Book Title: Sagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pandit, Lalaram Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 328
________________ २७८ ] चौथा अध्याय समझ लेना चाहिये कि जब लोभ वा द्वेषसे तृण ग्रहण करता हुआ भी चोर है तब यदि वह उसी लोभ वा द्वेषसे सुवर्ण आदि | कीमती पदार्थ ग्रहण करे अथवा उठाकर किसीको दे देवे तो वह अवश्य चोर है ही, इसमें कोई संदेह नहीं है । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जब वह प्रमत्तयोगसे विना दीहुई किसीकी | वस्तु लेगा या किसीको देगा तो चोर है । यदि विना प्रमत्तयोगके विना दी हुई कोई वस्तु ग्रहण भी करले तथापि वह चोर नहीं है जैसे महामुनि प्रमत्तयोगके विना विना दिये हुये कर्मवर्गणाओंको ग्रहण करते हुये भी वे चोर नहीं कहलाते ॥४७॥ आगे-जो धन पृथ्वीमें गढा है या ऐसा ही कहीं पडा है वह भी राजाका है उसके भी न लेनेका नियम करना चाहिये ऐसा कहते हैं न स्वामिकमिति ग्राह्यं निधानादि धनं यतः । धनस्यास्वामिकस्येहँ दायादो मेदिनीपतिः ।।४।। अर्थ--अचौर्याणुव्रती श्रावकको इसका स्वामी कोई | नहीं है इसलिये यह दूसरेका द्रव्य नहीं है ऐसा समझकर जो द्रव्य नदी, गुफा गट्ठा वा खानि आदिमें रक्खा है उसे भी नहीं लेना चाहिये । क्योंकि जिसका कोई स्वामी नहीं है ऐसे धनका साधारण स्वामी राजा माना जाता है ॥४८॥ ___ आगे--जो द्रव्य अपना ही है, परंतु यदि उसके अपने

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