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रसो. पर आसक्त न होना और प्रतिकूल रसो पर दोष न करना अपरिग्रह की चौथी भावना है।
- ५ स्पशनेन्द्रिय-रागोपरति-जिस इन्द्रिय से कर्कश, सुकोमल, हल्का, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष स्निग्ध प्रादि, का ज्ञान हो, वह स्पशनेन्द्रिय है। हृदयानुकुल स्पर्श से राग की निवृत्ति और हृदयप्रतिकूल स्पर्श से द्वेष की निवृत्ति का होना अपरिग्रहे है।
इन्द्रियो के इष्ट पाचो विपयो और उनके साधनो मे सभी प्रकार के परिग्रह का समावेश हो जाता है। उन पर. राग-द्वेष. न करना ही अपरिग्रह है । किसी इन्द्रिय-पोषक-पदार्थ से ममत्व , का त्याग न करना राग है, राग से निवृत्ति पाना ही अपरिग्रह. है। उप राग का ही सहचारी है। जहा राग है, वहा द्वप भीहै, राग की निवृत्ति होने से द्वष. भी स्वयः निवृत्त हो. जाता है। राग और द्वेप दोनो मोह की प्रकृतिया है। दोनो का साहचर्य अनादि काल से चला आ रहा है। होप नौवे गुणस्थान मे क्षय हो जाता है, जबकि राम दसर्वे गुण स्थान तक रहता है। इससे प्रमाणित होता है कि जो वीतराग हो गया है, वह निश्चय ही वीत-द्वेष भी है । राग से उपराम या निवर्तन ही द्वेपोपराम है।' ६. रात्रि-भोजन-विरमण-व्रत-- . - रात्रि मे-सूर्य उदय होने से पहले या सूर्य अस्त होने के बाद 'असणं पारण खाइम साइम' चार प्रकार का पाहार- जोवन भर के लिए ग्रहण न करना, सेवनान करना, रात्रि भोजन करने का किसी को आदेश न देना और न रात्रि-भोजन करने वाले का समर्थन करना, न ही रात्रि भोजन का उपदेश देना, साधु का कर्तव्य है । रात्रि भोजन परित्याग भी तीन योग और तीन करण योग : एक चिन्तन ]
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