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इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि हे आत्मन् ! इस संसार में एक जिनेश्वर का धर्म ही शरणभूत है। केवली प्ररूपित धर्म की शरणागति के बाद आत्मा निर्भय बन जाती है। जिस प्रकार जिस व्यक्ति ने कवच को धारण कर लिया है, उसे युद्धभूमि में विशेष भय नहीं रहता है, उसी प्रकार जिस आत्मा ने जिनधर्म की शरणागति रूप कवच को धारण कर लिया है, उसके लिए मोहराजा के भयंकर अस्त्र-शस्त्र भी निष्फल हो जाते हैं, भयंकर मोह भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।
जिनधर्म की शरणागति के साथ पवित्र चारित्र का पुनःपुनः स्मरण व प्रासेवन करना चाहिये । पवित्र चारित्र के दस भेद हैं- (१) क्षमा (२) मार्दव (३) आर्जव (४) निर्लोभता (५) तप (६) संयम (७) सत्य (८) शौच (९) ब्रह्मचर्य और (१०) आकिंचन्यता ।
अनाथी मुनि ने श्रेणिक महाराजा को वास्तविक नाथपन समझाया था और यही कहा था कि--
जिनधर्म बिना नरनाथ । नथी कोई मुक्ति नो साथ ॥
जिनधर्म ही आत्मा का मुक्तिपर्यन्त सच्चा साथी बन सकता है। सच्चा साथी वही है, जो लक्ष्य तक पहुँचावे। संसार में ऐसा कोई साथी नहीं है, जो हमें इष्ट-स्थान (मोक्ष) तक पहुँचा सके, एकमात्र जिनधर्म ही हमारे लिए सहारा हो सकता है, अतः उसी का शरण स्वीकार करना चाहिये।
शान्त सुधारस विवेचन-६६