________________
भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[३५९ अर्थात् अकर्ता पुरुप है तोभी फल भोगता है। जैसे किसान अन्न पैदा करता है राजा भोगता है । जैन सिद्धात कहता है कि यदि
न्य दृष्टिसे वस्तुके स्वभावकी अपेक्षा विचार करो तो यह आत्मा नित्य अपने स्वभावमे रहनेवाला न राग द्वेका कर्ता है और न सुख दुखका भोक्ता है । परन्तु जब क्रम संयोगकी अपेक्षा विचार किया जायगा तब जैसे यह राग द्वेषादि भावोंका कर्ता है वैमे मै सुखी, मैं दुःखी इन भावांका भोक्ता भी है। कर्मका फल भोगे और का कोई और हो यह नहीं बन सक्ता है। किसान ग्वती करके उसका फल अपना पालन फल भोगता है। राजा प्रजाकी रक्षा करता है इसलिये किसान द्वारा दिया हआ कर लेकर उसे भोगता है। जिस दृष्टिसे भोक्ता है उस दृष्टिमे कर्ता भी है। जिस दृष्टिसे 'अकर्ता है उस दृष्टिसे अभोक्ता भी है। यदि पुरूषके परिणमन न माना जावे तो वह संसारमें मोही हो ही नहीं सक्ता है । परिणमन माननेसे ही संसार और मोक्ष दोनों बन सक्ते हैं। अकेली जड़ प्रकृतिमें ज्ञानमई रागादि नहीं होसक्ते है । जब मोह कर्मका विपाक होता है, तब आत्माका चारित्रभाव ढक जाता है व रागद्वेप भाव होजाता है। जैसे स्फटिकमणिमें लाल रङ्गकी उपाधि लगनेपर स्फटिकमणिका निर्मलपना ढक जाता है लालपना प्रगट होजाता है-स्फटिकके विना केवल लाल रङ्गके क्रांतिका होना असंभव है। इसी तरह पुम्पके विना केवल प्रकृतिके रागद्वेष होना असंभव है। प्रकृतिके संयोगवश आत्माके ज्ञानमें विकार होते है। यदि पुरुप या आत्माको परिणाम रहित मानेंगे तो वह सदा एकरूप ही रहना चाहिये । सो ऐसा प्रत्यक्षमें दीखता नहीं। जीवकी अवस्था एकरूप