Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 350
________________ ( ३४८ ) वली फरीने पण कांइक विशेष कहे बे. पृथ्वीवृत्तम् ॥ विवेकवनसारिणीं प्रशमशर्मसंजीविनीम, नवार्णवमहातरीं मदनदाव मेघावलीम् ॥ चलाक्षमृगवागुरां गुरुकषायशैलाश निम् विमुक्तिपथवेसरीं नजत जावनां किं परैः ॥ ८७ ॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! ( जावनां के० ) शुभजावा (जत के० ) सेवन करो ( परैः के० ) बीजा कष्टानुष्ठानोयें करी (किं के० ) शुं ? काहींज नहिं : अर्थात् शुनाव रहित अनुष्ठानो करवायी शुं ? कांहीज नहिं. ए जावना केहवी बे ? तो के ( विवेकवनसारिणीं के० ) कृत्याकृत्य विचाररूप जे वन ते वनमां कुल्यारूप, तथा वली ( प्रशमशर्मसंजीविनीं के० ) उपशम सुखने जीवन करनारी तथा ( जवार्णवमहातरी के० ) संसार समुद्रने विषे महोटा नावसमान, तथा ( मदनदावमेघावली के० ) कामदेवरूप जे वनाग्नि तेने विषे मेघसमान, तथा ( चलाक्षमृगवागुरां के० ) चंचल एवी जे इंद्रियो ते रूप जे मृग तेने विषे मृगजालपाशबंधनरूप, त

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