Book Title: Dayachandji Sahityacharya Smruti Granth
Author(s): Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar
Publisher: Ganesh Digambar Jain Sanskrit Mahavidyalaya Sagar

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Page 747
________________ आगम संबंधी लेख साहित्य मनीषी की कीर्ति स्मृतियाँ इसका स्वभाव भी रागादि नहीं है क्योंकि वे नैमित्तिक भाव हैं। परन्तु फिर भी आत्मा में होते है। जब निमित्त नहीं होता तब परिणमन नहीं करता । यहाँ पर आत्मा, चेतन पदार्थ है यह निमित्त को दूर करने की चेष्टा नहीं करता, किन्तु आत्मा में जो रागादिक हैं उन्हीं को दूर करने का उद्योग करता है और यह कर भी सकता है क्योंकि यह सिद्धांत है - "अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य कुछ नहीं कर सकता। अपने में जो रागादिक हैं वे अपने ही अस्तित्व में हैं, आप ही उसका उपादान कारण है ।जिस दिन हास करना चाहेगा उसी दिन से उनका हास होने लगेगा !" उन रागादिक का मूल कारण मिथ्यात्व है जो सभी कर्मो को स्थिति अनुभाग देता है। उसके अभाव में शेष कर्म रहते हैं। परन्तु उनको बल देने वाला मिथ्यात्व जाने से वे सेनापति विहीन की तरह हो जाते हैं।यद्यपि सेना में स्वयं शक्ति है, परन्तु वह शक्ति उत्साहहीन होने से शूर की शूरता की तरह अप्रयोजक होती रहती है। इसी तरह मोह कर्म के बिना शेष सात कर्म अपने कार्यो में प्रवृत्त नहीं होते । क्योकि सेनापति जो मोह था उसका अभाव हो गया ।उस कर्म का नाश करने वाला यही जीव है जो पहले स्वयं चतुर्गति भवावर्त में गोता लगाता था। आज स्वयं अपनी शक्ति का विकास कर अनंत सुखामृत का पात्र हो जाता है ।जब ऐसी वस्तु मर्यादा है तब आप भी जीव हैं यदि चाहें तो इस संसार का नाश कर अनंतसुख के पात्र हो सकते है। -649 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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