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अवश्य करनी चाहिए । पुरुष की शक्ति दिव्य है । उस शक्ति का उपयोग किये बिना, संतोषी बनकर बैठे रहने वाले, और जन्म भूमि तथा जन्मगृह के मोह में पड़े रहने वाले कायर पुरुष अपने जीवन की उन्नति कदापि नहीं कर सकते । ज्ञान और कला का बल होते हुए भी, जो आत्मोन्नति का कार्य करने में पिछड़े हुए रहते हैं, वे आत्म वंचना करते हैं । ऐसे आत्मवंचक मनुष्यों के ही कारण इस आर्य - भूमि की यह दुर्दशा हुई है । अपने ज्ञान तथा बल को, स्वार्थ साधन में व्यय करने वाले कायर पुरुषों का जन्म इस पृथ्वी पर भार रूप होता है। ऐसे लोग देश के कट्टर शत्रु गिने जाने चाहिए । अधम सेवा वृत्ति स्वीकार कर, अपने भाग्य को बेच देने वाले, तथा पराये भाग्य पर जीवन बिताने वाले लोगों का जन्म बकरी के गले के स्तनों की भाँति व्यर्थ है । इसलिए प्रत्येक युवक को ज्ञान- बल सम्पादन करके कर्मपरीक्षा के उद्देश्य से विदेश भ्रमण करना चाहिए और अपने पुरुषार्थ से यथा संभव मानव जाति का उपकार करना चाहिए । इसी में जीवन की सार्थकता है । धर्मवीर उत्तमकुमार ने भी अपने जीवन को सार्थक करने के लिए इसी प्रशस्त मार्ग का अनुसरण किया ।
चौथा परिच्छेद अश्व - परीक्षा
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मध्याह्न का समय था । शिशिरऋतु होने के कारण अंशुमाली - सूर्य की किरणों में तीव्रता थी ही नहीं । वन स्थली अपनी जीर्णशीर्ण पोशाक परित्याग कर, नयी पहिनने के लिए तैयारी कर रही थी । प्रत्येक वृक्ष से पतझड़ हो रहा था ऐसा मालूम होता था मानो वृक्षों के नीचे कीसी ने पीले रंग का गलीचा बिछा दिया | हो । शिशिरऋतु की शोभा जैसी चाहिए वैसी अच्छी नहीं होती, परन्तु हाँ वन लक्ष्मी नवीन शोभा प्राप्त करने के लिए विशेष उत्सुक रहती है । इसी वन में एक अश्वारोही घूमने-फिरने के लिए आया हुआ है । उसके पीछे घुड़ सवारों की
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