Book Title: Sutrakritanga Sutram Part 03
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Jain Shastroddhar Samiti

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Page 541
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३० - - - --- सूत्रकृतामसत्र स लोके कीदृशो भवति तबाहमूळम्-से ह चक्ख मणुस्साणं जे खाए य अंतए । अंतेण खुरो वहई चक अंतेणे लो?ई ॥१४॥ छाया-स हि चक्षु मनुष्याणां यः कांक्षायाश्च अन्तकः । ___ अन्तेन क्षुरो वहति चक्रमन्तेन लुठति ॥१४॥ अन्वयार्थ:--(जे) यः मुनिः (कंखाए) काङ्गायाः शब्दादिविषयाभिलापायाः (अंतए) अन्तकः पर्यन्तवर्ती भवति (से) सः (हु) निश्चयेन (मणुस्साणं) मनु. तात्पर्य यह है कि जो संयम के स्वरूप का वेत्ता है वह मन बचन काय से किसी के साथ विरोध न करे। जो ऐसा करता है वही तत्वदर्शी है ॥१३॥ 'से हु चक्खू मणुस्साणं' इत्यादि। शब्दार्थ-'जे-या' जो मुनि 'कंखाए-काङ्क्षायाः' शब्दादि विषय की अभिलाषा का 'अंतए-अन्तका' पर्यन्तवर्ती है 'से-सः' वही 'हु' निश्चय से 'मणुस्साण-मनुष्याणाम्' मनुष्यों के अर्थात् प्राणियों के 'पक्खू-चक्षुः' नेत्ररूप है 'खुगे-क्षुरः' अस्तुरा 'अंतेण-अन्तेन' अंतिम भाग से 'वहई-बहति' कार्य करता है और जैसा 'चक-चक्रम्' रथका चक्र 'अंतेण-अन्तेन' अंतभाग से लोहई-लुठति' चलता है ॥१४।। अन्वयार्थ-जोमुनि कांक्षा अर्थात् शब्द आदि विषयों की अभिलाषा से पर्यन्तवी होता है उनसे दूर हो जाता है, वह निश्चयपूर्वक मनुष्यों के તાત્પર્ય એ છે કે-જે સંયમના સ્વરૂપને જાણવાવાળો છે, તે મન, વચન, અને કાયાથી કેઈની પણ સાથે વિરોધ ન કરે. આ પ્રમાણે જે કરે છે, એજ તવદશી તત્વને જાણનાર છે ૧૩ ___ 'से हु चक्खू मणुस्साण' त्यादि शहाथ-'जे-यः' २ मुनि 'कंखाए-काक्षायाः' शvalle विषयी अमितावान। अतए-अन्तकः' ५५-तत छे 'से-मः' ते 'हु' निश्चयथा 'मणुम्साण-मनुष्यानाम्' भनु याना अर्थात् प्रालियाना 'चक्खू-चक्षुः' २३३५ छ. 'खुरो-क्षुरः' अरतरे। 'अ'तेण-अन्तेन' अतिम थी 'वहइ-वहति' आय अरे छे. मने रेभ'चक-चक्रम्' २थनु य: 'अंतेण-अन्तेन' मत माथी 'लोदुइ-लुठति' यासे छ. ॥१४॥ અન્વયાર્થ––જે મુનિ કાંક્ષા અર્થાત્ શબ્દ વિગેરે વિષયેની અભિલા પાના પર્યન્તવર્ણી હેય છે. તેનાથી દૂર થઈ જાય છે. તે નિશ્ચય પૂર્વક For Private And Personal Use Only

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