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कारक - विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
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विरचित 'प्रदीप' है । प्रदीप की पुष्पिकाओं अनुसार कैयट के पिता का नाम जैयट था । ये काश्मीर के निवासी थे । हरदत्त ने पदमञ्जरी - व्याख्या में इनका बहुश: अनुकरण किया है । इससे इनका समय प्रायः १००० ई० सिद्ध होता है । महाभाष्यप्रदीप अत्यन्त प्रौढ तथा विस्तीर्ण व्याख्या है । कैयट के अनुसार यह भर्तृहरिनिर्मित सेतु पर आश्रित है ( तथापि हरिबद्धेन सारेण ग्रन्थसेतुना ) । किन्तु उन्होंने प्रदीप में 'दीपिका' का एक ही स्थान पर संकेत किया है कि व्याकरण का ऊहरूप प्रयोजन भर्तृहरि ने सविस्तर प्रदर्शित किया है । वाक्यपदीय के शताधिक उद्धरण कैट ने दिये हैं, अतः ग्रन्थसेतु से उनका तात्पर्य वाक्यपदीय से ही प्रतीत होता है । महाभाष्य के सम्यक् बोध के लिए कैयट का प्रदीप सम्प्रति एकमात्र साधन है, जिसमें अनेक उपपत्तियों से भाव्य के गम्भीराशय को प्रकट किया गया है ।
प्रदीप के अतिरिक्त भी भाष्य की प्रायः २० व्याख्याओं की सूचना मिलती है, जिनमें कुछ की अंशत: उपलब्धि भी हुई है । प्रदीप पर भी प्रायः १५ व्याख्याओं का पता लगता है, जिनमें अन्नम्भट्ट तथा नागेश की टीकाएँ अति प्रसिद्ध हैं । इनका विवेचन हम आगे करेंगे ।
बंगाल में पाणिनीय व्याकरण
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पाणिनि से अर्वाचीन दूसरे सम्प्रदायों के आविर्भाव के पूर्व बंगाल में पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन की सुदृढ़ परम्परा थी । काशिका तथा उस पर लिखी गयी पंजिका (न्यास ) का प्रचार पूरे प्रदेश में था । इन्हीं को उपजीव्य मानकर वहाँ अनेक ग्रन्थ लिखे गये । जैसे- भागवृत्ति ( ८५० ई०, अप्राप्य ), मैत्रेय रक्षित ( १०७५११२५ ई० ) के धातुप्रदीप तथा तन्त्रप्रदीप ( न्यास की टीका ) इत्यादि२ । इसी परम्परा में पुरुषोत्तमदेव का आविर्भाव महत्त्वपूर्ण है, जिन्होंने भाषावृत्ति के द्वारा अद्वितीय कीर्ति पायी । यह संक्षिप्त अष्टाध्यायी की टीका है । इसका अध्ययन बंगाल में अभी तक होता है । इसके अतिरिक्त इन्होंने परिभाषावृत्ति, ज्ञापकसमुच्चय, कारकचक्र तथा महाभाष्य की ( अधूरी ) टीका भी लिखी थी। कारकचक्र अत्यन्त सरल भाषा में लिखी हुई पुस्तक है । इन कृतियों का प्रकाशन वारेन्द्र रिसर्च सोसायटी की ओर से राजशाही ( अब बांग्ला देश में ) से हुआ था । पुरुषोत्तम का समय दीनेश - चन्द्र भट्टाचार्य के अनुसार प्रायः ११७० ई० है, क्योंकि इन्होंने मैत्रेयरक्षित का उद्धरण दिया है तथा स्वयं अमरकोश के एक टीकाकार सुभूतिचन्द्र ( ११७५ ई० ) के द्वारा उद्धृत हैं । शरणदेव ( १२०० ई० ) की दुर्घटवृत्ति भी बंगाल की ही देन है । ये सुप्रसिद्ध महाराज लक्ष्मणसेन के सभासद् थे 1
१. युधिष्ठिर मीमांसक, सं० व्या० शा० इति०, १३६६ ।
२. द्रष्टव्य - परिभाषावृत्ति, ज्ञापकसमुच्चय, कारकचक्र ( सं० - दीनेशचन्द्र भट्टाचार्य ) - वारेन्द्र रिसर्च म्यूजियम, राजशाही १९४६ । भूमिका - पु० ५-३६ । ३ सं०