Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-६, १४ : नदीतीरे शिलातले उपविष्टः । तन्नदीतीरे विमुच्य स्थितसुगुप्तगुप्तसार्थाधिपती धर्ममाकर्णयन्तावूषतुर्यदा तदा स हस्ती तच्छिबिरं विनाश्य भट्टारकस्याभिमुखोऽभूत् । तं विलोक्य जातिस्मरो भूत्वा तं ननाम । तेन दत्तसकलश्रावकवतानि प्रतिपालयन् कायक्लेशेन क्षीणशरीर उदकं पीत्वा गतेषु द्विपेषु विध्वंसितोदकपानार्थ वेगावतीं प्रविशन् कर्दमे पतितः। गृहीतसंन्यासो भावनया यदास्ते तावत्स कुक्कुटसर्पो विलोक्य तं चखाद । मृत्वा सहस्रारे स्वयंप्रभविमाने शशिप्रभनामा महर्द्धिको देवोऽभूत् । कुक्कुटसर्पः पारंपर्येण धूमप्रभां गतः।
स देवोऽवतीर्यात्रैव पुष्कलावतीविषये विजयाधं त्रिलोकोत्तमपुरेशविद्युन्मतिविद्युन्मालयोः सहस्ररश्मिनामा तनुजोऽजनि । कौमारे समाधिगुप्तमुनिसंनिधौ दीक्षित आगमधरो भूत्वा हिमवगिरौ ध्यानेनातिष्ठत् । स कुक्कुटसर्पचरो जीवो धूमप्रभाया निःसृत्य तत्र मिरावजगरोऽभूत्तेन गिलितो मुनिरंच्युते पुष्करविमाने विद्युत्प्रभनामा देव आसीत् । अजगरः परंपरया तमःप्रभा गतः। स देव आगत्य जम्बूद्वीपापरविदेहे पद्माविषये अश्वपुरेशवजचीर्यविजययोः वजनाभनामपत्रोऽभदाज्येऽस्थात्सकलचक्री च जातः, क्षेमंकरम दीक्षितः । तमःप्रभाया निःसृत्याजगरचरो जोवोऽटव्यां कुरङ्गनामा भिल्लो जातः । पापर्धयर्थ शिलाके ऊपर ध्यानस्थ बैठा था । उसी नदीके किनारेपर सुगुप्त और गुप्त नामके दो व्यापारियोंके स्वामी पड़ाव डालकर स्थित थे। वे दोनों जब मुनिराजके समीपमें धर्मश्रवण कर रहे थे तब वह हाथी उनके शिविरको नष्ट करके मुनीन्द्रके सन्मुख आया । उनको देखकर उसे जातिस्मरण हो गया । तब उसने उन्हें नमस्कार किया । फिर उसने मुनिराजके द्वारा दिये गये श्रावकके समस्त व्रतोंको धारण किया । इन व्रतोंका पालन करते हुए कायक्लेशके कारण उसका शरीर कृश हो गया था। एक दिन वह पानी पीकर बहुत-से हाथियोंके चले जानेपर उनके द्वारा विलोडित (प्रासुक ) पानीको पीनेके लिए वेगावती नदीके भीतर प्रविष्ट हुआ । वहाँ वह कीचड़में फँस गया । जब उसमेसे उसका बाहिर निकलना असम्भव हो गया तब उसने संन्यास ग्रहण कर लिया। इसी बीचमें वह कुक्कुट सर्प वहाँ आया और उसे देखकर काट लिया। तब वह मरकर सहस्रार स्वर्गके अन्तर्गत स्वयंप्रभ विमानमें शशिप्रभ नामका महर्द्धिक देव हुआ। वह कुक्कुट सर्प परम्परासे धूमप्रभा पृथिवी ( पाँचवाँ नरक ) में गया ।
वह देव स्वर्गसे च्युत होकर यहीपर पुष्कलावती देशके अन्तर्गत विजयाध पर्वतस्थ त्रिलोकोत्तम पुरके स्वामी विद्युन्मति और विद्युन्मालाके सहस्ररश्मि नामका पुत्र हुआ। उसने कुमार अवस्थामें ही समाधिगुप्त मुनिके निकट दीक्षा ले ली थी। वह आगमका ज्ञाता होकर किसी समय हिमालय पर्वतके ऊपर ध्यानमें स्थित था। उधर वह कुक्कुट सर्पका जीव धूमप्रभा पृथिवीसे निकलकर उसी पर्वतके ऊपर अजगर हुआ था । उससे भक्षित होकर वे मुनिराज अच्युत स्वर्गके अन्तर्गत पुष्कर विमानमें विद्युत्प्रभ नामक देव हुए। वह अजगर परम्परासे तमःप्रभा पृथिवीको प्राप्त हुआ। उक्त देव अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके अपर विदेहमें पद्मा देशके अन्तर्गत अश्वपुरके अधीश्वर वज्रवीर्य और विजयाके वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ। वह क्रमशः राज्य पदपर प्रतिष्ठित होकर चक्रवर्ती हुआ। पश्चात् समयानुसार उसने क्षेमंकर मुनिके समीपमें दीक्षा धारण कर ली । इधर तमःप्रभा पृथिवीसे मिकलकर वह अजगरका जीव वनमें कुरंग नामक
१. फतीरे सिविरं विमुच्य । २. श स्थितः । ३. फ सुगुप्तसार्थाधिपति श सुगुप्त गुप्तसार्थाधिपति । ४. बमाकर्ण्य बभूवतु यदा। ५. प श तन्ननाम । ६. फ ब देव आगत्यात्रैव । ७. शसत्र। ८. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श गभितोध्वनि० । ९. फ अजगरपरंपरया श अजगरंपराया।
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