Book Title: Sindur Prakar
Author(s): 
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAWoloricoloiselsotricollasoolcolololcofoolsolates श्री जिनायनमः श्री सोमप्रजाचार्य विरचित श्री सिंदूर प्रकर SEAROGYOHOGYOn@GOOGYOOOOOOOOGycy@oferoyOTOGyayorycyoobyeayory@aeoyoGyooyeserve आ ग्रंथ मूल, टीका, नाषा, बालावबोध अने कथा सहित बे. तेने यथामति संसोधन करावीने, श्रावक, नीमसिंह माणकें श्री मोहमयी पत्तन मध्ये निर्णयसागर छापखानामां छपावी प्रसिद्ध कर्मो के. संवत् १९५८.सि ARTH ORDYOOOOOGHAR वैशाख शुद्धि वयोवारRecogencyceo@ecoYOTATEMENT IN NEPAL Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. “ "" सिंदूर प्रकर या अपूर्व ग्रंथमां तेना कर्त्ता श्री शोमप्रजाचार्य महाराजे नीति आदि विषयोनुं यथातथ्य एवं तो निरूपण करेलुं वे के, ते वांचक वर्गना हृदयमां वांचवानी सार्थेज निति विगेरेनी सजाड बाप बेसाडी दे बे. या अलौकीक ग्रंथ प्रथम शेठ जीमसी जाइए " जैनकथा रत्नकोष ना " प्रथम जागमां बपावेल हतो. ते ग्रंथनी तमाम प्रतो थरही बे. तेज या ग्रंथनी महत्वत्ता दर्शावी थापे बे. तेमज तेन मांगणी घेणे स्थलेथी थाय बे तेथी अमोए आ " सिंदूर प्रकर " ग्रंथ मूल, टीका, जाषा बालावबोधाने तमाम कथा सहित जूदो बपाव्यो बे. ग्रंथ वांच्या पी ते फरी फरी वांचवा मन थाय बे. मतलब तेमां समावेल विषय धर्मोपयोगी होवानी साथै संसार व्यवहारीपयोगी पण होवाथी ए ग्रंथ कंठाग्रे यतां अलभ्य लाभ आपवा परिपूर्ण सम बे. वांचनार साहेबोने तेंमां निरुपण करेली बाबत piage वाज स्वरुपे परिणम्या रहे नहीं एवी ए ग्रंथकारनी चमत्कृति बे, घने तेथी तेमांना विषयो Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. हृदयमा प्रवेश थवानी साथे तेवी रीतनी प्रवृति श्र. वस्य निःसंदेह थव शके एम कही शकाय तेम . जेथी वीतराग परमात्मानी नक्तिमां लीन थइ श्रा असार संसारसमज तरी पार पडवाने समर्थ थवाय बे अने तेथी या ग्रंथ एक नौका समान . श्रा ग्रंथनो जेम जेम विशेष जैन ना लाजले तेवी मारी जीज्ञासा होवाथी फक्त था एकलोज ग्रंथ जूदो प्रसिद्ध कर्यो . आ ग्रंथ उपाववामां दृष्टी दोषथी अगर मतिमंदताने लीधे कांपण न्यूनाधिक वचन सिझांत विरुफ लखायुं होय ते मीथ्या पुष्कृत हो, अने तेवी कोइ नूल होय तो ते वांचनार श्रीसंघे सुधारी वांचवा कृपा करवी. उपाया पड़ी श्रमारा जोवामां जे कोश् नूलो श्रावी ते संबंधी शुद्धिपत्र श्रा ग्रंथने बेडे दाखल कर्यु ते मुजब प्रथम सुधारी लश वांचवा प्रयत्न करशो एवी श्राशा . मुंब. ता. १० मी मे.) लां. श्रावक, शने १०२ नीमसिंह माणेकना J कार्य प्रवर्तको. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्य पुस्तकस्यानुक्रमणिका. सिंदूरप्रकराख्यग्रंथनी अनुक्रमणिका. क्रमांक. विषय. पृष्ठांक. १ मंगलाचरण तथा सांजवनाराने आशीरवाद. १ २ बीजा काव्यमां सजनपुरुषोप्रत्ये ग्रंथकर्तानी विज्ञप्ति. ५ ३ त्रीजा काव्यमां आगमानुसारें जव्यजनने हितोपदेश. ७ ४ धर्मने विषेप्रमाद न करवा आश्रयी ललितांग कुमरनीकथा११ ५ चोथा काव्यमां मनुष्यनवर्नु पुर्खनपणुं वखाण्यु . ३३ ६ मनुष्यनवना पुर्खलपणाविषे दश दृष्टांतनी दश कथा. ३६ ७ पांचमा काव्यमां मनुष्यजवनो सर्वोत्कृष्ट जय कह्यो .६४ बम काव्यमांसंसारना विषयमाटें धर्मनो त्याग करनारमू.६७ ए मूढ अमूढ उपर शशी अने सूर बे लाडनी कथा. ७० १० सातमा काव्यमां मनुष्यजन्मनु तथा धर्मसामग्रीमुंपुर्ख. ७३ ११ आठमा काव्यमांए ग्रंथमां कहेला उपदेशनांधारो कह्यां७५ १२ नवमाथी बारमा श्लोकमांश्रीतीर्थकरनी नक्तिनुं वर्णन ७ए १३ तेरमाथी शोलमा श्लोकोमा गुरुनी नक्तिनुं वर्णन जे. ए १४ कुबोधना विदलन करनार श्रीगुरु नेते उपर सूर्याजदेवनी.एन १५ गुरुसेवा करनार उपर श्रीगौतमस्वामीनी कथा. १०ए १६ सत्तरमाथी वीशमा श्लोकोमा जिनमत तथा सिद्धांतमा.१११ १७ सिद्धांतश्रवण उपर रोहिणीया चोरनी कथा. .... ११५ १० एकवीशथी चोवीशमा काव्य पर्यतसंघनो महिमा कह्यो.१३२ १ए श्रीसंघमहिमा उपर जरतचक्रवर्तीनी कथा. .... १५० २० पच्चीशथी अभावीशमा श्लोकमां हिंसानो निषेध कह्यो.१४७ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. २१ जीवदयानी उपर दामनकनी कथा कही जे. .... १५७ २२ उंगणत्रीशथीबत्रीशमाश्लोकोमांसाचुंबोलवानोप्रनाव.१६४ २३ सत्यवचन उपर वसुराजानी कथा कही . .... १७५ २४ तेत्रीशथी उत्रीशमा श्लोकमांश्रदत्तादानव्रत स्वरूपले.१०० २५ श्रदत्तव्रत उपर नागदत्तनी कथा. .... .... १७७ २६ साडत्रीशथी चालीशमा श्लोकोमां ब्रह्मचर्यनुं स्वरूप. १९१ २७ एकतालीशथी चुम्मालीशमा श्लोकपर्यंत परिग्रहनादोष२०१ २७ परिग्रह विषे मम्मणशेउनी कथा. .... .... २१५ शए पीस्तालीशथी उंगणपञ्चाशमा काव्यमांक्रोधनो जय .२१५ ३० क्रोध त्यागनी उपर गजसुकुमारनी कथा. .... २२५ ३१ गणपच्चासथी त्रेपनमा काव्योमा मानना दोष कह्या. २२६ ३५ मानना त्याग उपर नंदीषेणनी कथा. .... .... २३५ ३३ त्रेपनथी उपन्नमा काव्योमा मायानो त्याग कह्यो बे. २३७ ३५ सत्तावन्नथी शाउमा काव्यसुधी लोजनो त्याग कह्यो. २४३ ३५ लोजनी उपर सागरशेउनी कथा कही बे. .... २५३ ३६ एकशरथीचोशमा काव्योमांसौजन्यता राखवानो उप.२५७ ३७ सौजन्य उपर विक्रमराजानी कथा कही . .... २६६ ३७ पांसपथी अडशमा काव्योमांगुणीजनना संगनुंवर्णन.२७५ ३ए सारा नरसानी संगत उपर बे पोपटनी कथा. .... २०५ ४० उंगणोतेरथी बहोंतेरमा काव्यसुधी इजियजयनो उपदेशश्न ४१ इंजियदमन उपर सात्यकीनी कथा. .... .... २९६ ४५ त्रहोंतेरथी होंतेरमा काव्यसुधीलदमीनो स्वजाव क. ३०२ ४३ लदमीनी चंचलता विषे सुंदरराजानी कथा. .... ३१२ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ अनुक्रमणिका. ३२२ .... ४४ सत्योतेरथी एंशीमा काव्योमां दाननो उपदेश बे. ३१३ ४५ दान पूजा विषे अमरसेन वीरसेननी कथा. ४६ एकाशी थी चोराशीमा काव्योमां तपनो उपदेश बे. ३३२ ४७ तप उपर वसुदेवना जीव नंदीषेणनी कथा. ३४२ ३५३ ... ४० पञ्चाशी माथी घाशी मां काव्योमां शुभभावनो उपदेश. ३४३ ४ नेव्याशीथी बाणुमा काव्योमां वैराग्य दर्शाव्यो वे. ५० वैराग्यनी उपर सनत्कुमारनी कथा कही बे. . ३६१ २१ त्राणुथी अणुमा काव्यसुधी सामान्य उपदेश बे. ३७० २२ नवाणुमा काव्यमां ग्रंथनुं समर्थन कर बे ३८२ २३ सोमा काव्यमां प्रशस्ति करीने ग्रंथ समाप्त करयो वे. ३०३ .... Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांनु. लीटी. १२-१८ २५- ए ३७-१९ ५७ - १. १४- ५ ८२-१२ ८३-१० ८३—१६– GU—५-६- -- ए११- ६– ए३– ए३-२० १-१८ ए - १. १०४-१० ११८ १२- ५ १३- ४ --- १५०-१४ १६०-११ १६७-१४ शुद्धिपत्र. अशुद्ध. व्रतरुचौ पीठगे प्रसन्नपणे आषो ( उषलं के० ) पुष्योयें त जा पूजा बता बतो ( साम्राज्य के ० ) ( साम्राज्य के० ) श्रथात वध्यमुक्तेति यत्पुण्यमुत्पद्यते जानए धर्मध काथोऽप्रियोपि शुद्ध. व्रतरुचौ श्रापत वल 1 सत्पार्चिर्यद सागरपोताना प्रजातजवनं दीगे प्रतुन्नपणे आपो ( उपलं के० ) पुष्पोयें ति अर्थात वधमुक्तेति यत्पुष्यमुत्पद्यते जानए धर्माधम काथोsप्रियोsपि अपत वली सत्पाच्चिर्यदि सागरपोतना प्रजावजवनं Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरषने शुक्तिमनी १७१-३१७१-१२१७३- ए१७५-- - १७५-२०१९५-३२०६-६२०७-३२०ए-१ए२१-१५शए-१५ ए-१०२३३-१२२३०- ४२६०-१४३०५-१६३०३-- - ३१५-११३१०-१३६१-१५- शुद्धिपत्र. (अपत्यय के०) (अप्रत्यय के०) आसत्य असत्य पुरुषने शुक्तिमती जूदा जूदा गुनवनकां गुनवनकों वनवा वनना विश्रामन्नुः, विश्रामन्नूः, क्रीडगृह मित्यर्थ क्रीडागृहमित्यर्थ (धर्म के० ) (धर्म के०). तेना तेनो गणोतो गण तो करति करतूति दूरतोमुंज दूरतोमुंच यशश्चयादि यशश्चयादि (वीनगाश्व के०) (नीनगाईव के०) धूमस म्हनी धूम समूह नी शुनाशुनकर्मज शुनाशुनकर्मजे हेतका हेतकों वेराग्य वैराग्य Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ॥श्रीसिंदूरप्रकरः प्रारभ्यते ॥ Me प्रथम ग्रंथना प्रारंजमां ग्रंथकर्ता पोताना जे इष्टदेव तेना चरणस्मरणरूप मंगलाचरण पूर्वक श्रा ग्रंथ सांजलनाराउने आशीर्वाद कहे जे. ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तछयम् ॥ ॥ सिंदूरप्रकरस्तपःकरिशिरःकोडे कषायाटवी, दावाचिनिचयःप्रबोधदिवसप्रारंनसूर्योदयः॥ मुक्तिस्त्री कुचकुंन ( वदनैक) कुंकुमरसःश्रेयस्तरोः पल्लव,प्रोल्लासःक्रमयोर्नखद्युतिनरः पार्श्वप्रनोः पातु वः॥१॥ अर्थः-(पार्श्वप्रजोः के) श्रीपार्श्वनाथ प्रजुना (क्रमयोः के०) चरण जे तेमना ( नख के) नख, तेनी ( द्युती के०) कांति, तेनो (नरः के०) समूह ते ( वः के० ) तमोने (पातु के०) रक्षण करो. हवे ते नखकांतिसमूह केहवो ले ? तो के ( तपः के०) तपरूप (करी के० ) इस्ती, तेना ( शिरः के०) मस्तक, तेनो (क्रोडे के०) मध्यनाग जे कुंनस्थल Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) तेने विषे ( सिंदूरप्रकरः के) सिंदूरना पुंज समानडे, वली (कषाय के०)क्रोध, मान, माया, लोन, ते रूप (अटवी के० ) वन, तेने बालवा माटे (दावार्चिर्निचयः के० ) वनना अग्निनी ज्वालानासमूहनी तुल्य बे. वली (प्रबोध के ) ज्ञान ते रूप जे ( दिवस के ) दिवस तेनो (प्रारंज के ) उदय, तेने विषे ( सूर्योदयः के०) सूर्योदय सदृश , वली (मुक्तिस्त्री के) मुक्तिरूप जे स्त्री, तेना (कुचकुंन के )) स्तनकुंज, तेने विषे (कुंकुमरसः के ) कुंकुमरसना लेपन समान , तथा ( श्रेयस्तरोः के०) कल्याणरूप जे वृद तेना ( पद्धव के०) नवांकुर तेनो ने (प्रोडासः के०) उत्पत्ति जे थकी, एवो बे. श्रा श्लोकमां नखकांतिसमूहनी रक्तता , माटें सिंदूरप्रकरनी उपमा श्रापी जे. तथा वली था श्लोकमां को ठेकाणे (मुक्तिस्त्रीवदनैककुंकुमरसः) एवो पण पाठ . तेनो अर्थ एवी रीतें बे के मुक्तिरूप स्त्रीनुं शोजायमान जे मुख ते मुखकमल रंगवाने विषे कुंकुमरस लेपन सरखो नखकांतिसमूह बे, तेवो अर्थ जाणवो, माटे हे नव्यजनो ! ए प्रकारे जाणी मनमां विवेक लावीने श्रीपार्श्वनाथनां चरणकमलज Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) सेवन करवां, ते सेवनार सुजनने जे पुण्य उत्पन्न याय बे, ते पुण्यना प्रसादें करीने उत्तरोत्तर मांगलिक्यमाला विस्तार पामो ॥ १ ॥ ॥ टीका ॥ श्रीमत्पार्श्वजिनं नत्वा, स्तोतॄणां सुखका रकम् ॥ सद्यः संस्मृतिमात्रेण, प्रत्यूहव्यूहवारकम् ॥ १ ॥ श्री चंद्रकीर्त्तिसूरीणां सद्गुरूणां प्रसादतः ॥ सिंदूर प्रकरव्याख्या, क्रियते दर्षकी र्त्तिना ॥ २ ॥ युग्मं ॥ ग्रंथकर्ता आदौ इष्टदेवताचरणस्मणरूपं मंगलाचरण पूर्वकं श्रोतॄन् प्रति आशीर्वादवृत्तमाह ॥ व्याख ॥ ॥ पार्श्वप्रतोः श्रीपार्श्वनाथस्य क्रमयोश्चरणयोर्नखद्युतिजरः नखकांतिसमूहोवो युष्मान् पातु श्रवतु रक्षतु ॥ कथंभूतो नखद्युतिजरः तपःकरीशिरःकोडे सिंदूरप्रकरः तपएव करी हस्ती तस्य शिरःको के मस्तकमध्यजागः कुंजस्थलं तत्र सिंदूरप्रकर सिंदूरपुंजसदृशः नखद्युतिजरस्य रक्तत्वात् सिंदूरप्रकरोपमा पुनः कथंभूतः नखद्युतिजरः कषायाटवीदावाचिर्निचयः कषायाः क्रोध, मान, मायालो जास्तएव श्रटवी अरण्यं वनं तस्याः दावाचिंर्निचयः दावाग्निज्वाला समूहतुल्यः । पुनः कथंभूतोनखद्युतिजरः प्रबोध दिवसप्रारंभसूर्योदयः प्रबोधज्ञानं सएव दिवसो दिनं तस्य प्रारं Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) ने उदये सूर्योदयसमानः। पुनः कथंजूतोनखातिजरः मुक्तिस्त्रीकुचकुंजकुंकुमरसः मुक्तिरेव स्त्रीतस्याः कुचावेव कुंचौ तत्र कुंकुमरसः काश्मीररजोन वलेपतुल्यः मुक्तिस्त्रीवदनैककुंकुमरसइति वा पाठः । पुनः कथंजूतः नखद्युतिजरः श्रेयस्तरोः पखवप्रोखासः श्रेयः कल्याणमेव तरुर्वृदस्तस्य पकवानां नूतनपत्राणां प्रोल्लासः उगमः। ईदृशः पार्श्वप्रनोः क्रमयो. श्वरणयोर्नखातिनरोवो युष्मान् पातु रदतु नखातिनरस्य रक्तवर्णत्वात् रक्ता एवोपमा । जो जव्य प्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीपावनाथस्य चरणकमलौ एव सेव्यौ सेव्यमानानां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात उत्तरोत्तरं मांगलि क्यमाला विस्तरंतु ॥१॥ जाषाकाव्यः-शोनित तप गजराज, सीस सिंदूरपूर बवि ॥ बोधदिवस श्रारंज, करन कारन उ. द्योत रवि ॥ मंगल तरु पल्लव, कषाय कंतार हुताशन ॥ बहु गुनरतन निधान, मुक्ति कमला कमला सन ॥ इह विध अनेक उपमा सहित, अरुन वरन संताप हर ॥ जिनराय पाय नख ज्योति वर, नमत बनारसि जोरि कर ॥१॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) हवे कवि सन पुरुष प्रत्यें पोतानी विज्ञप्ति करे . " -- संतः संतु मम प्रसन्नमनसो वाचां विचारो द्यताः, सूतेऽम्नः कमलानि तत्परिमलं वाता वितन्वंति यत् ॥ किंवाभ्यर्थनयानया यदि गुणो स्त्यासां ततस्ते स्वयं कर्त्तारः प्रथनं नचेदथ यशः प्रत्यर्थिना तेन किम् ॥ २ ॥ अर्थः- (संतः के० ) सनो, ( मम के० ) मने, ( प्रसन्नमनसो के ० ) प्रसन्न बे मन जेनुं एवा (संतु के० ) हो. अर्थात् मारी उपर प्रसन्न चित्तवाला था. ए सानो केहवा बे ? तोके ( वाचां के० ) वाणीना ( विचारोद्यताः के० ) सदसद्विचारने विषे सावधान एवा अर्थात् श्रा वाली सारी, श्रा वाणी नहिं सारी ए प्रकारना विचारने जाणनारा a. कवि कहे बे. ते घटे बे ( यत् के० ) जे कारमाटे ( अंजः के० ) जल जे बे, ते ( कमलानि ho) कमलोने ( सूते के० ) उत्पन्न करे बे, परंतु ( तत्परिमलं के० ) ते कमलोनो श्रमोद जे बे तेने तो ( वाताः के० ) वायु ( वितन्वंति के० ) वि Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) स्तारे बे, तेम हुं पण या ग्रंथने रचीश, परंतु ग्रंथनो विस्तार तो सजन पुरुषोज करशे. कोइ तेंका कहेलुं बे के || श्लोक || पद्मानि बोधयत्यर्कः, काव्यानि कुरुते कविः ॥ तत्सौरनं ननस्वतः, संतस्तन्वंति तरुणान् ॥ अर्थ :- कमलने सूर्य विकसित करे बे, तेम काव्योने कवि करे बे, अने ते कमलो - ना सुगंधने वायु प्रसार करे बे, तेम ए कविना गुपोने संत पुरुषो विस्तारे बे, माटे सजननुं एवं लक्षणज होय . ( वा के० ) अथवा जो ते सजानोनी अभ्यर्थना हुं करूं तो पण ते ( अनया के० ) या मारी कवितानी प्रशंसा करो एवी ( - न्यर्थनया के० ) याञ्चायें करीने ( किं के० ) शुं कांहीज नहिं. शा कारण माटे के ( यदि के० ) जो ( आसां के० ) या मारी वाणी मध्यें ( गुपोस्ति के० ) गुण बे. ( ततः के० ) तो ( ते के० ) ते सनो, ( स्वयं के० ) पोतानी मेलेंज ( प्रथनं ho ) विस्तार नें ( कर्त्तारः के० ) करनारा थाशे. अर्थात् या ग्रंथमां कांहिं गुण हशे तो सनो बे, ते मारी प्रार्थना करया विनाज विस्तार करशे, ( अथन चेत् के० ) वली जो श्रा मारी वाणीमां Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुण नहिं होय तो ( यशःप्रत्यर्थिना के०) यशना शत्रुलूत अर्थात् अपयशने करनारा एवा (तेन के० ) ते विस्तारें करिने (किं के०) ? कांहीज नहि. एटले निर्गुणनो विस्तार करवाथी अपयशज थाय डे ॥॥ ॥टीका ॥ अथ कविः सङनपुरुषान्प्रति स्वविज्ञप्तिमाह ॥ संतति ॥ सङना मम प्रसन्नमनसः संतु ममोपरि प्रसन्नचित्ताः जवंतु । किंविशिष्टाः संतः । वाचां कविवाणीनां विचारे सदसहिचारे उद्यताः सावधानाः समीचीनासमीचीनविचारझाः यत् यस्मात् कारणात् धनः पानीयं कमलानि सूते तेषां कमलानां. परिमलमामोदं वायवो वितन्वंति विस्तारयंति तहदेनं ग्रंथमहं रचयिष्यामि परं विस्तारं सजानाः करिष्यति ॥ यतः ॥ पद्मानि बोधयत्यर्कः काव्यानि कुरुते कविः ॥ तत्सौरनं ननस्वंत, संत स्तन्वंतु तशुणान् ॥ अथवा अनया ममान्यर्थनया सतामग्रे प्रार्थनया किं अपितु न किमपि । कुतः । यद्यासां ममवाणीनां मध्ये गुणोऽस्ति तदा ते संतः खयमेव प्रथनं विस्तारं कर्तारः नविष्यति ॥ यद्यस्मिन् शास्त्रे कश्चिक्षुणो नविष्यति Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) तदा संतः स्वयमेव श्रन्यर्थनां विनैव विस्तारं करिव्यंति ॥ अथचेद्यदि श्रासां ममवाणीनां मध्ये गुणो नास्ति तदा तेन प्रथनेन विस्तरेण किं न किमपि ॥ कथंनूतेन तेन प्रथनेन यशः प्रत्यर्थिना यशःप्रत्यर्थिशत्रुजूतं यत्तत् यशःप्रत्यर्थि तेन यशःप्रत्यर्थिना यशसोविनाशकेन निर्गुणस्य विस्तारणेन अयशो नवतीत्यर्थः ॥॥ नाषाकाव्यः-जैसें कमल सरोवर वासैं, परिमल तासु पौन परगासें ॥ त्यौं कवि नापहि श्रदर जोर, संत सुजस प्रगटहिं चिहू उर ॥ जो गुणवंत रसालकवि, तौ जगमहिमा हो॥ जो कवि अक्षरगुन रहित, तौ श्रादरे न को॥२॥ . हवे करी ले सकल सुरासुरे सेवा जेमनी एवा जे श्रीवीतराग तेमना श्रागमना अनुसारें नव्य जनना हितने माटे धर्मोपदेश कहे . ॥ उपजातिटत्तम् ॥ त्रिवर्गसंसाधनमंतरेण, पशोरिवायुर्विफलं नरस्य॥तत्रापि धर्म प्रवरं वदंति, नतं विना यन्नवतोर्थकामौ॥३॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! (त्रिवर्गसंसाधनं के०) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म, अर्थ अने काम, तेना साधननी (अंतरेण के०) विना ( नरस्य के० ) मनुष्यनुं (थायुः के०) श्रायुष्य ( पशोरिव के) नागादिकनी पो ( विफलं के०) निःफल जाणवू. अर्थात् धर्म, अर्थ, काम अने मोद ए चार जे पुरुषार्थ डे तेमां हाल जरतखंगमां मोद तो साधवाने शक्य नथी, ए का. रण माटे शेष धर्म, अर्थ श्रने काम, ए त्रणना उ. पार्जन विना नर जे मनुष्य तेनुं जीवितव्य पशुनी पढ़ें विफल जाणवू. हवे त्यां आशंका करे बे के ते धर्म अर्थ अने काम, ए त्रणे समान बे के कांश तेउमां अंतर बे ? तो त्यां कहे जे, के (तत्रापि के०) ते त्रण वर्गमां पण (धर्म के ) धर्मने (प्रवरं के०) श्रेष्ठ, ( वदंति के० ) कहे . ( यत् के० ) जे का. रण माटे (तं के०) ते धर्म ( विना के०) विना (अर्थकामौ के० ) अर्थ श्रने काम (न के०) नहिं (नवतः के० ) होय बे. कारण के जेणे पूर्वजन्में धर्म कस्यो ने तेनेज अर्थ, काम, था जन्ममां प्राप्त थाय . तेमाटें त्रणवर्गमा जे धर्म , तेज श्रेष्ठ ने. तेथी हे जव्यप्राणीयो ! मनने विषे विवेक लावीने श्रीसर्वज्ञप्रणीत धर्मज आचरण करवो. धर्माचरण Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) करनारा सनोने जे पुण्य उत्पन्न थाय बे, ते पुएना प्रसादें करीने उत्तरोत्तर मांगलिक्य माला विस्तार पामे बे ॥ ३॥ टीका:-थ विहितसकलसुरासुरसेव्यस्य देवा विदेवस्य श्रीवीतरागस्यागमानुसारेण जव्यानां हि तहेतवे धर्मोपदेशमाह ॥ त्रिवर्गइति ॥ जो नव्याः त्रिवर्गसंसाधनं अंतरेण नरस्य श्रायुः पशोरिव वि - फलं ज्ञेयं । धर्मार्थकाममोक्षाश्चत्वारः पुरुषार्थाश्चतुवग्र्गास्तेषां मध्ये सांप्रतं श्रस्मिन् जरतक्षेत्रे मोक्षः साधयितुं न शक्यः ॥ श्रतः कारणात् शेषस्त्रिवर्गः धर्म्मार्थकामरूपः । तस्य त्रिवर्गस्य संसाधनं उपार्जनं अंतरेण विना नरस्य मनुष्यस्य श्रायुर्जीवितं पशोरिव विफलं निःफलं वृथेत्यर्थः ॥ येन नरेण ॥ धर्मार्थकामानां संसाधनं उपार्जनं न क्रियते तस्य जीवितं पशोरिव बागादेरिव वृथा निः फलं ॥ यतः ॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोपि न विद्यते ॥ अजागल स्तनस्यैव नीः फलं तस्य जीवि - तम् ॥ १ ॥ इति ॥ ते त्रयोपि किं सदृशाः वा किंचिदंतरं इत्याह ॥ तत्रापि त्रिवर्गे धर्मं प्रवरं वदंति श्रेष्ठं कथयति कुतः यत् यस्मात् कारणात् धर्मं विना Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) अर्थकामौ न जवतः । येन पूर्वजन्मनि धर्म्मः कृतो नवति तस्यैवात्रार्थकामौ जवतः नान्यस्य ॥ यडुक्तं किं जंपिए बहुणा, जं जं दी सई समछ जियलोए || इंदीयमणा निरामं तं तं धम्मं फलं सवं ॥ २ ॥ यतः कारणात् त्रिवर्गे धर्म्मएव श्रेष्ठः ॥ जो नव्यप्राणिन्नेवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीस प्रणीतो धर्म एवाचरणीयः धर्माचरतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ३ ॥ भाषाकाव्य :- पुरुष तीन पदारथ साधहिं, धरम विशेष जानि श्राराधहिं ॥ धरम प्रधान कहें सब कोर, रथ काम धरमदीतें होइ ॥ धरम करत संसार सुख, धरम करत निरवान ॥ धरमपंथ साधन विना, नर तिरियंच समान ॥ ३ ॥ माटे धर्मने विषे प्रमाद न करवो, धर्मोद्यम करवाने प्रसादें ललितांग कुमर सुख पाम्यो, अने धर्म नही करवायी सननामा सेवक दुःख पाम्यो ते बेहुनी कथा कहे . कथाः - एइज जरतत्रने विषे श्रीवाल नामें नगर बे. तिहां नरवाहन नामें राजा राज्य करे बे, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) तेने रूप यौवन निधान सर्वगुणें करी प्रधान, अमृतसमान जेनी वाणी जे एवी कमलानामें स्त्री . तेनी कूखें जेम बीपने विषे मुक्ताफल उपजे, तेवा रूपें करी अमर समान ललितांगनामा कुंअर ज. न्म्यो, ते अनुक्रमें सर्व कलामां प्रवीण थयो. सादात् कंदर्पावतार जेवो भने विनय विवेक विचार चातुर्यादि गुणें संपन्न थयो, तेने लालतां पालतां ते यौवनावस्थाने पाम्यो, तेवारें अनेक प्रकारनां सांसारिक सुख जोगवतो दिवस व्यतिक्रमवा लाग्यो. कोश्क अवसरे ते कुमरने कोश् सऊन एवे नामें मित्र श्रावी मल्यो, यद्यपि तेनुं नाम तो सजन डे परंतु परिणामें करी ते अतिपुऊन . हवे तेनी उपर कुमर अत्यंत प्रीती राखे , पण ते पोतार्नु पुर्जनपणुं वधारतो जाय ॥ यतः ॥श शीनि खलु कलंकं, कंटकं पद्म नाले, जलधिजलम पेयं, पंमिते निर्धनत्वं ॥ दयितजन वियोगं, पुर्जगत्वं स्वरूपे, धनपतिकृपणत्वं, रत्नदोषी कृतांतः ॥१॥ जाड्यंधीमति गण्यते ब्रतरुचौ दंनः शुचौ कैतवं ॥ इति काव्यं ॥ शशी दिवसधूसरो गलितयौ वना का मिनि, सरोविगतवारिज मुखमनदरं स्वाकृतेः ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) प्रजुधनपरायणः सतत पुर्गतिः सजानो, नृपांगणगतः खलोजवंति सप्त शल्यानि मे ॥२॥ इति ॥ जेम नागरवेलिमा निःफलतार्नु कलंक, चंदनमां कटुतानुं कलंक, लक्ष्मीमां चपलता, कलंक,सुवर्णने वीषे निर्गंधतानुं कलंक . तेम ललितांग कुमरने विषे वार्ता विशेष जे कांश कार्य प्रमुख करवां तथा गुणज्ञाता, पटुता प्रमुख जे करवां, ते सर्वमां सजा-- ननो मेलाप राखवो, ते कलंकरूप बे. अन्यदा ललितांग कुमर राजाने नमस्कार करवा माटे गयो, विनयवंत गुणवंत कुमरने देखी राजा संतुष्ट थश्ने एक बहुमूल्यनो अपूर्व हार राजायें कुमरने दीधो. कुमर राजाने नमस्कार करी पाडो वलतां ते कुमरनी मार्गमां याचकजनोयें जयजयारव करी प्रार्थना कीधी तेथी कुमरे तरत ते हार याचकोने थापी दीधो. ते सर्व वात सजानें जाणी, अने तेणे श्रावी राजानी बागल चाडी खाधी ॥ कयु डे के ॥ परविघ्नेन संतोष, जजते उर्जनोजनः ॥ लन्नेदग्निः परां दीप्ति, परमंदिरदाहतः ॥१॥ राजायें ते वात सांजली क्रोधवंत थ कुमरने तेडावी एकांतें बेसाडी शीखामण थापीने कडं, के Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) हे पुत्र ! तुं अत्यंत दान देवाना व्यसननो त्याग कर ॥ यतः ॥ श्रतिदानाद्वली बद्धो, नष्टो मानात् सुयोधनः ॥ विनष्टो रावणो लौल्या, दतिसर्वत्र वर्ज - येत् ॥ १ ॥ महाडुःखाय संपद्ये, दतिमेघस्य वर्षणम् ॥ प्राणघाताय जायेत, प्राणिनाम तिजोजनम् ॥ २ ॥ हे पुत्र ! श्रयपदी अधिको व्यय करे तो समुद्र पण खाली थइ जाय. माटे पढी निर्द्धन पुरुष क्यांय खादर न पामे ॥ यतः ॥ श्रादरं लजते लोको, नक्कापि धनवतिः ॥ कांतिहीनोयथा चंद्रो, वासरे न लभेत् प्रथां ॥ १ ॥ यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः इती ॥ माटे कुल, शील, आचार, विद्या, इंडियनुं पदुख, ए सर्व धनविना निरर्थक जाणवां. तो हवे हे वत्स ! आजथी तहारे श्रयपद माफक ऊचित खरच करवो, द्रव्यनो संग्रह करवो, जेमाटे राज्यने योग्य तुंक बो, अने राज्य पण जो जंगारमां द्रव्य सबल दशे, तोज चालशे, अने वली द्रव्य दशे, तोज सजा सर्व ताहारी श्राज्ञामां रहेशे. एवं पितानुं वचन सांजली कुमर मनमां चिंतववा लाग्यो, के जू महारा पितानुं महाराजपर केटलुं देत बे ॥ यतः ॥ श्राकारैरं गितैर्गत्या, चेष्टया जाषणे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) न च ॥ नेत्रविकारैश्च, लज्यतेऽतर्गतं मनः॥ कोश्क पुण्यवंतनी उपरज माता पितानी सौम्यदृष्टि पडे. हवे कुमर पितानी आझा पाम्या पलीखल्प खल्प दान धर्म करवा लाग्यो, तेवारें याचकजनो कहेवा लाग्या के हे ललितांगकुंवर (प्रथम तमें हाथी सरखा दातार थश्ने हवेगर्दन जेवा कृपण केम थया ? अथवा प्रथम तमें कल्पवृक्ष समान थश्ने हवे धतुराप्राय केम थया? अथवा पहेला सिंहसमान थश्ने हवे शीयालीया जेवा केम थयाए एम खार्थनष्ट याचक लोको कहेवा लाग्या ॥ यतः ॥ तावत् प्रीतिर्जवेझोके, यावदान्नं प्रदीयते ॥ वत्सः दीरदयं दृष्ट्वा, स्वयं त्यजति मातरम्॥१॥कदापि समुअमर्यादाथी चूके, राजाहरिचंद सत्य मूके, मेरु कंपायमान थाय, पृथ्वी पातालने चांपे, तथापि सत्पुरुष पोतानी वाचा चूके नही ॥ यतः॥ चलेच्चमेरुः प्रचलेत्तु मंदरं, चलेतु ताराग्रहचंडलानुः ॥ कदापिकाले पृथिवि चलेकि, तथापि वाक्यं न चलेकि साधोः ॥१॥ एवां वाक्य सांगली कुमर फुःखित थयो थको चिंतववा लाग्यो के मने तो वाघ नदीना न्याय समान कष्ट प्राप्त थयु जे. हवे जो हुँ दानेश्वर था ढुं, तो पितानी Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) थाज्ञानुनबंधन थाय ,अनेजो दान नथी श्रापतो, तो कीर्ति जाय ॥ यतः॥ ज गिल गल उयरं, जश्न गिलई गलतिन यणा॥अहि विसमा कजा गइ, अहिणा बढुंदरी गहिया ॥१॥अथवा रुडुकरतां मुजने श्यो दोष . एवं विचारी कुमर वली पण पूर्वनी पेठे दातार थको दान देवा लाग्यो, ते वात राजायें सांजली तेवारें कोपायमान थश्ने कुमरने देशवटो दीधो. पनी कुमर पण महामाननो धरनार, साहसिकनो शिरदार ते थोमाएक असवारोने साथें लश् हाथमां दथीयार लश्ने तत्काल परदेशे चाल्यो, केम के तेजी ताजणो खमे नही. पड़ी ते समाचार लोकोना मुखथी जाणीने सऊन पण पालथी नीकलीने कुमरने जश् मल्यो. मार्गमां बेहु जण चाल्या जाय , तेवारें सजनप्रत्ये कुमर पूबवा लाग्यो के हेसजान! कांश्चमत्कारिक वात तो कहो. तेवार सऊन बोल्यो के हे कुमरजी! तमें कहो के पुण्य अने पाप ए बे मांहे कोण रुडं ले ? के जेनी प्रशंसा करीये. तेवारें ललितांगकुमर हसीने कहेवा लाग्यो के अरे गूंडा मूर्खा ! एटयूँ तो सहु कोश जाणेज डे, के जिहां धर्म तिहां जय, अने पाप ति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) हां दय बे, ते सांजली अधर्मी सजन बोल्यो के हे स्वामी ! जो पुण्य रुडुंबे, तो तमें दानपुण्या दिक करतां करावतां हां आवी अवस्था केम पाम्या ? तारे तेने कुंरें कयुं के जे कष्ट पामीयें ते पूर्वकृत पाप कर्मनो उदय जाणवो ने जे शाता पामीयें, ते पूर्वकृत पुण्यकर्मनो उदय जाणवो. तेवारें वली सजन बोल्यो, के तमारा धर्मनुं फल तो में प्रत्यक्ष दीतुं, माटें हवे तमें चौर्यादिकें धन उपार्जन करी राज्य पोताने वश करो. ते सांजली ललितांगकुमर बोल्यो के हे दास ! तुं एवां सपाप वचन म बोल. कारण के स्वजावें पण पाप वचन बोल्यो थको जीव दुःख प्रत्यें पामे बे. जेम होंगें करी विष खाधुं थकुं पण मरण उपजावे बे, माटे तहारेएवा यद्वा ता प्रलाप करवा नही. कारण वली एम करवाथी तारे शुं लाज थाय बे. जो तुमने एनो निश्चय करवो होय तो चालो श्रापणे कोइ महंत पुरुषने पूबीयें. छाने जो ते पुण्य की जय याय एवं कहे, तो तहारे महारे शी सरत ? ते सांजली सऊन बोल्यो के जो एम कोइ कहे तो हुं या जन्मपर्यंत तमारो दास ने रहिश ने जो एम नवरे तो आजन्म Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पर्यंत तमें माहारा दास थश्ने रहो. बन्ने जणे एवी प्रतिज्ञा करी, आगल चालता कोश्क गामें जश पहोता. तिहां घणा महोटा लोकोनां टोलामांहे जश पूबवा लाग्या के ना ! सुखश्रेय पामीये ते पुण्यश्री किंवा पापथी ? ए प्रश्नवचन सांजलीने लोको बोव्यां के ना ! दमणां तो पापज सुखहेतु डे, अने पुण्यश्री दय थाय , एवं सांजली बेहुजण आगल चाट्या मार्गमां ललितांगकुमरने सऊन हांसी पूर्वक कहेवा लाग्यो के अहो कुमर ! हवे तमें घोडा उपरथी उतरी चाकर थश्ने महारी आगल चालो. पोतानी प्रतिज्ञा पालो. एवं वचन सांजली कुमर घोडाथी नीचे उतरी सझन प्रत्ये कडेवा लाग्यो के हे मित्र ! हुं सर्वदा ताहरो सेवकज बु. ए असार धननी शोजा कारमी ले तेनी काश्मने गरज नथी. मने तो एक धर्मज निश्चल था. एम कही सेवक थश्थागल चाल्यो भने सङान घोडा उपर चढ्यो. आगल चालतां वली कुमरप्रत्ये कहेवा लाग्यो के हे कुमर ! श्रीजिनधर्मना फल जोगवो केहवां ? हुँ तमोने हजी पण कडं बुं, के तमें तमारो कदाग्रह मूकीने पाप चोरादिक कर्म करो, ते शिवाय - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) बीजो कोई तमारे जीववानो उपाय मने नासतो नथी. जो एम नहिं करशो तो कष्ट पामशो. एवां वचन सांजली रीश चढावीने कुमर बोल्यो के अरे मूर्ख ! तहारामां गुण तो सर्व उर्जननांज देखाय बे, पण तहारी फश्य तदारुं नाम सऊन पाड्यु . ते मिथ्या जे. जे मिथ्याउपदेश थापे ते महापापी जाणवो. तेनी उपर एक दृष्टांत कहुं बुं ते सांजल. कोइएक श्राहेडी निरंतर जीवोनो वध करतो श्रटवीमा वसे . एकदा प्रस्तावें आहेडीयें वनमांजर एक हरणी दीगी, तेने हणवा माटे कान पर्यंत बाण सांधीने जेवामां डोडवा लाग्यो, तेवामां हरणी बोली के हे व्याध ! हे बांधव ! तुं क्षण एक सबूर कर. एटलामां हुं महारां न्हानां बच्चाउने धवरावी पाठी आवं. तेवारें श्रादेडी बीट्यो अरे बापडी ! तुं श्रा बाणथी बूटी जश्श तो फरी पाठी श्रावीश नही, तेवारें तेने हरणीयें कडं के जो हुं न श्रावू तो महारे शिर गोहत्यादिकनां पापोडे, ते वचन सांजली श्रादेडीयें कडं के कष्टमांधी उगरवा माटे तुं एवां वचन बोले , ते ढुं मानुं नही. तेवारें मृगबीयें कयु के हे पाराधी ! था समयें जे तुं कहे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) तेवा सम हुँ खा ! तेवारें आहेडीयें कडं के शीख पूबतां कुशीख थापे, तेनुं पाप तहारे शिर ले, तो हूंजावा देवं तेवारें हरणीये ते प्रतिज्ञा करी, श्रने पाराधीयें तेने जवा दीधी, पड़ी ते पोतानांबालकोने धवरावी संतोषीने पोतानुं वचन पालवा माटे पानी आहेडी पासें श्रावीने कदेवा लागी के हे वधक ! हुँ कयी दिशायें नासी जाजं तो तहारा बाणथी बूटुं ! ते सांजली वाहेमी विचारवा लाग्यो के हुं एने कुशीख श्रापीश तो मने पाप लागशे, माटे खरूं कहेवू जोश्ये, एम चिंतवीने कहेवा लाग्यो के जो तुं जमणी बाजुयें नाशी जा, तो बूटे, एवं वचन सांजली हरणी जमणी बाजु नाठी तेथी बूटी.माटे हे सजान ! शीख थापतां कुशीख श्रापे तो ते महापापी कदेवाय. तो हवे तुं महारो मित्र बतां मुझने कुशीख केम आपे (जो कोइ बापडा पामर लोकोयें धर्म नही वखाण्यो तो शुं तेथी धर्म व्यर्थ थ गयो समजवो ? जो आंधले पुरुषं सूर्य न दीगे, तो शुं सूर्य नथी उग्यो, एम समजवू) माटे संसारमांहे सारपदार्थ सर्वलोकनो आधार, सर्व सुखनो भंडार, स्वर्गापवर्गनो दातार, अचिंत्य ma Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) चिंतामणि समान, सकलकलाप्रधान एवो एक धर्म ज जे एम जाणवं. ___ वली सङान बोल्यो के श्रहो कुमर! तुं तो महा कदाग्रही देखाय , जेमाटे धर्मनां फल देखतो बतो पण हजी मानतो नथी. रासजनुं पूंड पकड्यु ते मूकबुज नही. एवो तहारो न्याय जे. जेम कोश ग्रामीण माता पितायें पुत्रने शीखव्यु जे पांच जणमां बेशी जे वात अंगीकार करीयें, ते मूकी नदी. एवी शिक्षा दीधी. एकदा ते मूर्ख शिरोमणिये एक सांढ नाशी जतोहतो तेथी तेणे पांचनी सादीथी तेनुं पूंब पकड्यं पण मूके नही तारें लोक कदेवा लाग्यां के हे मूर्ख ! मूकी श्राप. पण पेलो मूके नही, तेम ते पण हठ लीधो ते बोडतो नथी. हजी पण जो महारु का न माने तो चाल आगल बाजा लोकोने पूढीयें. एम वाद करतां परस्परें नेत्रनी होड करी, एटले जे हारे ते पोतानां नेत्र काढी आपे. श्रागल को गाममां जर लोकोने पूज्युं के धर्म उत्तम के अधर्म ? तेवारे ते मूखोंये पण अधर्मनीज स्थापना करी, ते वाणी सांजली सङान हर्ष पाम्यो. आगल जतां कुमरनी पासेंथी होडमा हारेलां नेत्र RANDEHIMRAGAKERSek Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) माग्यां, कुमरे पण पोतानी चटु बरीवडे काहानी श्रापी, तेवारें सजाने कह्यु के केम कुमरजी धर्मनां फल दीगं के ! श्रांधला तो थया !!! एम कही लगारेक तिहां बेसी पनी कुमरने मूकी घोडे चडीने सजान अन्यदेशे जतो रह्यो. हवे पाबलथी कुमर चिंतववा लाग्यो के श्रापदारूप नदीनो पूर, पूर्व कृतकर्मप्रमाणे महारे वृ. कि पाम्यो बे, अथवा वलीथापदा ते शु? धर्मना प्रसादथी सर्व सारंज था. एम चिंतवी ज्ञानबलें धर्म उपर निश्चल मन करी उनो रह्यो. एवामां सूर्य अस्त पाम्यो. चारे दिशायें अंधकार पसस्यो, रात्रिचर जीवो संचार करवा लाग्या, चोर पसख्या, एवा अवसरें तिहां वड उपर नारंग पंखी मली मांहोमांहे वातो करवा लाग्या के जेणे जे कौतुक दी होय ते कहो. तेवारें एक बोल्यो के हांथी पूर्व दिशें चंपा नगरे जितशत्रु राजा राज्य करे , तेने पुष्पवती नामा पुत्री प्राणथी पण वसन , ते महारूपसौंदर्य- निधान बे, यौवनावस्था पामी पण कृतकर्मने योगें तेने अंधपणुं प्राप्त थयुं बे. एकदा प्रस्तावें राजा पोतानी पुत्रीने खोलामा बेसाडी चिं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) तववा लाग्यो के एक तो दीकरी बे ते स्वनावें चिंतानुंज कारण बे अने वली एतो कर्मै कलंकितने विवाहयोग्य पण थइ बे. हवे श्यो उपाय करवो? एम विचारी नगरमां पडद वजडाव्यो के जे राजानी दीकरीनी यांखो सारी करे, तेने राजा श्रधुं राज्य तथा तेहीज कन्या थापे. एवी रीतें राजपुरुषो तिहां चहुटे चहुटे ढंढेरो फेरवे a. ए कौतुक में दीव्रं. दवे श्रगल शुं थाशे? ते हुं जाणतो नथी. एवं सांजली वली एक न्हानो नारंग बोल्यो के हे तात! तमें जाणता हो तो कहो, के नेत्र सारां थवानो कोइ उपाय . ते सांजली वृद्ध जारंग बोब्यो के हे वत्स ! उपाय तो घणाय बे पण जाग्य विना मले नही. तेवारें लघुजारंग बोल्यो के तमें जाणता हो तो कहो. तेवारे वृद्ध नारंग बोल्यो के हे वत्स ! रात्रियें कदेवाय नहीं ॥ यतः ॥ दिवा निरीक्ष्य वक्तव्यं, रात्रौ नैवच नैवच ॥ संचरंति महाधूर्त्ता, वटे वररुचिर्यथा ॥ १ ॥ वली लघुनारंम बोल्यो के इहां तो कोइ सांजलतो नथी माटें तमें कहो. तेवारें वृद्ध बोल्यो जे ए वृक्षने जे वेल Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) डी वींटाइ रही ब्रे, तेने लइने जो थांखे अंजन करे, तो नवां नेत्र यावे, ते सांजली वली लघुजारंग बोल्यो के स्वामी ! तमें प्रजातें किहां जाशो? ते बोल्यो के तेहीज नगरें हुं जश्श, लघुजारंग बोल्यो के हुं पण कौतुक जोवाने माटे तमारी साथै आवश. एवी वात करीने ते जारंको सूइ रह्या. कुमरें वडदेवल बेठां थकां सर्व वात सांगली विचाखुं जे पुण्यनुं प्रमाण अद्यापि प्रवर्त्ते ठे. पबी ते वेलडी लइ हाथी घसीने श्रांखे अंजन की धुं, तेथी नवी चतु यावी. पढी वम उपर चढी संपूर्ण वेलडी लइ सीधी. ने पोतें जारंग पंखीनी पांखमां बेसी रह्यो प्रजातें जारंग उडी चंपायें पहोतो कुमर पण पांखमांथी नीसरी वस्त्रादिक पहेरी रा जद्वारें गयो, दरवाने श्रावी राजा यागल हकीगत जाहेर करी के हे स्वामी ! कोइक देशांतरी पुरुष कहे बे, के हुं राज्यकुमारीनी श्रखो सारी करीश ? ते वात सांजली राजायें तेने यादरथी तेडी विनति करीने कयुं के हे महापुरुष ! उपकार करो. पी कुमरें तरत वेलडीनो रस काहाडी श्रांखे अंजन करी राजपुत्रीने साजी करी. तेवारें रा Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) जायें पण महोटा महोत्सव पूर्वक पोतानी पुत्री कुमरने परणावी दीधी. हाथ मेलावडमां हाथी, घोडा, पायदल प्रमुख घणी लक्ष्मी आपी अने श्रके राज्य दीधुं. तिहां मनुष्य संबंधी जोग जोगवतो सुखें रहे . (एकदा गवादमां बेगे , एवामां जेनी श्रांखमां थीयांसु फरे , रोगें करी ग्रस्त अने फाटेलां वस्त्र, बीनत्सांग, पुर्निरीदय, पगें पगें पडता एवा सऊनने श्रावतो पीठगे. तेवारे पापनां फल प्रत्यक्ष देखीने कुमरने दया श्रावी तेथी चाकर मोकली तेडावी बेसाडीने पूब्युं के हे सऊन ! तुं मुझने उलखे ले ? ते बोल्यो अहो सत्पुरुष! तमने कोण नथी उलखतो. कुमरें साचुं पूज्यु तेवारें श्रणबोल्यो रह्यो.पठी कुमरें पानबुं वृत्तांत कही सर्व पोतानी हकीगत संजलावी, तेथी ते सजान लला पाम्यो. पड़ी तेनां फाटेलां वस्त्र उतरावी नवां पहेरावी जोजन करावीने कडं के हे मित्र ! था लक्ष्मी सर्व ताहारी , तुं निश्चिंत थको आंही सुख जोगव. . हवे सऊन बोल्यो के हं तमने मकीने चालतो थयो. श्रागल जतां मने चोर मख्या तेणे लाकडी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) तथा मुष्टयादिकें खूब मार्यो, अने महारीपासें जे धन हतुं ते सर्व लइ लीधुं. मात्र पाप जोगववा माटेंज जाणेमुने जीवतो मूक्यो होय नहि ? तेम जीवतो मूक्यो. तिहांथी हुं अनेक देश जम्यो सर्वत्र दुःख देखतो तमने श्रावी मल्यो बुं. माटे हुं पापीने तमें दूर जवा द्यो. तमारी पासें म राखो. ते सांजली कुमर वोल्यो के हे सन ! हुं राज्य कन्यादिक रु. द्धि पाम्यो, ते सर्व तदारो प्रताप बे. माटे हवे तुं या राज्यनी चिंता कर. एम कही तेने प्रधान पदवी पी. ए खबर सर्व कुमरनी स्त्री पुष्पवतीयें सांजली तेवारे नर्त्तार प्रत्यें कदेवा लागी के हे खामिन् ! ए तमारो बालपणानो मित्र बे, तो एने कोइ एकाद गाम श्रापी द्यो. पण तमाराथी दूर राखो, परंतु पासें म राखो ॥ यतः ॥ दुर्जनः परिहर्त्तव्यो, विद्यया नूषितो पिसन् ॥ मणिना नूषितः सर्पः, किमसौ न जयंकरः ॥ १ ॥ जेमाटे डुनने उपकार करतां पण सादामुं कष्ट थाय, जेम कोइएक कागडो सरोवरने विषे बग प्रमुखने तरता देखी पोर्ते पण तेमनी पेठें मत्स्यनक्षण करवा सारु पाणीमां Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) पड्यो, पण तरतां श्रावडतुं नथी तेथी पाणीमां बूडवा लाग्यो, तिहां तेने को राजहंसीयें दीगे, तेने दया श्रावी तेवारें राजहंसने कहेवा लागी के हे खामी ! बापडो कागडो बूडे , माटे तमें उपकार करी एने काहाडो. तेवारें हंसहंसिणी मली चांचे ताणी पकडीने बाहेर काढ्यो. पड़ी कागडो हंस हंसिणीने पगे लागी कहेवा लाग्यो के हे नाग्यवानो ! हुं ज्यांसुधी जीवतो रहुँ, त्यांसुधी तमारो उपकार मानीश. हवे कृपा करी तमें बेहु जण थाहार नक्षण करवा अमारा वनमां श्रावो. तेवारें हंसें हंसिणीने पूज्यु के केम तहारी शी मरजी ? हंसिणी बोली के हे स्वामी ! उपकार सर्वने करीयें पण अजाण्यानी संगत न करीयें. एम हंसिणीयें वास्यो, तो पण दाक्षिण्यने लीधे हंस, कागडानी साथै वनमां गयो. ते बेहु को लींबडाना काड उपर बेग, ते वृदनी नीचें को राजा श्रावी वीसामाने अर्थे उन्नो रह्यो . तेनी उपर कागडो विध करीने तिहाथी उडी गयो. राजायें चुं जोश्ने हं. सनी उपर बाण मूक्यो, तेथी हंस तडफडतो नूमियें पड्यो, राजायें विचाखु जे था धवल काग , Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ए कौतुक जेवी वात . ते सांजली हंस बोध्यो॥ नाहं काको महाराज ! हंसोऽहं विमले जले ॥नीचसंगप्रसंगेन, मृत्युरेव न संशयः॥१॥ ए वात स्त्रीयें कहीने कडं के हे स्वामी ! तमें नीचनरनी संगति म करो. कुमर ते हितकारक वचन जाणतो थको पण दाक्षिणपणे तेनो संसर्ग मूके नही, एम केटलोएक काल व्यतिक्रम्यो.. __ अन्यदा प्रस्तावें राजायें सजानने पुज्युं के ए कुमरनी साथें तमारे मांहोमांहे गाढ स्नेहy कारण शुं बे ? तेवारें सजानें विचाखु जे ढुं प्रथमथी कुमा रनी उपर दूषण चढावं, तो पड़ी महारां दूषण ए प्रकाशी शकशे नही, एम विमासी राजा प्रत्ये बोख्यो के हे स्वामिन् ! ए वात कहेवा योग्य नथी, केम के कुमरें मुऊने प्रथमथी सोगंद खवराव्या बे. एवं सांजली राजा वली विशेष आग्रह करी पूडवा लाग्यो, तेवारें राजाने सोगंद श्रापीने सऊन कहेतो हवो, के वासपुरी नगरीयें नरवाहनराजानो हुँ पुत्र बु. अने ए महारा घरनी दासीनो पुत्र . कर्मयोगें देशांतरें नमतो थको विद्या पाम्यो, तेवारें नीचजातिथी लजा पामीने घरमा रहे नही. देशांत Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) रेंज जम्या करे,ते जमतो जमतो तमारे नगरें आव्यो. विद्यावंत माटे तमें श्रादर दीधो. पूर्वकर्मना प्रसादथी अझराजपदवी पाम्यो, अने हुं पण महारा पिताथी परानव पाम्यो श्रको इहां श्राव्यो. मने एणे उलख्यो कारण के मर्मनो जाणज मर्म जाणे, तेथी एणे मुझने पोतानी पासें राख्यो. हे स्वामी ! एनी वात में तुमनें कही, पण एमांहे जली वार कांश नथी. एवी वात सांजली राजा विचारमा पड्यो जे में श्र. ण विचायुं काम कगुं; राज जाउँ तो जलें जाउँ, धन जा तो नः जाऊ. परंतु माराथी माहारो वंश मलीन थयो ते अत्यंत अकार्य थयु. एम चिंतवी जमाश्ने मारवा माटे राजायें अंतरंग पुरुषने तेडावीने कडं के आज रात्रियें घरमांहेले रस्ते जे श्रावे, तेने तरत समाधान करि नाखजो. सेवकें पण तेवीज रीते राजानी आझा प्रमाण कीधी, राजायें रात्रिने समय नलो पुरुष मोकलीने कुमरने मारवा माटें तेडाव्यो, तेणें जश् कुमरने वीनव्यो, जे श्रापने राजा अवश्य तेडे . को महोटुं कार्य बे, तेमाटें घरमांदेले रस्ते थश्ने श्रावो, कुमर पण तेवीज रीतें सज थश्ने जवा लाग्यो, तेवारें स्त्री Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) बोली हे स्वामी ! जोला थर रात्रै जाउँ जो पण राज्य स्थिति मलीन ॥ यतः ॥ काके शौचं द्युतकारेषु सत्यं, सर्प दांतिः स्त्रीषु कामोपशांतिः॥ क्लीबे धैर्य मद्यपे तत्त्वचिंता, राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ॥१॥ ते सांजली कुमर बोल्यो हे सुजगि ! तूं कहे, ते सत्य छे, परंतु राजानी थाना लोपीयें तो महादोष लागे ॥ यतः॥ श्राझानंगोनरेंडाणां, गुरूणां मानमर्दनम् ॥ पृथक्शय्या च नारीणां श्रशस्त्रवधउच्यते ॥१॥ ते सांजली स्त्री बो. ली तमे कहो तो ते पण सत्य के माटे हमणां मित्रने मोकलो, कुमरें पण तेमज कां अने सजानने मोकल्यो. मार्गे जातां राजाना सेवकें पूर्व संकेतथी तेने पेसतांज मारी नाख्यो, मरण पामीने पुर्गतियें गयो ॥ यतः ॥ मित्रसोहिकृतघ्नाश्च, ये च विश्वासघातकाः, ते नरा नरकं यांति, यावच्चं दिवाकरौ ॥१॥तिहां ते सजानना मरणथी कोलाहल थयो, तेवारें कुमरी बोली हे खामी ! जो तमें तिहां जाता तो शा हवाल थाता ! माटें श्रद्यापि तमें प्रमाद बगंमी कटक सज करी सावधान थका रहो कुमर पण तेमज सज थ रह्यो. राजा पण सर्व वात जा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) णी कटक लइ युद्ध करवाने साहामो श्राव्यो. बेहु सैन्य मांहोमांहे मल्यां. एवामांहे दीर्घबुद्धिना धणी मंत्री श्वर श्रावी राजाने कहेवा लाग्या के हे स्वामी! विचाखुं युद्ध न करीयें ॥ यतः ॥ अपरीक्षितं न कर्त्तव्यं कर्त्तव्यं सुपरीक्षितं ॥ पश्चाद्भवति संतापो, ब्राह्मणी नकुलं यथा ॥ १ ॥ इत्यादि प्रधानोनां वचन सांजली राजायें युद्ध निवारण करी कुलजाती पूढवा माटें मंत्री श्वरने कुमरपासें मोकल्या. मंत्री श्वरें श्रावी कुमरने विनव्यो जे तमारो कुलवंश प्रकाश करो. कुमर बोल्यो के सत्पुरुष, पोतानुं कुल पोताना मुखथी कहे नहीं. प्रधान पुरुष बोल्यो तमारा सजन मित्रं श्रावीने राजानी श्रगल तमा वर्णवाद का बे, प्रायः दुर्जन होय ते परविघ्नें संतोषी थाय. ते वचन सांजली कुमरें पोतानुं सर्ववृत्तांत प्रधान श्रगल कयुं. मंत्रीयें जइ राजानी गल निवेदन कयुं, ते समाचार श्रमूलथी जाएवा जणी तत्काल कागल लखीने राजायें कुमरना नगरजणी सेवक मोकल्यो, ते सेवक पण ललितांकुमरना पितापासें जर सर्व हकीगत कही. तेवारें जश् राजा पोताना पुत्रनी खबर सांजली घणोज दर्षवंत Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) थयो. अने राजा कहेवा लाग्यो जे नबुं कस्खु जे महारा पुत्रने जितशत्रु राजायें जीवितव्यनी पेरें राख्यो, में मंदनागीयें तो अतिदाननुं दूषण आपीने सजनना कहेवाथी पुत्रने परदेशे काहाढ्यो. एम कही ते राजाना सेवकने वस्त्रादिक श्रापी संतोषीने विसर्जन कस्यो. सेवके श्रावी राजानी बागल सर्व समाचार संजलाव्यो, राजा प्रमुदित थयो. जमा तथा दीकरीने जश् पोतानो अपराध खमाव्यो. अने कडं के दे ललितांगजी! तमारा जेवा गुणवंत को नथी, अने सजन सरखो पुर्गुणी पापी पण को नथी, माटे हवे हे कुमरजी ! तमें राज्यनो अंगी. कार करो. एम कही कुमरने राज्य थापी पोतें दीदा लश् देवलोके गयो. पाबलथी ललितांगकुमर पण राज्यनी चिंताना करनार मंत्रीश्वरने सर्व कारभार सोपी पोतें सैन्य लाइ महोटी झिथी पिताने चरणे जनम्यो. पि. ता पण नेत्रने श्रानंदकारक एवा पुत्रनुं दर्शन पामीने जेम चंद्रमाना दर्शनथकी समुज्ने हर्ष थाय, तेम हर्षवंत थयो थको पुत्रने कदेवा लाग्यो के हे वत्स ! हवे अमें परलोक साधन करशुं ! श्रने तमें Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) ए राज्य अंगीकार करो. ते सांजली ललितांग बोल्यो के हे स्वामी ! हुं तमारी सेवामां तत्पर रहीशाने तमें राज्य पालो. एम राज्यने अणवांबतां पण राजायें कुमरने राज्य दीधुं. अने पोतें चारित्र लइ परजवनुं साधन करवा मांड्यं. ललितांगकुमर पण घणा वर्ष न्यायपूर्वक राज्य पाली अंत्यावस्थायें चारित्र लइ देवलोकें गयो. ए ललितांगकुमरनुं चरित्र सांजली दे जविजनो ! तमें गीतार्थनां वचनने अनुसारें एकमनाथ श्रीजैनधर्मने विषे प्रीति राखो ने दानादिक चार प्रकारनो धर्म पालो, प्रमाद टालो, पाप गालो, आठ मद टालो, आत्मा अजुवालो. तो स्वर्ग मोनां सुख निश्चय पामो ॥ ३ ॥ इति धर्मविषयिक ललितांगकुमरनी कथा संपूर्ण ॥ हवे या नरनवनुं दुर्लन पणुं बे, ते कड़े बे. इंश्वत्रावृत्तम् ॥ यः प्राप्य डुः प्राप्यमिदं नरत्वं, धर्म न यत्नेन करोति मूढः ॥ क्लेशप्रबंधेन सलब्धमब्धौ, चिंतामणिं पातयति प्रमादात् ॥ ४ ॥ अर्थः- ( यः के० ) जे ( मूढः के० ) मूढ़ पुरुष, ३ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) (इदं के०) श्रा (उप्राप्यं के० ) सुःखें प्राप्त थावा योग्य एवं ( नरत्वं के०) मनुष्यपणुं, तेने (प्राप्य के ) पामीने ( यत्नेन के) उद्यमें करीने (धर्म के ) धर्मने ( न करोति के० ) न करे ने, (सः के) ते पुरुष, (क्लेशप्रबंधेन के० ) अति महेनतें ( लब्धं के०) पामेला (चिंतामणिं के) चिंतामणिने (अब्धौ के० ) समुअमां (प्रमादात् के०) श्रालस्य करीने (पातयति के०) नाखे बे. अर्थात् जे मूर्ख पुरुष मोहोटा कष्टें पमाय एवो मनुष्यजन्म पामीने सावधानतायें करीने श्रीवीतरागप्रणीत धर्मने न अंगीकार करे, तेणें अतिदुःखें मलेलो एवो प्रत्यद चिंतामणि प्रमादथकी समुषमा नाख्यो, एम जाणवू. ए कारण माटे नरनवें करीने धर्मनुं उपार्जन करवू. श्रा ठेकाणे ब्राह्मण रत्नछीपें देवीयें दीधेला चिंतामणिनुं समुषमां पातन कयुं, तेनो संबंध जाणवो. माटे हे नव्यजनो ! ए प्रकारे मनने विषे विवेक लावीने धर्मज करवो कारण के धर्मने विषेप्रीति करनारा सुजन पुरुषो तेने जे पुण्य उत्पन्न थाय. इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवो ॥४॥ टीका ॥ श्रथ नरजवस्य उर्लजत्वमाह ॥ यः Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) प्राप्येति ॥ यो मूढो मूर्खः इदं पुःप्राप्यं नरत्वं प्राप्य यत्नेन उद्यमेन धर्म न करोति सः क्वेशप्रबंधन लब्धं चिंतामणिरत्नं प्रमादात् श्रब्धौ समुझे पातयति ॥ यो मूर्खः पुमान् फुःखेन महता कष्टेन प्राप्यं यतः ॥ चुर्खग १ पासग ५ धन्ने ३, जूए ४ रयणेय ५ सुमिण ६ चकेय ७॥ कूर्म युग एपरमाणू १०, दस दिळंता मणुश्र जम्मे ॥१॥ इत्यादिदशनिईष्टांतैईनं इदं नरत्वं मनुष्यजन्म प्राप्य लब्ध्वा यत्नेन सावधानतया श्रीवीतरागप्रणीतं धर्म न करोति उपेदते स क्लेशप्रबंधेन महता कष्टप्रकारेणातिप्रयासेन लब्धं प्रत्यदं प्राप्तं चिंतामणिरत्नं प्रमादात् अब्धौ समुझे पातयति ॥ अत्र ब्राह्मणरत्नही. पदेव्यादत्तचिंतामणि रत्नसमुनपातनसंबंधोवाच्यः। जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय यत्नेन धर्मएव कार्यः धर्मं च कुर्वतां सतांयत् पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥४॥ ॥जाषाकाव्य ॥ कवित्त ॥ जैसे पुरुष को धनकारन, हींडत दीप दीप चढि जान ॥ श्रावत हाथ रतन चिंतामनि, मारत जलधि जानि पाखान ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) तैसें मत भ्रमत नवसागर, पावत नरसरीर परधान ॥ धरम जतन नहिं करत बनारसि, खोवत वाहि जनम श्रज्ञान ॥४॥ सिद्धांतने विषे मनुष्यनो जन्म पामवो दश दृष्टांतें उर्लन कह्यो , ते दश दृष्टांतनां नाम कहे . एक चूलकनो, बीजो पासकनो, त्रीजो धान्यनो, चोथो द्यूतनो,पांचमो रत्ननो, उठो स्वप्ननो, सातमो चक्रनो, आठमो कूर्मनो, नवमो युगनो, दशमो परमाणुनो. ए दश दृष्टांतनां नाम कह्यां. हवे एनी उपर संदेपथी कथा कहे : प्रथम चुलक ते देशी जाषायें जोजन कहेवाय बे, तेनो दृष्टांत कहे जे. कांपिलपुर नगरें ब्रह्मनामें राजानी चुलणी नामें राणी तेने चौद सुपने सूचित ब्रह्मदत्त नामें पुत्र थयो. ते पांच वर्षनो थयो, तेवारें तेनो पिता मरण पाम्यो. हवे राज्यचिंता करवा जणी तेना दीर्घादिक चार मित्र मढ्या. तेमां दी. घने कांपिलपुरे राख्यो. अने बीजा त्रण मित्र पोताने घेर गया. हवे चुलणी राणी इंडियोना चपलपणाथकी दीर्घनी साथे बुब्ध थ. तेवारें धनुनामा मंत्रीश्वरे ते समाचार कुमरने जणाव्या, कुमर पण Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) दीर्घने तथा पोतानी माताने शीखामण श्रापवा सारु नानाविध प्रपंच देखाडवा लाग्यो. राजसजामांहे अनाचारी पुरुष देखी राजहंसीशुं काग संयोग करतो जो ब्रह्मदत्त कहेवा लाग्यो के ए पापीने अन्य जातिशुं श्रण मलतां संबंध क्यांथी मल्यो. ए अन्याय हुं सहन करी शकुं एम नथी. तेवारें प्रधानने शंका उपनी जे निवें ए ब्रह्मदत्तें चुलणीने अनाचार सेवती जाणी बे. अने दीर्घराजायें पण ते समाचार जाणी चुलणीनी आगल क के तारा पुत्र ब्रह्मदतें एवां चिन्ह देखाड्यां बे, माटें ते आपण बेहुजणने मारशे, तेथी जो तुमने महारो खप होय तो प्रथमथीज थापणे एने मारी नाखीयें, तो सारुं थाय. तेवारें राणीयें कयुं डुंना विनाशनो उपाय करूं बुं. पढी चुलणी यें ब्रह्मदत्तने एक कन्या परणावी. अने नवुं लाखनुं गृह कराव्युं. ए चुलणीनो अभिप्राय सर्व जूना पाटनक्त प्रधानें जाण्यो, जे ए विषयांधत्वथकी पुत्रने लाख गृहमां बाली नाखशे, तेमाटे प्रधाने पण नगरबाहिर थका प्रसन्नपणे लाखना धवलगृह लगें मध्य गर्त्ता खणावीने पढी ब्रह्मदत्तने कर्तुं के तहा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) री मातायें तुमने मारवा माटे लाखनुं गृह बनाव्युं बे, पण ते वात ब्रह्मदतें मानी नही. ब्रह्मदतें कां के बोरु कुबोरु थाय पण मावतर कुमावतर थाय नही. ते सांजली प्रधानें कयुं के स्वामी ! तमें कहो बो ते सत्य हशे . पण जेवारें या घरमां वसवानुं मुहूर्त्त होय, तेवारें सूतां थकां सावधान रहेजो. कां काम पडे तो पाटु प्रहारें सरंग उघाडी नगरनी बाहिर श्रावजो. अश्व शणगारी पलाए सहित हुं स करी राखीश. तमें महारी साथै देशांतर चालजो. हवे चुलणीयें मुहूर्त्त जोवरावी पुत्रने कयुं के तमें नवपरिणीत बो, माटें श्राजे नवा घरमां शयन करवा जाजो. कुमर तिहां गयो, तेवारें तेने प्रधानें कयुं के आज तुमें सावधान रहेजो. ते सांगली ब्रह्मदत् क परिणामें चिंतव्युं जे धावा स्थानकमां वली शो उपद्रव थवानो बे ? रात्रियें अकस्मात् ते पापबुद्धि मातायें घरनी चारे बाजुयें श्राग लगाडी दीधी. ते देखी वरधनु मित्रं कुमरने जगाड्यो, ते सुरंगमांथी बेहु जण नाशि अश्वारूढ थ देशांतर जणी चाव्या. केटलीएक भूमि उल्लंघी गया. एकदा वनमांहे कुंअरने तृषा लागी ते सारु Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) मंत्रिपुत्र पाणी लेवा गयो, ते घणी वारपर्यंत न श्राव्यो तेवारें तेने जोवा माटें कुंअर निकट्यो, ते मार्गमां नूलो पड्यो तेवारें तृषायें पीड्यो थको एक वृदनी नीचे जश् सुश् रह्यो. एवामां एक देशांतरी वटेमारी को एक ब्राह्मण पाणी- पात्र लश् वृदनी बायायें श्रावी विश्राम लेवा बेठगे. ब्रह्मदत्ते तेनी पासेंथी पाणी माग्यु. ब्राह्मणे पाणी थाप्यु अने वली पासें कांक फलादिक हतां, ते खावाने श्राप्यां, तेवारें ब्रह्मदत्ते कडं के मुऊने जे वखत राज्य प्राप्त थयुं तमें सांजलो, ते वखत कपिलपुर पाटणे श्रावजो. एम कही ब्राह्मणने विसर्यो. ___ वली तिहाथी केटलेक कालें बेनातट नगर जणी जातां मार्गमा एक ब्राह्मण मल्यो, तेना सथवाराथी बार योजननी अटवी कुमरें उबंधन करी. जोजननी वेलायें ब्राह्मण पोतें एकलोज जम्यो. पण कुमरने आग्रह मात्र न कीधो. तेम कुंअरे पण याचना कीधी नही. कारण के महांत पुरुष मरणांतें पण याचना करे नही. एम करतां अटवी उत्तरी प्रांतें पहोता, तेवारें कुमरें कडं के हे ब्राह्मण ! तमारा पसायथी हुँ अटवी उतस्यो, माटें जेवारें मुऊने Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) कांपिलपुरनुं राज्य प्राप्त थयुं सांजलो, तेवारें तरत आवजो. एम कही ब्रह्मदत्त बेनातट नगरें गयो. ब्राह्मण चिंतववा लाग्यो के जूर्व एजें औदार्य धैर्य केहबुं ? अने महारुं कृपणपणुं केहq ? एम चिंतवतो स्वस्थानकें गयो. पनी केटलेक कालें जा. ग्ययोगें ब्रह्मदत्तने ब खंड पृथ्वीन राज्य मव्युं. चक्रवर्तीनी पदवी प्राप्त थश्. वरधनुमित्र पण श्रावी मल्यो, तेमने श्रापणा नगर नणी आवता जोश चुलणीयें देहनो त्याग कस्यो. ब्रह्मदत्त पोताना पिताना राज्यपाटें बेठो. हवे जेणे पाणी पीवराव्यु हतुं ते ब्राह्मण पण ब्रह्मदत्तने राज्य मव्युं सांजली नगरमां श्राव्यो तेणें राजाने मलवाना घणा उपाय कख्या पण दरिडीने राजानुं दर्शन थाय नही. एम मास वही गया पली नगरमां को बुद्धिथी उपाय बतावनारानी शोध करतां एक बुधिना श्रापनारायें कडं के मने लाख सोना मोर आपो तो हुँ उपाय बतावं. तेने ब्राह्मणें कडं जो मुझने राजानो मेलाप थशे, तो हुँ तुऊने लाख सोनामोर थापीश. पली बुद्धिना देवावालायें कयु के एक महोटों जबरजस्त Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) वांस लश्ने तेने रस्तामांहिलां जूनां त्रटेलां फाटेलां खासडांनी माला वलगाड़ी ते वांसडाने पकडी राजमार्गे उना रहो, जेवारें राजानी खारी निकलशे, तेवारें तेना उपर दृष्टि पडवाथी अभिनव आश्चर्य देखी राजा पूजा करशे, ते वखत तुं श्राशीर्वाद प्रापजे. ब्राह्मण पण तेज उपाय करी राजाने मख्यो. राजायें दीगे तेवारें तरत उलखी तुष्टमान थश्ने कहेवा लाग्यो के हे विप्र ! माग मागजे मागे ते आपुं. ब्राह्मणें कडं के स्वामी घेर जश् महारी स्त्रीने पूबी श्रावं, राजायें कडं शीध्र पूर्वी श्राव ब्राह्मणे घेर श्रावी स्त्रीने पूब्युं के हे प्रिये ! राजा संतुष्ट थयो जे माटें हवे हुं शुं मारे ? तेवारें स्त्रीयें विचाखु जे ए गाम गरास नगर मागशे तो पड़ी मुझने मानशे नही माटें एबुं मगावं के जेथी ए समतुल्य रहे. एवं चिंतवीने कवा लागी के आपणे ब्राह्मणजाति बैयें, माटे गाम नगरादिक मागणुं तो रात्रि दिवस तेनी चिंतामा रहे पमशे, घणा चाकर नफर राखवा पमशे अने जो धनधान्य मागसुं, तो व्यापार चलाववो जोशे. व्याजें धन श्राप, जोशे इत्यादि संजाल राखवानी विटंबना Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( ४२ ) करवी पडशे, माटे राजाना व खंग पृथ्वीमां जेटला चूला बे, ते प्रत्येक चूला दीठ एक दिवस पणा कुटुंबाने जोजन मले, छाने एक सोनामोर दक्षणा मले. एवी मागणी करो) ब्राह्मणें पण स्त्रीना कह्या मुजब राजा पासें जर याचना करी, तेवारें राजा बोल्यो के दे निर्माग्य ! पाबलबुद्धि ब्राह्मण ! हुं तुष्टमान थयो बतां या फरी जीख मागवानुं ते तें शुं माग्युं ? पण ब्राह्मणें तो स्त्रीना कदेवा प्रमाज राजाने क. हे महाराज ! जो तुमें तुष्टमान या तो एटलुंज श्रापो के जेथी हुं रलीयायत थाजं! तेवारें राजाने तेमज प्रमाण कीधुं ने पहे - ला दिवसें चक्रवर्त्तीयें पोताने घेर जमाडीने एक सोना मोर दक्षणा पी. पबी चक्रवर्त्तीनी १०२००० ) तेरीने घेर जम्यो . पी चक्रवर्त्तीना पुत्र पौत्रादिने घेर जम्यो ( पण जेवो स्वाद पहेले दिवसें चक्रवर्तीना घरनी रसवतीनो हतो, तेवो स्वाद बीजा कोइना घरनी रसवतीनो थावे नही. तेथी तेज जमण संजाया करे अने मनमां विचारे के कोइ रीतें फरी चक्रवर्त्तिने घरे जमवानो वारो आवे तो सारं ! पण वारो वे नहीं ते वारो पण कदापि Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) कोश् देवताना सहायथी अथवा प्रबल आयुष्यवान् पामे. परंतु मनुष्य जन्मश्री ज्रष्ट थयो ते फरी मनुव्यावतार न पामे ) इति प्रथम चुसकदृष्टांतः ॥१॥ - हवे बीजो पासानो दृष्टांत कहे . जरतदेतमा गोल देशने विषे चणकनामें ग्राम . तिहां चणकनामें ब्राह्मण तेनी चिणेश्वरी नामें नार्या ते स्त्री जरतार बेहु अरिहंतनी नक्तिनां करनार . तेमने घरे दांत सहित पुत्र जन्म्यो. मात पितायें दांत घसावी नाख्या. एकदा झषीश्वरनो संघाडो तेमने घेर श्राव्यो, तेवारे चिणेश्वरीयें नमस्कार करीने पूब्युं के महाराज! अमारे घर आ दांत सहित पुत्र श्राव्यो, तेनुं हुं फल थाशे ? ऋषियो बोल्या के जो तमें एना दांत नही घसत तो ए राजा थात. हवे ए दांत घसी नाख्या माटे बिंबांतरित राजा थाशे, पड़ी ते पुत्रनुं चाणाक्य एवं नाम दीधुं. ते पण आकरो श्रावक थयो, सर्व विद्या नण्यो, यौवनावस्था पाम्यो, रुडा कुलमां परणाव्यो, अन्यदा प्रस्तावें चाणाक्यनी स्त्री जाश्ना विवाह माटें पी. यर गइ. तिहां विवाह उपर बीजी पण बहेनो श्रावी, तेना ससरा महाधनवंत ने तेथी ते बहेनो Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) वस्त्राजरण पहेरी जमी तांबूल नक्षण करी उंची चढी बेठी. श्रने चाणाक्यनी स्त्रीना अंगनां वस्त्र जूनां फाटां देखी हसवा लागी. तेथी ते आकरो असंतोष धरती विवाह करी पोताने घेर थावी. चाणाक्ये पोतानी नार्याने श्रामण दूमणी देखीने पूज्युं जे तुऊने शी असमाधि उपनी ने ? पण ते बोली नही. तेवारें न घणो श्राग्रह करीने पूव्युं तारें तेणे पण पोताना पीयर संबंधी सर्व वृत्तांत कडं. ते सांजली चाणाक्य अव्योपार्जन करवानो उपाय चिंतववा लागो. तेवारें तेने कोश्क ब्राह्मणे कयु के पामलीपुर नगरें नंदराजा वर्षदिवसने आंतरे ब्राह्मणने दक्षणा श्रापे , एवं सांजली चाणाक्य पण तिहां गयो. राजाने घेर जश् वीशामो सेवा माटे नंदराजाना सिंहासन उपर चढी बेगो. राजानी दासीयें कडं के हे विप्र! तमें बीजे कोश् श्रासने बेसो. ते सांजली चाणाक्ये बी. जे श्रासनें कमंमल मेट्युं तेमज त्रीजे श्रासने मंग मूक्यो, चोथे जपमालिका मूकी, एम चार सिंहा सन संध्या. अने पांचमे श्रासने जनोश् मूकी, तेवारें दासीयें तेने रीशथी उगडी मूक्यो. चाणा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) क्ये पण रीसाश्ने एवी प्रतिज्ञा करी के हुँ खरो चाणाक्य तोज के ए नंदराजाने समूलो उन्मूली ना ? एवं कही सनामांहेथी निकल्यो बागल जतां विचारवा लाग्यो जे मने तो राज्य मलवानुं नथी. माटे हुँ प्रधानज थाश्श ! पण कोश् राजयोग्य कुमर जोलं. एम चिंतवतो मयूरपोषकने गामें गयो. यावत् निदानिमित्तें तेने घेर गयो, ते अव. सरें मयूरपोषकनी दीकरीने गर्नने योगें चंडमा पीवानो दोहोलो उपनो, पण को पूरी शके नही तेना बा चाणाक्यने परदेशी जाणी पूब्युं तेवारें चाणाक्य बोल्यो के ए पुत्र जन्मतांज जो मुऊने आपो तो हुँ दोहोलो पूर्ण करूं. बापें ते वात कबूल करी तेवारें चाणाक्यें पोतानी मतियें करी विज्युक्त तृण- घर कराव्युं ते उपर एक पुरुष बिन पूरवा माटे बानो चढाव्यो. पनी विशालथाल छग्धमिश्रीप्रमुख परमान्ने नरी ते घरमां जिहां चंअमानो उद्योत , तिहां मूक्यो तेमां चंडमानुं प्रतिबिंब बे, माटें बायें दीकरीने तेडीने कडं के हे पुत्रि! ए चंउमा ने तेनं तमें पान करो. तेवारें ते पुत्रीयें परमान पीवा मांम्युं तेम तेम उपर रहेला Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) पुरुषे ते बिड पण पूरवा मांमयु, जेवारें संपूर्ण पान करी लीधुं.तेवारें विज पण पूरी नाख्यु, घरमां अंधकार थयो.एम करी चंजमानो दोहोलो पूरो कराव्यो. पूर्ण मासे पुत्र जन्म थयो, तेनुं नाम चंदगुप्त पाड्यु. - हवे चंद्रगुप्तने तिहां मूकी चाणाक्य पोतें सुवर्ण विद्या साधवा जणी देशांतरें नमवा लाग्यो, सुवर्ण सिकि करवानी विद्या पामीने चाणाक्य बार वर्षे पाबो तेज गामें श्राव्यो. तेवारें चंद्रगुप्तने बोकरा साथें रमतो दीठो. तिहां चंडगुप्त पोतें राजा थयो , कोश्क बोकराने प्रधान कस्यो बे, केटलाएकने खिजमतदार सेवक काबे, एवो देखी चाणाक्य हर्षवंत थयो बोकराने श्राशीष थापी कहेवा लाग्यो के, हे राजा ! अमने कांश्क दान श्रापो, चंडगुप्तें कडं जाउँ तमोने पांच गाम दीधां. एम कही नमस्कार कीधो. वली लोकोनी गाय जती देखी चंगुप्तें कडं के ए गाय पण तमें त्यो. चाणाक्ये कह्यु के ए पारकी डे ते केम लेवाय! चंउगुप्ते का" वारज्योज्या वसुंधरा" ए वचन सानता विस्मित थको चाणाक्व पूबवा लाग्यो श्रा बालक कहेनो डे ? तारें बीजा बोख्या ए परिव्राजकनो पुत्र Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) बे. ते सांजली चाणाक्यें कडं, के हे वत्स ! श्राव तुऊने राज्य देवरावं. तेवारें चंद्रगुप्त उठीने चाणाक्यने पगे लाग्यो अने बेहुजण देशांतरे चाल्या पबी धातुर्वादादिकने योगें सुवर्ण सिद्धि करी हस्ती, तुरंगम, गज पायदलादिक सर्व सैन्य एकतुं करी, लश्ने पामलीपुर नगरे घेरोनाख्यो. नंद राजा पण युद्ध करवा साहामो श्राव्यो, युक करतां दैव योगें चाणाक्यनुं सैन्य नाग्यु. तेवारें ते चाणाक्य, चंडगुप्तने साथें लश्जीवतो नागे. पाउलथी नंद राजायें चाणाक्यने मारवा माटें केटलाएक घोडेसवार मोकल्या अने नंदराजा पाठोघेर श्राव्यो. हवे ते सवारो दोडता दोडता चाणाक्यनी नजीक श्राव्या. ते जो चाणाक्ये चंगुप्तने कडं के हे वत्स ! तुं नाशीने सरोवरमा प्रवेश कर. तेणे तेमज कीधं अने चाणाक्य पोतें सरोवरने कांठे योगी थर ध्यान धरवा बेगे, एवामा असवार यावं। चाणाक्यने पूबवा लाग्या, स्वामी ! तमे शहां बे स्वरूपवंत यौवन वय पुरुषो जाता दीग ? चाणाक्ये ध्याननंगना जयनो मोल घालीने संझाथी सरोवरमा रहेलो चंअगुप्त देखाड्यो, तेने काढवा माटें असवारें हथी Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) यार धरती उपर राख्यां अने पोते पाणीमा प्रवेश करवा मांगयो, एटलामां चाणाक्ये उतावलथी उठी लघुलाघवी कलायें करी तेहज हथीयारथी तेनुं मस्तक कापी नाख्यु, पनी चंअगुप्तने पाणीमांधी काहा ढी अश्व तथा हथीयार लश् बेहु मार्गे चालता थया. तेवारे रस्तामां चंडगुप्तने चाणाक्ये कडं के हे वत्स! में तुऊने पाणीमां बताव्यो ते वखतें तुऊने महारी उपर द्वेष उपन्यो के केम ? ते कहे. तेवारें चंडगुप्तें कडं के हुँतो एम समज्यो के जे तमें कडं हशे, ते गुणने वास्तेज कर्वा हशे. वली श्रागल जतां नंदराजानो बीजो असवार श्रावतो देखी फरी चाणाक्ये ते चंगुप्तने तलावमा प्रवेश कराव्यो अने त्यां को धोबी वस्त्र धोतो ह. तो तेने चाणाक्ये कयुं हे रजक ! राजा रीसाणो डे ते लोकोने मारतो आवे बे, माटे जीवितव्य वांडो तो श्राहींथी नाशी जाऊ. रजकें पण उघाडे खड़े असवार श्रावतो दीगे, ते जो धोबी नाशी गयो. पाबलथी चाणाक्य ते धोबीनां वस्त्र धोवा लाग्यो. तेने असवारें श्रावी पूर्वनी पेठे पूब्युं, तेने पण चाणाक्ये तेमज पूर्वोक्त बुद्धियें करी मारी नाख्यो. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) फरी बेहु जण तिहांथी बागल चाल्या. संध्या समयें एक गामें गया, तिहां एक मोशीने घेर जश बेठा एटलामां ते मोशीनो पुत्र व्यालु करवा बेठगे तेने मोशीयें उनी राब पीरशी बे, तेमां ते बोकरे उतावलें वचमां हाथ घाल्यो, तेवारें मोशीयें कह्यु के दाजो रे पुत्र दाऊो. तुं पण चाणाक्यनी पेठे मूर्ख कां थयो बो? ते सांजली चाणाक्ये मोशीने पूब्यु के माताजी ! चाणाक्यने मूर्ख केम कहो बो? तेवारें मोशी बोली के चाणाक्यें प्रथमथीज पामलीपुर जश् रुंध्यु परंतु जो देश पोताने वश करी पड़ी नगरने घेरो घाल्यो हत, तो शुं बगडी जात ? ए बुद्धि सांजली चाणाक्य विस्मयापन्न थक्ष हिमवंत पर्वतें गयो. तिहां एक गाममां जश् पर्वतराजानी साथे प्रीति कीधी. एकदिवस अवसर जोश् चाणाक्य ते राजानी साथें मसलत करी के आपणे नंदराजनो देश वश करी पामलीपुरमाथी नंदराजने उगडी अर्को थर्ड राज्य वहेंची बेशु, तेणें पण ते वात मान्य करी, पडी बेहु एका मली कटक मेलवी अनुक्रमें सर्वदेश वश करी बेहेलो पामलीपुरने विषे घेरो नाख्यो, नंद राजायें युद्ध कखं. ते Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) मां नंदराजा दारी गयो, तेवारें धर्मद्वार माग्युं, तेने चाणाक्यें कयुं के हे नंदराजा ! जेटलुं एक रथमां द्रव्य उपडे, तेटलुं लइ जार्ज, तेथी अधिक लेशो मां. नंदराजा पण मणिरत्न सुवर्णादिक रथमां नरी, एक स्वरूपवना दीकरीने रथमां बेसाडी तिहांथी निकल्यो. एवामां चंद्रगुप्त रथमां बेसी गाममां फरवा निकल्यो बे, तेनी उपर कुमरीनी दृष्टि पडी, तेथी अनुराग उपन्यो, तेवारें नंदराजा पुत्री - नो मनोगत जाव जाणीने बोल्यो के दे पुत्रि ! तुं सुखें ए चंद्रगुप्त जर्त्तारने वर. तहारुं कल्याण था. एम कहेतांज ते पुत्री रथ उपरथी उतरीने चंद्रगुंडना रथ उपर चढवा लागी तेटलामां चंद्रगुप्तना रथना नव यारा जांगी पड्या तेवारें चंद्रगुप्तें, कत्युं के ए कन्या अशुजकरिणी बे माटे जवा द्यो आपणा कामनी नथी. तेने चाणाक्यें कयुं के ए शुकन जलुं बे, एनुं वर्जन म कर. नव धारा नांग्या माटें तहारी नव पेढी पर्यंत राज चालशे, एम कही कन्या राखी पढी पर्वतक ने चंद्रगुप्त ए बेहु नंदना घरमां गया, तिहां लक्ष्मीनी वर्हेचण करवा लाग्या, ते घरमा एक कन्या दीठी. तेनी उ a Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) परे पर्वतक राजा सानुरागी थयो. तेवा, ते कन्या चाणाक्ये पर्वतकराजाने परणावी परंतु ते विषकन्या होवाथी तेना करस्पर्शनश्री पर्वतक राजा विपत्ति पाम्यो. ते विषकन्याने योगे चंगुप्तने औषध विना व्याधि गयो ॥ यतः ॥ अर्थराज्यहरं मित्रं, योन हन्यात्स हन्यते ॥ तस्माहिनौषधेनैव, व्याधिनवेत्तु गम्यते ॥१॥ चंगुप्त सर्वराज्यनो धणी थयो, राज्य पालवा लाग्यो. एवामां पामलीपुर निवासी सर्व लोक मली विनति करवा लाग्या के अहो स्वामी! नंदराजा अमारी पासेंथी स्वल्प कर लेतो हतो, प्रजाने श्रात्मजनी पेरें पालतो अने हमणां तमारा राज्यमां तो श्रमें करें करी पीडित छैये, माटे केम करीयें ! क्यां जयें !!! तेवारें चंगुप्ते चा. णाक्यना मुख साहामुं जोयु, तेणें विचाखु जे श्रा लोकोने संतोष नहिं थाशे, तो लोक उचालो जरीने जाशे ! एम विचारी लोकोने कर रहित कस्यां, तेने लीधे आयपद थोडी अने खरच घणो थवाथी जंमार खाली थतो देखीने चाणाक्य कांश्क नवीन उपाय चिंतववा लाग्यो, तेवारे त्रण उपवास करी पूर्वना मित्र देवताने आराध्यो. ते देवतायें श्रावी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aamdardrint w ws (५५) नक्तिने प्रमाणे चाणाक्यने बे अजेय पासा आप्या. पठी चाणाक्य ते शहेरना व्यवहारीयाने तेडी कोड कोड टकानां रत्न मारमांधी काहाढी द्युत रमवा माटे कहेवा लाग्यो के जे मुजने जुवटुं रमता जीते, तेने ए रत्न सर्व श्रापुं. अने जे हारे ते ए रत्न मांहेला रत्न सरखं एक रत्न श्रापे. ए वचने संतोष पाम्या थका ते व्यवहारिया रमवा लाग्या, पण देवताधिष्ठित पासाना बलथी चाणाक्य जीती जाय. को कालें हारे नही. ते पण कदापि दैवयोगें हारी जाय, परंतु मनुष्यनव हाथमांथी गयो ते फरी पामवो महा पुर्खन डे ॥ इति बीतीयपासक दृष्टांतः ॥२॥ ___ हवे त्रीजो धान्यनो दृष्टांत कहे . कोश्क राजायें कौतुक माटें सर्व जातिनां जरतदेत्रमा उपजतां धान्य एकगं करावी तेमां एक पाथो सरशवना दाणानो नाख्यो, ते धान्य साथे मेलवीने पड़ी एकशो वर्षनी मोशीने तेवाडी कर्वा के श्रा चोवीस जातिना धान्यना राशीमांथी सर्व जातिनां धान्य जूदां करीने वली एक सरशवनो पाथो साथें मेलव्यो , ते काहाढी आपो. ते वृद्धा मोशीथी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) ए को रीतें जूदा थक्ष शकेज नही तेपण कदापि देव साहायथी सरशव जूदा थक्ष शके, पण जे मनुष्यावतार गयो ते फरी वीतरागनी श्राज्ञामां वर्ततो एवो मनुष्यनव पामवो पुर्खन ॥ इति तृतीय दृष्टांतः॥ हवे चोथो द्यूतनो दृष्टांत कहे बेः- कोश्क राजानी सना एकशो आठ थांबायें करी समन्वित बे, ते वली एकेके थने एकशो ने श्राप हांसो बे. ते राजा घणो वृक्ष थयो पण मरण पामतो नथी, तेवारें महोटा डोकरायें विचाखु जे हुँ पण वृद्ध थवा आव्यो.तो हवे राजा क्यारें मरशे ने पढ़ी हुं ते राज्य क्यारें जोगवीश ! माटे कोश रीतें राजाने मारी नाखुं तो हूं राजा थालं. ते बुपी वात प्रधाने जाणिने राजाने संजलावी. राजायें विचायुं जे पुत्र पण जीवतो रहे अने हुँ पोते पण जीवतो रहुं ! एवी युक्ति शोधुं. पली बुधिना प्रपंचें करी पुत्रने तेडावीने कडं जे हे वत्स! हुं वृक्ष थयो माटे तुं राज्य ले पण प्रथम श्रापणा घरनी चाल ले, ते कर, के जे थकी तुऊने राज्य स्थिर थाय. कुमर बोल्यो के हे पिताजी ! जे तमें श्रज्ञा श्रापो, ते हुँ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) करूं. राजायें कयुं श्रापणी सजाना एक मंगपें १०० थांजला बे यांजले यांजले १०० हांस बे, मादे में महारी साथै जूबटुं रमो. एकवार जीतो तो एक दांस जीत्या. एम १०० वार जीतो तो एक जीत्या एवा १०८ यांना जीतीने राज्य ल्यो, पण जो रमतां रमतां वचमा एक दाव हारी जाशो, पाबला दाव सर्व व्यर्थ जाशे. ते वचन सांजली कुमर पण लोजना वशयी रमवा बेठो. घणा दिवस रमतां पण एके यांनो जीती शकायो नही, तो सर्व सजाना थांगला क्यांथी जीत्या जाय ? कदापि ते पण को देवताना सान्निध्यथी जीत्या जाय, परंतु मनुष्यजवथी भ्रष्ट थयो ते बीजी वार मनुष्यजन्म न पामे ॥ इति चतुर्थ द्यूतदृष्टांतः ॥ ४ ॥ हवे पांचमो रत्ननो दृष्टांत कहे :- वसंतपुर नगरे पार धननो धणी गुणवान् धन्नो एवे नामें व्यवहाय वसे बे. तेने गुणवंत एवा पांच पुत्रो बे. हवे ते धन्नो शेव रत्न परीक्षाने विषे निपुण बे, माटें तेनुं अपर नाम रत्नपरीक्षक बे. जे जे बहुमूलां रत्न यावे, ते सर्वनो संग्रह करे, पण वेचे नही. तेवारें पुत्रो star लाग्या के हे पिताजी ! बमपात्रमणां दाम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) श्रावे , तेम उतां रत्न का वेचता नथी? तो पण ते लोनवशे वेचे नहि. एकदा ते शेठ ग्रामांतरें गयो, पड़ी पाबलथी पुत्रोयें सर्व रत्न को देशांतरीने वेचातां श्रापी दीधां. शेठ घेर श्राव्यो, अने पोतानां रत्न वेचवाना सर्व समाचार सांजली रीशें करी कहेवा लाग्यो के हे पुत्र ! महारां जे रत्नो बे, ते रत्नो पागं श्राण्याविना महारा घरमां तमें श्रावशो नही. तेवारे ते पांचे पुत्र रत्न सेवा माटे परदेश नणी निकल्या, पण ते सर्वे रत्नो तेवांने तेवांज क्याथी मले ? हवे ते पण कदाचित् को देवताना सहायथी मली जाय, परंतु मनुष्यावतारथकी ज्रष्ट थयो जे होय, ते फरी मनुष्यनवने पामे नही ॥ इति पंचम रत्नदृष्टांतः ॥५॥ हवे हो स्वप्ननो दृष्टांत कदे बेः-उजायणी नगरीयें बहोंतेर कलानो जाण एवो मूलदेव नामें राजपुत्र , ते कलाकला करी सकल लोकने प्रीति ऊपजावतो रहे . एकदा ते उजायणीमां देवदत्ता वेश्यानी उपर श्राकरो रागातुरथश्ने तिहांज रह्यो. तेने कोश्क व्यवहारीये मान घंश करी काढ्यो. त्यांची निकली परदेश जमवा लाग्यो. श्र Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) नेक पृथ्वीनां विनोद देखतो थको कोश्क गामें मठमांहे जश् सूतो तिहां स्वप्नमां चंप्रमाने पोताना मुखमां पेसतो देखी जाग्यो, ते समयें तेज महमा एक कापडीये एटले को गुंसाइने चेले पण एकुंज स्वप्न दीk. पनी जागीने ते स्वप्ननो विचार पोताना गुरु गुसांश पासें जश् पूबवा लाग्यो, तेवारें गुंसांश्ये कयु के आज तुं घृत खांम सहित रोटलो पाशीम ! एवं जाणी मध्यान्ह समये ते निदामाटे गयो, तिहां कोश्क दातार पुरुषं घृत खांम सहित रोटला थाप्या, ते लश् चालतो थयो अने मनमा प्रमोद पाम्यो. हवे मूलदेव तो शास्त्रनो जाण ने माटे महथकी निकली फलफलादिक लइ स्वप्नपाठक पागल मूकी स्वप्ननो वीचार पूज्यो. तेवारे पाठक बोल्यो के तमोने महोटुं राज्य मलशे ? तेने तहत्त मानीने नगरमांहे निदा पामी कल्माषे करी मासोपवासी साधुने पारणुं कराव्यु. ते साधुनी नक्तिना प्रजावथी देवता तुष्टमान थप बोस्यो के हे मूलदेव ! तुं एके वचनें जे विचारमा श्रावे, ते माग. तेवारें मूलदेव बोल्यो के हे स्वा. मी ! हजार हस्ती बंधाय एवं राज्य देवदत्ता गणि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) ५७ का सहित श्राषो. देवता बोल्यो के ए सर्व तमें पामशो. तेवार पछी सातमे दिवसें कोइक नगरें गयो. तिहां पुत्रीयो राजा मरण पाम्यो. ते नगरना लोकोयें राजानुं मृतकार्य करि राज्यना अधिकारी पंचने मेलवी पंच दिव्य प्रगट करी (मूलदेवने राज्य प्युं. ए वात गुंसांना चेलायें सांजली तेवारें पश्चात्ताप करवा मांड्यो जे अरे हुं निर्बुद्धि बुं मने स्वप्न लाधुं ते फोकट दाखुं पठी वारंवार ज‍ तिहांज सुवे पण स्वप्न देखे नही. कदाचित् दैवयोगें वली ते कापडी स्वप्न पण देखे, परंतु मनुष्यजवथी ष्ट थयो ते फरी मनुष्यजव पामे नहीं ॥ इति षष्ठ स्वप्नदृष्टांतः ॥ ६॥ हवे सातमो चक्रनो दृष्टांत कहे बे. इंद्रपुर नगरें इंद्रदत्त राजा बे, तेने बावीश राणीयोना श्रीमाल प्रमुख बावीश पुत्रो बे. सर्व ते बहोंतेर कलामां प्रवीण बे, सर्व सौभाग्यना निधान बे, एकदा वली राजायें मंत्रीनी पुत्रीने परणी. पाबलथी कर्मयोगें ते मंत्रीनी पुत्रीने अने राजाने द्वेष थयो, तेथी राजायें तेने त्यागी दीधी, पिताने घेर जर रही एम करतां घणा दिवस वीत्या, तेवारें एक दिवस राजा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) ये बाहिर जातां ते स्त्रीनेगोंखें बेठी दीवी,ते दिवसें ते कतुस्नानवाली जे. राजायें तेने सादात् तिसमान देखी पोताना मानसोने पूज्युं के अरे ! ए स्त्री ते कोण ले ? तेवारें एक सुनटें कडं हे खामी ! ए मंत्रीनी पुत्री तमारी राणी , तेवारे राजा ते रात्रं तिहांज रह्यो. पनी जाग्ययोगें कोश्क पुण्यवंत जीव तेने उदरें आवी उपनो. प्रातःकालें पुत्रीयें पिता श्रागल सर्व समाचार कह्या. तेवारें मंत्री ते दिवस, वेला, संकेत, इत्यादि सर्व यादी कागदें लखी राखी अने पूर्ण दिवस थये पुत्र जन्म्यो , तेनुं ना. म सुरेंदत्त दीधुं. पनी उजाल पदमा जेम चंउमा हर्ष उपजावे, तेम हर्ष उपजावतो कमें कमें वधतो गयो. हवे तेज दिवसें मंत्रीनी दासीयें चार पुत्र प्रसव्या, तेनां नाम कहे . एक अग्नि कर, बीजो पर्वतक, त्रीजो बहुल, चोथो सागर अने पांचमो तेनी साथे सुरेंजदत्त, ए पांचे मली एकज उपाध्याय पासें नणवा लाग्या, तिहां प्रधाने सुरेंजदत्तने जणाववा माटे कलाचार्यने सारी रितें जलामण दीधी, ते उपरथी कलाचार्ये पण धणी मेहेनत करीने जणाव्यो, दासीना चारे पुत्र विघ्न करे, पण Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) सुरेंजदत्त विद्याज्यासज करतो रहे. वली राजाना बीजा जे बावीश पुत्रो , ते पण तेज नीशालमां जणे , परंतु ते राजमद यौवन मदें करीने उलंग थका गुरुनी साहामा वांकुं बोले,. तेवारें कलाचार्यतेमने शीख थापे, तो रुदन करता मा बापनी था गल जाय. अने प्रधान तो श्रध्यापकने एज नलामण करे, के पुत्रने ताडना तर्जना करीने पण नपावजो. तेथी उपाध्याय पण तेने खांतें करी विशेष जणावे शास्त्रकला, राधा वेध प्रमुख सर्वकलाई शीखी हुशीयार थयो, तेवारें अध्यापकें सुरेंजदत्त कुमरने लावीने प्रधानने सोंप्यो, प्रधाने पण अध्यापकने सारीरीतें दान द संतोषीने विसर्जन कस्यो, ___एवा अवसरें मथुरानगरीयें जितशत्रुराजानी निर्वृत्ति नामें पुत्री बे, ते तरुण अवस्थाने प्राप्त थ. इ, तेंवारें मातायें सर्व शणगार पहेरावी तेना बाप पासें मोकली, पितायें तेनी सुरत देखी ए कन्या स्वयंवरने योग्य बे. एम चिंतीने कधु के हे पुत्री ! मन मानता जरतारने तमें वरो. पुत्री बोली हे पिताजी ! जे राधावेध साधे, तेने हुं वलं ! कुमरीनी एवी प्रतिज्ञा जाणी राजायें गम गम Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) दूत मोकली कदेवरायुं ने इंद्रदत्तने घणापुत्र माटे तेने तेडवा सारु प्रधान मोकल्यो, तेणे ज‍ राजाने वीनव्यो के स्वामी ! तमारा पुत्रो सहित तमें स्वयंवरने विषे पधारो. राजा पण बावीश पुत्रें परवस्यो थको प्रधान सहित स्वयंवर मंरुपें श्राव्यो. 0 हवे जितशत्रुराजायें शुभ मुहूर्ते सर्वनगर शएगा. पोतें नगर बाहिर सर्व परिवार सहित निकल्यो, जंप कराव्यो, तेनी वचमां स्तंन उनो कीधो, उपर सृष्टिसंहारें फरतां या या चक्र मांड्यां, ते उपर पूतली मांगी, उंधामुखने धारण करनारी ते पूतली बे तेथी तेनुं नाम राधा पाडेलं बे. वली देवल तेलथी नरेली एक कडाइ मांगी. तिहां कन्या, पंचवर्णी सुगंध युक्त फूलनी माला लइ यंजनी पासें खावी उजी रही. अने कहे बे के जे पुरुष ए राधावेध साधशे, तेना कंठमां हुं या माला रोपण करीश. एम कही सावधान थइ उनी रही. अवसरें इंद्रदत्त राजायें पोतानो महोटो श्रीमाल नामें पुत्र बेतेने दूर लइ जइ कयुं के दे पुत्र ! तुं राधावेध साध छाने कन्या सहित ए राज्य Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) लश् ले. ते वात सांजली ते पुत्र कंपवा लाग्यो. धनुष्य मात्र पण उपाडी न शक्यो, तथापि वली कांश्क साहस श्रादरी धनुष्य तो प्रयासें करीउपाड्यु,पण ते चढावी शक्यो नही, तेवारें विलखो थश्ने बोल्यो के अरे! श्रा कार्य तो महाराथी थायज नही! ___ एवामां वली बीजो कुंधर श्राव्यो, ते आवी धनुष्य चडावी तुरत पाडो वस्यो. पनी त्रीजो कुमर श्रावी दृष्टियें जो पाठो वढ्यो, तथा चोथो पुत्र तो अर्ड रस्तेथीज जोश पाडो बढ्यो, अने पांचमो तो पोताना स्थानकथी उठ्योज नही. एम बावीश कुमर विलखा थर बेठा, तेवारें, राजार्नु मुख विलखाणुं जो प्रधानें कडं के स्वामी ! पुःखी म था5. एक पुत्र तमारो हजी पण बे, तेने राजांयें पूब्यु के ते कयो पुत्र बे ? तेवारें मंत्रीश्वरें सर्व वृ-' त्तांत कही संजलाव्युं श्रने कागल लावी नामो वंचाव्यां, राजायें पण ते वात संनारीने प्रधानने कह्यु के ते पुत्रने तरत तेडी लावो. तेवारें मेहेते पण सुरेंदत्तने स्नान शणगार करावी तेडी आणी राजाने पगे लगाड्यो. राजा ते पुत्रने देखी हर्षित मन थयो थको चिंतववा लाग्यो के ॥ यत्रोदकं तत्र Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) वसंति हंसा, यत्रामिषं तत्र पतंति गृध्राः ॥ यत्रार्थिनस्तत्र नवंति वेश्या, यत्राकृतिस्तत्र गुणावसंति ॥१॥ हवे राजायें कडं के हे वत्स ! ए राधावेध साधी कन्या सहित राज व्यो. ते कुमरनी मुखाकृति देखी लोक पण चमत्कार पाम्यां. कुमर पण राजानो श्रादेश पामी निश्चल मने गुरुना चरणकमलने नमस्कार करी स्थंननी नजीक जइ धनुष्यने नमन करी तत्काल धनुष्य चढावी तेलनी कढाइमांहे नीची दृष्ठिये मुख जोते थके उपर बाण मूक्यो. ते बाणे राधानी अांखमाहेली कीकी वींधी, जेवी वींधी के तुरत याचक लोकोयें जयजयारव कीधो, अने कन्यायें वरमाला घाली. राजा अने मंत्रीश्वर ए बे हर्ष पाम्या, तिहां सुरेंजदत्त कन्या सहित राज्यलक्ष्मीनां सुख पाम्यो. एवी रीतें कोई कदाचित् राधावेध साधे, पण मनुष्यनवश्री ब्रष्ट थ| यो, ते वली फरीने नरजव न पामे ॥ इति सप्तम चक्रदृष्टांतः ॥७॥ हवे श्राध्मो कूर्मनो दृष्टांत कहे :-कोश्क ए. क लद योजन प्रमाण अह , तेमां एक महोटो काचबो रहे ले. तेणें एकदा प्रस्तावें वायराने योगें Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) वश थयो थको (पुः प्रापं के०) चोराशी लाखजीवयोनिने विषे जमता जीवें महाकष्टें पामवा योग्य एवं (मर्त्यजन्म के० ) मनुष्यजन्म तेने जिनधर्मविना (मुधागमयति के) व्यर्थ गमावे , (सः के०) ते पुरुष, (स्वणेस्थाले के०) सुवर्ण स्थालने विषे ( रजः के०) धूल एटले कचरादिक तेने (दिपति के) नाखे बे. अर्थात् सुवर्णस्थाल समान मनुष्यजन्म जाणवू, तथा रजसमान प्रमाद जाणवा. एटले प्रमादवशें मनुष्यजन्म व्यर्थ जाय . वली पण ते पुरुष शुं करे ? तो के, (पीयूषेण के०) अमृतें करीने (पादशौचं के०) पादप्रदालनने ( विधत्ते के०) करे बे, अर्थात् जे अमृतना बिंजुमात्रनुं पान करवाथी अजरामरत्व प्राप्त थाय , ते अमृतने पादप्रदालनने माटे वृथा गमावq ते अयुक्त जाणवं. तेम वली ते पुरुष शुं करे ने ? तो के (प्रवरकरिणं के०) उत्तम हस्तीप्रत्ये (ऐंधनारं के) काष्ठमारने ( वाहयति के० ) वहन करावे . अर्थात् जे हस्तीने पोताना धार आगल बांधे बते छारनी शोना थाय , तो ते हाथीएं काष्ठ लाववां, ते अयुक्त ने वली ते पुरुष शुं करे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) ने ? तो के ( वायस के) कागडाने ( उमायनार्थम् के०) माडवाने अर्थ ( चिंतारत्नं के०) चिंतामणिने ( करात् के० ) हाथथकी (विकिरति के०) फेंके जे. अर्थात् मनोवांछित अर्थने देनारं एवं चिंतामणि रत्न तेनु कागडाने उडाडवाने माटे फेंकवू ते अयोग्य बे, तेम धर्मसाधक पुरुष मर्त्यजन्में करी प्रमाद करवो ते अयुक्तज बे. तेथी हे नव्यजनो ! एम जाणीने मनमां विवेक लावी प्रमादनो त्याग करीने धर्मे करीने मनुष्यजन्म सफल करवो धर्म आचरता एवा सजान पुरुषोने जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् ॥ ५॥ ___टीकाः- अथ मनुष्यनवस्य सर्वोत्कृष्टत्वमाह ॥ वर्ण स्थाल इति ॥ यः पुमान् प्रमत्तः सन् प्रमादस्य वशं पतितः सन् मद्यविषयकषायनिता विकथारूपप्रमादवशं गतः सन् फुःप्रापं चतुरशी तिल. दाजीवयोनिषु भ्रमति जीवेन फुःखेन महता कष्टेन प्राप्यं यत् मर्त्यजन्म मनुष्यनवं तत् मुधा वृथा श्री. जिनधर्म विना निःफलं गमयति । स पुमान् स्व. र्णस्थाले रजो धूलि कचवरादि क्षिपति । स्वर्णस्थालतुल्यं मर्त्यजन्म रजःसदृशाः प्रमादाः ॥ पुनःसः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) पुमान् पीयूषेण अमृतेन कृत्वा पादशौचं चरणप्रदालनं विधत्ते करोति । पीयूषस्य बिंदुमात्रपानेनाजरामरत्वं स्यात् तत्पादप्रदालनार्थं मुधा वृथा गमयतीत्युक्तं ॥ पुनःसः पुमान् प्रवरकरिणं प्रधानहस्तिनं ऐंधनारं इंधनकाष्ठसमूहं वाहयति ॥ यस्मिन् गजे हारिबकेऽपि सति शोना जवति । तेन इंधनानयनमयुक्तं ॥ पुनः सः पुमान् वायसोड्डायनार्थं काकस्य उफायननिमित्तं चिंतामणिरत्नं करात् हस्तात् विकिरति विक्षिपति ॥ यथा मनोवां बितार्थदायकस्य चिंतामणिरत्नस्य काकडायनार्थ विकेपणमयुक्तं तथा धर्मसाधकेन मर्त्यजन्मना प्रमादसेवनमयुक्तं । जो जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय प्रमादं त्यक्त्वा धर्मेण कृत्वा मनुष्यजन्म सफलं कार्यं ॥ धर्ममाचरतां सतां यत् पुण्यमुत्पद्यते तत् पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥५॥ लाषाकाव्यः-सवैया ठेवीशा ॥ ज्यौं मतहीन विवेक विना नर, साजि मतंगज इंधन ढोवै ॥ कंचन नाजन धूलि नरे सह, मूढ सुधारससूं पग धोवै ॥ बोहितकाग उमावन कारन, मारि महामनि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) मूरख रोवै ॥ त्यौं नरदेह पुलंन बनारसि, पाश् . अजान अकारथ खोवै ॥५॥ हवे जे संसारना विषय माटे धर्मनो त्याग करे डे, ते मूढ पुरुष जाणवा ते कहेडे. ॥शार्दूलविक्रीडितकृत्तम्॥ ते धत्तूरतसंवपंति जवने प्रोन्मूल्य कल्पजुमम्, चिंतारत्न, मपास्य काचशकलं स्वीकुर्वते ते जडाः ॥ विक्रीय विरदं गिरीसदृशं क्रिणंति ते रासनं, ये लब्धं परिहत्य धर्ममधमा धावंति नोगाशया ॥ ६ ॥ अर्थः- ( ये के०) जे (अधमाः के० ) मूर्ख एवा पुरुषो ( लब्धं के० ) प्राप्त श्रयेला एवा (धर्म के ) धर्म जे तेने ( परिहत्य के ) त्याग करीने (जोगाशया के०) जोगविषय वांबनाने अर्थे, (धावंति के ) दोडे बे, अर्थात् विषयार्थमा प्रवर्ते बे, (ते के० ) ते नरो, (जवने के०) पोताना गृहनेविषे उत्पन्न थयेला ( कल्पमं के ) कल्पवृक्षने (प्रोन्मूल्य के०) काढी नाखीने ( धत्तूरतरं के०) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) - धंतुराना वृदने ( वपंति के० ) धारोपण करे बे, वली (ते जडाः के० ) ते जड पुरुषो शुं करे बे ? तो के ( चिंतारत्नं के० ) चिंतामणि रत्नने ( पास्य के० ) त्याग करीने ( काचशकलं के० ) काचना कटकाने ( स्वीकुर्वते के० ) स्वीकार करे बे, वली ( ते के० ) ते जड पुरुषो, ( गिरींद्रसदृशं के० ) पर्वतसमान उंची कायावाला ( द्विरदं के० ) हस्ती - ने ( विक्रीय के० ) वेचीने ( रासनं के) गर्दजने ( क्रीति के० ) मूल्ये करीने ग्रहण करे बे. या हे - काणें कल्पवृक्षसदृश धर्म जाणवो, तथा धंतुराना वृक्षसमान विषय जाणवा, तेवी रीतें सर्वत्र सारां दृष्टांतो धर्मने लगाडवां तथा अन्य दृष्टांतो विषयने लगाडवां. माटे हे जव्यजनो ! एम मनने विषे विवेक लावीने कल्पवृक्ष तथा चिंतामणि समान, श्री जिनेश्वरना धर्मनुंज श्राराधन करवुं. आराधन करनारनुं जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् ॥ ६ ॥ टीका :- ये तु साराणां विषयाणां कृते धर्मं त्यजति ते मूढा एवेत्याह । ते धत्तूर इति ॥ ये अधमा मूर्खाः पुरुषाः लब्धं प्राप्तं धर्मं परिहृत्य त्यक्त्वा जोगाशया विषयवांख्या धावंति । विषयार्थ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) प्रवर्तते, ते नरा नवने स्वगृहे प्रोगतं उत्पन्नं कल्पवृदं प्रोन्मूख्य उत्खाय धत्तूरतरुंवपंति आरोपयंति । पुनस्ते जडाःमूर्खाः चिंतामणिरत्नं अपास्य त्यक्त्वा दूरीकृत्य काचशकलं काचखं; स्वीकुवते गृएहंति ॥ पुन स्ते जड़ा गिरीसदृशं पर्वतप्रायकायं उच्चं द्विरदं हस्तिनं विक्रीय रासनं गर्दनं क्रीणंति मूल्येन गृएहति ॥ अत्र कल्पवृक्षसहशोधर्मः। धत्तूरसहशा जोगाः एवं सर्वत्रोपनयः। जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय कल्पवृतचिंतामणिसदृशः श्रीजिनधर्म एवाराध्यः श्राराधयतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥६॥ __॥ नाषाकाव्यः-ज्यौं नरमूल उखारि कल्पतरु, बोवन मूढ कनकको खेत ॥ ज्यौं गजराज वेचि गिरिवरसम, क्रूर कुबुद्धि मोल खर लेत ॥ जैसे बमि रतन चिंतामनि, मूरख काच खंम मन देत ॥ तैसे धरम विसारी बनारसि, धावत अधम विषय सुख हेत ॥ ६॥ ___ कथाः-ए अर्थ उपर शशी सूरनो दृष्टांत कहे बेः-श्रा नरत देत्रमांहे शुक्तिमती नामा नगरीने Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) विषे शशीनामा राजा राज्य करे बे, ते महाप्रतापी बे, तथा तेनो लघुनाइ सूर एवे नामें बे, ते बेहु जाइ एक दिवस रयवाडी यें चड्या, वनमांदे वृक्ष नीचें साधुने बेठा दीठा, तेवारें अश्वथी उतरी बेजाइयें साधुने वांद्या, साधुयें पण धर्मलान था - पी उपदेश देवा मांड्यो || गाथा || माणुस्स खित्त जाई, कुल रुवारोग श्रयं बुद्धि ॥ सव्वा गुग्गह सिद्धा, संजम लोगंमि डुल्हो ल हियं ॥ १ ॥ माटे तमें सत्पुरुष बो, ते धर्मने विषे प्रमाद म करो ॥ गाथा || चिक्कण घडेण साचिय, ढलीऊणं पाणियं जाई ॥ कोरं कुंनं च नेद, तहावि जवजीवाणं ॥ १ ॥ इत्यादि उपदेश सांजली सूरराजा दीक्षा लइ दुष्कर तप करवा तैयार थर्यो. छाने शशीप्रत्यें नाशपणांना हितने माटें कहेवा लाग्यो के हे बांधव ! या जीवें जन्मोजन्म जोग जोगव्या. समुद्रनी जेटलां पाणी पीधां, मेरु जेटलां धान्य आरोग्यां, तो पण तृप्ति न ते शशी कड़ेवा लाग्यो के हे बांधव ! एवो को मूर्ख होय के जे जला राज्यजोग, ललित लोचना स्त्री, पान फूल तंबोलादि उत्तम प्रकारना जोग इत्यादि सामग्री संबंधी सुख तेने त्यागीने Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७२) परलोकना सुखने अर्थे उपवासादिक कष्ट करे, पर लोक बे के नथी ते कोणें जोयो ? माटें तमें माह्या हो, तो श्रा उता जोग जोगवो, पोताना जीवने शाता श्रापो, अंतराय म करो यौवन पामेबुं फोकट म गमावो एवा नाश्नां वचन सांजलीने सूरराजा खिन्न थयो. पली गुरुपासेंथी चारित्र ग्रहण करी सर्वपरिग्रह गंमी चारित्र पालवामां तत्पर थयो. अंत्यावस्थायें श्रणसण श्राराधी स्वर्गे गयो.अने शशी राजा विषयासक्त थको मरण पामी नरकें गयो. सूरराजायें देवलोकने विषे अवधिज्ञानने बलें करी पोताना नाश्ने नरकनां दुःख जोगवतो दीगे, तेवारें देवलोकथी निकली नरकमां जश् श्रापणां रूप तेज शेक्ति प्रगट कीधां, ते देखी शशी बोघ्यो के हे बांधव ! अद्यापि ते महारो देह पड्यो बे, माटें तुं जश्ने ते देहनी यत्न कर के जेम हुँ नरकथकी निकली सुखी था ! ते सांजली सूर बोव्यो के अरे मूर्ख ! जीवरहित देह पड्यो ने ते सुकृत करशे ? प्रथमश्रीज ते कोश् कष्ट कयुं हत तो था नरकमा तुं पडत नह।. हवे तु तहारु मन छाम राखी कर्म खपाव, करेलां कर्मनो पश्चात्ताप Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) कर, जेम श्रागले नवें सुखी थाश्श. एवं कही सूर पोताने स्थानकें पहोतो. एम कोश्क जीव शशीनी पेरें मनुष्यनवमां धर्म न करे, ते श्रागल पश्चात्ताप पामे. माटे सर्वकोश् धर्म करो ॥६॥ हवे मनुष्य जन्मनुं तथा धर्मसामग्री, उर्ल जपणुं कहे डे, ॥शिखरिणीरत्तम् ॥ अपारे संसारे कथमपि समासाद्य नृनवम् ,न धर्म यः कुर्याविषयसु खतृष्णातरलितः॥ ब्रुडन् पारावारे प्रवरमपदाय प्रवहणम, स मुख्योमूर्खाणामुपलमुपलब्धुं प्रयतते ॥ ७॥ अर्थः- (यः के० ) जे पुरुष, ( विषय के० ) शब्द, रूप, रस, स्पर्श, गंध, तेमनां ( सुख के०) सुख तेनी (तृष्णा के० ) वांडा तेणें करीने (तरतितः के०) व्याकुल थयो थको (अपारे के०) अनंत एवा (संसारे के०) संसारने विषे (कथमपि के) माहाकष्टं करीने (नृनवं के) नरजवत्वने (समासाद्य के०) पामीने (धर्म के०) धर्मने Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) ( न के० ) नहिं (कुर्यात् के०) करे, (सः के०) ते पुरुष, (पारावारे के०) समुज्ने विषे (ब्रुमन् के०) बूडतो तो (प्रवरं के०) उत्तम एवं (प्रवहणं के० ) वाहाणने ( अपहाय के० ) त्याग करीने तरवाने माटे ( उषलं के) पाषाणने ( उपलब्धं के० ) ग्रहण करवाने (प्रयतते के० ) प्रयत्न करे , एटले उद्यम करे . ते पुरुष कहेवो जाणवो ? तो के ( मूर्खाणां के०) मूोना मध्ये ( मुख्यः के) मुख्य जाणवो. अर्थात् ते पुरुष, मूोमां मोहोटो मूर्ख जाणवो. श्रा ठेकाणे संसार ते समुफ जाणवो अने धर्म, ते वाहाण जाणवू. विषयो ते पाषाण समान जाणवा. माटे हे नव्यजनो! या प्रकारे जाणीने मनमां विवेक लावीने संसार समुज्तारक ए वा धर्मज आराधन करो. श्राराधन करता एवा सङनोने जे पुण्य उत्पन्न थाय , ते पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥७॥ टीकाः- अथ नरनवस्य धर्मसामय्याश्च पुर्ख जत्वमाह ॥ अपारे संसारेति ॥ यः पुमान् विषयसुखतृष्णातरलितः सन् विषयाणां कामनोगानां शब्द. रूपरसस्पर्शगंधानां सुखस्य तृष्णा वांबा तया तर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) लितो वाहितो व्याकुलीकृतः सन् अपारे अनंते संसारे कथमपि महता कष्टेन नृनवं मनुष्यजन्म समासाद्य प्राप्य धर्मं न कुर्यात् न करोति । सः पु मान् पारावारे समुढे ब्रुडन् निमऊन प्रवरं उत्तम प्रवहणं पोतं अपहाय त्यक्त्वा तरणार्थ उपलं पाषाणं उपलब्धं गृहीतुं प्रयतते यत्नं करोति उद्यम करोति ॥ कथंनूतः सः। मूर्खाणां मुख्यः मूर्खेषु वृकमूर्खः । अत्र संसारः समुजः । धर्मः प्रवहणं । विषयाः पाषाणसदृशा इत्युपनयः ॥ जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय संसारसमुखतारकः श्रीधर्मएव आराध्यः। आराधयतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमागालक्यमाला विस्तरंतु ॥७॥ नाषाकाव्यः- सोरगे ॥ ज्यौं जल बूडत कोश, तजि वादन पाहन गहैं ॥ त्यौं नर मूरख होइ, धरम मि सेवत विषय ॥ ७॥ हवे या ग्रंथमा जेटलां उपदेशनां छारो कहेवानां ते उपदेश छारें करी सर्व छारो कहे जे. ॥ शार्दूलविक्रीडितटत्तत्रयम् ॥ नक्तिं तीर्थकरे गुरौ जिनमते संघे च हिंसानृतं, स्तेया Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) ब्रह्मपरिग्रहाद्युपरमं क्रोधायरीणां जयम् ॥ सौजन्यं गुणिसंगमिडियदमं दानं तपोन्नावनां, वैराग्यं च कुरुष्व निर्टतिपदे यद्यस्ति गंतुं मनः ॥७॥ . अर्थः-हे जव्यप्राणीयो ! ( यदि के ) जो तमारूं ( निवृतिपदे के०) मोदपदने विषे (गंतुं के०) जावानुं (मनः के०) मन ( अस्ति के० ) , तो तमें १ ( तीर्थकरे के० ) तीर्थकरने विषे एटले श्रीवीतरागने विषे ( जक्तिं के० ) गुणोत्कीर्तनरूप नावपूजाने ( कुरुष्व के० ) करो. वली २ ( गुरौ के०) धर्मोपदेशक गुरुने विषे नक्तिने करो. नक्ति अने कुरुष्व ए बे पदो, सर्वत्र योजवां. वली ३ (जिनमते के० ) श्री जिनशासनने विषे जक्तिने करो वली ४ ( संघे के० ) चतुर्विध श्रीसंघने विषे नक्तिने करो. ( च के०) तथा ५ ( हिंसा के०) जीववध प्राणातिपात, ६ (अनृतं के०) यसत्य ते मृषावाद तेने तथा ७ ( स्तेय के०) श्रदत्तादान एटले परवस्तुनुं ग्रहण करवं. ७ (अब्रह्म के०) स्त्रीसेवा, मैथुन, तथा ए (परिग्रहादि के०) धन धान्यादि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) नवविध परिग्रहादि ते थकी ( उपरमं के) निवर्तन जे तेने करो. तथा (क्रोधाद्यरीणां के ) १० क्रोध, ११ मान, १२ माया, १३ लोन, ते शत्रुनो (जयं के ) जयने करो. तथा १४ (सौजन्यं के०) सुजननाव ते सर्व जीवोने विषे मैत्रिनाव तेने करो. तथा १५ ( गुणिसंगं के० ) गुणवान् मनुष्योनो संग जे संगति तेने करो. तथा १६ (इंडियदमं के० ) पांच इंजियोनुं दमन करो. वली १७ ( दानं के) सुपात्रादि पांच प्रकारना दानने करो. वली १७ (तपः के०) तप ते अनशन ऊनोदर्यादि बाह्य अने अत्यंतर मली बार प्रकारचें तेने करो. तथा १॥ ( जावनां के० ) शुजचित्त नावने करो. ( च के०) वली २० ( वैराग्यं के०) संसारथकी नोगादिकथकी जे विरक्तनाव तेने करो, एटलां वानां मोक्षपददायक जाणीने रूडे प्रकारे श्राराधन करवां . श्राराधना करनार सुजनोनुं जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ ॥ए प्रकारें था काव्यमां सर्व मली वीश घार जे श्रा ग्रंथमा हवे कहेवाशे, ते छारनां नाम कह्यां. टीकाः-अथास्मिन् शास्त्रे एतान्युपदेशशाराणि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) कथयिष्यते ॥ इत्युपदेश धारेण धारवृत्तमाह ॥ जक्तिमिति ॥ नो नव्यप्राणिन् ! यदि तव निर्वृतिपदे मोदे गंतुं मनोऽस्ति । तदा त्वं तीर्थंकरे श्रीवीतरागे नक्तिं जावपूजां गुणोत्कीर्तनरूपां कुरुष्व ॥१॥ पुनर्गुरौ धर्मोपदेशके जक्तिं कुरुष्व ॥२॥ पुनः जिनमते जिनशासने जातं कुरुष्व ॥३॥ पुनः चतुर्वि. धसंघे नक्तिं कुरुष्व ॥४॥ हिंसाऽनतस्तेयाऽब्रह्मपरिग्र. हाद्युपरमं कुरुष्व ॥॥ हिंसा जीववधः प्राणातिपातः॥ १॥ अनृतं, असत्यं मृषावादः ॥२॥ स्तेयं चौर्य अदत्तादानं अदत्तपरखवस्तुग्रहणं ॥३॥ श्रब्रह्म मैथुनं स्त्रीसेवा ॥४॥ परिग्रहो धनधान्यादि नवविधः॥५॥ एन्य उपरमं निवर्त्तनं कुरुष्व॥॥अत्र व्युपरमोऽपी पागे नवति पुनःक्रोधायरीणां क्रोध,॥१०॥ मान, ॥ ११॥ माया, ॥ १५ ॥ लोन, ॥ १३ ॥ रूपारीणां जयं कुरुष्व । पुनः सौजन्यं सुजननावं स जीवेषु मैत्रिनावं कुरुष्व ॥ १४॥ पुनः गुणिसंगं गुणानां गुणवतां मनुष्याणां संगं संगतिं कुरुष्व ॥ १५ ॥ पुनः इंडियदमं पंचेंजियाणां दमनं कुरुष्व ॥ १६ ॥ पुनर्दानं सुपात्रादि पंच प्रकारं कुरुष्व ॥१७॥ पुनस्तपोऽनशनमूनोदर्यादि बाह्यं धान्यंतरं च छा Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) दश विधं कुरुष्व ॥ १७ ॥ पुनर्नावनां शुनचित्तनावं कुरुष्व ॥ १५ ॥ पुनर्वैराग्यं संसारात् जोगादिन्यश्च विरक्तनावं कुरुष्व ॥२०॥ एतानि मोदपददायकानि ज्ञात्वा सम्यक् प्रकारेणाराधनीयानि ॥ आराधयतां सतां यत्पद्यते पुण्यं तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ७॥ नाषाकाव्यः- बप्पय ॥ जिन पुजाहि गुरु नमहि, जैनमत बैन बखानहि ॥ संगजगति आदरहि, जीव हिंसा नहि जान हि ॥ फूठ कुसील अदत्त, त्याग परिग्रह परिमानहि ॥ क्रोध मान बल लोन, जीति सऊन थिति गनहि ॥ गुन संग करहि इंद्रिय दमहि, देहि दान तप नाव जुत ॥ गही मन विराग श्ह विधि रहहि, ते जगमें जीवन मुकत ॥ ७॥ हवे जेवो नहेश तेवो निर्देश एवं वचन । मा प्रधानन्ध लोकमां कहेला जे छार) समे यकिने विवौ बे, तेमां प्रथम ( चार श्लोकें केरी श्रीतीर्थकरनी 1 नचिनार कहे बे. पापलपातयात AHARAT पाप M व्यापादयत्या Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) पदम् पुण्यं संचिनुतेश्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् ॥ सौंलाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीतिं प्रसूते यशः, स्वर्ग यबति निर्टतिं च रचयत्यर्चाऽर्हतां निर्मिता ॥ ए॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! ( अहतां के ) जिननगवंतोनी ( निर्मिता के० ) करेली एवी (अर्चा के०) गुणोत्कीर्तन, वंदना, पर्युपास्त्यादि एवी नावपूजा जे ले, ते ( पापं के०) पापने ( लुंपति के०) दूर करे डे. वली ते नाव पूजा (उर्गति के ) उर्गति एटले नरकादिक जे उष्टगति तेने ( दलयति के० ) खंमन करे , अर्थात् निवारण करे . वली तेजावपूजा, ( आपदं के ) कष्टने ( व्यापादयति के०) विनाश करे . तथा वली ते नावपूजा, (पुण्यं के) पुण्य जे धर्म तेने ( संचिनुते के ) वृफि पमाडे बे. तथा ते नावपूजा, ( श्रियं के०) लक्ष्मीने ( वितनुते के०) विस्तारे , वली ते नावपूजा, नीरोगतां के शरीरने विषे जे आरोग्यता तेने ( पुमाति के० ) पोषण करे , वली ते नावपूजा, (सौजाग्यं के०) सर्व जनोमां जे श्लाघनीयता, Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) तेने ( विदधाति के० ) करे बे. वली ते नावपूजा ( प्रीतिं के० ) प्रीतिने ( पल्लवयति के० ) उत्पन्न करे बे. वली ते जाव पूजा, ( यशः के० ) यशने ( प्रसूते के० ) प्रसवे बे एटले विस्तारे बे. तथा ते नावपूजा, ( स्वर्ग के० ) देवपदवीने ( यछति के ० ) आपे बे. ( च के० ) तथा ते जावपूजा, ( निर्वृतिं ho ) निर्वृतिने ( रचयति के०) रचे बे, उत्पन्न करे. माटें दे जव्यजनो ! ए प्रकारें विवेक लावीने मनने विषे जांणीने रुडा प्रकारें निर्मलपणाने यापनारी एवी, ने या लोक तथा परलोक, तेने विषे सर्व सौख्यने देनारी एवी वंदनादि गुणस्तुतिरूप श्रीजिननी जावपूजा, करवा योग्य बे. ते जावपूजा करनार, सजनने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं ॥ ए ॥ टीका: - यथोद्देशस्तथैव निर्देश इति वचनात् अनुक्रमेण द्वाराणि विवृणोति ॥ तत्र प्रथमं चतुर्निर्वृत्तेः श्रीतीर्थंकरन क्तिद्वारमाह ॥ पापं लुंप तीति ॥ जो जव्याः ! श्रतां जिनानां जावपूजा, गुणोत्कीर्त्तनवंदना पर्युपास्त्यादि निर्मिता कृता सती पापं लुंपति दूरीकरोति ! पुनर्दुर्गतिं नरकादि · Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २) पुष्टगतिं दलयति खंम्यति निवारयति । पुनः श्रापदं कष्टं व्यापादयति विनाशयति । पुनः पुण्यं धम संचिनुते वृमि प्रापयति। पुनः श्रियं लक्ष्मी वितनुते विस्तारयति पुनर्नीरोगतां शरीरे श्रारोग्यं पुष्णाति पोषयति । पुनः सौजाग्यं सर्वजनेषु श्लाघनी. यतां विदधाति करोति।पुनःप्रीतिं पखवयति उत्पादयति। पुनर्यशः प्रसूते यशोविस्तारयति । पुनः खर्ग त्रिदिवं देवपदं यति ददाति । पुनर्निति रचयति ददाति।नो जव्यप्राणिन! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय सम्यनिर्मल विधायिनीह लोके परलोके च सर्वसौख्यदायिनी वंदनादिगुणस्तुतिः श्रीजिननावजपा कार्या । कुर्वतां सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ ए॥ नाषाकाव्यः-मात्रात्मक कवित्त लोपें उरित हरै दुःख संकट, आपैं रोग रहितनर देह ॥ पुन्न नंमार नरै जस प्रगटैं, मुगतिपंथसों करै सनेह ॥ रचै सुहाग देहि सोजा जग, परजव पहुंचा सु. रगेद ॥ कुगति बंध दल बलें बनारसि, वीतराग पूजा फल एह ॥ ए॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) वली पण श्रीजिनवरनी नावपूजाना __ फलने कहे . स्वर्गस्तस्य गृहांगणं सहचरीसाम्राज्यलक्ष्मीः शुना, सौनाग्यादिगुणावलिर्विलसति स्वैरं वपुर्वेश्मनि ॥ संसारः सुतरः शिवं करतलक्रोडे खुरत्यंजसा, यः श्रधानरजाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः॥१०॥ अर्थः- ( यः के०) जे ( जनः के० ) पुरुष, (श्रद्धा के०) पूजा रुचि तेनो (जर के०) जार एटले प्रचुरता तेनुं (नाजनं के०) पात्र थयो बता अर्थात् शुन नावना युक्त थयो तो ( जिनपतेः के० ) श्री वीतरागनी (पूजां के०) नावपूजाने ( विधत्ते के०) करे , ( तस्य के० ) ते पुरुषने ( स्वर्गः के०) देवलोक ते, (गृहांगणं के ) गृहना श्रांगणानी पेठे निकट थायजे. वली ( शुजा के०) मनोहर एवी (साम्राज्यलक्ष्मी के०) (साम्रज्यनीधि , ते पुरुषने ( सहचरी के० ) साथें वर्त्तनारी थाय . तथा ( वपुः के०) शरीर तेज ( वेश्मनि के०) घर तेने विषे ( सौजाग्यादि के ) Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) सौजाग्य, धैर्य औदार्यादि (गुणावलिः के० ) गुणोनी पंक्ति, ते ( स्वैरं के० ) पोतानी श्वायें (वि. खसति के०) श्रावीने विलास करे . अर्थात् रहे . वली (संसारः के०) संसार ते ( सुतरः के) सुखें करीने तरवाने शक्य थाय . वली (शिवं के) मोदा, ते (अंजसा के०) अनायासें करी शीघ्र, ते पुरुषना ( करतलकोडे के० ) हस्ततलमध्ये (बुहति के०) हस्तगोचर थाय . माटे हे जव्यजनो! एम जाणीने मनने विषे विवेक लावीने जिनप्रजुनी जावपूजा करो ते पूजा करनारने जे पुण्य ॥ इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ १० ॥ टीकाः-पुनः श्रीजिनस्य नावपूजायाः फलमाह ॥स्वर्गस्तस्येति॥ यो जनः श्रमानरजाजनं सन् श्रझारुचिः तस्या नरः प्रचुरता तस्य नाजनं स्वानं नाजनशब्दस्याजदविंगत्वान्नपुंसकत्वं शुजनावनायुक्तः सन् जिनपतेः श्रीवीतरागस्य जावपूजां विधत्ते करोति तस्य जनस्य खर्गो देवलोको गृहांगणं गृहस्यांगणवनिकटो जवति । पुनः शुजा मनोहरा साम्राज्यलक्ष्मीः राज्यशकिस्तस्य सहचरी सार्थवर्तिनी जवति। पुनर्वपुर्वेश्मनि वपुरेव शरीरमेव वेश्म गृहं तस्मिन् सौजा. - - - - - Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) ग्यधैर्योदार्यचातुर्यादिगुणानां श्रावलिः श्रेणिः स्वैरं स्वेछया विलसति श्रागत्य विलासं करोति तिष्ठतीत्यर्थः । पुनः संसारः सुतरः सुखेन तीर्यते इति सुतरः सुखेन तरीतुं शक्यो नवति । पुनः शिवं मोकः अंजसा शीघ्रं तस्य करतलकोडे इस्ततलमध्ये बुरुति हस्तगोचरो नवतीत्यर्थः ॥ अतोनावाईतः उत्पन्नकेवलझानाश्चतस्त्रिंशदतिशयैर्विराजमानाः समवसरणस्थाः इति ॥ यतः॥ उसरणमवसिरित्ता, चउत्तीसं श्र सए निसेवित्ता ॥ धम्मकहं च कहं. ता, अरिहंता हुँतु मे सरणं ॥९॥ इति वचनात् ॥ नो जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय अईतां जावपूजा कार्या। कुर्वतांच यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमालाविस्तरंतु॥१०॥ ___ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ देवलोक ताको घर अंगन, राजरीछि सेवे तस पाश् ॥ ताके तन सोनाग आदि गुन, केलि विलास करें नित श्राश् ॥ सो नर तुरत तरै नवसागर, निरमल होश मोक्षपद पाइ॥ दरव नाव विधि सहित बनारसि, जो जिनवर प्रजै मन ला॥१०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) वली पण जावपूजानुं फल कहे जे. ॥शिखरिणी वृत्तम् ॥ कदाचिन्नातंकः कुपित श्व पश्यत्यनिमुखम्, विदूरे दारिधं चकितमिव नश्यत्यनुदिनम् ॥ विरक्ता कांतेव त्यजति कुगतिः संगमुदयो, न मुंचत्यज्यर्ण सुहृदिव जिनाची रचयतः॥११॥ अर्थः-( जिनार्चा के० ) श्रीवितरागनी वंदनादि जावपूजाने ( रचयतः के० ) करता एवा पुरुषो. ने (आतंकः के०) नय, ते (कदाचित् के०) को व. खत पण (अनिमुखं के० ) सन्मुख ( न पश्यति के०) न जोवे बे. ते केनी पेठे ? तो के जेम कोइ (कुपितश्व के० ) कोश्नी उपर कोपायमान थयो होय ते तेनी सामुं न जोवे, तेनी पेठे श्राही पण जाणी लेवु.तथा (दारिज्यं के०) दारिज जे जे ते तेनाथी (अनुदिनं के०) निरंतर (विदूरे के०) घणेज दूर ( नश्यति के ) नासे , अर्थात् तेनाथी दारिद्य दूर जाय , केनी पेठे ? तो के ( चकितमिव के) ते दारिद्र्यय जाणीयें जयजीत थयुं होय नहिं ? तेनी पेठे. वली (कुगतिः के ) नरकादि पुर्गति, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) ते पुरुषना (संगं के०) समीपपणाने ( त्यजति के) त्याग करे . एटले तेने मूकी देने, केनी पेठे ? तो के ( विरक्ता के०) विरक्त थयेली एवी (कांतेव के०) स्त्री जेम होय तेनी पेठे. अर्थात् जेम विरक्त स्त्री, स्वामीना संगनो त्याग करे , तेनी पेठे. वली ( उदयः के० ) अभ्युदय, जे प्रताप, ऐश्वर्यादिक ते (अन्यणं के०) ते पुरुषनासमीपपणाने ( नमुंचति के०) न मूके बे, केनी पेठे ? तो के ( सुहृदिव के०) मित्रनी पेठे. ए कारण माटें श्रईत्प्रजुनी जावपूजा जे वंदनादिक ते करवा योग्य बे, माटें हे नव्यजनो! ए प्रकारे जाणीने मनमा विवेक लावीने श्रीजिनवरनी नावपूजा करवी. करता एवासुजन पुरुषोने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् ॥११॥ ____टीकाः-पुनर्नावपूजायाः फलमाद ॥ जिनार्चा श्रीवीतरागस्य वंदना दिनावपूजां रचयतः कुर्वतः पुरुषस्य आतंको नयं कदाचित् अनिमुखं सन्मुखं न पश्यति न विलोकयति।क व ? कुपित श्व । यथा कश्चित् कुपितो रुष्टोनवति स यथा तस्य सन्मुखं न पश्यति तथेत्यर्थः ॥ पुनरिअयं दरिअत्वं अनुदिनं निरंतरं तस्य दूरे नश्यति दूरे याति किमिव ? Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) चकितमिव । जयजीतमिव। पुनर्नरकादिकुगतिस्तस्य संगं समीपं त्यजति मुंचति।का श्व? विरक्ता कुपिता रुष्टा कांता श्व स्त्री श्व । यथा विरक्ता स्त्री नर्तुः संगं त्यजति तथेत्यर्थः। पुनः उदय श्रन्युदयः प्रतापैश्वर्यादिवृद्धिस्तस्य अन्यर्ण समीपंन मुंचति न त्यजति। क श्व ? सुहदिव मित्र मिव ॥ अतोऽहंतां नावपूजा वंदनादि कार्या। लो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा म. नसि विवेकमानीय श्रीजिनस्य नावपूजा कर्त्तव्या । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥११॥ __ लाषाकाव्यः- वृत्त उपरप्रमाणे ॥ज्यौं नर रदै रिसाय कोप करि, ज्यौं चिंताजय विमुख बखानि॥ ज्यौं कायर संके रिपु देखत, त्यौं दारिद्द न जय मानि ॥ ज्यौं कुमारि परिहरे संढपति, त्यौं उरगति बंडे पहिचानि ॥ हित ज्यौं विनौ तसैं नहि संगति, वीतराग पूजा फल जानि ॥ ११ ॥ वली पण श्रीजिनपरमेश्वरनी जावपूजार्नु माहात्म्य कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ यः पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनैः सोऽर्च्यते, यस्तं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) वंदति एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वंद्यते ॥ यस्तं स्तौति परत्र वदमनस्तोमेन स स्तूयते, यस्तं ध्यायति क्लप्तकर्मनिधनः स ध्यायते योगिनिः ॥ १२॥ अर्थः-( यः के०) जे पुरुष, ( पुष्पैः के०) पुव्योयें करीने ( जिनं के० ) जिननगवानने (अर्चति के० ) पूजन करे बे, (सः के) ते पुरुष, (स्मि त के ) विकसित एवां (सुरस्त्री के०) देवताउनी स्त्रीयोनां ( लोचनैः के०) नेत्रोयें करीने (अर्च्यते के०) पूजाय . अर्थात् जिनपूजन करनारो पुरुष, देवलोकने विषे उत्पन्न थाय ने, अने तेने देवलोकनी स्त्रीयो विकसितने करी पूजे ने, एटले राग सहित तेनुं अवलोकन करे . वली (यः के०) जे पुरुष, ( एकशः के०) एकवार (तं के०) ते जिनप्रजुने (वंदति के०) वंदन करे बे, (सः के०) ते पुरुष, (अहर्निशं के०) रात्रि दिवस, (त्रिजगता के०)त्रण जुवनें करि (वंद्यते के०) वंदन कराय . अर्थात् जे नगवानने वंदन करे, ते त्रिजगतने वंद्य थाय. वली ( यः के०) जे पुरुष, (तं Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) के० ) ते श्री जिनवरने ( स्तौति के० ) स्तवे बे, वर्णन करे . (सः के०) ते पुरुष, (परत्र के० ) स्वर्गने विषे ( वृत्रदमन के0) इंडो. तेना (स्तोमेन के० ) समूहें करीने ( स्तूयते के०) स्तवाय , स्तुति कराय ने एटले पोतानी गुणस्तुतियें करीने वर्णन कराय जे. वली ( यः के०) जे पुरुष, (तं के० ) ते परमेश्वरने ( ध्यायति के०) पिंमस्थपदस्थरूपस्थ रूपातीतनेदें करीने ध्यान करे , एटले हृदयने विषे जगवानने ध्यानगोचर करे . ( सः के) ते पुरुष, ( योगिनिः के०) योगीश्वर जे महामुनियो तेमणे ( ध्यायते के ) ध्यानगोचर कराय ने. हवे ते पुरुष कदेवो बे ? तो के (कृप्त के०) रचना कस्यो डे (अष्ट कर्म के०) आठ कर्मनो (निधनः के) विनाश जेणे एवो . अर्थात् सिकावस्थाने प्राप्त थाय ॥१५॥ था प्रकारें श्रा सिंदूरप्रकर ग्रंथमां चार श्लोकें करीनावपूजानो प्रथमप्रक्रम कह्यो॥ इति प्रथमप्रक्रमः ॥१॥ ए परमेश्वरनी पूजा उपर नलराजा श्रने दमयंतीनी कथा जाणवी, ते सर्वत्र प्रसिक ॥ ए श्री तीर्थकरजक्तिनुं प्रथमझार संपूर्ण थयुं ॥१॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) इति पूजायाः प्रस्तावः ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्ययां दर्षकीर्त्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, पूजायाः प्रक्रमोऽ जनि ॥ १॥ इति जिनवर प्रक्रमः॥ ___टीकाः- पुनः श्रीजिननावपूजायाः माहात्म्यमाह ॥ यः पुरुषः पुष्पैः कृत्वा जिनं श्रीवीतरागं श्रर्चेति पूजयति स पुरुषः स्मितसुरस्त्रीलोचनैः अर्च्यते पूज्यते। स्मितानि विकसितानि यानि सुरस्त्रीणां देवांगनानां लोचनानि नेत्राणि तैः। देवलोके देवत्वेनोत्पन्नः स देवांगनानिर्विकसितनेत्रैः अर्च्यते पूज्यते। सरागं अवलोक्यते इत्यर्थः । पुनर्यः पुमान् एकशः एकवारं श्रीजिनं वंदति स अहर्निशं दिवारात्रौ त्रिजगता त्रिजुवनेन वंद्यते । यो जिनं वंदति स त्रिजग;यो नवतीत्यर्थः । पुनर्यः पुमान् तं श्रीजिनं स्तौति वर्णयति स पुमान् परत्र परलोके वृत्रदमनस्तोमेन वृत्रदमनानां इंसाणां स्तोमेन समूहेन स्तूयते । गुणस्तुत्या कृत्वा वर्ण्यते । पुनर्यस्तं श्रीजिनं ध्यायति पिंमस्थपदस्थरूपस्थरूपातीतनेदैर्हृदये ध्यानगोचरं करोति स पुमान् योगिनिर्योगीश्वरैर्महामुनिनिया॑यते ध्यानगोचरः क्रियते। कथंनूतः सः। कृप्तकर्म निधनः कृतं रचितं कृतं श्रष्टानां Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( एश् ) कर्मणां निधनं विनाशो येन सः क्लृप्तकर्म्म निधनः ॥ सिद्धावस्थां प्राप्त इत्यर्थः ॥ १२ ॥ इति पूजायाः प्रस्तावः भाषाकाव्यः - वृत्त उपर प्रमाणे ॥ जो जिनंद पूजें मूलनसों, सुर नैन नि पूजा तिसु होइ ॥ वंदें नाव सहित जो जिनवर, वंदनीक त्रिभुवनमें सोइ ॥ जो जिन सुजस करें जन ताकी, महिमा इंद्र करें सुर लोइ ॥ जो जिनध्यान करंत बनारसि, ध्यावैं मुनी ताके गुंन जोइ ॥ १२ ॥ हवे चार श्लोकें करी गुरुनक्तिनुं द्वार कहे बे. ॥ वंशस्थवृत्तम् ॥ प्रवद्यमुक्ते पथि यः प्रवर्त्तते प्रवर्त्तयत्यन्यजनं च निःस्पृहः ॥ स एव सेव्यः स्वहितैषिणा गुरुः, स्वयं तरंस्तारयितुं दमः परम् ॥ १३ ॥ अर्थः- ( स्वहितैषिणा के० ) पोताना हितना वांक पुरुष ( सएव के० ) तेहीज ( गुरुः के० ) गुरु ( सेव्यः के० ) सेवन करवा योग्य बे. ते केवा गुरु सेवा योग्य बे ? तो के ( वयमुक्ते के० ) अवद्य जे पाप तेथ कि मुक्ते एटले मुकायेला एटले सत्य एवा (पथि के० ) मार्गने विषे ( यः के० ) जे `श्र्वद्य Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए३) गुरु (प्रवर्त्तते के०) प्रवर्ते जे. (च के०) वली (अन्यजनं के)अन्य जननें शुझमार्गने विषे (प्रवर्तयति के०) प्रवर्त्तावे . वली (निःस्पृह; के) परिग्रहादि वांबारहित बता जे गुरु ( स्वयं के०) पोतें ( तरन् के० ) संसारसमुष तरता उता (परं के०) अन्यने ( तारयितुं के ) तारवाने (क्षमः के०) समर्थ होय . ये गुरु शब्दनो अर्थ शुंने ? तो के गृ. णाति एटले कहे जे तत्त्वने ते गुरु कहियें. श्रथात् जे तत्त्वोपदेशक शुद्ध प्ररूपक ते गुरु जाणवा. ए माटे जे शुद्धप्ररूपक तथा जिनाझाराधक होय ते गुरु सेववा योग्य बे. परंतु जमादयादिक कुगुर से. ववा योग्य नहिं, कुगुरु केवा होय ? तो के उ. त्सूत्रना प्ररूपक, खलंद, पोतानी मतियें कल्पित ए. वा मतने करनारा तथा जिनाझाना विराधक अने मायावी होय बे. माटे हे नव्य जीवो! ए प्रकारे जाणी मनने विषे विवेक लावीने जे शुद्ध प्ररूपक तथा जिनाझाऽराधक एवा गुरु होय, तेने सेववा. सेवन करनारने ॥ १३॥ टीकाः-अथ चतुनिवृत्तैर्गुरुजक्तिहारमाह ॥ श्रवध्यमुक्तेति ॥ श्रात्महितवांडकेन पुरुषेण स एव Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) गुरुः सेव्यः । कः सः ? यः अवद्यमुक्ते पापवर्जिते सत्ये पथि धर्ममार्गे स्वयं प्रवर्त्तते प्रचलति । च पुनः अन्यजनं अन्यलोकं शुझमार्गे प्रवर्त्तयति । गुंरुनिःस्पृहः परिग्रहांदिवांबारहितः सन् पुन यः स्वयं संसार समुहं तरन् सन् पर अन्यं तारयितुं दमः समर्थः ॥ गृणाति कथयति तत्त्वमिति गुरुः तत्त्वोपदेशकः शुप्ररूपकश्त्यर्थः॥ यतः ॥ हीणस्स विसुछ परू, वगस्स नाणाहियस्स कायवं ॥ जणचित्तग्गहणलं, करंति लिंगाविसेसं तु ॥१॥ अन्यच्च ॥ दसण नको नको, दसण जस्स नलि निवाणं ॥ सिऊंति चरण रहिया नसिऊंति ॥ १२ ॥ अतःकारणात् यः शुद्धप्ररूपकः जिनाझाराधकः स गुरुः सेव्यः नतु जमाल्या दयः कुगुरवः सेव्याः । श्रहाईदाः उत्सूत्रप्ररूपकाः स्वमतिकल्पितमतकर्तारः जिनाझाविराधकाः माया विनस्ते तु कुगुरवः ॥ एवं जो जव्यप्राणिन् ! इति ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय शुभप्ररूपको जिनाझा राधकोगुरुः सेव्यः ॥ सेव्यमानानां यत् पुण्य मुप्तद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १३ ॥ ज्ञाषाकाव्यः-श्रानानक बंद पाप पं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) धरदि शुनपंथ मग॥पर उपगार निमित्त, वखानदि मोख मग ॥ सदा अवंडित चित्त जु, तारन तरन जग ऐसे गुरुकों सेवत, नागहिं कर्म खग ॥१३॥ ___वली फरीने पण गुरुसेवानुं फल कहे जे. ॥ मालिनीटत्तम् ॥ विदलयति कुबोधं बोधयत्यागमार्थम् , सुगतिकुगतिमाग्! पुण्यपापे व्यनक्ति ॥ अवगमयति कृत्याकृत्यनेदं गुरुयो, नवजलनिधिपोतस्तं विना नास्ति कश्चित् ॥१४॥ अर्थः-हे जव्यजनो ! ( तं विना के०) ते गुरु विना बीजो ( कश्चित् के) को पण, (जवजलनिधी के०) संसाररूप जे समुज तेने विषे ( पोतः के० ) नावसमान (नास्ति के०) नथी. अर्थात् संसारसमुद्र तरवामां नावसमान गुरु विना बीजो कोश् नथी. ते गुरु कहेवा ? तो के ( यः के) जे (गुरुः के0 ) गुरु, ( कुबोधं के०) कुत्सित बोध ते कुत्सितज्ञान जे मिथ्यात्व, तेने ( विदलयति के) विशेषे करी नाश करे . वती जे गुरु ( आगमार्थ के) सिमांतोना अर्थने (बो Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए६) धयति के ) जणावे . तथा जे गुरु (पुण्यपापे के ) पुण्य अने पाप ते धर्म अने अधर्म ए बेने पण (व्यनक्ति के०) प्रगट करे . एटले था पुण्य ने अने था पाप , ए प्रकारे प्रकट करे बे. ते पुण्य अने पाप कदेवां ? तो के (सुगतिकुगतिमाग्गों के०) पुण्य ते देवनरादि सुगतिमार्ग, पाप ते नरकतिर्यगरूप कुगतिमार्ग जाणवो. वली पण जे गुरु, ( कृत्याऽकृत्य के०) करवाने योग्य ते कृत्य अने न करवाने योग्य, ते अकृत्य, तेना (नेदं के०) विवेक एटले विचार तेने (श्रवगमयति के०) जणावे जे. जेम प्रदेशी राजा माहानास्तिकमति हतो, तेने केशीगणधर गुरुये प्रतिबोध करीने तत्त्वमार्ग विषे स्थापन कस्यो. माटे हे नव्यप्राणीयो ! ए प्र. कारें जाणीने मनमां विवेक लावीने संसारसमुज तरवाने माटें नावसमान एवा श्रीगुरुनी सेवा करवा योग्य , अने गुरुनी सेवा करनार सुजनोने जे पुण्य । इत्यादि सर्व पूर्ववत् जाणवू ॥ १४ ॥ टीकाः- अथ पुनरपि गुरुसेवायाः फलमाद ॥ विदलयतीति ॥ जो नव्याः ! तं गुरुं विनाऽन्यः कश्चित् नवजलनिधिपोतः प्रवहणं नास्ति । जव एव Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( एस ) संसार एव जलनिधिः समुद्रस्तत्र पोतः प्रवहणं संसारसमुद्रतारणे प्रवहणसमानं गुरुं विनाऽन्यः कश्चिन्नास्ति । योगुरुः कुबोधं कुत्सितज्ञानं मिथ्यात्वं विलयति । पुनर्यो गुरुः श्रागमार्थं सिद्धांतानां - र्थं बोधयति ज्ञापयति । पुनर्यो गुरुः पुण्य पापे पुएयं च पापं च पुण्यपापे ते धर्माधम्र्मो द्वे अपि व्यनक्ति प्रकटयति । इदं पुष्यमिदं पापमिति । कथं नूते पुण्यपापे सुगतिकुगतिमार्गे सुगतिश्च सुगतिकुंगती तयोमार्गों पुण्यं देवनरादि सुगतिमार्गः पापं नरकतिर्यग्रूपं कुगतिमार्गः । पुनर्यो गुरुः कृत्याकृत्यनेदं यवगमयति कर्त्तुं योग्यं कृत्यं कर्त्तुमयोग्यं - कृत्यं । कृत्यं च अकृत्यं च कृत्याकृत्ये तयोर्भेदो विवेक विचारस्तं ज्ञापयति ॥ यथा प्रदेशी नृपः महा नास्तिकमतिः केशिगणधरगुरुणा प्रतिबोध्य तत्त्वमार्गे स्थापितः ॥ जो जव्यप्राणिन् ! इति ज्ञावा मनसि विवेक मानीय संसारसमुद्रतारणाय प्रवहणसमान श्रीगुरोः सेवा कार्या । गुरोः सेवां कुर्व्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पुद्यते तत् पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांग लिक्यमाला विस्तरंतु ॥ १४ ॥ भाषाकाव्यः - हरिगी तबंद ॥ मिथ्यात दलन सि Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) शांत साधक, मुगति मारग जान ण ॥ करनी अकरनी सुगति मुर्गति, पुन्न पाप बखान ए॥ संसारसागर तरन तारन, गुन जिहाज विसे खियें ॥ जगमांहि गुरु सम कहि बनारसि, और कोउ न लेखिये॥१४॥ ___ कथाः-कश्रीगुरु, कुबोधना विदलन करनार , तेनी उपर सूर्याजदेवनी कथा कहे जेः-एकदा श्रीमहावीर देव अमलकप्पा नगरीयें समोसस्या तिहां सूर्याल विमानथकी सूर्याजदेवतावांदवा श्राव्या.प्र. जुआगल बत्रीशबक नाटक करी स्वस्थानकें गया.पली गौतमस्वामीयें जगवाननें पूज्यु के महाराज! एवडी कहिएणे केम पामी? तेवारें जगवान कहेता हवा के श्वेतंबिका नगरीमा प्रदेशी राजा, तेनी सूरिकांता जार्या तेनो चित्रनामें सारथी हतो, ते एकदा सावली नगरीयें गयो. तिहां केशी कुमारने देखी वांद्या अने धर्मकथा सांजली. श्रावकधर्म पडिवज्यो. पडी ते चित्रसारथीयें पोताना राजाने प्रतिबोध श्रापवा माटे श्वेतंबीयें पधारवा विनति करी त्यारे गुरुये कह्यु के श्रन्नोदक संबंधे जणाशे. पठी केटलेक दिवसें गुरु श्वेतंबीये श्राव्या, तेनी चित्रसारथीने खबर पडी. तेवारें गुरुने वांदना गया, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) उतारो श्रापी सारथीयें कडं के हेस्वामी ! राजा नास्तिक बे, तेने प्रतिबोधजो. हुं पण कोश् उपाय करी तेने इहां लावीश. अन्यदा घोडा फेरववाने मिशें राजाने चित्रसारथी तिहां तेडी लाव्यो. तिहां गुरुने ढूकडाज व्याख्यान करता देखीने चित्रसारथी प्रत्ये राजा कहेवा लाग्यो के, जो खलु मुंग पधुवासंति ? अणायरिया खलु जोषणायरियं पझुवासंति ? तेवारें सारथीयें कडं के हे स्वामी ! चालो थापणे जश् पूबीये. राजा पण तिहां गुरुपासे जइ पूबवा लाग्यो, हे मूंग ! शरीरमांहे थात्मा तो नथी तो धर्म करेलो कोण जोगवे ? गुरु कहे तमारा कहेवा प्रमाणे प्रत्यद देखाय ते प्रमाण अने जे प्रत्यक्ष न देखाय, ते अप्रमाण. तो तमारां माता पिता पण देखातां नथी माटें अप्रमाण थयां? राजा बोल्योजो धर्म अधर्मादिकबे, तो महारो पिता अनेक जीवोनो संहार क. रनार हतो माटे नरकें गयो हशे ? अने महारी माता धर्मिष्ठ हती माटें स्वर्गे गश् दशे ? तो दे जिदाचर ! हुं तो तेनो अत्यंत वखन पुत्र बने ते मने श्रावीने धर्मनो प्रतिबोध श्रापे तो परलोक Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) पण तथा पुण्य पाप पण बे, इत्यादि सर्व वात हुँ सत्य करी मार्नु ! तेवारें श्राचार्य बोल्या के हे राजन् ! बंधीवाननी पेलें तहारो पिता कर्मपाशें करी बंधाणो ने ते शी रीतें श्राहीं तहारी पासें आवी शके ? राजा बोल्यो तो महारी माताजीने स्वर्गथी श्रावतां शी हरकत नडे डे ? सूरि बोल्या के ते तो संपूर्ण वांछित सुख जोगवे , तेथी नही थावे. तथा वली मनुष्यलोकनो पुगंध उंचो उबले बे, ते तेनाथी सहन थाय नही. त्यारें राजा बोल्यो के में एक चोरने पकडी पथरानी कोहीमांहे नाखी द्वार ढांकी दीर्थ्य, पढी केटलेक दिवसें खोली जोयुं तो चोरनुं शरीर तिलतिलनी पेठे दी, परंतु मांदे जीव तोदीको नही ? माटें जीव नथी, तथा एक चोरने तोलीने पली फांसीपापी मारी नाखी फरी तोड्यो तो कांश पण वध्यो घट्यो नहीं ? माटे शरीरमांहे जीव नथी, तेवारें सूरि बोल्या के निःबिन कोही मांहे पेसी कोश्क शंख वजावे, ते शंखनो शब्द बाहिर केम संजलाय बे, तेम जीवनो पण एज स्व. नाव जाणवो . तथा अरणीना लाकडामांहे फाडी जोतां थकां अग्नि देखातो नथी पण उपायने योगें Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) अग्नि पामीयें बैयें. इत्यादि अनेक दृष्टांत श्रापी रा. जाने प्रतिबोध्यो. राजा श्रावक थयो, समक्त्वमूल बार व्रतनो उच्चार कस्यो, यावत् एनी स्त्री सूरिकांतायें निःस्वार्थ जाणी विष दीधुं. राजा अनशन लेश सूरियाजविमानने विषे सूरियाजनामें देव थयो. तिहाथी च्यवी महाविदेहें अवतरी मोक्ष सुख पामशे ॥ इति प्रदेशी राजानो दृष्टांत ॥ १४ ॥ वली पण गुरुसेवार्नु फल कहे . ॥शिखरिणीत्तिम् ॥ पिता माता भ्राता प्रियसहचरी सूनुनिवदः, सुहृत्स्वामीमाद्यत्करिनटरथाश्वः परिकरः॥निमजंतं जंतुं नरककुहरे रदितुमलम्, गुरोर्धर्माऽधर्मप्रकटनपरात्कोऽपि न परः॥१५॥ अर्थः-(नरककुहरे के०) नरकविवरनी मध्ये (निमतं के०) डूबता एटले पडता एवा (जंतुं के०) जीवने (गुरोः के ) गुरुथकी ( परः के०) बीजो (कोपि के० ) को पण (रक्षितुं के०) रक्षण करवाने ( न के० ) नहि (अलं के० ) समर्थ होय. केम के ? ( पिता के पिता तेपण तेनुं रक्षण कर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) वाने न समर्थ होय बे, तथा ( माता के० ) जननी ते पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय. तथा ( जाता के० ) सहोदर ते पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय. तथा ( प्रियसहचरी के० ) अत्यंत वल्लन एवी स्त्री पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय . तथा ( सूनुनिवहः के० ) पुत्रसमूह पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय . तथा (सुहृत् के० ) मित्र पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय ते. तथा (खामी के० ) नायक पण तेनुं रक्षण करवाने न समर्थ होय बे. ते नायक केदवो बे ? तो के (माद्यत् के० ) मदोन्मत्त एवा ( करि के० ) इस्ती, ( जट के० ) मुजट ( रथ के० ) रथ तथा ( श्रश्वः के० ) घोडा बे जेमने एवो बे अर्थात् एवी सर्व सामग्री सहित एटले बलवान् एवो स्वामी पण रद करवाने समर्थ थाय नहि. तथा ( परिकरः ho ) महोटो सेवकादिवर्ग, ते पण रक्षण करवाने समर्थ न होय र्थात् नरकमां पडता जीवोने ए वे पूर्वोक्त सर्व, रक्षण करवाने समर्थ न होय बे, पण मात्र एक गुरु जे बे, तेज नरकमां पडता जंतुने रक्षण करवाने समर्थ थाय बे. गुरु विना कोइ पण नरकमां Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३) पडतां जीवने रक्षण करवाने समर्थ नथी. ते गुरु कहेवा ? तो के (धर्माधर्म के०) पुण्य अने पाप, तेनुं (प्रकटन के०) प्रकाशन तेने विषे (परात् के०) तत्पर एवा बे. वली गुरु जे जे, ते धर्म अधर्म ए बेने बतावे . ते जेम केः-जे प्राणी धमैने अंगीकार करे , ते नरकने विषे पडता नथी, अर्थात सुगतिने जजनारा थाय जे. श्रने जे अधमैने अंगीकार करे . ते प्राणी नरकमां पडे , अर्थात् कुगतिने नजनारा थाय . माटे हे नव्यजनो! एम जाणीने मनने विषे विवेक लावीने नरकपातथकी रक्षण करवाने समर्थ गुरु बे, ते सेववा योग्य , बाकी सर्व पूर्ववत् जाणवू ॥ १५॥ टीकाः-पुनः गुरुसेवायाः फलमाह ॥ पितामातति ॥ नरककुहरे नरकविवरमध्ये निमतं ब्रूडंतं पतंतं संतं जंतुं जीवं गुरोः परोऽन्यः कोपि रक्षितुं अलं न । कोपि न समर्थः । कथं ? पिता जनको रदितुं नालं । माता जननी रक्षितुं नालं । जाता सहोदरोरदितुं नालं । प्रिया अत्यंतवदना सहचरी स्त्री रदितुं नालं । सूनुनिवहः पुत्रगणोऽपि रवितुं नालं । सुहृत् मित्रमपि रहितुं नालं न स Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) मर्थः । खामी नायकोऽपि रदितुं नालं । किनूतः स्वामी ? माद्यत्करिनटरथाऽश्वः। मायंतो मदोन्मत्ता करिणो गजाः नटा सुजटाः रथः अश्वाश्च यस्य स एवं विधो बलवान् यः स्वामी स रक्षितुं नालं । पुनः परिकरः प्रनूतसेवकादिवर्गोऽपि नरके पतंतं संत रक्षितुं अलं समर्थो न । किंतु एको गुरुरेव नरके पतंतं जीवं रक्षितुं समर्थः । गुरोः परः कोऽपि नरके पतंतं जीवं रक्षितुं न समर्थः । किंविशिष्टात् गुरोः। धर्माधर्मप्रकटनपरात् । धर्मश्च श्रधर्मश्च धमर्मधम्मौ पुण्यपापे तयोः प्रकटने प्रकाशने परस्तत्परो यः सः तस्मात् । गुरुर्धर्माऽधर्मी घा वपि दर्शयति । ततश्च यः प्राण। धर्ममंगीकरोतिस नरके न पतति । किंतु ? सुगतिलाग्नवति ॥ यतः ॥ नरय गय गमण पडिह, बए कए तह पएसिणा रन्ना ॥ श्रमर विमाणं पत्तं, तं श्रायरिय प्पजावेणं ॥१॥जो जव्य प्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय नरकपतनात् रदणीयः समर्थो गुरुरेव सेव्यः॥ सेव्यमानानां च यत्पुण्यमुत्पद्यते तत् पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमालाविस्तरंतु ॥१५॥ जाषाकाव्यः-सवैय्या त्रेवीशा॥ मात पिता सुत Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०५) बंधु सबी जन, मीत हितू सुख कामिनी फीके ॥ सेवकराजि मतंगज वाजि, महा दल साजि रथी रथ नीके ॥ उर्गति जाइ पुःखी विललाइ, परै सिर श्रा अकेल हि जीके ॥ पंथ कुपंथ गुरू समुजावत, और सगे सब स्वारथहीके ॥१५॥ हवे गुरुनी श्राझार्नु माहात्म्य कहे बे. ॥शार्दूलविक्रीडितहत्तम् ॥ किं ध्यानेन नवत्ववशेषविषयत्यागैस्तपोनिः कृतम्, पूर्ण जावनयाऽलमिडियदमैः पर्याप्तमाप्तागमैः॥ किं त्वेकं नवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनम्, सर्वे येनविना विनाथबलवत् स्वार्थाय नाऽलं गुणाः॥१६॥ इति वितीय गुरुसेवनप्रक्रमः॥२॥ अर्थः-हे जव्यप्राणी ! गुरुनी आज्ञा विना (ध्या नेन के० ) ध्यान करवाश्री (किं के० ) शुं ? तो के काहिं नहिं. तथा (अशेष विषय के०) समस्त विषयो, तेना ( त्यागैः के० ) त्यागें करीने (जवतु के०) हो एटले संपूर्ण थयुं, अर्थात् समस्त विष Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) यत्यागें करीने पण काहिं नहिं. वली गुरुनी आज्ञा विना ( तपोनि के ) तप जे षष्ठ, अष्टम, दशम, बादशादि, पददपण, मासदपण, सिंह निक्रीडितादिक तप तेणे करीने पण शुं (कृतं के०) कखु? एटले पूर्ण थयु, अर्थात् तेणें करीने पण कांहि नहिं. तथा (नावनया के) शुननावें करीने पण (पूर्ण के०) पूर्ण थयु, अर्थात् तेणें करीने पण कांहिं नहिं. वली (इंडियदमैः के०) इंजियोना दमने करीने पण (अलं के० ) परिपूर्ण, अर्थात् तेणें करीने पण काहिं नहिं वली (श्राप्तागमैः के०) सूत्रसिकांतना पठने करीने पण (पर्याप्तं के०) पूर्ण थयु. अथात् तेणें करीने पण काहिं नहिं.त्यारें (तु के० ) वली (किं के) करवु ? के जे थकी ते पूर्वोक्त सर्व सफल थाय ? तो के (गुरुप्रीत्या के० ) अत्यंत प्रीतियें करीने ( एकं के ) एक, (गुरोः के०) गुरुर्नु ( शासनं के०) शासन जे शीखामणवचन तेने (कुरु के०) हे जव्यजीव ! तुं कर, अर्थात् गुरुनीज शुरू आझाने पालन कर. ते गुरुर्नु शासन कदेवू डे ? तो के (नवनाशनं के०) संसारज्रमणने नाश करनारं . कारण के ( येन के०) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) जे ( एकेन के०) एक गुरुशासन ( विना के०) विना ( सर्वे के ) सर्व ( गुणाः के०) पूर्वोक्त ध्यानादिक गुणो पण ( स्वार्थाय के० ) पोतपोताना फल साधनने माटें (अलं न के० ) समर्थ थता नथी. अर्थात् सर्व निष्फल थाय बे. केनी पढ़ें ? तो के ( विनाथबलवत् के ) सैन्याधिपति रहित सैन्यनी पढ़ें. अर्थात् जेम निर्नायक सैन्य, जयसाधक थतुं नथी, तेम गुरुनी आज्ञा विना क्रियानुष्ठानादिक सर्व, निष्फल थाय ने. गोशालक, जमालि कुलबालक निवादिकनी पते. श्राहीं गोशालकादिकनो दृष्टांत लेवो. माटें एवी रीतें जाणीने गुरुनी श्राझा सहित सर्व कर्म, करवा योग्य बे. तेथी दे नव्यप्राणी ! ए प्रकारे जाणी मनमां विवेक लावीने श्रीगुरुसेवा करवी. गुरुसेवा करनार एवा सुजनने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥ १६ ॥ ए गुरुसेवा नामा बीजं हार संपूर्ण थयुं ॥२॥ ___टीकाः- अथगुरोराज्ञायाः माहात्म्यमाह ॥ किंध्यानेनेति ॥ जो जव्याः ! गुरोः श्राज्ञां विना चेत् ध्यानं कृतं ? तर्हि तेन ध्यानेन किं । अपितु न किमपि फलं । पुनः अशेषविषयत्यागैर्नवतु पूर्णं जातं । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) समस्त विषयाणां त्यागेपि किमपि न फलं । पुनः गुरोराज्ञां विना तपोनिः कृतं । षष्ठाष्टमदशमहादशादि पदपण मासपण सिंह निक्रीडितादिनिस्तपोनिः कृतं संपूर्ण जातं ॥ अर्थान्न किमपि । पुन विनया शजलावेनापि पूर्ण जातं। पनःइंडियदमैः पंचेंजियाणां दमनैः कृत्वा श्रलं पूर्णं जातं । पुनः श्राप्तागमैः सूत्र सिद्धांतपठनैरपि पर्याप्तं पूर्णं जातं । तर्हि किं ? किंतु गुरुप्रीत्या गरिष्टवात्सत्येन अधिकादरेण एकं गुरोः शासनं कुरु । गुरोरेवाज्ञां शुझां पालय । किंनूतं गुरोः शासनं ? जवनाशनं । संसारपरिज्रमणवारकं । यतो येनैकेन गुरोः शासनेन श्राझया विना सर्वेऽपि गुणाः पूर्वोक्ता ध्यानादयः खार्थाय स्वस्वफलसाधनाय अलं न । समर्था न । किंतु निःफला इत्यर्थः ॥ किंवत् ? विनाथबलवत् । निर्नायकसैन्यवत् यथा निर्नायकं सैन्यं जयसाधकं न तथा गुरोराज्ञां विना क्रियानुष्ठानादिकं सर्वं निःफलं । गोशालकजमालिकुलबालकनिहवा दिवत् ॥ एवं ज्ञात्वा गुवोझासहित सर्व कत्तव्यं ॥ यमुक्त श्रीकल्पसूत्रे ॥ असणवा श्राहारेत्तए ॥ उच्चार पासवणं वा परिवेत्तए ॥ सजायं वा करित्तए । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०ए) धम्मजागरियं वा जागरित्तए ॥ णो सेकप्पश्अणापुबित्ता ॥ निकु श्वेद्या अन्नायरं तवो कम्म उवसंपजित्ताणं विह रित्तए ॥ तं चेव सत्वं ॥ नणियत्वं जो नव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा मनसि विवेकमानीय श्रीगुरुसेवा कर्त्तव्या॥कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुण्यप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु ॥ इति ॥ १६ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, गुरुसेवन, प्रक्रमः ॥२॥ इति गुरुसेवनप्रक्रमः ॥२॥ नाषाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ ध्यान धारन ध्यान धारन, विषै सुख त्याग ॥ करुना रस आदरन, नूमिशयन इंघिय निरोधन ॥ व्रत संयम दान तप नगति नाव सिहंत सोधन ॥ ए सब काम न श्रावही, ज्या बिनु नायक सैन ॥ सिवसुख देत बनारसी, करु प्रतीत गुरु बैन ॥ १६॥ ___ कथाः-शहां गुरु सेवानो करनार मोड़ जाय. तेनी उपर श्रीगौतमस्वामीनी कथा कहे बेः-एकदा प्रस्तावें श्रीवर्धमान स्वामी व्याख्यान करतां करतां उपदेश दीधो, जे अष्टापदपर्वत उपर जरतचक्रवर्तीनी करावेली मानोपेत चोवीश तीर्थकरनी Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा बे, तेने जे पोतानी लब्धिना बलें जश वांदे, ते प्राणी तनवें मोदें जाय. ते सांजली श्री. गौतम स्वामी पोताने मोद जावानो निर्णय करवा माटें प्रजुनी आज्ञा मागी अष्टापद नणी चाव्या. तेमने कौडिन्यादिक तापसोयें श्रावता दीग, तेवारें तापसो, मांहोमांहे कहेवा लाग्या के श्रा महोटा मुनीश्वर आवे , पण योजन प्रमाण पावडी शी रीतें चडी सकशे ? अमें महा तपस्याना करनार पांचशे एक जण ते एक उपवास करी सूके पत्रे पारणुं करी एक पावडी चढ्या. पण आगल जश शकता नथी. एवो विचार करे , एवामां गौतम स्वामी चढ्या. यावत् दर्शन करी पाग फस्या, तेवारें श्रीगौतमस्वामी पासेंथी सर्व पन्नरशे ने त्रण तापसोयें दीदा लीधी, शासनदेवीयें साधुनो वेश आणी आप्यो, पठी मार्गे श्रावतां सर्वने पूब्यु के तमारे बाजे शेनं पारणं करवं ले? तेवारें तापस वोट्या के खीर खांम घृतनुं पारणुं करीयें तो सारूं. पनी गौतमस्वामी पाउँ जरी वहोरी लाव्या. अवीणमहानिशि लब्धिने बलें करी सर्व तापसोने पारणुं कराव्यु. एवो चमत्कार देखी पोताना मन Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहे गुरुतत्त्वनी जावना नावतां जावतां पांचशेने एक तापसोने केवलज्ञान उपनुं अने पांचशे ने एकने समोसरण देखतां केवलज्ञान उपमुं. तथा पांचशे ने एकने श्रीवीरनी वाणी सांजलतां केवलज्ञान उपन. ते सर्व १५०३ तापस केवली थया थका श्रीवीरने वांदीने केवलीनी सनामां बेग, ते जोश श्रीगौतमस्वामीने शंका उपनी जे बाजना दीकितने केवलज्ञान उपर्नु हशे ? नगवान् बोल्या के केवल ज्ञान उपमुंडे, अने हुँ निर्वाण पामीश तेवारें तकने केवलज्ञान उपजशे. ते सांजली श्रीगौतम स्वामी संतोष पाम्या. अनुक्रमें केवल ज्ञान पामी मोद सुख पाम्या. अने तापस पण मोद सुख पाम्या. एवं गुरु सेवा, फल जाणी हे नव्यलोको ! तमें धर्मना दायक एवा गुरुनी सेवा करो, के जे थकी संसार तरो॥ १६ ॥ इति गुरुसेवाधिकारे श्रीगौतमस्वामी कथा समाप्ता ॥ हवे चार श्लोकोयें करीने जिनमत जेजिनोक्त __सिकांत, तेनुं माहात्म्य कहे जे. ॥ शिखरिणीटतम्॥न देवं नादेवं न शुन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) गुरुमेवं न कुगुरुम्, न धर्म नाधर्म न गुणपरिणई न विगुणम् ॥ न कृत्यं नाऽकृत्यं न हितमदितं नाऽपि निपुणम्, विलोकंते लोकाजिनवचनचदुविरहिताः॥२७॥ अर्थः-(जिनवचन के) जिनशास्त्र रूप (चतुः के०) चढु जे नेत्र तेणें करी ( विरहिताः के०) रहित एवा (लोकाः के०) लोको जे , ते हवे कहेवाशे ते एवी वस्तुने ( नविलोकंते के०) न देखे , अर्थात् नहिं जाणे . शुं शुं नथी जाणता? तो के ( देवं के०) सर्वज्ञ, जितरागादि लक्षणोयें युक्त जे सुदेव, तेने न जाणे . वली ते (अदेवं के० ) कुदेव एटले स्त्री, शस्त्र, अद, सूत्रादि लक्षणोपेत जे कुदेव तेने पण (न के) न जाणे . वली ते ( एवं के० ) ए प्रकारें (शुनगुरु के ) सुगुरु जे जे तेने एटले शुझमार्गप्ररूपक एवा सुगुरुने ( न के० ) न जाणे जे. वली (कुगुरुं के) पंचाचाररहित एटले उत्सूत्रप्ररूपक एवा कुगुरुने ( न के0) न जाणे . तथा (धर्म के०) धर्मने (न के०) नहिं जाणे डे, तथा (अधर्म के०) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) श्रधर्मने न जाणे . अर्थात् धर्माधर्मना अंतरने ते पुरुष जाणता नथी. वली ( गुणपरिण; के०) गुणे करीने परिपूर्ण अर्थात् गुणवानने (न के०) न जाणे बे, तथा (विगुणं के०) गुणरहित एटले निर्गुण तेने (न के०) नहिं जाणे . अर्थात् गुणवान् भने निर्गुण जनने समानज देखे . वली ( कृत्यं के ) करवा योग्य कार्य तेने ( न के०) न जाणे . तथा (अकृत्यं के०) जे करवाने अयोग्य कार्य तेने (न के०) न जाणे बे. अर्थात् कृत्याकृत्य विवेकने जाणे नहिं. वली ( निपुणं के०) चातुर्य जेम रुडे प्रकारे होय तेमज ( हितं के ) पोतानुं हित जे सुख तेनुं कारण, तेने ( न के०) नहिं जाणे . तथा (अहितमपि के०) अशुजनुं जे कारण तेने पण (न के०) नहिं जाणे . अर्थात् ते लोको जिनवचन श्रवण विना शुनाशुनना अंतरने जाणता नथी. श्हांविलोकंते ए क्रियापद सर्व नकारनी साथे लगाडवं. माटें हे नव्यजीव ! ए प्रकारे जाणीने श्रीजिनप्रणीत सिद्धांतोनुं श्रवण करवु: जिनवचन श्रवण करता एवासुजनने जे पुण्य।इत्यादिपूर्ववत् जाणवू॥१७॥ टीकाः-अथ चतुर्निवृत्तैर्जिनमतस्य जिनोक्तसि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) शांतस्य च माहात्म्यमाह ॥ न देवमिति ॥ लोकाः जिनवचनमेव चकुर्नेत्रं तेन रहिताः संतः एतानि वस्तूनि न विलोकंते । न पश्यति । नजानंतीत्यर्थः॥ किं किं न विलोकंते । ते देवं सर्वज्ञो जितरागादिरित्यादिलक्षणोपेतं न विलोकंते । पुनः अदेवं कुदेवं ये स्त्री शस्त्रादसूत्रादतिलक्षणोपेतं कुदेवं न विलोकंते । पुनः शुजगुरुं सुगुरुं शुझं प्ररूपकं गुरुं न जानंति । पुनः कुगुरुं पंचाचाररहितं उत्सूत्रप्ररूपकं नजानंति। पुनः धर्म अधर्मं च न जानंति ।ध धिर्मयोरंतरं न विदंतीत्यर्थः॥ पुनः गुणपरिणथं गुणैः परिपूर्ण गुणवंतं न जानंति ॥ पुनर्विगुणं गुणरहितं निर्गुणं च न जानंति । गुणवंतं निर्गुणं च सदृशमेव पश्यति । पुनः कृत्यं करणीयं कर्तुं योग्य वस्तु न जानंति । पुनः अकृत्यं कर्तुमनुचितं श्रयोग्यं च न जानंति । कृत्याऽकृत्य विवेकं न जानंतीत्यर्थः ॥ पुनर्निपुणं सचातुर्य च सम्यग् यथास्यात्तथा श्रात्मनोहितं सुखकारणमपि न जानंति। पुनः श्रहितं च अशुजकारणं च न जानंति । जिनवचनश्रवणं विना शुजाऽशुजयोरंतरं न जानंति॥ ... . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५) यतः ॥ सुच्चा जाणश कहाणं, सुच्चा जाण पावगं॥ उन्नयंपि जाणई सुच्चा, जं सेयं तं समायरे ॥१॥जो जव्यप्राणिन् ! एवं ज्ञात्वा श्रीजिनप्रणीतसिद्धांतानां श्रवणं कर्त्तव्यं । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यमुत्पद्यते तत्पुएयप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु॥१७॥ नाषाकाव्यः-कुंमलियाबंद ॥ देव अदेवहिनही लखें, सुगुरु कुगुरु नहिं सूज ॥ धर्म अधर्म गिनें नही, कर्म अकर्म न बूऊ ॥ कर्म अकर्म न बूज गूज, गुन अगुन न जानहि ॥ हित अनहित न सदहै, निपुन मूरख नहि मानहि ॥ कहत बनारसि ज्ञान, दृष्टि नहि अंध अवेव हि ॥ जैन बचन दृग हीन, लखें नहि देव अदेव हि ॥ १७ ॥ ॥ शार्दूलविक्रीमितत्ताष्टकम् ॥ मानुष्यं विफलं वदंति हृदयं व्यर्थ वृथा श्रोत्रयो, निर्माणं गुणदोषनेदकलनां तेषामसंन्नाविनीम् ॥ उर्वारं नरकांधकूपपतनं मुक्ति बुधा उझनाम्, सार्वज्ञ समयोदयारसमयो येषांन कर्णातिथिः ॥ १७ ॥ अर्थः-(सार्वज्ञः के० ) सर्वदेवप्रणीत अर्थात् Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागदेवें कहेलो एवो (समयः के०)श्रागम, (येषां के०) जे पुरुषोने ( कर्णातिथिः के० ) कर्णगोचर ( न के० ) नथी थातो, अर्थात् जेणें जिनागम श्रवण कस्यो नथी, हवे ते कहेवो जिनागम ले ? तो के ( दयारसमयः के०) कृपा जे तेज ने रस जेमां एवो बे. हवे ते जिनागमश्रवण न करनारा जे पुरुषो (तेषां के०) ते पुरुषोनुं (मानुष्यं के० ) मनुष्यजन्म जे जे तेने ( बुधाः के०)जे पंमितो , ते ( विफलं के०) निःफल ( वदंति के०) कहे . अर्थात् पंमितो ते पुरुषोने मनुष्यजन्म प्राप्त थयुं, तो पण न थया जेवू कहे . तथा ते पुरुषोनु ( हृदयं के) चित्त तेने (व्यर्थं के०) निरर्थक अर्थात् शून्य कहे . वली ते पुरुषोने (श्रोत्रयोः के ) बेहु कान- ( निर्माणं के०) निर्माण जे करवू तेने (वृथा के०) निःफल कहे . तथा तेमने ( गुण के० ) गुणो तथा ( दोष के० ) दोषो तेनो जे (नेद के०) नेद तेनी (कलनां के०) विचारणा जे ले तेने (असंनाविनी के०) पुर्लन एवी कहे , तथा ते पुरुषोनुं ( नरकांधकूप के ) नरक तेज अंधकूप एटले घांस अने वेलाये थाबादित Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७) कूप तेने विषे ( पतनं के०) पडवू, ते (उर्वारं के०) वारवाने अशक्य कहे बे. अनेते पुरुषोने (मुक्तिं के०) मुक्ति ते (पुर्खां के०) उर्लन कहे . अर्थात् जिनागम श्रवण विना जीवो मोदने पामता नथी. ए कारण माटें सर्वजनोयें जिनागमनुं श्रवण करवं. कदाचित् नाव न होय तोपण जिनागमश्रवण हितने माटें थाय बे. श्राश्लोकमां वदंति ए क्रियापद सर्वे पदोने जोडवू. ए प्रकारे जाणीने जिनवचन श्रवण करवं. करनार एवा जे सुजनो तेमने जे पुण्य । इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू ॥२०॥ ____टीकाः-मानुष्यमिति । नो जव्यप्राणिन् ! सार्वज्ञः सर्वज्ञाप्रणीतः श्रीवीतरागदेवेन नाषितः समय श्रागमो येषां पुरुषाणां कर्णातिथिः कर्णगोचरो न जातो यैर्न श्रुतः। किंविशिष्टः समयः दयारसमयः कृपा एव रसः स्वरूपं यस्य । बुधाःपंमितास्तेषां मनुष्याणां मनुष्यं मनुष्यजन्म विफलं निःफलं वदंति। लब्ध मप्यलब्धं कथयति । तेषां हृदयं चित्तं व्यर्थ निरर्थकं शून्यं वदंति । पुनस्तेषां श्रोत्रयोः कर्णयोनिर्माणं करणं वृथा निःफलं वदंति । पुनस्तेषां गुणानां दोषाणां च योनेदोः अंतरं तस्य कलनां विचारणां Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) संजाविनी अर्थात् पुर्खनां वदंति । पुनः नरकमेव अंधकूपस्तृणवलीवितानानादितः कूपस्तत्र पतनं 5रिं वारयितुमशक्यं कथयति । पुनस्तेषां मुक्तिं छझनां कथयति । जिनागमश्रवणं विना मुक्तिं मोदं न प्राप्नुवंति । श्रतः श्रीजिनागमश्रवणमेव कर्त्तव्यं । जावं विनाऽपि श्रुतं हिताय नवति ॥यथा॥ द्वेषेऽपि बोधकवचः श्रवणं विधाय, स्याउौहिणेय व जंतुरुदारलानः ॥ क्वाथोऽप्रियोपि सरुजां सुखदो रविर्वा, संतापकोऽपि जगदंगनृतां हिताय ॥१॥किं तकृचः? यतः॥ श्रणिमिस नयणामण क, ऊ साहणाः पु. प्फदाम श्रमिलाणा ॥ चतरंगुलेण नूमि, न बिंति सुरा जिणा बिंती ॥ १॥ इति ज्ञात्वा जिनवचनस्य श्रवणं कर्तव्यं । कुर्वतांच सतां यत पुण्यमत्पद्यते तत्पर एयप्रसादात् उत्तरोत्तरमांगलिक्यमाला विस्तरंतु॥१॥ - जाषाकाव्यः-मात्रात्मककविता ॥ ताको मनुज जनम सब निःफल, निःफल मन निःफल जुग कान ॥ गुन अरु दोष विचार नेद विधि, तांहि महा छहज यह ज्ञान ॥ ताको सुगम नरक छुःख संकट, आगम पंथ पद निरवान ॥ जनमत बचन दया रस गर्जित, जे नहि सुनत सिद्धांत बखान ॥१०॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९ए) कथाः-एनी उपर रोहणीया चोरनो दृष्टांत कहे बेः- राजगृही नगरीने पाखती वैनारगिरि पर्वतनी गुफामांहे लोहखरो चोर वसे बे, ते सर्वदा पापकमनो करनार, नगरमाहे चोरी करे, सात व्यसन सेवे, चोरीनो विधि संपूर्ण जाणे, धर्म उपर लगारमात्र वांग नही, तेने रोहिणीनक्षत्रने योगें पुत्र थयो, तेनुं नाम रोहणीयो एवं स्थाप्यु. अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो. तेवारें अनेक विद्याऊनो श्रज्यास कीधो. सर्व कलाठमां निपुण थयो. एकदा तेना पिताने मरणर्नु कष्ट श्राव्यु, तेवारें पुत्रने कहेवा लाग्यो के हे वत्स! तुं महारं वचन अंगीकार कर, तो हं मलं ! जे माटे तुं केवारें पण श्री महान वीर देवनी वाणी सांजलीश मां. रोहणीये तेमज कबूल कऱ्या. तेवारें लोहखुरो मरण पाम्यो तेना मृतकार्य करी नगरमां चोरी करतो फस्या करे. हवे एकदा श्रीमाहावीरस्वामी विहार करता तिहां समोसस्या, देवतायें समोसरणनी रचना करी, ते समोसरणमां बेशी नगवान् देशना देवा लाग्या, ते समयें रोहणीयो पण पर्वतमाथी निकली राजगृही नगरी तरफ जातां मार्गमां समोसरण देखी चिंत Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) ववा लाग्यो जे ए मार्गे जतां महाराथी वीरवचन जरूर संजलाशे, तो पितानी श्रज्ञानी जंग थाशे ? ने बीजे मार्गे जाइश तो वखत घणो लागशे. तेम गयाविना पण चालशे नहीं. तेथी बे कानमां श्रांगली घाली बेहु पगरखां हाथमां लइ एकदम दोड्यो - समोसरण नजीक श्राव्यो, तेवारें पगमां कांटो लागो, तेने काहाढवा माटे कानमांथी घांगली काढीने नीचो नम्यो, ते वखत सर्व संदेहनी हरनारी अमृततुल्य एवी श्रीवीरनी वाणी श्रवणें सांगली. ते वाणीमां देवताना स्वरूपनुं वर्णन ते समये यावेलं हतु) ते जेम के: - ॥ गाथा ॥ केसबि मंस नह रो, म रुहिर वस चम्म मुत्त पुरिसेहिं ॥ रहिया (निम्मल देहा, सुगंध नीसास गयलेवा ॥ १ ॥ अंतमुहुत्ते चिय, पत्ता तरुण पुरिस संकासा ॥ ( सवंग नूस धरा) अजरा निरुया समा देवा ॥ २ ॥ াविमिस नया) मणक, जी साहणा पुष्फ दाम - मिलाणा ॥ चजरंगुलेण भूमिं न बिबंति सुरा जिला बिंति ॥ ३ ॥ कांटो काहाडतां ए गाथा सांजलीने ते वचनने घणां वीसारखा मांड्यां, पण कोइ रीतें वीसरे नही पढ़ी गाममां जइ चोरी करी लोकोने Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) संतापीने चोर स्वस्थानकें गयो. एकदा तिहांनी सर्व प्रजायें राजानी पागल विनति करी के स्वामी ! श्रा गाममा चोरनी श्रागल अमाराथीरही शकाय नही? ते सांजली राजायें सेवकोने बोलावी कडं के अरे! तमें चोरनो निग्रह केम नथी करता !!! ते सांजली सेवको बोल्या के स्वामी! अमें तो घणाय प्रपंच कस्या, परंतु ए चोर दणमां देखाय अनेकणमां न देखाय, तेथी अमारा हाथमांज श्रावतो नथी. तेवारें राजायें अजयकुमारने कह्यु. अनयकुमारें कोटवालने कडं के नगरना दरवाजामां को नवीन माणस प्रवेश करे, अथवा बाहिर नीकले, तो उलखीने जवा देजो. कोटवाले पण गुप्तपणे दरवाजे रही चोकसी करतां एकदा रात्रिने वखते रोहणीयाने नगरमा प्रवेश करतां अंगित श्राकारें चोर जाणीने पकड्यो. बांधीने राजा आगल पाण्यो. राजायें अजयकुमारने पूज्युं के एने कहेवी शिक्षा करीयें ! तेवारें कुमरें कडं के चोरेली वस्तु हाथ लाग्या विना शिक्षा श्रश् शके नही, राजायें चोरने पूब्युं के तुं क्या गामनो रहेवासी जो अने तहालं नाम शुंने ? तथा धंधो शुंडे ? ते कहे. चोर बोल्यो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) महारुं नाम पुर्गचंग ले जाते कुमंबी बुं अने शालिग्राममा रहुं बुं, कोश् कामविशेषे आहीं श्राव्यो ढुं. आवतां असुर थ तेथी तलारें मने पकड्यो. ते सांजली राजायें प्रउन्नपणे ते वातनो निश्चय करवा माटे शालीग्रामें माणस मोकट्यो, पण चोरें ते ग्रामना सर्व माणसो साथै प्रथमथी संकेत करेलो हतो माटे तिहांना रहेवासीयें तेमज तेनुं नाम गम सर्व ते माणसने कही संजलाव्यु. तेवारें माणसे फरी श्रावी राजा श्रागल सर्व समाचार कह्या, ते सांजली अजयकुमार विचाखुजेए चोर पण महाकपटी . पडीतेने दिलासोश्रापी पोताती पासे राख्यो. जेवारें अजयकुमार सामायिक पोसह प्रमुख करे, तेवारे ते पण तेमज अजयकुमारनी साथे श्रावकनी करणी करे, तेना मनोगत जाव को जाणे नही ॥ यतः॥ रामउवाच ॥ पश्य लक्ष्मण पंपायां, बकः परमधार्मिकः ॥ शनैश्च मुंचते पादौ, जीवानामनुकंपया ॥१॥ मत्स्यउवाच ॥ सहवास्येव जानाति, सहवासि विचेष्टितम् ॥ प्रशंस्यते च रामेण, तेनाहं नकुलीकृतः ॥२॥ मुखथी मिष्टवचन बोले अने संसारमां तो मिष्टवचन ववन लागे तेथी कोयलनी Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MERA (१५३) पेठे अवगुण ढंका जाय ॥यतः॥ पिकस्तावत् कृष्णः, परमरुणया पश्यति दृशा ॥ परापत्यषी स्वसुतमपिनो, पालयति यः तथाऽप्येषोऽमीषां, सकलजगतां वनतमोन दोषागण्यते,मधुरवचनानांक्वचिदपि र ___ हवे अजयकुमारे एक आवास कराव्यो, तेमां विचित्र चित्रामण कराव्यां, नानाप्रकारना चंखुवा बंधाव्या, श्रावासनी उपर अत्यंत सुंदर ध्वजा बं. धावी मांदे सेलारस, अगरचंदनदेपन कराव्यां, धूपपरिमल विस्तास्या, छारमा तोरण बंधाव्यां, अपूर्व शय्या पथरावी, फुल पगर जराव्या, तथा शोलवर्षना वयवाली अत्यंत रूपवंत एवी श्राउ गणिकाउँने शोल शणगार करावीने तेना हाथमा मृदंग थापी तिहां उनी राखीयो. पठी ते श्रावासमां अनयकुमार ते चोरने साधर्मीजाश्ना नाताथी जमवा बोलाव्यो. जमाडतां जमाडतां वचमां चंड हास्य मदिरानं पान कराव्यु, तेथी विव्हल थयो. तेवार ते श्रावासनी शय्या उपर तेने सुवाडी मूक्यो. चार घडी वीत्या पली सचेतन थयो. तेवारे ते गणिकार्ड “ जयजयनंदा जयजयनदा" एवा शब्दो बोलती थकी बत्रीशबा नाटक करवा लागी. अने ते Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२४) चोरने पूज्युं के तमें शी पुण्याइ कीधी के जेथकी श्रमारा स्वामी थया? अने देवलोकनी पदवी पाम्या ? ते वखते तिहां रोहणीयो चोर विचारवा लाग्यो जे' श्रा ते शी वात ! जे में तो जन्मांतरने विषे कांश पण पुण्य कमु नथी, तो हुं देवता शी रीते थयो ! वली विचाखु जे वीरवचन तो एवं डे के देवता होय तेने तो 'अणि मिसनयणा' इत्यादि चिन्ह होय, ते तो ए देवांगनाउँमा देखातां नथी. माटें देव श्यो! श्रा सर्व प्रपंच अजयकुमार कस्यो दशे ! एम जाणी विचारे के हवे (श्रापणे पण शहां कपट नावज जजवो. कपटकथा करवी! एम विचारीने कहेवा लाग्यो के हे स्त्रीयो ! में पाडले नवें दान, पुण्य, धर्म, सात व्यसनरहित थकां नियम, व्रत, जीर्णोकारादि पुण्यकरणी करेली ने तेथी तमारो स्वामी हुँ थयो लु ! तेवारे देवांगनाने रूपें वेश्या बोली के मनुष्यनवमां कां पाप कर्तुं होय तो ते पण अमने कहो. तेवारें रोहणीयो बोल्यो के में मनुष्यनवें केवल धर्मज कीधो , पण पाप कर्म कोश कीधुं नथी) ए वात सर्व प्रबन्नपणे सानतान अजयकुमार जाएयु जे था महोटो बुद्धिमान् बे. एना जेवा बुद्धिमान् w RAINirma -. oparsw -500 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) तो कोई विरलाज हशे (पी श्रेणिकराजाने पूढीने अजयकुमारें ते चोरने विसर्जन कस्यो, रोहणीयो पण घेर जइ विचारवा लाग्यो के मरवानुं कष्ट म होडं हतुं तेथी हुं उगरत नही, परंतु में पगमांथी कांटा काढतां जे श्रीवीतरागनी थोडीशी वाणी सांली ते पण मुने गुणकारी अवांतां थकां पण जिनवाणी में सांजली ते मुने घाडी श्रावी. माटें वीतरागने शरणे जनुं तेज उत्तम बे.) पढी तिहांथ की श्रीवर्द्धमानस्वामी पासें घ्यावी नमस्कार करी कहेवा लाग्यो के हे प्रजो ! तमारी थोडीशी वाणी मने नासतां नासतां श्रवणें पडी, तेथी हुं उगयो. माटे हवे हे महाराज ! कृपा करी महारा बेदु जब सुधरे, तेवो उपाय कहो. तेवारें परमेश्वरें तेने धर्मोपदेश कस्यो, ते सांजली चारित्र लेवा माटें सावधान थयो पढी जगवाननें वीनव्यो के दे महाराज ! हुं श्रेणिकराजाने मली घ्यावीने पी चारित्र लश्श ! एम कही राजानी पासें श्रावी कदेवा लाग्यो के हे स्वामी ! हुं रोहणीयो नामक चोर, महापापी बजं, परंतु श्रीवीरनां वचन सांजलतां हुं उगरयो ढुं. हवे मुने चारित्र लेवानो नाव Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५६) बे, माटें वैनारगिरिनी गुफामांदे में चोरी लावेलु धन राखेबुं बे, ते तमें महारी साथें तिहां पधारीने सर्व प्रजाने उलखावी उलखावीने जे जे धणीनु होय ते ते धणीने तमें हवाले करो, राजायें पण तेमज कह्यु. सर्व प्रजाने जेनुं जेनुं धन हतुंतेने तेने उलखावी उलखावीने दीधुं. पनी रोहणीये स्वकुटुंब प्रतिबोधी तेमनी श्राझा पामी चारित्रलीधुं. अंत्यावस्थायें श्र सण करी देवलोके देवता थयो, ए रोहणियानी पेठे जे जिनवचनने सदहे, ते सुखने पामे ॥ १७ ॥ पीयूषं विषवळालं ज्वलनवत्तेजस्तमः स्तोमव, न्मित्रं शात्रववत् स्रजं जुजगवत् चिंतामणिं लोष्ठवत् ॥ ज्योत्स्नां ग्रीष्मजघर्मवत्स मनुते कारुण्यपण्यापणम्, जैनें मतमन्यदर्शनसमं योर्मतिर्मन्यते ॥ १॥ अर्थः-( यः के० ) जे (धर्मतिः के० ) मूर्ख पुरुष, ( जैनेंअंमतं के ) जिने शासन, तेने (श्रन्यदर्शनसमं के०) श्रन्यदर्शन जे बौक, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, जैमिनीयादिक दर्शनो तेनी समान जो ( मन्यते के० ) माने , तो (सः के०) ते मूर्ख Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) पुरुष, केवं माने ले ? तो के (पीयूषं के०) अमृत जे तेने ( विषवत् के०) विष समान ( मनुते के०) माने . तथा ते मूर्ख पुरुष, (जलं के०) परमशीतल जल जे तेने (ज्वलनवत् के०)अग्निसमान माने . तथा ते मूर्ख पुरुष, (तेजः के०) तेज जे तेने ( तमः स्तोमवत् के०) अंधकार समूहनी पेठे माने . तथा वली ते मूर्ख पुरुष ( मित्रं के०) सखाश्ने ( शात्रववत् के) वैरीसमान माने . वली ते मूर्ख पुरुष ( सृजं के०) पुष्पमालाने (नुजगवत् के०) सर्पसमान माने , वली ते मूर्ख पुरुष, (चिंतामणि के०) चिंतामणि रत्नने (लोष्ठवत् के०) पाषाण समान माने , वली ते मूर्ख पुरुष, (ज्यो स्नां के०) चंडकांतिने (ग्रीष्मजघर्मवत् के०) जष्णकालना तडका जेवी माने . था ठेकाणे अमृतादि सरखं जिनमत जाणवू, अने विषादि समान श्रन्यदर्शन जाणवां. हवे ते जैनेजमत कहे जे ? तो के (कारुण्य के०) दयापणुं ते रूप (पुण्य के०) वेचवाने लायक वस्तु तेनुं (थापणं के०) हाट . श्राहिं मनुते ए क्रियापद सर्व ठेकाणे योजन करवू. एवी रीते मानीने श्रीजिन मत अंगीकार करवू. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) अंगीकार करनारने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् ॥१॥ ____टीकाः-पीयूष मिति ॥ योऽर्मतिर्मूर्खः पुमान् जैनेउंमतं श्रीजिनशासनं अन्यदर्शनसमं । अन्यदशनैबौंक नैयायिक सांख्य वैशेषिक जैमिनीयादिनिः समं सदृशं मन्यते गणयति स मूर्खः पीयूषं अमृतं विषवत् विषेण तुल्यं मनुते गणयति । पुन. र्जलं परमशीतलं पानीयं ज्वलनवत् अग्नितुल्यं गणयति । पुनः तेजः उद्योतं तमःस्तोमवत् अंधकारपुंजवत् मनुते । पुनर्मित्रं सखायं शात्रववत् वैरिसदृशं मनुते जानाति । पुनः सृजं पुष्पमालां जुजगवत् सर्पतुल्यां गणयति । पुनः स चिंतामणिं लोष्ठवत् पाषाणसदृशं गणयति । पुनः स ज्योत्स्ना को मुदी चंद्रकांतिं ग्रीष्मजधर्मवत् उष्णकाल श्रातपवत् मनुते । अत्र पीयूषादिसमं जिनदर्शनं । विषादिसदृशान्यर्शनानीत्युपनयः । किंनूतं जैनेंमतं कारुण्यपण्यापणं । दयारूपक्रय्यस्य हह ॥ एवं मत्वा श्रीजिनमतमेवांगीकर्तव्यं कुर्वतांच सतां यत् । शेषं प्राग्वत् ॥ १५ ॥ - नाषाकाव्यः-उप्पय ॥ अमृत कहं विष कहैं, नीर कहं पावक मानें ॥ तेज तिमिर सम गिने. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ए) मित्त कहं शत्रु बखानै ॥ पुहपमाल कहं नाग, र. तन पर सम तुझे ॥ चंड किरन श्रातप सरूप, श्ह नांति जु जुबै ॥ करुना निधान अमलान गुन, प्रगट बनारसि जैन मत ॥ पर मत समान जो मन धरत, सो अजान मूरख आपत ॥ १७ ॥ धर्म जागरयत्यघं विघटयत्युबापयत्युत्पथम्, नित्ते मत्सरमुबिनत्ति कुनयं मथ्नाति मिथ्यामतिम् ॥ वैराग्यं वितनोति पुष्यति कृपां मुष्णाति तृष्णां च य, त्तनं मतमर्चति प्रथयति ध्यायत्यधीते कृती २०॥ अर्थ-:(कृती के ) पंमित पुरुष ( यत् के० ) जे ( जैनमतं के ) जैनेजमत जे जिनशासन, एटले जिनप्रवचन तेने (अर्चति के०) पूजे बे, ( प्रथयति के०) विस्तारे बे. वली (ध्यायति के०) ध्यान करे बे. एटले चितवन करे . वली (अधीते के०) पठन करे . ( तत् केन्) तो ते पूर्वोक्तरीतें करेढुं एवं जिनशासन शुं करे ले ? तो के (धर्म के०) धर्मने (जागरयति के ) जागरण ने उद्दीपन तेने करे . वली ( श्रघं के०) पापजे तेने ( विघटय Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३०) ति के० ) दूर करे बे. वली ( उत्पथं के० ) उन्मार्ग जे अनाचार तेने ( उबापयति के0) निवारण करे बे. तथा ( मत्सरं के०) गुणी पुरुषोने विषे वेषजावने ( नित्ते के० ) नाश करे . वली (कुनयं के०) कुत्सित नय जे अन्याय, तेने ( उछिनत्ति के०) उद करे बे. वली (मिथ्यामति के०) कूटबुकि जे तेने ( मथ्नाति के० ) सर्वथा दूर करे . वली (वैराग्यं के०) वैराग्यने ( वितनोति के०) विस्तार करे . वली ( कृपां के०) दयाने (पुष्यति के०) पोषण करे . ( च के०) वली (तृष्णां के०) स्पृ. हा एटले लोजने (मुष्णाति के०) टाले . अर्थात् जेणे जिनमत आराधन कयु, तेणें पूर्वोक्त सर्व वानां कर्यां, एम जाणवू.ए प्रकारे जाणीने श्रीजिनमत जे जिनप्रणीत सिद्धांत तेनुं श्राराधन करवू. श्रा राधन करनारने जे पुण्य थाय।इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥२०॥ एत्रीजो जिनमत प्रक्रम थयो ॥३॥ टीकाः-धर्ममिति ॥ कृती पंमितः जैनं मतं जैनेंजमतं श्रीजिनशासनं जिनोक्तप्रवचनं अर्चति पूजयति । पुन; प्रथयति विस्तारयति । पुनायति चिंतयति । पुनः अधीते पठति । तत् धर्म जागर Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३१) यति धर्मस्य जागरणं उद्दी पनं करोति । पुनः अधं पापं विघटयति दूरिकरोति । पुनः उत्पथं उन्मार्ग अनाचारं उबापयति निवारयति । पुन; मत्सरं गुणिषु शेषनावं नित्ते नेदयति विनाशयति । पुन; कुनयं कुत्सितनयं श्रन्यायं उबिनत्ति । पुनः मिथ्यामतिं मथ्नाति कूटबुधि विलोज्य दूरीकरोति । पुनः वैराग्यं वितनोति विस्तारयति । पुनः कृपां दयां पुष्यति पोष्यति । पुनः तृष्णां स्पृहां लोनं मुष्णाति निराकरोति । अर्थात् येन जिनमतमाराधितं तेन एतानि वस्तूनि कृतानीत्यर्थः ॥ इति ज्ञात्वा श्रीजिनमतं जिनप्रणीत सिझांतश्च सम्यगाराधनीयः॥श्राराधयतां च सतां यत्पुण्यं॥२०॥इति॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना॥ विहितायां जिनमत, प्रक्रमः पूर्णतामितः॥३॥इति तृतीय जिनमत प्रस्ताव३ जाषाकाव्यः॥ महरग बंद ॥शुन धर्म विकासैं, पाप विनासैं, कुपथ जथापन हार ॥ मिथ्या मत खमैं, कुनय विहंमैं, ममैं दया अपार ॥ तिस्ना मद माएँ, राग विमाएँ, यह जिन श्रागम सार ॥ जो पूजै ध्या, पढ़ें पढा३, सो जगमांहि उदार ॥२०॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) हवे चार श्लोकोयें करीने संघना महिमाने कहे जे. रत्नानामिव रोदणदितिधरः खं तारकाणामिव, स्वर्गः कल्पमहीरुहामिव सरः पंकेरुदाणा मीव ॥ पाथोधिः पयसा मिवेंजमहसां (शशी व मदसां) स्थानं गुणानामसा, वित्यालोच्यविरच्यतां नगवतः संघस्य पूजाविधि॥२॥ अर्थः-हे जव्य जनो ! ( इति के ) या प्रकारे (थालोच्य के० ) जोश्ने अर्थात् विचार करीने (जगवतः के०) पूजन करवा योग्य एवा (संघस्य के०) संघ जे बे, तेनो ( पूजाविधिः के ) पूजानो विधि, (विरच्यतां के०) करीयें, अर्थात् करो. हवे शा प्रकारे विचार करीन? तो के, (असौ के०)या साध, साध्वी, श्रावक, श्राविकारूप चतुर्विध संघ जे , ते ( गुणानां के ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र अने विनयादिक जे सर्व गुणो तेनुं ( स्थानं के० ) निवासस्थानक डे, केनी पेठे ? तो के ( रत्नानां के० ) रनोनुं स्थानक (रोहण दितिधरः के०) रोहणाचलपर्वत (श्व के०) जेम बे, तेम. तथा (खं के) थाकाश, ते (तारकाणां के०) ताराउनुं निवासस्थान Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) ( इव के० ) जेम बे, तेम. तथा (कल्पमहीरुहां के० ) कल्पवृक्षोनुं निवासस्थानक ( स्वर्गः के० स्वर्गः के० ) स्वर्ग ( इव के० ) जेम बे, तेम. तथा ( पंकेरुहाणां के० ) कमलोनुं निवासस्थानक ( सरः के० ) तलाव ( श्व के० ) जेम बे, तेम. वली ( पाथोधिः के० ) समुद्र जे बे, ते ( पयसां के० ) जलोनुं निवासस्थानक ( इव के० ) जेम बे, तेम. हवे ते जल केहवां बे ? तो के ( महसां के० ) चंद्रमा समान निर्मल बे. अथवा ( शशीव महसां के० ) शशीव महसां एवो पाठ जो होय तो, ( महसां के० ) तेजनुं निवासस्थानक ( शशी के० ) चंद्रमा (श्व के ० ) जेम होय, तेम. अर्थात् पूर्वोक्त वस्तु जेम बीजी कहेली वस्तुनुं निवासस्थानक बे, तेम था श्री चतुर्विध संघ पण ज्ञान, दर्शन, चारित्रने रहेवानुं निवासस्थानक बे. या प्रकारें विचार करीने चतुर्विध संघनुं पूजन करं. एज जावार्थ बे. याहीं ( स्थानं ) ए पद, सर्वत्र योजन करवुं. माटें एम जाणीने श्रीसंघनी जक्ति करवा योग्य बे. अने ते जक्ति करवानुं जे पुण्य याय । इत्यादि पूर्ववत् जाणवुं ॥ २१ ॥ टीकाः - श्रथ चतुर्निर्वृत्तैः संघस्य महिमानमाह ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) रत्नानामिवेति ॥ जोजव्याः । इत्यालोच्य इति विचार्य जगवतः पूज्यस्य संघस्य पूजाविधिर्विरच्यतां क्रियतां । इतीति किं ? यतः सौ संघः साधु साध्वी श्रावक श्राविका रूपश्चतुर्विधसंघः गुणानां ज्ञान दर्शन चारित्र विनयादीनां स्थानं निवासः । कः केषा मिव ? रोहण क्षितिधरः रोहणश्चासौ क्षितिधरश्च पर्वतो रत्नानामिव । यथा रोहणाचलोरत्नानां स्थानं तथेत्यर्थः । पुनः खं श्राकाशं तारकाणामिव । पुनयथा स्वर्गः कल्पमहीरुहां कल्पवृक्षाणां स्थानं तथेत्यर्थ पुनर्यथा सरस्तडागः पंकेरुहाणां कमलानां स्थानं तथा । पुनर्यथा पाथोधः समुद्रः पयसां पानीयानां स्थानं तथा । किंनूतानां पयसां । इंडुमहसां इंडुवनिर्मलानां । अथवा शशीव महसां इति पाठः । यथा शशी चंद्रो महसां तेजसां स्थानं तथाऽसौ संघो गुणानां स्थानं । श्रथ वा किंनूतानां गुणानां डुमदसां इंडुवत् महो एषां तानि इंडुमहांसि तेषां । एवं श्री चतुर्विधसंघः सर्वगुणानां स्थानं । इति ज्ञात्वा श्रीसंघस्य जक्तिः कार्या । कुर्वतां च सतां यत्पुण्यं ०२१ जाषाकाव्य :- कवित्त मात्रात्मक | जैसे नजमंमल तारागन, रोहन सिखर रतनकी खान ॥ ज्यौं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) सुरलोक जूरि कल्पकुम, ज्यौं सुरवर अंबुज बन जान ॥ ज्यौं समुद्र पूरन जल मंमित, ज्यों ससि बवि समूह सुखदानि ॥ तैसें संग सकल गुन मंदिर, सेवहुं जाव जगति मन थानि ॥ २१ ॥ यः संसारनिरासलालसमतिर्मुक्तत्यर्थमुत्तिष्ठते, यं तीर्थ कथयंति पावनतया येनाऽस्ति नाऽन्यः समः ॥ यस्मै तीर्थपतिर्नमस्यति सतां यस्माद्दुनं जायते, स्फूर्त्तिर्यस्य परावसंति च गुणा यस्मिन्स संघोऽर्च्यतां ॥ २२ ॥ अर्थः- हे व्यजनो ! तमोयें ( सः के० ) ते चतुर्विध संघ ( श्रर्च्यतां के० ) पूजाय अर्थात् तमें चतुर्विध संघने पूजो, ते कदेवो संघ बे ? तो के (यः के० ) जे संघ, ( संसार के० ) संसार तेनो ( निरास के० ) निराकरण एटले त्याग तेने विषे ( बालसमतिः के० ) इछावाली बे बुद्धि जेनी एवो बतो ( मुक्त्यर्थं के० ) मुक्तिना साधन माटे ( उत्तिष्ठते के० ) सावधान थाय बे. तथा (यं के० ) जे संघने ( पावनतया के० ) पवित्रपणायें करीने ( तीर्थं के० ) तीर्थभूत एवाने ( कथयंति के० ) कहे बे. तथा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६) ( येन के०) जे संघनी संघातें ( समः के० ) समान, (अन्यः के ) बीजो कोश (नास्ति के ) नथी. वली ( यस्मै के०) जे संघने (तीर्थपतिः के) तीर्थकर पोतें (नमस्यति के० ) नमस्कार करे . एटले व्याख्या नावसरने विषे “नमोतिबस्स" एवं नणे . तथा (यस्मात् के०) जे संघथका (सता के) सङनोनुं ( शुनं के०) कल्याण (जायते के०) उत्पन्न थाय . ( च के) वली (यस्य के० ) जे संघनी ( स्फूर्तिः के०) महिमा ( परा के०) उत्कृष्ट वर्ते बे. वली ( यस्मिन् के) जे संघने विषे (गु. णाः के० ) गांजीर्य, धैर्य, औदार्यादिक मूलोत्तर गुणो ( वसंति के० ) वसे . श्रा श्लोकमां सात वि. जक्तिनो अनुक्रमें समावेश करेलो . ते जेम के आरंजमां ( यः) ए पद लश्ने (यस्मिन्) ए पद पर्यंत जोश खेबु, माटे ए प्रमाणे जाणीने हे नव्यप्राणीयो ! मनमां विवेक लावीने श्रीसंघनी पूजा जक्ति करवी ते पूजा नक्ति करनारने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत् जाणवू ॥२२॥ टीकाः-यःसंसारेति ॥ जो नव्याः! नवनिः सः श्री चतुर्विधसंघो अर्च्यतां पूज्यतां।सः कः? य संघ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७) संसार निरासलालसमतिः सन् संसारस्य निरासे निराकरणे त्यागे लालसा श्छा यस्यासा ईदृशी मति बुकि यस्य सईदृशःसन् मुक्त्यर्थं मुक्तिसाधनार्थं जत्तिष्ठते सावधानोजवति । पुनर्यसंघं पावनतया पवित्रत्वेन तीर्थजूतं कथयति पुनर्येन शंघेन समः सहशोऽन्यः कोऽपि नास्ति । पुनर्यस्मै संघाय तीर्थपतिः तीर्थकरःस्वयं नमस्यति नमस्कारं करोति।व्याख्याना वसरे नमोतिहस्से तिजणनात् । पुनर्य स्मात् संघात् सतां सजानानां शुनं कल्याणं जायते उत्पद्यते। पुनर्यस्य संघस्य स्फूर्तिमहिमा परा उकृष्टा वर्त्तते । पुनर्यस्मिन् संघे गुणा गांनिर्यधैर्यौदार्यादयः मूलगुणोत्तरगुणाश्च वसंति तिष्ठति । एवं ज्ञात्वा लो नव्यप्राणिन् ! मनसि विवेकमानीय श्रीसंघस्य पूजा जक्तिश्च प्रकर्त्तव्या । कुर्वतां च सतां ॥ २२॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ जे संसार जोग थासा तजी,हानत मुकति पंथकी दौर ॥ जाकी सेव करत सुख उपजत, जिन समान उत्तम नहि और ॥ इंसादिक जाके पद वंदत, जो जंगम तीरथ सुचि कौर॥जाने नित निवास सुख संपति, सो सिरि संघ जगत सिर मोर ॥२२॥ . Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) लक्ष्मीस्तं स्वयमभ्युपैति रजसा कीर्त्तिस्तमालिंगति, प्रीतिस्तंः नजते मतिः प्रयतते तं लब्धुमुत्कंठया ॥ स्वश्रीस्तं परिरब्धुमिच्छति मुहुर्मुक्तिस्तमालोकते, यः संघं गुणराशिकेलिसदनं श्रेयोरुचिः सेवते ॥ २३ ॥ अर्थ : - ( यः के० ) जे पुरुष, ( श्रेयोरुचि के० ) श्रेय एटले कल्याण तेने विषे वा धर्मने विषे बे रुचि जेनी एवो तो ( संघ के० ) चतुर्विध संघ जे तेने ( सेवते के० ) सेवन करे बे, ( तं के० ) ते पुरुपने ( लक्ष्मी: के० ) संपत्ति, ते ( रजसा के०) वेगें करीने अर्थात् शीघ्रतायी ( स्वयं के० ) पोतानी मेलें ( ज्युपैति के० ) सन्मुख यावे बे. वली (कीर्त्तिः ho) कीर्त्ति जेबे, ते ( तं के० ) ते पुरुषने ( आलिंगति के ० ) आलिंगन दे बें, अर्थात् कीर्त्ति प्रास थाय बे. तथा वली ( प्रीतिः के० ) स्नेह जे बे, ते ( तं के० ) ते पुरुषने ( जजते के० ) जजे बे एटले सेवे बे. वली (मतिः के० ) बुद्धि जे बे, ते ( उत्कंठया के० ( उत्सुकतायें करीने ( तं के० ) ते पुरुषने ( लब्धुं के० ) प्राप्त थवाने ( प्रयतते के० ) Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ए) प्रयत्न करे . वली (स्वःश्री के०) स्वर्गनी लक्ष्मी(तं के०)ते पुरुषने ( मुहुः के० ) वारंवार (परिरब्धं के ० ) थालिंगन देवाने (श्नति के० ) श्छा करे . वल। ( मुक्तिः के०) मोक्ष, (तं के०) ते पुरुषने (बालोकते के०) जुवे . हवे ते संघ केहवो ? तो के ( गुणराशि के०) गुणनो जे समह तेनुं ( केलिसदनं के०) क्रीडागृह . अर्थात् ते सर्व गुणोने रमवानुं स्थानक बे. माटे एम जाणीने मनने विषे विचार करीने चतुर्विध संघ जे ने ते सेववा योग्य वे. ते सेवन करता सुजनोने जे पुण्य । इत्यादि पूर्ववत जाणवू ॥२३॥ ___टीकाः-लक्ष्मीति ॥ यः पुमान् श्रेयोरुचिः सन् श्रेयसि कल्याणे धम्म वा रुचिरजिलाषोयस्य स श्रेयोरुचिः। दृशःसन् श्रीसंघ सेवते। तं पुरुषं लक्ष्मीः संपत् रजसा वेगेन स्वयमात्मना श्रन्युपैति सन्मुखमायाति। पुनः कीर्ति स्तं पुरुषं श्रालिंगति आलिंगनं ददाति। पुनःप्रीतिः स्नेहस्तं नजते सेवते। पुनर्मतिर्बुधिः उत्कंठ्या उत्सुकतया कृत्वा तं नरं लब्धं प्राप्तुं प्रयतते यत्नं करोति । पुनः स्वःश्रीः स्वर्गलक्ष्मीस्तं मुहुर्वारं वारं परिरब्धं श्रालिंगितुं श्छति । मुक्ति Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४०) र्मोदतं पुरुष आलोकति पश्यति । किं विशिष्टं संघं ? गुणराशि केलिसदनं गुणसमूहस्य क्रीडागृहं । एवं ज्ञात्वा संघः सेव्य शेषं पूर्ववत् ॥२३॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ताकों श्राश् मि. लै सुख संपति, कीरति रदै तिहूं जग बाई ॥ जिनसौं प्रीति बढे ताके घट, दिन दिन धरम बुद्धि - धि काई ॥ बिन बिन ताहि लखै शिव सुंदरि, सुरग संपदा मिलै सुनाई ॥ वानारसि गुनरासि संघकी, जो नर जगति करै मन लाइ ॥ २३॥ ___ कथाः-अयोध्या नगरीयें जरतचक्रवर्ती श्रन्याय वर्जतो राज्य पाले बे. एकदा श्रीआदिनाथने केवलझान उपने थके चोराशी गणधर सहित विहार करता अयोध्याना उद्यानमां समोसस्या, उद्यानपालके वधामणी दीधी, तेने साडीबार कोडनुं दान दीधुं. पठी जरतराजायें विचाखु जे श्राज षनदेव पधास्या , तेने सपरिकर जोजन कराएं! एम चिंतवी घणां गाडा पक्कान्नादिकें नरी समोसरणे आवी लगवानने वांदीने विनति करी के महाराज! आज सर्व कुटुंब सहित श्राप महारं लोजन करो. तेवारें नगवान् बोल्या के हे जरत ! साधुने Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४१ ) राज्यपिं ग्राह्य बे. वली श्रधाकर्मी तथा साहामो आयो ते पण अग्राह्य बे. एवी वाणी सांजली जरत पश्चात्ताप करवा लाग्यो, तेवारें जगवान् बोब्या के हे राजेंद्र ! तुं संतोष म कर, पहेलुं पात्र वीतराग, बीजुं पात्र साधु, त्रीजुं पात्र अणु व्रतधारी अने चोथुं पात्र दर्शनधर, माटें तुं अणुव्रतधारी श्रावकनी जक्तिकर, जेथकी संसाररूप समुद्र चुलूक समान थाय. एवं सांजली जरत राजा हर्ष पायो को स्वस्थानकें श्राव्यो. श्रावकमात्रने ज मवा माटें नोतरां दीघां निरंतर सर्वलोक जमवा आवे. केम के ते वखतें लोक सर्व रुजु जड हता. माटें हरहमेश यावा लाग्या, तेवारें रसोई करनारायें राजाने विनव्यो के महाराज ! प्रजा सर्व उलटी पड़ी बे, केदने जमाडीयें छाने केहने न जमाडीयें ! तेवारें राजायें परीक्षा करी शुद्ध श्रावकने ज्ञान, दर्शन छाने चारित्ररूप त्रण रेखा कांगणीरत्नथी कीधी. एम करी अवतार सफल करवा लाग्यो. तथा श्रीशत्रुंजयनो प्रथम उद्धार कस्यो, संघवीनी पदवी पाम्यो. वली अष्टापद पर्वत उपर कृषनदेव प्रमुख श्रागामी कालें घनारा चोवीश ति Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) करनां प्रासाद करी मानोपेत प्रतिमा जरावी. ए रीतें श्रीसंघनी नक्ति करी अनुक्रमें यारीसाजवनमां रूप जोतां श्रनित्यजावना जावतां मनमां वैराग्य वृद्धि करतां श्रा संसारमां सार ते एक धर्मज बे. एम कहेतां कहेतां केवलज्ञान पाम्या. तेनो देवतायें महोत्सव कस्यो. चोराशी लाख पूर्वनुं श्रायु जोगवी मोदें गया. तेमनो पुत्र श्रीसूर्ययश थयो, तेणें पण जरतेश्वरनी पेठेंज श्रीसंघनी जति करी. उर्वशी प्रमुख देवांगनायें परीक्षा कीधी पण चलायमान थयो नही. तेमने पण श्ररीसामां रूप जोतां केवलज्ञान उपन्युं ने मोदें गयो. तेमनो पुत्र महायश, तेमनो पुत्र प्रतिबल, तेमनो पुत्र बलनड़, तेमनो पुत्र बलवीर्य, तेमनो पुत्र कृतवीर्य, तेमनो पुत्र जलवीर्य, तेमनो पुत्र थामे पाटें दंवीर्य. ए सर्व त्रण खंगना जोक्ता थया, चतुर्विध श्री संघनी नक्तिना करनार था. इहां जरतनी पाउल ब कोडी पूर्व वर्ष गयां, तेवारें सौधर्मेंदें अवधिज्ञानने प्रमाणें स्तवना करी पोतें अयोध्यामांदे यावी ज्ञानादिक गुण जणाववा माटें यज्ञोपवित धारी बार व्रतनां बार तिलक करयां. ते श्रवसरें दंगवीर्य राजायें ई Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३) अने श्रावकरूपें दोगे, ते देखीने हर्षवंत थयो. पनी जमवानी निमंत्रणा कीधी, रसोश्याने कडं के साधर्मिकने रूडी रीतें नोजन करावो. इंछ पण श्रावकरूप धरतो घरमांदे श्राव्यो, पच्चरकाण पारी श्रावकोनी पंक्तिमा जमवा बेगे. एक कोंड श्रावकने अर्थे जेटवू श्रन्न निपजाव्युं हवं तेटवं ते एकलो जम्यो, वली रसोश्याने कयु के हुँ नुख्यो बुं, माटे अन्न आप. रसोश्यायें राजानी आगल सर्व वात कही. राजा तिहां श्राव्यो, तेने श्रावकरूपधारक झें कयु के ए रसोश करनार सर्वने नूख्या राखे . राजायें वली सो मूडा अन्न रंधावी पीरश्यु, ते तत्काल जमीने वली कहेवा लाग्यो के महारी नूख ग नथी. ए रीतें राजानुं अपमान करवा लाग्यो के हुँ तृप्त थातो नथी. तेवारें राजायें मनमां खेद कस्यो जे महाराथी संघनी पूर्ण नक्ति थाती नथी, माटें मुने धिक्कार . सेवक बोल्या महाराज! ए को देवस्वरूपी बे, तेवारें राजायें धूपादिकें संतोषी नमस्कार करी पूज्युं के हे स्वामी! प्रसन्न था. साधर्मीनी नक्ति महाराथी केम थर शके ? एवं सांजली ईवें पोतानुं प्रगट रूप कीg. दंभवीर्यनीप्र Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) शंसा करवा लाग्यो ने कह्यु के हे दमवीर्य ! तें युगादि देवनो वंश उजाल्यो, धन्य जे तुमने जे तुं श्रावी रीतें साधर्मीनी नक्ति करे बे, उक्तं च ॥ ते पुत्राये पितुर्नक्ता, स पिता यस्तु पोषकः ॥ तन्मित्रं यत्र विश्वासः, सा नार्या यत्र निर्वतिः ॥ १॥३त्यादि स्तवना करी ७ देवलोके गयो. दमवीर्य पण संघनक्ति करी जन्म सफल करीमोदें पहोतो. एम जाणी संघनक्ति करो. सात क्षेत्रे धन वावरी अवतार सफल करो ॥२३॥ यशक्तेः फलमर्ददादिपदवीमुख्यं कृषः सस्यवत्, चक्रित्वं त्रिदशेस्तादि तृणवत् प्रासंगिकं गीयते ॥ शक्तिं यन्म दिमस्तुतौ न दधते वाचोऽपिवाचस्पतेः, संघ सोऽघहरः पुनातु चरणन्यासै सतां मंदिरम् ॥१४॥ संघप्रक्रमः॥४॥ अर्थः-(सः के० ) ते (संघः के०) चतुर्विध संघ ( चरणन्यासैः के० ) पोताना पदस्थापने करीने ( सतां के०) नक्तियुक्त मनुष्योनुं ( मंदिरं के० ) मंदिर जे घर तेने ( पुनातु के०) पवित्र करो. ते Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) संघ केदवो बे ? तो के ( यक्तेः के० ) जे संघनी तिनुं ( श्रदादि के० ) तीर्थंकरादि एवी ( पदवी के० ) पदवी जे पदनी प्राप्ति तेज ( मुख्यं के० ) मुख्य एवं ( फलं के० ) फल बे, ते केनी पेठें ? तो के ( कृषेः के० ) क्षेत्रादिना ( सस्यवत् के० ) धान्यनी पेठें अर्थात् जेम कृषि करनार मनुष्यने धान्यप्राप्तिरूप मुख्य फल बे तेम चाहिं श्रीसंघनी क्तिनुं मुख्य फल दादि पदवी ज बे, छाने (चक्रित्वं के० ) चक्रवर्त्ती पणुं तथा (त्रिदशैतादि के ० ) देवेंद्रादि पदपणुं तो ( प्रासंगिकं के०) प्रसंगथीज श्राव्युंएम ( गीयते के० ) कद्देवाय बे. केनी पेठें ? तो के ( तृणवत् के० ) क्षेत्रना घासनी परें. अर्थात् जेम कृषि करनारने विना प्रयासें क्षेत्रथी घासनी प्राप्ति थाय बे, तेम श्रहिं संघन क्तिकारक पुरुषने चक्रवतित्व देवेंद्रत्व पदवी ते विना प्रयासेंज प्राप्त थाय बे. वली ( यन्महिमस्तुतौ के० ) जे संघना प्रजाववर्णनने विषे ( वाचस्पतेः के० ) बृहस्पतिनी ( वाचोऽपि के० ) वाणीयो पण ( शक्तिं के० ) सामर्थ्य जे तेने ( न दधते के० ) धारण करी शकती नथी. वली ए संघ के वो बे ? तो के ( अघहरः के० ) १० Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४६) पापने हरण करनारो बे. माटे ते संघ अघहर बे, एम जाणीने श्रीसंघने पोताने घेर आमंत्रण करीने पूजन करवू अने तेनी पूजा, जे पुण्य थाय । - त्यादि पूर्ववत् जाणवु ॥ २४ ॥ श्रा चतुर्थ संघनतिनो प्रस्ताव थयो ॥४॥ टीकाः-यशक्तरिति ॥ सः श्रीसंघश्चरणन्यासैः खपादस्थापनैः कृत्वा सतां सत्पुरुषाणां साधुमनुष्याणां मंदिरं गृहं पुनातु पवित्रयतु । सः कः ? यनक्तर्यस्य संघस्य नक्तेः अर्हदादिपदवी मुख्यं तीथंकरादिपदप्राप्तेर्मुख्यं फलं वर्त्तते॥किंवत् ? कृषः देत्रादेः सस्यवत् धान्यवत्। चक्रित्वं त्रिदशेषतादि।चक्रवर्तित्वं इंउपदत्वादिकं च प्रासंगिकं प्रसंगादागतं फलं गीयते कथ्यते। किंवत् । कृषेस्तृणवत् पलालादिवत् । पुनर्यन्मदिमस्तुतौ यस्य संघस्य प्रजाववर्णने वाचस्पतेरपि वाचो वाण्यः शक्तिं सामर्थ्य न दधते न धारयति । किंविशिष्टः संघः ? अघहरः अघं पापं हरति यः सः अघहरः । इति ज्ञात्वा श्री संघः स्वगृहे श्राहय सम्यक प्रजनीयः। शेषं प्रागवत् ॥ २४ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु, श्रीसंघप्रक्रमोऽज Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) नि ॥४॥ इति चतुर्थ संघनक्ति प्रस्तावः ॥४॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ जाके नगत मुगति पद पावत, इंसादिक पद गनत न कोई॥ ज्यौं कृषि करत धान फल उपजत, सहज प्रयास घास जुस होई ॥ जाके गुन जस संपन कारन, सुरगुरु थकित होत मद खो ॥ सो सिरि संघ पुनीत बनारसि, पुरित हरन विचरत नुश्र लो॥२४॥ हवे हिंसाना निषेधेकरीने सर्व प्राणियोने विषे खसमानतानुं ध्यान करो, ते कहेजे. क्रीडानूः सुकृतस्य कृतरजःसंहारवात्या नवो, दन्वन्नौर्व्यसनाग्निमेघपटली संकेतदूतीश्रियाम् ॥निःश्रेणिस्त्रिवौकसः प्रियसखी मुक्तेः कुगत्यर्गला, सत्त्वेषु क्रियतां कृपैव जवतु क्लेशैरशेषैः परैः॥ २५ ॥ अर्थः- हे नव्यप्राणीयो ! ( सत्त्वेषु के० ) जीवोने विषे ( कृपैव के० ) कृपा जे दया तेज ( कियतां के ) कराय. अर्थात् करो. वली ते कृपा (परैः के०) बीजा (अशेषैः के०) समस्त एवा (क्केशैः के० ) कायाना कष्ठं करीने पण ( जवतु के ) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४७) हो. अर्थात् पोताना देहने कष्ट श्रापीने पण जीवदयापालवी ए जीवदया केहवी बे ? तो के ( सु. कृतस्य के०) सुकृत जे तेनी (क्रीडाः के०) कीडान स्थानक बे. तथा वली केवी ? तो के (पुः कृत के० ) पाप तेज ( रजः के ) रज जे धूड, तेना ( संहार के०) हरण करवामां ( वात्या के०) वायुना विटोलीया समान छे. अर्थात् कर्मरजने उमाडवामां जीवदया विटोलीया जेवी बे. पापने धुंडनी उपमा केम थापी ? तो के ते पापज कर्ममलनुं कारण . वली केवी ? तो के (नवोदन्वन के०) संसाररूप जे समुन तेमां ( नौः के० ) नावसमान डे अर्थात् संसारसमुफ तरवामां नावसमान , वली केहवी डे ? तो के ( व्यसनाग्नि के ) कष्टरूप जे अग्नि तेने विषे ( मेघपटली के०) मेघघटातुल्य अर्थात् अग्निने बुझाववामां जेम मेघ , तेम उःखानि बुझाववामां जीवदया बे, माटे मेघसरखी कही. वली केहवी ने ? तोके (श्रियां के०) संपनियोनी ( संकेतदूती के० ) संकेतस्थानमां पोहोंचाडनारी दूतीसमान ले. वली केहवी ने ? तो के ( त्रिदिवौकसः के०) स्वर्गरूप जे Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४ए) घर तेनी उपर चडवानी (निःश्रेणिः के) निसरणी जेवी , वली ते केहवी ? तो के(मुक्तेः के०) मुक्ति रूप स्त्रीनी (प्रियसखी के० ) वाली सखी , वली केहवी ? तो के ( कुगत्यर्गला के० ) पुर्गतिना छारने श्राडी देवानी नोगल समान , एम जाणीने जीवोने विषे दया करवी ॥२५॥ टीकाः-अथ हिंसानिषेधेन सर्वसत्त्वेषु दयैव क्रियतामित्याह ॥ क्रीडानूरिति ॥ जो नव्याः! सत्वेषु जीवेषु कपा एव दया एव क्रियतां । परैरन्यैरशेषैः समस्तैः क्लेशैः कायकष्टकरणैः नवतु पूर्णतया क्रियता मित्यर्थः ॥ कथंनूता कृपा ? सुकृतस्य पुण्यस्य क्रीडानूः क्रीडास्थानं । पुनः कथंनूता ? उकृतरजःसंहारवात्या । उकृतं पापं तदेव कर्ममलहेतुत्वात् रज व रजस्तस्य संहारे संहरणे वात्या वायुसमूहतुदया। पुनः कथंनूता ? नवोदन्वन्नौः नव एव संसारएव उदन्वा निव उदन्वान् समुजः तत्र नौः नौका । पुनः कथंजूता ? व्यसनाग्निमेघपटली व्यसनानि कष्टान्येव तापहेतुत्वात् अग्नयो वन्हयः तत्र मेघपटली मेघघटासमाना । पुनः किंनूता? श्रियां संपदा संकेतदूती संकेतस्थानप्रापका संकेतिका Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५०) दूती । पुनः कथं जूता ? त्रिदिवौकसः निःश्रेणिः । त्रिदिवं स्वर्ग एव उकोगृहं तस्य सोपानपंक्तिः । पुनः कथंनूता ? मुक्तेः प्रियसखी वबाल वयस्या। पुनः कथंजूता ? कुगत्यर्गला कुगतेऽर्गतेः अर्गला छारपरिघ;। शति ज्ञात्वा जीवेषु कृपा क्रियतां ॥ २५॥ नाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥सुकृतकी खानी इंजपुरीकी निसानीजानी, पाप रज खंगनकों पौनरासि पेखिये ॥ नवपुःख पावक बुझायवेकों मेघमाला, कमला मिलायवेकों दूती ज्यौं विशेषियें॥मुगतिवधूसों प्रीति पालवेकों पाली सम, कुगतिक बार दिढ आगलसी देखियें॥ऐसी दयाकीजैं चित्त तिहुँ लोक प्रानीहित, और करतूति काहु लेखेमें न लेखियें ॥ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ यदि ग्रावा तोये तरति तरणिर्यादयति, प्रतीच्यां सप्तार्चिर्यद नजति शैत्यं कथमपि ॥ यदि दमापीठं स्याउपरि सकलस्याऽ पि जगतः, प्रसूते सत्त्वानां तदपि न वधःक्वाऽपि सुकृतम् ॥२६॥ अर्थः-( यदि के० ) जो ( ग्रावा के० ) पाषाण ते ( तोये के ) जलने विषे ( तरति के०) तरे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१) बे, वली (यदि के०) जो ( तरणिः के ) सूर्य ते, (प्रतीच्यां के ) पश्चिम दिशाने विषे ( उदयति के० ) उगे . वली ( यदि के०) जो ( सप्तार्चिः के० ) अग्नि, ते ( शैत्यं के ) शीतपणाने ( नजति के ) नजे बे. वली ( यदि के० ) जो (कथमपि के) को पण रीतें (मापीके) पृथ्वीमंगल. ते ( सकलस्यापि के०) समग्र एवं पण ( जगतः के) जगत जे तेना ( उपरि के) उपरने विषे ( स्यात् के० ) थाय, ( तदपि के ) तो पण ( सत्वानां के०) जीवोनो (वधः के० ) नाशरूप जे हिंसा ते (कापि के०) अव्य, क्षेत्र, कालादिकने विषे कां पण (सुकृतं के०) पुण्यने (न प्रसूते के०) उत्पन्न करतुं नथी. अर्थात् ते पूर्वोक्त सर्व अघटित घटना कदाचित् थाय, तोपण जीवहिंसा कोश रीतें पुण्यकारक थाय नहीं. माटे हे नव्यजनो ! सर्व जनोयें जीवहिंसानो त्याग करवो ॥ २६ ॥ टीकाः-यदि ग्रावेति ॥ यदि ग्रावा पाषाणः तोये जले तरति।पुनर्यदि तरणिः सूर्यःप्रतीच्या पश्चिमायां दिशि उदयति । पुनर्यदि सप्ताचिः श्रग्निःशैत्यं शीतलत्वं नजति पुनर्यदि कथमपि दमापीठं पृथ्वीमंगलं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) सकलस्यापि जगतो विश्वस्य उपरि नवेत् ॥ तदपि सत्त्वानां वधः हिंसा क्वापि अव्यक्षेत्रकालादौ सुकृतं पुण्यं न प्रसूते न जनयति । शेषं प्राग्वत् ॥२६॥ नाषाकाव्यः-श्रानानक बंद ॥जो पश्चिम रवि उगै, तिरै पाषान जल ॥ जों उलटें नुश्र लोक, होश शीतल अनल ॥ जो सुमेरु मगमगै, सि कहं लगनमल ॥ तबहूं हिंसा करत, न उपजै पुन्न फल ॥२६॥ ॥ मालिनीटतम् ॥ स कमलवनमग्नेर्वासरं नास्वदस्ता, दमृतमुरगवक्रात्साधुवादं विवादात्॥रुगपगममजीर्णाजीवितं कालकूटा, दनिलषतिवधाद्यःप्राणिनां धर्ममिवेत्॥॥ अर्थः-( यः के ) जे पुरुष, (प्राणिनां के०) जीवोना (वधात् के०) वध जे हिंसा तेथकी (धर्म के०) धर्मने (श्छेत् के० ) श्छे बे, अर्थात् माने बे, (सः के०) ते पुरुष, शुं श्छे ? तो के (अग्नेः के० ) अग्निथकी ( कमलवनं के० ) कमलोनां वनने (अनिलषति के०) अनिलाष करे बे. श्रर्थात् ते पुरुष, अग्निमांथी कमलवनने जोवानी श्वा करे . तथा ( जावदस्तात् के०) सूर्य अस्त थया Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५३) पड़ी ( वासरं के० ) प्रजातने श्छे बे. वली ते (उरगवात् के०) सर्पना मुखथकी (अमृतं के०) अमृतने श्छे , तथा ते पुरुष, ( विवादात् के) कलह थकी ( साधुवादं के० ) कीर्तिने श्छेले. वली ते पुरुष, (अजीर्णात् के) अजीर्ण थकी ( रुगपगमं के०) रोगना नाशनी श्छा करे . वली ते पुरुष, ( कालकूटात के) विष थकी ( जीवितं के० ) जीवितव्यने श्वे बे. अर्थात् जे पुरुष, जीवहिंसा थकी धर्म माने बे, ते पुरुष, था श्लोकमां कहेला अग्नि वगेरे पदार्थोथकी कमलवन वगेरे पदार्थोने श्छे डे, एम जाणवू. एटले ते पुरुष अझानी जाणवो. श्लोकमां अनिलषति, ए क्रियापद , ते श्छे एवा अर्थमां सर्वत्र योजन करवू. ___टीकाः-सकमलेति ॥ यः पुमान् प्राणिनां वधात् धर्म श्छेत् सः अग्नेः सकाशात् कमलवनं अनि लषति वांति । तथा नास्वदस्तात् सूर्यास्तगमनात् वासरं अनिलषति । तथा उरगवक्रात् सर्पमु. खात् अमृतं पीयूषं अनिलषति । पुनः विवादात् कलहात् साधुवाद कीर्ति अनिलषति ॥ तथा श्रजीर्णात् रुगपगम रोगस्य अपगमं विनाशं अनिल Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) पति । पुनः कालकूटात् विषात् जीवितं प्राणधारणं जिलषति । शेषं पूर्ववत् ॥ २७ ॥ जाषाकाव्यः -- सवैय्या इकतीसा ॥ श्रगनिमें जैसे अरविंद न विलोकियत, सूर प्रथमत जैसे वासर न मानियें || सापके वदन जैसे अमृत न उपजत, का• लकूट खाये जैसे जीवन न जानियें ॥ कलह करत नहि पाइयें सुजस जेसे, बाढत रसांस रोग नास न बखानियें ॥ प्रानी वधमांहि तैसे धर्मकी निसानी नांही, याहीतें बनारसि विवेक मन श्रानीयें ॥२७॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तप्रयम् ॥ आयुर्दीर्घतरं वपुर्वरतरं गोत्रं गरीयस्तरम्, वित्तं नूरितरं बलं बहुतरं स्वामित्वमुच्चैस्तरम् ॥ - रोग्यं विगतांतरं त्रिजगतः श्लाघ्यत्वमल्पेतरम्, संसारांबु निधिं करोति सुतरं चेतः कृपातरम् ॥ २८ ॥ इत्यहिंसाप्रक्रमः ॥ ५ ॥ अर्थ : - ( कृपा के० ) जीवदया तेणें करीने (आई के०) जीनोबे ( अंतरं के० ) मध्यजाग जेनो एवं मनुष्यनुं ( चेतः के० ) चित्त जे बे, ते शुं करे बे ? तो के ( श्रायुः के० ) जीवितने ( दीर्घतरं के० ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) अधिकाधिक ( करोति के० ) करे . तथा वली ते चित्त, ( वपुः के) शरीरने ( वरतरं के० ) अतिश्रेष्ठ एवाने करे . तथा ते चित्त, (गोत्रं के) नाम अने कुल तेने ( गरीयस्तरं के ) अत्यंत गरिष्ट ते उच्चगोत्ररूप एवाने करे . तथा वली ते चित्त, ( वित्तं के० ) धनने (नूरितरं के०) अत्यंत वृद्धिंगतने करे , वली ते चित्त, ( बलं के० ) बलने ( बहुतरं के ) अत्यंतात्यंत एवाने करे , तथा वली ते चित्त, ( स्वामित्वं के० ) प्रजुत्व, तेने (उच्चैस्तरं के) अत्यंत उत्कृष्ट एटले सर्वोत्कृष्ट एवाने करे जे. वली ते चित्त, (थारोग्यं के) नीरोगपणाने ( विगतांतरं के) अंतररहित एवाने करे , अर्थात् को दिवस रोग न श्रावे, एवी रीतें करे बे. तथा वली ते चित्त, (त्रिजगतः के) त्रण जगतने एटले त्रिजुवनने ( श्लाघ्यत्वं के०) वखाणवापणाने (अपेतरं के०) घणुंज करे बे. तथा वली ते चित्त, ( संसारांबुनिधि के ) संसाररूप समुज्ने (सुतरं के ) सुखथी तरवाने शक्तिमान् करे . अर्थात् जे पुरुष चित्त, हिंसा विरहित , ते पुरुषने सर्व पदार्थ प्राप्त थाय , (क Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) रोति ) ए क्रियापद जे बे ते करे बे, एवा अर्थमां सर्वत्र योजन करवुं श्रा ठेकाणे मेघरथ राजानो, अने हरिबल पाराधिनो दृष्टांत ग्रहण करवो ॥२८॥ या पांचमी हिंसाप्रक्रम संपूर्ण थयो ॥ ५ ॥ टीका:- श्रायुर्दीर्घतरमिति ॥ कृपया श्रा अंतरं मध्यं यस्य ईदृशं चेतः आयुर्जीवितं दीर्घतरं अधिकं करोति । तथा वपुः शरीरं वरतरं यतिप्रधानं करोति । तथा गोत्रं नाम कुलं वा गरीयस्तरं यति गरिष्टं उच्चैर्गोत्र रूपं करोति । तथा वित्तं धनं नूरितरं अतिप्रचुरं करोति । तथा बलं बहुतरं प्राज्यं करोति । तथा स्वामित्वं प्रभुत्वं उच्चैस्तरं सर्वोत्कृष्टं करोति । तथा यारोग्यं नीरोगत्वं विगतांतरं अंत. ररहितं करोति । तथा त्रिजगतः त्रिभुवनस्य ला ध्यत्वं वाघनीयत्वं अल्पेतरं प्रचुरं करोति । तथा संसारांबुनिधिं जवसमुद्रं सुतरं सुखेन उत्तरितुं शक्यं करोति ॥ श्रत्र मेघरथराज्ञः हरिबलधीवरस्य च दृष्टांतः ॥ २८ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकी र्त्तिना सूरिणा विहितायां तु, हिंसायाः प्रक्रमोऽजनि ॥ ५ ॥ इति अहिंसाप्रस्तावः ॥ ५ ॥ जाषाकाव्यः - कवित्त मात्रात्मक छंद ॥ दीरघ या Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) उ नाम कुल उत्तम, गुन संपति आनंद निवास ॥ उन्नत विनौ सुगम नव सागर, तीन नुवन महिमा परगास ॥ जुज बलवंत अनंतरूप बवि, रोगरहित नित जोग विलास ॥ जिनके चित्त दया तिन्हके रुख, सब सुख होत बनारसि दास ॥२७॥ __ कथाः-एज जरतक्षेत्रमा गजपुरनगरें सुनंद एवे नामें कुलपुत्र रहे . तिहां धर्मवंत प्राणी जिनदासनी साथें तेने महा प्रीति जे. एकदा ते बेहु मित्र वनमां गया, तिहां सुराचार्य समान धर्माचार्यने देखी नमस्कार कस्यो, तेणें दयामूल धर्मनो उपदेश दीधो, ते उपदेश सांजली गुरुने कर्दा के हु मांसजहणपञ्चरकाण तो करूं पण माहाराथी महारो कुलाचार केम मूकाशे ? गुरुये कह्यु के धर्माचार खरो समजवो. धर्मनी वेलायें कांश बालंबन न करवं. ते सांजली सुनंदें तरत जीवदयाव्रत आदमु. मांसजदणनो नियम लीधो, सर्व जीव पोताना श्रास्मा सरखा जाणतो तो सुखें व्रत पाले बे. एम करतां घणो काल थयो. एकदा पुर्निद पड्यु, सर्वत्र धान्य मोघु थयु. ते अवसरें सुनंदनी स्त्री कहेवा लागी के हे स्वामी ! स्वकुटुंब पालवा माटें Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७) माउला पकडी लश् श्राबो. तेने सुनदें कडं के हे जूंमी ! महारी श्रागल एवी वातज करवी नही. गमे तेवं कष्ट प्राप्त थशे, तो पण हूँ हिंसा आद. रीश नही, तेनी स्त्रीयें कडं के तुं महानिर्दयी बो, कुटुंबने कष्ट करवाथी लोकमां अपयश थशे. एम कही तेनो सालो बलात्कारथी तेने माउला पकडवा माटें लश् गयो. तिहां जाल नाखी तेमां माबलां श्राव्यां, पण व्रत साचववा माटें ते पाबां पाणीमां नाखी दीधां, घरे खाली हाथें श्राव्यो. वली बीजे दिवसें स्त्रीनी प्रेरणाथी गयो, ते दिवसें पण तेमज माबलां मेली घेर श्राव्यो, त्रीजे दिवसें स्त्रीनी प्रेरणाश्री गयो पण तिहां माउलां पकडतां माबलानी पांख नांगी, तेथी त्रास पाम्यो. पठी सगांने कही अनशन करी मरण पामी राजगृही नगरीयें नरवर्मराजा राज्य करे , तिहां मणीयार नामा शेग्नी सुयशा नामें नार्या तेनी कूखें श्रावी सुनंदनो जीव पुत्रपणे उपनो. तेनुं दामन्नक एवं नाम पाड्यु. ते आठ वर्षनो थयो, तेवारें शेग्ने घेर मा. हामारीनो उपजव थयो, तेथी घरना माणस सर्व मरण पाम्यां. आयुने योगें एक दामन्नक जीवतो Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( १५५ ) रह्यो राजायें तेने घेर चोकी राखी, दामन्नक - धातुर थको घर घर जीख मागवा लाग्यो. एकदा सागरपोत नामा व्यवहारीयाने तिहां जीख माग - वा माटे श्राव्यो, एवामां ते व्यवहारीयाने घेर साधु वहोरवा याव्या, तेमां एक वडेरायें सामुद्रिक लक्षण जोने कयुं के या जीखारी ए शेठना घर - नो मालीक याशे ? एवी रीतनी वाणी सागरशेठें जीतने अंतरे सांजली दुःखाक्रांत थश्ने विचा शुं महारा घरनो ए धणी थाशे ? तो हवे हुं कोइक उपाय करीने एने मारी नखावुं. एटले महारी लक्ष्मी महारा पुत्र पौत्रादिक जोगवे ? एम विचारी कोइक चांगालने घणुं द्रव्य आप कबूल करीने कयुं के दामन्नकने मारी नाखजे. ते चंगाल पण मोदकनी लालच देखाडी हगीने दामन्नकने बाहेर जंगलमां लइ गयो, पण तिहां ते मुग्ध बालने देखीने चंगाल मनमां चिंतववा लाग्यो के छ बालकें केवो शेठनो अपराध कस्यो बे के जेथकी शेठें मने याने मारवानो आदेश दीधो ! अथवा महारा जेवो बीजो महा पापी पण कोण हशे जे द्रव्यनी लालचें यावा बच्चाने मारवानी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) कबुलात यापे. तो हवे ए काम करवू महारे युक्त नथी ! एवो निश्चय करी बालकने कडं के हे मूखं ! तुं हांथी नाशी जा. जो इहां रहीश तो तुऊने सागरपोत मारी नाखशे ! एवो जय देखाड्यो, तेथी दामनक नाशी गयो, केम के संसारमा जीवितव्य सर्वने वचन ॥ यतः॥ मरणसमं नछि नयं, दारिद समो परिनवो नछि ॥ पंथसमा नहि जरा, खुहा समा वेयणा नहि ॥१॥ चंभालें दामन्नकनी अांगली कापी नीसानी ले शेउने प्रावी दीधी. दामन्नक पण लोहीयें जरती बांगली लक्ष तिहाथी नागे, ते सागरपोताना गोकुलमांहे गयो. कर्मयोगें तिहां नंदगोकुलपति श्रपुत्रीयो हतो, तेणें तेने पोताने घरे पुत्र करी राख्यो. दामन्नक अनुकमें यौवनावस्था पाम्यो, शूरवीर थयो. __ एकदा प्रस्तावें ते सागरश्रेष्ठी खगोकुलाहे श्राव्यो, तिहां दामन्नकने दीगे, नंदगोकुलीयाने पूज्यु के ए कोण . ? ते जेटलुं वृत्तांत दामन्नकनुं जाणतो हतो तेटवू तेणें सर्व कह्यु; ते सांजली शेठ विचारवा लाग्यो के रखेने साध वचन अन्यथा न थाय ! एम चिंतवी जेवो श्राव्यो तेवोज पालो घेर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६१) जणी जवा लाग्यो, तेवारें नंद बोल्यो के तमें शीघ्रपणे केम जाउँ डो? शेतें कडं घरे काम मे, नंदगोवालीयायें कडं के महारा पुत्रने घेर मोकलो, ते तमाएं कार्य करी श्रावशे, ते सांजली शेनें कागल लखी थाप्यो ने कां के ए कागल महारा पुत्रने श्रापजे. दामन्नक पण कागल ले चाल्यो. वाटें श्रावतां थाकी गयो, तेवारें गाम नजीक कामदेवना देहरामां जश् सूतो. एवामां तेज शेग्नी विषा एवे नामें पुत्री बे, ते पण तिहांज कामदेवनी पूजा करवा श्रावी . तेणें दामनक सूतेलो दीगगे, अने तेना अंगरखानी कसे कागल बांधेलो दोगे, ते लश्ने वाचवा मांमयो. तेमा स्वस्तिश्री गोकुलात् समुप्रदत्तयोग्यं सानंदं लिख्यते. ए दामनकने अपीत पाणीयें शीघ्र विष देजो एमां कांश विमासण करशो नही. एवो कागल वांची कन्यायें विचाखु जे महारो पिता कागल लखतां निश्चंथी एक कानो चूकी गयो बे, केम के विषा महारं नाम बे ते स्थानके विष देजो, एवं नूलथी लखा गयुं . पनी श्रांखनु काजल काढी सलीयें करी कानो दर विषने स्थानकें विषा करी पाबो कागल तेनी कसमां ११ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६२) बांधीने कन्या पोताने घरे श्रावीः पालथी दामनक पण जाग्यो, ते चालतो चालतो अनुक्रमें शेउने घरे श्राव्यो, पुत्रने कागल दीधो, तेणें कागल वांची तत्काल महोत्सव पूर्वक पोतानी बहेन विषा तेने परणावी दीधी) केटलेकदिवसें सागरदत्त पण गोकुलथी घेर श्राव्यो. वात सांजली मनमां विषाद उपन्यो भने चिंतववा लाग्यो जे में शुं विचाऱ्या अने यहां नीपर्नु ॥ यतः॥ अन्नं चिंतिजा अन्नं हुश्, अन्न विढव अन्नं खा॥ ऊचालु ते थिर थया, थिरवासो ते जा ॥१॥ में लानने माटे मूल पण खोयो! तथापि हजी कांश उपाय तो करूं के जेम ए विपत्ति पामे ? एम चितवी शेठ वली चांमालने धेर गयो, अने कयु के अरे पापी चांमाल! आते तें शुं कडे ? जे ते दामनकने जीवतो मूक्यो? पण अद्यापि जो आटवू काम करे तो जेटलुं अव्य तुं माग, तेटबुं हुं श्रापुं. तेवारें चांमाल बोल्यो के हे खामी ! तमें देखाडो, तेने हणुं. तमारी श्छा सफल करूं ? शेठे संकेत कीधो के संध्यानी वेलायें टुं जेने मातरने देहरे मोकलु, तेने हणजे. एम कही घेर श्रावी शेठ कहेवा लाग्यो के अरे मूर्यो ! Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३) हजी सुधी तमें मारतनी पूजा नथी कीधी ? काम तो पूजाथी सराडे चडे. ते सांजली पुष्पादिकें बाब जरी मातर पूजवा माटें संध्या समयें जमाश्ने मोकल्यो. तेने मार्गे जातां रस्तामां सालो मल्यो, तेणें पोताना बनेवीने तिहांज उनो राख्यो, अने पोतें मातर पूजवा तेनी पासेंथी बाब लश्ने गयो. ते जेटले देवामा प्रवेश करे बे तेटले जे खंगिलें तेने खड़े करी मारी नाख्यो, ते वखतें महोटो कोलाहल थयो. लोकें उलख्यो जे था शेग्नो पुत्र बे. ते वात शेवें सांजली शेग्ने हृदयस्फाट फुःख थयुं. तेथी मरण पाम्यो. पली राजाना आदेशथी दामनक घरनो धणी थयो. पुण्यानुसारें लक्ष्मीवान् थयो, साते क्षेत्रं धन वावरवा लाग्यो, अने त्रिवर्ग साधन करतो सुखमां रहे . ___ एकदा को एक नाटें श्रावीने दामन्नक श्रागल गाथा कही ते आ प्रमाणे:- तस्स न हव मुखं, कयावि जस्सविनिम्मलं पुमं ॥ अमघरलं दवं, मुंज अमो जणो जेण ॥ १॥ इति ॥ ए गाथा सांजली दामनकें ते नाटने त्रण लद अव्य आप्यु, ते देखी लोकोने महोटो देष उपज्यो. तारें Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) राजायें तेडी पूज्यु के ऐटलुं महोटुं दान ते केम दीधुं ? तेवारें राजा श्रागल सर्व पोतानी वातनी उत्पत्ति कही. ते सांजली राजायें दामन्नकने नगरशेव कस्यो. अनुक्रमें दामन्नक दयाधर्म श्राराधी देवलोके गयो, माटें हे नव्यजीवो! तमें दामन्नकनी पेठे दया दान द्यो, जेम सुखश्रेय पामो ॥२०॥ इति जीवदया जपर दामन्नक कथा ॥ हवे चार श्लोकें करीने सत्यबोलवाना प्रनावने कहे . विश्वासायतनं विपत्तिदलनं देवैः कृताराधनम्, मुक्तेः पथ्यदनं जलाग्निशमनं व्याघ्रोरगस्तंननम् ॥ श्रेयःसंवननं समृदिजननं सौजन्यसंजीवनम्, कीर्तेः केलिवनं प्रनावनवनं सत्यं वचः पावनम् ॥२॥ अर्थः-हे जव्य जीवो ! तमो ( सत्यं के ) सत्य एवं श्रने प्रियकारी तथा हितकारी एवं (वचः के० ) वचनने बोलो. ए सत्यवचन केहq बे ? तो के ( विश्वासायतनं के) विश्वासनुं श्रआयतन एटले घर बे. अर्थात् जे पुरुष सत्यवचन बोले , ते ज Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) गतमां विश्वासपात्र थाय बे, वली केहवुं बे ? तो के ( विपत्तिदलनं के० ) आपत्तिने नाश करनारुं बे, अर्थात् जे पुरुष सत्य वक्ता होय, ते यापत्तिने पामे नहिं. वली ते हवं बे ? तो के ( देवैः के० ) देवतायें ( कृताराधनं के० ) कस् बे श्राराधन एटले सेवन जेनुं एवं बे, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुषनुं देवता पण सेवन करे बे. तथा ते सत्यवचन केहवुं बे ? तो के ( मुक्तेः के) मुक्ति जे सिद्धि तेना ( पथि ho ) मार्गने विषे ( श्रदनं के० ) संबल बे, अर्धातू जेम कोइ पुरुष, ग्रामांतरें जाय, तेने रस्तामां जातुं वगैरे संबल जोइयें तेम मुक्तिमार्गमां जना - रने सत्यवाक्य तेज संबल समान जावं. एटले जे सत्यवक्ता याय, तेने मुक्तिप्राप्ति थाय. वली ते सत्यवचन केह बे ? तो के ( जलाग्निशमनं के० ) जबने अग्नितेने उपशमन करनारुं बे, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुषने जल निनो जय मटे बे. वली ते सत्यवचन केहवं बे ? तो के ( व्याघ्रोरगस्तंजनं के०) व्याघ्र जे सिंह तथा जरग जे सर्प तेने (स्तंजनं के० ) स्तंजन करनारुं बे, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुष, सिंह अने सर्प तेनो स्तंजनकारक थाय बे तथा वली ते स Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) सत्यवाक्य केह ने ? तो के (श्रेयः के० ) कल्याण जे मोद तेनुं ( संवननं के० ) वशीकरण बे. अर्थात् सत्यबोलनार पुरुषने मोद जे जे, ते वश थाय डे. वली ते सत्यवचन केहबुं बे ? तो के (समृद्धिजननं के ) संपत्तिने उत्पन्न करना , अर्थात् सत्यवाणीवालाने संपत्ति खतः प्राप्त थाय . वली ते सत्यवचन केहबुं बे ? तो के ( सौजन्य के० ) सुजनपणानुं ( संजीवनं के) उत्पन्न करनारंडे, अर्थात् सत्यवक्ता पुरुषने सुजनता प्राप्त थाय , वली ते सत्यवचन केहQ ? तो के (कीर्तः के०) यशर्नु ( केलिवनं के०) क्रीडा करवानुं वन . अर्थात् स. त्यवक्ता पुरुष जे , ते यशस्वी थाय . वली ते सत्यवचन केहबुं ? तो के (प्रजावनवनं के०) प्रनाव जे महिमा तेनुं गृह . अर्थात् सत्यवक्ता पुरुषनो महिमा पण अधिक होय , वली ते सत्यवचन केहबु बे ? तो के ( पावनं के) पवित्र करना बे. अर्थात् सत्यवक्ता पुरुष निरंतर पवित्रज गणाय बे. माटें ए सत्यवचन सर्वथा सर्व मनुष्यो. यें बोलq ॥ श्ए ॥ टीका:- अथ सत्यवचनस्य प्रजावं कथयति ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) विश्वासायतन मित्यादि॥ जो नव्याः सत्यं वचो हितं प्रियं वचनं वदंत्विति शेषः॥ कथंनूतं सत्यं वचः ? विश्वासायतनं विश्वासस्य श्रायतनं स्थानं । पुनः कथंजूतं सत्यं वचः विपत्तिदलनं । विपत्तीनां थापदानां फेटकं । पुनः कथं देवैः सुरैः कृताराधनं । कृतं श्राराधनं सेवनं यस्य तत् । पुनः मुक्तेः सिद्धेः पथि मार्गे श्रदनं संबलं । तथा जलाग्निशमनं । जलाग्योउपशामकं ।पुनः व्याघ्रोरगस्तंननं व्याघ्राणां सिंहानां उरगाणां सर्पाणां च स्तंननकारकं । पुनः श्रेयसो मोदस्य कल्याणस्य वा संवननं वशीकरणं । पुनः समृधिजननं समृद्धीनां संपदा संपादकं । पुनः सौजन्यसंजीवनं सुजनतायाः संजीवनं समुत्पादकं । तथा कीर्तेर्यशसः केलिवनं क्रीडाराम। पुनः प्रजातनवनं प्रत्नावस्य महिम्नो गृहं । पुनः पावनं पवित्रकारकमित्यर्थः ॥ २॥ नाषाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ गुननिवास विश्वास, वास दारिद मुख खंमन ॥ देव आराधन जोग, मुगति मारग मुख मंमन ॥ सुजस केलि श्राराम, धाम सऊन मन रंजन ॥ नाग वाघ वसिकरन, नीर पावक नय नंजन ॥ महिमा निधान संपति सद Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) न, मंगल नीति पुनीत मग ॥ सुख रासि बनारसि दास ननि, सत्य वचन जयवंत जग ॥ ए॥ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥यशो यस्मानस्मीनवतिवनवह्नरिव वनम्,निदानं फुःखानां यदवनिरुदाणां जलमिव ॥ न यत्र स्याबायातप इव तपःसंयमकथा, कथंचित्तन्मिथ्यावचनमनिधत्ते न मतिमान् ॥ ३०॥ अर्थः-( मतिमान् के०) बुद्धिमान् पुरुष, (कथंचित्के० ) को वखत कष्ट श्रावे बते पण ( तन्मिथ्यावचनं के०) ते मिथ्यावचन एटले असत्य वचन तेने (नअनिधत्ते के ) नहिं बोल्यो ने ते केम नथी बोलता ? तो के ( यस्मात् के ) जे मिथ्यावचनथकी ( यशः के० ) कीर्ति, ते ( जस्मीनवति के० ) जस्म थाय , अर्थात् नाश पामे जे. के. नी पढ़ें ? तोके ( वनवन्हेः के०) दावाग्निथकी (वनमिव के० ) वनज जेम. अर्थात् वनाग्नि थकी जेम वन दाह पामे ने तेम मिथ्यावचनथकी कीर्ति नाश पामे बे. वली ते मतिमान् पुरुष क्यारें पण केम मिथ्या वाक्य नथी बोलता? तो के ( यत् Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६ए) के०)जे मिथ्यावचन (फुःखानां के०) मुखोजें (निदानं के०) कारण डे, केनी पेठे ? तोके (अवनिरुदाणां के० ) वृदोनुं ( जल मिव के० ) जल जेम कारण बे. अर्थात् जेम वृदोनुं कारण जलडे तेम पुःखोनुं कारण असत्यज . वली ते मतिमान् पुरुष क्यारे पण केम मिथ्यावाक्य नथी बोलता ? तो के (यत्र के० ) जे मिथ्यावचनने विषे ( तपःसंयमकथा के०) तपनी अने चारित्रनी कथा पण (न के० )नहि ( स्यात् के०) होय. केनी पेठे ? तो के ( आतपे के०) सूर्यना तडकाने विषे (याश्व के ) या जे जे तेम अर्थात् असत्यवाक्यथकी आ श्लोकमां कहेलां कीर्त्यादिकनो नाश थाय डे केनी पेठे ? तो के था श्लोकमां कहेला वनानि वगेरेनी पेठे जाणवू. माटे हे नव्यजनो ! सत्यज बोलवं, परंतु असत्य नज बोलवू ॥ ३० ॥ टीकाः-यशो यस्मादिति ॥मतिमान् बुकिमान् पुमान् कथंचित् कष्टेऽपि सति तत् मिथ्यावचनं श्रसत्यवचनं न अनिधत्ते न जल्पति । तत् किं ? यस्मामिथ्यावचनाद्यशः कीर्तिर्जस्मीनवति विनश्यति । कस्मात् किमिव ? वनवन्हेवाग्नेर्वनमिव यथा दा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) वानलात् वनं जस्मीनवति । तथा पुनर्यन्मिथ्या वचनं फुःखानां निदानं कारणं । केषां किमिव ? श्रवनिरुहाणां वृक्षाणां कारणं जल मिव । यथा जलं वृक्षाणां कारणं तथा पुनर्यत्र मिथ्यावचने तपः संयमकथा तपश्चारित्रयोर्वार्ताऽपि न । कस्मिन् केव ? श्रातपे सूर्यातपे बाया श्व यथाऽतपे छाया न स्यात् तथा ॥३०॥ लाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा ॥ नोज समान करै निज कीरति, ज्यौं वन अगनि दहै वन सोश ॥ जा. के संग अनेक दुःख उपजत, वढे विरख ज्यों सी. चत तो ॥ जामें धरमकथा नहिं सुनियत,ज्यौं रविबीच गंह नहिं हो ॥ सो मिथ्यात वचन वानारसि, गहत न तांहि विचलन कोश ॥ ३० ॥ वंशस्थटत्तम् ॥ असत्यमप्रत्ययमूलकारणम्, कुवासनासद्म समृध्विारणम् ॥ विपन्निदानं परवंचनोर्जितम् , कृतापराधं कृतिनिर्विवर्जितम् ॥ ३१॥ अर्थः-(कृतिनिः के० ) पंमितो जे तेमणे (असत्यं के०) असत्य बोलवू ते ( विवर्जितं के) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७१) त्याग करे बे. ते शा माटें त्याग करे ? तो के ते असत्य वाक्य जे जे ते (अपत्यय के०) श्रविश्वास तेनुं (मूलकारणं के०) मूलकारण बे. वली केहबुं ? तो के (कुवासना के०) माठी वासना जे पापबुद्धि तेनुं (सन के०) घर . वली केहबुं बे? तो के ( समृद्धि के) लक्ष्मी तेने ( वारणं के) वारनारुं . वली केहबुं ? तो के ते (वि. पन्निदानं के० ) कष्टनुं करना5 . वली केहबुं ? तो के ( परवंचनोर्जितं के० ) अन्यजनने उगवामां अति बलवान् .वली केहबुंडे ? तो के(कृतापराधं के०) कस्यो जे अपराध जेणे एवं ले ? ते माटे सुझजनोयें अति निंद्य एवं आसत्य वाक्य बोलवु नहिं ॥३॥ ___टीकाः-पुनरसत्यवचनस्य दोषानाह ॥ असत्यमिति ॥ इति कारणात् कृतितिः पंमितैः असत्यं कूटं विशेषेण वर्जितं परिहृतं । यतोऽसत्यं अप्रत्ययमूलकारणं अविश्वासस्य मूलके हेतुः । पुनः कुवासनायाः पापबुझेः सद्म गृहं । पुनः समृशिवारणं समृझेलदम्याः वारणं निराकरणं । पुनर्विपनिदानं विपदां कष्टानां निदानं कारणं । पुनः परवंचनोर्डितं परेषां वंचने विप्रतारणे ऊतिं बलिष्ठं । पुनः Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) कृतापराधं कृतागसं कृतोऽपराधो येन असत्येन तस्कृतापराधं अत एव असत्यवचनं कृतिनिः पंकि तैर्न वक्तव्यं ॥३१॥ नाषाकाव्यः-रोडकछंद ॥ कुमति कुरीति निवास, प्रीति परतीति निवारन ॥ रिद्धि सिकि सुखहरन, विपति दारिज कुःख कारन ॥ परवंचनि उतपत्ति, सहज अपराध कुलबन ॥ सो यह मिथ्यात वचन, नहिं श्रादरत विचछन ॥३१॥ वली पण सत्यवचननो प्रनाव कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ तस्याऽग्निर्जलम र्णवः स्थलमरिर्मित्रं सुराः किंकराः, कांतारं नगरं गिरिहमदिर्माल्यं मृगारिर्मगः॥पातालं बिलमस्त्रमुत्पलदलं व्यालः शृगालो विषम, पीयूषं विषमं समं च वचनं सत्यांचितं वक्ति यः॥३२॥ अनृतप्रक्रमः ॥६॥ अर्थः- ( यः के० ) जे पुरुष, (सत्यांचितं के०) सत्ययुक्त एवं (वचनं के०) वचन जे तेने (वक्ति के०) बोले , ( तस्य के०) ते पुरुषने (अग्नि के०) अग्नि जे जे, ते ( जलं के० ) जल सरखो थाय बे. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७३) वली ते पुरुषने (अर्णवः के० ) समु, ते ( स्थलं के) जीप थाय . वली ते पुरुषने ( अरिः के) शत्रु ते ( मित्रं के ) मित्रतुल्य थाय बे. तथा ते पुरुषने ( सुराः के०) देवता ते ( किंकराः के) किंकरतुल्य थाय . वली ते पुरुषने (कांतारं के०) वन ते (नगरं के०) नगर तुल्य थायडे वली ते पुरुषने (गिरि के०) पर्वत, ते (गृहं के०) घर समान थाय.. वली तें पुरुषने (श्रहिः के०) सर्प, (मादयं के०) पुष्पमाला तुल्य थाय . वली ते पुरषने (मृगारिःके०) मृगनो श्ररि जे सिंह ते (मृगः के०) हरिण समान थाय बे.तथा तेपुरुषने (पातालं के०) रसातल, ते ( बिलं के०) विज तुल्य थाय . वली ते पुरुषने (अस्त्रं केप) अस्त्र ते, (उत्पलदलं के०) कमलपत्र समान थाय बे. वली ते पुरुषने (व्यालः के) मदोन्मत्त हस्ती ते (शृगालः के०) शीयाल जेवो थाय ने. वली ते पुरुषने ( विषं के) विष ते (पीयूषं के०) अमृततुल्य थाय बे. तथा ते पुरुषने (विषमं के०) विषम स्थानक ते (समं के०) सरखं थाय जे. ( च के०) चकार पादपूर्णार्थ . ए. टले आ श्लोकमां नाव एटलोज डे के सत्यवक्ता Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७४) पुरषने सर्व सुखरूप थाय , माटे सत्यज बोलवू ॥ ३२ ॥ श्रा बहुं मिथ्यावचन प्रकरण संपूर्ण थयु॥ टीकाः-अथ सत्यप्रनावं दर्शयति ॥ तस्यानिरिति ॥ यः पुमान् सत्यांचितं सत्ययुक्तं वचो वचनं वक्ति ब्रूते । तस्य पुंसोऽग्निर्वन्हिः सत्यप्रनावाजलं । तथाऽर्णवः समुजः स्थलं स्यात् । तथा अरिः शत्रुमित्रं स्यात् । पुनः सुराः देवाः किंकराः सेवका श्रा. देशकारिणः स्युः । पुनः कांतारमरण्यं नगरं स्यात् । तथा गिरिः पर्वतो गृहं स्यात्। पुनरहिःसर्पोमात्यं सक् स्यात् । तथा मृगारिः सिंहो मृगो हरिण श्व स्यात् । तथा पातालं रसातलं बिलं बिलरूपं स्यात् । तथाऽस्त्रं शस्त्रं उत्पलदलं कमलपत्रसदृशं स्यात्। तथा व्यालो पुष्टगजः शृगाल व स्यात् । पुनर्विषं हालाहलं पीयूषं अमृतं स्यात् । तथा विषमं संकटं स्थानं संपवूपं स्यात् सत्यप्रनावतः । अतः सत्यं वक्तव्यं अत्र वसुराज्ञः दीरकदंबकोपाध्यायपुत्रपर्वतकरनारदयोदृष्टांतः सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्त्तिना ॥ सूरिणा विहितायां तु,मिथ्यावचनप्रक्रमः ॥ ३२ ॥ इति षष्ठो मिथ्यावचनप्रक्रमः ॥६॥ नाषाकाव्यः-सवैया श्कतीसा ॥ पावकतें जल Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५) हो वारिधितें थल होइ, शस्त्रतें कमल होश ग्राम हो वनतें ॥ कांतार नगर हो। पर्वततें घर होश, वासवतें दास होश हेतू उरजनतें ॥ सिंहतें कुरंग होश व्याल स्याल अंग होश, विषतें पियूष होश माला अहि फनतें ॥ विषमतें समहोश संकट न व्यापै कोश, एते गुन होश सत्यवादी दरसनतें ॥३॥ ___ कथाः-शुक्तिमनी नगरी अनिचंड नामा राजा तेनो वसु नामें पुत्र बे, ते न्हानपणथी सत्यवचननो बोलनार , ते नगरीमा दीरकदंबक उपाध्याय सर्व शास्त्रनो जाण बे, तेनो पुत्र पर्वतक नामें बे, ते स्वनावें कुटिलाशयवालो ने,(एक पर्वतक बीजो वसुराजा अने एकत्रीजो नारद ए त्रणे दीरकदंबक उपाध्याय पासें जणे बे) अन्यदा ते त्रणे शिष्य अगासीमां सूता ने उपाध्याय अगासीमां बेगे जागे एवामां आकाशमार्गे बे चारण मुनियो वातो करता चाल्या जाय , तेमांश्री एक मुनि बोल्यो के श्रा त्रणमां बे तो नरकगामी बे, अने एक वर्गगामी . ए वाणी सांजली उपाध्याय उवेग पाम्या. पड़ी कोण स्वर्गगामी अने कोण नरकगामी जे ? तेनी परीक्षा करवा माटें जूदा जूदा Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६) लोटना त्रण कुर्कुट बनावीने त्रणे शिष्यने दीधा, अने कडं के जिहां को देखे नहिं, तिहां एने हणी आवजो. तेमां वसुराजा अने पर्वतक ए बे जण तो जंगलमा जश् को एकांत जग्यायें कुकडानो विनाश करीने श्राव्या, अने नारदें तो घणां स्थानक जोयां पण क्यां हि कोई न देखे एवं स्थानक दीतुं नहिं. तेवारें कुकडाने पागे आण्यो. उपाध्यायें पूब्यु के केम पालो लाग्यो ? तेवारें नारद बोल्यो के देव, दानव, निगोद अथवा ज्ञानी जिहां तिहां देखी रह्या तेमज महारो आत्मा पण देखतो हतो, माटें शी रीतें तमारी श्राकानो नंग करी एनो विनाश करूं ! ते सांजली उपाध्यायें चिं. तव्यु के ए स्वर्गगामी जे अने पहेला बे नरकगामी जे. अनुक्रमें उपाध्याय आयुष्य पूर्ण करी देवलोके गया. पनी तेने पाटे पर्वतक बेठो अने वसुने राज्य मदयु, नारद पोताने घेर गयो. ___ एकदा एक आहेडीयें वनमां जश् कोश् मृगनी उपर बाण नाख्यो, आगल जश् जोयुं तो मृगने स्थानकें स्फाटिकनी शिला दिठी, तेणें राजाने श्रावी कयु के तरत राजायें ते शिला बानी मगावी, Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७) पीठिका मंमावी, उपर सिंहासन थापी पोतें बेसवा मांड्यु, लोक सर्व जाणवा लाग्याके वसुराजा सत्यवचनने बलें करी अधर बेसे बे, तेथी सिमाडीया राजा प्रमुख सेवामा रह्या, महोटो प्रतिष्ठावंत सत्यवादी एवो वसुराजा कहेवाणो. __एकदा पर्वतकने मलवा माटें नारद कोग्रामांतरथी तिहां श्राव्यो, पोतपोतामां मलीने बेग, ते समये शिष्यने जणावतां श्रज शब्दनो अर्थ गगनो होम करवो एवो पर्वतें कह्यो, तेवारें नारद बोल्यो के गुरुयें तो श्रापणने जणावतां अज शब्दनो अर्थ त्रण वर्षनी जूनी व्रीहि कही . तो तमें अज शब्दनोश्रर्थ बाग केम कहोबो? पर्वतें ना कही.एम पोतपोतामां विवाद करतां जे खोटो ठरे, तेनी जीन - दी नाखवी. एवी प्रतिज्ञा करी. ते वखत पर्वतकनी मातायें जाएयु जे नारद कहे , ते वात खरी बे माटे हुं ज वसुराजानी पासेंथी पुत्रनिदा मागी ले. कारण के सादी दाखल बे जण वसुराजा पासें जवाना , एवं विचारी वसुराजा पासें जश्ने कालावाला कीधा, अनुक्रमें ते बेहु जण वाद करतां वसुराजा पासें अर्थ पूजवा श्राव्या. राजायें पण १२ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७०) मिश्र वचन बोलीने कडं के अज शब्दनो अर्थ बोकडो पण थाय बे, अने नेदांतरें व्रीहि पण थाय बे. एवं सांजलतांज तत्क्षण देवतायें पाटुप्रहारें करी वसुराजाने सिंहासनथी नीचे पाडी मारी ना. ख्यो, विपत्ति पामी मरीने नरकें गयो. पाउल पर्वत पण श्रायु पूर्ण थये नरकें गयो. नारद शील पाली सत्यवचनना प्रनावे देवलोके गयो, ए सत्यवचन उपर वसुराजानो दृष्टांत कह्यो ॥ ३२ ॥ हवे श्रदत्तादान व्रत कहे जे. मालिनीटत्तम् ॥तमनिलषति सहिस्तं - गीते समृद्धि, स्तमनिसरति कीर्तिर्मुच्यतेतं नवार्तिः॥स्पृहयतिसुगतिस्तं नेदतेजगतिस्तम्,परिहरतिविपत्तंयोनगृह्णात्यदत्तम्॥३३॥ अर्थः-(यः के०) जे पुरुष, (श्रदतं के०) नदीधेढुं एवं जे पारकुं वित्त तेने ( नगृह्णाति के०) न ग्रहण करे , ( तं के ) ते पुरुषने ( सिकिः के० ) मुक्ति, (अनिलषति के०) श्वा करे . वली (तंके) ते पुरुषने ( समृद्धिः के० ) चक्रित्वादि संपत्ति ते (वृणीते के०) वरे . तथा (तं के) ते Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७ए) पुरुषप्रत्ये (कीर्तिः के० ) यश ते (अनिसरति के०) श्रावे . तथा वली (तं के०) ते पुरुषने ( जवातिः के ) संसारव्यथा ( मुच्यते के ) मूके बे. ए. टले त्याग करे . तथा ( सुगतिः के०) देवमनु. ष्यरूपगति, ते (तं के) ते पुरुषने ( स्पृदयति के०) स्पृहा करे . एटले वांग करे. तथा ( मु. गतिः के०) नरकतिर्यगादिक गति ( तं के) ते पुरुषने ( नेते के०) नथी जोती. तथा ( विपत् के) आपत्ति ते (तं के० ) ते पुरुषने (परिहरति के० ) त्याग करे . अर्थात् श्रदत्त वस्तुने जे जीव ग्रहण करतो नथी, तेने सर्वसुख प्राप्तथाय ॥३३॥ टीका-अथादत्तादानव्रतमाह ॥ तमनीति ॥ यः पुमान् अदत्तं श्रवितीर्णप्रस्तावात् परवित्तं किंचितस्तु वा न गृह्णाति तं पुरुषं सिद्धिर्मुक्तिरजिलषति वांबति । पुनस्तं समृद्धिश्चक्रित्वादि संपत् वृणीते। तथा कीर्तिर्यशस्तं अजिसरति प्रत्यागछति । जवातिः संसारपीडा तं मुच्यते त्यजति । तथा सुगतिर्देवमनुष्यरूपा तं स्पृहयति वांबति । तथा पुर्गतिर्नरकतिर्यग्रूपातं पुरुषं नेदते न पश्यतिबं विपशापद् तं परिहरति त्यजति॥ तं कं ? यो अदत्तं न गृह्णाति ॥३३॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) जाषा काव्यः - रोडकछंद ॥ ताहि रिद्धि अनुसरे, सिद्धि अभिलाष धरे मन ॥ विपति संग परिहरे, जगत विस्तरे सुजसघन ॥ जव श्रारति तिहिं तजै, कुगति वंबे न एकबिन ॥ सो सुरसंपति लहै, गदै नहिं जो प्रदत्त धन ॥ ३३ ॥ वली पण अदत्तादानना परम गुणो कहे बे. शिखरिणीवृत्तम् ॥ प्रदत्तं नादत्ते कृतसुकृतकामः किमपि यः, शुभश्रेणिस्तस्मिन् वसति कलहंसीव कमले ॥ विपत्तस्माद्दूरं व्रजति रजनीवांबरमणे, विनीतं विद्येव त्रिदिवशिवलक्ष्मीर्जजति तम् ॥ ३४ ॥ अर्थः- ( यः के० ) जे पुरुष, ( कृतसुकृतकामः ho ) को बे सुकृत विषे अभिलाष जेणें एवो तो ( किमपि के० ) कांहींपण ( दत्तं के० ) न दीघेला एवा पदार्थने ( नादत्ते के० ) न ग्रहण करेबे, ( तस्मिन् के० ) ते पुरुषने विषे ( शुनश्रेणिः के०) कल्याणनी पंक्ति ( वसति के० ) वसे बे, केनी पेठें ? तो के (कमले के० ) कमलने विषे ( कलहंसीव के० ) राजहंसीनी पेठें रहे बे. वली ( तस्मात् के० ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) ते पुरुषथकी ( विपत् के० ) विपत्तियो ते (डुरं के० ) दूरने विषे ( व्रजति के० ) जाय बे केनी पेठें ? तो के ( अंबरमणेः के० ) सूर्यथकी ( रजनीव के० ) रात्रि जेम नाश पामे बे तेम. अर्थात् जेम रात्रि सूर्य की नाश पामे बे तेम जाणवुं तथा ( तं के० ) ते पुरुषने (त्रिदिव शिवलक्ष्मी: के० ) स्वर्गापवर्गनी लक्ष्मी जे बे, ते ( जजति के० ) सेवे बे. केनी पेठें ? तो के ( विनीतं के० ) नम्रपुरुषने ( विद्येव के० ) विद्याज जेम यावे बे, अर्थात् विद्या जेम विनयसंपन्न पुरुषने प्राप्त थाय बे, तेम स्वर्गापवर्गनी लक्ष्मी पण ते पुरुषने प्राप्त थाय बे ॥ ३४ ॥ टीका:- नूयोप्यऽदत्तादानस्य परमगुणानाद ॥ श्रदत्तमिति ॥ यः पुमान् कृतः सुकृते पुण्येऽनिलाषो येन ईदृशः सन् अदत्तं परकीयं किमपि वस्तु न श्रादत्ते न गृह्णाति तस्मिन् पुंसि शुजश्रेणिः कल्यापरंपरा वसति निवासं करोति । कस्मिन् केव ? कमले कलहंसीव । यथा कमले राजहंसी वसति तथा । पुनस्तस्मात् पुरुषात् विपत् कष्टं दूरं व्रजति दूरे याति कस्मात् केव ? अंबरमणेः सूर्यात् रजनीव । यथा सूर्याद्वात्रिर्दूरे व्रजति तथा । पुनस्त्रिदि Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७२) वशिवयोः स्वर्गापवर्गयोर्लक्ष्मीः श्रीस्तं नजति सेवते। के केव ? विनीतं विद्येव यथा विद्या विनीतं विनयान्वितं पुरुषं नजति विद्या श्रागति तथा ॥३४॥ नाषाकाव्यः- कवित्त मात्रा ॥ ताकों मिलें देवपद शिवपद, ज्यौं विद्याधन लहै विनीत ॥ तामें श्राश् रहै शुज पंकति, ज्यौं कलहंस कमल सोनीत ॥ तांहि विलोकि रैफुख दारिद.ज्यौं रविश्रागम रयनि वितीत ॥ जो अदत्त धन तजत बनारसि, पुन्नवंत सो पुरुष पुनीत ॥ ३४ ॥ दवे जे बुद्धिमान पुरुष श्रदत्तनो त्याग करे बे, तेपण कहे . ॥ शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ यन्निवर्तितकीतिधर्मनिधनं सर्वागसां साधनम्, प्रोन्मील धबंधनं विरचित क्लिष्टाशयोद्बोधनम् ॥दौर्गत्यैकनिबंधनं कृतसुगत्याश्लेषसंरोधनम्, प्रोत्सर्पत्प्रधनं जिघृदति न तछीमानदत्तं धनम् ॥ ३५॥ अर्थः- (धीमान् के ) विछान पुरुष, ( तत् के०) ते (अदत्तं के० ) परकीय ( धनं के०) वस्तु Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) जे तेने ( नजिघृक्षति के० ) ग्रहण करवाने श्वता नथी. ते के श्रदत्त ने ? तो के ( यत् के०) जे (निवर्तित के) कझुंडे कीर्तिधर्म ( निधनं के०) की. र्ति, अने धर्मनो नाश जेणे एवं बे. वली ( सर्वागसा के०) सर्वे अपराधोनुं (साधनं के०) साधन एटले हेतुरूप ले. वली (प्रोन्मीलत के० ) प्रगट बे ( वधबंधनं के० ) वध जे लाकडी वगेरेथी ताडन तथा बंधन जे रज्ज्वादिकथी बंधन ते जेनेविषे. वली के जे? तो के ( विरचित के) कयुंडे (क्लिष्टाशय के०) पुष्ट अंतःकरणy ( उद्बोधनं के०.) प्रगटपणुं जेणे अर्थात् पुष्टविचारनुं करवावायुं . वली ते केहबु बे? तो के ( दौर्गत्य के० ) पुर्गतिपए॒ तेनुं ( एकनिबंधनं के० ) अद्वितीय कारणचूत डे. वली केदतुं ? तो के ( कृत के० ) करेवु ले ( सुगति के०) सारी गति तेनुं जे (श्राश्वेष के०) मलq तेनुं ( संरोधनं के० ) निवारण जेणे एवं , वली केहबुं बे? तो के (प्रोत्सर्पत् के०)प्रसरतुंबे (प्रधनं के०) मरण जे थकी एवंडे. अर्थात् एतादृश ः खकारिजे अदत्त तेनी पंमितोश्छा करता नथी॥३५॥ टीकाः- व्यतिरेकेणाद ॥ यन्निवर्त्तितेति ॥ धी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) मान् विद्वान् पुमान् तत् श्रदत्तं धनं परकीयं वस्तु न जिघृक्षति ग्रहीतुं नेति । तत् किं ? यत् श्रदत्तं निवर्तितकीर्तिधर्मनिधनं स्यात् निर्तितं कृतं कीर्तिध मयोनिधनं विनाशो येन तत्। तथा सर्वागसां साधनं सर्वाणि च तानि आगांसिच सर्वागांसि तेषां सर्वापराधानां साधनं हेतु स्यात् । पुनःप्रोन्मीलधबंधनं वधो लकुटादिताडनं बंधनं रज्ज्वादिना बंधनं प्रोन्मीलंति प्रकटीजवंति वधबंधनानि यत्र तं । पुनविरचितक्विष्टाशयस्य पुष्टानिप्रायस्य उद्बोधनं प्रकटनं येन तत्। पुनर्गित्यैकनिबंधनं दौर्गत्यस्य दारिजस्य एक अद्वितीयं निबंधनं कारणं । पुनः कृतसुगत्याश्लेषसरोधनं कृतं सुगतेराश्लेषस्य आलिंगनस्य संरोधनं निवारणं येन तत् । पुनःप्रोत्सर्पत् प्रधनं प्रोत्सर्पत् प्रसरत् प्रधनं मरणं यस्मात् तत्तथा। दृशं अदत्तं धीमान न जिघृदति ॥ ३५ ॥ नाषाकाव्यः-मरहठा बंद ॥ जो कीरति गोपै, धरम विलोपै, करै महा अपराध ॥ जो शुज गति तोरै, उरगति लोरै, जोरै युद्ध उपाधि ॥ जो संकट श्राने, पुरमति गनै, वध बंधनको गेह ॥ सब उगुन मंमित, गहै न पंमित, सो श्रदत्त धन एह ॥३५॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) वली पण दत्तना दोषो कहे बे. ॥ हरिणीवृत्तम् ॥ परजनमनः पीडाक्रीडावनं वधभावना, जवनमवनिव्यापिव्यापल्लताघनमंगलम् ॥ कुगतिगमने मार्गः स्वर्गापवर्गपुरार्गलम्, नियतमनुपादेयं स्तेयं नृणां दितकांक्षिणाम्॥ ३६ ॥ इतिस्तेयप्रक्रमः ॥ ७ ॥ अर्थ :- ( नियतं के० ) निश्चयें ( हितकांदि - यां के० ) दितनी वांछाना करनारा एवा ( नृणां के० ) पुरुषोने ( स्तेयं के० ) चौर्य एटली चोरीनुं कर्म ते ( अनुपादेयं के० ) ग्रहण करवा योग्य नथी. ते दत्त केहवुं बे ? तो के ( परजनमनः के० ) छा न्यजनानां मन जे चित्त तेमनी ( पीडा के० ) बाधा तेमनुं ( क्रीडावनं के० ) रमण करवानुं उद्यान बे. वली ( वधजावना के० ) हिंसानी जे जावना एटले चितवन तेनुं ( जवनं के० ) घर बे. वली ( अवनि के० ) पृथ्वी तेने विषे ( व्यापि के० ) व्यापी रहेली एवीजे ( व्यापत् के० ) आपत्तियो तेज ( लता के० ) लता जे वलीयो, तेनुं ( घनमंडलं के० ) मेघमंडलरूप बे. वली ( कुगतिगमने के० ) माठी गतिने Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) विषे गमन करवानो ( मार्गः के० ) मार्ग बे. वली ( स्वर्गापवर्गपुर के० ) स्वर्ग ने मोद ते रूप जे नगर तेने (अर्गलं के० ) जोगल सरखं बे. माटे लोकनो जावार्थ ए बे जे दुःखदायक एवं जे चौर्य तेनो सर्वथा सर्व जनोयें त्याग करवो ॥ ३६ ॥ या सातमो चौर्यप्रक्रम थयो ।॥ ७ ॥ टीका:- पुनरदत्तदोषमाह ॥ परजनेति ॥ निय तं निश्चितं हितकांक्षिणां हितवांबितां नृणां पुरुषाणां स्तेयं चौर्य्यं अनुपादेयं ग्राह्यं जवति श्रदतं श्रग्रहणीयं स्यात् । किंभूतं दत्तं ? परे च तेजनाश्च तेषां मनांसि चित्तानि तेषां पीडा बाधातस्याः क्रीडावनं रमणायोद्यानं । पुनः वधजावनाजवनं वधस्य हिंसायाः जावना चिंतनं तस्याः गृहं । पुनः श्रवनिव्या पिव्यापल्लताघनमंगलं श्रवन्यां व्यापिनी प्रसरणशीला या व्यापत् श्रापत् सैव लता वल्ली तस्याः घनमंगलं मेघपटलं । पुनः कुमतिगमने मार्गो ध्वा । पुनः स्वर्गापवर्गपुरार्गलं स्वर्गापवर्गावेव देवलोकमोहावेव पुरं नगरं तत्र वर्गला परिघः ॥ ईदृशं स्तेयं हितकांदिषां नृणां श्रग्राह्यं स्यात् ॥ ३६ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, टीकायां Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिनिर्विहितायां तु, संपूर्णः स्तेयप्रक्रमः ॥ ७॥ इति सप्तम स्तेयप्रक्रमः॥७॥ नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक ॥ जो परजन संताप केलिवन, जो वध बंध कुबुझि निवास ॥ जो जग विपति वेलि घनमंमल, जो पुरगति मारग परगास ॥ जो सुरलोक बार दिढ अर्गल, जो श्रपहरन मुगति सुखवास ॥ जो श्रदत्त धन तजत साधु जन, निज हित हेत बनारसि दास ॥ ३६ ॥ ___ कथाः- एज जरतदेत्रमांहे वाणारसी नगरीयें माहा विख्यात पराक्रमनो धणी जितशत्रु राजा राज्य जोगवे , तिहां एक धनदत्तनामे व्यवहारी अत्यंत धनवंत रहे बे. तेनी धनश्री नामें स्त्री ने, तेनो पुत्र नागदत्त करीने बे, ते गुणरूप रत्ननो नंमार , तेना हृदयरूप सरोवरमांहे राजहंसनीपेठे दया रमे बे. हवे ते नगरमां बीजो को प्रिय मित्र एवे नामें व्यवहारीयो वसे बे, ते सौजाग्यसुंदर चातुर्यकलासागर , तेने नागवसु एवे नामें पुत्री ३. एकदा नागदत्त देवगृहमांहे देव वांदतो हतो, तेने नागवसु कन्यायें दीगे, तेवारें विचाखु जे पुरंदर समान ए पुरुष कोण हशे ? एवा कंदर्पाव Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) तार ज र विना स्त्रीनुं यौवन बकरीना गलाना स्तननी पेठे निःफल जाणवू, मा. महारे तो श्रा जवें एड्ज जर्रार करवो, नही का चारित्र खेबु, पण बीजो जर्रार न करवो ! एम चिंतवी नागवसु कन्या पोताने घेर श्रावी पण कोई स्थानकें रति पामे नही. नोजन निमा मूकीने रात्रि दिवस ना. गदत्तनुंज ध्यान कस्या करे. एवी पुत्रीनी अवस्था जोश्ने तेनां माता पितायें बलात्कारथी वारंवार पूज्यु, तेवारें तेनी सजान सखीयें कडं जे ए नागदत्तनी प्रार्थना करे . पितायें पुत्रीनो नाव जाणी नागदत्तने घेर जश् विवाह मेलववानी वात करीने कडं के सरखे सरखी जोडी जे माटें बेहु जन्म सफल करे, ए युक्त . नागदत्तना पितायें मान्युं, परंतु नागदत्ते ते वात सांजलीने पिताने वास्यो अने कह्यु के स्वामी! महारुं सगपण करशो नही, हुं तो चारित्र लश्श. ए संसार असार माटे विषयसुखथी सस्तूं! कन्यायें तेवचन सांजट्युं अने ते कन्या तो मन वचनथी एनी उपरज मोदित थयेली ॥ यतः॥ संसारे ते नरा धन्या, ये मोहे नैव मोहिताः॥ मोहमोहितचित्तानां न जने न वने रतिः ॥१॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०ए) एकदा ते कन्याने मार्गे जाती कोटवालें देखीने तेना पिता पासेंथी मागणी करी. तेवारें पितायें कयुं के, ए कन्या नागदत्त उपर रागिणी माटे तेने दीधी . ते सांजली नगरनो कोटवाल, नागदत्तनां बिज जोवा लाग्यो. प्रायः पापी जे होय , ते पोताना स्वार्थ माटें सजननां विज जोतोज रहे डे ॥यतः॥ मृगमीनसजनानां, तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनाम् ॥ लुब्धकधीवर पिशुना, निःकारणवैरिपोजगति ॥५॥ ___एवा समयमा राजानुं रत्नजडित कुंडल गयु, ते वखतें नागदत्तने पोषध शालामां आवश्यक करतां कोटवालें दीगे, अने रदकें मार्गमां कुंडल पड्यु पण दीवं, ते उपाडी पोतानी पासे राख्यु. पडी बल करीने रात्रीने समयें कोटवाले ते कुंडल लावी नागदत्तना कानमां घादयु. प्रजातें नागदत्तने पकडी राजा आगल लश् गया. कुंडलनी चोरीनुं बाल दीधुं. राजायें तत्काल मारवानी श्राझा दीघी, तेने कोटवाले मुख काडं करी रासन उपर चढावी अनेक जातिनी विटंबना करी नगरमा फेरवी शूलारोपणने स्थानकें (मसाणे ) श्राण्यो. ते वात नाग Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) वसु स्त्रीयें सांजली, तेवारें महाडुःख धरती थकी तेनुं कष्ट निवारण करवा माटें शासनदेवीनुं स्मरण करी काउस'ग को छाने विचायुं के जेवारें ए नागदत्त मूकाशे, तेवारें हुं काउस्सग्ग पारीश ! एम निश्चल ध्यानमां थिर रही ते अवसरें नागदत्तने शूलियें दीधो के शूली नांगी पडी, पण नागदत्तने न लागी, तेवारें कोटवालना यादेशथी नागदत्तने खडें करी दण्यो, ते खड्ग पण फूलमाला जेवुं तेने लाग्युं, तेवारें राजपुरुष विस्मय पामी ते वात राजा श्रागल कही. राजा पोतें तिहां श्राव्यो ते विचार प्रत्यक्ष देखी नागदत्तने सर्व विचार खरेखरो पूवाथी नागदतें यथास्थित वात कही. ते सांजली राजा महोटा महोत्सवपूर्वक नागदत्तने नगरमां ल आव्यो थने पोतानो अपराध खमाव। कोटवालाने देश बाहेर काढ्यो, तेना घरनुं सर्वस्व लइ लीधुं. जेमाटें अति उग्र पुण्य पापनां फल तत्काल प्राप्त थाय ॥ यतः ॥ त्रिनिर्वर्षैस्त्रि निर्मासे, स्त्रिभिः पदै त्रिनि दिनैः ॥ अत्युग्रपुण्यपापाना, मिहैवलनते फलम् ॥३॥ ● पढी नागदत्ते नागवसुना काजस्सग्गनुं सर्व वृत्तांत सांगली तेनो घणोज पोतानी उपर स्नेह जा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) णीने ते कन्या- पाणिग्रहण कर्पु. श्रने चिरकाल तेनी साथै विषयसुख जोगवी वृद्धावस्थायें वैराग्य पामी दृढचित्तें चारित्र लश् देवलोकें पहोतो. माटें जे जाग्यवंत पुरुषश्रदत्तवस्तु न लीये, ते नागदत्तनी पेठे इहलोकें परलोकें मनोवांबित फलने पामे ॥३६॥ हवे मैथुनव्रत श्राश्रय करीने उपदेश कहे जे. ॥ शार्दूविक्रीडितटत्तष्यम् ॥कामार्त्तस्त्यजति प्रबोधयतिवा स्वस्त्रीं परस्त्रीं न यो, दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटदोगोत्रे मषीकूर्चकः॥ चारित्रस्य जलांजलिर्गुणगणारामस्य दावानलः, संकेतः सकलापदां शिवपुरझारेकपाटोदृढः॥ पागंतरं ॥ शीलं येन निजं विलुप्तमखिलं त्रैलोक्यचिंतामणिः॥३०॥ अर्थः-( यः के०)जे पुरुष, (कामातः के) कामें करी पीडितथको ( स्वस्त्री के ) पोतानी स्त्रीने (नप्रबोधयति के०) न बोलावे डे (वा के) अने (परस्त्री केप) पारकी स्त्रीने (नत्यजति के०) न त्याग करे बे. अर्थात् पोतानी स्त्री उतां परस्त्रीनो संग करे , परंतु परस्त्रीनो त्याग करतो नथी, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७२) A ( तेन के० ) ते पुरुषं ( जगति के० ) विश्वने विषे ( कीर्त्तिपट : के० ) पोतानी अपकीर्त्तिरूप ढो ल, (दत्तः के०) दीधो एटले वजाड्यो अर्थात् तेनी विश्वमां अपकीर्त्तिज थाय. वली ते पुरुष निर्मल एवा पोताना ( गोत्रे के०) गोत्रने विषे ( मषी कूर्चक: के० ) मशनो कूचो दीधो. अर्थात् पोताना निष्कलंक कुलने लांबन लगाडयुं. वली ते पुरुष ( चारित्रस्य के० ) देशविरति सर्वविरतिरूप संयमने ( जलांजलिः ho ) जलनो अंजलि दीधो, अर्थात् तेथे चारित्रनो पण नाश की धो. वली ते पुरुष ( गुणगणारामस्य के० ) गुणना गएण जे समूह ते रूप आराम जे बगीचो तेने ( दावानलः के० ) वनाग्नि दीधो. - र्थात् तेणें गुणोने पण नाश करया, वली ( सकलापदां के० ) समापत्तियोने ( संकेतः के० ) मलवाने स्थानक दीधुं. अर्थात् तेणें आपत्तियोने श्राववानो मार्ग पूरतो कस्यो वली ते पुरुष ( शिवपुरद्वारे के० ) मोक्षपुरना द्वारने विषे ( दृढः के० ) मजबूत तिकठीन ( कपाटः के० ) कमाड दीघां. अर्थात् ते जीवें मोक्षमां जवानो रस्तो अत्यंत बंध कीधो, वली पाठांतरमां ( येन के० ) जे पुरुष (त्रै अ · Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९३) सोक्यचिंतामणिः के० ) त्रणलोकने विषे चिंतामणिरूप एवं ( निजं के०) पोतार्नु ( शीलं के०) ब्रह्मचर्य, ते (अखिलं के०) संपूर्ण ( विलुप्तं के०) लोप्यु , तो ते पुरुषं पूर्वोक्त सर्व वस्तु करी. ए. टसे आ श्लोकमां नाव ए ले जे शील रहित पुरुषतुं जे कांश कर्म, ते सर्व व्यर्थ थाय डे ॥३७॥ टीकाः-अथ मैथुनव्रतमाश्रित्योपदेशमाह ॥ द. त्त इति ॥ यः पुमान् कामातः कामपीडितः वस्त्रीं न प्रबोधयति वा इति तर्के परस्त्रीं परनारी न त्यजति तेन पुंसा जगति विश्वे अकीर्तिपटहो दत्तः वादितः। निर्मले गोत्रे स्वकीये वंशे मषीकूर्चकोदचः। पुनः चारित्रस्य देश विरति सर्वविरतिरूपसंयमस्य जलांजलिर्दत्तः । गुणानां गणः समूहःसएव श्रारामस्तस्य दावानलो वनदवः वनदवानिर्दत्तः। पुनस्तेन सकलापदां समस्तकष्टानां संकेतोदत्तः । मलीनस्थानं कथितं । पुनस्तेन शिवपुरछारे मुक्तिनगरद्वारे दृढः कपाटो दत्तः। शीलरहितस्य मुक्तिगमना योगात् ॥ पागंतरे तु ॥ शीलं येन निजं विलुप्तमखिलंत्रैलोक्यचिंतामणिः।येन त्रैलोक्यचिंतामणिः निजं शीलं विलुप्तं तेन एतानि वस्तूनि कृतानि ॥३॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) जाषाकाव्यः-अथ शीलको अधिकार ॥ सो श्रपजसको डंक बजावत, लावत कुलकलंक परधान॥सो चारितकौं देत जलांजलि, गुनवनका दावानल दान॥ सोशिवपंथके बार बनावत, श्रापत विपति मिलनको स्थान ॥ चिंतामनिसमान जग जो नर, सीलरतन निज करत मलान ॥ ३७॥ . वली पण शीलना गुणो कहे . व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदस्तेषां व्रति दयम्, कल्याणानिसमुल्लसंति विबुधाः सान्निध्यमध्यासते ॥ कीर्तिः स्फूर्ति मियर्ति यात्युपचयं धर्मः प्रणश्यत्यघम्, स्वनिर्वाणसुखानि संनिदधते ये शीलमाबिते ॥ ३७॥ अर्थः- (ये के०) जे मनुष्योने (शीलं के०) ब्रह्मचर्यने (आवित्रते के०) धारण करे . ( तेषां के० ) ते मनुष्योने (व्याघ्र के०) वाघ, (व्याल के०) मुष्टगज वा सर्प, (जल के०) नदी समुजादि, (श्रनलादि के० ) अग्नि श्रादिक जे (विपदः के०) विपत्तियो ने ते ( दयं के०) दय प्रत्ये (व्रति के० ) पामे ले. वली ते पुरुषोने ( कल्याणानि के) . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) कल्याणो ( समुखसंति के०) रुडे प्रकारे प्राप्त थाय बे. वली ते पुरुषोने ( विबुधाः के०) देवता (सान्निध्यं के०) संनिधिपणाप्रत्ये ( अध्यासते के० ) प्राप्त थाय बे, एटले तेनी देवता सहाय करे बे. वली ते पुरुषोनी (कीर्तिः के०) कीर्ति ते ( स्फूतिः के) विस्तारने (श्यर्ति के०) पामे बे. वली ते पुरुषोनो ( धर्मः के० ) धर्म ते ( उपचयं के ) पोषणने ( याति के०) पामे . वली ते पुरुषोनुं (अघं के ) पाप ते (प्रणश्यति के ) नाशने पामे . वली ते पुरुषोने ( स्वनिर्वाणसुखानि के०) खर्गमोक्षनां सुखो ( सन्निदधते के) समीप आवे बे. अर्थात् जे शीलने धारण करे , तेमने एटला वानां थाय ॥ ____टीकाः-शीलगुणानाह ॥ व्याघेति ॥ ये नराः शीलं ब्रह्मचर्य श्राबिव्रते धरंति तेषां पुंसां व्याघ्रव्यालजलानलादिविपदः क्षयं यांति व्याघ्रः प्रसिकः । व्यालो पुष्टगजः सर्पोवा । जलं पानीयं । नदी समुशादि । श्रनलो वन्हिस्तेषां विपदः कष्टानि । तैः कृताविपदः दयं ब्रजति दयं यांति । पुनः कल्याणानि श्रेयांसि समुखसंति वृहिं प्राप्नुवंति पु Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) नस्तेषां विबुधा देवाः सान्निध्यं श्रध्यासते साहाय्यं कुर्वति । पुनस्तेषां कीर्तिः स्फूर्ति श्यति विस्तारं याति । पुनस्तेषां धर्मो दानादिविधिरुपचयं पोषं याति। पुनस्तेषां श्रघं पापं प्रणश्यति नाशं याति । पुनस्तेषां स्वनिर्वाणसुखानि स्वर्गाऽपवर्गसुखानि संनिदधते समीपमायांति । ये शीलं श्रावित्रते तेषां एतानि नवंति ॥३०॥ नाषाकाव्यंः-रोडकबंद ॥कुल कलंक दल मिटै, पापदल पंक पखारै ॥ दारुन संकट हरै, जगत म. हिमा विस्तारै ॥ सरग मुगति पद रचै, सुकृत संचै करुनारसि ॥ सुर गृन वंदहि चरन, शील गुन कहत बनारसी ॥ ३० ॥ ॥मालिनीटत्तम् ॥ हरति कुलकलंकं पते पापपंकम्, सुकृतमुपचिनोति श्लाध्यतामातनोति।नमयति सुरवर्गदंतिउर्गोपसर्गम्, रचयतिशुचिशीलं स्वर्गमोदौ सलीलम्॥३॥ अर्थः-(शुचिशीलं के०) निर्मल एवं ब्रह्मवत ते (कुलकलंकं के० ) कुल, कलंक जे मलिनता तेने (हरति के०) नाश करे ले. वली (पापपंक के० ) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१एए) लोपि के०) पुष्ट गज पण (अश्वति के) अश्वतुल्य थाय . तथा (पर्वतोऽपि के) पर्वत पण ( उपलति के०) परसदृश थाय . अने ( दवेडोपि के०) विष पण (पीयूषति के०) अमृततुल्य थाय . तथा (विनोऽपि के) अंतराय पण एटले श्रापत्तियो पण (उत्सवति के०) उत्सव तुल्य थाय ने तथा (थरिरपि के०) शत्रु पण (प्रियति के०) प्रियसमान थाय . तथा (अपांनाथोपि के०) समुज पण (क्रीडातडागति के०) क्रीडाना तलावनी तुल्य थाय . (अटव्यपि के०) अरण्य पण (स्वगृहति के०) पोताना घरसमान थाय . अथोत् मनुष्यने शीलप्रनावथका पूर्वोक्त फुःख सर्व सुखरूप थाय ॥४०॥ श्रा ठेकाणे दृष्टांतमा सुदर्शनश्रेष्ठीनी तथा वंकचूलनी तथा रा. वणनी कथा जाणवी ते प्रसिङमाटें थाहिं लखीन. थी.श्रा थाउमो शीलनो प्रक्रम संपूर्ण थयो॥इति॥ टीकाः-पुनः शीलप्रजावात् इह लोकेपि कष्टानि यांतीत्याह ॥ तोयत्यनिरिति ॥ नृणां मनुष्याणां ध्रुवं निश्चितं शीलप्रजावात् अग्निरपि तोयति तोयमिवाचरति जलवत् शीतलं स्यात् । तथा अहिर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) पि सर्पोऽपि स्रजति । स्वक् श्व पुष्पमालेव श्राचरति। पुनः शीलप्रजावात व्याघ्रोऽपि सिंहोऽपि सारंगति सारंग श्व हरिण वाचरति। पुनर्व्यालोऽपि पुष्टग जोपि श्रश्वति अश्व श्वाचरति । विषमः पर्वतोऽपि उपलति उपलश्वाचरति सामान्यपाषाणश्वाचरति दवेडोपि विषमपि पीयूषति अमृतं नवति। विघ्नोप्यंतरायोपि थापदपि उत्सवति उत्सव श्वाचरति । विघ्नोप्युत्सव एव जवति । तथा अरिरपि शत्रुरपि प्रियति प्रियश्वाचरति । शत्रुरपि प्रिय एव जवति । तथा अपांनाथोऽपि समुखोऽपि की. डातडागति क्रीडातडागश्वाचरति खेल नसरोवरमिवाचरति । बटव्यपि अरण्यमपि स्वगृहति स्वगृ. हमिवाचरति । नृणां शीलप्रजावादेतानि वस्तूनि जवंति ॥ अत्र सुदर्शन श्रेष्ठिकथा १ वंक चूलकथा ५ रावणकथा ३॥४०॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्ष कीर्तितिः ॥सूरिनिर्विहितायांतु, शिलस्य प्रक्रमोजानि ॥ ॥ इत्यब्रह्मप्रक्रमः ॥७॥ जाषाकाव्यः-उप्पयचंद ॥ अगनि नीर सम हो. २. माल सम हो जुअंगम ॥ नाहर मृग सम होइ, कुटिल गज हो। तुरंगम ॥ विषपीयूष सम हो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०१) २, सिखर पाषान खंग मित ॥ विघन उलटि श्रानंद, होश रिपु पलटि हो हित ॥ लीला तलाव सम उदधि जल, गृह थटवी विकट ॥ इह विध श्रनेक उख होश सुख, शीलवंत नरके निकट ॥४०॥ हवे परिग्रहना दोषो कहे . कालुष्यं जनयन् जडस्य रचयन धर्मजुमोन्मूलनम, क्लिश्यन्नीतीकृपादमाकमलिनीर्लोनांबुधिं वर्धयन् ॥ मर्यादातटमुजुजन शुनमनोहंसप्रवासं दिशन, किंन क्वेशकरः परिग्रहनदीपूरः प्रएिं गतः॥४१॥ अर्थः-(परिग्रह के०) धन, देत्र, गृह, रूप्य, सुवर्ण, कृप्य, छिपद, चतुःपद, ए नवविध परिग्रहरूप जे (नदीपूरः के० ) नदीनो प्रवाह, ते (प्रवृकिंगतः के०) अति वृद्धिने पामतो तो (किं के०) (क्लेशकरः के० ) क्लेशने करवावालो (न के०) नथी थातो ? अर्थात् थायज . हवे परिग्रहने नदीना प्ररनी सादृश्यता कडेले. ते परिग्रहरूप नदीपूर शुं करतो तो वृद्धिंगत थाय ले ? तो के ( ज. डस्य के०) जडपुरुषोना ( कानुष्यं के०) क्लिष्ट Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) अध्यवसायने ( जनयन् के)उत्पन्न करतो तो - किंगत थाय बे. अने नदीनो पूर पण (जडस्य के० ) जलन ( कानुष्यं के) कलुषित पणाने (जनयन् के० ) उत्पन्न करे . “जडस्य" ए पदमा डकार , तेश्री जल एवो अर्थ न थाय, परंतु व्याकरणने नियमें करी डकारने लकारनुं ऐक्य ने तेथी थाय. वली (धर्म उमोन्मूलनं के०) धर्मरूप वृदनुं जे उन्मूलन तेने ( रचयन् के० ) करतो तो वृदिगत थाय अने नदीपूर पण पृथ्वीगत वृदोने उखेडी नाखतो बतो वृद्धिने पामे बे. वली (नीतिकपाक्षमा के०) न्याय, दया, अने दांति ते रूप (कमलिनीः के) कमलिनी जे तेने (क्विश्यन् के०) क्लेश पमाडतो बतो वृद्धि पामे . अने नदीनो पूर पण कमलिनीने पीडा पमाडे . वली (लोजांबुधिं के ) लोजरूप समुज्ने ( वर्डयन के० ) वधारतो बतो वृद्धि पामे , अने नदीनो पूर पण समुज्ने वधारनारो बे. वली (मर्यादातट के० ) धर्मरूप मर्यादानुं तट जे चारित्रादिक तेने ( उखुजन् के०) पीडा पमाडतो तो वृद्धि पामे बे, अने नदीनो पूर Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) पण वृद्धि पामतो उतो नदीना तटने पाडी नाखे बे. तथा ( शुजमनोहंसप्रवास के० ) धर्म ध्यानयुक्त जे मन, तेरूप हंस तेने परदेशगमनप्रत्यें (दिशन् के०) देतो तो वृद्धिपणाने पामे . अने नदीनोपूर पण हंसोने उमाडतो थको वृधिने पामे . माटें मू. रूप परिग्रह जे, तेनो सर्वजीवें त्याग करवो॥४१॥ टीकाः-श्रथ परिग्रहदोषमाह ॥ काबुष्यमिति । परिग्रहो धन धान्य क्षेत्र गृह रूप्य कुप्य छिपद चतुःपदानां संग्रहो मूळ स एव नदीपूरः । सरित्प्रवाहः प्रवृद्धिंगतः उपचयं प्राप्तः सन् किं क्लेशकरः कष्टदायी न स्यात् ? अपि तु स्यादेव । किं कुर्वन् जडस्य परिग्रहं संग्रहं कर्तुं मूर्खजनस्य कानुष्यं क्लिष्टाध्यवसायत्वं जनयन् उत्पादयन् । अन्योऽपि नदीपूरो वृक्षः सन् जलस्य पानीयस्य कानुष्यं जनयति । डलयोरैक्यं जडस्य जलस्य । पुनः किं कुर्वन् ? ध. म एव पुमो वृक्षस्तस्योन्मूलनं उत्पाटनं रचयन् कुर्वन् अन्योऽपि नदीपूरः प्रवृद्धो वृक्षाणां उत्पा. टनं करोति । पुनः किं कुर्वन् ? नीतीकृपाक्षमाका मलिनीः । नीतिया॑यः । कृपा दया। दमा दांतिः। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) ता एव कमलिन्यः ताः क्विश्यन् पीडयन् । अन्योपि नदीपूरः कमलिनीः पीडयति । पुनः किं कुर्वन् ? लोजांबुधिं वर्कयन् । लोजएव अंबुधिः समुनस्त यन् वृधिनयन् ॥ जहा लाहो तहा लोहो, लाहाबोहो पवई ॥ दोमासा कणयं कचं, कोडिएवि न नियट्टीयं ॥१॥ इति ॥ पुनः किं कुर्वन् ? धर्मस्य मर्यादा एव तटं चरण विधिरूपं तटं उषुजन् पीडयन् नंजयन् । श्रन्योऽपि नदीपूरः प्रवृक्षः सन् तटं पातयति । पुनः किं कुर्वन्? शुजमनोहंसप्रवासं दिशन् । शुनं धर्मध्यानसहितं यन्मनस्तदेव हंसस्तस्य प्रवास परदेशगमनं दिशन् श्रादिशन् । अन्योऽपिनदीपूरो हंसान् उमापयति। शो मूळप. रिग्रहः क्लेशकरः स्यात् ॥ ४१ ॥ नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा० ॥ अंतर मलिन हो नीज जीवन, विनसै धरम तरूवर मूल ॥ किसलयलता नीतिनलिनीवन, धरै लोन सागर तन थूल ॥ उवै वाद मरजाद मिटै सब, सुजन हंस नहिं पावहिं कूल ॥ बढत पूर पूरे मुख संकट, यह परिग्रह समता सम तूल ॥४१॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) वली पण परिग्रहना दोषो कहे . मालिनीटत्तम् ॥ कलहकलनविंध्यः क्रोधगृध्रश्मशानम्, व्यसनजुजगरंधं देषदस्युप्रदोषः ॥ सुकृतवनदवानिर्माईवांनोदवायु, नयनलिनतुषारोऽत्यर्थमर्थानुरागः ॥४२॥ अर्थः-(अत्यर्थ के०) अत्यंत (अर्थानुरागः के०) धननो अनिलाष जे जे, ते केदवो ? तो के (कलहकलन विध्यः के० ) क्लेशरूप जे बालहस्ती तेने रदेवाने मा. विंध्याचल जेवो बे. अर्थात् जेम बालहस्तीने क्रीडा करवानुं स्थानक विंध्याचल बे, तेम क्लेशने क्रीडा करवानुं स्थानक अर्थानुराग . वली कदेवो ? तो के ( क्रोधगृध्रश्मशानं के०) क्रोधरूप जे गिक पदीयो तेने रहेवाने श्मशानतुव्य, अर्थात् गिक पक्षीयो जेम श्मशानमा रहे बे, तेम क्रोध पण अर्थानुरागमा रहे . वली (व्यसनजुजगरंधं केc ) व्यसन जे कष्ट ते रूप जे सर्प तेना राफडा सरखो , अर्थात् जेम सर्पने रदेवानुं स्थानक राफडो , तेम कष्टने रहेवानुं स्थानक - Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६) व्यानुराग ले. वली (वेषदस्युप्रदोषः केप) शेषरूप चोरने चोरी माटे संध्यासमयसमान बे, अर्थात् जेम चोरनुं जोर संध्या समयमां वधे , तेम ज्यां अर्थानुराग होय त्यां द्वेषरूप चोरनूं जोर वधे .तथा ( सुकृतवनदवाग्निः के० ) सुकृत एटले पुण्य ते रूप जे वन, तेने वनवा श्रमिसमान,श्रर्थात् जेम वननो अग्नि वनने बाले ने तेम ए अर्थानुराग पण सुकृतने बाली नाखे बे, वली (मार्दवांजोदवायुः के०) मृ. कुपणारूप जे मेघ तेनेविषे वायुसमान बे अर्थातू वायुथकी जेम मेघ नाश पामे मे, तेम अर्थानुरागथकी मृत्व जे विनयपणुं ते नाश पामे . वली (नयनलिनतुषारः के०) न्यायरूप जे कमल तेने हिमसमान . अर्थात् कमलनो जेम हिम नाश करे बे, तेम न्यायनो नाश अर्थानुराग करे . माटें सर्व जीवें अत्यंत अर्थ एटले अव्य तेनी उपर अनुरागनो त्याग करवो ॥ ४ ॥ __टीकाः-नूयोपि परिग्रहदोषानाह ॥ कलदेति ॥ श्रत्यर्थं अर्थानुरागः। परिग्रहोपरि मूळरागः ईटशोऽस्ति । कथंजूतः ? कलहएव कलजो बालहस्ती Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०७) तस्य विंध्यो विंध्याचलः । यथा विंध्याचले कलजः क्रीडति तथाऽत्यर्थं श्रर्थानुरागे अव्यरागे कलहो जवति । तथा क्रोधगृध्रश्मशानं क्रोध एव गृध्रः पक्षिविशेषस्तस्य श्मशानं प्रेतवनं । गृध्रः श्मशाने रमते तयात्र क्रोधः। पुनः व्यसनमेव कष्टमेव नुजगः सप्र्पस्तस्य बिलं । पुनष एव दस्युश्चौरस्तस्य प्रदोषः संध्यासमयः प्रदोषे चौराणां बलं नवति तथा ।पुनः सुकृतमेव पुण्यमेव वनं तस्य दावाग्निर्दावानलः । पुनर्मादवांनोदवायुः माईवं मृफुत्वं कोमलत्वं तदेव अंजोदो मेघस्तत्र वायुः। पुनर्नयो न्याय एव नलिनं कमलं तत्र तुषारश्व तुषारो हिमं । अत्यर्थं अव्यानुरागो लोनः दृशोऽस्ति । अतो न कर्त्तव्यः ॥४॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ कलह गयंद उपजायवेको विधगिरि, कोप गिधके अघायवेकों सुमसान है ॥ संकट जुजंगके निवास करवेकों बिल, वैरजाव चोरकों महानिसा समान है। कोमल सुगुन धन खंम वेकों महा पौन, पुन्नवन दाहवेकों दावानल दान है॥नीति नय नीरज नसायवेकों हिमरासि, ऐसो परिग्रह रागःखको निधान है ॥४॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) वली पण परिग्रहना दोषो कहे . शार्दूलविक्रीडितत्तत्रयम् ॥ प्रत्यर्थी प्रशमस्य मित्रमधृतेर्मोदस्य विश्रामन्नुः, पापानां खनिरापदां पदमसध्यानस्य लीलावनम्॥ व्यादेपस्य निधिर्मदस्य सचिवः शोकस्य देतुः कलेः, केलीवेश्म परिग्रहः परिहतेयोग्योविविक्ता त्मनाम् ॥४३ ॥ अर्थः-(विविक्तात्मनां के०) विवेकवान पुरुषोने (परिग्रहः के०) परिग्रह जे , ते (परिहतेः के०) परिहार करवाने ( योग्यः के०) योग्य . अर्थात् विवेकी जनोयें परिग्रहनो त्याग करवो. ते परिग्रह केहवो ? तो के (प्रशमस्य के०) उपशमने (प्र. त्यर्थी के० ) शत्रुसमान ने. वली (अधृतेः के०) असंतोषने (मित्रं के०) मित्र समान . वली (मो. हस्य के० ) मूढनुं एटले मोहनीयकर्मनु ( विश्रामनूः के०) विश्रांति स्थानक एटले मोहने रहेवार्नु विश्रामस्थानक . तथा वली (पापानां के०) श्रशुजकर्मोनी (खनीः के०) खाण . वली (थापा के ) आपत्तियो- ( पदं के०) स्थानक . वली Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०ए) (सध्यानस्य के०) आर्त्तरौअध्याननुं (लीलावनं के०) क्रीडावन ले. वली (व्यादेपस्य के०) व्याकुलपणानो (निधिः के) नंमार .वली (मदस्य के०) अहंका रनो (सचिवः के०) मंत्री बे. वली ( शोकस्य के०) शोक( हेतुः के० ) कारण बे. वली ( कलेः के०) कलह जे जे तेनुं (केलीवेश्म के०) क्रीडागृह बे. मा. टें परिग्रहनो त्याग करवो ॥४३॥ __टीकाः-पुनः परिग्रहदोषमाह ॥ जो नव्याः ! अयं परिग्रहो मूाधिक्यं विविक्तात्मनां विवेकवतां पुंसां परित्दतेः परिहारस्य योग्यः। परिग्रहः कीहशः ? प्रशमस्योपशमस्य प्रत्यर्थी शत्रुः । पुनः अधृ. तेः असंतोषस्य मित्रं सुहृत् । पुन र्मोहस्य मूढस्य मोहनीयकर्मस्यैव विश्रामस्थानं । पुनः पापानां श्रशुनकर्मणां खनिः खानिः । पुनरापदां कष्टानां पदं थास्पदं । पुनरसध्यानस्य श्रातरौप्रध्यानस्य लीलावन कीडावन । पुनव्यादेपस्य व्याकुलत्वस्य निधिर्निधानं । पुनर्मदस्याऽहंकारस्य सचिवो मंत्री। पुनः शोकस्य हेतुः कारणं । पुनः कलेः कलहस्य केलीवेश्म क्रीडगृहमित्यर्थः ॥४३॥ नाषाकाव्यः-वृत्त ऊपरप्रमाणे॥प्रसमको अहित .१४ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) अधीरजको बाल मित्त, माहामोहराजकी प्रसिद्ध राजधानी है ॥ जमको निधान पुरध्यानको विला. सवन, विपत्तिको थान अनिमानकी निसानी है॥ पुरितको खेत रोग सोग उतपति देत, कलह निकेत उरगतिको निदानी है ॥ ऐसो परिग्रह लोग सबनको त्याग जोग, श्रातमगवेषी लोग याकीनांति जानी है ॥४३॥ वली पण परिग्रहना त्यागने कहे . वन्हिस्तृप्यति धनैरिद यथा नांनोनिरंजोनिधि,स्तन्मोदघनो घनैरपिधनैर्जतुर्न संतुष्यति।न त्वेवं मनुते विमुच्य विनवं निः शेषमन्यं नवम्, यात्यात्मा तदहं मुधैव विदधाम्येनांसि नूयांसि किम् ॥४४॥ अर्थः-( वन्दिः के० ) अग्नि, ( श्ह के० ) श्रालोकने विषे ( यथा के०) जेम (घनैरपि के) घ. णा एवां पण (इंधनैः के०) काष्टोयें करीने (न के ) नहि ( तृप्यति के० ) तृप्ति पामे बे. वली (अंजोनिः के ) जलोयें करीने (अंजोनिधिः के०) समुज जेम ( न के) नथी तृप्ति पामतो (तछ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) त् के० ) तेनी पेठे (जंतुः केय) जीव, (घनैरपि के०) घणा एवा पण (धनैः के०) धनें करीने (न के०) नहि ( संतुष्यति के०) संतुष्ट थायडे. ते प्राणी केहवो ? तो के (मोहघनः के०) मोहें करी व्याप्त जे. (तु के०) वली ते जीव ( एवं के०) ए प्रकारें (नमनुते के०) नथी मानतो के (श्रात्मा के०) जे जीव , ते (निःशेषं के०) समस्त (विनवं के०) अव्यने ( विमुच्य के०) मूकीने ( अन्यं के०) बीजा (नवं के० ) जन्मने ( याति के) पामे डे (तत् के०) ते कारणमाटे ( अहं के०) हुँ (मु. धैव के०) वृथाज (नूयांसि के ) घणांक ( एनांसि के० ) पापोने (किं के ) शामाटे ( विदधामि के ) करुं हुं ? एम प्राणी जाणतो नथी, माटें परिग्रहनो त्याग करवो. अहिंनंदराजा तथा सुम्मपनी कथानो दृष्टांत जाणवो ॥४४॥ ___टीकाः-वन्हिरिति ॥ यथा वन्दिरग्निः घनैरपि इंधनैः समिनिन तृप्यति न तृप्तिं याति । पुनर्यथा अंजोनिधिः समुजः अंजोनिर्जलैः कृत्वा न तृप्यति । तत् यो जंतुः प्राणी कदाचित् घनैरपि बहुनिर्धनैव्यैः कृत्वा न संतुष्यति कथंजूतो जंतुः? Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) मोहेन घनो निबिडः । तु पुनः जंतुः एवं न मनुते न जानाति । यदयं आत्मा जीवो निःशेषं समस्तं विनवं व्यं विमुच्य त्यक्त्वा अन्यं नवं अपरं जन्म परनवं याति । तत्तस्मात् कारणात् अहं मुधैव वृथैव नूयांसि प्रचुराणि एनांसि पापानि किमर्थं विदधामि करोमि ? एवं न जानाति ॥ ४ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, प्रक्रमोयं परिग्रहे ॥ए॥ इति परिग्रहप्रक्रमः॥ए॥त्र नंदराज मम्मणकथा ॥ नाषाकाव्यः-उप्पय बंद ॥ ज्यौं नहिं अगनि श्रघाय, पाय इंधन अनेक विधि ॥ ज्यौं सरिता घ. ननीर. तृपति नहिं होय नीरनिधि ॥ त्यों असंख धन बढत, मूढ संतोष न मानै ॥ पाप करत नहिं मरहिं, बंध कारन मन आनै॥परतरक विलोकी जनम मरन, अथिर रूप संसार क्रम॥समुफै न पाप परताप गुन, प्रगट बनारसि मोहबम ॥ ४ ॥ __कथाः-मगधदेशे राजगृहीनगरीमां श्रेणिकराजा ने तेनी चेलणा नामें राणी बे. एकदा प्रस्तावें जा. उपद मासे चेलणा राणी राजानी साथे गोखमां बेगं थकां वैजारगिरि साहामुं जोवा लाग्यां. ति HDMOMDISORIOR Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) हां अनेक निर्डरणां वहे , गम गम दर वर थइ रह्या बे, बप्पैया बोली रह्या बे, मोर नृत्य करे बे, पाणीना प्रवाह वहेता नदीमां समाता नथी. ए श्रवसरें कोइ एक पुरुषने नदीप्रवाहनी मांथी महोटी महेनतें काष्ठ काढतां चेलणायें दीगे, तेथी मनमां विषाद करती राजा प्रत्ये बोली के हे खामी ॥ नरियाने सहु को जरे, वूगं वरसे मेह ॥ सधन सनेहा सहु करे, निर्धन दाखे बेह ॥१॥ए उखाणो जे जगमां कहेवाय , ते साचो बे. राजायें पूज्यु के केम ? तेवारें राणीयें कडं के हे स्वामी! ए एक दरिखी पुरुष के तेने उदर जरवं दोहे . एणे परनवें पुण्य कां नथी माटें तमें सर्वने दान थापो जो पण एवा फुःखीने कां देता नथी ? तेवारें राजायें सेवक मोकली तेने तेडाव्यो, ते पण श्रावी नमस्कार करी उन्नो रह्यो. राजायें कडं के हे पुरुष ! तुं फुःखित थको काष्ठ कापे , माटें कुःख नही जोगव. तुऊने जोश्ये ते हुं श्रापुं. तेणें कडं के स्वामी ! हुँ मम्मणनामें वाणीयो बुं, मुजने बे बलद जोश्य बैयें. तेमां एक तो मेलव्यो ने पण बीजाने मेलववा माटें उद्यम करुं बुं. राजायें Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) कयुं के मारे घरे हजारो बलद बे, तेमां जे सारो होय, ते तुं ले. वणिक बोल्यो के महारा बलदी या अन्य जातिना बे, तमारा तेंदवा नथी. (अने मने तो महारा बलद जेवोज बलद जोइयें ! ते सांजली तेना बलदने जोवा माटे राजा ते वणिकने घेर श्राव्यो, घरमां अत्यंत रुद्धि दीवी, तथा सुवर्णमय रत्ने जडित एक बलद पण दीगे.) ते जोइ राजा विस्मयने पाम्यो अने ते सर्व समाचार राणीने जइ कह्या. चिaur uu तिहां बलद जोवा सारु यावी, बलद देखीने मम्मण प्रत्यें बोली. एवा लाकडां कापवाथी तहारे एवो वृषन केम प्राप्त थाशे ? ते बोल्यो के एवा वृषजने कार्थे में समुद्र मांडे प्रवहण पूरयां बे, ते परदेशमां ए लाकडां वेचीने तेनां नाणानां रत्न लइ आवशे. तेवारें वृषन नीपजशे. ए काष्ठ जे बे, ते बावनाचंदन बे, एनो मर्म जे परीक्षक होय, तेज जाणे. हुं पण बीजा कोइने शीखवतो नथी. पी राजा राणी तेना लोजनो विचार देखी विषाद धरतां पावां घेर श्राव्यां. दवे ते मम्मण शेव अतिलोजना वशयक र्त्तध्यान धरतो विपत्ति पामतो अपूर्ण मनोरथेंज मरण पामी तिर्यंचादिकने विषे Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) घणा घणा जव पर्यंत जम्यो. एम जाणी नविकजीवें परिग्रहनी विरति करवी ॥ इति परिग्रहविषे मम्मण कथा समाप्ता ॥४४॥ हवे क्रोधजयने माटें उपदेश कहे . यो मित्रंमधुनो विकारकरणे संत्राससंपादने, सर्पस्य प्रतिबिंबमंगददने सप्तार्चिषः सोदरः ॥ चैतन्यस्य निषूदने विषतरोः सबह्मचारी चिरं, स, क्रोधः कुशलानिलाषकुशखैः प्रोन्मूलमुन्मूल्यताम् ॥४५॥ अर्थः- हे लोको ! (कुशलाजिलाषकुशलैः के०) पोताना जीवना श्रेयनी वांगमां चतर एवा परुषोयें (सः के०) ते (क्रोधः के०) क्रोध, (प्रोन्मूलं के०) समूलथीज जेम होय तेम (उन्मूस्यता के०) उन्छेदन करवो, ते क्रोध केहवो ? तो के (यः के०) जे क्रोध, (विकारकरणे के०)चित्तादिने विकारना करवामां (मधुनः के०) मद्यनो (मित्रं के०) मित्र. वलीजे क्रोध, (संत्राससंपादने के०) संत्रास मेलववामांएटले नय उत्पन्न करवामां (सर्पस्य के०) सर्पनो ( प्रतिबिंब के० ) प्रतिबिंबरूप अथवा Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) सर्पसमान बे. वली जे क्रोध, ( अंगददने के० ) शरीर दहनमां ( सप्तार्चिषः के० ) श्रग्निनो ( सोदरः के० ) जाता बे. वली जे क्रोध, ( चैतन्यस्य के० ) ज्ञानना (निषूदने के० ) नाश करवामां ( चिरं के० ) अतिशयपणायें करी ( विषतरोः के० ) विषवृनो ( सब्रह्मचारी के० ) साधर्मिक बे. अर्थात् ज्ञानंना नाश करवाने विषे विष समान बे. माटें ते कोनो त्याग करवो ॥ ४५ ॥ टीका:- क्रोधजयार्थमुपदेशमाह ॥ यो मित्रमिति ॥ जो लोकाः ! कुशला जिलाषकुशलैः श्रात्मनः श्रेयोवांछाचतुरैर्नरैः सः क्रोधः कोपो निर्मूलं समूलं यथास्यात्तथा उन्मूल्यतां उठिद्यतां । सः कः ? यः क्रोधः विकारकरणे चित्ता दिविकार विधाने म धुनो मद्यस्य मित्रं सुहृत् । पुनर्यः क्रोधः संत्राससंपादने जय जनने सर्पस्य प्रतिबिंबं सर्पसदृशं । पुनर्यः क्रोधोऽगदहने शरीरप्रज्वालने सप्तार्चिषोनेः सोदरः श्रता । पुनर्यः क्रोधश्चैतन्यस्य ज्ञानस्य निषूदने नाशने विषतरोर्विषवृक्षस्य चिरमतिशयेन सब्रह्मचारी सार्थी ॥ ४५ ॥ भाषाकाव्यः - गीताचंद ॥ मात्रा बबीश ॥ जो Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) सुजन चित्त विकार कारन, मनहुँ मदिरा पान ॥ जो नरम जय चिंता बढावन, असित सरप समान ॥ जो जंतुजीवन हरन, विषसम, जग दहन दवदान ॥ सो कोपरासि विनासि नवि जन, लहत शिवसुख थान ॥ ४५ ॥ वली पण क्रोधजयने माटें कहे . ॥ हरिणीरत्तम् ॥ फलति कलितश्रेयः श्रेणिप्रसूनपरंपरः, प्रशमपयसा सिक्तो मुक्तिं तपश्चरणमः॥ यदि पुनरसौ प्रत्यासत्ति प्रकोपदविर्जुजो, नजति बनते नस्मीनावं तदा विफलोदयः॥४६॥ अर्थः-( तपश्चरणामः के० ) तप चारित्ररूप जे वृद ते (मुक्ति के) मोदने (फलति के० ) निष्पादन करे. ते केहवो वृद बे? तो के (कलित श्रेयः श्रेणिप्रसूनपरंपरः के०) उत्पन्न करी जाणे कल्याणनीज पंक्ति होय नही तेम पुष्पनी पंक्ति जेणे. वली ते वृक्ष केहवो ? तो के (प्रशमपयसा के०) उपशमरूपजलें करी ( सिक्तः के०) सिंचेलो . तो पण (पुनः के०) वली (असौ के०) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) एवृक्ष, ( यदि के० ) जो (प्रकोपहविर्जुजः के०) प्रकोपामिनी (प्रत्यासत्ति के० ) समीपताने ( जजति के) श्राश्रय करे . ( तदा के० ) तो ( जस्मीनावं के) जस्मनावने ( लनते के०) प्राप्त थाय बे. ते केहवो तो प्राप्त थाय ? तो के ( विफलो दयः के ) गयो जे फलनो उदय जे थकी अर्थात् फलोदय रहित बतो जस्म नावने प्राप्त थाय . माटें क्रोधनो त्याग करवो ॥४६॥ ____टीकाः-फलतीति॥ तपश्चारित्ररूप एव पुमो वृक्षः मुक्तिं मोदं फलति निष्पादयति । कथंनूतः ? कलिताश्रेयःश्रेणिप्रसूनपरंपरः। कलिता उत्पादिता श्रेयसा पुण्याना कल्याणानां श्रेणिः राजिरेव प्रसूनानां पुष्पाणां परंपरा पंक्तिर्येन सः। पुनः कथंनू तः? प्रशमपयसा उपशम एव जलं तेन सिक्तः सेकं प्रापितः यदि पुनः परंतु असौ तपश्चरणयुमः प्रको पहविर्जुजः क्रोधवन्देः प्रत्यासत्तिं समीपं नजति श्राश्रयति, तदा जस्मीनावं जस्मरूपतां लजते प्रा. नोति । कथं नूतः ? विफलोदयः। विगतः फलस्य उदयो यस्मात् फलोदयरहितः॥४६ ॥ जाषाकाव्यः- कवित्त मात्रा ॥ जब मुनि कोश Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) बोइतप तरुवर, उपसम जल सींचत चित्त खेत ॥ उदित ज्ञान साखा गुन पल्लव, मंगल पुप मुगति फल देत ॥ तव तहिं कोप दावानल उपजत, महा मोद दल पवन समेत ॥ सो जसमंत करत बिन अंतर, दाहत विरख सहित मुनिचेत ॥ ४६ ॥ शार्दूलविक्रीडितवृत्तप्रयम् ॥ संतापं तनुते भिनत्ति विनयं सौहार्द्दमुत्सादय, त्युद्वेगंजनयत्यवद्यवचनं सूते विधत्ते कलम् ॥ कीर्तिकृंत तिडुर्मतिं वितरति व्यादंति पुण्योदयम्, दत्ते यः कुगतिं स दातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ॥ ४७ ॥ अर्थः - ( सः के० ) ते ( रोष के० ) क्रोध, (सतां के० ) सत्पुरुषोने ( हातुं के० ) त्यागवाने ( उचितः के० ) योग्य बे. ए केदवो क्रोध बे ? तो के ( यः के० ) जे रोष, ( सदोषः के० ) अनेक दोषोयें सहित बे तथा ( संतापं के० ) चित्तोद्वेगने ( तनुते के० ) विस्तारे बे, वली ( विनयं के० ) विनयगुणने ( जिनत्ति के० ) नेदे बे. वली ( सौहा ६ के० ) मित्रजावने ( उत्सादयति के० ) विनाश Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) करे , वली उठेगं के०) उगने (जन यति के०) उत्पन्न करे . वली (अवद्यवचनं के) असत्यवचनने (सूते के०) उत्पन्न करे .वली (कलिं के०) कलहने ( विधत्ते के० ) धारण करे . वली (कीति के ) यशने (कृतति के०) बेदे . वली (. मैतिं के० ) पुष्टबुद्धिने ( वितरति के) विस्तारे . वली (पुण्यो दयं के०) धर्मना उदयने (व्याहंति के ) विनाश करे , वली (कुगतिं के०) नरकतिर्यग्गतिने ( दत्ते के० ) श्रापे . माटें ते क्रोध सजानें त्याग करवा योग्य ॥४७॥ ___टीकाः-पुनःक्रोधस्य दोषमाद॥संतापमिति॥स रोषः क्रोधः सतां सत्पुरुषाणां हातुं त्यक्तुं उचितो योग्योस्ति । कथंनूतः रोषः ? सदोषः अनेक दोषैः सहितः । सः कः ? यो रोषः संतापं चित्तोरेगं तनुते विस्तारयति । पुनर्योरोषो विनयं विनयगुणं निनत्ति विदारयति विनाशयति । पुनर्यः सौहाई मिजनावं उत्सादयति विनाशयति । पुनर्यः उठेगं उ. चाटं जनयति । पुनर्यःश्रवद्यवचनं असत्यवचनं सूते उत्पादयि । पुनर्यः कलिं कलहं विधत्ते करोति । पुनर्योरोषः कीर्तिर्यशः कृतति बिनत्ति । पुनर्योऽर्म Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) तिं पुष्टबुकिं वितरति दत्ते । पुनर्यो पुण्योदयं धर्मस्य उदयं व्याहंति विनाशयति । पुनर्यः कुगतिं नरकतिर्यग्गतिं दत्ते।स रोषः सतां हातुं उचितः॥४॥ जाषाकाव्यः-वस्तुबंद ॥ कलह मंमन कलह मंमन करन उदवेग, जस खंमन हित हरन पुःख विलाप संताप साधन ॥ पुरवैन समुच्चरन धरम पुन मारग विराधन ॥ विनय दमन उरगति गमन, कुमति हरन गुन लोप ॥ ए सब लबन जानि मुनि, तजहिं ततबन कोप ॥ ४ ॥ वली पण क्रोधना दोषो कहे . योधर्म ददति बुमं दवश्वोन्मथ्नाति नीतिं लताम् ॥ दंती वेंकलां विधुंतुदश्व क्लिनाति कीर्ति नृणाम् ॥ स्वार्थ वायुरिवांबुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदम्, तृष्णां घर्मश्वोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम्॥ ४ ॥ अर्थः-(सः के०) ते (कोपः के०) क्रोध, (कथं के०) कये उपायें करी टालवाने (चितः के०) योग्य ? अर्थात् कोश् उपायथी टालवा लायक नथी. (यः के०) जे कोप (धमं के०) धर्मनें (द Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) हति के) जस्म करे ने केनी पेठे ? तोके (पुमं के०) वृक्षने (दवश्व के०) दावानल जे तेज जेम. अर्थात् जेम दावानल वृदने बाले ले तेम. वली (नीति के०)न्यायने (उन्मथ्नाति के०)उन्मूलन करे . केनी पेठे ? तो के (दंती के०) इस्ती (खतामिव के)लतानेज जेम. अंर्थात् हाथी जेम लताने उखेडी नाखे ने तेम. वली जे क्रोध (नृणां के०) मनुष्योनी (की ति के) कीर्तिनें (लिभाति के) क्वेश पमाडे बे. अर्थात् कीर्त्तिनो नाश करे . केनी पेठे ? तो के (विधुतुदः के०) राद्ध, (इंफुकलामिव के०.) चंडकलानेज जेम. वली जे क्रोध, (स्वार्थ के०) खार्थने ( विघटयति के०) नाश करे , केनी पवें? तो के (वायुः के०) वायु जे डे, ते (अंबुदमिव के) मेघनेज जेम. वली जे क्रोध, (आपदं के) कष्टने (उदासयति के०) विस्तारे . केनी पेठे ? तो के (धर्मः के०) गरमी, (तृष्णामिव के०) तृ. षानेज जेम, अर्थात् जेम तापमां तृषा वधे जे तेम. वली ते कोप केहवो . ? तो के (कृतकृपालोपः के०) कस्यो डे कृपानो नाश जेणे एवो ॥ ४ ॥ क्रोधप्रक्रम संपूर्ण ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३) टीकाः-यो धर्म मिति ॥ सः कोपः क्रोधः कथं केनोपायेनोचितोयोग्यः स्यात् ? अपि तु न कथमप्युचितः। सः कः ? यः कोपोधर्म श्रेयोदहति नस्मीकरोति । कः कमिव ? दवो दावानलो मुममिव । यथा दावानलोयुमं वृदं दहति । पुनर्योनीति न्यायं उन्मथ्नाति उन्मूलयति । कः कामिव ? दंती हस्ती लतामिव । यथा इस्ती लतामुन्मूलयति । नृणां मनुष्याणां कीर्ति विनाति पीडयति गमयति। कः कामिव ? विधुंतुदो राहुरिंउकलां चं लेखामिव । पुनर्यो रोषः स्वार्थं विघटयति स्फेटयति । कः कमिव ? वायुरंबुदमिव । यथा वायुर्मेघ विघटयति । पुनर्यः। श्रापदं कष्टं उदासयति विस्तारयति । कः कामिव ? धर्मः ग्रीष्मः तृष्णामिव । यथातपे स्तृषां वयति । कथंनूतः कोपः ? कृतः कृपायाः लोपो विनाशो येन सः॥४७॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥सूरिनिर्विहितायां तु,क्रोधस्य प्रक्रमोऽजनि ॥ १०॥ इति दशम क्रोधप्रक्रमः ॥१॥ नाषाकाव्यः-उप्पयछंद ॥ कोप धर्म धन दहै, अगनि जिम विरख विनासै ॥ कोप सुजस श्रावर, राहु जिम चंद गिरासै ॥ कोप नीति दलमलै, नाग Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) जिम लता विहं ॥ कोप काज सब हरै, पवन जिम जलधर खं ॥ संचरत कोप दुख उपजै, बढै तृषा जिम धूपमहं ॥ करुना विलोप गुन गोप जुत, कोप निसिद्ध महंत कह ॥ ४८ ॥ कथा : - क्रोधत्याग उपर गजसुकुमारनी कथा ॥ सौराष्ट्रदेशें द्वारिका नगरी बे, तिहां कृष्णवासुदेव राज्य करे बे. एकदा देवकीजीयें गवादें बेठां थकां कोइ स्त्रीने पोताना बालकने रमाडती दीवी, ते जोइनें मनमां चिंतव्युं जे मुऊने पुत्र होय तो हुं पण दुलराखुं ? एम धारी चिंतातुर थर रही. तिहां श्रीकृष्ण चिंतानुं कारण पूब्युं देवकीजीयें बलात्कारथी पोतानुं लिषित कयुं. पढी माताने संतोषी पोषधशालायें यावी श्रम तप करी हरणीगमेषी देवता आराध्यो, ते प्रसन्न थइने कड़ेवा लाग्यो के तमारी माताने पुत्र थाशे, पण ते यौवनावस्थामां दीक्षा लेशे पछी देवप्रजावें नवमासें देवकीजीने पुत्र थयो, गजसुकुमार नाम दीधुं. अनुक्रमें सकलकला जाण्यो, यौवनावस्था पाम्यो, सोमिल ब्राह्मणनी पुत्री परण्यो, एवामां श्रीनेमिनाथ समोसख्या, तेमनी पासेंथी उपदेश सांजली माताने स- · Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) मजावी दीक्षा लीधी. विविध शिक्षा पामीने प्रजुने पूज्यु के महाराज ! शीघ्र मोक्ष आपो. प्रजु बोदया के स्मशानमां काउस्सग्ग करीयें, दमाथी उपसर्ग सहन करीयें, तो तरत मोदप्राप्ति थाय, ते सांगली प्रजुनी श्राझा मागी मसाणमां जश् काउस्सग्ग कस्यो, तेवारें गामथी श्रावतां सोमिल ब्राह्मणे जमाश्ने दीगे. के तरत क्रोध उपनो जे एणे महारी पुत्रीने कुःखी करी तो हुँ पण एने फुःखी करूं ? एम विचारी रीशथी मस्तक सूधी माटीनी पाल बांधी, मांहे खेरना अंगारा जया. गजसुकुमारें चिंतव्युं के ए महारो उपकारी थयो , एना उपसर्गश्री महारां कर्म य थशे ? एम निश्चल ध्यान धरी केवलज्ञान पामी मोदें गयो. प्रजाते श्रीकृष्ण जगवानने पूज्युं के महारो लघुबंधव क्यां ले ? ते कहो. नगवाने सर्व वृत्तांत कह्यं तेवारें श्रीकृष्णे पूज्यु के मारनार कोण जे ? जगवाने कडं के हमणां मार्गे जातां तुऊने देखशे के तरत तेनुं हदय फाटी जाशे अने मरण पामशे ! श्रीकृष्ण पण नगवानने वांदी पाबा वल्या अने मार्गमा तेमज दीकुं, तेवारें मनमा खेद पाम्या. ए रीतें गजसुकु Happaciww w peerson Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) मार क्रोध जीतवाथी मोदे गयो. अने सोमिल ब्राह्मण मरी उर्गतियें गयो. ए माटें क्रोधनो जय करवो॥इति क्रोध जयोपरि गजसुकुमारकथा ॥३॥ हवे अहंकारना दोषो कहे . ॥ मंदाक्रांताटत्तम् ॥ यस्मादाविनवति विततिठस्तरापन्नदीनाम, यस्मिन् शिष्टानिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ॥ यश्च व्याप्तं वदति वधधीधूम्यया क्रोधदावम, तं मानाहिं परिदर उरारोदमौचित्यत्तेः ॥४ए॥ अर्थः-हे जव्य प्राणी ! (औचित्यवृत्तेः के०) उचित श्राचरण करवाथी, अर्थात् योग्यविनय करवाथी ( तं के० ) ते ( मानाहिं के० ) अहंकाररूप पर्वतने (परिहर के० ) त्याग कर. ते मानाति ए. टले मानरूप पर्वत कहेवो में ? तो के ( यस्मात् के) जेथकी (पुस्तरा के० ) न तराय एवी (श्रापन्नदीनां के०) विपत्तिरूप नदीनी ( विततिः के०) पंक्ति, ते (आविर्जवति के०) प्रगट थाय बे. जेम बीजा पर्वतोथकी पण नदीनी श्रेणि उत्पन्न थाय दे तेम. वली ( यस्मिन् के० ) जे मानरूप पर्वतने Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) विषे ( शिष्टानि रुचित गुणग्रामनामापि के० ) उतम पुरुषोने प्रीतिदायक एवा जे ज्ञानादिक गुणो अथवा श्रदार्यादिक जे गुणो तेनो जे समूह, तेनुं जेमां नाम पण ( नास्ति के० ) नथी. ( च के० ) वली ( यः के० ) जे मानाद्रि, ( क्रोधदावं के० ) क्रोधरूप दावानलने ( वहति के० ) वहन करे बे. ते कोधदावानल केदवो बे ? तो के ( वधधीधूम्यया के० ) हिंसाबुद्धिरूप धूमें करीने ( व्याप्तं ho ) व्याप्त बे. वली ( पुरारोहं के० ) उपर चडवाने शक्य अर्थात् जेनो पार पासवाने पण अ शक्य थवाय बे. अथवा बीजो अर्थ करवो. ते जेम के ( श्रौचित्य वृत्तेः के० ) उचिताचरण करनारने (डुरारोहं के०) ते मानाद्रि चडवाने अशक्य बे. - त् उचिताचरण करनारने मानाडिनो अजाव बे॥४९॥ टीका:- मानस्य अहंकारस्य दोषानाह ॥ यस्मादिति । जो जव्यप्राणिन ! श्रौचित्यवृत्तेः उचिताचारकरणात् । तद्योग्य विनय विधानात् तं मानाद्रिं मानएव अहंकारएव श्रस्तिं अहंकारपर्व्वतं परिहर । त्यज मुंच । तं कं ? यस्मान्मानाईस्तरा तरीतुं अशक्या । श्रापन्नदीनां क Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२ ) ष्टरूपनदीनां विततिः श्रेणिराविनवति प्रकटीनवति। अन्यस्मादप्य नदीविततिः प्राऽवति। तथा यस्मिन्मानासौ शिष्टानिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति । शिष्टानां उत्तमानां अनिरुचिताः प्रीतिदायिनोये गुणा ज्ञानादयः औदार्यादयो वा तेषां ग्रामः समूहस्तस्य नामापि नास्ति । गुणानां लवलेशोपि न । पुनर्यो मानाडिः क्रोधदावं क्रोधदावानलं वदति धत्ते सः । कथंचूतं क्रोधदावं ? वधधीधूम्य या व्यातं हिंसाबुधिधूमसमूहेनालीढं । पुनः कथंभूतं को. धदावं ? मुरारोहं आरोढुमशक्यं । अथवा औचित्यवृत्तेः योग्यवृत्तेः पुरारोहं ॥ ४ ॥ जाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा ॥ जातें निकसि विपति सरिता सब, जगमें फैलि रही चिहुं और॥ जाके ढिग गुन गाम नाम नहिं, माया कुमति गुफा अति घोर ॥ जह वध बुद्धिधूमरेखा सम, उदित कोप दावानल जोर॥ सो अनिमान पहार पटंतर, तजत तांहि सर्वज्ञ किसोर ॥ ४ ॥ शिखरिणीत्तिम् ॥ शमालानं जन् विमलमतिनाडीविघटयन् , किरन अर्ध्वाक्पांशू Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) करमगणयन्नागमणिम् ॥ ब्रमन्ना स्वैरं विनयनयवीथीं विदलयन्, जनः कं नानर्थ जनयति मदांधोधिपश्व ॥ ५० ॥ अर्थः- ( मदांधः के० ) अहंकारें करी गयां डे जावरूप नेत्र जेनां एवो ( जनः के०) प्राणी ( के के) कया (अनर्थ के० ) अनर्थने ( नजनयति के० ) नथी उत्पन्न करतो ? अर्थात् सर्व अनर्थने उत्पन्न करे . केनी पेठे ? तो के (बीपश्व के० ) मदोन्मत्त हाबीज जेम. शुं करतो तो अनर्थने उत्पन्न करे ले ? तो के ( शमालानं के) शमतारूपालान एटले गजबंधन स्तंज तेने (नंजन् के०) जांजतो बतो. वली शुं करतो तो? तो के ( विमलमतिनाडी के०) निर्मलबुद्धि रूप नाडि जे बंधनरा तेने ( विघटयन् के०) तोडतो बतो, वली (उर्वापांशूत्करं के० ) पुर्वचनरूप जे धूड तेना जे समूह तेने ( किरन् के०) विदेपण करतो बतो. वती (भागमणिं के) सिहांत रूप अंकुशने (श्रगणयन् के०) न गणो तो बतो वली (ऊर्ध्या के०) पृ. थ्वीने विषे (स्वैरं के०) स्वेचायें करी (भ्रमन् के०) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) जमतो बतो, वली ( विनयनयवीथीं के०) विनयरूप न्यायश्रेणि तेने ( विदलयन् के०) विनाश करतो तो अनर्थने उत्पन्न करे . अर्थात् जेम श्रहंकार मदांध पुरुष उपर कदेली वात करतो तो अनर्थ उत्पन्न करे , तेम मदांध हाथी पण एटली वस्तु उत्पन्न करतो तो अनर्थने करे ने ॥५०॥ टीका:-नूयोऽपि मानदोषानाह ॥ शमालानमिति ॥ मदेन अहंकारेण अंधो गतनावेक्षणो जनः कं कं अनर्थं न जनयति नोत्पादयति ? अपि तुसवं अनर्थ जनयति । क श्व ? हिप श्व । मत्तगज श्व । यथा मदांधो हिपोऽनर्थ उपवं जनयति । किं कुर्वन् ? शमालानं नजन् शमएव उपशम एवालानः गजबंधनस्तंजस्तं जंजन् उन्मूलयन् । पुनः किं कुर्वन् ? विमल मतिनाडी निर्मलबुझिमेव नाडी बंधनरहुं विघट्टयन् त्रोटयन् । पुनः किं कुर्वन् पुर्वाक् पांशूत्करं कुर्वागेव पुर्वचनमेव पांशुधूलिस्तस्याः उत्करं समूहं किरन् विक्षिपन् । पुनः श्रागमएव सिझांतएव शृणिः अकुशस्तं श्रगणयन् । अविचारयन् अवमानयन् । ऊर्ध्या पृथ्व्यां स्वैरं स्वेबया भ्रमन् विचरन् । पुनर्विनयनयवीथीं। विनय Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) एव नयवीथीः न्यायश्रेणिस्तं विदलयन् विध्वंसयन् अन्योऽपि मदांधोहस्ती एतानि वस्तूनि करोति॥५॥ नाषाकाव्यः-रोडकबंद ॥ नंजै उपसम थंज, सुमति जंजीर विहंमै ॥ कुवचन रज संग्रहै, विनय वन पंकति खंडै ॥ जगमें फिरै सुबंद, वेद अंकुश नहिं मान ॥ गज ज्यौं नर मद अंध, सहज सब अनरथ गनै ॥ ५० ॥ वली पण मानना दोषो कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ औचित्याचरणं विलुपति पयोवाहं ननस्वानिव,प्रध्वंसं विनयं नयत्यदिरिव प्राणस्पृशां जीवितम् ॥ कीर्ति कैरविणीं मतंगजश्व प्रोन्मूलयत्यंजसा, मानोनीचश्वोपकारनिकरं दंति त्रिवर्ग नृणाम् ॥ ५ ॥ अर्थः-( मानः के०) अहंकार, (नृणां के०) मनुष्यना ( त्रिवर्ग के०) धर्म, अर्थ, काम, ए त्रण वर्ग जे तेने ( हंति के० ) नाश करे बे. केनी पर्नु ? तो के ( नीचः के) नीच पुरुष, (उपकारनिकर. मिव के०) उपकारसमूहनेज जेम हणे जे तेम. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) वली ते मान, (औचित्याचरणं के०) योग्य एवा आचरणने ( विबुंपति के०) नाश करे . केनी पढ़ें ? तो के ( ननस्वान् के) वायु (पयोवाहमिव के) मेघनेज जेम, वली (प्राणस्पृशां के०) प्राणीना ( विनयं के० ) अच्युडानादिक विनयने (प्रध्वंसं के०) दयप्रत्ये ( नयति के०) पमाडे बे. केनी पढ़ें ? तो के (अहिः के०) सर्प, (जीवितमिव के०) जीवतरनेज जेम कय पमाडे , तेम. अर्थात् जेम सर्प जीवितने क्षय पमाडे २ तेम ते मानी पुरुष विनयनो नाश करे . वली (अंजसा के ) वेगें करी (कीर्ति के) कीर्तिने (प्रोन्मूलयति के ) उन्मूलन करे . केनी पवें ? तो के (मतंगजश्व के०) मदोन्मत्त हस्ती (कैरविणीं के) कमलिनीनेज जेम. अर्थात् हस्ती जेम कमलिनीने उन्मूलन करे ने तेम कीर्त्तिनुं जन्मूलन मान करे ॥५१॥ टीकाः-औचित्येति ॥ पुनराह ॥ मानोऽहंकारो नृणां पुंसां त्रिवर्ग धर्मार्थ कामरूपं हंति नाशयति। कः किमिव ? नीचः मनुष्यः उपकार निकरमिव । यथा नीचः उपकारसमूहं हंति तथा। पुनर्मानः औचित्याचरणं योग्याचारं विबुंपति स्फेटयति । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३३) कः कमिव ? ननखान् वायुः पयोवाद मिव । पुनर्मानः प्राणस्पृशां प्राणिनां विनयं अच्युठानादिकं प्रध्वंसं दयं नयति । कः किमिव ? अहिः सप्र्पोजीवितमिव यथा सर्पो जीवितं क्षयं नयति । पुनरंजसा वेगेन कीर्ति यशःप्रोन्मूलयति।कःकामिव? मतंगजो हस्ती कैरविणीं कमलिनी यथा प्रोन्मूलयति ॥५॥ नाषाकाव्यः- कडखा छंद ॥ मान सवि उचित श्राचार नंजनकरै, पवन संचार जिम घन विहंमै ॥ मान थादरत नय विनय लोपै सकल, जुजग विष जीर जिम मरन मंडै ॥ मानके उदित जगमांहि विनसै सुजस, कुपित मातंग जिम कुमुद खडै ॥ मानकी रीति विपरीत करति जिम. अधमकी प्रीति नर नीति बँडै ॥५१॥ वली पण मानना दोषो कहे . वसंततिलकात्तम्॥ मुंष्णाति यःकृतसमस्तसमी हितार्थ, संजीवनं विनयजीवितमंगन्नाजाम् ॥ जात्यादिमानविषजं विषमं विकारम, तं माईवामृतरसेन नयस्व शांतिम् ॥५२॥इति मानप्रक्रमः॥११॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) अर्थः-( यः के०) जे अहंकार, ( अंगनाजां के) प्राणीना ( विनयजीवितं के०) विनयगुणरूप जीवितने (मुष्णाति के०) उजेदन करे . एकेहq विनयजीवित बे? तो के (कृतसमस्तसमीहितार्थसंजीवनं के० ) करघु ने समस्त वांडितार्थ- सं. जीवन जेणे एवं बे. माटें ( तं के०) ते ( जात्या दिमान विषजं के) जाति, लान, कुल, ऐश्वर्य,बल, रूप, तप, श्रुत, तेनो जे अहंकार ते रूप जे विष, तेथकी उत्पन्न थयेला एवा ( विषमं के०) घोर एवा ( विकारं के०) विकारने ( माईवामृतरसेन के०) मृतारूप अमृतरसें करी ( शांति के ) उपशमप्रत्ये ( नयख के०)पमाडो अर्थात् मानने नम्रतारूप रसें करी शांतिप्रत्ये पमाडो ॥ ५५ ॥ इति एकादश मानप्रक्रमः॥ ११ ॥ ___टीका:-नूयश्चाद ॥ मुष्णातीति ॥ योमानोंऽगजाजां प्राणिनां विनय जीवितं विनयगुणरूपं जीवितं मुष्णाति उछिनत्ति । कथंनूतं विनयजीवितं ? कृतसमस्तसमीहितार्थसंजीवनं । कृतं समस्तानां समी हितार्थानां वांछितार्थानां संजीवनं येन तत् । तं जात्यादिमानविषजं जातिलानकुलैश्वर्य बलरूपत Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३५) पः श्रुतानां मानोऽहंकार स एव विषं तस्मात्समुनवंउत्पन्नं विषमं घोरं विकारं माईवाऽमृतरसेन मृातासुधारसेन शांतिं उपशमं नयख प्रापय ॥ ॥मानत्यागे बाहु बलि नंदीषेण दृष्टांतः ॥ ५५ ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, मानस्य प्रक्रमोऽजनि ॥ ११ ॥ इति मानप्रक्रमः॥११॥ नाषाकाव्यः-चोपाई॥मान विषम वीष तन संचरै, विनय विनासै वंडित हरै ॥ कोमल गुन श्रमृत संयोग, विनसै मान विषम विष रोग ॥ ५५॥ कथा:-मगधदेशे राजगृहनगरीयें श्रेणिकराजा ने तेनो नंदिषेण नामें पुत्र गुणें करी पवित्र बे, ति. हां गुणशैलचैत्ये श्रीमहावीर समोसख्या, नंदीषेणे नगवानने वांद्या, धर्मदेशना सांजलीने दीदा लेवानो जाव थयो. तेवारे शासन देवतायें कडं के हजी तमारे जोगावली कर्म शेष रह्यां , ते जोगव्या पबी चारित्र लेजो. कारण के अवसरे सर्व रूडं कहेवाय अने अवसरेंज फल दायक थाय, एम शासन देवतायें समजाव्यु. तेमनुं वचन अप्रमाण करी नवितव्यताने वशे तेणें दीक्षा लीधी. ते घणा वर्ष Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३६) पाली, घणी लब्धियो उपनी. एकदा पारणें वहोरवा माटें वेश्याने घेर श्रावीने धर्मलाल दीधो, वेश्यायें अर्थलाल कह्यो. तेवारें नंदीषेणे तरणुं ताणीने साडी बार कोड अव्यनो वरसाद वरसाव्यो, यावत् जोगावली कर्मथी तिहां रह्यां. वेश्या साथे नोग नोगववा लाग्या. तिहां बार वर्ष वही गया. नित्य प्रत्ये दश दश माणसने प्रतिबोध पमाडी श्रीवीरनी पासें दीदा सेवा मोकले. एकदा जोगावली कर्मनो क्षय थवाथी उपदेश देतां नव जणने प्रति बोध पमाडी श्रीवीर पासें मोकल्या पण दशमो सोनी प्रतिबोध न पाम्यो. ते. णें कडं के जेम मुझने उपदेश आपो बो, तेम तमें केम श्रादरता नथी? एवामां नोजनवेला थवाथी स्त्रीये श्रावीने रीशथी जोजन करवाने बोलाव्या. तेवारें नंदीषेण बोल्यो के दशमो हुँ. एम कही श्री. वीरपासें चालवा मांमयु. स्त्रीये घणी रीते समजा. व्यो, परंतु तेने पण प्रतिबोधी दीक्षा लइ सतियें गयो. एम नंदीषेणे अहंकार कस्यो, तो चारित्रथी पड्यो. इति मानत्याग उपर नंदीषेणनी कथा ॥११॥ माटे मान त्यागq ॥ ५५ ॥ SHRPAN Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३७) हवे मायात्यागनो प्रक्रम कहे . मालिनीटत्तम् ॥ कुशलजननवंध्यां सत्यसूर्यास्तसंध्याम्, कुगतियुवतिमाला, मोहमातंगशालाम, ॥शमकमलहिमानीं यशोराजधानीम, व्यसनशतसदायां, दूरतोमुंच मायाम् ॥ ५३॥ अर्थः-हे जव्यजन ! (मायां के०) कपटने (दूरतो के०) दूरथकी ( मुंच के० ) मूक. ए माया केहवी ? तो के (कुशल के०) देमना ( जनन के) उत्पन्न करवामां (वंध्यां के०) वंध्या स्त्री समान, तथा ( सत्यसूर्यास्तसंध्यां के० ) सत्यवचनरूप जे सूर्य तेना अस्तने मा. संध्यासमान बे, वली (कुगतियुवतिमालां के० ) कुगतिरूप जे स्त्री तेने पहेरवानी माला समान बे. वली (मोहमातंगशाला के० ) मोहरूप हस्तीने बांधवानी शाला समान , वली (शमकमल हिमानी के०) उपशमरूप जे कमलो तेनी ऊपर पडावामां हिमसमान ने वली (ऽर्यशोराजधानी के ) अपकीर्त्तिने रहेवाने निवासनगरी , वली (व्यसनशतसहायां Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) के०) सहस्र गमे कष्टोनी सहायनूत , माटें मायानो दूरथीज त्याग करवो ॥ ५३॥ टीकाः-श्रथ मायात्यागमाह ॥ कुशलेति ॥ जो जव्यजन ! मायां कपटं दूरतोमुंज त्यज। कथंजूतां मायां ? कुशलस्य देमस्य जनने उत्पादने वंध्यां वंध्यास्त्रीरूपां । पुनः सत्यमेव सूर्यस्तस्याऽस्तमनाय संध्या तां । पुनः किंजूतां ? कुगतिरेव युवतिस्तस्याः वरमाला तां। पुनः 'किंजूतां ? मोहएव मातंगस्तस्य शाला बंधनस्थानं तां । पुनः किंनूतां ? शमएव उपशम एव कमलानि तेषां हिमानी हिमसंहतिः तां। पुनः किंजूतां ? पुर्यशसः अपकीर्तेः राजधानी निवासनगरी तां । पुनः किंजूतां ? व्यसनानां कष्टानां शतानि तेषां सहायो यस्याः सा तां । ईदृशीं मायां दूरतो मुंच ॥ ५३॥ नाषाकाव्यः-रोडकलंद ॥ कुशल जनन कहुं वांऊ, सत्त रवि दरन सांऊथिति ॥ कुगति जुवति उर माल, मोद कुंजर निवास बिति ॥ शमवारिज हि मरासि, पाप संताप सहायिनी ॥ अजस खानि जग जानि, तज हुँ माया फुख दायिनी ॥ ५३॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) वली पण मायाना दोषो कहे बे. नृपेंश्वज्ञादत्तम् ॥ विधाय मायां विविधैरुपायैः परस्याये वंचनमा चरंति, ते वचयंति त्रिदिवापवर्ग, सुखान्म दामोदसखाः स्वमेव ५४ अर्थ : - ( ये के० ) जे जनो ( विविधैः के० ) अनेक प्रकारना ( उपायैः के० ) उपायोयें करीने ( मायां के० ) कपटने ( विधाय के० ) करीने ( परस्य के० ) बीजा जननुं ( वंचनं के० ) वंचनने एटले अन्य जनोने ठगवानुं ( श्राचरंति के० ) श्राचरण करे बे. ( ते के० ) ते जनो ( महामोह सखाः के० ) महामोह बे सखाइ जेनो एवा बता अर्थात् अज्ञानयुक्त बता, (त्रिदिवापवर्गसुखात् के० ) देवलोक तथा मोक्षसुखकी, ( स्वमेव के० ) पोतेंज पोताना श्रात्माने ( वंचयंति के० ) बेतरे बे ॥२४॥ टीका:- पुनराह || विधायेति ॥ ये जनाः विविधैर्नानाप्रकारैरुपायैर्मायां कपटं विधाय कृत्वा परस्यान्यजनस्य वचनं श्राचरंति कुर्व्वति ते जनाः । महामोहसखाः महदज्ञानयुक्ताः संतः त्रिदिवापवर्गसुखात् देवलोकमोदसुखात् स्वयमेवात्मानमेव वंचयति विप्रतारयति ॥ ५४ ॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) जाषाकाव्यः-वेसरिलंद ॥ मोह मगन माया मन संचै, करि उपान और नकों वंचै॥ अपनी हानि लखै नहि सोश, सुगति हरै पुर्गतिःख होश ॥५४॥ वली वण मायाना दोषो कहे . इंवंशाटत्तम् ॥ मायामविश्वासविलासमंदिरं, उराशयोयः कुरुते धनाशया॥ सोऽनर्थसार्थ न पतंतमीदते, यथा बिडालो लगुडं पयः पिबन् ॥५५॥ अर्थः-( यः के०) जे पुराशयः के०) पुष्टचित्तयुक्त एवो जीव, (धनाशया के०) अव्यनी श्राशायें करी अर्थात् अव्यलोग्ने करी (मायां के) कपटने (कुरुते के ) करे बे. (सः के०) ते प्राणी, ( पतंतं के० ) श्रावता एवा (अनर्थसाथ के) कष्टना समूहने ( नईदते के ) नथी जोतो. केनी पढ़ें ? तो के ( बिडालः के०) बिहाडो ते (पयः के०) दूधने ( पिबन् के०) पीतो बतो (लगुडं के० ) दंग प्रहारने ( यथा के० ) जेम जोतो नश्री ! ते केवी माया ले ? तो के ( अविश्वास विलासमंदिरं के०) Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) अविश्वास जे अप्रतीति तेने रमवानुं गृह ले. माटें मायानो त्याग करवो ॥ ५५॥ ___टीकाः- पुनर्मायादोषमाह ॥यो पुराशयोऽष्टचि तोजनो धनाशया अव्यस्य वांग्या लोनेन मायां कपटं कुरुते विदधाति । स जनः श्रात्मनोऽनर्थसाथ कष्टानां समूहं पतंतं श्रागतं नेदते नालोकते।कथं ? यथा बिडालो मार्जारः पयो पुग्धं पिबन् सन् लगुडं दंगप्रहारं नेदते ना लोकते कथनूतां मायां ? अविश्वासस्य श्रप्रतीतेः क्रीडागृहं । मंदिरशब्दस्याजहद्धिंगत्वं ॥ ५५ ॥ नाषाकाव्यः-पछडीबंद॥माया अविसास विलास गेह, जो करै मूढ जन धनसनेह ॥ सोकुगति बंध नहिं लखै एम, तजि नय बिलाज पय पिवै जेम ॥५५॥ ___ वली मायाना दोषो कहे . ॥ वसंततिलकाटत्तम् ॥ मुग्धप्रतारणपरायणमुजीहीते, यत्पाटवं कपटलंपटचित्तरत्तेः॥ जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा, नापथ्यनोजनमिवामयमायतो तत् ॥ ५६ ॥ शति मायाप्रक्रमः ॥१२॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) अर्थः- (कपटलंपटचित्तवृत्तेः के०) मायाने विथे वांगायुक्त ने चित्तवृत्तिजेनी एवा पुरुष- (यत्पाटवं के०) जे चातुर्य ( उडिहीते के० ) प्रकाश पाय , (तत् के०) ते चातुर्य, (अवश्यं के) निश्चे करी (आयतौ के ) आवता समयने विषे (हापि के) श्राहिं पण ( उपप्लवं के०) उपवने (अकृत्वा के० ) न करीने ( नजीर्यति के) परिणाम पामतुं नथी. अर्थात् ते मायाकत चातुर्य, कां पण उपजव कस्या शिवाय परिणाम पामतुं नथी. केनी पढें ? तो के ( अपथ्यनोजनं के० ) कुपथ्यनुं जोजन, (श्रामयं श्व के०) रोगनेज जेम. अर्थात् कुपथ्यजोजन, श्रागामिकालने विषे रोगने उत्पन्न कस्या शिवाय परिणाम पामतुं नथी तेम मायाकृत चातुर्य पण जाणवू. हवे ते मायाकृत चातुर्य केहबुं ले ? तो के ( मुग्धप्रतारणपरायणं के०) मूर्खजनने बेतरवाने तत्पर डे ॥ ५६ ॥ इति माया प्रक्रमः ॥ १२ ॥ए माया उपर श्रीमतिनाथजीना पूर्वनवनी कथा जाणवी तेप्रसिक माटें श्राही लखी नथी॥१२॥ टीकाः-पुनराह ॥ मुग्धप्रतारणेति ॥ कपटे मायायां लंपटा वांगयुक्ता चित्तवृत्तिर्मनोव्यापारो य Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४३) स्य तस्य पुरुषस्य यत्पाटवं चातुर्य उगीही ते उदा सति । तत्पाटवं अवश्यं निश्चयेन श्रायतौ श्रागामिनि काले उपप्लवं उपवं अकृत्वा अविधाय न जीयति परिणामं न याति । किं कुतः ? तस्य विपाकोलवत्येव । किमिव ? अपथ्यनोजनं आमयमिव । यथा अपथ्यं नोजनं जेमनं श्रामयं रोगं अकृत्वा आयतौ न जीर्यति । कथंनूतं पाटवं ? मुग्धानां मूर्खानां प्रतारणे वंचने परायणं तत्परं ॥ अत्र मबीनाथजीवमहाबलदृष्टांतः ॥५६॥ इति ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिजिविहितायां तु, मायायाः प्रक्रमोऽजनी ॥ १५ ॥इति बादशोमाया प्रक्रमः॥ १२ ॥ लाषाकाव्यः-श्राजानकळंद ॥ ज्यौं रोगी करी कुपथ, बढावै रोग तन ॥ स्वाद लंपटी जयो, कहै मुफ जनम धन ॥ त्यौं कपटी करि कपट, मूढ को धन हरै ॥ करै कुगतिकों बंध, हरष मनमें धरै॥५६॥ हवे लोनत्यागनो उपदेश करे . शार्दूलविक्रीडितहत्तव्यम् ॥ यजर्गामटवीम टंति विकटं कामंति देशांतरम्, गाते गहनं समुज्मतनुक्लेशां कृषि कुर्वते॥ सेवंतेकृपणं Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४४ ) पतिंगजघटासंघद्वडुःसंचरम्, सप्र्पति प्रधनं धनांधित धियस्तल्लोन विस्फूर्जितम् ॥५७॥ अर्थः- ( धनांधितधियः के० ) धनें करी अंध येली बे बुद्धि जेनी एवा पुरुषो, अर्थात् लोजी जनो ( यत् के० ) जे धनने माटें ( दुर्गा के० ) न जवाय एवी (अटवीं के० ) अरण्यप्रत्यें ( श्रटंति के० ) अटन करे बे. एटले अरण्यमां फरे बे. वली ( विकटं के० विस्तीर्ण एवा ( देशांतरं के० ) देशांतर प्रत्यें (क्राति के० ) भ्रमण करे बे. वली ( गहनं के० ) कोइथी न अवगाहन थाय एवा ( समुऊं के० ( समुद्रप्रत्यें ( गाते के० ) अवगाहन करे बे. वली ( नुक्शां के० ) बहु कष्टें करी साध्य थाय एवी ( कृषिं के० ) खेतीने ( कुर्वते के० ) करे बे. वली ( कृपणं के० ) श्रदाता एवा ( पतिं के० ) स्वामीने ( सेवते के० ) सेवे बे, वली ( गजघटासंघट्टः संचरं के० ) हस्तिसमूहना यूथें करी जेमां न जवाय एवा प्रधनं के० ) युद्धप्रत्यें ( सर्पति के ० ) जाय बे. ( तत् के० ) ते पूर्वोक्त सर्व ( लोन वि - स्फूर्जितं के० ) लोनुं विचेष्टित जाणवुं श्रर्थात् लो Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) जवशें करी प्राणी सर्व चेष्टा करे बे. माटें लोजनो त्याग करवो ॥५॥ ___टीकाः अथ लोनत्यागोपदेशमाह ॥ यदुर्गामे • ति ॥ धनेन वित्तेनांधिता अंधप्रायकृता धीबुंछिर्येषां ते ईदृशाः पुरुषाः। यत् उग्ाँ विषमां अटवीं अरण्यं अटंति कामंति । पुनर्यत् विकटं विस्तीर्ण देशांतरं कामंति भ्रमंति । पुनर्यत् गहनं पुरवगाहंगाहंते उद्धंघयंति । पुनर्यत् अतनुक्लेशां बहुकष्टसाध्यां कृषि कर्षणं देत्रादि कुर्वते विदधते। पुनर्यत्.कृपणं अदातारं पतिं स्वामिनं सेवंते । पुनर्यत् गजघटानां हस्तिसमूहानां संघेन ःसंचरं गंतुमशक्यं प्रधनं युङ प्रति सप्पैति गति । तत् सर्व लोनस्य विस्फूर्जितं । लोजस्य चेष्टितं जानीहि । लोनवशादेतानि वस्तूनि कुक्ति श्रतःकारणासोजः संत्याज्यएव ॥ ५७ ॥ जाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ सहै घोर संकट समुउकी तरंगनिमें, कंपै चित जीतं पंथ गाहै वीज वनमैं ॥ हानै कृषिकर्म जामें शर्मको न लेश कडं, संकलेश रूप व्हैके कूकि मेरै रनमें ॥ तजै निज धामको विराम परदेश धावै, सेवै प्रनु कृपन Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) मलीन रहे मनमें ॥ मोले धन कारज नारज म नुज मूढ, ऐसी करतूति करै लोजकी लगन में ॥ ५७ ॥ वली पण लोजना दोषो कहे बे. मूलं मोदविषडुमस्य सुकृतांजोरा शिकुंनो - प्रवः, क्रोधाग्नेररणिः प्रतापतरणिप्रचादने तोयदः ॥ क्रीडास कलेर्विवेकशशिनः स्वजणुरापन्नदी, सिंधुः कीर्त्तिलताकलाप कलनोलोनः परानूयताम् ॥ ५८ ॥ अर्थ :- हे जव्थलोको ! ( लोजः के० ) लोज जे बेते ( परानूयतां के० ) पराजव करीयें, एटले लोजनो त्याग करीयें. ते लोज केहवो बे ? तो के ( मोह विषडुमस्य के० ) अज्ञानरूप जे विषतरु तेनुं ( मूलं के० मूल बे. वली ( सुकृतांजोरा शिकुंनोद्रवः के० ) पुण्यरूप समुद्रना शोषणने विषे गस्तिऋषि समान बे, वली ( क्रोधाग्नेः के० ) क्रोधरूप जेन तेनुं (अरणिः के०) काष्ठ बे, एटले क्रोधामिनुं उत्पत्तिस्थानक बे. वली ( प्रतापतर पिप्रच्छादने ho ) प्रतापरूप सूर्य ने ढांकवामां ( तोयदः के० ) मेघसमान बे, वली ( कले: के० ) कलहनुं ( क्रीडा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ( २४७ ) सद्म के० ) लीलागृह बे, वली ( विवेकशशिनः के० ) पुण्यापुण्यरूप चंद्रमा जे तेने ( खर्चाणुः के० ) राहुसमान बे, वली ( श्रापन्नदी सिंधुः के० ) आपत्ति - रूप नदीयो जे बेतेने धारण करवामां समुद्र बे. अर्थात् पत्तिनुं स्थानक बे वली (कीर्त्तिलताकलापकलन : के० ) की र्त्तिरूप जे वल्ली तेनो जे समूद तेना नाशने विषे हस्तीना बच्चा समान बे ? एवो पूर्वोक्त दुर्गुण युक्त जे लोज तेनो त्याग करवो ॥५८॥ टीका:- पुनराह || मूलमिति ॥ जो जव्या, परानूयतां निराक्रियतां त्यज्यतां । मोहएव श्रज्ञानमेव विषडुमो विषतरुः तस्य मूलं जटारूपं । मूलशब्दस्याऊहलिंगत्वं । पुनः कथंभूतो लोजः ? सुकृतमेव पुण्यमे वांजोराशिः समुद्रस्तस्य शोषणे कुंनोवोऽगस्तिरिव । पुनः क्रोधाग्नेः अरणिः क्रोधएव निस्तस्य अरणिः काष्ठं उत्पत्तिस्थानं । पुनः प्रतापएव तरणि सूर्यस्तस्याच्छादने तोयदो मेघोऽभ्रं । पुनः कलेः कलहस्य कीडासन लीलागृहं । पुन र्विवेकएव पुण्यापुण्य विचारएव शशी चंद्रस्तस्य स्वर्णाणु: रादुः । पुनः श्रापन्नदी सिंधुः श्रापदः कष्टान्येव नद्यस्तासां सिंधुः समुद्रस्तासां स्थानरूपत्वात् । पुनः * Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) किंजूतोलोनः? कीर्तिरेव लता वही तस्याः कलापः समूहस्तस्य विनाशे कलजो हस्तिशावः। ईदृशोलोलोजीर्यतां ॥५॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपरप्रमाणे ॥ पूरन प्रताप रवि रोकवेको धाराधर, सुकृत समुफ शोषवेकों कुंजनंद है ॥ कोप दव पावक जननको अरनि दारू, मोह विष नूरुहको महा दृढकंद है ॥ परम विवेक निसिमनि ग्रसि वेकों राहु, कीरति लता कलाप दलन गयंद है। कलहको केलि नौन श्रापदा नदीको सिंधु, ऐसो लोज याहिको विपाक मुख दंद है ॥५०॥ फरीने पण लोजना दोषो कहे . वसंततिलकाटत्तम् ॥ निःशेषधर्मवनदादविजूंनमाणे, फुःखौघनस्मनि विसर्पदकीतिधूमे।बाढंधनेंधनसमागमदीप्यमाने, लोनानले शलनतां बनते गुणोघः ॥५॥ अर्थः-( लोजानले के० ) लोनरूप अग्निने विषे (गुणौघः के०) ज्ञानादिक गुणोनो समूह, ( शलजतां के) पतंगपणाने ( लज़ते के० ) प्राप्त थाय . अर्थात् अग्निमां जेम पतंग पडीने बले , तेम Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४ए) गुणसमूह, ते लोजरूप अग्निमां पडीने बले बे. हवे ते लोजानल कहेवो के ? तो के (निःशेष धर्मवनदाह विज॑नमाणे के० ) समस्त धर्मरूप जे वन तेने बालवे करी विस्तार पामेलो एवो वली (उःखौघजस्म नि के० ) पुःखना समूहरूप जे जस्म जेमां एवो, वली ( विसर्पदकीर्तिधूमे के० ) प्रसरती जे अपकीर्ति ते रूप जे धूम जेमां एवो, वली ( बाढं के० ) अतिशयें करी ( धनेंधनसमागमदीप्यमाने के०) धनरूप जे काष्ठ तेना समागमें दीप्यमान अर्थात् अत्यंत धनरूप इंधने करी जाज्वल्यमान एवो तेमां सर्वे गुणो पतंगनी पेठे बलीजाय जे ॥५॥ टीकाः-पुनराठ॥ निःशेषेति ॥ लोजएवानलोऽग्निस्तस्मिन् लोनानले गुणौघोझानादिगुणानां 1. घः समूहः शलजतां पतंगत्वं लजते । पतंगवज्ज्वलति । कथंनूते लोनानले ? निःशेषं समस्तं यकर्मएव वनं तस्य दाहेन विजूंजमाणः विस्तारं प्राप्नुवन्। तस्मिन् पुनः कथंजूते ? कुःखानां उघः समूह एव जस्म रदा यत्र स तस्मिन् । पुनः कथंजूते ? विसपत् प्रसरत् अपकीर्तिरेव धूमो यस्मात् सः तस्मिन् । पुनः कथंजूते ? बाढं अतिशयेन धनान्येव - Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५०) व्याण्येव इंधनानि एधांसि तेषां समागमेन श्रागमनेन दीप्यमानोऽत्यंतं प्रज्वलत् किं प्राप्नुवत् तस्मिन् । सर्वे गुणाः पतंगवत् नवंति ॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-उप्यछंद ॥ परम धरम वन दहै, कुरित अंबर गति धारे ॥ कुजस धूम उभिरै, नूरि जय जस्म विदारै॥फुःख फूलिंग फूंकरैतरल तिस्त्राऊल क.॥धनश्धन श्रागम, संयोग दिन दिन अति व ॥ लह लहै लोन पावक प्रबल, पवन मोह उहत वहै। दजहिं उदारता श्रादि बहु,गुन पतंगको दाव है।एए संतोषे करी लोन निवारण करवा योग्य , माटें संतोषना गुणो कहे जे. शार्दूलविक्रिडितहत्तम्॥ जातःकल्पतरुःपुरः सुरगवी तेषां प्रविष्टा गृहम् , चितारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः संनिधिम् ॥ विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलनाः स्वर्गापवर्गश्रियो, ये संतोषमशेषदोषदहनध्वंसांबुदं बित्रते ॥६० ॥ लोनप्रक्रमः॥१३॥ अर्थः- ( ये के) जे मनुष्यो ( संतोषं के ) तृष्णानो जे निरोध करवो तेने ( बिभ्रते के ) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५१) धारण करे , (तेषां के०) ते पुरुषोना (पुरः के०) अग्रने विषे ( कल्पतरुः के) कल्पवृक्ष, ( जातः के) उत्पन्न थयो बे. वली ते पुरुषोना ( गृहं के०) गृहप्रत्ये ( सुरगवी के०) कामधेनु, (प्रविष्ठा के०) प्रवेश थयेली बे. अर्थात् श्रावेली बे. वली तेना ( करतले के० ) हस्ततलने विषे (चिंतारत्नं के०) चिंतामणि रत्न ( उपस्थितं के०)प्राप्त थयु जे. वली ते पुरुषोने (निधिः के०) अव्यनमार, ( सन्निधिं के) समीपताने (प्राप्तः के० ) प्राप्त थाय जे. वली ते मनुष्यने ( विश्वं के०) जगत्, (अवश्यं के) श्रवश्य ( वश्यमेव के०) वशज थाय . अने वली ते पुरुषोने, ( स्वर्गापवर्गश्रियः के०) देवलोकनी अने मोदनी संपत्ति ते ( सुलनाः के०) रुडे प्रकारें प्राप्त थाय . हवे ते संतोष कहेवो ? तो के (अशेषदोषदहन के०) समग्र दोषरूप जे अग्नि तेना (ध्वंस के० ) नाश करवाने माटें (अंबुदं के ) मेघ समान बे. अर्थात् मेघ जेम श्रग्नि बुजाववामां प्रचुर ले तेम दोषोना नाश करवामां संतोष ते माटें संतोषज कर्त्तव्य जे ॥ ६०॥ श्राही सागरश्रेष्ठीनी कथा जाणवी ॥ १३ ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) टीका:- संतोषेण लोजो निवार्यः स्यादतः संतोष गुणानाह ॥ जात इति ॥ येजनाः संतोषं तृष्णा निरोधं विभ्रते धारयति । तेषां पुरोऽग्रे कल्पतरुः कल्पवृको जातः प्रत्यक्षोऽनूं । पुन स्तेषां गृहं सुरगवी कामधेनुः प्रविष्टा श्रागता । पुन स्तेषां करतले चिंतामणिरत्नं उपस्थितं श्रागतं । पुनस्तेषां निधिः प्रव्यस्य निधिः सन्निधिं समीपं प्राप्तः । पुनः विश्वं जगत् अवश्यं निश्चितं तेषां वश्यं जातं । पुनस्तेषां स्वर्गापवर्ग श्रियः देवलोकमोदसंपदः सुलजाः सुप्राप्याः स्युः । कथंभूतं संतोषं ? शेष दोषदहनध्वंसांबुदमशेषाश्च ते दोषाश्च यशेषदोषाः तएव दहनः अशेषदोषदहनस्तस्य ध्वंसाय अंबुदं । श्रतः संतोएव कर्त्तव्यः । अत्र सुनूमचक्रवर्त्ति सागरश्रेष्ठी क था ॥ ६० ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्त्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, लोजस्य प्रक्रमोऽजनि ॥ इति त्रयोदशोलोजप्रस्तावः ॥ १३ ॥ जाषाकाव्यः - कवित्त मात्रात्मक ॥ विलसै कामधेनु ताके घर, पूरे कलपवृक्ष सुखपोष ॥ श्रखय जँकार जरै चिंतामनि, तिनकों सुगम सुरग रु मोख ॥ ते नर वश्य करै त्रिभुवनकों, तिनसों वि Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५३) मुख र दुख दोष ॥ वसै निधान सदा तिनके दिग, जिनके हृदय वसत संतोष ॥ ६० ॥ कथाः - लोन उपर सागरश्रेष्ठीनी कथा कहे . जंबुद्वीपने विषे जरतदेत्रमां पद्मपुरनामा नगर बे, त्यां अतिधनाढ्य सागरनामा श्रेष्ठ वसे बे. ते एवो कृपण a के एवे हाथे कागडाने पण उमाडे नहिं ते एम जाणे जो विष्टाथे कागडाने उमाडीश तो महारा हाथमां लागेला अन्ननुं एवं कागडाउने मलशे । एवो ते कदरी बे. तेने सुशीला गुणवती नामा स्त्री बे. तेना एक सोमदत्त, बीजो जयदत्त, त्रीजो धनदत्त, चोथो श्रमरदत्त एवा चार पुत्रो बे. ते यौवनास्थाने पाम्या, तारें तेना पितायें परणाव्या. ते चारे पुत्रो पोतपोतानी स्त्रीयो साथै विषयसुख जोगवता बता काल गमावता हता. अनुक्रमें शेवनी स्त्री गुणवती मरण पामी तेथी सागर श्रेष्ठी दुःख पामवा लाग्यो, तेवारें तेना सगां वालायें दिलास यापी शोकमुक्त कस्यो. · एक दिवसें ते सागरश्रेष्ठीना चारे पुत्रो बापना आदेश वाहाणमां बेसी वेपार माटें देशांतरें गया. पालथी सागरश्रेष्ठीनें बोकरानी वहूरोनो Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) विश्वास न आववाथी पोतें घर आगल खाटलो ढाली हाथमां लाकडी लइ बेसे. एक दिवसें ते सागरश्रेष्ठीने राजायें रत्नोनी परीक्षा करवा माटें बोलाव्यो. तेवामां फरतो फरतो कोइक योगी तेने घेर श्राव्यो. तेने बोकरानी वहूयें मिष्टान्नपानें करी तृप्त कस्यो. तेवारें जोगीयें संतुष्ट थई ते स्त्रीयोने एक मंत्र याप्यो ने कह्युं के तमें कोइ पण लाकडा उपर बेसीने या माहारो श्रापेलो मंत्र जणी ते लाकडा उपर अडदना दाणा बांटी ने पी तमारें ज्यां जनुं होय, ते स्थलनुं नाम लइने कहेशो जे श्रमने तुं या स्थानकें पोहोंचाड ! तो ए लाकडं ज्यां जवा इछशो, त्यां पढ़ोंचाडशे. एम सर्व मंत्रनो प्रभाव कहिने ते योगी गयो. पढी चारे स्त्रीयोयें मली एक मोहोटुं लाकडं घरने विषे राख्यं. पण ते वातनी सागरश्रेष्ठीने कांइ पणी खबर नथी. दवे सागरश्रेष्ठीनी पग चंपी वगेरे चाकरी करवा माटें एक हजाम निरंतर श्रावे. एक दिवस ते हजामें घरमां पडेलुं ते मोहोडं लाकडुं नजरें जोयुं. तेवारें विचारवा लाग्यो के या लाकडुं बीजे स्थलइ जवाने कोइ समर्थ न था Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५५) य एवं महोटुं . ते श्राहीं घर श्रागल पड्यु ने, माटे आमां कांश चमत्कार तो नहिं होय ? एम विमासणमा ते हजामने शेग्नी चाकरी करता ते दिवसें घणो वखत थर गयो. घणी रात्रि गया पबी शेग्ने निमा श्राववा लागी त्यारें नापितने रजा आपी के तुं जा. तो पण ते नापित त्यां बानो मानो शेठना ढोलीयानी नीचें सुश् गयो. शेठे नापित गयो जाणीने घरनां कमाडो बंध कस्यां अने पोते सुतो. ते ज्यारें घोर निनामां आव्यो, ते वखत चारे स्त्रियो ते लाकडा उपर बेसीने मंत्रना जोरथं। रत्तापमा जश् पोताना मनोरथ पूणे कर। पाउली रातें पानी घेर श्रावीयो. तेने जोश्ने हजाम विचारवा लाग्यो के, अरे! या स्त्रीयो किहां गश्यो हशे ! श्रा स्त्रीयो, केतुं साहस डे ! ! एम चिंतवतो पोताने घेर गयो. बीजे दिवसें पण पूर्वोक्तरीतें ते नापितें कमु. अने शेठने सुवा वखत थर, त्यारे ते लाकडाना पोलाणमां पेठो ॥ कयु डे के ॥ नराणां नापितो धर्तः, पक्षिणां धर्तवायसः॥ वर्णानां वणिकोधूर्तों, नारीणां गणिका मता ॥ १॥ सा गरश्रेष्ठीयें हजाम गयो जाणी बारणा बंध कस्यां. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५६ ) पूर्वोक्तरीतें स्त्रीयो पण लाकडा पर बेसीने रत्नद्वीपें ग. त्यां लाकडाथी उतरीने पोताना मनोरथ पूर्ण करया. ते सर्व नापितें जोयुं ने पोतें लाकडानी पोलमांथी नीकलीने रत्नद्वीपमांथी घणांक अमूल्य रत्नो लइ पाठो लाकडामां पेवो. छाने स्त्रीयोनी साथें पाटो घेर आव्यो. स्त्रीयो लाकडा उपरथी उतरी घरमा गइयो. पालथी नापित पण लाकडामांथी बाहेर निकली पोताने घेर गयो. पण बीजे दिवसें धनवान् थवाथी सागरश्रेष्ठीनुं श्रानुचर्य करवा थाव्यो नहिं. एक दिवस ते शेठ पासें नापितें श्रावी - ने नमस्कार करी पोतानुं दर्पण शेग्ने बताव्युं. ते वखतें शेठें घणे दिवसें यावेला नापितने जोइने dant प्यो. त्या खोटा साचा जबाप श्रापीने पोतानी पासें रत्नद्वीपमांथी आणेलुं जे रत्न हतुं, ते बताव्यं. ते जोईने शेतें कह्युं के अरे दुष्ट ! या रत्न देवतानुं, घणाज मौल्यवालु, सकल नूमंगला धिपतिने पण न मले तेनुं, तुने क्यांथी मव्युं ! ते मने कहे ! ! ! तेवारें तेणें कयुं के तमाराज घरमांथी मने ए रत्न मलेलुं बे. शेतें कह्युं के दे मूर्ख ! तुं खोडं बोल नहिं. मारा घरमा आ रत्न होय . Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · ( २५७ ) क्यांथी ? ते सांजलीने हजामें यथास्थित जेवी वात बनी हती तेवी सविस्तर कही संजलावी. त्यारें शेठें कयुं के मने पण तेम करवुं बे. तो ते नापितनी प्रमाणें शेठें पण रत्न द्वीपमां गमन कखुं ने लाकडामांथी नीसरीने पोतें लोजी तो बेज माटें घणांज रत्नो लइ गांसडी बांधीने पाठो लाकडामा पेठो. पालथी स्त्रियो पण यावी बेठी लाकडुं उड्यं, परंतु घणां रत्नोनो तथा शेवनो जार होवाथी लाकडं हलवे हलवे चालवा माड्यं तेने जोइने स्त्रियो विचारखा लागी के घरे ! खाज काष्ठ बराबर चालतुं नयी ने नमतुं जाय बे माटें जो घेर जवा वखत लागशे तो आपने सासरो खीजशे ? माटें दवे शो उपाय करवो ? एम परस्पर कहेवा लागियो . त्या लाकडाना कोतरमा रहेलो श्रेष्ठी कदेवा लाग्यो के तमें लगार पण जय राखशो नहिं. जेनो तमने जय बे. ते तो हुं सागरश्रेष्टी तमारी सार्थेज बनुं ! या वात सांजली सर्व स्त्रियो आश्चर्य पामी विचारका लागी जे अरे ! श्राक्यांची आपणी साथै श्रव्यो ! माटें दवे जो ते पाढो घेर थावशे तो आपने फजेत करशे. तेथी तेने या स १७ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७) मुखमांज नाखी द्यो. एम विचारी काष्ठने हलवीने ते शेग्ने रत्न सुधां समुडमां नाखी दीधो. त्यां शेठ डूबी मरण पाम्यो, माटें अति लोज करवाथी सागरश्रेष्ठी जेवा हवाल थाय , तेथी लोन करवो नहिं ॥ एलोजने विषेसागरश्रेष्ठीनी कथा कही॥६॥ हवे सौजन्यता राखवा विषे उपदेश करे . ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ वरं क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनोवक्रकुहरे, वरं ऊंपापातोज्वबदनलकुंमे विरचितः॥ वरं प्रासप्रांतः सपदि जठरांतर्विनिहितो, नजन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदां सद्म विउषा ॥६१ ॥ अर्थः- ( कुपित के० ) कोपायमान श्रयेला एवा ( फणिनः के ) सर्पना ( वऋकुहरे के०) मुखविवरने विषे (पाणिः के०) हाथ ( दिप्तः के०) नाख्यो होय ते ( वरं के०) श्रेष्ठ, वली ( ज्वलदनलकुंके के०) प्रज्वलित एवा अग्नि कुंमने विषे (ऊंपापातः के०) कंपापात (विरचितः के०) कस्यो होय ते ( वरं के) श्रेष्ठ, वली (प्रासप्रांतः के०) कूतणानो अग्रजागते ( सपदि के०) तत्काल, (ज Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५ए) रांतः के० ) उदरना मध्यसागने विष (विनिहितः के० ) नाख्यो होय ते ( वरं के० ) श्रेष्ठ. ( तदपि के ) तो पण ( विपुषा के०) पंमितजने (दौर्जन्यं के० ) पैशुन्य, ( नजन्यं के०) न कर, ते केहएं दौर्जन्य बे ? तो के ( विपदां के०) आपत्तिनुं सन के०) गृह अर्थात विपत्तिनुं स्थानक ॥६॥ टीकाः-अथ सौजन्य विधानोपदेशमाह ॥ वरमिति ॥ कुपितस्य फणिनः क्रुजस्य सर्पस्य वक्रकुहरे मुख विवरे पाणिर्हस्तः दिप्तोनि दिप्तः सन् वरं श्रेयान् । पुनीलदनलकुंमे प्रज्वलत् अग्निकुंडे ऊंपापातोविरचितः कृतो वरं श्रेष्ठः । पुनः प्रासस्य कुंतस्य प्रांतो अयं जठरांतः जदरमध्ये सपदि क्षिप्तोवरं श्रेष्ठः । तदपि विषा पंमितेन दौर्जन्यं पैशुन्यं नजन्यं न कर्त्तव्यमेव । किंजूतं दौर्जन्यं ? विपदां श्रापदांकष्टानां सद्म गृहं स्वानमित्यर्थः । अतःकारणात् सौजन्यमेव विधेयं ॥ ६१॥ - जाषाकाव्यः-चौपाश्चंद ॥ वरु अहिवदन हब निज मारहि, अगनि कुंममहि तन परजोरहीं। दारहिं उदर करहिं विष जलन, पैंपुष्टता नगर्दै विचलन ॥ ६१॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६०) वली पण सौजन्यने माटें उपदेश करे बे. वसंततिलकात्तम् ॥ सौजन्यमेव विदधाति यशश्चयं च, स्वश्रेयसं च विनवं च नवदयं च ॥ दौर्जन्यमावदसि यत् कुमते तदर्थम्, धान्येऽनलं दिशसि तजलसेकसाध्ये ॥ ६॥ अर्थः-( यत् के०) जे ( सौजन्यमेव के ) सु. जनपणुं तेज ( पुंसां के० ) पुरुषोना (यशश्चयं के०) कीर्तिसमूहने ( विदधाति के०) धारण करे . (च के० ) वली ( स्वश्रेयसं के०) स्वकल्याणने करे . (च के० ) वली ( विनवं के० ) अव्यवैजवने करे डे. (च के० ) वली (जवदयं के० ) संसारनो कय जे मोद तेने करे , तेमाडे (कुमते के०) हे कुमतिजन ! ( तदर्थं के० ) यशश्चयादि कने माटें ( दौर्जन्यं के) पिशुनताने (श्रावह सि के०) तुं वहन करे , तो (धान्ये के०) धान्यना क्षेत्रने विषे ( अनलं के० ) अग्निने ( दिशति के०) श्रापे बे. ( तत् के० ) ते धान्य केवु डे ? तो के ( जलसेकसाध्ये के०)जलसिंचने करीसाध्य , तेवा धान्ययु Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६१ ) क्त क्षेत्रने विषे दवाग्नि देवानी तुं इच्छा करे बे ॥ ६२ ॥ टीका:- पुनराह | सौजन्यमेव सुजनतैव पुंसां यशश्चयं कीर्त्ति समूहं विदधाति करोति । पुनः स्वश्रेयसं स्वकल्याणं विदधाति । पुनर्विजवं द्रव्यं विदधाति । पुनर्जवयं संसारक्षयं मोक्षं विदधाति । ततो दे कुमते ! हे कुबुद्धे ! यत् तदर्थं यशश्चयाद्यर्थं दौर्जन्यं पिशुनतां वदसि धरसि । तत् धान्ये धान्य देत्रेऽनलं अग्निं दिशसि ददासि । कथंभूते धान्ये ? जलसेकसाध्ये जलस्य सेकेन सिंचनेन साध्ये निःपादनीये । तत्र दवं ददासि ॥ ६२ ॥ जाषाकाव्यः - सवैया तेइसा ज्यौं कृषिकार जयो चित चातुल, सो कृषिकी करनी इम ठानै ॥ बीज aa न करै जल सिंचन, पावकसों फलकों थल जानै ॥ त्यौं कुमती निज स्वारथ के हित, दुर्जन नाव हियेमह खानै ॥ संपत्ति कारन बंध विदारन, सजनता सुख मूल न जानै ॥ ६२ ॥ दारिद्र्यां पण सुजनताज श्रेष्ठ बे, ते कहे बे. पृथ्वीवृत्तम्॥ वरं विजववंध्यता सुजन ( स्वजन ) जावनाजां नृणा, मसाधुचरितार्जिता Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६२) न पुनरूर्जिताः संपदः॥कृशत्वमपि शोनते सहजमायती सुंदरम्, विपाकविरसा न तु श्वयथुसंनवा स्थूलता ॥ ६३ ॥ अर्थः-( सुजननावनाजां के०) सौजन्यसहित एवा ( नृणां के० ) मनुष्योने ( विनव के०) वैजवनी ( वंध्यता के निर्मव्यता तेज ( वरं के ) श्रेष्ठ ( पुनः के० ) परंतु ( श्रसाधुचरितार्जिताः के०) पुर्जनपणायें करी संपादन करेली एवी ( संपदः के०) संपत्तियो ते (वरं के०) श्रेष्ठ, (न के ) नथी. ते केवी संपत्तियो बे ? तो के (ऊर्जिताः के ) अति बलिष्ठ ले. त्या दृष्टांत कहे बे. के (सहज के०) खानाविक, (कृशत्वमपि के०) दौर्बस्यत्व पण ( शोनते के० ) शोने बे, (तुके० ) परंतु ( श्वयथुसंजवा के०) शरिरमां सोजो उत्पन्न थवाथी थयेली जे (स्थूलता के०) पुष्टता ते ( न के०) नथी शोजती. ए केवु कृशत्व जे ? तो के (आयतौ के० ) उत्तरकालने विषे ( सुंदरं के०) शोजायमान ले. अने ते स्थूलता केहवी ? तो के ( विपाकविरसा के० ) परिणाममा दारुण जे. माटें Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६३) सौजन्यरहित एवा धनवानने पण धिक्कार ले ॥३॥ टिकाः-दारिज्ये पि सुजनतैव श्रेष्ठेत्याह॥ वरमिति॥सुजननावजाजां सौजन्यसहितानां यत्र खजननावजाजामपि पागेऽस्ति नृणां पुंसां विनवस्य वंध्यता निःफलता निर्डव्यता दारिद्यमेव वरं श्रेष्ठं । परंतु असाधुचरिते नार्जिताः दौर्जन्येन उपार्जिताः संपदः श्रियोऽपि वरं न श्रेष्ठाः। न श्लाघ्याः। कथंनूताः संपदः ? ऊर्जिताः बलिष्टाः प्रचुराः। तत्र दृष्टांतमाह । सहजं स्वानाविकं कृशत्वं दौर्बल्यमपि शोजते । तु पुनः श्वयथुसंनवा शोफा माता स्थूलता पीनताऽपि न वरं न श्रेष्ठा । कयंत्तं कृशत्वं? श्रायतौ उत्तरकाले आगामिकाले सुंदरं शोजनं । कथंनूता स्थूलता ? विपाके परिणामे अंत्ये विरसा दारुणा ॥६३ ॥ नाषाकाव्यः-आनानकचंद ॥ वर दारिता होन करत सजनकला, पुराचारसों मिलै राज सो नहिं जला ॥ ज्यौं शरीर कृश सहज सुशोना देतु है, सूजै थूलता बढे मरनको हेतु है ॥ ६३ ॥ हवे सुजनता युक्तजनोना गुणो कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तव्यम् ॥ न ब्रुते परदू Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६४) षणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहम, संतोष वहते पईिषु पराबाधासु धत्ते शुचम्॥स्वश्लाघां न करोति नोज्छति नयं नौचित्यमुखंघय, त्युक्तोप्यप्रियमदमां न रचयत्येतचरित्रं सताम्॥६॥इति सुजनप्रक्रमः॥२४॥ अर्थः-( सतां के०) सजानपुरुषोनुं ( एतच्चरित्रं के०) या चरित्र एटले चेष्टित . या चरित्र ते कयु चरित्र ? तो के सजनजन जे , ते (परदूषणं के०) पारका दोषने (न ब्रुते के०) बोलता नथी. अने (अल्पमपि के०) थोडा एवा पण ( परगुणं के) पारकागुणने (अन्वहं के) निरंतर (वक्ति के) कहे . वली (परहिषु के०) परसंपत्तिने विषे ( संतोषं के०) अननिलाष एटले अमत्सरने ( वहते के०) धारण करे . वली ( पराबाधासु के० ) परपीडाने विषे ( शुचं के० ) शोकने ( धत्ते के०) धारण करे . तथा ( वश्लाघां के०) श्रात्मप्रशंसाने ( न करोति के० ) न करे ने. वली (नयं के० ) विनयने ( नोति के०) त्याग करता नथी. वली (औचित्यं के० ) योग्यताने ( नोखंघ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६५ ) यति के० ) उल्लंघन करता नथी. तथा ( श्रप्रियं ho) अतिप्रत्यें (उक्तोपि के० ) कह्या होय तो पण (क्षमां के ० ) क्रोधने ( न रचयति के० ) रचना करता नथी. माटें सौजन्ययुक्तजनना एवा गुणो बे ॥ ६४ ॥ ए चौमो सुजनप्रक्रम संपूर्ण थयो ॥ १४ ॥ टीका:- सौजन्यजाजां गुणानाह ॥ न ब्रूतइति ॥ सतां साधूनां सजनानां एतच्चरित्रं चेष्टितं श्र - स्ति ॥ एतदिति किं ? सजनः परदूषणं परदोषं न ब्रूते । पुनरल्पमपि तुमपि परगुणं श्रन्यगुणं - न्वहं निरंतरं वक्ति कथ यति । पुनः परेषां रुद्धिषु संपत्सु संतोषं न जिलाषं श्रमत्सरं वहते धत्ते । पुनः परबाधासु परपीडासु शुचं शोकं धत्ते । पुनः स्वश्लाघां श्रात्मप्रशंसां न करोति । पुनर्नयं न्यायंनोज्जति न त्यजति । पुनरौचित्यं योग्यतां नोल्लंघयति । नातिक्रामति । पुनरप्रियं विरूपं हितं उक्तोऽपि जाषितोपि मां क्रोधं न रचयति । सतां एतच्चरित्रं वर्त्तते ॥ ६४ ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकी र्त्ति जिः ॥ सूरि निर्विहितायां तु, सौजन्यप्रक्रमोऽजनि ॥ १४ ॥ जाषाकाव्यः-उप्पयछंद ॥ नहिं जंप पर दोष, य Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६६) स्प पर गुन बहु मानहिं ॥ हृदय धरहिं संतोष, दीन लखि करुना छानहि ॥ उचित रीति श्रादरहिं, विमल नय नीति न बंमहिं ॥ निज जसलहन परहरहिं, राम रचि विषय विहंमहिं ॥ मंमहिं न कोप पुर्वचन सुनि, सहज मधुर धुनि उच्चरहिं॥ कहि कवर पाल जग जाल वस, ए चरित्र सजान करहिं ॥६॥ कथा;-सुजनता उपर कथा कहे जे. उजायणी नगरीय विक्रमादित्य राजाने घरे शीलालंकाररूप कमलावती नामें नार्या . एकदा राजा सनामांहे हर्षोत्कर्षे बिराजमान थ सजाना लोकोनें कहेवा लाग्यो के संसारमाहे एवं को ज्ञान प्रवर्त्तमान डे, के जे महारा राज्यने विषे नज होय ? ते सांजली एक कलावंत देशांतरी पुरुष बोल्यो के हे राजा ! तमारा राज्यमां लक्ष्मीवान् विद्यावान्, गुणवान्, एवा अनेक पुरुषो , अने तमें पोते पण लक्ष्मी अने विद्यायें करी सहित बो. तमारी स्त्री सरस्वती सदृश , दातार शिरोमणि , परंतु एक परकाया प्रवेशकारिणी विद्या तमारी पासें नथी. ते सांजली राजा ससंभ्रम थर बोल्यो के ते विद्या क्या ? ते बोल्यो के हे स्वामी ! गिरनार पर्वतनी उपर एक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) सिद्धेश्वर ने तेनी पासें ए विद्या . ते सांजली विक्रमादित्य पोताना प्रधानने राज्य नलावी एकाकी ते पर्वत नणी चाल्यो. अनुक्रमें घणां कष्ट सहन करी ते पर्वत उपर गयो, तिहां सिकेश्वर योगीने देखी मनमां हर्ष पामी योगीने नमस्कार करी सेवा नक्ति करवा लाग्यो. योगी पण राजानी शुद्ध मनथी सेवा नक्ति देखी तुष्टमान थयो ॥ यतः ॥ विण सासणे मूलं, विण संजमो तवो ॥ विणयाई विप्पमुक्कस्स, कर्ड धम्मो क तवो॥१॥ हवे ते अवसरें तिहां सिद्धेश्वरनी पासें बीजो पण परकाया प्रवेशकारिणी विद्यानो अर्थी एक ब्राह्मण प्रवर्त्तमान बे, तेने पण घणा दिवस सेवा नक्ति करतां थया डे. ते पण घणो विनय करे , पण तेने कुपात्र जाणी योगी विद्या बापतो नथी॥ यतः॥ विद्यया सह मर्त्तव्यं, न तु देया कुशिष्यके ॥ विद्यया लालितोमूर्खः, पश्चात्संपद्यते रिपुः ॥ १ ॥ माटें ते सिद्धेश्वर विक्रमादित्यने तत्काल तुष्टमान थयो, पण घणी सेवा करनार एवा विप्रने तुष्टमान न थयो. विक्रमादित्यने कहेवा लाग्यो के हे वत्स ! तुं गुणज्ञ , राजा जेवो देखाय बे, दूरदेशांतरथी Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६७) श्राव्यो देखाय , हुँ तहारी करेली जक्तिथी संतोष पाम्यो ढुं ! माटें परकाया प्रवेशकारिणी विद्या ले. ते वचनो सांजली राजा बे हाथ जोडी बोल्यो के हे स्वामी! ए विप्रने पण आपनी सेवा करतां घ. णा दिवस थया, माटें जेम महारी उपर तुष्टमान थया, तेम एनी उपर पण तुष्टमान थक्ष विद्या श्रापो. तेवारें सिद्धेश्वर बोल्यो के हे परफुःखगंजक सत्पुरुष ! सर्पने दूध पीवराववाथी शो फायदो थाय ? तो पण राजायें घणी प्रार्थना करी प्रणिपत्य करीने ब्राह्मणने पण विद्या श्रपावी. पडी राजा तथा ब्राह्मण बेहुने विद्या साधवानो विधि कह्यो, ते प्रमाणे विद्या साधीविद्या सिझ करी गुरुनी श्राझा मागी राजा श्रने ब्राह्मण बेहु उजायणीनी बाहेर आव्या, ते वखत राजायें ब्राह्मणने त्यांज बेसाड्यो अने पोतें राज्यस्थिति जोवा जणी नगरीमांहे श्राव्यो, तिहां प्रथम प्रजाना समाचार जोश पड़ी राज्यमंदिरमा श्राव्यो. तिहां पट्टहाथीना मरणथी राजलोक श्राकुल थयेला दीग. राजा फरी ब्राह्मण पासें श्राव्यो विद्यानी परीक्षा करवा सारु पोताना शरीरमाहेश्री जीव काहाडी निर्जीव काया करी ते Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६ए) कलेवर विप्रने नलावी अने पोतानो जीव हाथीना खोलिया माहे जई घाल्यो, तेश्री हाथी तत्काल जनो थयो. राजलोक सर्व हर्ष पाम्या.एवामां पुष्ट बुद्धिथी विप्र विचारवा लाग्यो के जो हुं हमणां महारो जीव राजाना शरीरमांहे प्रवेश करावं, तो राजा बनी राज्यपालुं ? एम विमासी तत्काल विद्यार्नु स्मरण करी राजाना शरीरमांहे पोतानो जीव घाख्यो, पोतानी काया प्रज्वन करीने नगरमांहे श्राव्यो लोकोयें राजा श्राव्यो देखी वधामणां कस्यां, राज्यमंदिरमां जश् सज्जामांहे बेगे, परंतु जातें ब्राह्मण ने माटे राज्य स्थितिनी रीत जात कां पण जाणतो नथी) तेने जंगली हरणना जेवो देखी प्रधान प्रमुख चिंतववा लाग्या के ए शुं राजानुं चित्त चलाचल थयु जे ! अथवा कोश व्यंतरविशेष राजानुं रूप करी श्राव्यो डे के शुं थयुं ! एम विचारवा लाग्या. पबी जेवारें अंतेउरमां ते ब्राह्मण श्राव्यो, तेवारें पदृराणी तो तेने देखतांज मूळ पामी तेने घणा ज. पचार करी दासीयें उगडी बेठी कीधी, तेवारें कत्रिम राजा बोल्यो के अहो देवि ! मुझने देखी तमें मूळ केम पाम्यां ? ते सांजली राणीने पण Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) तत्काल बुद्धि उपनी, तेथी एवं बोली के स्वामी ! तमें जेवारे देशांतरें चास्या हता, तेवारें में गोत्रदेवीने कडं हतुं के जो राजा कुशल देमें धरे श्रावशे, तो हे कुलदेवि ! हुं तमारी पूजा कस्या विना नेत्रे कर राजा साहामुं जोश नही. ते वरांसे में हमणां तमारी साहामुं जोयुं तेथी महारी उपर देवीनो कोप थयो माटें हवे देवीनी पूजा कस्या विना तमा मुख जोश नही एम सांजली कत्रिमराजा पागे सनायें जश् बेहो. तेने हाथीयें दीहो, तेवारें हाथी मनमां चिंतववा लाग्यो जे था पापी ब्राह्मणे महारी साथें विश्वासघात कीधो , पण एनुं नर्बु न थाय, मने पण गुरु आज्ञा उल्लंघननु पाप लाग्यु, गुरुयें मने वास्यो तो पण में एने विद्या देवरावी तेनुं फल हुँ एनो विश्वास करवाश्री पाम्यो॥ यतः॥ मित्ररोही कृतघ्नश्च, यश्च विश्वासघातकः ॥ त्रयोपि नरकं यांति, यावच्चं दिवा करौ ॥१॥ हु पंमित मूर्ख थयो अथवा दैववक्र थवाथी मनें कुबुछि उपनी, जडं करतां मार्बु थयुं ॥ यतः॥ देवेवक्रे नवेत्पुंसां , सुकृतं कृतोपमम् ॥ न सिध्ध्यंति खकार्याणि, विधिना रचितान्यपि ॥ १॥ सर्व लोकने Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७१) पुत्र मित्र कलत्रादिक परलोके गया पड़ी परायां थाय, पण हुँ तो था जन्ममांज पुत्रादिक सर्वथी विपर्यास पाम्यो, एवं विमासी श्रालानस्तंनने उन्मूली. ने हाथी वन जणी निकल्यो, लोक तेनी पळवाडे चाव्यां. घणा उपाय कीधा, पण हाथी पाडो वट्यो नही, वनमा जतो रह्यो. लोक पाडां फरी घेर श्राव्यां. हाथी थाक्यो तेवारें एक वटवृद नीचें जश उत्तो रह्यो. तिहां एक पुरुष गोलीथी सूडाने मारतो हतो ते देखी पोतानो जीव सूडाना शरीरमांहे घालीने बोल्यो. अरे ! बापडा वराक जीव मारवाथी तुऊने शुं लान थवानो डे ? माटें तुं मुंफने उजयणी लक्ष जा. श्रने बजारमा जश् सहस्र दिनारनुं मूल्य करजे, ते तुऊने आपीने कोइ पण लश जाशे) एवं सांजली आहेडी हर्षवंत थर सूडाने लश् उजायणीयें श्रावी राजमार्गे जर उनो रह्यो. जो कोश् मूख्य पूजे, तो तेने सहस्र टका सुवर्ण कहे, ते अवसरें कमलावती राणीनी दासी तिहां श्रावी, तेणें ते सूडो दीहो. तेणें केटलाएक श्लोक पूज्या, तेवारें सूडे पण तत्काल अनेक श्लोक जण्या, दासीयें जश् राणीनी श्रागल सूडाना समा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) चार कह्या. राणी पण दासीने का के तमें तरत जश्ने ते सूडो लश्श्रावो. दासीयें थावी मूल्य पापी सूडो लीधो. वधक, पैसा लश् पोताने घेर गयो. दासी सूडाने राणी पासें लश् आवी राणी ते सूडाने देखी अत्यंत हर्ष पामी सुवर्णना पांजरामां तेने राख्यो. राणी पोताने हायेस्नान जोजनादिक कराववा लागी. हवे प्रस्तावें सूडो सहसात्कारें अनेक अनेक प्रश्नोत्तरादिक श्लोक नणे. ते जेम के ॥ श्रयुक्तः प्राणदोलोके, वियुक्तः साधुववनः ॥ प्रयुक्तः सहि विद्वेषी, केवलः स्त्रीषु ववनः॥१॥ तस्योत्तरं ॥ हार ॥ जावार्थः-थाकार अदरें युक्त होय तो जे पदनो अर्थ लोकने विषे प्राणनो देनारो एवो थाय. तथा वि श्रदरें जो युक्त होय तो जे पदनो अर्थ साधुने वन एवो थाय . प्र श्रदरें करि युक्त जो होय तो जे पदनो अर्थ विशेषी थाय ने, अने जो केवल एकबुंज पद राखीयें तो तेनो अर्थ स्त्रीने वजन एम थाय ॥ तेनो उत्तर (हार )हवे हारनी पहेलां था मेलवीयें तो श्राहार थाय बे, तो तेथी जगत जीवे ने अने हारथी प्रथम वि मेलवीयें तो विहार थाय ने तो विहार साधुनेज घटे Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७३) बे, ने जो हारनी प्रथम प्र मेलवीयें तो प्रहार थाय बे तेवि वेषीनेज होय . अने केवल हारज राखीये तो स्त्रीने वजन एवो पुष्पनो हारज कदेवाय बे॥ वली सूडो कहे जे ॥ किं जीवियस्स चिह्न, का नजा मयण रायस्स ॥ का पुप्फाणपहाणं, परणीया किं कुण बाला ॥ उत्तरं ॥ सास र जा॥. नावार्थ:-जीवतरर्नु चिन्ह शुं ? तो के (सास) मदनराज जे कामदेव तेनी स्त्री कोण तो के ( रक्ष) एटले रति ॥ श्रने उत्तम पुष्प कयुं ? तो के (जा३) एटले जाश्नां पुष्प, अने परणीने बाला झुं करे बे? तो के ( सासरश जाइ) इत्यादिक प्रश्नोत्तर करतां राणी तथा सूडो बेहु पोताना दिवस निर्गमन करे , एकदा राणीप्रत्यें सडे प्रव्यं के तमें ए राजानी साथै बोल्यांज नही ते शामा? तेवारें राणी बोली के हे शुकराज ! एने देखवाथी महारं चित्त हिसतुं नथी. न जाणुं को रूप परावर्त करी आव्यो , के केम ? माटें ज्यांसुधी महारं मन सादी आपतुं नथी, त्यांसुधी एनी साथें हूं संजाषण मात्र पण नही करीश ? एम सांजली राणीनुं मन निश्चल जाणी सूडो हर्ष पाम्यो. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४ ) ऐकदा कोइ घरोलीने मूवेली देखी सूडायें तेना शरीरमां पोतानो जीव घाल्यो, तेवारें सूडो मरण पाम्यो. ते देखी राणी मूर्छा पामी तेने दा सीयें वायुथी सावधान करी, तेवारें राणी कड़ेवा लागी के ए सूडानी सायें हुं पण काष्ठमां बली मरीश ! कत्रिम राजायें ते वात सांजलीने राणीनी पासें व पूब्युं के तुं सूडानी साथै काष्ठजण करे ? राणी कर्तुं के महारा जीवनो एनी साथें मोहसंबंध बे, ते माटें एनी गति ते मद्दारी गति ! तेवारें कर्त्रिम राजा बोल्यो के तुं काष्ठजण न कर. ढुं शुकने सचेतन करुं बुं. एम कही पोतें पर्यकमां पोढ्यो, राणीनुं मन मनाववा सारु पोतानुं चेतन काहाढ़ी शुकना शरीरमां प्रदेप्युं. घने पोतें सूडो थयो. ते जोइ विक्रमराजायें तत्काल पोतानो जीव घरोलीना शरीरमांथी काहाढीने पोताना मूल शरीरमां प्रदेप्यो, ने पोताना देहमां यावी पोतें राजा थयो. कड़ी ने राणीपासें गयो.) राणी पण राजानुं मूल शरीर देखी हर्ष पामी पढी राणीयें राजाप्रत्यें सर्व वृत्तांत पूब्युं. राजायें कयुं के ए वृत्तांत या सूडो कदेशे . तेवारें सूडे मूलथी सर्व . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) वृत्तांत संजलावीने कडं के जे मित्रोह करशे, ते मदारीपेठे फुःखी थाशे, अने जे परोपकार करशे, ते राजानीपेठे सुख पामशे. ते सर्व वात सांजली राणी हर्षवंत थ. अने मननी ब्रांति गश्. एवामां एक व्यवहारियो मरण पामतो दीको. तेवारें राजाये ते सूडानो जीव व्यवहारियानी खोल मांहे राखी सुखीयो कस्यो. एवा सङान उर्जननां लक्षण जाणी सजनता श्रादरवी ॥ ६४ ॥ हवे गुणिजनना संगनुं वर्णन करे . धर्म ध्वस्तदयो यशश्युतनयो वित्तं प्रमत्तः पुमान्, काव्यं निःप्रतिजस्तपः शमदयाशन्योऽल्पमेधाः श्रुतम्॥वस्त्वालोकमलोचनचलमनाध्यानं च वांगत्यसौ, यः संगंगुणिनांविमुच्य विमतिः कल्याणमाकांदति॥६५॥ अर्थः-( यः के० ) जे ( विमतिः के० ) निर्बुद्धि (पुमान् के०) पुरुष ( गुणिनां के०) गुणवान् पुरुषना ( संगं के०) संगने ( विमुच्य के०) मूकीने ( कल्याणं के०) कल्याणने (थाकांदति के०) श्छे जे. (असौ के०) ए विमति पुरुष, ( ध्वस्तद Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ () यः के० ) गश् कृपा जेने एवो बतो ( धर्म के ) पुण्यनी श्छा करे ? एम जाणवू. तथा ते (च्युतनयः के०) गतन्याय एवो उतो ( यशः के० ) यशनी श्छा करे ? अर्थात् अन्यनो अपकारक तो कीर्तिनी श्छाकरे ? वली (प्रमत्तः के०) बालसु बतो (वित्तं के०) धननी श्छा करे ? वली (निःप्रतिनः के ) निर्बुफि उतो ( काव्यं के०) काव्य करवानी श्छा करे ले ? वली (शमदयाशून्यः के०) उपशम अने दयायें रहित तो (तपः के०)तपनी श्छा करे . वली (अल्पमेधाः के०) अल्पबुद्धिमान् उतो ( श्रुतं के०) शास्त्रने नणवानी श्वा करे . वली (अलोचनः के०) नेत्ररहित बतो (वस्त्वालोकं के ) घटपटादिक वस्तुने जोवाने श्छे डे. (च के०) वली (चलमनाः के) चंचल चित्त एवो बतो ( ध्यानं के० ) एकाग्रध्याननी श्छा करे बे. अर्थात् पूर्वोक्त वस्तु विना प्रथम कहेला पदार्थों ते प्राणीने प्राप्त थाय नही तेम गुणिना संगविना कल्याण प्राप्त थाय नहीं ॥ ६५ ॥ टीकाः-अथ गुणिसंगं वर्णयति ॥ धर्ममिति ॥ यो विमतिः निर्बुधिणिनां गुणवतां मनुष्याणां संगं Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 289 ) संसर्ग विमुच्य त्यक्त्वा कल्याणं श्रेय श्राकांक्षति । श्रसौ विमतिः पुमान् ध्वस्तदयोगत कृपः निर्दयः सन् धर्मं पुण्यं वांति । पुनश्युतनयोगतन्यायः श्रन्यायनाक् सन् यशः कीर्त्ति वांबति । पुनः प्रमत्तः प्रमादी सन् वित्तं धनं वांबति । पुनर्निःप्रज्ञः प्रज्ञारहितः सन् काव्यं कर्तुं वांबति । पुनः शमेन उपशमेन दयया च हीनोरहीतः पुमान् तपो वांबति । पुनरल्पमेधास्तु बुद्धिर्बुद्धिरहितः सन् श्रुतं शास्त्रं पठितुं वांबति । पुनरलोचनो नेत्ररहितः सन् वस्तूनां घटपटादीनां विलोकनं दर्शनं वांति पुनश्चलमनाः चलचित्तः सन्ध्यानं वति । तथा गुणवतां संगं विना कल्याणंन ॥ ६५ ॥ जाषाकाव्यः - सवैया तेइसा ॥ सो करुणा बिनु धर्म विचारत, नयन विना लखिवेकुं उमाहै ॥ सो डुरनीति च जस हेतु, सुधी बिनु श्रागमकों - वगा है || सो हिय सुन्न कवित्त करै, समता बिनु सो तपसों तन दाहै ॥ सो थिरता बिनु ध्यान धरै सह, जो सत संग तजै हित चाहै ॥ ६५ ॥ वली पण गुणीना संगनुं वर्णनकरे बे. दरिणीवृत्तम् ॥ दरति कुमतिं नित्ते मोहं करोति विवेकिताम्, वितरति रतिं सूते नी - Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (२ ) तिं तनोति गुणावलिम् ( विनीततां )॥प्रथयति यशोधत्ते धर्म व्यपोदति र्गतिम्, जनयति नृणां किं नानीष्टं गुणोत्तमसंगमः॥६६॥ अर्थः-(नृणां के०) मनुष्योने ( गुणोत्तमसंगमः के० ) गुणें करी उत्तम जनोनो संग, (किं के०) शुं (अनीष्टं के ) इडितने ( न जनयति के० ) नथी उत्पन्न करतो ? अर्थात् सर्व अनीष्टने उत्पन्न करेज . हवे ते गुणोत्तमसंग शुंअनीष्ट करे ? ते कहे जे के ( कुमतिं के ) कुबुद्धिने (हरति के) हरे . तथा ( मोहं के० ) अज्ञानने (नित्ते के०) नेदे . वली ( विवेकितां के०) तत्त्वातत्वविज्ञानपणाने (करोति के०) करे . वली (रति के) संतोषने ( वितरति के०) श्रापे . वली (नीति के) न्यायने ( सूते के०)प्रसवे . तथा ( गुणावलिं के० ) गुणश्रेणिने ( तनोति के ) वि. स्तारे . ( नीतिलतां) एवो पाठ होय तो नीतिलताने विस्तारे डे अने (यशः के०) कीर्तिने (प्रथयति के ) विस्तारे . वली (धर्म के० ) धर्मने Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ण) ( धत्ते के० ) धारण करे जे. वली (मुर्गतिं के) नरकतिर्यग्गतिने ( व्यपोहति के०.) टाले बे. एम गुणोत्तम जननो संग ते अनीष्ट पदार्थने आपे डे माटें उत्तम जननोज संग करवो॥६६॥ ___टीकाः-पुनर्गुणिसंगं वर्णयति ॥ हरतीति ॥ नृ. णां पुंसां गुणैः उत्तमाः गुणोत्तमास्तेषां संगमो नृणां किं किं अजीष्टं वांछितं न जनयति न करोति? अपि तु सर्वमनीष्टं जनयति । गुणोत्तमसंगमः कुमति कुबुकिं हरति दूरीकरोति । पुनर्मोहं अज्ञानं जित्ते विदारयति । पुनर्विवेकितां तत्त्वातत्त्व विज्ञत्वं करोति। रतिं संतोषं वीतरति ददाति । पुनर्नीतिं न्यायं सूते जनयति । पुनर्गुणावलिं गुणश्रेणी तनोति। . पाहांतरे तु विनीततां तनोति' पुनर्यशः कीर्ति प्रथयति विस्तारयति । पुनर्धर्म धत्ते धरति । पुनधुर्गतिं नरकतिर्यग्गतिरूपां व्यपोहति विस्फोटयति। एवं गुणोत्तमसंगमः सर्वमनीष्टं जनयति ॥ ६६ ॥ जाषाकाव्यः-सवैया श्कतीसा ॥ कुमति निकंद होइ महा मोहमंद होश, जगतमें सुजस विवेक जग हियसों ॥ नीतिको दिढाउ हो विनैको बढाउ होश, उपजै उछाह ज्यौं प्रधान पद लियेसों ॥ ध Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (श्पण) मको प्रकाश होइ पुर्गतिको नाश होश, वरते समाधि ज्यों पीयूषरस पियसोंतोष परिपूर हो दोषहष्टि दूर होश,एते गुन होइ, सतसंगतिके कियसों॥६६॥ वली पण गुणीना संगनो उद्देश कहे . शार्दूलविक्रीडितटत्तम् ॥ लब्धं बुद्धिकटापमापदमपाकर्तुं विदर्नु पथि, प्राप्तुं कीर्तिमसाधुतां विधुवितुं धर्म समासेवितु म् ॥ रोडुं पापविपाकमाकलयितुं स्वर्गापवर्गश्रियम, चे त्वं चित्त समीदसे गुणवतां संगं तदंगीकुरु ॥६॥ अर्थः-( चित्त के०) हे चित्त ! ( चेत् के० ) जो ( त्वं के० ) तुं ( बुद्धिकलापं के ) बुद्धिसमूहने (लब्धं के०) प्राप्त थवाने ( समीहसे के) ना करे ले ? वली जो (श्रापदं के०) श्रापत्तिने (श्रपाकर्तुं के० ) टालवाने श्छा करे . तथा जो (पथि के०) न्यायमार्गमां (विहां के०) विचरवानी श्छा करे , तथा जो (कीर्ति के०) कीर्तिने (प्राप्तुं के०) प्राप्त थवानी श्वा करे ,वली जो (असाधुतां के०) असौजन्यने (विधुवितुं के०) टालवानीला करे Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) बे,तथा जो (धर्म के०) पुण्यने (समासे वितुं के०) सेववानी श्छा करे बे. वली जो (पापविपाकं के०) अशुनकर्म फलने ( रोडु के०) रोकवानी श्छा करे बे तथा जो ( स्वर्गापवर्गश्रियं के०) देवलोकनी अने मोदनी लक्ष्मीने (आकलयितुं के) अनुजव करवानी श्छा करे ने (तत् के० ) तो ( गुणवतां के० ) गुणवान् पुरुषोना ( संगं के०) संगने (अंगीकुरु के०) अंगीकार कर. अर्थात् गुणिजनना संगथी सर्व प्राप्त थाय जे ॥ ६७ ॥ टीकाः-पुनराह ॥ लब्धं बुद्धिरिति ॥रे चित्त ! चेद्यदि त्वं बुद्धिकलापं बुद्धिसमूहं लब्धं प्रातुं स. मीहसे वांति । तत्तदा गुणवतां गुणिनां संग संसगं अंगीकुरु विधेहि । पुनर्यदि विपदं आपदं अपाकर्तुं दूरीकर्तुं समीहसे । पुनर्यदि पथिन्यायमार्गे विहर्तुं विचरितुं वांसि । पुनः कीर्ति प्राप्तुं वांसि। पुनरसाधुतां असौजन्यं विधुवितुं स्फेट यितुं समीहसे । पुनर्यदि धर्मं पुण्यं समासे वितुं कर्तुं समीहसे। पुनर्यदि पापविपाकं अशुनकर्मफलं रोडं समीहसे। पुनः खर्गापवर्गश्रियं देवलोकमोदलमी आकलयितुं अनुनवितुंसमीहसे। तदा गुणवतां संगं कुरुं ॥६७ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) . जाषाकाव्यः-कुंमलियाबंद ॥ कौरा ते मारग गहै, जे गुनिजन सेवंत ॥ ज्ञानकला तिनके जगै, ते पावहिं जव अंत ॥ ते पावहिं नव अंत, समरस ते चित धारहिं ॥ ते अघ श्रापद हर हिं, धर्मकी रति विस्तारहिं॥होहि सहज जेपुरुष, गुनी वारिजके नौंरा॥ते सुरसंपति लहै, गहै ते मारग कौरा ॥६॥ __ हवे निर्गुणना संगना दोषो कहे बे. हरिणीरत्तम् ॥ हिमति मदिमांनोजे चंमालनिलत्युदयांबुदे, विरदति दयारामे (दमारामे) देमदमानृति वचति ॥ समिधति कुमत्यग्नौ कंदत्यनीतिलतासु यः, किमनिलषता श्रेयः श्रेयः स निर्गुणसंगमः ॥६॥ इति गुणिसंगप्रक्रमः ॥१५॥ अर्थः-( सः के०) ते ( निर्गुणसंगमः के० ) निर्गुणिजननो संगम, (श्रेयः के० ) कल्याणने (अजिलषता के०) श्छा करनार एवा पुरुषं (किं के०) शुं (श्रेयः के०) श्राश्रय करवा योग्य ले ? ना श्राश्रय करवा योग्य नथीज. ते केहेवो निर्गुणनो संगम बे ? तो के ( यः के० ) जे (महिमांनोजे के०) Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) महत्त्वरूप कमलने विषे (हिमति के) हिमनी पेठे श्राचरण करे . वली ( उदयांबुदे के०) धन, धान्य, प्रताप वृफिरूप जे मेघ तेने विषे ( चंमानिलति के०) प्रचम वायुनी पेठे श्राचरण करे . वली ( दयारामे के०) दयारूप श्राराम जे वन तेने विषे ( हिरदति के ) हस्तीनी पेठे श्राचरण करे बे. अथवा दमारामे एवो पाठ होय तो इंजि. यदमनरूप वन तेने विषे इस्ती समान श्राचरण करे . वली (देमदमावृति के०) कल्याणरूप पर्वतने विषे ( वज्रति के०) वजनी पेठे श्राचरण करे . वली (कुमत्यग्नौ के० ) कुमतिरूप जे अग्नि तेने विषे ( समिति के०) काष्ठनी पेठे श्राचरण करे . तथा (थनीतिलतासु के) श्रन्यायवहिने विषे ( कंदति के०) कंदनी पेठे श्राचरण करे . माटें ए अनीतिनो मूलरूप एवो जे निर्गुणसंगम तेने श्रेयने श्छा करनार पुरुषं न श्राश्रय करवो. श्रांहिं गिरिशुक अने पुष्पशुकनी कथानो दृष्टांत जाणवो ॥६७ ॥ ए गुणीसंगप्रक्रम थयो. ॥१४॥ टीकाः-निर्गुणसंगमदोषमाह ॥ हिमतीति ॥ स निर्गुणसंगमः किमपि श्रेयः कल्याणं अनिलष Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) ता ता पुरुषेण । किं श्रेयः किं श्राश्रयणीयः ? नाश्रयणीयः । सः कः ? यो महिमाएव महत्वमेवांजो कमलं तस्मिन् हिमति | हिमश्वाचरति तद्विनाशकत्वात् । पुनर्यो निर्गुणसंगमः उदयएव धन धान्य प्रतापवृद्धिरेवांजोदो मेघस्तत्र चंमा निलति प्र वायुरिवाचरति । पुनर्दया एव श्रारामो वनं - थवा दमाराम इतिपाठे दमएव रामो वनं तत्र द्विरदति द्विरदवद् गजवदाचरति तडुन्मूलकत्वात् । पुनर्यः देममेव कुशलमेव मानृत् गिरिस्तत्र वज्रति वज्रवदाचरति । तच्छेदकत्वात् । पुनर्यः कुमतिरेवाग्निस्तत्र समिंधति । समित् इंधनश्वाचरति । तद्वृद्धिहेतुत्वात् । पुनर्यः नीतिलतासु अन्यायवलिषु कंदति कंदश्वाचरति । तन्मूलभूतत्वात् । ईदृ शो निर्गुण संगमः । श्रेयोवांबता पुरुषेण न श्रेयः नाश्रयणीयः ॥ अत्र गिरिशुकपुष्पशुकयोः कथा ॥ यतः ॥ माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च पक्षिः ॥ श्रहं मुनि निरानीतः, सच नीतो गवाशिनिः ॥ १ ॥ गवाशिनां तु स वचः शृणोति, श्रहं तु राजन् मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवताऽपि दृष्टं, संसर्गजादोषगुणा जवंति ॥ इति वचनात् ॥ २५॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) ६० ॥ सिंदूरप्रकर ग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, गुणिसंगमप्रक्रमः ॥ इति पं. चदशो [णिसंगमप्रक्रमः ॥ १५॥ नाषाकाव्यः-उप्पयछंद ॥ जो महिमा गुन हनै तुहिन जिम वारिज वारे ॥जो प्रताप संहरै, पवन जिम मेघ विमारै ॥ जो सम दम दल मलै, हिरद जिम उपवन खंमै ॥ जो सुबेम बय करै, वन जिम शिखर विहंडै ॥ जो कुमति अग्नि इंधन सरिस, कुनयलता दिढ मूल जग ॥ सो पुष्ट संग कुःख पुष्टकर, तजहिं विचलन तासु मग ॥ ६ ॥ ___ कथाः- सारा नरसानी संगत उपर सूडानी कथा कहे जेः-कोर एक पोपटनी नार्यायें बे बच्चा जण्यां. तेमां एकनुं नाम गिरिशुक अने बीजानुं नाम पुष्पशुक. ते बेहु महोटा थया. एकदा तेने मुकीने सूडी चणवा ग. पाउलथी बच्चांने पाराधीयें पकड्यां. गिरिशुकने निवपासें वेच्यो, अने पुष्पशुकने ऋषिपासें वेच्यो ॥ यतः॥ जो जादिस्सं संगं, करे सो तादिसो होश् ॥ कुसुमेहिं सुवसंता, तिलावि तग्गंधिया हुँति ॥१॥ पुनर्यथा ॥ निर्गुणेनापि सत्त्वेन, कर्तव्योगुणसंगमः ॥ शशां. Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६) कसंगतो मूर्ति, धृतोरुजेण वातमी ॥ २ ॥ ए. कदा एक राजा घोडा उपर चडी असवार थ. यो ते घोडायें अपदस्यो थको अटवीमा निसना घर आगलथी निकटयो तेवारें गिरिशुक बोल्यो के हे निब ! ए लाखीणो माणस जाय बे, तेने खूटी ब्यो. ते सांजली राजा जयज्रांत थयो थको नासतो नासतो अनुक्रमें तापसना श्राश्रमपासें श्राव्यो, तेने देखीने पुष्पशुक बोल्यो के हे ऋषि! था राजा श्रावे बेतेनी नक्ति करो. ते सांजली तापसें सर्वविधि साचवी राजानी नक्ति करी. पडी राजायें सूडाने हाथमां बेसारी पूब्युं के हे शुक! में तहारी वचन पण सांजल्यां, अने लिखना शुडानां वचन पण सांजव्यां, परंतु तुऊमां श्रने तेनामां घणोज अंतर ? ते सांजली शुक बोल्यो ॥ यतः॥ माताप्येका पिताप्येको, मम तस्य च पक्षिणः ॥ श्रहं मुनिजिरानीतः, सतु नीतो गवाशिनिः ॥१॥ गवाशिनां वै स गिरः शणोति, अहंच राजन् मुनिपुंगवानाम् ॥ प्रत्यक्षमेतनवतापि दृष्टं, संसर्गजा दोषगुणा जवंति ॥२॥ सर्पाः पिबंति पवनं न च पुर्बलास्ते, शुष्कैस्तृणैर्व Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) नगजाबसिनो नवंति ॥ कंदैः फलैर्मुनिगणा गमयंति कालं, संतोषएव पुरुषस्य परं निधानम् ॥३॥ एवां वचन सांजली हर्ष पामी सर्व सैन्यसहित घेर श्रावीने ते राजा ते दिवसथी सत्संगति करवा लाग्यो. तेम सर्व जव्यजीवोयें सत्संगतिज करवी॥ ति गिरिशुक पुष्यशुकनो दृष्टांत ॥ ६ ॥ इति सत्संगप्रक्रमः ॥ १६ ॥ हवे इंजियजय करवा श्राश्रयी उपदेश कहे . शार्दूलविक्रीडितं दृत्तम् ॥आत्मानं कुपथेन निर्गमयितुं यः शूकलाश्वायते, कृत्याकृत्यविवेकजीवितहतौयःकृष्णसर्पायते॥यः पुण्यसुमखंमखमनविधौ स्फूर्जत्कुगरायते,तंबुप्त व्रतमुसमिज्यिगणं जित्वाशुनंयुनव॥६॥ अर्थः-हे साधुपुरुष ! (तं के०) ते (इंजियगणं के०) पंचेंजियसमूहने ( जित्वा के० )जीतीने ( शुनंयुः के० ) गुजयुक्त (नव के०) था. ते पंचेंजिय गण केवो ? तो के ( यः के) जे (आत्मानं के०) पोताना श्रात्माने (कुपथेन के ) कुमार्गे करी (निर्गमयितुं के०) लश् जवाने (शूक Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) लाश्वायते के० ) अडियल अश्वनी पेठें श्रचरण करे बे. कारण के ते इंद्रियरूप अश्वनी कुमार्गने विषेज गमन करवानो खजाव बे. वली ( यः के० ) जे ( कृत्याकृत्य विवेकजीवितहृतौ के० ) कृत्य ने कृत्य तेनो विवेक जे विचार ते रूप जीवितव्य जे जीवतर तेना हरण करवाने विषे (कृष्णसर्पायते के ० ) काला सर्पनी पेठें श्राचरण करे बे. वली ( यः के० ) जे ( पुण्य डुमखं खं मनविधौ के० ) पुण्यरूप जे वृक्ष तेनुं जे वन तेना खंमन विधिने विषे ( स्फूर्जातू कुठा - रायते के० ) प्रकाशमान कुठारनी पेठें श्राचरण करे बे. वली ( लुप्तव्रतमुद्रं के० ) बेदी बेत्रतनी मर्यादा जेणें एवो बे. माटें ते इंद्रियगणनो जय करवो ॥६॥ टीका:- प्रियजयोपदेशमाह ॥ श्रात्मानमिति ॥ हे साधो ! तं इंद्रियगणं पंचेंद्रियसमूहं जित्वा विनिर्जित्य शुनंयुः शुजसंयुक्तो जव । तं कं? यः इंद्रियगणः स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रसमूहः श्रात्मानं स्वं कुपथेन कुमार्गेण निर्गमयितुं नेतुं शूकला श्वा यतेपुर्विनीत श्रश्वश्वाचरति । तस्य कुमार्गगा मिखजावत्वात् । पुनर्यः इंद्रियगणः कृत्यं च कृत्यं च कृत्याकृत्येतयोर्विवेकएव विचारएव जीवितं जीवितव्यं । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ए) तस्य हृतौ हरणे कृष्णसर्पायते कृष्णसर्पश्वाचरति । पुनर्यः इंजियगणः पुण्यमेव उमस्तेषां खं वनं तस्य खंमन विधौ बेदने स्फूर्जत् कुगरायते कुगरश्वाचरति । कथंनूतं इंजियगणं ? लुप्तवतमुझं बुप्ता बिन्नाव्रतानां मुना मर्यादा येन सः तं ॥६॥ नाषाकाव्यः-गीताबंद ॥ जे जगत जिवको कुपथ मारोह, वक्र शिष्यत तुरगसें ॥ जे हहि परम विवेक जीवन, काल दारुन उरगसें ॥ जे पुन्न विरख कुगर तीखन, गुपत व्रत मुना करै ॥ ते करन सुजट प्रहार नवी जन, तव सुमारग पग धेरै॥६॥ वली पण इंजियजयनो उपदेश करे बे. शिखरिणीटत्तम् ॥प्रतिष्ठां यन्निष्ठां नयति नयनिष्ठां विघटय, त्यकृत्येष्वाधत्ते मतिमत-. पसि प्रेम तन ते ॥ विवेकस्योत्सेकं विदलयति दत्ते च विपदम् , पदं तदोषाणां करणनिकुरुंबं कुरु वशे ॥ ७० ॥ अर्थः-हे नव्य ! तुं (तत् के०) ते ( करणनिकुरंबं के) इंडियसमूदने (वशे के०) वशमां (कुरु के०) कर. ते इंजियनिकुरुंब कहेवो बे ? तो के Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) ( यत् के० ) जे ( प्रतिष्ठां के० ) महत्त्वने प्रतिष्ठाने ( निष्ठां के० ) अवसान ते हयप्रत्यें ( नयति के० ) पमाडे बे. वली जे इंडियकुरंब, ( नयनिष्ठां के० ) न्यायनी स्थितिने ( विघटयति के० ) स्फोटन करे बे. वली ( कृत्येषु के० ) नहि करवा योग्य जे - नाचार तेने विषे ( मतिं के० ) बुद्धिने ( श्रधत्ते के० ) धारण करे . वली ( तपसि केट ) श्रवि - र तिने विषे ( प्रेम के० ) स्नेहनें ( तनुते के० ) विस्तारे बे. वली ( विवेकस्य के० ) कृत्याकृत्य एटले आ करवा योग्य बे ने या करवा योग्य नथी एवा विचारना ( उत्सेकं के० ) उन्नतपणाने ( विदलयति के० ) नाश करे बे. ( चके० ) वली ( विपदं के० ) विपत्तिने (दत्ते के ० ) पे बे. माटें ते इंद्रियसमूह पोताने वश करवो. ते इंद्रियसमूह कहेवो बे ? तो के ( दोषाणां के० ) सर्व दोषोनुं ( पदं के० ) स्थानक बे ॥ ७० ॥ टीका:- पुनराह ॥ प्रतिष्ठामिति ॥ जो जव्य ! तत्करणानां इंद्रियाणां निकुरंबं समूहं वशे कुरु व श्यतां नय । आत्मायत्तं विधेहि । तत्किं ? यत् करनिकुरंबं प्रतिष्ठां महत्त्वनिष्ठां व्यवसानं दयं नयति Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) प्रापयति । पुनर्यत् नय निष्ठां न्यायस्थितिं विघटयति स्फेटयति । पुनर्यत् कृत्येषु श्राचारेषु मतिं बुद्धिं श्राधत्ते स्थापयति । पुनः तपसि अविरतौ प्रेम तनुते स्नेहं कुरुते । पुनर्यत् विवेकस्य कृत्याकृत्य विचारस्य उत्सेकं उन्नतत्वं विदलयति विध्वंसयति । पुनर्यत् विपदं श्रापदं कष्टं दत्ते । तत् करण निकुरंबं इंद्रियसमूहं स्ववशे कुरु । कथंभूतं इंद्रिय निकुरंबं ? दोषाणां पदं स्थानं ॥ ७० ॥ जाषाकाव्यः - सवैया इकतीसा ॥ एही है कुगतिके निदानी दुःख दोष दानी, इनहिकी संग तिसों संग जार वहियें ॥ इनकी मगनतासों विमौकों विनास होइ, इनहीकी प्रीतिसों अनीति पथ गहियें ॥ येही तप जावकों विकारै दुराचार धारै, इनही की तपत विवेक भूमि दहियें ॥ एही इंद्रि सुनट इनही जीते सोइ साधु, इनको मिलापी सोश महापापी कहियें || go ॥ वली पण इंद्रियसमूहना जयनो उपदेश करे बे. शार्दूलविक्रीडितवृत्तत्रयम्॥ धत्तां मौनमगारमुज्जतु विधि प्रागल्भ्यमन्यस्यता, मस्त्वं Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) तर्गण (स्त्वंतर्वण) मागमश्रममुपादत्तांतप स्तप्यताम् ॥ श्रेयः पुंजनिकुंजनंजनमदावातं न चे दिज्यि, वातं जेतुमवैति नस्मनि हुतं जानीत सर्व ततः॥१॥ अर्थः-हे साधु ! ( मौनं के० ) मौनने (धत्तां के) धारण कर. वली ( अगारं के ) घरने (उज्जतु के० ) त्याग कर. वली (विधिप्रागदन्यं के०) सर्व आचारनुं जे चातुर्य तेने (अन्यस्यतां के०) अन्यास कर. वली (अंतर्गणं के०) गरवासमां अथवा (अंतर्वण) एवो पाठ होय तो वनने विषे (अस्तु के० ) हो. वली (श्रागमश्रमं के०) सिकांतना पठनने ( उपादत्तां के०) अंगीकार कर. तथा ( तपः के० ) तपश्चर्याने ( तप्यतां के० ) तप. परंतु ( चेत् के०) जो वली (इंघियवातं के०) इंजियसमूहने (जेतुं के०) जीतवाने एटवे वश करवाने ( नावैति के) न जाणे ने ( ततः के०) तो ( सर्व के०) पूर्वोक्त सर्व, (जस्मनि के) राखने विषे ( हुतं के०) होमेलु हुतप्रव्य जेवू होय तेम वृथा ( जानीत के०) जाण. ते केहवो ने ई Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) जियवात ? तो के (श्रेयःपुंजनिकुंजनंजन के० ) पुण्य समूहरूप जे वन तेना नंजनननेवीषे (महावातं के0) विटोलीया जेवो ॥१॥ टीका:-धत्तामिति ॥ हे साघो! नवान् मौनं धत्तां कुरुतां। पुनः श्रगारं गृहं उज्जतु त्यजतु। पुनर्विधिप्रागदत्यं सर्वाचारचातुर्य अन्यस्यतां कुर्वतु । अंतगणं गरवासमध्ये अथवा अंतर्वण मितिपाठे वनमध्ये श्रस्त जवतु । पुनरागमश्रमं सिद्धांतपठनं उपादत्तां अंगीकुरुतां । पुनस्तपस्तप्यतां करोतु। परं चेद्यदि इंजियवातं इंडियसमूहं जेतुं वशीकर्तुं नावैति न जानाति । तदा सर्वं पूर्वानुष्ठानं जस्मनि रदायां हुतं वृथा जानीत । कथंनूतं इजियनातं । श्रेयसां कल्याणानां पुंजएव निकुंज तस्य नंजने महावातं वातूलसमानं ॥१॥. जाषाकाव्यः-वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ मौनके धरैया, गृह त्यागके करैया, विधि रीतिके सधैया, परनिंदासों अपूठे हैं ॥ विद्याके श्रन्यासी, गिरिकंदरा के बासी,शुचि अंगके श्राचारी,हितकारी बैन वठे है। श्रागमके पाठी, मन लाय महा काठी, जारी कष्टके सहनहार, रमाहूंसों रूठे है ॥ इत्यादिक जीव, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) सब कारज करत रीतें, इंडिनके जीते, बिना सरवंग झूठे हैं ॥ ७१ ॥ वली कां विशेष कहे बे. धर्मध्वंस धुरीणमज्रमरसावारीणमापत्प्रथा, शर्मनिर्मितिकलापारीणमेकांत लंकर्माणम तः ॥ सर्वान्नीनमनात्मनी नमनयात्यंतीनमिष्टे यथा, कामीनं कुमताध्वनीनमज यन्नदौघमदमनाक् ॥ ७२ ॥ इतीप्रियदमप्रक्रमः ॥ १६ ॥ अर्थः- (ौघं के० ) इंद्रियोना समूह ने ( अ - जयन् के० ) नहि वश करतो एवो प्राणी, ( श्रदेमजाक् के० ) कल्याणनो जजनारो थाय बे. ते hear a इंडियघ ? तो के ( धर्मध्वंसधुरीणं के० ) धर्मना नाश करवामां मुख्य बे, वली (भ्रमरसावारीणं के० ) सत्य ज्ञानने यावादन करनार बे, वली ( पालंकमणं के० ) कष्टना विस्तारमां पूर्ण कर्म करनार बे तथा ( शर्म निर्मितिकलापारीणं के० ) कल्याणना निर्माणने विषे चतुर बे, वली ( एकांततः के० ) निश्चयें करी ( सर्वानी Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) नं के० ) सर्वान्नजनक , वली (अनात्मनीनं के०) आत्मानो थहितकारक , तथा (अनयात्यंतीनं के० ) अन्यायने विषे अत्यंत गामी तथा ( इष्टे के०) इलित वस्तुने विषे (यथाकामीनं के० ) स्वेबायें वर्तनारो बे, तथा ( कुमताध्वनीनं के0 ) कुसितमतरूप जे मार्ग तेने विषे पांथीजनसमान ले तेने जिंत्या शिवाय प्राणी कल्याणनो नजनारोथाय नही ॥७२॥ इति षोडश इंडियदमप्रक्रमः ॥१६॥ ___टीकाः-पुनर्विशेषमाह ॥ धर्मध्वंसेति ॥ अदाणां इंजियाणा उघं समूहं अजयन् श्रवशीकुर्वन् जनः अदेमनाक् अकल्याणजाग् नवति । कथंनूतं अदौघं । धर्मध्वंसे धुरीणः मुख्यस्तं । पुनरज्रमरसस्य सत्यज्ञानस्य आवारीणं आवरणाय समर्थ श्रावारीणस्तं श्राबादकं । पुनः कथंनूतं ? आपदांकष्टानां प्रथायां विस्तारणे अलंकर्मीणः कर्मक्षयस्तं । पुनः किंनूतं ? अशर्मणां अकल्याणानां फुःखानां निर्मिती निर्माणे करणे कलापारीणश्चतुरस्तं। पुनः किंजूतं ? एकांततोनिश्चयेन सर्वानीनःसन्निनदकस्तं । पुनः किंजूतं ? न श्रात्मने हितोऽनात्मनीनः तं श्रात्मनोऽहितं । पुनः किंजूतं ? अनयान्यायेऽत्यंतीनो Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) ऽत्यंतगामी तं । पुनः किंभूतं ? इष्टे इष्टवस्तुनि यथाकामं स्वेaयावर्त्तते इति यथाका मिनस्तं । पुनः किंभूतं ? कुमते कुत्सितमते ध्वनीनः पांथस्तं । ईदृशं इंद्रियसमूहं श्रजयन् सन् श्रमनाग् जव ति ॥७२॥ यतः ॥ कुरंगमातंगपतंगजुंग, मीना हताः पंच जिरेव पंच ॥ एकः प्रमादी सकथं न हन्यते, यः सेवते पंच जिरेव पंच ॥ १ ॥ इति ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकी र्त्तिजिः॥ सूरि निर्विहितायां तु, इंद्रियप्रक्रमोऽजनि ॥ १६॥ जाषाकाव्यः - वृत्त ऊपरप्रमाणें ॥ धर्म तरु जंजनकों महामत्त कुंजरसें, यापदा जंमार के जरनकों करोरी हैं | सत्यशील रोकवेकों पौढै परदार जैसें, दुर्गतिको मारग चलायवेकों धोरी हैं । कुमतिके अधिकारी कुनय पथके विहारी, जडजाव इंधन जरायवेकों होरी है ॥ मृषाके सहाइ दुर्भावनाके नाइ, ऐसे विषया जिलाषी जीव के अघोरी है ॥ ७२ ॥ कथा: - इंद्रियदमन उपर कथा कहे बे. जरतक्षेत्र विशालानगरमां चेडो नामें राजा राज्य करे बे. ते परम जिनधर्मी वे, तेने सातपुत्री मां सुज्येष्ठा तथा चेला एवे नामें बे पुत्री बे. तेने मांहोमांहे घणो स्नेह बे, ते जेम के शयन, जोजन, स्नान, Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए) दान सर्व एकगं करे. ते गाममां को पारिवाजिका श्रावीने पोताना शौचमूल धर्मनां वखाण करती फरे. एकदा ते पारिवाजिका कन्याना अंतेउरमां ग. तिहां तेने सुज्येष्ठायें वाद करी जीती निबी. ने काहाडी मूकी, ते वखत पारिवाजिकायें रोष करीने एवो निश्चय कस्यो के ए बालिकाने हुँ महोटा संकटमा नाखुं ! जेथी महारं वैर वली श्रावे. एम चिंतवी पड़ी सुज्येष्ठानुं रूप पाटीयामांहे तादृश चितराव्यु ते रूप श्रेणिक राजाने जई देखाड्यु. ते जोश् श्रेणिक राजायें कामविह्वल थश्ने चेडाराजा उपर दूत मोकली कन्यानी मागणी करावी, पण चेडायें नाकारो कस्यो. तेवारें अजय कुमार पोतें श्रेणिकराजानुं तादृश रूप पट्ट उपर चित्रावी, ते लक्ष विशाला नगरीयें श्रावी. अंतेउरनी पासें सुगंधीवस्तुनी पुकान मांगी बेगो. जेवारें अंतेउरमांथी सुज्येष्ठानी दासी सुगंधी वस्तु लेवा आवे, तेवार तेने बहुमूली वस्तु अल्पमूल्ये आपे. अने ते दासीने श्रेणिक राजानुं रूप पण देखाडे. दासीय रूपने वखाणतां सुज्येष्ठानी आगल वात करी, ते रूप अणावी सुज्येष्ठाने देखा Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (शएG) ड्यु. ते जो मोह पामीने एकांतें श्रेणिक राजा उपर रागिणी थ. ते वात अजयकुमारे जाणीने एक सुरंग खोदावी ते मांथी श्रेणिकने तेडाव्यो, तेनी आगल सुज्येष्ठा पण श्रावी. पली जेटलामां सुज्येष्ठा आचरण लेवा पाली गश्, एटलामां सुज्येष्ठाने जोवा सारु चेलणा ते सुरंगमां श्रावीने राजाश्रेणिक धागल उत्नी रही. राजा तेनेज सुज्येष्ठा जाणी तत्काल घोडा उपर चडावीने चालतो थयो. पालथी सुज्येष्ठा पण आजरणनो करंमीयो ल सुरंगमां श्रावी, श्रेणिक राजाने जोवा लागी पण राजाने चेलणा सहित दीगे नही, तेवारें पोकार कस्यो, ते चेडाराजायें सांजव्यो, तेवारें वाहार करवा दोड्यो, तेने सुरंगमांदे श्रेणिकराजायें आवतो दीगे, ते वखतें सुलसाना बत्रीश पुत्र श्रावी ऊना रह्या. राजा श्रेणिक चेलणाने लश् नीकली गयो. चेडाराजायें एक बाण मास्यो ते वागवाथी पुत्र पडी गया. समुदाय कम लागुं. पठी सुज्येष्ठायें विचागुंजे में एक चिंतव्युं श्रने बीजुं थयुं ! एम चिंतवी वैराग्यरंग वासित थ श्रीवीरनी पासें जश् दीदा लश् तेने निरतिचारपणे पालवा लागी. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एए) एवाअवसरमां कोश्क पेढाल नामें विद्याधर अनेक विद्यार्जनो निधान बे, ते वृद्धपणुं पाम्यो, तेवारें विद्या देवा योग्य पात्र शोधवा लाग्यो, पण तादृश पात्र को मले नही. जे सुशील कामरहित स्त्री होय वली ब्रह्मचारिणी होय, तेना उपरथी जे पुत्र उत्पन्न थाय ते उत्तम जाणवो. तेवा पात्रने विद्या दीधी थकी बहु फलदायक थाय. एम निर्धारी तेवी स्त्री जोवा माटें पेढाल विद्याधर फस्या करे, तेणें एकदा दीदानी पालनारी शीलवत धरनारी सुज्येठाने दीठी, तेवारें वीद्याने बलें अंधकार करी जेम सुज्येष्ठाना जाणवामां न श्रावे, तेवी रीतें तेनी योनिमा जमरानुं रूप करी वीर्य प्रदेप्यु. पडी थोडे थोडे तेने गर्जनां चिन्ह प्रगट थवा लाग्यां, पण श्रीमहावीरें तेने निर्विकारी कही तेथी सज्यातर श्रावकें तेने घरमा राखी. तिहां पूर्ण मासे पुत्र प्रसव्यो, तेनुं सात्यकी एवं नाम दीधुं. ते साध्वीयोने उपासरे महोटो थवा लाग्यो. तिहां जेजे साध्वीयो नणे, ते सर्व सांजलता थकां तेणे सर्व शास्त्र कंठे करी लीधां. एकदा को कालसंवर विद्याधर अने सात्यकी श्रीवीरना समोसरणमां बेग थका उपदेश सांजले Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) बे. तिहां सात्यकी यें जगवानने कयुं के महाराज ! ढुं मिथ्यात्वने परहुं करी समुद्रमां नाखी दईश. तेने जगवान कां के तहाराथी तो उलटुं विशेष मिथ्यात्व प्रचलित थशे. तेटलामां कालसंवर वि द्याधरें पूयं के हे जगवन् ! मुकने कोनाथी जय थशे ? ते वारें जगवाने कह्युं के ए सात्यकी थकी तुमने जय थशे ! ते सांजली विद्याधरें विचाखुं जे ए बालकनुं माहारी आगल शुं गजुं ! एम चिंतवी सात्यकीने पगनी ठेश मारीने जतो रह्यो, ते देखी सात्यकीना मनमां महोटो विषाद उपन्यो. पढी सात्यकी जेवारें महोटो थयो, तेवारें पेढालें तेने रोहिणी प्रमुख विद्यार्ज शीखवी. ते विद्या साधतांकालसंवर विद्याधर तेने अंतराय करवा लाग्यो. परंतु पूर्वजन्मना वचनथी ते विद्या देवी थोडे थोडे अनुक्रमें प्रसन्न 5. केम के पूर्वज विद्यादेवी यें ए सात्यकीने पांच जव पर्यंत विणास्यो हतो, परंतु पांचमे जवें क ह्युं हतुं के बडे नवें तुमने उपक्रमें विद्या सिकशे. माटें विद्या तत्काल सिद्ध इ. पण ते वखतें सा की पोतानुं मात्र महीनानुं श्रायुष्य रहेलुं Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) थइ. सांजली फरी विद्यादेवीने कर्तुं के स्वामिनि ! तमे महारी उपर कृपा करी सातमे नवें वहेलां सिद्ध थजो. ते वचनथी सात्यकीने सातमे नवें ते विद्या तत्काल सिद्ध थ5. ते विद्यादेवीनो अत्यंत प्रेम सात्यकी उपर उपन्यो छाने कड़ेवा लागी के ताहारा शरीरमांदे एवं कोइ स्थानक देखाड के जिहां में षोडश विद्यादेवीयो यावीने वसीयें ! सात्यकी यें पोतानुं मस्तक देखाड्यं, तेवारें देवीयोयें ललाटमां बिद्र पाडी मांदे प्रवेश की धो. तिहां बिइने स्थानकें त्रीजुं नेत्र कीधुं. एकदा सात्यकी यें विचायुं जे महारा पिता पेढालें महारी माता साध्वीनी निंदा करावी बे ? एवो रोप लावीने पेढालने मारी नाख्यो. ते समाचार कालसंवर विद्याधरें सांजल्या, तेथी तेणें पण त्यांश्री पलायन की धुं. सात्यकी तेनी पाउल दोड्यो, कालसंवरें आकाशमां त्रण नगरीनी रचना करी घ या काल पर्यंत युद्ध ऋयुं. तो पण सात्यकी यें तेने मास्यो. पी सात्यकी मदोन्मत्त थइ पोतानी 5छायें अनेक परस्त्रीयोने जोगववा लाग्यो. साधुने योगें मिथ्यात्व तजी क्षायिक सम्यक्त्व पाम्यो त्रि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०२) संध्या जिनार्चा करे. एकदा उजयणी नगरी चं प्रद्योतनराजाना अंतेउरमा प्रवयों राजायें क्रोध श्राणीने कह्यु के कोश् सात्यकीने मारनार ? तेवारें उमया गणिकायें राजा आगल सात्यकीने मारवानी कबुलात थापी. विश्वासघात करी मारी नखाव्यो ॥ ए प्रमाणे इंजियलोलुप्तपणुं करवायी ते बलवान् एवो सात्यकी नाश पाम्यो. माटें ईजियो वश राखवी॥ ॥ हवे लक्ष्मीनो स्वजाव कहे . निम्नं गति निम्नगेव नितरां निशेव विकंनते, चैतन्यं मदिरेव पुष्यति मदं धूम्येव दत्तेऽधताम् ॥ चापल्यं चपलेव चुंबति दवज्वालेव तृष्णां नय, त्युल्लासं कुलटांगनेव कमला स्वैरं परित्राम्यति ॥७३॥ अर्थः-( कमला के० ) लक्ष्मी, ( निम्नं के०) नीचप्रत्ये ( विनगाश्व के०) नदीनी पेठे ( गति के०) जाय . वली ते लक्ष्मी ( नितरां के०) श्रत्यंत ( चैतन्यं के० ) ज्ञानने (विष्कंजते के) विनाश करे . केनी पेठे ? तो के ( निव के ) नि Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०३) जानी पेठे. जेम निशा श्रचैतन्य करे , तेम लक्ष्मी पण झाननो नाश करे . तथा ( मदं के० ) अहंकारने (पुष्यति के०) पोषण करे . केनी पेठे ? तो के (मदिरेव के०) मदिरा जेम डे तेम. श्रर्थात् जेम मदिरा उन्मत्तताने करे ने तेम लक्ष्मी पण अहंकार जे मद तेने करे . वली ते लक्ष्मी अंधतां के०) अंधपणाने ( दत्ते के आपे बे. केनी पेठे ? (धूम्येव के०) धूमस मूहनी पेठे वली (चापत्यं ) चंचलपणाने (चुंबति के०) नजे . केनी पेठे ? तो के ( चपलेव के) विजलीनी पेठे जाण तथा ( तृष्णां के) मृग तृष्णाने अने (उहासं के) उदासने (नयति के) पमाडे ने ऐटले लोन वांगने वधारे बे. केनी पेठे ? तो के ( दवज्वालेव के०) वनामिनी ज्वालानी पेठे अर्थात् जे. म दवज्वाला तृषाने वधारे. तेम लक्ष्मी लोजने वधारे जे. वली लक्ष्मी ( स्वैरं के ) स्वछायें करी (परिभ्रमति के०) परिभ्रमण करे . केनी पेवें ? तो के ( कुलटांगनेव के०) स्वैरिणी स्त्रीनी पेठे. जेम असती स्त्री स्वेबायें जमे बे, तेम लक्ष्मी पण स्वछायें व्रमण करे ३ ॥ ३ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) 1 टीका:- पुनर्लक्ष्मी वजावमाह ॥ निम्नंगेति ॥ कमला || लक्ष्मी: निम्नं नीचं प्रति गछति । केव ? निम्नगा इव नदीव । यथा नदी नीचं गच्छति । पुनः नितरां अतिशयेन चैतन्यं ज्ञानं विष्कंजते विनाशयति । केव ? निद्रेव यथा निद्रा श्रचैतन्यं करोति । पुनलक्ष्मीर्मदं श्रहंकारं पुष्यति पुष्णाति । केव ? मदिरेव सूरेव यथा मदिरा मदं उन्मत्ततां करोति । पुनः कमला अंधतां दत्ते अंधत्वं करोति । केव ? धूम्येव धूमसमूहश्व । यथा धूमोऽप्यंधं करोति । पुनर्लक्ष्मीश्वापल्यं चुंबति नजति । केव ? चपला श्व विद्युदिव । पुनः कमला तृष्णां उल्लासं नयति । लोनवां वर्द्धयति । केव ? दवज्वाला श्व । यथा दवज्वाला तृषां वर्द्धयति । पुनः कमला स्वैरं स्वेच्छया परिभ्रमति । केव ? कुलटांगना इव सती स्त्रीश्व यथा सती स्त्री स्वेच्छया भ्रमति तद्वत् ॥ ७३ ॥ " जाषाकाव्यः - सवैया तेइसा ॥ नीच कि और ढरै सरिता जिम, घूम बढावत नींद कि नांइ ॥ चंचलता प्रगटै चपला जिम, अंध करै जिम धूम कि जांइ ॥ तेज करे त्रसना दव ज्यों मद, ज्यौं मद पो Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०५) पति मूढकि तां ॥ ए करतूत करै कमला जग, मोलत ज्यौं कुलटा बिनु सां ॥७३॥ वली धनना दोषो कहे . दायादाः स्पृदयंति तस्करगणा मुष्णांति नूमीजुजो, गृहंति बलमाकलय्य हुतनुग्नस्मीकरोति दाणात्॥अंनःप्लावयति दितौ विनिहितं यदा दरंतेदगत्,उन॒तास्तनया नयंति निधनं धिग्बव्दधीनं धनम्॥७४ अर्थः-(धनं के०) अव्यने ( धिक् के० ) धिकार हो. ते केहबुं अव्य ? तो के ( बव्हधीनं के०) घणाकने श्राधीन रहेढुंडे. कोने कोने श्राधीन रहे बे ? तो के ते धननी ( दायादाः के०) गोत्रीया ( स्पृदयंति के० ) स्पृहा करे जे. वली तेने (तस्करगणाः के०) चोरना समूहो (मुष्णंति के०) चोरे . तथा (नूमीजुजः के०)राजा (बुलं के०) कांक्ष पण मिषने (आकलय्य के०) दश्ने ( गृहूंति के०) ग्रहण करे . वली ( दुतजुक् के०) अनि ( क्षणात् के०) क्षणमात्रमा ( जस्मीकरोति के० ) जस्म करे . अने (अंजः के०) पाणी, (प्ला Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०६) वयति के०) पलालि नाखे बे. तथा (क्षितौ के० ) पृथ्वीने विषे ( विनिहितं के ) स्थापन करेलु जे धन, तेने ( यदाः के०) व्यंतरो, (हगत् के ) बलात्कारथी (हरते के० ) हरण करे . तथा (उर्वृत्ताः के०) पुराचारी एवा (तनयाः के ) पुत्रो, (निधनं के०)विनाशने (नयंति के)पमाडे . माटें घणा जननी स्पृहायुक्त एवा धनने धिक्कार होजो॥४॥ टीका:-धनस्य दोषानाह । धनं अव्यं धिक श्र. स्तु। धिक् निर्जर्सननिंदयोः । किंनूतं ? बव्हधीनं बव्हधीनत्वं । बहवः श्वंति। कथं ? दायादाः गोत्रिणः स्पृदयंति ग्रहीतुं वांति । पुनस्तस्करगणाश्चोरसमूहाः मुष्णं ति चौरयति । पुनर्जूमीजुजो राजानः बलं श्राकालय्य मिषं दत्वा गृहंति । हुतनुक् वन्दिः क्षणागेन जस्मीकरोति ज्वालयित्वा रदां करोति। पुनरंजः पानीयं प्लावयति वाहयति । पुनर्यजनं कितौ विनिहितं स्थापितं सन् यदाव्यंतरा हाइलात्का रेण हरते अपहरंति। पुनर्वृत्ताः पुराचारास्तनयाः पुत्रा निधनं विनाशं नयंति प्रापयति । एवं बव्हधीनं धनं धिगस्तु ॥ ४ ॥ जाषाकाव्यः-वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ बंधु विरोध Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) करै निशि वासर, डंम नकों नरवर बल जोवै ॥पावक दाहत नीर वहावत, व्है दृग उंट निशाचर ढोवै ॥ नूतल रदत जद हरे करि, कै पुरवृत्ति कुसंगति खोवै ॥ ए उत्पात उवै धनके ढिग, दामधनी कहो क्यों सुख सोवै ॥ ४ ॥ जे धन ने तेज मोहर्नु उत्पादक डे, ते कहे जे. नीचस्याऽपि चिरं चटूनि रचयंत्यायांति नीचैर्नतिम् , शत्रोरप्यगुणात्मनोऽपि विदधत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम् ॥ निर्वेदं न विदंति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाक्रमे, कष्टं किं न मनस्विनोऽपिमनुजाःकुर्वति वित्तार्थिनः॥७॥ अर्थः-( मनखिनोऽपि के०) मानवंत एटले माह्या एवा पण ( मनुजाः के० ) मनुष्यो, (वित्तार्थिनः के० ) व्यार्थी थया उता, (किं कष्टं के ) कया कष्टने ( न कुर्वति के.) नथी करता ? श्रर्थात् सर्व प्रकारना कष्टने करेज . ते जेम केः-वित्ता जनो ( नीचस्यापि के० ) नीच जननी श्रागल, ( चटूनि के ) प्रिय एवां वचनोने (चिरं के०) घणा काल (रचयंति के०) बोले . तथा (नीचैः Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) के० ) नीच पुरुषो साथै ( नतिं के ) प्रणामने (आयांति के०) करे . तथा (अगुणात्मनोपि के०) निर्गुण एवा पण ( शत्रोरपि के०) शत्रुनापण (उच्चैः के०) अतिशयें करी ( गुणोत्कीर्तनं के) गुणवर्णनने ( विदधति के ) करे बे. वली ( अकृतस्यापि के ) करेला कार्यने न जाणनारा एवा अकृतज्ञ खामीना पण ( सेवाक्रमे के० ) सेवा करवामां (किंचित् के०) जरा पण (निर्वेदं के०) खेदने ( नविदंति के०) जाणता नथी. एटले वित्तने वांउनारा जनो पूर्वोक्त सर्व काम करे . टीकाः-धने मोहोत्पादकत्वमाह ॥ नीचस्येति ॥ मनस्विनोमानवंतो ददा अपि मनुष्या वित्तार्थिनो अव्यार्थिनः संतःकिं कष्टं न कुर्वति? अपि तु सर्व कष्ट कुर्वंति । यथा नीचस्यापि नरस्याग्रेचिरं चिरकालं याचन् चटूनि चटुवचनानि प्रियवचनानी रचयंति जल्पंति । पुनींचैनरैः समं नतिं श्रायांति प्रणामं कुर्वति । पुनः शत्रोरपि श्रगुणात्मनोपि निर्गुणस्यापि उच्चैरतिशयेन गुणोत्कीर्तनं गुण वर्णनं विदधति । पुनरकृतज्ञस्याऽपि प्रजोः सेवाक्रमे सेवाकरणे किंचित् स्तोकमपि निवेदं खेदं Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०५) न विदंति न जानंति । वित्तवांछकाः संतः॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ नीच धनवंत तांश निरखि असीस देश, वह न विलोके यह चरन गहतु है ॥ वह अकृतज्ञ नर यह अज्ञता को घर, वह मदलीन यह दीनता कहतु है ॥ वह चि. त्त कोप गनै यह वाकों प्रजु माने, वाके कुवचन सब याहि सहतु है ॥ ऐसी गति धारै न विचारै कलु गुनदोस, अरथानिलाषिजीव अरथ चहतु है ॥ ५॥ लदमीः सर्पति नीचमर्णवपयः संगादिवांनोजिनी, संसर्गादिव कंटकाकुलपदा नक्कापि धत्तेपदम् ॥ चैतन्यं विषसनिधेरिव नृणामुडासयत्यंजसा, धर्मस्थाननियोजनेन गुणिनिर्याह्यं तदस्याः फलम्॥ ७६॥इति लक्ष्मीस्वनावप्रक्रमः ॥१७॥ अर्थः-( लक्ष्मीः के० ) लक्ष्मी, (नीचं के०) नीच पुरुषप्रत्ये ( सर्पति के०) जाय . शा माटें जाय ने ? तो त्यां उत्प्रेदा करे . के ( अर्णवपयः संगादिव के०) समुज जलना संगथकी जेम जल डे, ते नीचगामी तेम लक्ष्मी पण जलसंगथकी Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१०) नीचगामी थर बे. कारण के लक्ष्मीनी उत्पत्ति समुपजलथीज डे अर्थात् समुज्जल पिता होवाथी ते नीचगामी . वली लदमी (कापि के०) कोश पण ( पदं के०) स्थानकने (न धत्ते के०) नथी धारण करती. केम के, (अंजोजिनीसंसर्गात् के० ) कमलिनीना संयोगथकी ( कंटकाकुलपदाश्व के) कांटायें करी व्याप्त ने पग जेना एवीज जाणीयें होय नही एटले जेम कोश्ने कांटा वाग्या होय तेने पीडा होवाथी क्यांय पग मांमी सके नहीं तेम लदमी पण एकस्थलें रहेती नथी. वली लक्ष्मी ( नृणां के० ) मनुष्योना ( चैतन्यं के० ) ज्ञानने (अंजसा के० ) अनायासें करी (उजासयति के०) गमावे ने शा माटें ? तो के ते ( विषसन्निधेरिव के) विषना सन्निधिपणा थकीज जाणीयें होय नही कारण के विषतुं अने लक्ष्मी, स्थानक एक समुज्ज . (तत् के०) ते कारणमाटें ( गुणिनिः के०) गुणिजनोयें ( धर्मस्थाननियोजनेन के ) धर्मस्थानमां तेना व्ययने करवे करी (अस्याः के०) श्रा लक्ष्मीनु ( फलं के० ) फल. ( ग्राह्यं के०) ग्रहण करवायोग्य . अर्थात् पुण्यकार्यमा जे लदमी Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३११) वापरे, ते लदमी- फल पामे ॥ ६ ॥ इति सप्तदश लदमीवजावप्रक्रमः ॥ १७ ॥ ___टीकाः-उपमानेन श्रीखरूपमाह ॥ लक्ष्मीः नीचं सर्पति नीचं जनं प्रतियाति । कस्मात् ? उत्प्रेक्षते । अऽर्णवपयः संगात् समुज्जलसंगमान्नीचगामिन्यनूत् । पुनर्लदमीः कापि पदं स्थानं च न धत्ते न स्थापयति । कीदृशी ? अंनोजिनीसंसर्गात् कमलिनीसंयोगादिव । कंटकाकुलपदा कंटकैाप्तचरणेव ॥ पुनर्लक्ष्मीनृणां पुंसां चैतन्यं ज्ञानं अंजसा वेगेनोजासयति गमयति । कस्मात् विषसंन्निधेर्विषसामीप्यादिव लदम्याः विषस्य च समुप्रस्थानत्वात् तस्मात्कारणात् गुणि निर्जनैर्धर्मस्थाननियोजनेन धर्मस्थानव्ययकरणेनास्याः लदम्याः फलं ग्राह्यं सफला कर्त्तव्येत्यर्थः॥ ६॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्षकीर्तिनिः॥ सूरिनिर्विहितायांतु, लदम्याश्च प्रक्रमोऽजनि॥१७॥ लाषाकाव्यः-वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ नीचहीकी औरकुं उमंगी चलै कमलासु, पिता सिंधु सलिल सुजाउ याहि दियो है ॥ रहै न सुस्थिर व्है सकंटक चरन याको, वसि कंजमांहि कंजकोसो पद कियो है ॥ जाकों मिलै हितसों अचेत करि मारै Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५) ताहि, विषकी बहिन तातें विषको सो दियो है ॥ ऐसी गहारी जिन धरम के पथमारी, करिकें सुकृत तिन याको फल लियो है ॥ ६ ॥ कथाः-अंगदेशने विषे धारापुर नगरनो सुंदर नामें राजा , तेनी मदनवना नामें राणी बे. तेने एक कीर्तिपाल, बीजो महीपाल एवे नामें बे पुत्र बे. ते राजा परस्त्रीपराङ्मुख , श्रने राणी पण शी. लांगी . एकदा मध्यरात्रिये तेनी कुलदेवतायें श्रावीने कडं के हे राजन् ! तुमने मुर्दशा श्रावी , महोटुं कष्ट प्राप्त थशे ? ते सांजलीने राजायें कयु के शुनाशुनकर्मज जीवें कस्यां होय, ते जोगव्या विना बूटको थाय नही ॥ यतः ॥ संपदि यस्य न हर्षो विपदि विषादोरणेषु धीरत्वम् ॥ तं जुवनत्रयतिलकम, जनयति जननी सुतं विरलम् ॥१॥माटें कीधां कर्म जोगव्याविना बूटे नही. एवं धैर्य धरी प्रधानने राज्य जलावी राजा पोतें तथा स्त्री श्रने बे पुत्र साथें लश् परदेश जणी चाव्या. एकदा वगडामां कुटुंबसहित राजा सूतो ने ते वखतें पोतानीपासें जे संबल हतुं, ते सर्व चोर लोको लश् गया. पली वनफलादिके कुटुंब निर्वाह करतो थको चालतो Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) चालतो पृथ्वी पुरनगरें श्राव्यो. तिहां कोई धनसा गर व्यवहारीयाना वाडामां रह्यो राणी लोकोने घेर मजुरी करवा जाय बे तेने स्वरूपवान् देखी मोeिars लोको मजुरी वधारे देवा लागा. तिहां विषयी लोकोना प्रसंगथी घणां दुःख सहन करयां, फरी जाग्योदय थयो तेवारें पोताने नगरें गया. राज्य पाम्यां, सर्व कुटुंबने मल्यां, सर्व मनोरथ सिद्ध था. घणो काल सांसारिक सुख जोगवी वृद्धावस्थायें चारित्र लई बेवट संलेषणा करी देवलोकें गया. ए लक्ष्मीनी चंचलताविषे कथा जाणवी ॥ ७६ ॥ हवे दाननो उपदेश कहे बे. चारित्रं चिनुते धिनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नतिम्, पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युवासयत्यागमम् ॥ पुण्यं कंदलयत्यऽघं दलयति स्वर्गं ददाति क्रमात्, निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रं धनम् ॥ ७७ ॥ अर्थ : - ( पवित्रं के० ) पवित्र एटले न्यायोपार्जित एवं ( धनं के० ) धन, ( पात्रे के० ) पात्रने विषे ( निहितं के० ) श्ररोपण कयुं बतुं एटले Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१४) दीधुं तुं ( चारित्रं के ) संयमने ( चिनुते के०) वधारे जे. तथा (विनयं के०) विनयना गुणने (धिनोति के० ) वधारे . तथा (ज्ञानं के) श्रुतादिकझानने (उन्नति के०) उन्नतिप्रत्ये ( नयति के०) पमाडे . तथा (प्रशमं के० ) उपशमने ( पुष्णाति के०) पोषण करे . तथा ( तपः के०) मास पद क्षपणादिक जे तप तेने (प्रबलयति के ) बलवान् करे . एटले पारणादि योगथकी उत्साह करे . तथा (भागमं के०) सिद्धांत पनादिकने ( उदासयति के० ) प्रबल करे . तथा (पुण्यं के०) पुण्यने (कंदलयति के०) उत्पन्न करे . ( श्रघं के) पापने ( दलयति के० ) खंमन करे . तथा ( खर्ग के० ) वर्गने ( ददाति के ) आपे .तथा (क्रमात् के ) अनुक्रमथकी ( निर्वाण श्रियं के०) मोदरूप लदमीने (श्रातनोति के० ) विस्तारे . एटले आपेले. अर्थात् सुपात्रमा आपेढुं धन, पूर्वोक्त सर्व वस्तुने श्रापे रे ॥ ७ ॥ टीकाः-दानोपदेशमाह ॥ चारित्रमिति ॥ पवित्रं न्यायोपार्जितं धनं वित्तं पात्रे सुपात्रे निहितं दत्तं सत् चारित्रं संयमं चिनुते वर्धयति । विनयं विनयगुणं Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५) धिनोति प्रीणयति । पुननिं श्रुतादि उन्नतिं नयति प्रापयति । पुनः प्रशमं उपशमं पुष्णाति पोषयति। पुनस्तपोमासदपणादि प्रबलयति पारणादियोगाफुत्साहयति । पुनरागमं सिद्धांतपठनादि उवासयति प्रबलं करोति । पुनः पुण्यमेव सत्कर्मवनं कंदलयति कंदलायुक्तं करोति पुनः श्रघं पापं दलयति खंडयति । पुनः स्वर्ग ददाति । क्रमादनुक्रमेण निर्वाणश्रियंमोद लमीश्रातनोति दत्ते इत्यर्थः । सुपात्रे दत्तं धनं एतानि वस्तूनि करोति ॥ ७ ॥ जाषाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक छंद ॥ चरन अखंग ज्ञान अति उज्ज्वल, विनयविवेक प्रसमश्रमलान ॥ अनघ सुनाउ सुकृत गुनसंशय, उच्च श्रमर पद बंध विधान ॥ अगम गम्य रम्य तपकी रुचि, उकत मुगति पंथ सोपान ॥ए गुन प्रगट होहि तिनके घट, जे नर देहिं सुपत्तहिं दान ॥७॥ दारियं न तमीदते न लजते दौर्नाग्यमालंबते, नाऽकीर्तिर्न परानवोऽनिलषते न व्याधिरास्कंदति ॥ दैन्यं नायिते उनोति Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दरः क्विश्नति नैवापदः, पात्रे योवितरत्यनर्थदलनं दानं निदानं श्रियाम् ॥ ७ ॥ अर्थः-( यः के० ) जे पुरुष, ( पात्रे के ) पात्र जनने विषे ( दानं के) दानने ( वितरति के०) थापे बे. (तं के०) ते पुरुषने (दारियं के०) दारियं, (न ईदते के०) जोतुं नथी, तथा ते पुरुषने ( दौर्जाग्यं के० ) पुर्जाग्यपणुं, (न जजते के०) सेवतुं नथी. तथा (अकीर्तिः के० ) अपयश ( नालंबते के) श्राश्रय करतुं नथी. तथा ते पुरुषने (पराजवः के० ) परानव, ( नानिलषते के० ) अनि. लाष करतो नथी. तथा ( व्याधिः के० ) व्याधि, (न आस्कंदति के०) न शोषण करे . तथा (दैन्यं के०) दीनता (नाजियते के०) आदर करती नथी तथा ( दरः के०) जय, ते (न उनोति के०) नथी पीडतो. तथा (आपदः के०) कष्टो, (नैवविनंति के०) नथीज पीडा करतां. ते दान कहेवू ने ? तो के ( अनर्थदलनं के० ) उपवोने नाश करनारुंडे तथा (श्रियां के०) संपत्तिनुं (निदानं के० ) कारणनूत.तेमाटें सुपात्रने दान जरूर थापq ॥॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) 1 टीका:- पुनर्दानगुणानाह ॥ दारिद्र्य नेति ॥ यः पुमान् पात्रे सुपात्रे दानं वितरति प्रयक्षति । तं पुरुषं दारिद्र्यं न ईते न पश्यति । पुनस्तं दौर्भाग्यं दुर्जगत्वं न जजते न सेवते । पुनस्तं की तिरपयशो नालंबते नाश्रयति । पुनस्तं पराजयः नाऽनिलषते न वांछति । पुनर्व्याधिर्माद्यं तं नास्कंदति न शोषयति । पुन दैन्यं दीनतां नाद्रियते नाश्रयति । पुनर्दरोजयं न दुनोति न पीड्यति । पुनः श्रापदोव्यसनानि कष्टानि तं न क्विनंति न पीडयंति । यः पात्रे दानं ददाति । किंभूतं दानं ? अनर्थानां उपड़वानां दलनं बेदनं । पुनः किंनूतं श्रियां संपदां निदानं कारणं ॥ ७८ ॥ I जाषाकाव्यः - उप्पय छंद ॥ सो दरिद्र दलमलै, तांहि पुरजाग न गंजै ॥ सो न लहै अपमान, सो तो विपदा जय जै ॥ पिसुन कोइ दुःख देश तासतन व्याधिन वढ ॥ तांहि कुजस परिहरै, सुमुख दीनता न कट्टर || सो लहै उच्च पद जगत मैं, घ अनर्थ नाश हि सरव ॥ कहिं कंवरपाल सो धन्य नर, जो सुखेत बोवै दरव ॥ ७८ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१७) वली पण दानना गुणो कहे .. लक्ष्मीः कामयते मतिर्मगयते कीर्तिस्तमालोकते, प्रीतिचुंबति सेवते शुनगता नीरोगताऽऽलिंगति ॥श्रेयःसंदतिरन्युपैति - णुते स्वर्गोपनोगस्थिति, मुक्ति मिति यः प्रयबति पुमान् पुण्यार्थमर्थ निजम् ॥ ७॥ अर्थः-( यः के०) जे (पुमान् के० ) पुरुष, (पु. एयार्थ के०) पुण्यने अर्थे ( निजं अर्थ के०) पोताना धनने (प्रयति के) श्रापे (तं के० ) ते पुरुषने (लक्ष्मीः के०) कमला, ते (कामयते के०) श्छे बे. तथा तेने ( मतिः के०) बुद्धि, (मृगयते के ) खोले जे शोधे . तथा ( कीतिः के) की. र्ति (श्रालोकते के ) जोवे बे तथा तेने (प्रीतिः के) प्रीति, (चुंबति के ) चुंबन करे ले तथा ते जनने ( सुलगता के० ) सौजाग्य, (सेवते के० ) सेवे . तथा (नीरोगता के०)आरोग्यता,ते (श्रा. लिंगति के ) श्रालिंगन करे बे. वली तेने (श्रेयः संहतिः के०) कल्याणपरंपरा, ( श्रन्युपैति के०) सन्मुख श्रावे . तथा ते पुरुषने (खर्गोपनोगस्थि Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१७ ) तिः के० ) स्वर्गना उपजोगनी पद्धति, ( वृणुते के० ) वरे बे. तथा ( मुक्तिः के० ) मोद, ( वांछति के० ) वांबे बे. माटें द्रव्यने पुण्यने खर्थे श्रवश्य वापरतुं ॥७॥ टीका: - दानगुणानाह ॥ लक्ष्मीरिति ॥ यः पुमान् पुण्याऽर्थं श्रेयोर्थं निजं श्रर्थं स्वकीयं धनं प्रयच्छति ददाति । तं पुरुषं लक्ष्मीः कमला कामयते वति । पुनर्मतिर्बुद्धिस्तं मृगयते श्रन्वेषति । पुनः कीर्त्तिस्तं लोकते पश्यति । पुनः प्रीतिरानंदस्तं चुंबति श्लिष्यति । पुनः सुजगता सौभाग्यं तं सेवते नजति । नीरोगता आरोग्यं तं श्रलिंगति । पुनः श्रेयः संहतिः कल्याणपरंपरा तं श्रभ्युपैति सन्मुखमायाति । पुनः स्वर्गेपजोग स्थितिर्देवलोकस्य जोगपद्धतिस्तं वृणुते वरयति । पुनर्मुक्तिर्मोहस्तं वांबति । यः पुण्यार्थं निजं अर्थं प्रयच्छति ॥ ७ ॥ जाषाकाव्यः - सवैया इकतीसा ॥ ताहिकों सुबुद्धि वरै, रामा ताकी चाह करै, चंदन स्वरूप व्है सुजस तांहि रचै ॥ सहज सुहाग पावै, सुरग समीप यावे, वार वार मुगतिरमनि तांहि चरचै ॥ तांश्के सरीरकों श्रलिंगत श्ररोग ताइ, मंगल करे मिताइ प्रीति करे परचे ॥ जोइ नर व्है सुचेत चित्त Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) समता समेत, धरमके भूतकां सुखेत धन खरचै ॥५॥ वली पण दाननाज गुण कहे . मंदाक्रांतावत्तम् ॥ तस्यासन्ना रति रनचरी कीर्तिरुत्कण्ठिताश्रीः, स्निग्धा बुद्धिः परिचयपरा चक्रवर्तित्वशक्षिः॥ पाणी प्राप्ता त्रिदिवकमला कामुकी मुक्तिसंप त्सप्तदोत्र्यां वपति विपुलं वित्तबीजं निजं यः ॥ ॥ इति दानप्रक्रमः ॥१७॥ अर्थः-(यः के० ) जे पुरुष, ( निजं के०) पोतार्नु ( विपुलं के०) प्रचुर एवं ( वित्तबीज के०) वित्तरूप बीजने ( सप्तदत्र्यां के०) सात क्षेत्रले विषे एटले १ जिनजुवन, २ जिनबिंब, ३ झानपुस्तक, ७ चतुरविध संघनक्ति, ते रूप सात देत्रने विषे ( वपति के ) वावे . एटले वापरे . ( तस्य के) ते पुरुषने ( रतिः के०) समाधि ( श्रासन्ना के) समीप वर्त्तवावाली थाय . ढकडी थाय . तथा तेने (कीर्तिः के०) कीर्ति ते (अनुचरी के०) दासी थाय जे. तथा (श्रीः के ) संपति एटले धनधान्य हिरण्यरूप संपत्ति, ते मलवाने Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३ ) नव प्रत्यक्ष धन्य जाणवां. ते वाक्य सांगली शेव हर्षवंत थयो अन्यदा ते बेहुजण शेठनी साथै देरासरें गया, तिहां शेठ फूल लइ जिनजुवनमां गयो अने ते बे सेवकमांहेलो एक वडेरो सेवक पांच कुंकांना फूल लई जक्तिपूर्वक जिनपूजा करवा लाग्यो, ने बीजो सेवक उपाश्रयें जइ व्याख्यान सांजलवा बेो. उपवास करी बे पहोर पढी पोतानी पांतीमां आवेलुं धान्य पीरसावीने जक्तिपूर्वक रुपीश्वरने वहोराव्युं, मनमांदे पोताने अत्यंत धन्यवाद आपतो रह्यो एम अनुक्रमें शुभकृत्य करतां श्रायु पूर्ण यये बेहु जण मरण पामी कलिंगदेशनो शूरसेन नामें कोइक राजा बे, तेनी विजया नामें राणीनी कूखें पुत्रपणें ज‍ उपना. तेमां एकनुं नाम - मरसेन ने बीजानुं नाम वीरसेन पाड्यं बेहु पुत्र राजाने परमवल्ल बे, अनुक्रमें सर्वकलाना पारंगामी या. ते बेहु सौभाग्यनिधान सर्वलोकने अत्यंत प्रिय थयेला देखीने उरमान मातायें चिंतव्युं जे ज्यांसुधी ए वे पुत्र थाही हशे, त्यांसुधी म द्वारा पुत्रनें राज्य मलशे नहीं. एकदा राजा वसंतक्रीडाने य उद्यानें गयो. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) एवामां राणियें रात्रिने समयें पोतानुं शरीर नखें करी वलूयुं, राजा घरें श्राव्यो, तेवारें राणीने पूब्धुं के तहारुं शरीर को वलूयुं ? तेवारें राणी रोतीथकी स्त्रीचरित्र करती बोली के हे स्वामी ! एकाम सर्व तमारा कुमरोनुं जाणजो. ए बेहु मदोन्मत्त श्रावीने मने वलग्या माटें हवे मने माहरे पीयर मोकलो. ए तमारा मानीता पुत्र श्रगल महाराथी रही शकाय नहीं. एवी वात सांजलतांज राजायें चंगालने तेडावीने कयुं के श्रा बेहु कुपात्रोनां मस्तक कापी आज रात्रें महारीपासें लावजे. ते सांजली चंडाल बेदु कुमारोपासें गयो, श्रने राजानो हुकम कही संजलाव्यो. कुमर बोल्या के राजानो आदेश अमारे प्रमाण बे, तुं सुखें तें काम कर. तेवारें चंडालें कयुं के तमें परदेश जणी जाते. ए हुं तमारा पुण्यश्री कहुं बुं, तेणें तेमज कखुं, बेदु कुमर बाना जता रह्या. मनमां विचारवा लाग्या के आपणा कर्मनी वात, के जे आपणी उरमान मातायें आपने कूडुं कलंक दीधुं. पाबलथीमाताने पण आनंद थयो. हवे ते वेहु जाई पृथ्वीमां फरता फरता एक Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२५) अटवीमां रात्रिने समय कोश् वृदनी नीचे विश्राम लेवामा रह्या. तिहां अमरसेन सूझ रह्यो भने वयरसेन जागतो बेगे. हवे ते वृदनी उपर सुडो सूडी बेहांडे, तेमां सूडी बोली जे श्रा वृदनीचें बेहा , तेनुं श्रातिथ्य करीयें, तेवारें सूडो बोल्यो के दे सूडी ! श्रापणे तिर्यंच बैयें, माटे आपणाथी शुं उपकार थाय ! ते वारें सूडी बोली जो उद्यम करीयें तो सर्वसाध्य , अने जो तमें उद्यम करो, तो हुं पण सान्निध्य करूं ! तेने सूडे कयु के तुं कहे ते हुँ उद्यम करुं ! सूडी बोली के त्रिकूटपर्वत उपर एक सहकार , ते एकविद्याधरें मंत्रीने वाव्यो ने, तेमां एक फल एवं बे के तेनुं नक्षण करवायी राज्य मले, अने बीजुं फल एवं ने के तेनुं लक्षण करे, तेना मुखमाथी प्रतिदिन पांचशे पांचशे सो नामोरो पडे. माटें ते सहकारनां फल लावीने ए बे जणने श्रापीयें तो परोणागत रूडी थाय. एम विमासी ते कीरयुग्म उड्यु, ते त्रिकूट पर्वतें जर सहकारनां फल बेश्यावीने कुमरोने श्राप्यां. प्रजातें फल लश् बेहुजण बागल चाल्या, तेमां अमरसेनें दातण कीधां. पडीराज्य पदवी मलवानुं फल Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) दीधुं. तेणें जक्षण कीधुं. फलनो उपचार कह्यो. बीजुं फल बीजे दिवसें दातण करी शूरसेने जक्षण की धुं. तेवारें तेना मुख मांथी पांचशे दिनारो पडी. ते धनथी आनंद पाम्या. पढी चालतां चालतां सातमे दिवसें कंचनपुरनगरें श्राव्या, तिहां नगरनी बाहेर वृनी नीचें महोटा जाने बेसाडी वयरसेन जोजनलेवा सारु नगरमां श्राव्यो, ते श्रवसरें ते नगरनो राजा पुत्रीयो मरण पाम्यो बे तेवारें सर्व लोकोयें पंच दिव्यनी अधिवासना कीधी, उद्यानमांदे पंचदिव्यथी श्रमरसेनने राज्य मल्यु. तेने हाथी पर बेसाडी नगरमांदे लाव्या. राज्यपाटें स्थाप्यो पढी जानी शोध करी पण किहां दीठो नहीं, अने वयरसेन नाइने राज्य मन्युं सांजलीने कोइ गणिकाने घेर जइ रह्यो, तिहां प्रतिदिवस पांशें सोनामोर मुखमांथी निकले, ते वेश्याने थापे, · निश्चिंतपणे वेश्यानी साथै विषयिक सुख जोगवे. एकदा वृद्ध क्कायें पोतानी पुत्रीने पूब्धुं के ए तहारो जर्त्तार कोइ पण धंधो करया विनाक्यांथी द्रव्य लइ श्रवे बे ? तेवारें वेश्यायें वयरसेनने पूब्युं. वयरसेनें स्त्री नो मर्म जाणते थके सर्व पोतानी साचे Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) साची हकीगत कही.तेप्रमाणे वेश्यायें अक्कानी श्रागल कडं. तेवारें अकायें औषध श्रापी वमन करा. व्युं, तेमांथी गोटली कहाडी लीधी, प्रनातें वयरसेन दातण करी खोखारो करवा लाग्यो पण मुखमांथी सोनामोर पडी नही, पढी व्यहीन जा. णी अकायें घरमांथी बाहेर कहाढी मूक्यो, तेवारें चिंतातुर थको वनमा वृदनी नीचें जश् बेगे. तिहां रात्रिने समयें चार चोरने पोतपोतामां वाद करता देखी कुमर पण चोरनीपेठे चोर थर ने तेनीसाथै जर मल्यो भने ते चोरने विवाद करवानो व्यतिकर पूज्यो, तेवारें चोर बोख्या के अमें बार वर्षपर्यंत महोटो प्रयास करीने तेमां एक चांखडीनो जोडो, बीजो दंम, अने त्रीजी कंथा, ए त्रण वस्तु एक सिझपुरुष पासेंथी पाम्याईये. ते सांजली कुमर बोल्यो के ए निर्जीव वस्तुमाटें तमें बाटलो क्वेश शावास्ते करोडो ? एमां ने शुं ? ते. वारें चोर बोल्या के ए वस्तुमा महोटो प्रजाव बे, कारण के ते सिफ पुरुष व महिनापर्यंत देवता श्राराध्यो, त्यारे तेणे संतुष्ट थश्ने आकाशगामिनी विद्यामटे चांखडी दीधी, अने ए दंग डे ते सर्व श NEdra: NAMA Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) स्त्रनो निवारण करनार बे, तथा त्रीजी कंथा जे बे, ते दिन दिनप्रत्यें पांचशें सोनामोरनी आपनारी बें, माटें ए त्रणे वस्तुनी मने वहेंचण करी आप तो अमारो विवाद मटी जाय. तेने कुमरें कयुं के तमें दूर जइ बेसो. हुं विचार करीने तमोने वर्हेची श्रपुं. पबी कुमरें लब्ध लक्ष्मीनी पेरें कंथा पढेरी अनेक हातमां धारण करयो. तथा चांखडी पगमां पहेरीने श्राकाशें उडी गयो. पालथी चोर विलखा थया थका अन्यत्र स्थानकें जता रह्या. कुमर पण देशांतर जर पांच दिवसें पाठो तेहीज गाममां श्राव्यो, तिदां दररोज पांचसो सोनामोर तेने कंथा थपे, ते लई वाटमां विलास कतो फरे. ते गणिकायें दीठो, त्यारें तेनी पासें श्रावी पोतानो अपराध खमावी अक्कायें तेने पोताने घेर • यो कुमर पण गणिकानो विश्वास न करतोकंथाने कोई व्यवहारीयाने घेर मूकी पोते वेश्याने घरे रह्यो थको तेनी साथै विषय संबंधी सुखविलास जोगवे बे. एकदा वली गणिकायें अक्काना कड़े वाथी वयरसेन कुमरने पाडुकानुं वृत्तांत पूब्युं, तेनो कुमरें खरेखरो दारद कह्यो. तेणें जई अक्काने को. अक्का युक्ति क Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३शए) री वयरसेनप्रत्ये कडेवा लागी के हे वत्स ! ताहारा वियोगथी निरंतर महारी पुत्री मूळ पामती, तेवारें में समुजमध्ये जे यदनुं देहरुं , तेनी यात्रा करवानी प्रतिज्ञा कीधेली , पण तिहां जवा शकातुं नथी. ए महोटु संकट .ते वात कुमरे सत्य मानीने अकाने साथें लई चांखडी पहेरी यदना मंदिरें जई कारबागल चांखडी उतारी मांहे गयो. एटलामां पाउलथी चांखडी उपामीने अक्का पोताने घेर जती रही. कुमर आवी जूवे डे, तो चांखडी अने अक्का बेडु दीगं नही. तेवारें अक्कानुं कर्त्तव्य जाणी विलखोथयो. सर्वस्थ अक्काने जोईपण क्यांही दीगी नही.तेवारें कुमर त्यांज बेटउपर अटकी रह्यो. __ एवामां एक विद्याधर तिहां आव्यो. तेणें कुमरने पूज्युं के तुं क्याथी श्राव्यो गे? कुमरें तेने सर्व वृत्तांत कयु. विद्याधर बोल्यो के तुं चिंता मकर. हुं तुमने तारे स्थानकें पहोंचाडीश ! ज्यांसुधी हुं यदनी यात्रा करि बाबु, त्यांसुधी तुं श्हां रहेजे. अने था मोदकप्रमुख श्रापुं बुं, ते तुं नुख लागे तेवारें खाजे. पण पेला वृदनी नीचें जश नहीं ? एम कहि विद्याधर यदने देहरे गयो. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३०) पाउलश्री कुमरें जई ते वृदनुं फूल तोडी सूंघ्यु, एटले तरतज ते गधेडो बनी गयो, जे महोटातुं कर्वा न करे, ते पुःखी थाय. ___ पन्नर दिवसने अंतरे ते विद्याधर श्राव्यो, तेणे कुमरने गर्दनाकारें दीगे, तेवारें बीजा वृदनुं फूल सूंघाडीने फरी खानाविक जेवो हतो तेवो मनुष्य कस्यो. कुमरे ते बेहु वृदनां फूल लई पोतानी गांठे बांध्यां , पड़ी विद्याधरे तेने तिहांथी उपाडीने कांचनपुरें जश् मूक्यो. फरी श्रकायें दोगे, तेवारें कदेवा लागी के दे स्वामी ! तमें केवी रीतें श्राव्या? कुमरें कडं के हुँ देवताना प्रजावथी श्रहीं श्राव्यो बु. तेने वली पण अक्का कपट वचनें करी घेर तेडी श्रावी अने कहेवा लागी के हे स्वामी ! तमें देहरामांहे गया, एटलामा कोइएक देवतायें आवीने चांखडीसहित मुझने उपाडीने समुपमा नाखी दीधी. हुं महोटा कष्टें मरती मरती घेर श्रावी बु. कुमर बोल्यो के महारी उपर यदें तुष्टमान थश्ने घणुं अव्य मुऊने आप्यु. तथा वली बे औषधियो आपी, तेमां एक औषधिना योगथी नवयौवनपणुं प्राप्त थाय, ते सांजली अक्का बोली जो महारी : Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३१) पर उपकार करी नवयौवनपणुं मने बकसो, तो मने सर्वनी उशीयाल, ताबेदारी टली जाय. तेने कुमरें तत्काल एक फूल सूंघाड्यु जेथी अक्का तत्काल रासजी थई गई, तेनी उपर कुमर चढी बेगे अने हाथमां पूर्वोक्त दंम लई ते रासनीने नगरमांहे सर्वत्र फेरववा लाग्यो, दमना प्रहार, मांथामां मारीने आकुलव्याकुल करी. ते जो सर्व गणिकाउंयें एकत्र मली राजाश्रागल जर फरियाद करी. राजायें तरत कुमरने पकडवामाटें घणा शी. पाश्यो मोकल्या, ते सर्वने दमना योगथी कुमरें जीती लीधा, ते वात सेवकोयें जश्ने राजानी श्रागल कही, तेवारें राजायें पोतानुं सर्व सैन्य तेने पकडवामाटें मोकट्युं, तेने पण कुमरें जीती लीधुं. पड़ी राजायें अनुमानथी उलख्यो जे था महारो जाने ? तेवारें तेने जइ पगें लाग्यो. ते जोई सर्व लोकें जाएयुं जे आ तो राजानो ना ३. एम दीगयी सर्व हर्षवंत थया अने अक्काना कपटनी वात सर्व तेना मुखश्री सांजली सहु कोई कहेवा लाग्यां के था कूटणी अत्यंत लोन करवा गई तो रासनी थई. पड़ी कुमरें गोटली तथा चांखडी प्र Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३) मुख जे कांश पोतानी वस्तु तेणे लीधेली इती, ते तेनी पासेंथी पाली लइ शिखामण श्रापी. रासजी टाली दीधी भने स्वानाविक रूप करी दीg. ___ कुमरोयें केटलाक कालपर्यंत तिहांज राजनो. गव्यु. पडी पितायें तेडावीने बेहु पुत्रोने जुदा जुदा देशोनां राज्य थाप्यां, ते बेहु नायें सलाहसंपथी जोगव्यां. बेहु नासाथै रह्या, वृझावस्थायें ज्ञानीना उपदेशथी वैराग्य पामी दीक्षा लई आयु पूरण थये मरण पामी देवलोके गया ॥इति दान पूजाविषय अमरसेन वीरसेन कथा संपूर्ण ॥ ७ ॥ हवे तपनो उपदेश करे डे. शार्दूलविक्रीडितहत्तत्रयम्॥ यत्पूर्वार्जितकमशैलकुलिशं यत्कामदावानल, ज्वालाजालजलं यजयकरणग्रामादिमंत्रादरम् ॥ यत्प्रत्यूहतमः समूहदिवसं यल्लब्धिलदमीलता, मूलं तविविधं यथाविधि तपः कुर्वीत वीतस्पृहः॥१॥ थर्थः-(वीतस्पृहः के०) गई स्पृहा जेने एवो बतो एटले नीयाणादिकें रहित बतो ( तद्विविधं Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३३) के) ते नाना प्रकारना (तपः के०) तपने (यथा विधि के०) शास्त्रोक्तविधियें करी ( कुर्वीत के० ) करे. ते केहq तप जे ? तो के ( यत्पूर्वार्जितकर्मशैलकुलिशं के०) जे पूर्वनवें उपार्जन करेलां को तेज शैल जे पर्वत तेनेविषे वनसमान . जेम पवंतने बेदवामां वज्र बलवान् होय , तेम जाणवू. अर्थात् कर्मरूप पर्वत तेने दवामां वज्रसमान ले वली ( यत् के०) जे तप, ( कामदावानलज्वालाजालजलं के०) कामरूप जे दावानल तेनी ज्वालानी जे जाल तेनो जे समूह तेनेविषे जल समान बे, तथा ( यत्. के०) जे तप, ( उग्रकरणग्रामादिमंत्रादरं के०) दारुण एवो जे इंघियसमूह ते रूप श्रद जे सपे तेने मंत्रादरसमान , तथा (यत् के०) जे तप, (प्रत्यूदतमः समूददिवसं के०) विनरूप जे अंधकारसमूह तेनेविषे दिवससमान, तथा ( यत् के०) जे तप, ( लब्धिलक्ष्मीलतामूलं के०) संपत् तेज लता तेना उत्पन्न थयेला मूलसमान , माटें ते तप सर्व जनोयें करवं ॥१॥ टीकाः-श्रथ तपस उपदेशद्वारमाद ॥ यदिति॥ वीता गता स्पृहा वांबा यस्य स वीतस्पृहः सन् वांग Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३४ ) निदानादिरहितः सन् तद्विविधं तपः कुर्व्वीत क र्यात् । तत्किं ? यत्तपः पूर्वे नवेऽतिानि उपार्जि तानि यानि कर्माणि तान्येव शैलाः पर्व्वतास्तेषु कुलिशं वज्रं । तेषां बेदकत्वात् । पुनर्यत्तपः कामएव दावानलो दवाग्निस्तस्य ज्वालानां जालः समूहस्तत्र जलं । तद्विनाशकत्वात् । पुनर्यत्तपः उग्रो दारुयो यः करणानां इंद्रियाणां ग्रामः समूहः सएवाहिः सर्पस्तस्य मंत्राक्षरं सर्पमंत्रस्य बीजं । पुनर्यत्तपः प्रत्यूहा एव विनाएव तमसोंऽधकारस्य समूहस्य तत्र दिवसं दिनं । तन्नाशकत्वात् । पुनर्यत्तपो लब्धिलक्ष्मी संपदेवता वल्ली तस्याः मूलं उत्पादनकं । तद्विविधं नानाप्रकारं यथाविधि तपः कुर्वीत ॥ ८१ ॥ जाषाकाव्यः- उप्पय छंद ॥ जो पूरवकृत कर्म, पिंगिरिदलन वज्रधर ॥ जो मनमथ दवज्वाल, माल संदरन मेघऊर ॥ जो प्रचंग इंद्रिय यंग, थंजन सुमंत्र वर ॥ जो विजाव संतमस पुंज, खंगन जाकर ॥ जो लबधि वेलि उपजत घन, तासु मूल दिढता सहित ॥ सो सुतप अंग बहु विधि दुविध, करहिं विबुध वांबारहित ॥ ८१ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३५) वली पण तपनो महिमा कहे . . यस्माविघ्नपरंपरा विघटते दास्यं सुराः कुवते, कामः शाम्यति दाम्यतींज्यिगणः कव्याणमुत्सर्पति ॥ उन्मीलंति महईयः कलयति ध्वंसं च यः कर्मणाम्, स्वाधीनं त्रिदिवं शिवं च नजति श्वाध्यं तपस्तन्न किम् ॥ २॥ अर्थः-(तत् के०) ते (तपः के०) तप, (किं के०) (श्लाघ्यं के०)वखाणवा योग्य, (न के ०) नथी? ना वखाणवायोग्य बेज. केम श्लाघ्य ? तो के ( यस्मात् के ) जे तपथकी ( विघ्नपरंपरा के ) कष्टोनी पंक्ति ( विघटते के० ) नाश पामे . तथा जे तपथकी ( सुराः के०) देवता, ( दास्यं के०) दासपणाने (कुर्वते के०) करे . वली जे तपथकी ( कामः के० ) काम (शाम्यति के०) शांति पामे . वली जे तपथकी (इंजियगणः के०) जियोनो गण, ( दाम्यति के० ) दमने प्राप्त थाय . वली जे तपथकी ( कल्याणं के०) कल्याण जे जे, ते ( उत्सर्पति के० ) प्रसरे बे. वली जे तप थकी Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३६) (महर्षयः के० ) तीर्थकरादिसंपत्तियो, ( उन्मीलंति के ) विकासने प्राप्त थाय . वली जे तपथकी ( कर्मणां के०) ज्ञानावरणीयादिककर्मनो ( चयः के) समूह, (ध्वंसं के०) नाशने (कलयति के०) पामे बे. वली जे तपथकी, (त्रिदिवं के०) वर्ग श्रने (नजति के०) जजे (च के० ) वली ( शिवं के) मोद (वाधीनं के०) खाधीन जेम होय तेम थायजे. माटें ते तप वखाणवालायक नथी शं? अर्थातू वखाणवालायकज डे ॥२॥ टीकाः-तपःप्रनावमाह ॥ यस्मादिति ॥ तत्तपः किं श्लाघ्यं न प्रशस्यं न ? अपि तु श्लाघ्यमेव त किं ? यस्मात्तपसो विघ्नपरंपरा कष्टश्रेणिर्विघटते विलयं याति । पुनः सुरादेवादास्यं दासत्वं कुर्वते । पुनर्यस्मात्कामः शाम्यति उपशमं याति । पुनः इं. जियगणः पंचेंजियसमूहो दाम्यति दमं प्राप्नोति । पुनयेस्मात्तपसः कल्याणं श्रेयउत्सप्पेत प्रसरति । पुनर्यस्मान्मह“यस्तीर्थकरादिसंपदः उन्मीलंति विकसंति। पुनर्यस्मात् कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनां चयः समूहो ध्वंसं नाशं कलयति प्रयाति । पुनर्यस्मा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३७) त्तपसः त्रिदिवं स्वर्गः च पुनः शिवं मोदः स्वाधीनं स्वायत्तं स्यात्तत्तपः किं २लाध्यं न स्यात् ? ॥ २ ॥ नाषाकाव्यः-सवैय्या श्कतीसा ॥ जाके श्रादरत महारिछिसों मिलापहो, मदन अव्याप होश, कर्म वन दाहियें॥विधन विनास होइ गिरवान दास होश, ग्यानको प्रकास हो, नौं समुन थाहियें ॥ देव पद खेल होइ, मंगलसों मेल हो, इजिनकी जेल होश, मोखपंथ गाहियें ॥ जाकी ऐसी महिमा, प्रगट कहै कौरपाल, तिहुंलोक तिहुँ काल सो तपसराहियें॥७॥ कांतारं न यथेतरोज्वलयितुं ददोदवाग्निविना, दावाग्निं न यथेतरः शमयितुं शक्तोविनांनोधरम् ॥ निष्णातः पवनं विना निरसितुं नान्योययांनोधरम, कर्मोघं तपसाविना किमपरं हर्तु समर्थस्तथा ॥ ३ ॥ अर्थः- (यथा के०) जेम ( कांतारं के) वनने ज्वलयितुं के०) बालवाने ( दवाग्निविना के० ) दा. वाग्निविना ( इतरः के० ) बीजो ( दक्षः के०) माह्यो (न के ) नथी. वली ते ( दावाग्निं के० ) दावाग्मिने ( शमयितुं के० ) शमन करवाने ( अंजोध Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३८ ) रंविना के० ) मेघ विना ( इतर : के० ) बीजो ( शक्तः के० ) समर्थ ( न के० ) नथी. वली ( यथा के० ) जेम (जोधरं के० ) मेघने ( निरसितुं के ० ) टालवाने ( पवनंविना के० ) पवन विना ( अन्यः के० ) बीजो ( न के० ) न ( निष्णातः के० ) निपुण होय. ( तथा के० ) तेम ( कर्मोघं के० ) कर्मसमूहने ( हर्तु के० ) बेदवाने ( तपसाविना के० ) तपविना ( अपरं के० ) बीजो ( किं के० ) शुं ( समर्थः के० ) समर्थ होय ? ना होयज नहिं ॥ ८३ ॥ । टीका:-न्यश्च ॥ कांतारमिति ॥ यथा कांतारं वनं ज्वलयितुं दावाग्निं विना इतरोऽन्यो दक्षोन । पुनर्यथा दावाग्निं शमयितुं विध्यापयितुं अंजोधरं मेघं विनाऽपरः शक्तो न समर्थो न । पुनर्यथांऽनोधरं मेघं निरसितुं दूरीकर्तुं पवनं विनाऽन्यो न निष्णातो न निपुणः । तथैव कर्मोघं कर्मसमूहं दंतुं बेत्तुं तपसा विनाऽन्यत्किं समर्थं ? अपितु न किमपि । किंतु तप एव कर्माणि हर्तुं समर्थः ॥ ८३ ॥ जाषाकाव्यः - सवैया तेइसा | ज्यौं वर कानन दाहनकों दव, पावकसो नहिं दूरसो दीसै ॥ ज्यौं दव याग बुकै न ततन्छन, जो न खंमित मेघ व Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३ए) रीसै ॥ ज्यौं प्रगटै नहिं जो लगि मारुत, तौं लगि घोरघटा नदि खीस ॥ त्यौं घटमें तपवज्र विना दृढ, कर्म कुलाचल और न पीसै ॥३॥ वली पण तपनो महिमा कहे जे. स्रग्धरावृत्तम् ॥संतोषस्थूलमूलः प्रशमपरिकरः स्कंधबंध प्रपंचः,पंचादीरोधशाखः स्फुरदनयदलः (स्फुटविनयदलः) शीलसंपत्प्रवालः॥श्रशांनः पूरसेकाधिपुलकुलबलैश्वर्यसौंदर्यनोगः, स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः शिवसुखफलदः स्यात्तपः पादपोऽयम् ॥४॥ इति तपः प्रक्रमः॥२॥ अर्थः-(श्रयं के०) श्रा ( तपःपादपः के०) तपरूप जे वृद, ते (शिवसुखफलदः के०) शिवसुखना फलने देनारो ( स्यात् के० ) होय. ते केहवो तपःपादप डे ? तो के ( संतोषस्थूलमूलः के०) संतोष जे मू त्याग, तेज डे स्थूलमूल जेनुं एवो तथा (प्रशमपरिकरः के०) क्षमा तेज ने परिकर जेने एवो तथा ( स्कंधबंधप्रपंचः के० ) आचारादि जे श्रुतस्कंधरूप, तेनी बंध जे रचना ते रूप ले Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४०) विस्तार जेनो एवो तथा (पंचादीरोधशाखः के०) पंचेंजियनो जे रोध तेरूप शाखाउँ जेमां एवो तथा ( स्फुरदलयदलः के०) देदीप्यमान एवं जे अजयदान ते रूप डे पत्र जेमां एवो अथवा (स्फु. टविनयदलः ) एवो पाठ होय तो स्फुट ने विनयरूप पत्र जेमां एवो तथा ( शीलसंपत्प्रवालः के०) ब्रह्मचर्यव्रतरूप प्रवाल एटले नवपल्लव जेमां एवो तथा (श्रमांजःपूरसेकात् के०) श्रझारूप जलनो जे पूर तेनुं जे सिंचq तेथकी ( विपुलकुलबलैश्वर्यसौंदर्यनोगः के०) विस्तीर्ण एवां कुल, बल, ऐश्वर्य, अने सौंदर्य ते रूप ले लोग जेने एवो . अथवा विपुलकुलबलैश्वर्य रूप जे विस्तार तेनो जे जोग जेमां एवो ने तथा ( स्वर्गादिप्राप्तिपुष्पः के० ) स्वर्गादि जे देवलोक, अवेयक, अनुत्तरविमान, तेनी जे प्राप्ति तेज बे पुष्प जेमां एवो जे तपोवृद, ते शिवसुखफलने आपे ॥ ४ ॥ श्रांहिं वसुदेव हरिकेशीवलनी कथानो दृष्टांत ग्रहण करवो. ॥ १ए॥ टीकाः-पुनराह ॥ संतोषति ॥ श्रयं तपएव पादपो वृदः शिवसुखफलदः स्यात् शिवसुखान्येव फलानि ददातीति मोदफलदाता स्यात् । किंनूत Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४१ ) स्तपः पादप ? संतोषोमूर्छात्यागएव स्थूलं पुष्टं मूलं यस्य स । पुनः किंभूतः ? प्रशमक्षमा एव परिकरः परिवारो यस्य स । पुनः किंभूतः ? स्कंधा श्राचारां गादि श्रुतस्कंधास्तेषां बंधो रचना एवं प्रपंचो विस्तारो यस्य स । पुनः किंभूतः ? पंचानां श्रकाणां ईप्रियाणां समाहारः पंचाक्षी | पंचाक्ष्याः रोध एव शाखा यस्य स । पुनः किंभूतः ? स्फुरत् देदीप्यमानं अयं श्रजयदानमेव दलत्वं यस्य स । अथवा स्फुटविनयदलः स्फुटानि प्रकटानि विनयरूपाणि दलानि पत्राणि यस्य स । पुनः किंभूतः ? शील संपदेव ब्रह्मत्रतमेव प्रवाला नवपल्लवायस्य स । पुनः किंभूतः ? श्रद्धारुचिः सैवांजः पानीयं तस्याः पूरस्तेन सेकः सिंचनं तस्मात् विपुलानि विस्तीर्णानि कुलबलैश्वर्यसौंदर्यायेव नोगोयस्यस । श्रथवा विपुलकुलबलैश्वर्यमेव जोगो विस्तारोयस्य स । पुनः किंभूतः ? स्वर्गादीनां देवलोकयैवेयकानुत्तर विमानानां प्राप्तिरेव पुष्पाणि यस्य स । ईदृशस्तपएव पादपोवृक्षः स शिवसुखमेव फलं ददाति ॥ ८४ ॥ त्रनंदिषेण वसुदेव हरिकेशी बलकथा || सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्या Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४२) ख्यायां हर्षकीर्तिनिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, तपसः प्रक्रमोऽजनि ॥इति तपःप्रक्रमः ॥१५॥ जाषाकाव्यः-उप्पय छंद॥सुदिढ मूल संतोष,प्र. सम गुन प्रबल पेढ ध्रुव ॥ पंचाचार सु साख, सील संपति प्रवाल हुव ॥ अजय अंग दल पुंज, देव पद पुहप सुमंमित ॥ सुकृत नार विस्तार, नाव सिव सुफल अखंमित ॥ परतीति धार जल सिंचि किय, अति उतंग दिन दिन पुषित ॥ जयवंत जगत यह सुतप तरु, मुनि विहंग सेवहिं सुखित ॥ ४ ॥ ___ कथाः-तप उपर नंदीषेण मुनिनो दृष्टांत जाणवो. जेणे बार हजार वर्ष तपस्या करी अंत्यावस्थाये अणसण लइ पोतानुं दौर्नाग्य संजारी तपना प्रजावधी श्रावते नवें स्त्रीवबन थालं ! एवं नीयाएं बांधी काल करी देवलोकें गयो. तिहाथी च्यवीने समुविजयनो लघुना वसुदेव नामें थयो, तिहां गतजन्मना तपःप्रजावधी १२००० स्त्री, पाणिग्रहण कगुं. एवी रीतें तपना फलथी विशेष सुख नोगवी यावत् अंत्यावस्थायें शुन नावमा रही काल करी देवलोकें पहोतो, माटें सर्व जव्यजीवें Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४३) श्रीनंदीषेणनी पेठे दमा सहित तप करवु ॥ इति तप उपर नंदिषेणमुनी कथा ॥ ४ ॥ हवे शुजनावनो उपदेश करे. शार्दूलविक्रीडितकृत्तम्यम् ॥ नीरागे तरुणी-कटादित मिव त्यागव्यपेतप्रनौ, सेवाकष्टमिवो परोपणमिवांनो जन्मनामश्मनि॥ विष्वग्वर्षमिवोषरदितितले दानाईदर्चातपः, स्वाध्यायाध्ययनादि निःफलमनुष्ठानं विना नावनाम् ॥ ५॥ अर्थः-(जावनां विना के ) एक शुजनावनाविना ( दानाईदर्चा के ) सुपात्र दान, जिनपूजन, अने (तपःस्वाध्यायाध्ययनादि के०) तप, स्वाध्यायर्नु अध्ययन तेज ने श्रादिमां जेने एवं (अनुष्ठानं के०) अनुष्ठान ते सर्व( निःफलं के) निष्फल थाय ने. केनी पेठे ? तो के ( नीरागे के० ) रागरहित एवा पुरुषने विषे ( तरुणीकटादितमिव के०) युवतीकटाद विदेपज जेम, एटले नीरागी पुरुषने जेम स्त्रीना कटादनो विदेप व्यर्थ थाय . तेम श्राहिं Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४४) पण जाणवू. वली केनी पेठे ? तो के ( त्यागव्यपेतप्रजौ के ) दान रहित स्वामीनेविषे (सेवाकष्टंश्व के० ) सेवाकष्ट जे जे तेज जेम. एटले दान न थापनार पुरुषनी पासे सेवाकष्ट ते जेम व्यर्थ थाय डे, तेम जाणवू. वली केनी पेठे ? तो के ( अश्मनि के०) पाषाणने विषे ( अंनोजन्मनां के ) कमलोनुं ( उपरोपण मिव के० ) वावज जेम. वली केनी पेठे ? तो के ( उषरदितितले के०) दारनूमिने विषे अथवा पर्वतने विषे ( विष्ववर्षमिव के० ) चो. तरफ मेघनी वृष्टिज जेम. एटले दारनूमिने विषे अथवा पर्वतने विषे चारे तरफ पडनारो मेघ जेम निःफल थाय तेम नावनाविना सर्व अनुष्ठान निष्फल थाय ॥ ५ ॥ ___टीकाः-नावोपदेशमाह ॥ नीरागे इति ॥ नावनां शुजनावं विना दानाईदर्चा तपः स्वाध्यायाध्ययनादि सर्व अनुष्टानं क्रियाकरणं निःफलं स्यात् । दानं च अहंदर्चा देव जिनपूजा च तपश्च स्वाध्यायश्च ते श्रादौ यस्य तत् दानजिनपूजातपः सिझांतपउनादिकं नावं विना निःफलं । किमिव ? नीरागे पुरुषे तरुणीकटादितमिव युवतीकटादविदेपणमि Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४५) व । यथा नीरागे तरुणीकटादा निःफलाः। पुनः किमिव ? त्यागव्यपेतप्रनौ। दानरहिते कृपणे स्वामिनि सेवाकष्टं श्व श्रदातरि स्वामिनि सेवाकष्टं निःफलं । पुनः किमिव ? अश्मनी पाषाणे श्रानोजन्मनां कमलानां उपरोपणं वापनं श्व । यथा पाषाणोपरि कमलवापनं निःफलं । पुनः किमिव ? जपर दिति तले उषरलूमौ विष्वग्वर्षमिव यथोषरनूमौ पर्वते मेघवर्षणं निःफलं ॥ तथा शुजनावनां विना सर्वा क्रिया निःफला ॥ ५ ॥ नाषाकाव्यः-ज्यौं नीराग पुरुषके सन्मुख, पुरकामिनि कटान करि ऊठी ॥ ज्यों धन त्याग रहित प्रनु सेवत, ऊसरमें वरिषा जिम वूठी ॥ ज्यौं शिलमांहि कमलको बोवन, पवन पकरि ज्यौं बं. धिय मूति ॥ ए कर तूति हो। जिम निःफल, त्यों बिनु नाव क्रिया सब फूही ॥ ५ ॥ __ वली पण शुजनावोपदेश करे बे. सर्व झीप्सति पुण्यमीप्सति दया धित्सत्यघं मित्सति, क्रोधं दित्सति दानशीलतपसां साफल्यमादित्सति ॥कल्याणोपचयं चिकी Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४६) प्रति जवांनोधेस्तटं लिप्सते, मुक्तिस्त्रीं परिरिप्सते यदि जनस्तनावयेनावनाम्॥६॥ अर्थः-( यदि के० ) जो ( जनः के०) मनुष्य, ( सर्वं के०) सर्व वस्तुने (झीप्सति के०) जाणवाने श्छे बे, जो वली ( पुण्यं के०) धर्मने (ईप्सति के०) श्छे , जो वली ( दयां के०) दयाने (धित्सति के०) धारण करवाने श्छे , जो वली (अघं के० ) पापने ( मित्सति के० ) मानवाने इछे बे, जो वली ( क्रोधं के०) क्रोधने (दिसति के०) खंमन करवाने श्छे , जो वली ( दानशीलतपसां के०) दान, शील, तपना ( साफल्यं के० ) साफल्यने ( श्रादित्सति के०) ग्रहण करवाने श्छे बे, जो वली ( कल्याणोपचयं के०) कल्याणसमूहने (चिकीर्षति के ) करवाने श्छे , जो वली ( जवांजोधेस्तटं के०) नव जे संसार तेरूप जे समुज तेना तटने (लिप्सते के०) पामवाने श्छे बे, जो वली (मुक्तिस्त्री के०) मुक्तिरूप स्त्रीने (परिरिप्सते के ) थालिंगन करवाने श्छे ले ( तत् के० ) तो ( नावनां के )शुजनावनाने (जावयेत् के० ) नावना करे ॥ ६ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४७) टीकाः-पुनराह ॥ सर्वेति ॥ यदि जनो लोकः सर्वं वस्तु शीप्सति ज्ञातुं श्छति । पुनर्यदि जनःपुण्यं धर्मं ईप्सति वांति । पुनर्यदि जनोदयां कृपां धित्सति धर्तुमिबति । पुनर्यदि अघं पापं मित्सति मातुं श्चति । पुनर्यदि क्रोधं दित्सति खंमितुं श्वति । पुनर्यदि दानशीलतपसां साफल्यं सफलत्वं श्रादित्सति गृहीतुमिछति । पुनर्यदि कल्याणोपचयं कुशलं वृहिं चिकीर्षति कर्तुमिबति । पुनर्यदि नवांनोधेः संसारसमुषस्य तटं पारं लिप्स ते लब्धं मिति । पुनर्यदिमुक्तिस्त्रीं सिकिरमणी परिरिप्सते श्रालिंगितुं श्चति जनस्तदा नावनां शुजनावं जावयेत् कुर्यादित्यर्थः ॥ ६ ॥ ___ नाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ पूरव करम दहै, सरवज्ञ पद लहै, गहै पुण्यपंथ फिरि पापमें न आवना ॥ करुनाकी कला जागै, कहीन कषाय नागै, लागै दान सील तप सफल सुहावनां ॥ पावैजवसिंधु तट खोलै मोख झारपट, सर्म साधि धर्मकी धरामैं करै धावनां॥ एते सब काज करै अलखकों अंगधरै, चेली चिदानंदकीअकेली एकनावना ॥६॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४८ ) वली फरीने पण कांइक विशेष कहे बे. पृथ्वीवृत्तम् ॥ विवेकवनसारिणीं प्रशमशर्मसंजीविनीम, नवार्णवमहातरीं मदनदाव मेघावलीम् ॥ चलाक्षमृगवागुरां गुरुकषायशैलाश निम् विमुक्तिपथवेसरीं नजत जावनां किं परैः ॥ ८७ ॥ अर्थः- हे नव्यजनो ! ( जावनां के० ) शुभजावा (जत के० ) सेवन करो ( परैः के० ) बीजा कष्टानुष्ठानोयें करी (किं के० ) शुं ? काहींज नहिं : अर्थात् शुनाव रहित अनुष्ठानो करवायी शुं ? कांहीज नहिं. ए जावना केहवी बे ? तो के ( विवेकवनसारिणीं के० ) कृत्याकृत्य विचाररूप जे वन ते वनमां कुल्यारूप, तथा वली ( प्रशमशर्मसंजीविनीं के० ) उपशम सुखने जीवन करनारी तथा ( जवार्णवमहातरी के० ) संसार समुद्रने विषे महोटा नावसमान, तथा ( मदनदावमेघावली के० ) कामदेवरूप जे वनाग्नि तेने विषे मेघसमान, तथा ( चलाक्षमृगवागुरां के० ) चंचल एवी जे इंद्रियो ते रूप जे मृग तेने विषे मृगजालपाशबंधनरूप, त Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४ए) था ( गुरुकषायशैलाशनि के०) महोटा चार कषायरूप जे पर्वत तेने विषे वज्रसमान, तथा ( विमुक्तिपथवेसरी के०) मुक्तिमार्गने विषे लारवाहकखें अर्थात रस्तामां जातां नारवाहन करनारी खचर घोडी समान बे, माटे हे जव्यजनो ? एवी शुजनावनाने तमें करो ॥ ७ ॥ ___टीकाः-पुनर्विशेषमाह ॥ विवेकेति॥जो जव्याः। नावनां शुजपरिणाम रूपां जजत सेवध्वं । परैः अन्यैः कष्टानुष्ठानैः शुजनावनारहितैः किं ? न किं चिदित्यर्थः । कथंजूतां नावनां ? विवेकः कृत्याकत्यविचारएव वनं तत्र सारिणी कुल्याः तां । पुनः प्रशमशर्मणः उपशमसुखस्य संजिविनी जीव नकीं। पुनः नवएव संसार एव अर्णवः समुनस्तत्र महातरी माहानावां । पुनः किंनूतां ? मदनएव दावो दावा निस्तत्र मेघस्यावलीं श्रेणिं । पुनः किंजूतां ? चलानि चंचलानि यानि श्रदाणि इंडियाण्येव मृगा हरिणा स्तेषु वागुरां मृगजालपाशबंधनरूपां। पुनः कीदृशीं ? गुरुर्ग रिष्ठश्चतुःकषायरूपएव शैलःपर्वतः तत्र अशनि वज्रं । पुनः किंजूतां ? विमुक्तेः Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५०) सिके पंथा स्तत्र वेसरी अश्वतरीं । तन्नारवाहकां । तस्माहुजनावनामेव कुठवतु ॥७॥ नाषाकाव्यः-वृत्त उपर प्रमाणे ॥ प्रसमके पोषवेकों, अमृतकी धारासम, ज्ञानवन सींचवेको नारि नीर जरी है ॥ चंचल करन मृग बंधवेकों वागुरा सी, काम दावानल नासिवेकों मेघऊरी है ॥ प्रबल कषाय गिरि जंजवेकों वज्रगदा, नौंसमुख तरवेकों पोढी महातरी है।मोखपंथ गाहिवेकों वेसरी बिलायतकी, ऐसी शुद्धनावनाप्रबंधढार ढरी है। ७ ॥ वली पण कहे . शिखरिणीवृत्तम् ॥ घनं दत्तं वित्तं जिनवचनमध्यस्तमखिलम, क्रियाकांमं च रचितमवनौ सुप्तमसकृत् ॥ तपस्तीव्र तप्तं चरणमपि चीर्ण चिरतरम्, नचेच्चित्ते नावस्तुषवपनवत्सर्वमफलम् ॥ इति नावनाप्रक्रमः॥२०॥ अर्थः-(घनं के) घj ( वित्तं के०) अव्य, ( दत्तं के) पात्रजनने दीधुं, तथा ( अखिलं के०) समग्र ( जिनवचनं के०) जिनागमरूप शास्त्र (अ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५१) ज्यस्तं के०) जएयु, तथा (चं के) नयंकर एवु ( क्रियाकांड के० ) क्रियाकांम ते लोचादि (रचितं के ) कयु. तथा ( असकृत् के०) वारंवार (अवनौ के०) पृथ्वीने विषे ( सुप्तं के ) शयन कमु तथा ( तीव्र के० ) तीव्र एवं (तपः के०) बार प्रकार- जे तप तेने ( तप्तं के० ) तप्यु, तथा (चरणमपि के) चारित्र पण ( चिरतरं के० ) घणाककालपर्यंत (चीर्ण के० ) सेवन कयुं. परंतु (चिते के०) चित्तने विषे ( जावः के०) शुजनाव, (नचेत् के० ) जो न होय तो ( सर्वं के०) पूर्वोक्त सर्व (तुषवपनवत् के० ) तुष जे फोतरां तेने खांमवानी पेठे (अफलं के) निष्फल जाणवू ॥७॥ अहिं जावना जाववा विषे मरुदेवी माता, जरत महाराज, एलायचीपुत्र तथा प्रसन्नचंजराजर्षि, तेनी कथाउनो दृष्टांत लेवो ॥ ते कथा सर्व प्रसिद्ध २ ॥ इति नावनाप्रक्रमः॥२०॥ ___टीकाः- पुनराह ॥ घनमिति ॥ घनं प्रचुरं वित्तं धनं पात्रेन्योदत्तं पुनर खिलं समस्तं जिनवचनं जिनागमरूपं अन्यस्तं ॥ पहितं । पुनश्चंडं जीमं क्रियाकांडं लोचादि रचितं कृतं । पुनरवनौ जूमौ श्र Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५२ ) सकृद्वारं सुतं शयनं कृतं । पुनस्तीव्रं दुःकरं तपस्ततं तपः कृतं । पुनश्चरणं चारित्रं चिरतरं बहुकालं चीर्णं सेवितं । परं चेद्यदि चित्ते जावो न । शुजजावना नास्ति । तदा तुषव पनवत् सर्व्वं पूर्वोक्तं विफलं स्यात् ॥ ८८ ॥ श्रत्र मरुदेवी नरतएलायचीपुत्र प्रसन्न चंद्रराजर्षीणां कथाः ॥ सिंदूरप्रकराख्यस्य, व्याख्यायां दर्षकीर्त्ति जिः ॥ सूरिनिर्विहितायां तु, जावनाप्रक्रमोऽजनि ॥ इति जावनाप्रक्रमः ॥ २० ॥ जाषाकाव्यः - श्राजानकछंद ॥ गहि पुनीत श्राचार, जिनागम जोवनां ॥ करि तप संयम दान, भूमिका सोवनां ॥ ए करनी सब विफल, होहि विनु जावना ॥ ज्यौं तुस बोए हाथ, कबू नहिं श्रावनां ॥ ८८ ॥ कथाः - इहां जाव उपर इलायची पुत्रनी कथा जाएवी. जे नटवी उपर मोह्यो थको नाटकीयापएं अंगी - कार की पी राजाने रीजववा माटें वांसना श्रग्रजागें नाचतां साधुना दर्शनथे। जावना जावतो वांसनी उपर रह्यो थको केवलज्ञान पाम्यो बे, इत्यादि कथा प्रसिद्ध बे. माटें जाव विना सर्व अनुष्ठान व्यर्थ जाएवं ॥ उक्तं च ॥ घनं दत्तं वित्तं जिनवचन मन्यस्तमखिलं क्रियाकां चंडं रचितमवनौ सुप्तमसकृत् ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५३) तपस्तीनं तप्तं चरणमपि चीर्णं चिरतरं, न चेञ्चित्ते नावस्तुषवपनवत् सर्वमफलम् ॥ हवे वैराग्यने कहे जे. हरिणीटत्तम् ॥ यदशुनरजःपाथोहप्तेज्यिघिरदांकुशम्, कुशलकुसुमोद्यानं माद्यन्मनः कपिशृंखला ॥ विरतिरमणीलीलावेश्म स्मरज्वरनेषजम्, शिवपथरथस्तरैराग्यं विमृश्य नवाऽनयः (नवाऽनवः)॥नए॥ अर्थः-हे मुनि ! ( तत् के) ते (वैराग्यं के०) वैराग्यने ( विमृश्य के ) विचारीने (अजयः के०) संसार जयरहित (नव के०) था. ते कयो वैराग्य? तो के ( यत् के०) जे वैराग्य (अशुजरजः के०) पापरूप जे रज तेनेविषे ( पाथः के० ) जलरूप ले. तथा (हप्तेंजियहिरदांकुशं के० ) मदोन्मत्त एवी जे इंजियो तेरूप जे हाथीयो, तेमने विषे अंकुश समान अ. वली (कुशलकुसुमोद्यानं के०) कुशलतारूप जे फूल तेमनो उद्यान एटले वनरूप . वली ते वैराग्य (माद्यन्मनःकपिशृखला के० ) मदोन्मत्त एवं जे मन ते रूप जे वांदर, तेने बांधवामां सां २३ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५४) कल समान बे. वली (विरतिरमणीलीलावेश्म के०) देशविरति सर्वविरतिरूप जे स्त्री तेमने क्रीडा करवानुं गृह . वली (स्मरज्वरनेषजं के०) कामदेवरूप जे ताव तेने औषधसमान बे. वली (शिवपथरथः के०) मोक्षमार्गने विषे रथ समान . माटें ते वैराग्यने विचारीने संसारनय रहित था. अने जो (जवाजवः) एवो पाठ होय तो जव एटले संसार ते रहित था. एम जाणवू ॥ ए॥ टीकाः-अथ वैराग्यमाह ॥ जो मुने! तबैराग्यं विमृश्य चिंतयित्वाऽजयः संसाररहितोनव तत्किं ? यत् वैराग्यं अशुनं पापमेव रजोधूलिस्तत्र पाथो जलं । तउपशामकत्वात् । पुनदृप्तानि इंजियाण्येव हिरदा गजास्तेषां अंकुशमिवांकुशं वश्यकरं । पुनः किंजूतं ? कुशलमेव कुसुमानि तेषां उद्यानं पुष्पारामं । पुनर्यत् वैराग्यं माद्यन्मदोन्मत्तो यो मनः कपिनिरस्तस्य श्रृंखलां निगड बंधनं । पुनर्यत् विरतिरमणी लीलावेश्म देशविरतिसर्व विरतिरेव स्त्रीः तस्याः क्रीडागृहं । पुनर्यत् स्मरएव ज्वरस्तस्यौषधं कामज्वरौषधं । पुनर्यत शिवपथरथः मोक्षमार्गे रथसमानः। तराग्यं विमृश्य विचार्य अजयः संसार Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५५ ) जयरहितोजव जवाजवइति पाठे जवर हितोजव ॥ ८९॥णा जाषाकाव्यः - सवैय्या इकतीसा ॥ अशुभता धुलि दरवेकों नीरपुर सम, विमल विरति कुलवधुको सोहाग है ॥ उदित मदनज्वर नाशवेकों ज्वरांकुश, अक्षगजथंजनकों अंकुशको दाग है ॥ चंचल कुमन कपि रोकवेकों लोहफंद, कुसल कुसुम उपजा - यवेकों बाग है ॥ सुधो मोख मारग चलाय वेकों नामी रथ, ऐसो हितकर नवजंजन विराग है ॥८॥ वली पण वैराग्यज कहे बे. वसंततिलकावृत्तम्॥ चंडानिलस्फुरितमब्दचयं दवा, वृक्षव्रजं तिमिरमंडल मर्कबिंबम् ॥ वज्रं महीघ्रनिवहं नयते यथांतम्, वैराग्यमेकमपि कर्म तथा समग्रम् ॥ ९० ॥ अर्थः- ( यथा के० ) जेम ( चंडानिल के० ) प्रचंड एवो अनिल जे वायु तेनुं ( स्फुरितं के० ) स्फुरण एटले चालवं ते ( श्रब्दचयं के० ) मेघघ - टाने ( तं के० ) अंतप्रत्यें ( नयते के० ) पमाडे बे. वली जेम ( दवार्चिः के० ) दावाग्निनी ज्वाला, ( वृत्रजं के० ) वृना समूहने नाश प्रमाडे बे. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५६) वली जेम ( अर्कबिंब के०) सूर्यबिंब ( तिमिरमंडलं के) अंधकारना मंडलने नाश पमाडे बे. वली जेम ( वजं के०) वज्र ( महीध्रनिवहं के०) पर्वतसमूहने नाश पमाडे . ( तथा के० ) तेम (समयं के०) समग्र एवं ( कर्म के०) कर्म तेने (एकमपि के०) एक एवं पण ( वैराग्यं के० ) वैराग्य जे वे ते नाश पमाडे जे ॥ ए॥ । टीकाः-पुनराह ॥ चंडानिलेति ॥ यथा चंडानिलस्फुरितं प्रचंडवायुस्फूर्जितं अब्दचयं मेघघटां अंतं विनाशं नयते प्रापयति । पुनर्यथा दावाचिर्दावा निर्वृक्षसमूहं अंतं प्रापयति पुनर्यथा अर्कबिंबं सूर्यबिंब तिमिरमंडलं अंधकारसमूहं अंतं नयते । पुनर्यथा वजं इंसायुधं महीध्रनिवहं पर्वतसमूह अंतं विनाशं नयते प्रापयति । तथा एकमपि वैराग्यमेव समग्रं कर्म अंतं नयते ॥ ए॥ . लाषाकाव्यः-श्रानानकचंद ॥ ज्यौं समीर गंजीर, घनाघन बय करै ॥ वज्र विनासै शिखर, दि. वाकर तम हरै ॥ ज्यौं दव पावक पूर, दहै वनकुंज कों ॥ त्यौं नंजै वैराग्य कर्मके पुंजकों ॥ ए॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५७) वली पण कहे . शिखरिणीदत्तम् ॥ नमस्या देवानां चरणवरिवस्याशुनगुरो, स्तपस्या निःसीमक्रमपदमुपास्या गुणवताम् ॥ निषद्यारण्ये स्यात् . करणदमविद्या च शिवदा, विरागः क्रूरागः दपणनिपुणोंऽतः स्फुरति चेत् ॥ ॥ अर्थः-(चेत् के० ) जो (अंतः के०) हृदयने विषे ( विरागः के० ) वैराग्य, ( स्फुरति के० ) स्फुरे बे, तोज (देवानां के० ) अरिहंतादि देव तेने करेलो (नमस्या के०) नमस्कार ते पण ( शिवदा के ) मोक्ष देनारो (स्यात् के० ) थाय. तथा (शुजगुरोः के० ) सारा गुरुनी (चरणवरिवस्या के०) चरणसेवा ते पण त्यारेंज मोददायी थाय, तथा (निःसीमक्रमपदं के ) अत्यंत श्रमनुं स्थानक एQ (तपस्या के ) तप पण त्यारेंज मोक्षदायी थाय बे. तथा ( गुणवतां के०) ज्ञानादिक गुणें करी युक्त एवा जननी ( उपास्या के०) सेवा ते पण त्यारेंज मोद देनारी थाय. तथा (अरण्ये के०) वनने विषे ( निषद्या के०) स्थिति एटले रहेQ ते पण Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५७) त्यारेंज मोह देनारी थाय. (च के०) तथा (करपदम विद्या के०) इंजियदमननी विद्या पण त्यारेंज मोक्षदायक थाय. अर्थात् ज्यारे हृदयने विषे वैराग्य उत्पन्न थाय, त्यारेंज पूर्वोक्त सर्ववानां थाय. ते वैराग्य केहेवो ? तो के (रागःक्षपण निपुणः के०) क्रूर एवो जे अपराध तेने रुपण एटले टालवामां निपुण डे डाह्यो एटले ॥ १॥ ____टीकाः-पुनराह ॥ नमस्येति ॥चेद्यदि अंतश्चित्ते विरागो वैराग्यमेव स्फुरति वर्त्तते तदा देवानां न. मस्या नमस्करणं शिवदा मोक्षदायिनी मोक्षदायकी स्यात् । पुनः शुनगुरोश्चरणवरिवस्या चरणयोः सेवा तदा शिवदा स्यात् । पुनरत्यंतश्रमपदं दृशी तपस्या तपस्तदैव शिवदा स्यात् । पुनः गुणवतां ज्ञानादिगुणयुक्तानां उपास्या सेवापि तदैव शिवदा स्यात् । पुनररण्ये वने निषद्या स्थितिस्तदैव शिवदा स्यात् । पुनः करणदम विद्या इंज्यिदमन विधिरपि तदेव शिवदः स्यात् । यदि अंतर्मध्ये वैराग्यं नवति। कथंभूतो विरागः ? क्रूरागदपणनिपुणः क्रूरं घोरं आगोऽपराधस्तस्य दपणे दपणकरणे निपुणश्चतुरःए। नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रा० ॥ कीनी तिने सु Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५ए) देवकी पूजा, तिन गुरु चरन कमल मन लायो॥ सो वनवास वस्यो निसिवासर, तिन गुनवंत पुरुष गुन गायो ॥ तिन तप लियो कियो इंजिय दम, सो पूरन विद्या पढि थायो ॥ सब अपराध गए ताकों ताज, जिन वैरागरूप धन पायो ॥ ए१॥ वली विरक्तगुणो कहे . शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ॥जोगान् कृष्णजंगनोगविषमान राज्यरजःसन्निनम्,बंधून बंधनिबंधनानि विषयग्रामं विषान्नोपमम् ॥ जूतिं नूतिसहोदरां तृणमिव स्त्रैणं विदित्वा त्यज, न्स्तेष्वासक्तिमनाविलोविलनते मुक्तिं विरक्तः पुमान् ॥ए॥ इतिवैराग्यप्रक्रमः २१ अर्थः-( विरक्तः के०) वैराग्ययुक्त एवो (पुमान् के० ) पुरुष, ( मुक्तिं के०) मुक्तिने ( विलजते के०) प्राप्त थाय बे. शुं करीने प्राप्त थाय बे ? तो के (जोगान् के०) शब्दादिक जोगोने ( कृष्णजंगलोगविषमान् के०) कृष्णसर्पना देह समान विषम ए. वाने ( विदित्वा के०) जाणीने तथा ( राज्यं के०) श्राधिपत्यने राज्यने ( रजःसंनिनं के०) धूलिस Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६०) मान जाणीने तथा ( बंधून के०) वजनने (बंधनिबंधनानि के ) बंधनना कारणरूप जाणीने तथा ( विषयग्रामं के) विषयसमूहने ( विषानोपमं के ) विषमिश्रित अन्नसमान जाणीने तथा(जूर्ति के ) रुछिने (जूतिसहोदरां के०) विजूतिनी बेइन एटले जस्मनी सदृश जाणीने तथा (स्त्रैणं के०) स्त्रीसमूहने ( तृणमिव के०) तृण जेम होय तेम जाणीने मुक्तिने पामे . हवे ते पुरुष केहवो जे ? तो के ( तेषु के०) ते पूर्वोक्त पदार्थोने विषे (थासक्तिं के० ) श्रासक्तिने ( त्यजन् के० ) त्याग करतो एवो . वली केहवो ने ते पुरुष ? तो के (अ. नाविलः के) रागद्वेषादिकें करी अनाकुल डे. एटले स्व ॥ ए॥ इति वैराग्यप्रक्रमः॥१॥ टीकाः-विरक्तगुणानाह ॥ जोगानिति ॥ विरक्तो वैराग्ययुक्तः पुमान् मुक्तिं विलजते सिहिं प्राप्नोति। किं कृत्वा ? जोगान् शब्दादीन् कृष्णश्चासौ नुजंगः सर्पस्तस्य जोगः शरीरं तहत् विषमान् नीमान् विदित्वा ज्ञात्वा। तेषु थासक्ति अत्यानलाष त्यजन् । पुनः राज्यं श्राधिपत्यं रजःसन्निनं धूलिसदृशं मत्वा त्यजन् । पुनर्बंधून स्वजनान् कर्मबंधस्य नि Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६१) बंधनानिकारणानि मत्वा पुनर्विषयग्रामं विषयसमूह विषान्नोपमं विषमिश्रितान्नसमं मत्वा। पुनर्जूर्ति शर्षि नूतिसहोदरांजस्मनगिनीरदासदृशीं मत्वा। पुनः स्त्रैणं स्त्रीणां समूहं तृणमिव तृणसदृशं विदित्वा तेषु श्रासक्तिं अत्यऽजिलापं त्यजन् । कथंनूतो विरक्तः पुमान्? अनाविलः रागवेषाद्यनाकुलः॥ए॥ नाषाकाव्यः-सवैया इकतीसा ॥ जाकों जोगनाव दिसै कारे नागकेसी फन, राजको समाज दीसे जैसै रजकोष है । जाको परिवारकों बढाउ घेरा बंध सूफै, विषै सुखसोंजकों विचारै विषपोष है। लिखै यौं विनूति ज्यौं जसमको विजूति कहै, वनिता विलासमें विलोके दिढ दोष है ॥ ऐसो जानि त्यागै यह महिमा वैराग ताकी, ताहीकों वैराग सही ताके ढिग मोख है ॥ एy ॥ ___ कथाः-हवे वेराग्य उपर कथा कहे . कांचनपुरनगरें विक्रमसेन राजा बे, तेनी पांचशे राणी , तेहज नगरमा एक नागदत्त नामें शेठ वसे बे. तेने विष्णु नामें नार्या महास्वरूपवती . तेने एकदा गोखमां बेग थकां राजायें दीठी, तेवारें सेवको मोकली बोलावी लश्ने बलात्कारें अंतेउरमां मोक adnAAR Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६२ ) ली दीधी. नागदत्तशेतें अनेक उपाय करुया, पण कोइ रीते राजा तेनी स्त्रीने मूके नही. तेवारें नागदत्त स्त्रीथी विव्हल थयो थको वनमां जतो रह्यो . दवे राजा पण ते स्त्री उपर मोह्यो थको बीजी सर्व स्त्रीयोने तृणप्राय जाणवा लाग्यो. पांचशें स्त्रीयो सर्व एमज बेसी रही, तेवारें ते स्त्रीयोयें कामण दुमणादिक प्रयोगथी विष्णु राणीने मारी नाखी. तेने मरण पामेली देखीने राजा तेने पगे वलगी रह्यो, पण मोहदशाथी जूदो न थाय. तेनो पग मूके नही. पढी को प्रपंचथी प्रधान ते राणीने अग्निसंस्कार करवा लइ गयो. पण जेवारें अग्नितीरें मूकी, तेवारें राजा राणीने अणदेखतो थको प्रधान प्रत्येंकड़ेवा लाग्यो के महारी वल्लजाने लइ श्राव. प्रधान पण राजाने तिहां लइ जइने राणीनुं कलेवर देखाड्यं. ते जोइ राजा मनमां वैराग्य पाम्यो अने विचाखुं जे या राणीना शरीरमां अत्यंत सुरनिगंध हतो, ते पुरनिगंध थयो ! तथा मुखकमल चंद्रमा जेवुं दतुं ते शोषाइने नहिं तेनुं ययुं ! छाने नेत्र, बाहु, गलस्थल, इत्यादि अंग पूर्वे जे इतां, ते सर्व बगडी गयां ! इत्यादि स्वरूप सर्व अनित्य जाणी Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६३) राणीने अग्निसंस्कार करी दीक्षा लश् उग्र तप तपीने त्रीजे देवलोके देवता थयो. तिहांथी चवी रत्नपुर नगरें जिनधर्मा नामें शेठ थयो भने पूर्वलो नागदत्तशेठ ते एक ब्राह्मणने घेर पुत्रपणे उपनो, तेनुं नाम अग्निशर्मा पाड्युं, ते वृकावस्थायें संसार त्यागी त्रिदंमी तापस थयो. बे बे मासे पारणं करे, ते अनेक देश भ्रमण करीने शिष्योना परिवार सहित एकदा प्रस्तावें फरी रत्नपूर नगरें थाव्यो, तेने राजायें अत्याग्रहपूर्वक पार| कराववा मार्ट निमंत्रणा करी, तेवारें तापसें पूर्वजन्मनावेरथी राजाने कह्यु के जो जिनधर्मी शेव पोतानी पीठ उपर जोजन करावे, तो हुँ पारणुं करूं ? एवी महारी श्छा बे. राजायें ते वात कबूल करी जिनधम्मीश्रेष्ठीने तेडी तेनी पुंठ मंमावी. तेनी उपर तापस चढी बेगे. अने त्रांबार्नु नाजन परमान्नथी नरी लाव्या, ते पण शेनी पीठ उपर राख्यु. तापस जमवा बेगे पठी ऊष्ण श्रन्नना योगें शेठनो वांसो तप्यो, अने महावेदना थवा मांडी. तेवारें शेनें मनमा चिंतव्यु जे में जन्मांतरें ए शषिने संताप्यो दशे, तेथी ए हमणां मने संताप करे , माटें कीधेलां Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६४) कर्म जोगव्या विना कांश बूटे नही ! हवे तापस जमी रह्या पठी नाजन उपाड्युं तो शेठना वांसानी खाल नीकली पडी, मदावेदनाक्रांत थ पोताने घेर श्रावी सर्व जीवायोनि खमावी अनशन व्रत लश्मरण पामी सौधर्मे थयो. अने त्रिदमीयो मरण पामी तेज इंजनो ऐरावत हाथीथयो. ते हाथी मरण पामीघणो संसार परिज्रमण करी सीताद नामें गुह्यक थयो.अने सौधर्मेऽ पण तिहांथी चवी हस्तिनागपुरें अश्वसेन राजाने घरे पुत्रपणे ऊपनो. मातायें चौद सुपन दीगं. जन्म्या पली सनत्कुमार नाम दीधुं. ते बीजना चंद्रमानी पेरें वधतो अनुक्रमें यौवनावस्था पाम्यो. अत्यंत रूपवान् सौजाग्यवान् थयो. तेनो महेंज नामें कोई मित्र , तेनी साथे अनेक प्रकारनी रमत क्रीडा करवा लाग्यो. ___एकदा वसंतक्रीडा करवा माटें मित्रनी साथें उद्यानमां गयो, ते अवसरें राजाने माटें अपूर्व श्रश्व कोइ परदेशथी नेट लश्श्राव्यो, ते अश्वने राजायें कुमरनी पासें वनमां मोकव्यो. कुमर पण ते घोडा उपर चढी घणी वार घोडाने फेरव्यो पण जेवारें तेनी लगाम खेंची तेवारे ते घणोज दोड्यो, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६५) अने क्षणएकमांहे ते वन मूकीने श्रागल जतो रह्यो, ते समाचार अश्वसेन राजायें जाण्या. तेवारें सैन्य लश्ने तेने जोवा निकटयो. सर्वत्र जोयो पण क्यांहि न मलवाथी राजा रुदन करतो पालो घेर थाव्यो. तेवारें प्रधान आवी राजाने नमस्कार करी आझा मागीने देशांतर जवा निकटयो. ते केटलेक दिव. से कौबेरी नगरीयें गयो, तिहां सरोवरनी पाल उपर बेसी वनफल खा पाणी पीई, एकक्षण बेगे. ए. टलामां वेणु, वीणा, मृदंग, जबरी प्रमुखनो नाद सांजल्यो तेने अनुसारें श्रागल जवा लाग्यो. श्रागल अनेक जनथी परवस्यो थको कुमरने बेठेलो दोहो, तेवारें प्रधाने आश्चर्य पामीने कुमरने नमस्कार कस्यो. थालिंगनथी बेहु जण मल्या, कुमरें पोताना अर्कासने बेसाड्यो. तदनंतर देमकुशल पूख्यां.. ___ पड़ी कुमरें भ्रूसंझायें करी पोतानी नार्याने कद्यु, ते प्रधानप्रत्ये बोली के हे सत्पुरुष! तहारा मित्रने घोडायें वनमाहे अपहस्यो ते जेवारें वाग ढीली की तेवारें घोडो उनो रह्यो भने तत्काल मरण पाम्यो तथा कुंमर मूळयें. वृदनी छायानीचें पड्यो तेने वृदना अधिष्ठायक देवतायें जल श्राणी गट्यु. तेथी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६६) कुमर सावधान थर वनदेवता प्रत्ये पूडतो हवो के तमें कोण बो ? तारे तेणें कडं के हुं वनाधिष्ठायिक देवता बु. खीर समुज्ना पाणीथी में तुमने सावधान कीधो, तेवारें कुमरें कडं के हे देव ! मुझने मानसरोवर देखाडो,तो तिहां हुं स्नान मऊन करुं के जेश्री सकल रोग निवारण थाय !श्रने शीतल था! देवता तिहां लश् गयो, पढी कुमरें स्नान की. तृषा अने मार्गनो श्रम जे हतो ते टाल्यो. एवामां पूर्वजन्मना वैरी यदे दीगे, चिरकाल पर्यंत तेनी साथै युझ थयु. कुमरें तेने जीत्यो. बीजा देवतायें हर्षित थश्ने कुमर उपर फूलनी वृष्टि करी. तिहां नानुवेग विद्याधरनी आठ कन्याउँ परण्यो. पडी कुमरने ते विद्याधर वैताढ्य पवर्ते लइ गयो. तिहां पण घणी कन्याउनुं पाणिग्रहण कह्यु. अने सुखथी तिहां रह्यो. जे मात्रै पुण्यवंत पुरुष ज्यां जाय त्यां सुख पामे. . एकदा ते वैरी यदें गृहमांथी उपाडीने वनमाहे मूकी दीधो. तिहांथी बागल चालतां एक मंदिर दी. तेनी सातमी नूमिये चढ्यो, तेवारे रुदन करती एवी एककुमरी दीठी. कुमरें तेने बोलावी पू. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६७) ब्यु के हे सुनगि ! तुं रुदन शा माटें करे ? त्यारे कन्या बोली के, अहो सुजग ! सांकेत पुरपाटणे सुराष्ट्रराजा , तेनी सुनंदा नामें हुं पुत्री बु. वली जेवारें हुं यौवनावस्थाने पामी, तेवारें महारा पितायें संकल्प कस्यो जे ए महारी पुत्री हुँ सनत्कुमारने परणावीश ! पण एक दिवसें कोश्क विद्याधरें मने तिहांथी अपहरीने शहां आणी बे. हवे महारी शी गति थाशे ? कुमर बोल्यो, के तुं जय राखीश नही. सनत्कुमार ते ढुंज बुं. एवी वात करे बे, एटलामा ते कन्यानो हरण करनार विद्याधर पण त्यां श्रावी पहोतो, तेनुं अने कुमरनुं माहोमांहे युद्ध थयु. कुमर जीत्यो भने सुनंदानुं पाणिग्रहण कऱ्या. वली जे विद्याधरने जीत्यो तेने पण प्रथम ऋषीश्वरें कदेबु हतुं ते उपरथी पोतानी पुत्री कुमरने परणावी अनेक विद्या आपी ने वैताढ्य पर्वतें लइ गयो. तिहां श्रीशांतिनाथजीनां अनेक बिंब वंदाव्यां तिहांथी निकलीने में आज श्राही तमोने मल्या बैयें. इत्यादि वार्ता मंत्रीश्वर श्रागल कहीने पनी तिहांधी अंतेउर तथा मंत्री सहित चाख्या, ते ह Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६७) स्तिनागपुरे श्राव्या. पुत्र श्राव्यो सांजलीने पिता घणोजप्रमोद पाम्योपड़ी पुत्रनोराज्याभिषेक करीने पितायें श्रीधर्मनाथना शिष्यनी पासेंथी दीक्षा लीधी. ___ पाबल सनत्कुमार ब खंम पृथ्वी साधीने राज्यसुख जोगववा लाग्यो. इंजें धनद नंमारीनी साथे बत्र, चामर मोकल्या. बे चामर, बे पावडी, एक मुकुट, बे देवपुष्य वस्त्र, बे कुंगल, नदत्रमाला, हार, सिंहासन, देवतानां गायन, तथा अप्सरा. ए सर्वश्राणी दीधां. बत्रीश हजार राजायेंमली राज्यानिषेक कीधो. एम चक्रवर्तीनी पदवी जोगवतो रहे बे. ___एकदा सौधर्मेसें सजामां बेगं थकां सनत्कुमार चक्रीनुं रूप वखाण्युं ते सर्व देवोयें याथातथ्य करी मान्यु. परंतु बे मिथ्यात्वी देवो हता, ते इंजनुं वचन अणमानता परीक्षा करवा माटें ब्राह्मणनो वेश धारण करी चक्रीना छार आगल श्रावी छारपालने कहेवा लाग्या के श्रमें दूर देशांतरथी रूप जोवा सारु श्राव्या बैयें. ते वखत चक्रवर्ती पोताना शरीरें उवटणुं करावता इता. तिहां घारपालनी आज्ञा मागी ब्राह्मणनेरूपें देवायें श्रावी रूप जोयुं. तेथी हर्ष पामी कहेता हवा के अमारो जन्म स. Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) फल थयो. चक्रवर्त्तीयें कयुं के हुं मन करी जमीने राजसनायें बिराजुं, तेवारें श्रावजो राजाना कदेवा प्रमाणें सजामां पण ते देवो, रूप जोवा थाव्या. तेवारें मनमां विषाद पामी मस्तक धूपाववा लाग्या. चक्रवर्त्तीना पूब्वाथी देवोयें कयुं के तमारुं शरीर दमणां रोगें ग्रसित यवाथी पूर्वनुं रूप पलटाइ युं छे. इत्यादि वृत्तांत कही स्वस्थानकें गया. सनत्कुमारें यौवना दि वस्तुने थिर जाणी विजयंधर सूरि पासें दीक्षा लीधी. ब मास पर्यंत अनुराग धरतां सैन्य प्रमुख सर्व परिकर साधें फरया. परंतु सनत्कुमारें कां तेनी तरफ जोयुं पण नही पढ़ी सर्व कोइ पोतपोताने घेर पाढा श्राव्या. ▸ हवे चक्रवर्त्तीना शरीरें क्रमें क्रमें वधतां वधतां महारोगोत्पत्ति य, ते सातशे वर्ष पर्यंत जोगवी कठिण तपस्या करता रह्या, तेना प्रजावथी अनेक लब्धियो उपनी वली पूर्वनी पेरें सौधर्मेंझें सनत्कुमार साधुनी तपस्या तथा रोग संबंधि कष्ट सहन करवानी प्रशंसा करी, ते न मानतां फरी देवतायें यावी परीक्षा करवा माटें वैद्योपचार करवा संबंधी अनेक उपदेश करया. परंतु ऋषीश्वर लगार मात्र पण २४ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७०) मग्या नही. अने कष्ट सहन करवामां तत्पर रह्या. देवता पण साधुने वांदी ऊपर फूलनी वृष्टि करी खस्थानकें गया. सनत्कुमार साधु अंत्यावस्थाये अनशन व्रत लश् काल करी सात सागरोपमने थाउखे त्रीजे देवलोके देवता थया. देवस्थिति पूर्ण थये अनुक्रमें केटलाक मनुष्य तथा देवना जव करी केवलज्ञान उपार्जी मोद सुख पामशे. ए ए. कवीशमा वैराग्योपदेशप्रक्रमने विषे सनत्कुमारनी कथा कही ॥ हवे उ काव्ये करी सामान्य उपदेश कहे . उपजातिटत्तम् ॥ जिनें पूजागुरुपर्युपास्तिः, सत्त्वानुकंपाशुनपात्रदानम्॥गुणानुरागःश्रुतिरागमस्य,नृजन्मसदस्यफलान्यमूनि॥३॥ अर्थः-(नृजन्मवृदस्य के०) मनुष्यजन्मरूप वृदनां (अमूनि के०)श्रा हवे कहेवाशे ते (फलानि के ) फलो बे. ते फलो कहे . तिहां प्रथम तो ( जिनेअपूजा के०)श्रीवीतराग प्रजुनी पूजा करवी ते, तथा बीजुं ( गुरुपर्युपास्तिः के० ) गुरुनी उपासना करवी ते. तथा त्रीजुं ( सत्त्वानुकंपा के०) Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७१) सर्व प्राणिमात्र उपर दया राखवी ते. तथा चोथु (शुनपात्रदानं के०) शुनपात्रने विषे दान देवु ते. तथा पाचमु (गुणानुरागः के०) गुणीने विषेप्रीति राखवी ते. बहुं ( श्रागमस्य के० ) शास्त्रनुं (श्रुतिः के०) श्रवण करवं ते. एटलां फलो मनुष्य जन्मवृक्षनां . अर्थात् एटलां शुजकृत्यो करवा थकी मनुष्यजन्म सफल थयो जाणवो ॥ ए३ ॥ टीकाः-अथ सामान्योपदेशमाह ॥ जिनेति ॥ नृजन्मवृक्षस्य मनुष्यजन्म तरोरमूनि फलानि । एतैः कृत्वा मनुष्यजन्म सफलं नवति । श्रमूनि कानि ? प्रथमं तावजिनें पूजा श्रीवीतरागदेवस्य पूजा कार्या । पुनर्गुरूणां पर्युपास्तिः सेवा । पुनः सत्स्वानां जीवानां अनुकंपा दया कार्या । पुनः शुजपात्रे दानं । पुनर्गुणेषु अनुरागः गुणग्रहणं कार्य । पुनरागमस्य सिझांतस्य श्रुतिः श्रवणं कार्यं । एनिः कृत्वा मनुष्यजन्म सफलं स्यात् ॥ ए३ ॥ जाषाकाव्यः-सवैय्या तेईसा ॥ कै परमेसुरकी अरचा विधि, सो गुरुकों उपसर्ग न कीजै ॥ दीन विलोकि दया धरियें चित्त, प्रासुक दान सुपत्तहिं दीजै ॥ गाहक व्है गुनको गहियें, रुचिसों जिन Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७२) आगमको रस पीजै ॥ ए करनी करिये गृहमें वसि, यौं जगमें नर नौंफल लीजें ॥ ए३ ॥ शिखरिणीटत्तम् ॥ त्रिसंध्यं देवा! विरचय चयं प्रापययशः,श्रियः पात्रे वापं जनय नयमार्ग नय मनः ॥ स्मरक्रोधाद्यारीन् दलय कलय प्राणिषु दयाम, जिनोक्तं सितिंश्रृणु तणु जवान्मुक्तिकमलाम् ॥४॥ अर्थः-हे जव्यप्राणी ! ( त्रिसंध्यं के० ) प्रनात, मध्यान्ह अने सायंकाल, तेने विषे ( देवार्चा के० ) श्रीवीतरागनी पूजाने (विरचय के०) कर' तथा (यशः के० ) कीर्तिने, (चयं के० ) वृद्धिप्र. ये (प्रापय के ) पमाड. तथा ( श्रियः के० ) बमीना ( पात्रे के०) सुपात्रने विषे ( वापं के) वाववाने ( जनय के० ) उत्पन्न कर. तथा ( मनः के) मनने ( नयमार्ग के०) न्याय मार्ग प्रत्ये (नय के० ) पमाड. वली ( स्मरक्रोधाद्यारीन् के०) काम, क्रोध, मान, माया, लोज, ए श्रादि शत्रुठने (दलय के०) खंमन कर. तथा (प्राणिषु के०) प्राणिमात्रने विषे ( दयां के० ) दयाने ( कलय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७३) के० ) कर. तथा ( जिनोक्तं के०) जिनप्रणीत एवा (सिद्धांतं के०) सूत्र सिद्धांतने (शृणु के०) श्रवण कर. ए पूर्वोक्त सर्वे करीने (जवात् के०) वेगें करी(मुक्तिकमलां के० )मोक्षरूप लक्ष्मीने (वृणु के०)वर॥ए। ॥ ___टीकाः-त्रिसंध्यमिति ॥ त्रिसंध्यं त्रिकालं प्रजाते मध्यान्हे सायं च देवार्चा श्रीवीतरागपूजां विरचय कुरु । पुनर्यशः कीर्ति चयं वृधि प्रापय । श्रियो लदम्याः पात्रे सुपात्रे वापं जनय वपनं कुरु । पुनर्मनश्चित्तं नयमार्ग न्यायमार्ग प्रति नय । पुनः स्मरक्रोधाद्यारीन् काम क्रोध मान माया लोजाद्यान् शत्रून् दखय खमय । पुनः प्राणिषु जीवेषु दयां कलय कुरु । पुनर्जिनोक्तं अहत्प्रणीतं सिद्धांतं सूत्रं शृणु । एतानि कृत्वा जवात् वेगात् मुक्तिकमलां शिव श्रियं वृणु वरय ॥ ए४ ॥ . नाषाकाव्यः-हरिगीतछंद ॥ जो करै साधि त्रिकाल सुमिरन, जासु जस जग विस्तरै ॥ जो सुनै परमागम सुरुचिसों, नीति मारग पग धरै ॥ जो निरखि दीन दया प्रयुजै, काम क्रोधादिक हरै ॥जो सुधन सपत सुखेत खरचै, ताहिं सिवसंपति वरै॥ए॥ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४) शार्दूलविक्रीडितटत्तम्॥कृत्वाऽईत्पदपूजनं यतिजनं नत्वा विदित्वाऽऽगम, दित्वा संगमधर्मकर्मगधियां पात्रेषु दत्वा धनम् ॥ गत्वा पतिमुत्तमक्रमजुषां जित्वांऽतरारिवजम्, स्मृत्वा पंचनमस्क्रियां कुरु करकोडस्थमिष्टं सुखम् ॥ एय॥ अर्थः-हे श्राझजन ! एटलां वानां करिने (इष्टं के०) वांछित एवा (सुखं के०) सुखने (करक्रोडस्थं के ) हस्तोत्संगगत एटले हाथमां तथा खोलामा रहे एवा ने (कुरु के० ) कर. शुं करीने कर ? तो के (थईत्पदपूजनं के०) श्रीवीतराग जगवानना पदपूजनने ( कृत्वा के० ) करीने तथा ( यतिजनं के०) साधुजनने (नत्वा के) नमस्कार करीने तथा (भागमं के) सिद्धांतने (विदित्वा के) जाणीने अथवा सांजलीने तथा (अधर्मकर्मगधियां के०) पापासक्त बुकिवाला जनोना ( संगं के० ) संगने ( हित्वा के० ) त्याग करीने तथा (पात्रेषु के०) सुपात्रने विषे (धनं के० ) धनने ( दत्वा के०) श्रापीने तथा (उत्तम कमजुषां के०) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७५ ) उत्तम मार्गना सेवनार जनोना ( पद्धतिं के० ) मार्गप्रत्यें ( गत्वा के० ) जइने तथा ( अंतरारित्रजं के ) अभ्यंतरना वैरिसमूहने ( जित्वा के० ) जीतीने तथा ( पंचनमस्त्रियां के० ) पंचपरमेष्ठिनमस्कार मंत्रने (स्मृत्वा के० ) स्मरण करीने तथा एमनुंज ध्यान करीने इचित सुखने करोत्संगप्राप्त कर. एटले कर जे हाथ अने उत्संग जे खोलो तेने विषे प्राप्त कर ॥ ५ ॥ टीका: - कृत्वाऽईतिति ॥ जो श्राद्ध ! एतानि कृत्वा इष्टं वांबितसुखं कर क्रोडस्थं हस्तोत्संगगतं कुरु । करोत्संगप्राप्यं कुरु । किं कृत्वा ? यत्पदपूजनं वीतरागचरणपूजां कृत्वा । पुनर्यतिजनं साधुजनं नत्वा । पुनरागमं सिद्धांतं विदित्वा ज्ञात्वा श्रुत्वा । पुनः धर्मकर्मवधियां पापासक्तबुद्धीनां संगं संसर्गं त्यक्त्वा परित्यज्य । पुनः पात्रेषु निजं धनं वित्तं दत्वा । पुनः उत्तमकमजुषां उत्तममार्गसेविनां पद्धतिं मार्ग प्रति गत्वा धनुश्रित्य पुनरंतरा - रिव्रजं अंतरंगारिषडुर्गं श्राभ्यंतरं वैरिसमूहं जित्वा । पुनः पंच नमस्त्रियां नमस्कारमंत्रं स्मृत्वा ध्यात्वा इष्टं सुखं करोत्संगप्राप्यं कुरु ॥ ५ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७६ ) जाषाकाव्यः - वस्तुच्छंद ॥ देव पूजहिं देव पूजहिं रचहिं गुरु सेव ॥ परमागम रुचि धरहिं, तंजहिं दुष्ट संगति ततछन ॥ गुनिसंगति यादरहिं, करहिं त्याग डुरजब जवन ॥ देहि सुपत्तहिं दान नित, जपहिं पंच नवकार | ए करनी जे श्राचरहिं, ते पावहिं जवपार ॥ ५ ॥ दरिणीवृत्तम् ॥ प्रसरति यथा किर्त्तिर्दिदु क्षपाकरसोदरा, ऽभ्युदयजननी याति स्फातिं यथा गुणसंततिः ॥ कलयति यथा टझिं धर्मः कुकर्मदतिक्रमः, कुशल- सुखने न्याये कार्य तथा पथि वर्त्तनम् ॥ ९६ ॥ अर्थः- हे प्राणी ! ( न्याये के० ) न्यायोपपन्न एवा (पथि के० ) मार्गने विषे ( तथा के० ) तेवी रीतें ( वर्त्तनं के० ) वर्त्तन ( कार्य के० ) करवा योग्य बे. केवी रीते ? तो के ( यथा के० ) जेम ( दिक्षु के० ) चारे दिशामां ( कृपाकरसोदरा के० ) चंद्रकिरणसमान उज्ज्वल एवी ( कीर्त्तिः के० ) की - ति ( प्रसरति के० ) प्रसरे बे. वली ( यथा के० ) जेम (ज्युदयजननी के० ) उदयने करनारी एवी Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७७) ( गुणसंततिः के० ) गुणश्रेणि, ( स्फाति के० ) विस्तारने ( याति के०) पामे . तथा वली ( यथा के ) जेम (कुकर्महतितमः के० ) पापहनने विषे समर्थ एवो (धर्मः के०) धर्म, ( वृद्धिं के० ) वृहिने (कलयति के० ) प्राप्त थाय . ते न्याय मार्ग केहवो के ? तो के ( कुशलसुलने के०) चतुर पुरुषोयें सुलन ॥ ए६ ॥ ___टीकाः-प्रसरतीति ॥ न्याय्ये न्यायोपपन्ने पथि मार्गे तथा प्रवर्त्तनं कार्य तथा प्रवृत्तिः कार्या । यथा दिनु चतुर्ष दिक्कु पाकरसोदरा चंडकिरणवज्ज्वला कीर्तिः स्फुरति विस्तरति । पुनर्यथा अज्युदयजननी उदयकारका गुणसंततिर्गुणश्रेणिः स्फातिं याति विस्तारं व्रजति । पुनर्यथा कुकर्महतो पापहनने दमः समर्थो धम्मो वृळि कलयति वृद्धिं प्राप्नोति । तथा न्याये पथि न्यायमार्गे प्रवर्त्तनं कायं । कथंजूते न्याये पथि ? कुशलैश्चतुरपुरुषैः सुलजः सुप्रापः सुखेन लभ्यस्तस्मिन् ॥ ए६ ॥ लाषाकाव्यः- दोहा॥गुन अरु धर्म सुथिर रहै, जस प्रताप गंजीर ॥ कुशल वृक्ष जिम लहलहै, तिहिं मारग चलो वीर ॥ ए६ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७७) शिखरिणीदत्तघ्यम् ॥ करे श्वाध्यस्त्यागः शिरसिगुरुपादप्रणमनम्, मुखे सत्या वाणी श्रुतमधिगतं च श्रवणयोः॥ हृदि स्वजा - त्तिर्विजयि नुजयोः पौरुषमदो, विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां ममनमिदम् ॥ ए ॥ . अर्थः-(अहो के ) आश्चर्य बे के ( प्रकृतिमहतां के०) खनावें करी उत्तम एवा जनोने (वि. नाप्यैश्वर्येण के०) साम्राज्य विना पण (इदं के) श्रा हवे केहेवाशे ते ( मंगनं के) जूषण बे. ते शुं नूषण जे ? तो के ( करे के० ) हाथने विषे ( त्यागः के०) दान तेज ( श्लाघ्यः के०) श्लाध्य बे. पण कंकणादि नूषण मंमन नथी. तथा ( शिरसि के० ) मस्तकने विषे ( गुरुपादप्रणमनं के) गुरुजनना पदने विषे प्रणाम तेज मंडन , परंतु मुकुटतिलकादि नश्री. ( च के०) तथा ( मुखे के०) मुखने विषे (सत्या के०) सत्य एवी (वाणी के०) वाणी तेज मंमन डे परंतु तांबलादिनथी. तथा (श्रवणयोः के०) कानने विषे (अधिगतं के०) नण्यु एवं (श्रुतं के०) सिद्धांत तेज मंमन बे, परंतु कुंमला Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३३ए) दि नथी. (हृदि के० ) हृदयने विषे (खला के०) निर्मल एवी (वृत्तिः के० ) व्यापार तेज मंगन बे, परंतु हारमालादि नथी, तथा (जुजयोः के० ) बेहुहाथने विषे ( विजयि के०) जयनशील एबुं ( पौरुषं के ) पुरुषार्थ तेज मंगन बे, परंतु केयूरादि नथी. अर्थात महान पुरुषोने धनादिविना पण श्रापूर्वोक्त सर्व मंमन रूप ॥ ए॥ ___टीकाः-करति ॥ अहो श्राश्चर्ये प्रकृतिमहतां खनावेनोत्तमानां पुंसां ऐश्वर्येण साम्राज्येन विनाऽपि दं मंगनं अस्ति । दमिति किं ? करे हस्ते त्यागोदानं श्लाघ्यः मंगनं न कंकणादि । पुनः शिरसि गुरूणां पादयोश्चरणयोःप्रणमनं नमस्कारकरणं मंमनं न मुकुटतिलकादीनि । मुखे सत्या वाण्येव मंगनं न तांबूलादि । श्रवणयोः कर्णयोः अधिगतं पहितं श्रुतं शास्त्रमेव मंगनं न कुंमलादि । हृदि हदये स्वछा निर्मला वृत्तिापारएव मंडनं न हारमालादि । जुजयोर्बाव्होर्विजयिजयनशीलं पौरुषं प्रराक्रमो धर्मविषये यद्दलं तदेव मंडनं न केयूरादि । महतां पुसां धनं विनापि दयैव मंडनं ॥७॥ नाषाकाव्यः-कवित्त मात्रात्मक ॥ वंदनं विनय Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०) मुकुट शिर उप्पर, सुगुरु वचन कुंमलयुग कान ॥ अंतरशत्रु विजय जुजमंमन, मुगति माल उर गुन अमलान ॥ त्याग सहज कर कटक विराजत, शो. जित सत्य सबद मुख पान ॥ नूखन तजहिं तहूं तन मंमित, यातें संत पुरुष परधान ॥ ए॥ नवारण्यं मुक्त्वा यदि जिगमिषुर्मुक्तिनगरीम, तदानीमा कार्षीविषयविषटदेषु वसतिम् ॥ यतश्गयाप्पेषां प्रथयति महामोहमचिरा, दयं जंतुर्यस्मात्पदमपि न गंतुं प्रनवति ॥ एG ॥ति सामान्योपदेशप्रक्रमः ॥२३॥ अर्थः-हे श्रावकजन ! ( यदि के०) जो (जवारण्यं के०) संसाररूप अटवीने (मुक्त्वा के०) मूकीने ( मुक्तिनगरी के०) मोदनगरी प्रत्ये (जिगमिषुः के) जवाने तो एवो तुं बगे, (तदानीं के ) त्यारें तो ( विषयविषवृकेषु के ) विषयरूप जे विषवृतो तेने विषे ( वसतिं के) निवासने (माकार्षीः के०) म कर. (यतः के०) जेकारण माटें ( एषां के०) ए विषयविषवृदोनी (गयापि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०१) के०) गया पण ( महामोहं के० ) महोटा अज्ञानने (प्रथमयति के) विस्तारे . जेम बीजी पण विषवृदोनी या बे, ते महोटी मूर्जाने उत्पन्न करे बे. अने ( यस्मात् के०) जे महामोह थकी (श्रयं के०) श्रा ( जंतुः के०) जीव, (अचिरात् के०) वेगें करी ( पदमपिगंतुं के० ) एक पगढुं पण चालवाने (नप्रजवति के०) समर्थ थातो नथी. अर्थात् स्थावरपणाने प्राप्त थाय डे ॥ ए७ ॥ इति सामान्योपदेशप्रक्रमः॥ ॥ ___टीकाः-लवारण्य मिति ॥ नो श्राऊ ! जवारण्यं संसाररूपां अटवीं मुक्त्वा त्यक्त्वा यदि मुक्तिनगरी सिद्धिपुरीं प्रति जिगमिषसि गंतुकामोऽसि तदानीं विषयाएव विषवृक्षास्तेषां वसतिं निवासं माकार्षीः मा कृथाः । कुतः ? यतोयस्मात् कारणात् एषां विषयविषवृक्षाणां बायाऽपि महामोहं महदज्ञानं प्र. थयति विस्तारयति । अन्येषामपि विषवृदाणां बाया महामोहं महती मूां जनयति । यस्मान्महामोहादयं जंतुःप्राणी अचिरागात् पदमपि गंतुं एक पादमपि चलितुं न शक्नोति । किंतु ? स्थावरत्वं प्राप्नोति ॥ ए ॥ सिंदूरप्रकरग्रंथ, व्याख्यायां हर्ष Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७५) कीर्तिनिः॥ सूरि निर्विहितायां तु, सामान्यप्रकमोऽजनि॥२॥ इति सामान्योपदेशप्रक्रमः॥२॥ हवे एक काव्ये करी ग्रंथतुं समर्थन करे . उपजातिवृत्तम् ॥ सोमप्रनाचार्यमन्ना च यन्न, पुंसां तमःपंकमपाकरोति ॥ तदप्पमुष्मिन्नुपदेशलेशे, निशम्यमानेऽनिशमेति नाशम् ॥ एए इति ग्रंथसमर्थनम् ॥ अर्थः-(सोमप्रजा के०) चंजनीकांति (च के०) वली (अर्यमना के) सूर्यनीकांति ते ( पुंसां के०) पुरुषोना ( यत् के० ) जे ( तमःपंकं के ) अंधकाररूप जे कचरो तेने ( नपाकरोति के०) नथी नाश करती. ( च के० ) परंतु ( तदपि के० ) ता. दृश एवो पण अज्ञान अने पापरूप कचरो ते (श्रमुष्मिन् के०)श्रा सिंदूरप्रकराख्यनामा ( उपदेशखेशे के०) उपदेशनो लेश ते ( निशम्यमाने के०) सांजले बते (शनिशं के०) रात्रि दिवस एटले निरंतर ( नाशं के०) नाशने (एति के०) पामे बे. अर्थात् था सिंदूरप्रकर सांजलवाथी तम जे पाप अने अज्ञान ते नाशने पामे बे. श्रा श्लोकमां Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८३ ) 'सोमप्रजा' ए पदथी ग्रंथकर्त्तायें पोतानुं सोमप्रजाचार्य एवं नाम पण सूचव्युं बे॥ टीका:- अथ समर्थयति ॥ सोमप्रनेति ॥ सोमप्रजा चंद्रकांतिश्च पुनः श्रर्यमा सूर्यप्रजाऽपि पुंसां यत्तमःपंकं अंधकारकर्द्दमं न पाकरोति न दूरी करो ति । तदपि तादृशमपि तमः पंकं श्रज्ञानपापं श्रमुष्मिन् सिंदूर प्रकराख्ये उपदेशलेशे निशम्यमाने भूयमाणे सति श्रनिशं निरंतरं नाशं एतिक्षयं याति । एतत् श्रवणात्तत्तमः पापं च याति । अत्र सोम प्रनाचार्य इति ग्रंथकृता खनामापि सूचितम् ॥ एए॥ इति ग्रंथसमर्थनम् ॥ हवे एक श्लोकी प्रशस्ति कहे बे ॥ मालिनीवृत्तम् ॥ अमजद जितदेवाचार्यपहोदया, घुमणि विजयसिंहाचार्य पादारविंदे ॥ मधुकरसमतां यस्तेन सोमप्रने, व्यरचि मुनिपराज्ञा सूक्तमुक्तावलीयम् ॥ १०० ॥ इति प्रशस्तिः ॥ इति सिंदूरप्रक्रमः समाप्त ॥ अर्थ : - ( तेन के० ) ते ( सोमप्रण के० ) सोमप्रजनामा ( मुनिपराज्ञा के० ) मुनिप जे मुनि Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८४ ) श्रेष्ठ तेमना जे राजा एवा सूरीश्वर तेमणें ( इयं ho ) श्रा ( सूक्तमुक्तावली के० ) सु नाम शोजायमान प्रस्ताववालां उक्त एटले काव्य ते रूप मुक्ता जे मोतियो तेनी श्रावली जे पंक्ति ते ( व्यरचि के० ) विरचित करी. ते कया सोमप्रजाचार्य ? तो के ( यः के० ) जे अजितदेवा चार्यपट्टोदया जि अजितदेवनामा श्राचार्यना पट्टरूप उदयाचलने विषे ( घुमणि के ० ) सूर्यसमान एवा जे ( विजयसिंहाचार्य के० ) विजय सिंहाचार्य तेना ( पादारविंदे के० ) चरणारविंदने विषे ( मधुकर समतां के० ) भ्रमरनी समानताने ( अजत् के० ) नजता दवा ॥ १०० ॥ ए प्रशस्ति कही ॥ इति सिंदूरप्रकरस्य बालावबोधः समाप्तः ॥ टीकाः श्रथ प्रशस्तिमाह || अमजद जितदेवेति ॥ तेन सोमप्रभेण मुनि पराज्ञा मुनिपाः मुनिश्रेष्ठास्तेषां राजा सूरीश्वरस्तेन मुनिपराज्ञा सूरीश्वरे इयं सूक्तमुक्तावलिः सूक्तान्येव सुनूषितान्येव शोजन प्रस्तावकाव्यान्येव मुक्तामौक्तिकानि मुक्ताफलानि तेषामावलिः श्रेणिः व्यरचि चिरचिता । तेन केन ? यः सोमप्रजः श्रजितदेवनामाचार्यस्य पट्टएव Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७५) उदयाधिरुदयाचलः तत्र घुमणिः सूर्यसमानोविजयसिंदाचार्यस्तस्य पादारविंदे चरणकमले मधुकरसमतां भ्रमरतुल्यतां अनजत्प्राप । अर्थात् पूर्वमजितदेवाचार्यस्तस्य सोमप्रजाचार्यस्तेनेयं सिंदूरप्रकरनामा सूक्तमुक्तावली व्यरचि कृता ॥ १० ॥ इति प्रशस्तिः ॥ इति श्रीसिंदूरप्रकराख्यग्रंथस्य हर्षकीर्तिसूरिविरचिता व्याख्या समाप्ता ॥ लाषाकाव्यः-सवैय्या इकतीसा ॥ गहैं जे सुजनरीति, गुनीसों निवाद प्रीति, सेवा साधै गुरुकी, विनैसों कर जोरिकें ॥ विद्याको विसन धरै, परतिय संगहरै, उर्जनकी संगतिसों, बैठे मुख मोरिके ॥ तजै लोक निंधकाज, पूजै देव जिनराज, करै जे करणि थिर, उमंग बहोरिकें तेही जीव सुखी होहिं, तेहि, मोखमुखी हो हिं, तेही होइ परम, करमफंद तोरिकें ॥ ए॥ वृत्त ऊपर प्रमाणे ॥ पर निंदा त्याग करु, मनमें वैराग धरु, क्रोध मान माया लोन, च्यारो परिहर रे ॥ हिरदेमें तोष गहु, समतासों शीरो रहु, धरमको नेद लहु, खेदमें न पर रे ॥ करमको वंस खोज, मुगतिको पंथ जोउ सुकृतको बीज बोउ, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) पुरितसों मर रे ॥ अरे नर ऐसो होहि, वार वार कहुँ तोहि, नांहि तौ सिघार जैया, निगोद तेरो घर रे ॥ एए॥ ___ कवित्त मात्रात्मक ॥ आलस त्यागु जागु नर चेतन, बल संजारु मति करहुं विलंब ॥ इहां न सुख लवलेश जगतमहिं, निंब विरखमहिं लगै न अंब ॥ तातें तूं अंतर विपद हरु, करु, विलद निज अदकदंब ॥ गहु गुन ज्ञान बैठ चारित रथ, देहि मोख मग सनमुख बिंब ॥ १० ॥ अथ अजोग कवित्त मात्रात्मक ॥ जैन वंस सर हंस सितंबर, मुनिपति अजितदेव अतिवारज ॥ ताके पट्ट वादिमदनंजन, प्रगटे विजयसिंह श्राचारज ॥ ताके पट्ट जए सोमप्रन, तिन्है गिरंथ कियो हितकारज ॥ जाके पढत सुनत अवधारत, हो३ पुरुष जे, पुरुष अनारजे ॥ ११॥ दोहा ॥ नाम सूक्तमुक्तावली, द्वाविंशति अधिकार ॥ सत सिलोक परधान सब, इति गरंथ विस्तार ॥ १२ ॥ कौंरपाल बनारसी, मित्रयुगल इक चित्त ॥ तिन गरंथ नाषा कियो, बहुविधि बंद कवित्त ॥ १३ ॥ सोलहसे क्या नर्वे, रितु ग्रीषम वैसाख ॥ सोम Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) वार एकादशी, कर नक्षत्र सित पाख ॥ १४ ॥ श्रा नाषा करनारें बीजी टीका उपरथी रचना करेली देखाय जे जे माटें कोइ को स्थलें अर्थमा कचित् फेर दोहामां आवे . अने बेहलां वे काव्यनो अर्थ फेरव्यो बे.. इति सोमप्रजाचार्यविरचित सिंदूरप्रकरः ( सूक्तमुक्तावलि ) ग्रंथ हर्षकीर्ति सूरिकत युक्ति, व्याख्या अन्यपंमितकृत बालावबोध संयुत, बनारसीदासकृतनाषाकाव्यसहितः समाप्तः ॥ समाप्तोयं ग्रंथः॥ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- _