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सागारधर्मामृत
_ [ २५७ आगे-रात्रिभोजनके त्यागके भोजनके अंतरायोंका त्याग करना भी मूलगुणोंको विशुद्ध करनेवाला और अहिंसात्रतकी रक्षा करनेवाला है इसलिये चार श्लोकोंमें उन्हीं श्रावकों के भोजनके अंतरायोंको कहते हैं
अतिप्रसंगमसितुं परिवर्द्धयितुं तपः।। व्रतबीजवृती(क्तेरंतरायान् गृही श्रयेत् ॥ ३० ॥
अर्थ--व्रती गृहस्थोंको कहे हुये अतिचारोंसे और ऊपर ऊपर होनेवाली प्रवृत्तिको रोकने केलिये और इच्छाका निरोध करनेरूप तपश्चरणको सबतरह बढाने केलिये बीजके समान व्रतों की रक्षा करनेवाले अथवा जो रक्षाके उपायस्वरूप होनेसे अहिंसाणुव्रतके स्वभावस्वरुप हैं ऐसे भोजन के त्याग करने के कारणरूप अंतगयों को पालन करना चाहिये । भावार्थअंतरायोंका त्याग करनेसे भी व्रतोंकी रक्षा और तपश्चरणकी वृद्धि होती है इसलिये भोजन करते समय उनको भी अवश्य टालना चाहिये ॥ ३० ॥
आगे-तीन श्लोकोंमें उन्ही अंतरायों को कहते हैंदृष्ट्वार्द्रचर्मास्थिसुरामांसासृक्पूयपूर्वकं । स्पृष्ट्वा रजस्वलाशुष्कचर्मास्थिशुनकादिकं ॥ ३१ ॥ श्रुत्वाति कर्कशाकंदविडरप्रायनिःस्वनं ।। भुक्त्वा नियमितं वस्तु भोज्येऽशक्य विवेचनैः ॥ ३२ ॥ संसृष्टे सति जीवद्भिजीवैर्वा बहुभिर्मृतैः । इदं मांसमितीदृक्षसंकल्पे चाशनं त्यजेत् ॥ ३३ ॥
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