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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी होशियारपुर सम्मेलन के पश्चात् वहां से सभी प्रतिनिधियों ने अजमेर की ओर विहार कर किया। 'र्ग पर्याप्त लम्बा था। कहां पजाव और कहां मारवाड़ ? बड़ी लम्बी और कठोर यात्रा थी। किन्तु जैन मुनि यात्मिक कर्तव्य की तुलना में शारीरिक कष्ट को चिन्ता नही क्रिया करते । प्रतिनिधियों मे गणी उदयचन्द जी ही सव से वृद्ध थे। उनका शरीर रोगी भी था। किन्तु उनका सन रोगी नहीं था । अतएव उपाध्याय आत्माराम जी महाराज तथा युवाचार्य काशीराम जी महाराज के समान तेज न चलते हुए भी वह अपने मार्ग पर आगे बढ़ते ही गए । प्रायः प्रतिनिधियों ने १९८८ का चातुर्मास अजमेर के मार्ग में ही किया । गणी उदयचन्द ी ने यह चातुर्मास रामपुरा मे किया।
चातुर्मास समाप्त होने पर उन्होंने फिर अजमेर की ओर विहार कर दिया। आप लोग मालेरकोटला, नाभा, कैथल, दिल्ली, अलवर, जयपुर तथा किशनगढ़ मे धर्म प्रचार करते हुए अजमेर पहुंचे।
अजमेर की जैन तथा अजैन सभी जनता इस अवसर पर अत्यधिक प्रसन्न थी। इसको इस बात का गौरव था कि दूर दूर देश के मुनिराज मार्ग की अनेकानेक भयकर कठिनाइयो संहन करते हुए अजमेर पधारे थे। गुजरात, कच्छ, काठियावाड़, मारवाड़, मेवाड़, पंजाब, उत्तरप्रदेश और मालवा आदि सभी प्रान्तों के मुनिराज अजमेर में आ रहे थे। वास्तव में स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय का विराट रूप अजमेर में ही देखने को मिला । उसको देखकर इतिहासकार वल्लभी तथा मथुरा के जैन सम्मेलनों को स्मरण कर रहे थे। लगभग हज़ार पन्द्रह सौ वर्षे के बाद अजमेर को वल्लभी तथा मथुरा के जैसा सम्मान प्राप्त हुआ।