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वैराग्योपदेश
२२३ इन दृष्टांतों से अवश्य शिक्षा लेकर हमें सावधान हो जाना चाहिए।
प्रमाव-त्याग पुरापि पापैः पतितोऽसि दुःखराशौ पुनर्मूढ ! करोषि तानि । मज्जन्महापंकिलवारिपूरे, शिला निजे मूनि गले च धत्से ॥१५॥
अर्थ-हे मूढ़ ! पहले भी तू दुःख समूह में पड़ा है और फिर भी उनको (पापों को) कर रहा है। महा कीचड़ वाले पाणी के प्रवाह में गिरते हुए वास्तव में तूने अपने गले और मस्तक पर बड़ी शिला धारण कर रक्खी है ॥ १५ ॥
उपजाति विवेचन हे मूर्ख ! तूने पहले भी पाप किए थे जिससे दुःख में पड़ा है और अब उनसे दूर रहने की अपेक्षा फिर भी वैसे ही किये जा रहा है जैसे कि कोई आदमी गंदे कीचड़ के नाले में अकस्मात जा गिरा हो और उसके गले में पत्थर बंधा हो व सिर पर शिला धरी हो तो वह वहां से निकलने की अपेक्षा अधिक अधिक गहरा जाएगा तथा उसका शव भी हाथ नहीं लगेगा। पापी डूबता डूबता भी ऐसे पाप करता है कि जिससे वह अधिकाधिक संसार के दुःखों में गिरता है।
सुख-प्राप्ति और दुःख-नाश का उपाय पुनःपुनर्जीव तवोपदिश्यते, विभेषि दुःखात्सुखमीहसे चेत् । कुरुष्व तत्किचन येन वांछितं, भवेत्तवास्तेऽवसरोयमेव यत् ॥१६।।
अर्थ-हे जीव ! तुझे बार बार उपदेश दिया जाता है कि यदि तू दुःखों से डरता है और सुखों को चाहता है तो