Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Bhavvijay Gani
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 370
________________ 365 उत्तराध्ययन छन् । दृष्टान्तमाह-'जलेण वत्ति' जलेनेव पाशब्दस्येवार्थत्वात्, पुष्करिणीपलासं पद्मिनीपत्रं, जलमध्येपि सदिति शेषः ॥ ३४ ॥ इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सूत्राणि ज्याख्यातानि, एतदनुसारेणैव शेषेन्द्रियाणां मनसश्च त्रयोदश सूत्राणि खखविषयाख्यानपूर्व व्याख्येयानि, विशेषस्तु वक्ष्यते मूलम्-सोअस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेडं अमणुण्णमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥३५॥ व्याख्या-'सोअस्सत्ति' श्रोत्रेन्द्रियस्य ॥ ३५ ॥ मूलम्-सहस्स सोअं गहणं वयंति, सोअस्स सई गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ ३६॥ मूलम्-सहेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअं पावइ से विणास । रागाउरे हरिणमिएव मुद्धे, सहे अतिते समुवेइ मनुं ॥ ३७॥ ग्याल्या-'हरिणमिएच मुद्धत्ति' मृगशब्देन सर्योपि पशुरुच्यते ततो हरिणशब्देन विशेष्यते, हरिणचासौ मृगध हरिणमृगो हरिणपशुरित्यर्थः । मुग्धो हिताहितानभिज्ञः, शब्दे लुब्धकगीताद्यात्मके तदाकृष्टचित्ततया अतृप्तः सन्३७ मूलम्-जे आवि दोस समुवेइ तिवं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुइंतदोसेण सएण जंतू,न किंचि सहं अवरज्झई से ॥ ३८ ॥ एगंतरत्तो रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ सदाणुगासाणुगए अजीवे, चराचरे हिंसइऽणेगरूवे।चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्टे॥४०॥ व्याख्या-अत्र 'चराचरे हिंसइत्ति' वाद्योपयोगितायुचर्माद्यर्थ चरान् , वंशमृदङ्गकाष्ठाद्यर्थमचरांश्व हिनस्ति॥४०॥ मूलम् सहाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥४१॥ सद्दे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिं । अतुहिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ४२ ॥ व्याख्या--'अदत्तं' गीतगायकदास्यादि वीणावंशादिकं वा शोभनशब्दोत्पादकं वस्तु आदत्ते ॥ ४२ ॥ मूलम्--तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिगहे अ । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥ ४३ ॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पओगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सहे अतित्तो दुहिओ अणिस्तो ॥४४॥ सदा. णुरत्तस्स नरस्त एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निवतई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ४५ ॥ एमेव सइंमि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ४६॥ सबे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ४७ ॥२॥ घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेडं अमगुण्णमाहु, समो अजो तेसु स वीअरागो ॥ ४८॥ गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । तं रागहेडं तु मणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥ १९ ॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ ५० ॥

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