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गुरु सेवा पर्याप्त अध्ययन किया था। विद्वान का धन शास्त्र हुअा करते हैं । शास्त्र का अपने पास रखना पठनपाठन की दृष्टि से भी आवश्यक है। किन्तु आपने गुरु के स्वर्गवास के पश्चात् जो कुछ शास्त्र उनके पास थे वह सब अपने बड़े गुरु भाई मुनि श्री शिवदयाल जी के अधिकार में दे दिये। अब आपके पास कोई भी सूत्र ग्रन्थ नहीं रहा । __ उन दिनों छापे का प्रचलन आरम्भ ही हुआ था, किन्तु उसमें लौकिक ग्रन्थ ही छपते थे। धर्मग्रन्थों के छापने का तब तक रिवोज नहीं चला था। इसलिये हस्तलिखित ग्रन्थों को तय्यार करने तथा कराने में बहुत परिश्रम पड़ता था। साधुओं के लिये तो ग्रन्थों का महत्व और भी अधिक था, क्योंकि वह न तो मूल्य देकर लिखा सकते थे और न मोल को ही ले सकते थे। जब कभी किसी नवीन वैरागी को दीक्षा दी जाती थी तो उसके लिये शास्त्र मंगबाए जाते थे। उस समय लिखे हुए नवीन ग्रन्थों के मंगवाने पर बड़ी भारी रकम खर्च हुआ करती थी। बड़े बड़े शास्त्रों का मूल्य हजार डेढ़ हजार रुपये तक होता था। लिखाई की दर प्रायः एक रुपये के बीस श्लोक होते थे तथा एक श्लोक में बत्तीस अक्षर गिने जाते थे। आज तो एक रुपये के दस श्लोक भी कठिनता से लिखे जाते हैं। अस्तु उस समय अपने पढ़ने के सूत्र ग्रन्थों को अपने बड़े गुरु भाई को निरीह भाव से दे देना मुनि सोहनलाल जी के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण था।