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दूसरा अध्याय अर्थ-जिस पुरुषको चारों ओर अपनी कीर्ति फैलानेकी इच्छा है अर्थात् जो अपना यश फैलाना चाहता है उसे यश फैलानेके लिये जो अन्य साधारण मनुष्यों में नहीं हो सकें, जिन्हें गुणवान लोग भी उत्कृष्टतासे माने और जो पापोंको नाश करनेवाले हैं ऐसे सत्य, दान, शौच और शील आदि गुणोंको धारण कर नित्य बढाते रहना चाहिये ॥ ८६ ॥
आगे-इसप्रकार आचरण धारण करनेवाले पाक्षिक श्रावकको अनुक्रमसे एक एक सीढी चढकर अंतमें मुनिव्रत स्वीकार करना चाहिये ऐसा कहते हैं
सैषः प्राथमकल्पिको जिनवचोऽभ्यासामृतेनासकन्निद्रुममावपन् शमरसोद्गारोबुर बिभ्रति । पाकं कालिकमुत्तरोत्तरमहांत्येतस्य चर्याफलान्यासाद्योद्यतशक्तिरुद्धचरितप्रासादमारोहतु ।। ८७ ॥
अर्थ-जिसने एकदेश संयम पालन करना प्रारंभ किया है ऐसा यह पाक्षिक श्रावक जिनेंद्रदेवके कहे हुये शास्त्रोंके अभ्यास करनेरूप अमृतसे वैराग्यरूप वृक्षको अर्थात् संसार शरीर
और भोगोपभोगसे विरक्त होनेरूप वृक्षको ( वैराग्यभावनाको) बार बार सिंचन करता हुआ तथा रसनाइंद्रियके द्वारा ग्रहण करने योग्य ऐसे प्रशम सुखरूपी ( शांतताके सुखरूपी) रसके प्रगट होनेसे जो उत्कृष्ट माने जाते हैं और जो काललब्धिके