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इस रचना की विशेषता है, जो पाशविक प्रवृत्तियो से जीवन को वचा कर मानवता की ओर लेजाने की अमर प्रेरणा देती रहेगी और वहाँ से भो आगे महामानव अर्थात् सर्वकर्म मल को क्षय कर उस अलौकिक अमरपद भगवान् को प्राप्त करने का मार्ग प्रेदर्शक होगी। यही इस महान महाभारत का आदर्श है। ___ पाठको की रुचि को जानते हुए अब मेरे लिये यह बताना भी एक कर्तव्य हो गया है कि किन कारणो से मुझे इस प्रस्तुत महाभारत के लिखने की प्रेरणा मिली।
लम्बे समय की बात है। मै विद्यार्थी रूप मे था । पू० आचार्य श्री सोहनलाल महाराज जी की सेवा मे रहते हुये पूर्वी पजाब के प्रसिद्ध नगर अमृतसर की वह घटना आज भी याद है जबकि मुझे एक महाभारत नाम की पुस्तक हाथ लगी। मैने उसे आद्योपान्त पढा मेरे हृदय मे अनायास ही एक प्रश्न उठा कि क्या जैन धर्म मे इस पुस्तक की मान्यता नही ? यदि है तो किस रूप मे ? और श्रीकृष्ण कौरव, पाण्डव, आदि के विषय में जानने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। क्योकि उस समय मै जैन साधना का लिए हुये साधक रूप मे था । मनुष्य जिस समाज मे रहता है अथवा जिसके द्वारा जीवन निर्माण की सामग्री प्राप्त करता है, उसके प्रति सहज ही उसके हृदय मे श्रद्धा, भक्ति और जिज्ञासा आदि रहती है या उत्पन्न हो जाती है।
महाभारत के सम्बन्ध मे उठी हुई जिज्ञासा को उस समय में मूर्त रूप न दे सका क्योकि एक ओर पठन-पाठन तो दूसरी ओर उन महापुरुषो की सेवा का मुख्य कार्य था । बीच मे अवसर भी मिला तो एक और कार्य मे लग जाना पडा । खैर, वह कार्य भी एक ऐतिहासिक एव महत्वपूर्ण था जो कि वर्षों के परिश्रम से सम्पन्न हुआ, वह था जैन रामायण का काव्यरूप सकलन । इस प्रथम प्रयास ने मुझे प्रोत्साहित किया और अतीत की विस्मृति अगडाई लेकर जाग उनी।