Book Title: Vir Vardhaman Charitam
Author(s): Sakalkirti, Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 250
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २१८ श्री-वीरवर्धमानचरिते [ १९.२३६नृदेवखेचराधीशा आर्या मेच्छाश्च मानवाः । अन्ये च त्रिजगजीवा बुभुजुर्यत्सुखं परम् ॥३६॥ भुञ्जन्ति यच्च भोक्ष्यन्ति तत्सर्व पिण्डितं भुवि । तस्मादन्तव्यतिक्रान्तं सुखं वाचामगोचरम् ॥२३७॥ एकेन समयेनैव भुङ्क्त मोक्षे निरन्तरम् । सर्वोत्कृष्टं जगद्वन्द्योऽनन्तकालान्तमूर्जितम् ॥२३८॥ तदा चतुर्णिकायेशाः सकलत्राश्च सामराः । तन्निर्वाणं परिज्ञाय स्वैः स्वैश्चिह्नः पृथग्विधैः ॥२३॥ विभूत्या परया साधं गीतनृत्यमहोत्सवैः । अन्त्यकल्याणपूजार्थमाजामुस्तत्र सिद्धये ॥२४०॥ पवित्रं तद्वपुर्मत्वा विभो निर्वाणसाधनम् । शिविकान्ते व्यधुर्मूत्या स्फुरन्मणिमये सुराः ॥२४॥ ततोऽभ्यर्च्य जगत्सारैः सुगन्धिद्रव्यराशिभिः । कायं मक्त्यानमन्मूर्भा रनशेखरशालिना ॥२४२॥ पर्यायान्तरमेवाप सुगन्धीकृतखाङ्गणम् । तद्गानं शीघ्रमग्रीन्द्रमुकुटोत्पन्नवाहिना ।।२४३।। तदादाय पवित्रं तद्भस्म शक्रादयोऽमराः । एवमस्माकमत्रास्वचिरानिर्वाणसाधनम् ॥२४४॥ इत्युक्त्वा प्रथमं चक्रुर्माले बाह्वोश्च दृग्द्वये । सर्वाङ्गेषु पुनर्भक्त्या मुदा तद्गतिशंसिनः ॥२४५॥ तत्रैव ते प्रपूज्योच्चैः पूतं तस्सुमहीतलम् । निर्वाणक्षेत्रसंकल्पं व्यधुर्धर्मप्रवृत्तथे ॥२४६॥ पुनर्देवा मुदा तुष्टा संमूय सममूर्जितम् । आनन्दनाटकं चक्रुर्देवीमिः परमोत्सवः ॥२४७॥ ततोऽस्य केवलज्ञानं श्रीगौतमगणेशिनः । प्रादुरासीत्सुशुक्लध्यानेन घात्यरिघातनात् ॥२४॥ तत्रापि ते महेन्द्राद्याश्चक्रुः कैवल्यपूजनम् । इन्द्रभूतेर्गणैः साधं तद्योग्यभूरिभूतिमिः ॥२४९॥ क्रमसे रहित, नित्य, स्वात्मीय, परम शुभ अनन्त सुखको भोग रहे हैं ।।२३४-२३५।। संसारमें नरपति, विद्याधरपति, देवपति, आर्य और म्लेच्छ मानव और अन्य भी तीन लोकके जीव जिस उत्तम सुखको वर्तमानमें भोग रहे हैं, भूतकालमें उन्होंने भोगा है और भविष्यकालमें वे भोगेंगे, वह सब यदि एकत्रित कर दिया जाये, तो उससे भी अनन्तगुणा वचन-अगोचर सुख मोक्ष में एक समयके भीतर भोगते हैं। ऐसा सर्वोत्कृष्ट सुख जगद्-वन्द्य वीर सिद्धप्रभु मोक्षमें निरन्तर अनन्त कालतक भोगते रहेंगे ॥२३६-२३८॥ अथानन्तर अपने-अपने पृथक् चिह्नोंसे भगवान्का निर्वाण जानकर समस्त चतुनिकायके देवेन्द्रोंने अपने-अपने देव-परिवारके साथ परम विभूतिसे गीत-नृत्यमहोत्सव करते हुए आत्मसिद्धयर्थ अन्तिम निर्वाणकल्याणककी पूजा करनेके लिए वहाँपर आये ।।२३९-२४०।। निर्वाणका साधक प्रभुका यह शरीर पवित्र है, ऐसा मानकर उन देवोंने चमकते हुए मणियोंवाली पालकीमें बड़ी भारी विभूतिके साथ उसे विराजमान किया ।।२४१॥ पुनः तीन जगत्में सारभूत सुगन्धी द्रव्य समूहसे उस शरीरकी पूजा कर भक्तिसे रत्नमुकुटधारी मस्तकसे उन्होंने उसे नमस्कार किया ॥२४२।। तत्पश्चात् अग्निकुमार देवेन्द्रके मुकुट से उत्पन्न हुई अग्निसे वह शरीर गगनाङ्गणको सुगन्धित करता हुआ पर्यायान्तर ( भस्मभाव ) को प्राप्त हुआ ॥२४३॥ ___ तब इन्द्रादिक देवोंने 'यह हमारे भी शीघ्र निर्वाणका साधक हो इस प्रकार कहकर उस पवित्र भस्मको हाथमें ग्रहण करके पहले मस्तकपर, फिर नेत्रोंमें, फिर बाहुओंमें, फिर हृदयपर और फिर सर्वांगोंमें भक्तिपूर्वक मोक्षगतिकी प्रशंसा करते हुए लगाया ॥२४४-२४५।। वहींपर उस उत्तम पवित्र भमितलको उत्कृष्ट भक्तिसे पजकर आगे धर्मकी प्रवृत्तिके लिए उसे निर्वाणक्षेत्र संकल्पित किया ॥२४६॥ पुनः हर्षसे सन्तुष्ट हुए उन देवोंने एकत्रित होकर अपनी देवियोंके साथ परम उत्सव पूर्वक आनन्द नाटक किया ॥२४७॥ तत्पश्चात् उत्तम शुक्लध्यानसे घातिकर्मशत्रुओंके घातनेसे उन श्री गौतम गणधरमें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ॥२४८।। वहाँपर जाकर उन उत्तम देवेन्द्रोंने सर्व गणके साथ उनके योग्य भारी विभूतिसे इन्द्रभूति केवलीके केवलज्ञानकी पूजा की ।।२४९।। For Private And Personal Use Only

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