Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
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सद्धर्मसंरक्षक
चार ज्ञान के धारक गणधरदेव जो गणधरलब्धि-सम्पन्न थे, वह सूत्र - रचना में भूल कर जावें ऐसा सर्वथा असंभव है । यदि मुख खुला था तभी तो मुख बाँधने को कहा। मुख बाँधा तो नाक भी साथ में ही बंध गया। यह बात भी स्पष्ट प्रतीत होती है
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अतः जब आगम के इस पाठ से स्पष्ट हो जाता है कि श्रीगौतम गणधर ने मुख पर मुँहपत्ती नहीं बांधी थी, तो आप का पंथ किस आधार से मुख पर मुँहपत्ती बाँधने का आग्रह करता है ? आप के पंथ के तथा तेरापंथी के साधु चौबीस घंटे डोरा डाल कर मुँहपत्ती बाँधे रहते हैं ऐसा क्यों ?"
पाठ को देखकर ऋषि रामलालजी बोले- "बूटेरायजी ! यदि साधु के मुख पर मुखपत्ती न बँधी हो तो वह साधु किस काम का ? उसे साधु कहना ही नहीं चाहिये । वह तो पूजा (यति, गौरजी) हुआ ।" ऐसी बात सुनकर आप विस्मित हो गये कि स्वामी रामलालजी ने सूत्रानुसारी उत्तर न देकर अपनी मति- कल्पना से बात की है। जो कुछ आपने गुरु की सेवाभक्ति की थी उसके प्रभाव से रात्रि को तत्काल स्वप्न में तथा सिद्धान्त देखने पर देवगुरु की कृपा से इस बात का आप को निश्चय हो गया कि मुख पर मुँहपत्ती बांधना आगम सम्मत नहीं है। फिर भी आप इस बात का निर्णय किसी गीतार्थ आगमवेत्ता मुनिराज से कराने के लिये उत्सुक रहे। आपने निर्णय किया कि "मैं किसी निष्पक्ष आगमवेत्ता से निर्णय करूंगा और जो सत्य वस्तु होगी उसे ग्रहण करूंगा।" ऋषि अमरसिंहजी की दीक्षा के छह मास बाद ऋषि रामलालजी का दिल्ली में देहान्त हो गया। वि० सं० १८९५ ( ई० सं० १८३८) का चौमासा दिल्ली में करके आपने पंजाब की तरफ
Shrenik/D/A-SHILCHANDRASURI / Hindi Book (07-10-2013) / (1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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