________________
त्रैवर्णिकाचार |
३७
शौचस्थानसे कुछ दूर चल कर, निर्मल साफ स्थानमें बैठ कर, हाथ पैरोंको धोकर छने हुए जलसे दन्तवन करना प्रारंभ करे ॥ ५८ ॥
ॐ नमोऽर्हते भगवते सुरेन्द्रमुकुटरत्नप्रभाप्रक्षालितपादपद्माय अहमेवं शुद्धोदकेन पादप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ १ ॥ अनेनावशिष्टेन मृदंशेन पादौ प्रक्षालयेत् ॥ यह मंत्र बोलकर बाकी बची हुई मिट्टीसे पैरोंका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं ह्यौं असुझुर असुर सुकुरु भव तथा हस्तशुद्धिं करोमि स्वाहा ||२|| अनेन जलेन हस्तप्रक्षालनम् ॥
इस मंत्र को पढ़कर हाथोंका प्रक्षालन करना चाहिए ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं क्ष्वीं स्वीं मुखप्रक्षालनं करोमि स्वाहा ॥ ३ ॥ अनेन मुखप्रक्षालनम् ॥ इस मंत्रको पढ़कर मुँह धोवे ॥ ३ ॥
ॐ परमपवित्राय दन्तधावनं करोमि स्वाहा ॥ ४ ॥ अनेन दन्तधावनं दन्तानां कुर्यात् ।।
इस मंत्र को पढ़कर दाँतोंको जलसे साफ करे ॥ ४ ॥
कुरले करनाः
चतुरष्टद्विषद्रद्व्यष्टगण्डूषैः शुध्यते क्रमात् ।
मूत्रे पुरीषे भुक्त्यन्ते मैथुने वान्तिसम्भवे ॥ ५९ ॥
पेशाब करनेके बाद चार कुरले करनेसे और टट्टीके बाद आठ कुरले करनेसे मुखकी शुद्धि होती है। भोजन के बाद दोसे, मैथुनके बाद छहसे और उल्टीके बाद सोलह कुरलोंसे मुख सफा होता है ॥ ५९ ॥
पुरतः सर्वदेवाश्च दक्षिणे व्यन्तराः स्थिताः । ऋषयः पृष्ठतः सर्वे वामे गण्डूषमुत्सृजेत् ॥ ६० ॥
पूर्वकी तरफ प्राय: सब देवोंका निवास रहता है, दक्षिण तरफ व्यंतरोका निवास हैं सब ऋषि प्रायः पश्चिमकी ओर निवास करते है, अत: इन तीन दिशाओंमें कुरला न फेंके, अपनी बाईं ओर फेंके ॥ ६० ॥
पुनः पुनश्च गण्डूषनिष्ठीवं दूरतस्त्यजेत् ।
प्राङ्मुखोदङ्मुखो वा हि द्विराचम्य ततः परम् ॥ ६१ ॥ मौनतः पुण्यकाष्ठेन दन्तधावनमाचरेत् । मुखे पर्युषिते यस्माद्भवेदशुचिभाङ्गनरः ॥ ६२ ॥
और
किन्तु