Book Title: Banarasivilas aur Kavi Banarsi ka Jivan Charitra
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 6
________________ ratiiiitichikitisthitiiiiiiiii उस्यानिका । आजकका समय उनके टीक प्रतिकृत है। विधाली न्यून दाने लगान द्रूनुद्धि बहुत बढ़ गई है। इन व्यिक मात्र प्रन्योन पठन पाठन को दूर है, दूसरने मन्यांकी निन्दा काना है और उसके प्रारमें बाधक बनना ही अपना धन समन्द हैं। , यदि धर्मकी रक्षा यहाँक नकृनाहित्यक भट्ट विष जातो. मुलता वैदिक, जन. और बाद तीन वानी है। पुग्नु माना हिन्दी साहित्यके वैदिक और जैन के दो ही हो मग ।। क्यात-जिन अन्य सामानादिलका प्रचुनाव हुन था, उसन मरतन धर्मका मामा नानप हो चुका था की मदद ही थोड़ा बहुत हानी हो तो उनकी भाषा हिन्दी नहीं यी। संकृतवाहिल्का झड़ कर हन यहां नामानाहिलो. मन्द Hontentstituttithilant. ....ki.kuta.ka.cut.mkatant.tutnt.time.kurukunk.sky............. ............................... . kuckrt....................... 1 काशी, आगरा आदिको नागरी प्रचारमा माग हिल्या प्रन्योका प्रकाशन, आलोचन परिचाननाद करती हैं, और उन उद्देश भी नहीं है । इन नमाात्र द्वारा नाणमाहिलो बहुत ई छुद्ध लाम पहुंचा है, परन्तु छेद है कि इन्स भी प्रभ - का मंजन नहीं हो सका है और महिलाओं ने जितनी मुरता और स्वादयता होनी चाहिं, इनमें नहीं है। इस बातली पुष्टिकलिये इतना ही पन्तन बहुत है है, अन्नबराइन बनानाने जितने अन्यों का प्रभागन-माओवन हुना है, उन जनजाहित्यका एक भी अन्य नहीं है। जहां तक ही दिदित है, इन समाओना कोई ऐसा नियम नहीं है कि, वैटिकनाहिल मचिरिन अन्यशहिला प्रश्नान आमोचन किया जा गा, परन्तु वैदिक के अनुयायी नदनांना उन्हू दत्तनमान ..........Put. e n 4 - - 0 . . . isht + - + - + - - - - H

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