Book Title: Samyag Darshan Part 06
Author(s): Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
View full book text
________________
www.vitragvani.com
सम्यग्दर्शन : भाग-6]
[129
15. रसज्ञ : रस अर्थात् तात्पर्य; शास्त्राभ्यास आदि में उसके शान्तरसरूप सच्चे रहस्य के जाननेवाले होते हैं। उन्होंने धर्म का मर्म जानकर शान्तरस का स्वाद तो लिया ही है; अत: वे परमार्थ के रसज्ञ हैं; और व्यवहार में भी करुणारस, रौद्ररस आदि को यथायोग्य जानते हैं।
16. कृतज्ञ : अहो! देव-गुरु-धर्म के परम उपकार की तो क्या बात ! उनका बदला तो किसी प्रकार चुकाया नहीं जा सकता; उनके लिये मैं जो कुछ करूँ वह कम है। इस प्रकार महान उपकारबुद्धि से देव-गुरु-धर्म के प्रति प्रवर्ते। उसी प्रकार साधर्मीजनों के उपकार अथवा अन्य सज्जनों के उपकार को भी वे नहीं भूलते। उपकार को याद करके उनके योग्य सेवा-सत्कार करते हैं। अन्य के प्रति अपने किये उपकार को याद नहीं करते, एवं न उसके बदले की भी आशा रखते हैं। __ 17. तत्त्वज्ञ : तत्त्व के जानकार होते हैं। जैनधर्म का मुख्य तत्त्व क्या है ? उसको बराबर समझकर उसके प्रचार की भावना करते हैं। बुद्धि-अनुसार करणानुयोगादि सूक्ष्म तत्त्वों का भी अभ्यास करते हैं। धर्मी श्रावक, आत्मतत्त्व को तो जानते ही हैं, तदुपरान्त जैनशास्त्रों के अगाध, गम्भीर, श्रुतज्ञान में कहे हुए तत्त्वों को भी विशेषरूप से जानते हैं तथा विपरीत जीवों में तत्त्व की विपरीतता किस प्रकार से है ?-वह भी जानकर उसे दूर करने का प्रयत्न करते हैं।
18. धर्मज्ञ : धर्म के जाननहार होते हैं। कहीं निश्चयधर्म की प्रधानता रहती है, कहीं व्यवहारधर्म की प्रधानता से वर्तना होता है।
Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.