Book Title: Saddharma sanrakshaka Muni Buddhivijayji Buteraiji Maharaj ka Jivan Vruttant
Author(s): Hiralal Duggad
Publisher: Bhadrankaroday Shikshan Trust
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श्रीसिद्धगिरी की यात्रा पाये हैं और अनेक श्रावक-श्राविकाओं ने पूर्व पुण्य के योग से प्राप्त लक्ष्मी को मुक्त हाथों से खर्च कर जिस तीर्थ पर अपने नाम को अमर किया है; ऐसे तीर्थाधिराज के दर्शन से जैनागम के प्रतिकूल आचरणवाले अविचारी कुगुरुओं की प्रेरणा से वे बेचारे विमुख रहते हैं, यह उनके दुर्भाग्य का उदय ही समझना चाहिये । आप दोनों मुनिपुंगवों ने प्रथमवार श्रीजिनेश्वरप्रभु के समक्ष अन्तःकरण से शुद्ध भावपूर्वक उनकी स्तुति-स्तवनादि करके अपनी आत्मा को धन्य माना । पश्चात् पर्वत से नीचे उतरे । एक दिन संघ के साथ पडाव में रहकर दूसरे दिन पालीताना गांव में जोरावरमल की धर्मशाला में जहाँ मुनि प्रेमचन्दजी नागौर से विहार करके पहले ही पहुँच चुके थे; उनके साथ जाकर रहे । मुनि मूलचन्दजी उस समय मोतीकडिया की धर्मशाला में रह रहे थे।
इस समय संवेगी साधुओं की संख्या अति अल्प होने के कारण उनका परिचय श्रावकों को बहुत कम था। यतियों की संख्या बहुत अधिक थी और उनका जोर भी अधिक था । श्रावक वर्ग यतियों के रागी थे । मुग्ध श्रावक यतियों में ही गुरुपना मानते थे और सुधर्मास्वामी की गद्दी (पाट) के अधिपति के रूप में मनवाकर अपनी पूजा कराते थे। श्रावक भी बडी श्रद्धा और भक्ति से उन्हें पूजते थे । वेषमात्र को पूज्य मानकर साधु के गुणों रहित यतियों का पूजा-सत्कार करने में श्रावक लोग अपने आपको धन्य मानते थे । ऐसी विचार-शून्यता के कारण संवेगी मुनियों को आहार-पानी मिलना भी दुश्वार (दुर्लभ) था । आदर-सत्कार गुणों का ही होना चाहिये ऐसी विचारधारा नष्ट हो चुकी थी। इसलिये संवेगी मुनियों का आदर-सत्कार कोई नहीं करता था। इस परेशानी
Shrenik/DIA-SHILCHANDRASURI/ Hindi Book (07-10-2013)/(1st-11-10-2013) (2nd-22-10-2013) p6.5
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