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चित्तदमन
१८५ अर्थ संसार समुद्र में भटकते हुए, महान कठिनता से जिन भाषित धर्म रूप जहाज को पाकर भी जो, मन रूप पिशाच के वशीभूत हो, उस जहाज को छोड़कर संसार समुद्र में गिरता है वह मूर्ख व अदूरदर्शी है।
विवेचन अगाध समुद्र को तरने के लिए जहाज की परम आवश्यकता है उसके बिना तरा ही नहीं जा सकता। यदि कभी कोई दुर्भाग्य से समुद्र में जा गिरता है और उसे जहाज का सहारा मिल जाता है फिर भी यदि वह किसी पिशाच के चक्कर में आकर उस जहाज को छोड़ देता है तब तो उसके जैसा अदूरदर्शी व महामूर्खाधिराज कौन होगा ? ठीक उसी तरह से हम सब भी संसार समुद्र में पड़े हुए हैं हमें वीतराग का उपदेश रूप धर्म जहाज मिला है फिर भी मनरूपी पिशाच के वश में होकर उस सद्धर्म रूप जहाज को छोड़कर फिर से संसार समुद्र में कूदते हैं अतः हम भी कम मूर्ख व अदूरदर्शी नहीं हैं । यह संसार समुद्रं बड़ा गहरा व दुस्तर है कोई विरले ही तैरते हैं, जो प्रयत्न करता है वह सफल होता है अतः सब जीवों को इस संसार समुद्र से तैरने का प्रयत्न करना चाहिये।
परवश मन वाले को तीन शत्रुओं से भय सुदुर्जयं ही रिपवत्यदो मनो, रिपूकरोत्येव च वाक्तनू अपि । त्रिभिर्हतस्तद्रिपुभिः करोतु किं पवीभवन् दुर्विपदां पदे पदे ॥६॥ - अर्थ-बड़ी मुश्किल से जीता जा सकने वाला यह मन शत्रु के जैसा आचरण करता है कारण कि वह वचन और
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