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विद्यार्थी जैन धर्म शिक्षा । रहित हो। जो हर्ष, ईर्षा, भय, उद्वेगसे रहित हो वही मेरेको प्रिय है अर्थात् वही आत्मप्रेमी है। जो इच्छा रहित हो, पवित्र हो, चतुर हो, उदासीन हो, दुःख भावरहित हो, सर्व आरम्भका त्यागी हो, आत्मामे भक्त हो वही आत्मप्रेमी है। जो कभी न हर्म करता हे न द्वेष करता है, न शोक करता है न कामना करता है, जो शुभ या अशुभ भावोंका या फलोंका त्यागी है वही भक्त है, वही आत्मप्रेमी है । जो शत्रु मित्रमें, मान अपमानमें, शीत व उष्णमें, सुख व दुःखमें समान हो व परिग्रहरहित हो (वही आत्मरमी है)।
भा०-अहिंसा, सत्य, क्रोधका अभाव, त्याग, शाति, परनिदाका त्याग, प्राणियोंपर दया, लोलुपतारहितपना, मार्दवभाव, लज्जा व चपलताका अभाव, प्रभाव, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, वैर रहितपना, अभिमान रहितपना ये सब संपत्तिया पुण्यवान पुरुषके होती है।
नोट-ऊपर लिखित जो श्लोक दिये गए हे इनका सव तात्पर्य जैन सिद्धांतसे मिल जाता है। जैन सिद्धातमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यकूचारित्रकी एकताको मोक्षमार्ग कहा है, जो निश्चयसे एक आत्मध्यान ही है, जहा आत्मामें परमात्मारूपकी श्रद्धा हो, इसीका ज्ञान हो व उसीमें आचरण हो या लीनता हो। इसी मोक्षमार्गके प्रेमीको सम्यग्दृष्टी कहते हैं। सम्यग्दृष्टि परम तत्वको जानता हुआ आत्माके अतीन्द्रिय आनंदका आसक्त होता है। उसकी तृप्णा इन्द्रियोके नाशवन्त अतृप्तिकारी पराधीन सुखसे छूट जाती है। वह इस लाककी कोई संपत्तिको नहीं चाहता है । केवल आत्मानंदकी भावना करता है जो उसको आत्मध्यानसे आप ही प्राप्त हो जाती है । ऐसा तत्वज्ञानी गृहस्थमें रहते हुए जो कुछ पूर्व कर्मके उदयसे सुख