Book Title: Bhugate Usi Ki Bhul
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Foundation

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Page 5
________________ भुगते उसीकी भूल जब खुद ही न्यायाधीश, खुद ही गुनहगार औख खुदही (२) वकील हो तब न्याय किसके पक्षमें होगा ? खुदके पक्षमें ही फिर खुद अपनी पसंदका ही न्याय करेगा न! इसलिए खद निरंतर भूलें ही करता रहता है । ऐसा करते रहने से जीव बंधन ग्रस्त होता रहता है । भीतरका न्यायाधीस कहता है कि आपकी भूल हुई है । फिर भीतरका ही वकील वकालत करता है कि इसमें मेरा क्या दोष ? ऐसा करके खुदही बंधनमें आता है । अपने आत्महीतके हेतु जान लेना चाहिए कि, किससे दोषकी वजहसे बंधन है य भुगतता है उसकाही दोष । लोक भाषामें देखेंतो अन्याय नज़र आयेगा पर भगवानकी भाषाका न्याय तो यही कहता है कि, "भुगते उसीकी भूल" इस न्यायमें तो बाहरके न्यायधीशका कुछ काम हो नहीं आयेगा न। भुगते उसीकी भूल कुदरतके न्यायालयमें...... इस जगतके न्यायाधीस तो जगह-जगह होते है मगर कर्म जगतके कुदरती न्यायाधिस तो एक ही है, "भुगते उसकी भूल"। यह एक ही न्याय है । इसी न्यायसे सारा जगत जल रहा है और भ्रांतिके न्यायसे सारा संसार खड़ा हुआ है। एक क्षणभरके लिए जगत कानून के बिना नहीं रहता है । जिसे इनाम देला चाहिए उसे इनाम मिलता है । जिसे दंड देना हो उसका दंढ होता है । पर कानूनसे बाहर चलता नहीं है, सब कानूनके मुतबिक़ ही है । संपूर्ण न्यायपूर्वक ही है । पर सामनेवालेकी द्रष्टि में यह नहीं आता इसलिए नहीं समझ पाता है । जब द्रष्टि निर्मल होगी तब दिखेगा । जहाँ तक स्वार्थ द्रष्टि होगी वहाँ तक न्याय कैसे दिखेंगा । ब्रह्मांडका स्वामी क्यों भुगतता है ? यह सारा जगत "हमारी मालिकी में है । हम "स्वयं" ब्रह्मांडके मालिक है । फिर भी हमें दुःख क्यों भुगतना पड़ा? यह खोज निकालो न !यह तो हम अपनी ही भूलसे बंधे हुए है । कुछ लोगोने आकर बंधनग्रस्त नहीं किया । वह भूल नहीं रहेगी तब मुक्त । और वास्तवमें तो मुक्त ही है सभी, पर भूलके कारण बंधनमें बंधे है । जगतकी वास्तवीकताका रहस्यज्ञान लोगोके लक्षमेंही नहीं है और इसकी वजहसे भटक-टक करना पडता है । वह अज्ञान-ज्ञान तो सभीको मालूम है। यह जेब कटी, उसमें कसूर किसका ? दूसरेकी जेब नहीं कटी और तुम्हारी ही क्यों कटी ? दोनोंमेसे अब कौन भुगत रहा है ?"भुगते उसीकी भूल"! यह "दादा"ने ज्ञानमें जैसा है वैसा देखा है कि, उसीकी भूल है। सहन करना कि समा जाना ? लोग सहनशक्ति बढानेको कहते हैं, पर वह कहाँ तक रहेगी ? ज्ञानकी डोरतो आखिरी छोर तक पहुँचेगी, सहनशक्तिकी डोर कहाँ तक पहुँचेगी ? सहनशक्ति लिमिटेड (मर्यादित) है । ज्ञान अनलिमिटेड (अमर्यादित) है । यह ज्ञान ही ऐसा है कि किंचितमात्र सहन करनेका नहीं रहता है । सहन करनेका अर्थ है लोहेको आँखसे देखकर ही पिधलाना । इसलिए शक्तिकी जरूरत होगी । जब ज्ञानसे किंचित मात्र सहन किए बगैर परमानंद के साथ मुक्ति । उपरसे समझमें आये कि यह तो हिसाब चुकता होता है और मुक्त हो रहे है!

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