________________
१०२/तीर्थकर चरित्र
लोकोत्तर पथ पर आने का आह्वान किया। अनेक व्यक्तियों ने आप से धर्म की उपासना के नियम ग्रहण किये। तेजस्वी धर्मसंघ
भगवान् धर्मनाथ के धर्मशासन में अनेक शक्तिशाली राजनायकों ने लोकसत्ता को छोड़कर प्रभु द्वारा निरूपित आत्म- उपासना का मार्ग ग्रहण किया। धर्मसंघ की आन्तरिक तेजस्विता साधकों की प्रबल साधना से स्फुरित होती है। बाहरी तेजस्विता तत्कालीन युग-नेता एवं सत्ताधीशों के धर्म के प्रति झुकाव से परिलक्षित होती है। जहां समुदाय हैं, वहां दोनों प्रकार की तेजस्विता अपेक्षित है। प्रारम्भिक साधना काल में निर्विघ्नता रहे, इसके लिए बाहरी तेजस्विता भी आवश्यक है। इतिहास साक्षी है, जब-जब धर्मशासन बाहरी तेजस्विता से हीन हुआ, तब-तब धर्म समुदाय पर संकट आए और धर्मसंघ छिन्न-भिन्न तक हो गया।
भगवान् धर्मनाथ के शासन काल में आन्तरिक तेजस्विता के साथ बाहरी वर्चस्व भी पर्याप्त रूप से बढ़ा हुआ था। हर क्षेत्र के लोग धर्म के प्रति आस्थावान् बने हुये थे। चार शलाका-पुरुष
पूरे अवसर्पिणी काल में तिरेसठ महापुरुष होते हैं, उन्हें 'शलाका-पुरुष' कहा जाता है। तिरेसठ में एक तो धर्मनाथ प्रभु स्वयं थे। चार और शलाका पुरुष उनके शासन काल में हुये थे।
भगवान् के सर्वज्ञता प्राप्त करने से पहले प्रतिवासुदेव निसुंभ को मारकर वासुदेव पुरुषसिंह और उनके बड़े भाई बलदेव सुदर्शन क्रमशः पांचवें वासुदेव और बलदेव के रूप में पृथ्वी के उपभोक्ता बन गये थे। भगवान् सर्वज्ञ होने के बाद जब अश्वपुर पधारे तब दोनों भाइयों ने प्रभु के दर्शन किये तथा प्रवचन सुनकर भगवान् के परम भक्त बन गये । वासुदेव की मृत्यु के बाद बलदेव सुदर्शन ने भगवान् के पास संयम लेकर मोक्ष प्राप्त किया।
प्रभु के शासनकाल में दो चक्रवर्ती भी हुए। तीसरे श्री मघवा तथा चौथे श्री सनत्ककुमार। सावत्थी नगरी के राजा समुद्रविजय के पुत्र मघवा का जन्म चौदह महास्वप्नों से हुआ था। उन्होंने जवानी में प्रवेश किया, तब आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ। समस्त भरत क्षेत्र के एकछत्र चक्रवर्ती बने । सभी राजा उनके आज्ञानुवर्ती थे । इतने विशाल साम्राज्य को पाकर भी वे धर्म को एक क्षण के लिए भी नहीं भूले तथा सदैव लोगों को प्रेरणा देते रहे । चक्रवर्ती मघवा की भावना में एक बार उत्कर्ष आया और अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपकर भगवान् के उत्तरवर्ती आचार्य के पास दीक्षित होकर साधना की और मोक्ष को प्राप्त किया। कई ग्रन्थों में उनके देवलोक में महर्धिक देव बनने का उल्लेख मिलता है।