________________
उसे स्पृष्टबंध कहते हैं। बहुत ही अल्प प्रयास से इन कर्मों का क्षय हो जाता है। सुइयों के ढेर में पड़ी हुई सुइयों के परस्पर स्पर्श समान यह बंध है।
2. बद्ध कर्मबंध-धागे में पिरोई गई सुइयों की भाँति प्रात्मप्रदेशों के साथ कर्म पुद्गलों का जो बंध होता है, उसे बद्ध कर्मबंध कहते हैं। इस प्रकार के कर्मों का क्षय 'इरियावहियप्रतिक्रमण' आदि से हो जाता है।
3. निधत्त कर्मबंध-जंग लग जाने से परस्पर जुड़ी हुई सुइयों की भाँति जिन कर्मों का आत्मा के साथ गाढ़ बंध होता है, उसे निधत्त कर्मबंध कहते हैं। इस प्रकार के कर्मों का क्षय तप द्वारा होता है।
4. निकाचित कर्मबंध -भट्टी में तीव्र अग्नि से तपाकर पिघलाकर तथा हथौड़ों की मार से एकमेक की गई सुइयों के ढेर की भाँति जिन कर्मों का बंध होता है, उन्हें निकाचित कर्मबंध कहते हैं।
निकाचित कर्मों का फल प्रात्मा को अवश्य भुगतना ही पड़ता है।
उन कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है। जिस प्रकार रेशमी डोरी में गाँठ लग जाने के बाद उसे खोलना अत्यन्त दुष्कर होता है, उसी प्रकार निकाचित कर्म के उदय से पाए हुए दुःखों को भोगना ही पड़ता है।
परन्तु उन निकाचित कर्मों को भी नष्ट करने की ताकत है 'सम्यग् तप' में।
शान्त सुधारस विवेचन-२८१