Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 325
________________ अधिकरण-कारक ३०५ लघूमञ्जूषा ( पृ० १२३४ ) में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है कि 'तण्डुलं पचति' इत्यादि उदाहरणों में तण्डुलादि ( कर्म ) को भी धात्वर्थ-फल ( विक्लित्ति ) के रूप में कर्म के माध्यम से क्रियाश्रय कहा जा सकता है, अर्थात् तण्डुल भी 'कर्मद्वारा क्रियाश्रय' होने से अधिकरण का स्वरूप ले सकता है। इसे अधिकरण क्यों नहीं कहेंगे ? बात यह है कि तण्डुल व्यापारजन्य फल का भी आश्रय है। दूसरे शब्दों में, एक ओर तो यह अधिकरण का लक्षण पूरा कर रहा है एवं दूसरी ओर कर्म का । ऐसी स्थिति में परत्व के कारण कर्मसंज्ञा ही होगी, अधिकरण नहीं। पूर्वपक्षी की शंका के विपरीत यहां स्थिति ऐसी है कि धात्वर्थभूत जिस फल को प्रेमपूर्वक कर्म का आसन वे लोग देते हैं, वह तो अपने से भिन्न क्रिया का आश्रय हो ही नहीं सकता-जो क्रिया है वही फल है । तण्डुल तो और भी दूर की वस्तु है; वह कहाँ से उस क्रिया का आश्रय हो सकेगा? ___ नागेश अन्ततः इस वाक्य का शाब्दबोध कराते हैं--'स्थाल्यधिकरणिका या ओदननिष्ठा विक्लित्तिः तदनुकूलो गृहाधिकरणको मैत्रकर्तृको व्यापारः' । यह बोध उक्त सभी विषयों पर ध्यान रखकर दिया गया है । ( प० ल० म०, पृ० १८७ )। ____ अधिकरण-कारक के अन्वय को लेकर व्याकरणशास्त्र में दो विरोधी मत दिखलायी पड़ते हैं। कैयट, भट्टोजिदीक्षित-प्रभृति का मत है कि अधिकरण का परम्परासम्बन्ध से ( स्ववृत्तिवृत्तित्वादि से ) साक्षात् क्रिया में ही अन्वय होता है । दूसरी ओर नागेशादि के अनुसार अधिकरण का साक्षात् कर्ता या कर्म में अन्वय होता है, तब उसके द्वारा क्रिया में अन्वय होता है। स्पष्टतः नागेश नव्यन्याय से प्रभावित हैं, जहाँ 'भूतले घट:' का बिना क्रिया के भी अन्वय हो जाता है। अधिकरण का साक्षात् क्रियान्वय नागेश को उचित्त नहीं लगता। इन दोनों मतों के फल पृथक हैं, जिन्हें 'अक्षेषु शौण्ड:' (पासा फेंकने में चतुर ) के समास में देखा जा सकता है। प्राचीन मत के अनुसार अक्ष-पदार्थ का 'शौण्ड' में अन्वय नहीं हो सकने के कारण समास नहीं होता । इस अनिष्ट प्रसङ्ग से बचने के लिए शौण्ड का अर्थ लक्षणा के द्वारा आसक्तशोण्ड करके आसक्तिक्रिया के रूप में विद्यमान लक्ष्यार्थ में ( जो शौण्ड-पदार्थ का एकदेश है ) साक्षात् अन्वय करके समास का उपपादन किया जा सकता है। नव्यमत में अक्ष-शब्द का शौण्ड ( कर्ता ) में अन्वय हो जाता है और किसी प्रकार के द्रविड-प्राणायाम की आवश्यकता नहीं होती। पुनः, शौण्ड शब्द का अस्ति-क्रिया में अन्वय ही जाता है। १. द्रष्टव्य ( ल० श० शे०, पृ० ४७७ )-‘एवं च क्रियान्वयोऽप्यस्य कर्बाद्यन्वयद्वारैव । यस्य यद्वारा कारकत्वं तस्य तद्द्वारव क्रियान्वय इति व्युत्पत्तेः' । २. 'कारकाणां क्रिययैव सम्बन्ध इति तावत् स्थितम् । तदिह 'अक्षशौण्डः' इत्यादी सप्तम्यर्थः क्वान्वेतु ? क्रियाया अश्रवणात् । सत्यम्, प्रसक्तिरूपा क्रिया वृत्तावन्तर्भवति । तवारकमेव च सामर्थ्य यथा वध्योदन-गुडधानादिषु'। -० को० २, पृ० १७८ ३. अष्टम्य-सिको० की लक्ष्मी-न्याश्या, पृ. ८५१ ।

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