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भगवद्गीता और जैनधर्म ।
[२६५ जयति सहजतेजापुंजमज्जत् त्रिलोकी। स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव वरूपः ॥ स्वरसविसरपूर्णाच्छिन्नतत्वोपलम्भः ।
प्रसनियमितार्चिश्चिचमत्कार एषः ॥२९-११॥
माः-स्वानुभवके समय सहज आत्मतेजके पुंजमें मानों तीन लोक इव गये है, सर्व विकल्प दूर होगये है, एक ही स्वरूप झलक रहा है । आत्मिक रसके विस्तारके पूर्ण अखण्ड एक तत्वका लाभ होगया है । वहां अत्यंत निश्चल आत्मज्योतिका ही चमत्कार होरहा है । यही वेदांत है, ज्ञानका अन्त है, ज्ञानका सार है । जहां आपको आपका ही स्वाद आवे वही सिद्धातका सार है । जैनधमका यह विवेचन स्वानुभवशी दगाका है । यदि वही ध्याता ध्यानसे हटे व विचारोंमें लगनावे तो उसे फिर यह छहों द्रव्य भेद प्रभेद सव दिखलाई पडेंगे । फिर जब वह स्वानुभवमें लय होगा, एक अद्वैत आत्मरसका ही पान करेगा।