Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 51
________________ जानना चाहें तो बता दूं ?" मिस्त्री ने प्रसन्न होकर कहा - "भद्र ! यदि आप मुझे इस काम की त्रुटियाँ बता देंगे तो मैं आपका बहुत बड़ा आभार मानूँगा। कोर-करस जान लेने से ज्ञान की वृद्धि ही होती है।" । मिस्त्री के नम्र एवम् समयोचित वचनों को सुनकर वह युवक प्रसन्न हुआ और उसने हँसते - हँसते कहा - "महाशय ! मैं आपका सरल स्वभाव देखकर बहुत ही खुश हुआ हूँ । आप जैसे शुद्ध-हृदय-मनुष्य इस संसार में विरले ही मिलेंगे। अनेक अल्पज्ञ गुणीजन अपने गुणों का बहुत ही घमण्ड करते हैं । स्वयम् कला अथवा गुणों में अधूरे होते हुए भी “हम सर्वज्ञ है" ऐसा मिथ्याभिमान करते हैं । ऐसे लोग अपना ज्ञान कदापि नहीं बढ़ा सकते । कई एक व्यक्ति ऐसे भी होते हैं कि, यदि उनके कार्य में किसी प्रकार की त्रुटि दिखाई जाय तो वें अपने मन में अप्रसन्न होते हैं। और कई तो लड़ने-झगड़ने तक तैयार हो जाते हैं। आपके मन में वह ओछापन नहीं है, इसलिए आप अवश्य ही धन्यवाद के पात्र हैं ।" । उस तरुण पुरुष के ऐसे वचन सुनकर वह मिस्त्री अपने मन में बड़ा ही प्रसन्न हुआ । साथ ही उसने अपने काम में कसर बताने का आग्रह किया । उस तरुण ने मिस्त्री को शिल्प शास्त्र-द्वारा वह गलती दिखाई । मिस्त्री ने अपनी भूल सहर्ष स्वीकार की और वह बड़ा ही प्रसन्न हुआ। शिल्प विद्या का उसे धुरंधर पंडित देख मिस्त्री ने उसे धन्यवाद और शाबाशी दी और उसकी बुद्धि की मुक्त कंठ से प्रशंसा की। | मिस्त्री ने आनन्दित हो आश्चर्य पूर्वक प्रश्न किया - "भाई ! आप का शिल्प चातुर्य देखकर मुझे बड़ा ही आनन्द हो रहा है । आप कौन हैं । और यहाँ आने का क्या कारण है ?" तरुण ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया - महाशय ! मैं एक मुसाफिर हूँ । विदेशों के कौतुक देख ने की इच्छा से घूमने निकला हूँ। मेरी इच्छा होती है जहां पर रहता हूँ और मेरी इच्छा होती है वहाँ से चल देता हूँ।" | उस तरुण के यह वचन सुनकर मिस्त्री ने नम्रता पूर्वक कहा - "भाई ! यदि कृपा करके मेरे यहाँ रहो तो, मुझे बहुत लाभ होगा। दूसरों को जिससे लाभ

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