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धर्म की तोता रटन्त
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गहरी जागरूकता से काम लेना चाहिए । धर्म से वह तत्त्व मिलना चाहिए, जो किसी भी दूसरी वस्तु से प्राप्त नहीं होता है । धर्म है आत्मरमण
वर्षों तक दवा-सेवन के बाद भी यदि लाभ नहीं दीखे तो क्या वही दवाई लेते रहेंगे? धर्म का अनुभव भी हमें उसी क्षण में होना चाहिए, जिस क्षण धर्म करते हैं । आनन्द
और अतिरिक्तता हमें धर्म के साथ-साथ ही मिलने चाहिए । जैसे पानी और कपड़ा है। पानी ओढ़ा नहीं जा सकता, पिया जा सकता है; किन्तु कपड़ा पिया नहीं जा सकता, ओढ़ा जा सकता है । कपड़े और पानी की यही अतिरिक्तता है।
पैसों के द्वारा धर्म खरीदा नहीं जा सकता, धर्म द्वारा भौतिक लाभ होना जरूरी नहीं । भौतिकता का लाभ यदि धर्म के लाभ की तरह होता तो समझें वह धर्म नहीं । धर्म का लाभ है आनन्द । जो लाभ भौतिकता से नहीं मिल सकता, वह है आत्म-रमण | यह आत्म-रमण और आनन्द गूंगे का गुड़ है । इसीलिए हमारे साहित्य में शब्द आया है अनिर्वचनीय एवं अवाच्य | धर्म को बताया नहीं जा सकता । भौतिकता के आवरण में लिपटे धर्म को करते जायेंगे तो वह प्राप्त नहीं होगा जो हमें चाहिए । अतिरिक्त धर्म की उपासना से ही अतिरिक्त आनन्द की प्राप्ति हो सकेगी ।
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