Book Title: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth
Author(s): Saubhagyamuni
Publisher: Ambalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मोक्ष और मोक्षमार्ग | २६७
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का निर्देश कर अविद्या में सभी दोषों का समावेश किया है । उन्होंने अविद्या को सभी क्लेशों की प्रसवभूमि कहा हैं।४० इन्हीं पाँच क्लेशों को ईश्वरकृष्ण ने सांख्यकारिका में पांच विपर्यय के रूप में चित्रित किया है।४१ महर्षि कणाद ने अविद्या को मूल दोष के रूप में बताकर उसके कार्य के रूप में अन्य दोषों का सूचन किया है । ४२ अक्षपाद अविद्या के स्थान पर 'मोह' शब्द का प्रयोग करते हैं। मोह को उन्होंने सभी दोषों में मुख्य माना है । यदि मोह नहीं है तो अन्य दोषों की उत्पत्ति नहीं होगी।
कठोपनिषद्.४ श्रीमद् भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र में भी अविद्या को ही मुख्य दोष माना है।
मज्झिमनिकाय आदि ग्रन्थों में तथागत बुद्ध ने संसार का मूल कारण अविद्या को बताया है। अविद्या होने से ही तृष्णादि दोष समुत्पन्न होते हैं ।४६
जैनदर्शन ने संसार का मूल कारण दर्शनमोह और चारित्रमोह को माना है। अन्य दार्शनिकों ने जिसे अविद्या, विपर्यय, मोह या अज्ञान कहा है उसे ही जैनदर्शन ने दर्शनमोह या मिथ्यादर्शन के नाम से अभिहित किया है। अन्य दर्शनों ने जिसे अस्मिता, राग, द्वेष या तृष्णा कहा है उसे जैनदर्शन ने चारित्रमोह या कषाय कहा है । इस प्रकार वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा संसार का मूल अविद्या या मोह को मानती हैं और सभी दोषों का समावेश उस में करती हैं।
संसार का मूल अविद्या है तो उससे मुक्त होने का उपाय विद्या है । एतदर्थ कणाद ने विद्या का निरूपण किया है। पतंजलि ने उस विद्या को विवेकख्याति कहा है। अक्षपाद ने विद्या और विवेकख्याति के स्थान पर तत्त्वज्ञान या सम्यग्ज्ञान पद का प्रयोग किया है। बौद्ध साहित्य में उसके लिए मुख्य रूप से 'विपस्सना' या प्रज्ञा शब्द व्यवहुत हुए हैं । जैनदर्शन में भी सम्यगज्ञान शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार सभी भारतीय दर्शनों की परम्पराएँ विद्या तत्त्वज्ञान, सम्यग्ज्ञान, प्रज्ञा आदि से अविद्या या मोह का नाश मानती हैं और उससे जन्म परम्परा का अन्त होता है ।
आध्यात्मिक दृष्टि से अविद्या का अर्थ है अपने निज स्वरूप के ज्ञान का अभाव । आत्मा, चेतन या स्वरूप का अज्ञान ही मूल अविद्या है । यही संसार का मूल कारण है।
___वैदिक परम्परा ने साधना के विविध रूपों का वर्णन किया है किन्तु संक्षेप में गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म, इन तीनों अंगों पर प्रकाश डाला है ।
तथागत बुद्ध ने (१) सम्यग् दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वाक्, (४) सम्यक् कर्मान्त (५) सम्यक् आजीव (६) सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति और (८) सम्यक् समाधि को आर्य अष्टाङ्गिक मार्ग कहा है।४८ और मार्गों में उसे श्रेष्ठ बताया है।४६ बुद्धघोष ने संक्षेप में उसे शील, समाधि और प्रज्ञा कहा है ।५०
जैनदर्शन ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्षमार्ग कहा है ।५१
इस प्रकार समन्वय की दृष्टि से देखा जाये तो ज्ञान, भक्ति और कर्म; शील, समाधि और प्रज्ञा; सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यह मोक्षमार्ग है। शब्दों में अन्तर होने पर भी भाव सभी का एक जैसा है। शब्दजाल में न उलझकर सत्य तथ्य की ओर ध्यान दिया जाये तो भारतीय दर्शनों में मोक्ष और मोक्ष मार्ग में कितनी समानता है, यह सहज ही परिज्ञात हो सकेगा।
"ईश्वरकृष्ण
१ फिलॉसफी बिगिन्स इन वण्डर २ दर्शन का प्रयोजन, पृ०२६-डा० भगवानदास ३ (क) अथातो धर्मजिज्ञासा-वैशेषिकदर्शन :
(ख) दुःख त्रयाभिधाता जिज्ञासा-सांख्यकारिका १, ईश्वरकृष्ण (ग) अथातो धर्मजिज्ञासा-मीमांसासूत्र १, जैमिनी (घ) अथातो ब्रह्मजिज्ञासा-ब्रह्मसूत्र १११ ४ देखिए, भगवती आदि जैन आगम ५ अध्यात्म विचारणा, पृ०७४, पं० सुखलालजी संघवी, गुजरात विद्या सभा, अहमदाबाद
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