Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 61
________________ ५२ रोगिमृत्युविज्ञाने ग्रहणी-हीन, (कमजोर) हो जाय, तो फिर वह एक पक्ष से अधिक नहीं जीयेगा ॥२८॥ रोगोपद्रवयुक्तस्य दुर्बलस्याल्पमश्नतः । बहुमूत्रपुरीषस्य मरणं तस्य निश्चितम् ॥ २९॥ · जो रोगी उपद्रवयुक्त हो अर्थात् कास श्वास शोथादिक उपद्रव जिसके उत्पन्न हो गये हों और दुर्बल-बलरहित तथा कृश, अल्पभोजी जिसका आहार अत्यल्प रह गया हो, परन्तु मूत्र और पुरीष बहुत होता हो उसका मरण निश्चित है, बलानुरूप दिन मास की कल्पना करे, अधिक से अधिक तीन मास या तीन दिन में मर जायगा ॥२६॥ अभ्यासादधिकं भुङ्क्ते दुलो भृशमातुरः। स्वल्पमूत्रपुरीषो यस्तं भिषक् परिवर्जयेत् ॥३०॥ - जो रोगी अभ्यास से अत्यधिक भोजन करता है, परन्तु अत्यन्त दुर्बल होता जाता है और अधिक भोजन करने पर भी मूत्र और पूरीष थोड़ा होता है, भोजन के अनुरूप मूत्र पुरीष नहीं होता है ऐसे रोगी को वैद्य छोड़ दे उसकी चिकित्सा न करे; क्योंकि वह असाध्य ( अवश्य मरणोन्मुख ) है ॥ ३० ॥ स्वस्थो व्याधिविहीनो यो भुङ्क्ते भोज्यं यथेच्छया। शश्वच बलवर्णाभ्यां हीयते न स जीवति ॥३१॥ जो स्वस्थ है एवं किसी प्रकार की बीमारी भी नहीं है, यथेच्छ जैसा जितना सदा भोजन करता था वैसे ही भोजन करता है, भोजन में न्यूनाधिक विकार नहीं है परन्तु प्रतिदिन क्रमशः बल एवं प्रभा (छवि) से कम होता जाता है अर्थात् बल वर्ण घटता जाता है, वह नहीं जीयेगा, छ महीने या तीन महीने में अवश्य मर जायगा ॥३१ ।। नेत्रे चोर्ध्वगते यस्य मन्ये चानतकम्पने । तृषार्तः शुष्कतालुश्च निर्बलः स मरिष्यति ॥ ३२ ॥

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