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भगवान् श्री विगलनाथ/९३
नाम की परिचर्चा में सम्राट् कृतवर्मा ने कहा- 'बालक का शरीर विमल (उज्ज्वल) है। इसी प्रकार गर्भकाल में महारानी के विचार बहुत ही विमल (पवित्र) रहते थे, अतः इसका नाम विमलकुमार रखा जाना चाहिए। उपस्थित जनसमूह ने बालक को तत्काल गुण निष्पन्न नाम 'विमलकुमार' से सम्बोधित किया। विवाह और राज्य ___बाल क्रीड़ा करते हुए बालक विमल का शरीर क्रमशः बढ़ने लगा। उन्होंने शैशव व किशोरावस्था को पार कर यौवन में प्रवेश किया। भगवान् का समुज्जवल शरीर अत्यधिक आकर्षक होता चला गया। वे जिधर भी निकल जाते, उधर ही आबाल-वृद्ध लोगों की टकटकी लग जाती, सभी निर्निमेष हो जाते थे।
राजा कृतवर्मा ने पुत्र को सब प्रकार से समर्थ समझकर सुयोग्य राजकन्याओं के साथ उनकी शादी कर दी। वे इन्द्र की भांति भौतिक सुखों को भोगते रहे। सम्राट् कृतवर्मा अपनी आध्यात्मिक प्रवृत्ति को बढ़ाने हेतु पुरा विमलकुमार को आग्रहपूर्वक राज्य सौंपकर साधु बन गये।
विमलकुमार अब राजा बनकर कुशलता से राज्य का संचालन करने लगे! इनके पुण्य प्रताप से राज्य में न अतिवृष्टि थी, न अनावृष्टि और न महामारी के रूप में किसी रोग का आतंक हुआ। बालक और जवानों के मरने की तो लोग कहानियां ही सुनते थे। उनका राज्य बहुत ही निरापद था। दीक्षा
चारित्र मोहनीय कर्म का क्षयोपशम होने पर सम्राट् विमल अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपकर वर्षीदान दिया। विमल प्रभु की दीक्षा की बात सुनकर अनेक भव्यात्माओं के दिल पिघल गये। वे भी प्रभु के साथ दीक्षित होने की तैयारी करने लगे। ___ निश्चित तिथि माघ शुक्ला चतुर्थी को विशाल शोभा यात्रा के साथ प्रभु सहस्राम्र वन में आए। पंचमुष्टि लोच किया तथा एक हजार मुमुक्षु व्यक्तियों के साथ सामायिक चारित्र ग्रहण किया। प्रभु के उस दिन बेले का तप था।
दूसरे दिन धान्यकट नगर के राजा जय के यहां उन्होंने परमान्न (खीर) से पारणा किया।
दो वर्ष तक वे छद्मस्थ काल की साधना करते रहे। विविध तप और विविध अभिग्रहों के साथ ध्यान से कर्मों की महान् निर्जरा करते हुए वे पुनः दीक्षास्थल पर पधारे । शुक्ल ध्यानारूढ़ होकर उन्होंने पौष शुक्ला छठ को सर्वज्ञता प्राप्त की।
जन्मभूमि के लोगों की भारी भीड़ प्रभु के दर्शनार्थ उमड़ पड़ी प्रथम प्रवचन में ही साधु- साध्वी, श्रावक तथा श्राविका रूप तीर्थ की स्थापना हुई।