Book Title: Uttamkumar Charitra
Author(s): Narendrasinh Jain, Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ ज्योतिषी की बातों पर विश्वास कर, महेश्वरदत्त ने तत्काल ही सहस्त्रकला के विवाह की तैयारियाँ करना आरम्भ कर दी । विवाह की निमंत्रण पत्रिकाएँ लिख-लिखकर अपने इष्ट मित्रों को बुलाना आरम्भ कर दिया । विवाह के लिए विशाल और मनोहर मंडप तैयार करने के लिए कारीगरों को लगा |दिया । विविधभाँति के पक्वान्न तथा मिष्टान्न तैयार करने के लिए अच्छे-अच्छे चतुर रसोइयों को बुलाया । माँगलिक बाजों की ध्वनि से तथा सुहागिन स्त्रियों के मधुर मंगल गान से महेश्वर दत्त का आँगन गूंज उठा । इस प्रकार सहस्त्रकला के विवाहोत्सव की सब तैयारियाँ होने लगीं - और यह बात सारे नगर में हवा की | तरह फैल गयी। जब यह बात महाराजा नरवर्मा ने सुनी तो वह आश्चर्य में पड़कर विचार करने लगा - "अरे ! महेश्वरदत्त जैसे समझदार और चतुर सेठ ने यह क्या किया ? अभी वर का तो ठिकाना ही नहीं, और उसने विवाहकार्य शुरू भी कर दिया । ऐसी भूल तो कोई भी समझदार मनुष्य कदापि नहीं करेगा। इसमें अवश्य ही कुछ भेद होना चाहिए । दूरदर्शी सेठ महेश्वरदत्त ऐसी ना समझी का काम करे | यह बिलकुल असंभव है।" इसी तरह की चर्चा उस नगर में भी जनता के द्वारा जहाँ-तहाँ चल रही थी । लोग इस विषय में तरह-तरह की बातें कहते-सुनते थे । नगर सेठ की यह बात सुनकर राजा नरवर्मा आश्चर्य कर ही रहे थे कि इतने | ही में एक राजसेवक ने आकर कहा कि - "स्वामिन् ! नगर में ऐसी बातें सुनी जाती | है कि सेठ महेश्वरदत्त ने गुप्त रूप से अपनी पुत्री के लिए योग्य वर की तजवीज कर ली है और उसने अपने मन में यह भी निश्चय किया है कि अपनी पुत्री | सहस्त्रकला के विवाह कार्य से निपटकर, अपनी समस्त स्थावर जंगम सम्पत्ति की मालकिन सहस्त्रकला को एवं उसके पति को बना, स्वयं दीक्षा ले आत्मसाधना करेगा।" राज सेवक के यह वचन सुनकर राजा नरवर्मा आनन्द मग्न हो गया । उसके मन में भी पवित्र भावना प्रकट हुई । राजा ने अपने हृदय में विचार किया कि - "धन्य ! महेश्वरदत्त के कैसे पवित्र विचार है ? इस राज्य वैभव के समान 62

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116