Book Title: Rogimrutyuvigyanam
Author(s): Mathuraprasad Dikshit
Publisher: Mathuraprasad Dikshit

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Page 104
________________ ६५ दशमोऽध्यायः वेदशब्दाः सुखो वायुः स्वच्छः पुण्याहनिःस्वनाः। मार्गे गृहप्रवेशे स्युः सिद्ध कार्य ध्रवं भवेत् ।। २७ ॥ वेद के शब्द, स्वच्छ सुखावह वायु अर्थात् शीतल मन्द सुगन्ध वायु, तथा पुण्याहवाचन अर्थात् आशीर्वादात्मक शब्द मार्ग में अथवा गृह प्रवेश के समय सुने तो निश्चय से कार्य सिद्ध समझे ॥ २७ ॥ प्रातपत्रपताकानां ध्वजानां चाप्यभिप्लुतिम् । उत्क्षेपणं निरीक्षेत सिद्धमेवेति भावयेत् ।। २८ ॥ आतपत्र-छत्र पताका, ध्वजा इनमें से किसी की भी अभिप्लुति अथवा ऊपर को उठना देखे तो निश्चय से कार्य सिद्ध है, यह भावना करे॥ २८ ॥ दतस्वप्नपरिक्षानमरिष्टानां परीक्षणम । सदसच्छकुनानां च ज्ञानं सम्यगुदीरितम् ॥ २९ ॥ दूत का परिज्ञान अर्थात् कैसे किस प्रकार के दूत से कार्य सिद्ध होता है और किस प्रकार के दूत से कार्य नहीं होता है, एवम् स्वप्नों का परिज्ञान कैसे स्वप्न से शुभ फल होता है और कैसे स्वप्न से अशुभ फल होता है, इसका परिज्ञान कहा । तथा अरिष्ट ज्ञान-नियत मरण आख्यापक चिह्नों का परिज्ञान, अर्थात् किस प्रकार के चिह्न से शरीर में निशान पड़ जाने से कितने दिनों में यह रोगी मर जायगा इसकी परीक्षा-पहिचान का वर्णन किया, और सत् असत् शाकुनों का ज्ञान इत्यादि सबका अच्छे प्रकार से वर्णन किया ॥ २६ ॥ नाष्टो मरणं ब्रूयात् पृष्टोऽपीतस्ततो न च । रुग्णस्य संमुखं नैवं कदाचिदपि संवदेत् ॥ ३०॥ सद् वैद्यको उचित है, कि बिना पूछे मरण को न कहे और पूछने पर भी इतस्ततः प्रत्येक आदमी से न कहे। पूछने पर भी बीमार के

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