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रहित होती है, तथा पूर्वापर विरोधी विसंवादीको शास्त्रों में मिथ्या. त्वी कहा है, और श्री हरिभद्रसूरिजी महाराजने आवश्यक बृहद्व. त्तिमें तथा श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्तिमें प्रथम करेमिभंतेका उच्चारण किये. बाद पीछेसे इरियावही करनेका साफ खुलासा लिखाहै, और महा. निशीथ सूत्रका उद्धारभी इन्ही महाराजने किया है, इसलिये महानिशीथ सूत्रके पाठसे प्रथम इरियावही पीछे करोमिभंते स्थापन कर. नेमें आवे, तो श्रीहरिभद्रसूरिजी महाराजको विसंवादी कथनरूप मि. थ्यात्वके दोष आनेकी आपत्ति आतीहै,इसलिये आवश्यक वृत्ति आ. दिके विरुद्ध होकर इन्ही महाराजके नामसे महानिशीथसूत्रके पाठसे प्रथम इरियावही पीछे कमिभंते स्थापन करनासोपूर्वोपर विसंवाद. रूप मिथ्यात्वका कारण होनेसे सर्वथा अनुचित है।
१४- महानिशीथसूत्रके पाठसे 'इरियावही किये बिना कुछभी धर्भ कार्य नहीं कल्पे, ' इसलिये सर्व धर्मकार्य इरियावही करके ही करने चाहिये, ऐसा एकांत आग्रह करोगे तो भी नहीं बन सकेगा, क्योंकि देखो-देव दर्शनको या गुरु वंदनको जाती वख्त १, जिनप्रति. माको या गुरुको देखतेही नमस्काररूप वंदना करती वख्त २, तीर्थयात्राको जाती वख्त ३, नवक्रारसी,पोरशी, उपवासादि पच्चख्खाण करती वस्त४, मंदिरमें जघन्य चैत्यवंदन करती वख्त ५, गुरुम हाराजको आहारवस्त्रादि वहोराती वख्त ६,इत्यादि अनेक धर्मकार्य इ. रियावही कियेविनाभी प्रत्यक्षपने करने में आते हैं, इसलिये इरियावही किये बिना कुछभी धर्मकार्य नहीं करना, ऐसा एकांत आग्रह करना मोसर्वथा विवेक बिनाकाही मालूम होताहै,इसलिये कोन२ कार्योंमें पहिले इरियावही करना, कौन २ कार्यों में पीछेले इरियावही क. रना, व कौन २ कार्य इरियावही किये बिनाभी हो सकते हैं, इन बातों का गुरुगम्यतासे भेद समझे बिना सामायिक प्रथम इरियावही करनेका एकांत आग्रह करना सो अज्ञानतासे सर्वथा शास्त्र विरुद्धहै.
१५-औरभीदेखिये-स्वाध्याय,ध्यानादिमें प्रथम इरियावही करनाकहाहै,उसमें आदि पदसे सामायिकभी प्रथम इरियावही करने. का आग्रह कियाजावे, तो भी सर्वथाअनुचितहै,क्योंकि,देखो-श्रीखरतरगच्छनायक श्रीनवांगीवृत्तिकार अभयदेवत्रिजी, तथा कलिकाल सर्वज्ञ विरुद धारक श्रीहेमचंद्राचार्यजी और खास तपगच्छनायक श्रीदेवेंद्रसूरिजीआदि पूर्वाचार्योंने महानिशीथसूत्र अवश्यही देखाथा तथा स्वाध्यायध्यान आदिपदका अर्थभी अच्छतिरहसे जाननेवालेथे
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