Book Title: Bhagwati Sutra Part 02
Author(s): Kanakprabhashreeji, Mahendrakumar Muni, Dhananjaykumar Muni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 553
________________ | सूत्र पंक्ति अशुद्ध शुद्ध पृष्ठ पृष्ठ सूत्र पंक्ति अशुद्ध | तेजसकायिक की | १८६, ७ मनुष्यों | १,२ | राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा भंते! १ बीचोंबीच मनुष्य भी राजगृह (भ. १/४-१०) यावत् (गौतम ने) इस प्रकार कहा-भंते ! बीचोंबीच ४ नहीं है, नहीं है। उसी प्रकार। स्पृष्ट होती है द्रव्य-पुद्गल स्पृष्ट होता है द्रव्य-पुद्गल तैजसकायिक (भ. २२/२३) की हैं, इतना अन्तर्मुहर्त, शेष पूर्ववत्। कौन किनसे अल्प, बहुत, विशेषाधिक हैं? (१८-३८) तीन गों सर्वथा सूक्ष्म काय सबमें अतिशय सूक्ष्म है? सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक-जीवों बादर-तैजसकाविक-जीवों युवती, बार-बार पृथ्वीकायिक-जीव मरते हैं पृथ्वीकायिक-जीव रहता है? ६ ५ | हैं। इतना | अन्तर्मुहूर्त । शेष पूर्ववत् कौन किससे अल्प, बहु, विशेषाधिक है? तीन (१८-३८) गमों सर्व सूक्ष्म २ | काय सूक्ष्मतर है? | सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक जीवों बादर-तेजसकायिक जीवों ३ | युवा, १० बार बार ५ | पृथ्वीकायिक जीव मरते हैं | १ | पृथ्वीकायिक जीव २,११, विहरण करता है? २.१५ २ | विहरण करता है? ३ | की भांति वक्तव्यता ३ | तैजसकायिक, ४ | वायुकायिक, | वनस्पतिकायिक की विहरण करता है? हां, है। इसी प्रकार अधःसप्तमी की हां, हैं। इस प्रकार अधःसप्तमी के अघोवर्ती द्रव्यों की द्रव्य (पुद्गल) द्रव्य-पुद्गल पूर्ववत् । उसी प्रकार। पृथ्वी के पृथ्वी के अधोवर्ती द्रव्यों की वक्तव्यता करने लगे। करते हैं। दूति-पलाशक दूतिपलाशक यावत् । बहुजन (भ. २/९४) यावत् बहुजन ऋग्वेद- यावत् ऋग्वेद (भ. २/२४) यावत् समर्थ तथा सामर्थ्य-युक्त हुए यावत् हुए (भ. १८/१३७) यावत् | विचरण ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, ग्रामानुग्राम | आठ किया यावत् क्रिया (भ. २/९७) यावत् १ । २ २ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध | ८ अनेषणीय । जो अनेषणीय । उनमें जो ९-११ अभक्ष्य हैं। जो अभक्ष्य हैं। उनमें जो १० अयाचित हैं, उनमें जो अयाचित हैं, ११ | अलब्ध। जो अलब्ध। उनमें जो १२ श्रमण निग्रंथों श्रमण-निग्रंथों २ प्रज्ञप्त है, द्रव्य-माष, काल-मास। प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य-माष, काल मास । उनमें जो जो द्रव्य-माष उनमें जो द्रव्य-माष जो अर्थ-माष उनमें जो अर्थ-माष जो धान्य-माष उनमें जो धान्य-माष | जैसे शस्त्र-परिणत जैसे-शस्त्र-परिणत -कुलथा। जो -कुलथा। उनमें जो प्रकार के प्रकार की ५ जो घान्य-कुलथा उनमें जो धान्य-कुलथा |ने वन्दन-नमस्कार को वन्दन-नमस्कार वक्तव्यता यावत् वक्तव्य है (भ. २/९४) यावत् १ जाननेवाला यावत् जानने वाला (भ. २/९४) यावत् २ रहने लगा रहता है। ४ शंख की भांति वैसे ही निरवशेष शंख की भांति वैसे ही निरवशेष वक्तव्यता यावत् (वक्तव्य) है (भ. १२/२७,२८) | यावत् शतक १९ १६. दीप, ६. द्वीप, हैं ।।२।। १ राजगृह नगर यावत् राजगृह (भ. १/४-१०) यावत् गौतम ने इस (गौतम ने) इस २ निवत्ति, निर्वृत्ति, मनुष्य गर्भ मनुष्य-गर्भ १ क्या वे सम्यग्-दृष्टि हैं? वे जीव क्या सम्यग्-दृष्टि हैं? वे जीव ज्ञानी हैं? वे जीव क्या ज्ञानी हैं? ३ नहीं है। किन्तु नहीं है, किन्तु अदत्तादान यावत् अदत्तादान (भ. १८८४) यावत् कहलाते हैं, यावत् कहलाते हैं यावत् ५ भी ये जीव हमारे वधक हैं इस प्रकार भी ('ये जीव हमारे वधक हैं। इस प्रकार | वक्रान्ति-पद अवक्रान्ति-पद वे जीव मारणान्तिक-समुद्घात वे जीव क्या मारणान्तिक-समुद्घात वक्रान्ति-पद अवक्रान्ति-पद अप्कायिक जीव अप्कायिक-जीव | पृथ्वीकायिक का गम पृथ्वीकायिकों का गम -जीव.....? -जीव०? | पृथ्वीकायिक की भांति वक्तव्यता इसी प्रकार (पृथ्वीकायिक-जीव (भ, इतना |१९/५) की भांति (वक्तव्य है)), इतना रहता है? की भांति इसी प्रकार (वक्तव्य है)। | तैजसकायिक भी। वायुकायिक भी | वनस्पतिकायिक भी रहता है? ३ अर्थ " | मनुष्यों मनुष्य | हैं? इसी प्रकार, इतना वहां उदीरित प्रासुक विहार प्रासुक-विहार ४ प्रासुक विहार प्रासुक-विहार २ सोमिल! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप |सोमिल! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, और संयम आदि ध्यान, आवश्यक आदि ३ | उदीप्त प्रासुक विहार प्रासुक-विहार २ | देवकुलों, स्त्री, पुरुष और नपुंसक- देवकुलों, सभाओं, प्रपाओं, स्त्रीरहित व्यक्तियों पुरुष- और नपुंसक-रहित वस्तियों ३ प्रासुक एषणीय पीठ-फलक प्रासुक-एषणीय पीठ, फलक विहार करता हूं ४ | प्रासुक विहार प्रासुक-विहार ३ (सदृश (सदृश४ धान्य-सरिसवय । जो धान्य-सरिसवय । उनमें जो | ६ जो धान्य-सर्षप उनमें जो धान्य-सर्षप , अशस्त्र-परिणत । जो अशस्त्र-परिणत । उनमें जो | अभक्ष्य है। जो अभक्ष्य हैं। उनमें जो १-२ | हैं? पूर्ववत् । इतना ३ विपरीत हैं ४ स्तनितकुमार की | मनुष्य की नैरयिक वैमानिक की यावत् रमणीय (भ. २/११८) द्रव्यार्थिक की दृष्टि यावत् स्पर्श पर्यव (भ. २/४९) इस प्रकार...... बंध यावत् यावत्। स्तनितकुमार हैं, यावत् वक्तव्यता । गंध-निवृत्ति प्रज्ञप्त हैं। पृथ्वीकायिक जीवों सम्यक् -दृष्टि-निवृत्ति विपरीत है स्तनितकुमार तक मनुष्य नैरयिकों वैमानिक (भ. २/११८) यावत् रमणीय द्रव्यार्थिक दृष्टि (भ. २/४९) यावत् स्पर्श-पर्यव यह पैरा पिछले पैरे के साथ है। बंध (भ. ८/४१३) यावत् रहता हूं यावत् स्तनितकुमारों हैं यावत् (वक्तव्यता)। इस प्रकार गंध-निवृत्ति प्रज्ञप्त है। पृथ्वीकायिक-जीवों सम्यग-दृष्टि-निवृत्ति

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