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होती है। मानवता का स्तर नीचे न गिरने देना ही न्याय का मुख्य उद्देश्य है ।
हिंसा को लक्ष्य मे रखकर प्रायश्चित्त दिया जाता है और श्रात्मशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त लिया जाता है । यद्यपि प्रायश्चित्त के भी अनेक रूप हैं, तथापि जीवन-शुद्धि की दृष्टि से वे सब एक है । हितबुद्धि द्वारा की हुई दण्डव्यवस्था से यदि किसी को दुखानुभूति भी हो वह अशुभकर्मों का कारण नहीं हो सकती, क्योकि दण्डित करते समय गुरुजनो के भाव, दु.ख देने के नही होते । - साधु या साध्वी दूसरे साधक का केशलुचन भी करते है, पैर से काटा भी निकालते हैं, स्वस्थ करने की इच्छा से फोडे यादि को दबा कर पीप भी निकाल देते हैं, जिससे रोगी को पीडा भी होती है, किन्तु उसे हिंसा नही कहा जा सकता । विधि- मार्ग मे या निषेधमार्ग मे प्रवृत्त कराते हुए शिष्य का मन दुखित भी हो जाए तो भी गुरु का श्रहिंसा व्रत पित नही होता। वैसे ही प्रायश्चित्त देते हुए भी श्राचार्य पाप कर्म का वध नही करता, क्योकि अपने कर्त्तव्य का पालन करना भी न्यायोचित है ।
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प्रायश्चित्त देते समय गुरु जनो को भी यह ध्यान रखना चाहिये कि जिस स्तर का दोष हो उसकी निवृति उसी स्तर के प्रायश्चित्त से की जाए, अत दोपावस्था मे माधक के लिए प्रायश्चित्त अत्यावश्यक है । प्रमत्त अवस्था मे दोष यदा-कदा लग ही जाता है । प्रायश्चित्त के बिना दोषो की निवृत्ति नहीं हो सकती । प्रायश्चित्ती - करण भी सांधना का एक प्रमुखतम अङ्ग है ।
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योग एक चिन्तन ]
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