Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भगवती सूत्र
श. १३ : उ. ४ : सू. ६१-६४ धर्मास्तिकाय आदि का परस्पर स्पर्श-पद ६१. भंते ! धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ?
गौतम ! जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्ट-पद में छह से स्पृष्ट है। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट-पद में सात से। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? सात से। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? अनंत से। पुद्गलास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? अनन्त से। कितने अद्धा-समय से स्पृष्ट है ? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। ६२. भंते ! अधर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? गौतम! जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट-पद में सात से। अधर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? जघन्य-पद में तीन से, उत्कृष्ट-पद में छह से।
शेष धर्मास्तिकाय की भांति वक्तव्य है। ६३. भंते ! आकाशास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? गौतम! स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो जघन्य-पद में एक, दो अथवा तीन से, उत्कृष्ट-पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? छह से। जीवास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है? स्यात् स्पृष्ट है, स्यात् स्पृष्ट नहीं है। यदि स्पृष्ट है तो नियमतः अनंत से। इसी प्रकार पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता। इसी प्रकार अद्धा-समय की भी वक्तव्यता। ६४. भंते ! जीवास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय के कितने प्रदेशों से स्पृष्ट है ? ।
जघन्य-पद में चार से, उत्कृष्ट-पद में सात से। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों की वक्तव्यता। आकाशास्तिकाय के कितने प्रदेशों स स्पृष्ट है ?
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