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दर्शन और बुद्धिवाद
जीवन के प्रति हमारा जो दृष्टिकोण है, वह छिछला है और स्थूल है । इसका कारण यही है कि हम दर्शन को उतना महत्त्व नहीं देते, जितना बुद्धि को देते हैं। दर्शन हमारा प्रत्यक्ष है और बुद्धि परोक्ष । दर्शन में कोरी यथार्थता है, सजावट नहीं । बुद्धि में यथार्थता की अपेक्षा सजावट अधिक है । दर्शन का मार्ग ऋजु है, बुद्धि का घुमावदार । मनुष्य बहुत बार सजावट और घुमाव को अधिक पसन्द करता है इसीलिए वह बुद्धिवादी बनना चाहता है, दार्शनिक नहीं । सच तो यह है कि आज का दार्शनिक भी निरा बुद्धिवादी है, जो बुद्धि के सहारे तत्त्वों का विश्लेषण करता है, जगत् के अस्तित्व की व्याख्या करता है, वह दार्शनिक नहीं है किन्तु बुद्धिमान है । दार्शनिक वह होता है, जो अपने दर्शन या प्रत्यक्ष ज्ञान के सहारे तत्त्व-निरूपण करे, विश्व की व्याख्या दे । जो अग्नि को प्रत्यक्ष देखता है, उसके लिए हेतु या तर्क आवश्यक नहीं होता । वह उसी के लिए आवश्यक होता है, जो अग्नि को धुएं के द्वारा जानता है | दार्शनिक के लिए तर्क या बुद्धि का उपयोग नहीं है । वह प्रत्यक्षदर्शी होता है | जो इनका उपयोग करता है, वही सही अर्थ में दार्शनिक नहीं है किन्तु बुद्धिवादी है | आज दर्शन शब्द का अर्थ-परिवर्तन हो गया है । परोक्षदर्शी लोगों ने दर्शन की व्याख्या की, वह बुद्धि के द्वारा की इसलिए दर्शन बुद्धिवाद का मायाजाल बन गया । दर्शन का आरंभ बिन्दु
क्रोध, अभिमान, माया और लोभ ये चिन्तन के आंतरिक दोष हैं । ये देश, काल और मात्रा भेद के अनुसार बुद्धि द्वारा समर्थित भी हैं । बुद्धि के अस्तित्व का इन जैसा सुदृढ़ स्तम्भ दूसरा कोई नहीं है । क्रोध, अभिमान, माया और लोभ ये क्षीण होते हैं तब दर्शन का प्रारम्भ होता है । तात्पर्य की भाषा में जहां बुद्धि का अन्त होता है, वहां दर्शन का आरम्भ होता है।
बुद्धि भौतिक वस्तु है और दर्शन आध्यात्मिक । जो आत्मा और उसके अनन्य चैतन्य में विश्वास नहीं करता, उसके लिए दर्शन बुद्धि का पर्यायवाची होता है | आत्मवादी के लिए इनमें बहुत बड़ा अंतर है-बुद्धि शांत और ससीम होती है, दर्शन अनन्त और असीम।
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