रन्थों का जो पता चलता है। वह भी दृष्टव्य हैं। वह इस प्रकार है - 1. स्वयंभू स्तोत्र 2. आप्तमीमांसा (देवगम्) 3. युक्त्यनुशासन 4. स्तुति विद्या (जिनशतक) 5. रत्नकरण्डश्रावकाचार। सभी ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। आप्तमीमांसा, युक्त्नुशासन और स्वयंभूस्त्रोत, स्तुति ग्रंथ हैं तथा दार्शनिक ग्रन्थ हैं। स्तुतिविद्या-जिनशतक शब्दालंकार प्रधान रचना है । इसमें चित्रालंकार के द्वारा प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभनाथ से लेकर चौबीस वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की स्तुति की गई है जो पद्य काव्य में संस्कृत की अनूठी रचना है। रत्करण्ड श्रावकाचार आचार्य समंतभद्र की जैनागम में श्रावकाचार की दृष्टि से अद्वितीय रचना है । इस ग्रन्थ की महनीयता सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से विशेष महत्व रखती है जो विशेष दृष्टव्य है :5 रत्नकरण्डश्रावकाचार : इस ग्रन्थ में 150 श्लोक हैं किन्तु अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है इसमें सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों को धर्म कहकर उनका वर्णन करते हुए सम्यक्चारित्र के अंतर्गत श्रावकाचार का निरुपण किया गया है । श्रावक के आचार-संयम, सदाचरण, धार्मिक भावना, इष्टदेव के प्रति समर्पण का भाव प्रत्येक धर्म में बताया गया है ।सनातनधर्म में गीता, उपनिषद् भागवत तथा अष्टादश पुराणों के रहस्यों को श्रावकधर्म पालन की दृष्टि से बताकर कहा गया है कि अष्टादशपुराणेषु, व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकाराय पुण्याय, पापाय परपीड़नम् ॥ सारांश यही है जितने भी परोपकार के कार्य है उन सबसे पुण्य होता है, तथा दूसरों को पीड़ा देना, सताना, जान से मारना, हृदय विदारक वचन बोलना पाप रूप कार्य है। जैनाचार्य उमास्वामी महाराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तत्वार्थसूत्र मोक्षशास्त्र सूत्र ग्रंथ में शुभः पुण्यस्यऽशुभःपापस्य द्वारा कहा गया है। इसी सर्व धर्म समभाव के आधार पर श्रावक का विवेचन इस प्रकार किया गया है 1. जो श्रद्धावान हो 2. विवेकवान हो 3. क्रियावान है। वही समीचीन श्रावक कुशल धर्मपरायण रत्नों का पिटारा अर्थात् सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप खजाना । इसी के आधार पर श्रावक आचरण कर अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त करता है तथा एक दिन संसार, शरीर और भोगों से छुटकारा प्राप्त कर जन्म, मरण से सदा के लिए 613 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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