Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री रामचन्द्र-मुमुक्षु-विरचित
पुण्यालय
कथाकोश
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
widaladia
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानदिवाकर, मर्यादा शिष्योत्तम, प्रशांतमूर्ति आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती वर्ष के उपलक्ष में :
श्री रामचन्द्र-मुमुक्षु-विरचित पुण्यास्त्रवकथाकोश
सम्पादक प्रो० आ० ने० उपाध्ये, प्रो० हीरालाल जैन
पण्डित बालचन्द्र शास्त्री
Shope
JIARPUR
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद्
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् पुष्प संख्या -९४ आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज की स्वर्णजयंती पुष्प संख्या - १८
आशीर्वाद स्वर्ण जयंती वर्ष निर्देशन
: :
आचार्यश्री भरतसागर जी महाराज आर्यिका स्याद्वादमती माता जी पुण्यास्रवकथाकोश
ग्रन्थ
प्रणेता
: श्री रामचन्द्र-मुमुक्षु
प्रो० आ० ने० उपाध्ये, प्रो० हीरालाल जैन : पण्डित बालचन्द्र शास्त्री
सम्पादक
सर्वाधिकार सुरक्षित
भा० अ० वि० परि०
संस्करण
प्रथम वीर नि० सं० २५२४ सन् १९९८
आचार्य श्री भरतसागर जी महाराज संघ
पुस्तक प्राप्ति-स्थान : I.S.B.N. 81-8583-04-3
मूल्य
.:
६५-०० रुपये
मुद्रक
बाबूलाल जैन फागुल्ल महावीर प्रेस, भेलूपुर, वाराणसी-१० फोन : ३११८४८
__Jain Education.International
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य श्री विमल सागर जी तुभ्यं नमः परम धर्म प्रभावकाय, तुभ्यं नमः परम तीर्थ सुवन्दकाय । 'स्याद्वाद' सूक्ति सरणि प्रतिबोधकाय, तुभ्यं नमः विमल सिन्धु गुणार्णवाय ॥
आचार्य श्री भरत सागर जी आचार्यश्री भरतसिन्धु नमोस्तु तुभ्यं, हे भक्तिप्राप्त गुरुवर्य्यं नमोस्तु तुभ्यं । हे कीर्तिप्राप्त जगदीश नमोस्तु तुभ्यं, भव्याब्ज सूर्य गुरुवर्य्य नमोस्तु तुभ्यं ॥
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
(समर्पण)
प. पू. वात्सल्य रत्नाकर आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज के
पट्ट शिष्य मर्यादा-शिष्योत्तम ज्ञान-दिवाकर प्रशान्त-मूर्ति वाणीभूषण
भुवनभास्कर गुरुदेव आचार्य श्री १०८ भरतसागर जी महाराज
की स्वर्ण जयन्ती के उपलक्ष में आपके श्री कर-कमलों में ग्रन्थराज
सादर-समर्पित
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
(१) पुण्यात्रव-कथाकोश जिनरत्नकोश ( भाग १, एच० डी० वेलणकरकृत, पूना, १९४४ ) में रामचन्द्र मुमुक्षु, नेमिचन्द्र गणि और नागराजकृत पुण्यास्रव कथाकोशका उल्लेख है, तथा एक और इसी नामका ग्रन्थ है जिसके काका निर्देश नहीं। रामचन्द्र मुमुक्षुकृत पुण्यास्रव या पुण्यास्रव-कथाकोश एक लोकप्रिय रचना है, विशेषत: उन धार्मिक जैनियोंके बीच जो उसके स्वाध्यायको फलदायी और पुण्यकारक मानते हैं। इस ग्रन्थको प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ देशके विविध भागोंमें पायी गयी हैं। जिनरत्नकोशके अनुसार उसकी प्रतियां भण्डारकर
ओ० रि० इन्स्टीटयूट, पूना; लक्ष्मीसेन भट्टारक मठ, कोल्हापुर; माणिकचन्द हीराचन्द भण्डार, चौपाटी, बम्बई; इत्यादि संस्थाओंमें विद्यमान है। कन्नडप्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची (सम्पा० के० भुजबलिशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, १९५८) में पुण्यास्रवको कुछ प्रतियाँ मूडबिद्रीके जैनमठमें, तथा राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंकी ग्रन्थसूचीमें जयपुर व आमेरके भण्डारों में उनके अस्तित्वका उल्लेख है। बेल्गोल, बम्बई, मैसूर आदि स्थानोंमें भी इसकी प्रतियां पायी जाती हैं, तथा स्ट्रासवर्ग ( जर्मनी) के संग्रहमें भी इसकी एक प्रति है। अन्य वैयक्तिक संग्रहों में भी विविध स्थानोंपर उनके पाये जानेकी सम्भावना है।
पुण्यास्रवकी ओर पाठकोंका आकर्षण भी विशेष रहा है, जिसके फलस्वरूप अनेक भाषाओं में उसके अनुवाद हुए। सन् १३३१ में नागराज कवि द्वारा चम्पूरीतिसे इसका कन्नड़में रूपान्तर किया गया जिसका मराठी बोबी में अनुवाद जिनसेनने सन १८२१ में किया। हिन्दी में पुण्यास्रवके पांडे जिनदासकृत, दौलतरामकत ( सन् १७२० ) जयचन्द्रकृत, टेकचन्द्रकृत और किसनसिंहकृत ( सन् १७१६ ) अनुवाद या उनके उल्लेख पाये जाते हैं। इन अनुवादोंका अध्ययन कर यह देखनेको आवश्यकता है कि उनमें रामचन्द्र मुमुक्षुको प्रस्तुत रचनाका कहांतक अनुसरण किया गया है। वर्तमान में पं० नाथुरामजी प्रेमीके अनुवादकी तीन आवत्तियां प्रकाशित हो चकी है (सन १९०७.१९१६ और १९५९)। एक अन्य हिन्दी अनुवाद परमानन्द विशारदकृत भी प्रकाशित हुआ है ( कलकत्ता, १९३७)।
(२) प्रस्तुत संस्करणकी आधारभूत प्रतियाँ पुण्यास्रव कथाकोशका प्रस्तुत संस्करण निम्न पाँच प्राचीन प्रतियोंके आधारसे किया गया है और उनके पाठान्तर दिये गये हैं।
ज - यह प्रति दि० ज० अतिशय क्षेत्र, महावीरजी, जयपुर, की है जिसमें लेखक व लेखनकालका उल्लेख नहीं है । प्रस्तुत संस्करणमें इसके पाठान्तर पृ० १७२ से आगे ही लिये जा सके हैं।
प-यह प्रति भण्डारकर ओरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना, की है। वह सन् १७३८ में लिखी गयी थी, तथा सवाई जयपुर में मेरूकीर्ति-द्वारा शुद्ध की गयी व गुलाबचन्दजी-द्वारा अपने गुरु हर्षकीर्तिको भेंट की गयी थी।
फ- यह प्रति दि० ज० मुनि धर्मसागर ग्रन्थभण्डार, अकलूज, (जि० शोलापुर ) की है। इसे शान्तिसागरके शिष्य धर्मसागरने सम्भवतः संवत् २००५ में, संवत् १८९६ में की गयी फलटणको प्रतिपर-से लिखी थी।
ब- यह प्रति संवत् १५५९ की है और वह भट्टारक शुभचन्द्रके उत्तराधिकारी भट्टा० जिनचन्द्रके
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानव कथाकोश
प्रशिष्य व रत्नकीतिके शिष्य हेमचन्द्रको दान की गयी थी। यह प्रति ग्रन्थमालाके एक सम्पादक डॉ. हीरालाल जैन-द्वारा प्राप्त हुई।
__श - यह प्रति जिनदास शास्त्री, शोलापुर, को है। इसमें उसके लेखन-काल आदिकी कोई सूचना नहीं है।
उपर्युक्त पांचों प्रतियोंका विशेष विवरण व उनकी प्रशस्तियोंका मूल पाठ अंगरेजी प्रस्तावनामें पाया जायेगा। (३) प्रस्तुत संस्करण : उसकी आवश्यकता : संस्कृत पाठ और हिन्दी अनुवाद
पुण्यासव-कथाकोशके प्रस्तुत संस्करणमें उपर्युक्त पांच प्राचीन प्रतियोंके आधारसे उसका एक स्वच्छ और प्रामाणिक संस्कृत पाठ उपस्थित करनेका प्रयत्न किया गया है। ग्रन्थमाला सम्पादकोंमें से एक (डा० आ० ने० उपाध्ये ) जब अपने हरिषेणकृत बृहत्-कथाकोशकी प्रस्तावनाके लिए जैन कथा-साहित्यका सर्वेक्षण कर रहे थे, तब उन्हें इस ग्रन्थको प्राप्त करने में बड़ी कठिनाईका अनुभव हुआ । तभी उन्हें इस ग्रन्थका एक उपयोगी संस्करण तैयार करनेकी भावना उत्पन्न हई। इस ग्रन्थकी भाषा और शैली विशेष आकर्षक नहीं हैं. तो भी विषयके महत्त्वके कारण उसके हिन्दी, मराठी और कन्नडमें अनुवाद हुए हैं। यह कथाकोश धर्म और सदाचार सम्बन्धी उपदेशात्मक कथानकोंका भण्डार है। उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक दृष्टि से अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाओंका समावेश है। इसके कथानक असम्बद्ध नहीं हैं; किन्तु उनका सम्बन्ध अन्यत्र समान घटनात्मक कथाओंसे पाया जाता है। ये कथाएँ यद्यपि जैन आदर्शोके ढांचेमें ढली है, तथापि उनका मौलिक स्वरूप लोकाख्यानात्मक है। सामान्यतः ग्रन्थकनि जैन धर्मके नियमोंको दष्टिमें रखकर इन कथाओंको उनका वर्तमान रूप दिया है। अतः यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि ग्रन्थकर्ताने आदर्श नियमोंको कहांतक व किस प्रकार जीवनको व्यावहारिक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया है। यथार्थतः इस बातको बड़ी आवश्यकता है कि इस कथाकोशकी पार्श्वभूमिमें श्रावकाचार सम्बन्धी नियमोंका अध्ययन किया जाय। मध्यकालीन श्रावकाचार-कर्ताओंके सम्बन्धमें एक यह बात कही जाती है कि ( आशाधरको छोड़ शेष सब मुनि ही थे) सबने समाजका यथार्थ प्रतिबिम्बन न करके उसका वांछनीय आदर्श रूप उपस्थित किया है। ऐसी परिस्थितिमें यह विपुल और विविध कथा-साहित्य बहुत कुछ कृत्रिम और परम्पराओंसे निबद्ध होनेपर भी, शिलालेखादि प्रमाणोंके अभावमें यथार्थताके चित्रको पूर्ण करने में सहायक हो सकता है। इस दृष्टि से विशाल जैन कथासाहित्यमें पुण्यास्रव कथाकोशका अपना एक विशेष स्थान है। इस ग्रन्थको भाषा भी टकसाली संस्कृत नहीं है, किन्तु उसमें जन-भाषाकी अनेक विलक्षणताएं हैं जिनका भाषा-शास्त्रकी दृष्टिसे महत्त्व है। इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए इस ग्रन्थके संस्कृत पाठको उपलभ्य सामग्रीको सीमाके भीतर यथाशक्ति सावधानीपूर्वक प्रस्तुत करनेका प्रयत्न किया गया है ।
पुण्यासबके जो हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं उनके साथ मूल संस्कृत पाठ नहीं दिया गया। अतएव कहा नहीं जा सकता कि वे अनुवाद कहांतक ठीक-ठीक मूलानुगामी हैं। प्रस्तुत अनुवाद यथासम्भव मूलसे शब्दशः मेल खाता हुआ एवं स्वन्तत्रतासे भी पढ़ने योग्य बनाने का प्रयत्न गया किया है।
(४) जैन कथा-साहित्य और पुण्यात्रव हरिषेणकृत बृहत्कथाकोशको प्रस्तावनामें प्राचीन जैन साहित्यमें उपलभ्य कथात्मक तत्त्वोंका सिंहावलोकन कराया जा चका है। आराधना सम्बन्धी कथाओं में मनियोंके एवं श्रावकाचार सम्बन्धी आख्यानों में श्रावक-श्राविकाओं (जैन गृहस्थों) के आदर्श चरित्र वर्णित पाये जाते हैं। इनमें विशेषतः देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान, इन छह धार्मिक कृत्योंका महत्व बतलाया गया है। उत्तरकालीन धार्मिक कथाओंके विस्तारका इतिहास संक्षेपत: निम्न प्रकार है।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
तिलोयपण्णत्ति, कल्पसूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्यमें श्रेषठशलाका पुरुषों अर्थात् २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव, और ९ प्रतिवासुदेव, इन महापुरुषोंके जीवन चरित्र सम्बन्धी नामों और घटनाओंके संकेत पाये जाते हैं। क्रमशः इन चरित्रोंने रीतिबद्ध स्वरूप धारण किया। कवि परमेश्वर आदि कुछ प्राचीन कथालेखकोंकी कृतियां हमें अनपलब्ध हैं, तथापि जिनसेन-गुणभद्र एवं हेमचन्द्रकृत त्रिषष्ठिपुराण संस्कृतमें, व शोलाचार्य तथा भद्रेश्वरकृत प्राकृतमें, पुष्यदन्तकृत अपभ्रंशमें, चामुण्डरायकृत कन्नडमें और अज्ञातनामा कविकृत श्रीपुराण तमिलमें अब भी प्राप्त हैं। इन बृहत्पुराणोंके अतिरिक्त आशावर, हस्तिमल्ल आदि कृत संक्षिप्त रचनाएँ भा उपलब्ध हैं। इनमें जो लोक-रचना एवं धार्मिक सिद्धान्त व अवान्तर कथाओंका विवरण सम्मिलित पाया जाता है उनसे वे बहुमान्य पुराणोंकी कोटिमें गिनी जाती हैं।
दूसरी श्रेणी में प्रत्येक तीर्थकर व उनके समकालीन विशेष महापुरुषोंके वैयक्तिक चरित्र है। निर्वाणकाण्डमें अनेक महापुरुषोंको नमस्कार किया गया है जिनके चरित्र पश्चात-कालीन रचनाओं में वणित है। प्राकृत. संस्कृत. कन्नड व तमिल में वणित तीर्थंकरोंके चरित्रोंमें परम्परागत विवरण होते हए भी अलंकारिक काव्यशैलोका अनुकरण पाया जाता है। प्राकृतमें लक्ष्मणगणिकृत सुपाव तीर्थकरके चरित्रमें सम्यक्त्व व बारह व्रतोंके अतिचारके दृष्टान्त रूप इतनी अवान्तर कथाएँ आयी हैं कि उनसे मल कथाकी धारा कहीं-कहीं विलुप्त-सी हो गयी है। उसी प्रकार गुणाचन्द्रकृत प्राकृत महावीरचरित्र भी है, तथा संस्कृतमें हरिश्चन्द्रकृत धर्मनाथचरित्र व वीरनन्दिकृत चन्द्रप्रभचरित्र, एवं कन्नडमें पम्प, रन व पोन्न कृत आदिनाथ, अजितनाथ व शान्तिनाथके चरित्र । जैन परम्परानुसार राम मनिसुव्रत तीर्थकरके, एवं कृष्ण नेमिनाथके समकालीन थे। अतएव इनके चरित्र व तत्सम्बन्धी कथाएं अनेक जैन ग्रन्थोंमें वर्णित हैं। विमलसूरिकृत पउमचरियं (प्राकृत), रविषेणकृत पदमचरित ( संस्कृत ), व स्वयंभकृत पउमचरिउ ( अपभ्रंश ) में राम सम्बन्धी आख्यानोंका रोचक समावेश है। कृष्णवासुदेव सम्बन्धी अनेक उल्लेख अर्धमागधी आगमोंमें भी पाये जाते हैं। यद्यपि वहाँ उन्हें ईश्वरका अवतार नहीं माना गया, तथापि वे अपने युगके एक विशेष महापुरुष स्वीकार किये गये है । पाण्डवोंके भी उल्लेख आये हैं, किन्तु वैसे प्रमुख रूपसे नहीं जैसे महाभारतमें । भद्रबाहुकृत वासुदेव चरित. का उल्लेख मिलता है, किन्तु यह ग्रन्थ अभीतक प्राप्त नहीं हो सका। संघदासकृत वसुदेवहिंडी (प्राकृत ) में वसुदेवके परिभ्रमणके अतिरिक्त अवान्तर कथाओंका भण्डार है। यह रचना गुणाढयकृत बृहत्कथाके समतोल है, और उसमें चारुदत्त, अगडदत्त, पिप्पलाद, सगरकुमार, नारद, पर्वत, वसु, सनत्कुमार आदि प्रसिद्ध कथानायकोंके आख्यानोंकी भरमार है। संस्कृतमें जिनसेनकृत हरिवंशपुराण तथा स्वयंभू व धवलकृत अपभ्रंश पुराणोंमें वसुदेवहिंडोसे मेल खातो हुई बहुत-सी सामग्री है। अनेक भाषाओंमें सैकड़ों गद्य व पद्यात्मक जैन रचनाएँ हैं जिनमें जीवंधर, यशोधर, करकंडु, नागकुमार, श्रीपाल आदि धार्मिक नायकोंके चरित्र वर्णित हैं, धार्मिक व्रत-उपवासादिके सुफल तथा सुकृत-दुष्कृत्योंके अच्छे बुरे परिणाम बतलाये हैं। इनमें-के कुछ नायक पौराणिक हैं, कुछ लोक-कथाओंसे लिये गये हैं और कुछ काल्पनिक भी हैं । गद्यचिन्तामणि, तिलकमञ्जरी, यशस्तिलक चम्पू आदि कथा, आख्यान, चरित्र आदि रचनाएं आलंकारिक शैलीके उत्कृष्ट उदाहरण है। जैन मुनिका यह एक विशेष गुण है कि वह अपने धार्मिक उपदेशोंको कथाओं द्वारा स्पष्ट और रोचक बनावे । स्वभावतः काव्यप्रतिभा सम्पन्न अनेक जैन मुनियोंने कथा-साहित्यको परिपुष्ट करने में अपना विशेष योगदान दिया है।
कथाओंकी तृतीय श्रेणी भारतीय साहित्यकी एक विशेष रोचक धाराका प्रतीक है। यह है रोमांचक रूपमें प्रस्तुत धार्मिक कथा । इस श्रेणीको उल्लिखित प्रथम रचना थी पादलिप्तकृत तरंगवती (प्राकृत ) जो अब मिलती नहीं है। किन्तु उसके उत्तरकालीन संस्करण तरंगलोलासे ज्ञात होता है कि उस पूर्ववर्ती कथामें बड़े चित्ताकर्षक साहित्यक गुण थे। उसके पश्चात् कवित्व और साहित्यके अतिशय प्रतिभावान लेखक हरिभद्रकृत समराइच्चकहा है जिसे उन्होंने परम्परागत नामावलीके आधारसे प्राकृत गद्यकथाके रूपमें निदानके दुष्परिणामोंको बतलानेके लिए लिखा। इसी शैलीको सिद्धर्षिकृत उपमिति-भव-प्रपंच-कथा है जो संस्कृत
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
८
पुण्यास्रव कथाकोश
गद्य में प्रतीकात्मक रीति से कुशलता और सावधानीपूर्वक लिखो गयी है। कुछ ऐसी काल्पनिक कथाएँ भी लिखी गयीं जिनमें अन्य धर्मों व उनके सिद्धान्त और पुराणपर कटाक्ष किये गये हैं । यह प्रवृत्ति वसुदेवहिडी में भी प्रत्यक्ष दिखाई देती है; किन्तु हरिभद्रकृत धूर्ताख्यान और हरिषेण अमितगति तथा वृत्तविलासकृत धर्मपरीक्षा में इस बात के उदाहरण हैं कि वैदिक परम्पराको कुछ पौराणिक वार्ताएँ किस प्रकार चतुराईसे व्यंग्यात्मक कल्पित आख्यानों द्वारा अप्राकृतिक और असम्भव सिद्ध करके खण्डित की जा सकती I
कथाओंकी चतुर्थ श्रेणी अर्ध- ऐतिहासिक प्रबन्धों आदिकी है । भगवान् महावीरके पश्चात् अनेक सुविख्यात आचार्य, साधु, कवि, सम्राट् एवं सेठ साहूकार हुए जिन्होंने भिन्न-भिन्न काल व नाना परिस्थितियोंमें जैन धर्मकी रक्षा और उन्नति की। इन स्मृतियोंको रक्षा लेख-बद्ध रचनाओं द्वारा की गयी । नन्दिसूत्र में प्रमुख आचार्योंकी वन्दना की गयी है । हरिवंश और कथावलिमें महावोरके पश्चात् आचार्य परम्पराका निर्देश किया गया है; तथा ऋषिमण्डल आदि स्तोत्रोंमें साधुओंकी नामावलियाँ पायी जाती हैं । पश्चात्कालीन शतियों में उपर्युक्त सामग्री के आधारपर परिशिष्ट पर्व, प्रभावक-चरित, प्रबन्धचिन्तामणि आदि अनेक साहित्यिक प्रबन्ध लिखे गये तथा जैन तीर्थोंका महत्त्व प्रकट करनेवाले तीर्थकल्प आदि ग्रन्थ रचे गये । हाँ, यह आवश्यक है कि इनमें से काल्पनिक वृत्तान्तोंको पृथक् करके शुद्ध ऐतिहासिक तथ्योंका संकलन विशेष सावधानी से हो किया जा सकता है ।
कथा-साहित्यकी अन्तिम श्रेणी कथाकोशोंकी है। नियुक्तियों, प्रकीर्णकों, आराधना पाठों आदिके उपदेशात्मक दृष्टान्तों की परम्पराको उपदेशमाला, उपदेशवद आदि रचनाओंमें आगे बढ़ाया गया और टीकाकारोंने उन दृष्टान्तोंको पल्लवित कर कथाओंका रूप दिया, एवं स्वयं भी कथाएँ रचकर सम्मिलित कीं । इस प्रकार ये टीकाएँ कथाओंके भण्डार बन गये जिसके उदाहरण आवश्यक व उत्तराध्ययन आदिपर लिखी गयी टीकाएँ और भाष्य हैं । इन कथाओंका अपना नैतिक उद्देश्य है, जिसके कारण उपदेश उन्हें स्वतन्त्रता से अपने भाषणों और प्रवचनोंमें उपयोग करने लगे । पंचतन्त्र-जैसी लोकप्रिय रचनाओंका मूलाधार जैन पंचाख्यान आदि सिद्ध होते हैं । इस क्रमसे छोटे-बड़े कथा-संग्रहोंकी परम्परा चल पड़ी, जिसके फल स्वरूप अनेक कथाकोश तैयार हुए । इनमें से कितनोंके तो कर्ताओंके नाम भी अज्ञात हैं; और बहुत थोड़े ऐसे हैं जिनका आलोचनात्मक व तुलनात्मक रीति से अवलोकन किया गया हो । कुमारपाल प्रतिबोध आदि रचनाएँ कथाओं के संग्रह हो हैं जिनका अपना एक विशेष उद्देश्य है । इन संग्रहों में से अनेक कथायें पृथक्-पृथक् भी उपलभ्य हैं । शुद्ध नैतिक उपदेशात्मक कथाओंसे भिन्न ऐसी भी कथाएँ हैं जिनमें व्रत-उपवास आदि धार्मिक आचरणों व क्रियाकाण्डों का महत्त्व बतलाया गया है । कालान्तर में यही तत्त्वप्रधान हो गया है, और कथाकोश साहित्यिक गुणोंसे वंचित होकर यान्त्रिक धार्मिक आख्यान मात्र बन गये ।
पूर्वोक्त अर्ध ऐतिहासिक प्रबन्धोंको छोड़कर उक्त समस्त श्रेणियोंके कथा-ग्रन्थोंमें कुछ लक्षण विशेष रूपसे हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं, क्योंकि वे भारतीय साहित्यकी अन्य शाखाओंमें प्रायः नहीं पाये जाते । इन कथाओं में पूर्व जन्म के वृतान्तोंकी बहुलता है जिनके द्वारा सत् और असत् कर्मोंके पुण्य व पापमय परिणामोंकी अनिवार्यता स्थापित की गयी है । जहाँ कहीं भी अवसर मिला धार्मिक उपदेशका संक्षेप या विस्तारपूर्वक समावेश किया गया है । कथाके भीतर कथाओंका ऐसा गुंथाव पाया जाता है कि एक कुशल पाठक ही उनके पृथक्-पृथक् सन्दर्भ सूत्रोंको चित्तमें सुरक्षित रख सकता है। लोक-कथाओं व पशु-सम्बन्धी आख्यानोंसे दृष्टान्त ले लिये गये हैं; और पद-पदपर कथाकार मानवीय मानसिक वृत्तिकी गहरी जानकारी प्रकट करता है । कथाका सर्वांग संन्यासको भावनासे व्याप्त है और प्रायः प्रत्येक कथा- नायक अन्त में संसार से विरक्त होकर मुनिदीक्षा ले अपने अगले जीवनको अधिक प्रशस्त बनाने का प्रयत्न करता है ।
श्रावकाचारोंमें भी दृष्टान्तात्मक कथाओंका समावेश पाया जाता है । समन्तभद्र कृत रत्नकरण्डश्रावकाचारमें सम्यक्त्वके निःशंकादि आठ अंगों के दृष्टान्त रूप अंजनचोर, अनन्तमति, उदायन, रेवती, जिनेन्द्रभक्त,
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
वारिषेण, विष्णु और वज्रका नामोल्लेख किया गया है। यशस्तिलक चम्पू (संस्कृत, शक ८८१ ), धर्मामृत ( कन्नड, ई० १११२) आदि ग्रन्थों में भी ये कथानक वर्णित हैं। पांच अणुव्रतोंके विधिवत् पालन करनेवाले मातंग, घनदेव, वारिषेण, नीली और जयके नाम प्रसिद्ध है; एवं तत्सम्बन्धी पंच पापोंके लिए धनश्री, सत्यघोष, तापस, आरक्षक और श्मश्रु-नवनीतके उदाहरण विख्यात हैं । अन्ततः श्रीषेण, वृषभसेन और कौण्डेश, दान.
यशस्वी गिनाये गये है। ( २० क० धा० १. १९.२०. ३. १८-१९. ४.२८ ) वसनन्दि आचार्यने अपने उपासकाध्ययन में सम्यक्त्वके आठ अंगोंके उदाहरण पर्वोक्त प्रकार ही दिये हैं। केवल जिनभक्तके स्थानपर जिनदत्त नाम कहा है, तथा उक्त भक्तोंके निवास-नगरोंके नाम भी दिये हैं ( ५२ आदि )। वसुनन्दिने सात व्यसनोंके उदाहरण इस प्रकार दिये है। द्यूतके कारण युधिष्ठिरने अपना राज्य खोया और बारह वर्ष तक वनवासका दूःख भोगा। वनक्रीडाके समय मद्य पीकर यादवोंने अपना सर्वनाश कर डाला। एकचक्र निवासी बक मांसकी लोलुपताके कारण राज्य खोकर मृत्यु के पश्चात नरकको गया। बुद्धिमान चारुदत्तने भी वेश्यारत होकर अपनी समस्त सम्पत्ति खो डाली, और प्रवासमें बहुत दुःख भोगा। आखेटके पापसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती नरकको गया। न्यासको अस्वीकार करने के पापसे श्रीभूतिने दण्ड पाया और दुःखपूर्वक संसार-परिभ्रमण किया। परस्त्रीका अपहरण करके विद्याधरोंका राजा व अर्धचक्री लंकाधिपति रावण नरकको गया। तथा साकेत निवासी रुद्रदत्तने सप्तव्यसनासक्त होकर नरकगति पायी और दीर्घकाल तक संसार परिम्रमण किया।
उपर्युक्त ग्रन्थों में उन उदाहरणस्वरूप उल्लिखित व्यक्तियोंका वृतान्त बहुत कम पाया जाता है। उनका कथा-विस्तार करना टीकाकारोंका काम था। जैसे रत्नकरण्डकके उल्लेखोंको कथाओंका रूप उसके टीकाकार प्रभाचन्द्रने दिया। इनमें से कुछ कथाएं कथाकोशोंमें सम्मिलित पायी जाती हैं। उनमें निहित पाप-पुण्यके परिणामोंसे शिक्षा लेकर पाठक या श्रावकसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह दूराचारसे भयभीत होकर सदाचारी और धमिष्ठ बने । पुरानी कहावत है “हित अनहित पश-पक्षी जाना।" अत: कोई आश्चर्य नहीं जो विवेकी पुरुषोंने अनुभवनके आधारसे नाना प्रकारको उपदेशात्मक कथाओं, आख्यायिकाओं व कहावतों आदिको रचना की।
पुण्यासव-कथाकोश इसी अन्तिम श्रेणीकी रचना है। विषयकी दृष्टिसे उसका नाम सार्थक है । जैन. धर्मानुसार प्रत्येक प्राणीकी मानसिक, वाचिक व कायिक क्रियाओं-द्वारा शुभ व अशुभ, पुण्य व पाप रूप आन्तरिक संस्कार उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार अपने पुण्य-पाप-द्वारा उत्पन्न सुख-दुःख के लिए स्वयंको छोड़ अन्य कोई उत्तरदायी नहीं है । जैनधर्म के इस अनिवार्य कर्म-सिद्धान्तके अनुसार प्रत्येक पुरुष व स्त्री अपने मन, वचन व कायको क्रियाके लिए पूर्णत: आत्मनिर्भर और स्वयं उत्तरदायी है। व्यक्तिके भाग्य-विधान में अन्य किसो देव या मनुष्यका हाथ नहीं । समस्त जैन कथाओंका प्रायः यही सारांश है । यदि कहीं यत्र-तत्र किन्हीं देवी-देवताओंके योगदानका प्रसंग लाया गया है तो केवल परम्परागत लोक-मान्यताओं व क्षेत्रीय धारणाओंका तिरस्कार न करनेकी दृष्टिसे ।
(५) पुण्यास्रव : उसका स्वरूप और विषय पुण्यास्रव कथाकोश में कुल छप्पन कथाएं हैं जो छह अधिकारोंमें विभाजित हैं। प्रथम पाँच खण्डोंमें आठ-आठ कथाएँ हैं और छठे खण्डमें सोलह । १२-१३ वी कथाओंको एक समझना चाहिए। अन्यत्र जहाँ दो प्रारम्भिक श्लोक आये हैं, जैसे २१-२२.२६-२७.३६-३७. ४४-४५, वहाँ वे दो कथाओंसे सम्बद्ध हैं। इस प्रकार प्रारम्भिक पद्योंकी संख्या ५७ है, जिसका उल्लेख स्वयं ग्रन्थकर्ताने किया है (पृ० ३३७ )। किन्तु कथाएँ केवल ५६ हैं । इन कथाओंमें उन पुरुषों व स्त्रियोंके चरित्र वणित हैं जिन्होंने पूर्वोक्त देवपूजा आदि गृहस्थोंके छह धार्मिक कृत्योंमें विशेष ख्याति प्राप्त की।
प्रथम अष्टककी कथाओंमें देवपूजासे उत्पन्न पुण्यके उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं । पूजाका मूल उद्देश्य
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रव कथाकोश देवके प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करना और अर्हन्तके गणोंको स्वयं अपने में विकसित करना है, न कि देवसे कोई भिक्षा मांगना । उदाहरणार्थ, तीसरी कथामें कहा गया है कि एक मेण्डक भी भगवान् महावीरको पूजाके किए कमल ले जाता हआ मार्गमें राजाके हाथी द्वारा कुचला जाकर मरनेके पश्चात् स्वर्गमें देव हुआ। ऐसी कथाका उद्देश्य यही है कि प्रत्येक गृहस्थको अपनी गति सुधारने के लिए देवपूजा करना चाहिए। इस खण्ड में विशेषत: पुष्पांजलि पूजाका विस्तारसे विधान किया गया है।
दूसरे अष्टक में 'णमो अरहताणं' आदि पंचनमस्कार मन्त्रोच्चारणके पुण्यको कथाएं हैं। इस मन्त्रका जैन धर्ममें बड़ा महत्त्व है और उत्तरकालमें ध्यान, क्रियाकाण्ड एवं तान्त्रिक प्रयोगोंमें उसका विशेष महत्त्व बढ़ा । यद्यपि प्रारम्भिक श्लोकोंपर दो क्रमांक है ( १२-१३ ), तथापि उनकी कथा एक ही है।
तृतीय अष्टकमें स्वाध्यायके पुण्यकी कथाएँ हैं । स्वाध्यायसे तात्पर्य केवल जैन शास्त्रोंके पठनसे नहीं है, किन्तु उनके श्रवण व उच्चारणसे भी है, और पशु-पक्षियोंको भी उसका पुण्य होता है ।
चतुर्थ अष्टकमें शीलके उदाहरण वर्णित हैं । गृहस्थों में पुरुषों को अपनी पत्नीके प्रति एवं पत्नीको पतिके प्रति पूर्णतः शीलवान होना चाहिए ।
पंचक अष्टकमें पर्वोपर उपवासोंका पुण्य बतलाया गया है । उपवास छह बाह्य तपोंमें से एक है, और उसका पालन मुनियों और गृहस्थोंको समान रोतिसे करना चाहिए।
छठे खण्डमें पात्र-दानका महत्त्व वणित है । इस खण्डमें दो अष्टक अर्थात् सोलह कथाएं हैं।
इन कथाओंके गठन और शंलीपर भी कुछ ध्यान दिया जाना योग्य है। प्रत्येक कथा के प्रारम्भिक एक श्लोक (एक स्थानपर दो श्लोकों) में कथाके विषयका संकेत कर दिया गया है, और अन्तिम श्लोक ( जो प्रायः लम्बे छन्दमें रहता है ) आशीर्वादात्मक और विषयकी प्रशंसायुक्त होता है। प्रारम्भिक पद्य स्वयं ग्रन्थकार-द्वारा रचित हैं, या पीछे जोड़े गये हैं, इसका निर्णय करना वर्तमान प्रमाणों-द्वारा असम्भव है । कथाएं गद्य में वर्णित है, और गद्यकी भाषा ऊपरसे तो सरल दिखाई देती है, किन्तु बहुधा जटिल हो गयी है। कथाओंके भीतर उपकथाओंके समावेशकी बहलता है। इन कथाओंमें भूत और भावी जन्मान्तरोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है जिससे कथावस्तु में जटिलता आ गयी है। यत्र-तत्र संस्कृत व प्राकृतके कुछ पद्य अन्यत्रसे उद्धृत पाये जाते हैं ।
(६) पुण्यास्रवके मूल स्रोत इस ग्रन्थकी कथाओंके आदि स्रोतोंकी खोज भी चित्ताकर्षक है । करकण्डु (६), श्रेणिक (८), चारुदत्त (१२-१३) दृढ़सूर्य (१६), सुदर्शन (१७) यममुनि (२०), जयकुमार-सुलोचना (२६.२७), सीता (२९), नीलो (३२) नागकुमार (३४), रोहिणी (३६-३७), भद्रबाहु-चाणक्य (३८), श्रीपेण (४२), वज्रजंघ (४३), भामण्डल (५१), आदिकी कथाएं जैन साहित्यमें सुप्रसिद्ध हैं। इन कथाओंमें नायकके केवल एक जन्मका चरित्रमात्र वणित नहीं है, किन्तु अनेक जन्म-जन्मान्तरोंका, जिनमें उनके मन, वचन व काय सम्बन्धी शुभ या अशुभ कर्मो के फलोंकी परम्परा पायी जाती है। जिस क्रमसे इन कथाओंका विस्तार हुआ है, एवं उनमें ग्रथित घटनाओंका समावेश किया गया है उसको पूर्णरूपसे समझने-समझाने के लिए समस्त साहित्यको छानबीन करना आवश्यक है। अध्ययनकी इस परिपाटीके लिए आर० विलियम्स कृत टू प्राकृत व्हर्सन्स ऑफ़ दि मणिपति-चरित ( लन्दन, १९५९) की प्रस्तावना देखने योग्य है। यहाँ उस प्रकारसे क्रम-बद्ध विस्तार. वर्णन करनेका विचार नहीं है, केवल मलस्रोतोंका सामान्य संकेत करनेका प्रयत्न किया जाता है।
कहीं-कहीं स्वयं पुण्यास्रवकारने अपने कुछ स्रोतोंका निर्देश कर दिया है। उदाहरणार्थ, भूषण वश्यकी कथा (५) में रामायणका उल्लेख है। वहां जो जल-केलि, देशभूषण और कुलभूषणके आगमन तथा भवान्तरोंका वर्णन आया है, उससे प्रतीत होता है कि कर्ताकी दृष्टि रविषेण कृत पद्मचरित, पर्व ८३ आदि
-
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
पर है (पृ० ८२)। १५वी कथामें पद्मचरितका स्पष्ट उल्लेख है (पृ. ८२)। यहां जो कीचड़में फंसे हुए हाथोको एक विद्याधर-द्वारा दिये गये पंच-नमोकार मन्त्रका और उसके प्रभावसे हाथोके नामकी पत्नी सीताका जन्म धारण करने व स्वयंवर आदिका वर्णन आया है उससे रविषेण कृत पद्मचरित, पर्व १०६ आदिका अभिप्राय स्पष्ट है।
७वों और ४३वी कथाओंमें आदिपुराणका ( और ४३वीं में महापुराणका भो, पृ० २९, २३८, २८२ ) उल्लेख है, जिससे उनके मूलस्रोतका पता जिनसेन कृत आदिपुराण पर्व ६, १०५ आदि एवं पर्व ४, १३३ आदिमे चल जाता है । और भी अनेक कथाओंके सूत्र उसी महापुराणमें पाये जाते हैं । जैसे - पुण्य० कथा
महापुराण ४६-२५६ आदि ४५-१५३ आदि ७३ (विशेषतः पद्य ९८ आदि )
४६-२६८ आदि २६-२७
४७-२५९ आदि २८
४६-२९७ आदि ४६-३४८ आदि ७१-३८४ आदि ७२-४१५ आदि ७१-४२९ आदि
७१-४२ आदि इनसे स्पष्ट है कि पुण्यानवकारने अपने अनेक प्रसंगोंपर महापुराणका उपयोग किया है।
आठवों कथा राजा श्रेणिककी है जिसमें कहा गया है कि वह भ्राजिष्णु ( ? ) कृत आराधनाको कर्नाट टीकासे संक्षेपतः ली गयी है। प्रोफेसर डी० एल० नरसिंहाचारका अनुमान है कि यहाँ अभिप्राय कन्नड वड्डाराधनासे हो सकता है। किन्तु उसके उपलभ्य संस्करणमें श्रेणिकको कथा नहीं पायी जाती। यह कथा बृहत्कथाकोश (५५) में हैं। विशेष अनुसन्धान किये जाने की आवश्यकता है। सम्भव है पुण्याश्रवकारके सम्मुख कन्नड वडाराधना भी रही हो, तथा और भी अन्य प्राकृत रचनाएं। इसके प्रमाणमें कुछ प्रसंगोंपर ध्यान दिया जा सकता है। प्राकृत उद्धरण 'पेच्छह' आदि कन्नड वड्डाराधना ( पृ ७९ ) में भी है और पुण्यास्रव ( पृ० २२३ ) में भी । उसोके आस-पासको कुछ अन्य बातोंमें भी समानता है । वड्डाराधनाके अगले पृष्ठपर "बोलह, बोलह" आदि उक्तियाँ हैं जो पुण्यास्रव (पृ. २२३ ) के पाठसे मेल खाती हैं ।
और भी ऐसे समान प्रसंग खोजे जा सकते है। किन्तु जबतक वडाराधनाके समस्त स्रोतोंका पता न चल जाये, तबतक साक्षात् या परोक्ष अनुकरणका प्रश्न हल नहीं किया जा सकता।
१२-१३वीं कथाएँ चारुदत्त-चरित्रसे ली कही गयी हैं (पृ० ६५)। कहा नहीं जा सकता कि यहाँ अभिप्राय उस नामके किसी स्वतन्त्र ग्रन्थसे है, या अनेक ग्रन्थों में प्रसंग-वश वणित चरित्रसे। चारुदत्तकी कथा हरिषेण कृत बृहत्कथाकोश (पृ०६५) में भी आयी है, और उससे भी प्राचीन जिनसेन कृत हरिवंशपुराणमें भी। “अक्षरस्यापि" आदि अवतरण ( पृ० ७४) हरिवंश २१-१५६ से अभिन्न है। इससे स्पष्ट है कि इस कथाको लिखते समय पुण्यास्रवकारके सम्मुख जिनसेनकृत हरिवंशपुराण रहा है ।
२१-२२वीं कथाओंमें उनका आधार सुकुमार-चरित कहा गया है। किन्तु इस ग्रन्थके विषयमें विशेष कुछ ज्ञात नहीं है। तथापि इस कथाका बृहत्कथाकोशको १२६वीं कथा ( पद्य ५३ आदि ) से तुलना को
जा सकती है। कन्नड़में एक शान्तिनाथ ( ई० १०६०) कृत सुकुमारचरित है ( कर्नाटक संघ, शिमोग,
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
पुण्यास्रव कथाकोश
१९५४ ) | आश्चर्य नहीं जो पुण्यास्रवकारने कुछ कन्नड़ रचनाओंका भी उपयोग किया हो। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि उन्होंने सुकुमालचरित नहीं, किन्तु सुकुमारचरित नाम कहा है ।
३६-३७त्रीं कथाओंका आधार, स्वयं कर्ताके कथनानुसार, रोहिणीचरित्र है। इस नामकी संस्कृत, प्राकृत व अपभ्रंश में अनेक रचनाएँ हैं ( देखिए जिनरत्नकोश ) । यह कथा खूब लोक - प्रचलित भी है, क्योंकि उसमें धार्मिक विधि विधान सम्बन्धी रोहिणी व्रतका माहात्म्य बतलाया गया है। इसका एक संस्करण अँगरेजीमें भी अनुवादित हो चुका है ( देखिए एच० जान्सनका लेख : स्टडीज इन आनर ऑफ़ ए० ब्लूम्फील्ड, न्यू हेवेन, १९३० ) । यह कथा बृहत्कथाकोश (५७) में भी है । किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ की कथा में उसका कुछ अधिक विस्तार पाया जाता है । इस कथामें जो शकुन शास्त्रका उद्धरण आया है वह बृहत्कथाकोश में भी है ।
३८वीं कथा, ग्रन्थकारके मतानुसार, भद्रबाहुचरित्र में थी । भद्रबाहुका जीवन-चरित्र अनेक कथाकोशों में पाया जाता है और रत्नन्दिकृत ( संवत् १५२७ के पश्चात् ) एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में भी । इसी कथा में उससे कुछ भिन्न चाणक्य भट्टारककी कथाके सम्बन्धमें कहा गया है कि वह " आराधना" से ली गयी है । इस प्रसंग में यह बात ध्यान देने योग्य है कि भद्रबाहुभट्टार (६) और चाणक्य (१८) की कथाएं कन्नड़ वडाराधनेमें भी हैं और ऊपर कहे अनुसार, इस ग्रन्थ से प्रस्तुत ग्रन्थकार सम्भवतः परिचित थे । ये दोनों कथाएँ बृहत्कथाकोश ( १३१ और १४३ ) में भी हैं ।
४२वीं कथा श्रीषेणकी है जिसके अन्त में ग्रन्थकारने कहा है कि वे उसका विशेष विवरण यहीं नहीं देना चाहते, क्योंकि वह उन्हीं द्वारा विरचित शान्तिचरितमें दिया जा चुका है। इस नामके यद्यपि अनेक ग्रन्थ ज्ञात हैं ( देखिए जिनरत्नकोश ), तथापि रामचन्द्र मुमुक्षुकी यह रचना अभीतक प्रकाशमें नहीं आयी । इस कथानकके लिए महापुराण ६२-३४० आदि भी देखने योग्य है ।
४३वीं कथामें उसके कुछ विवरणका आधार समवसरण ग्रन्थ कहा गया है । ( पृ० २७२ ) '
४४-४५वीं कथाओंके सम्बन्ध में कर्ताने कहा है कि वे संक्षेप में कही जा रही हैं, क्योंकि वे "सुलोचनाचरित" में आ चुकी हैं । इस नामकी कुछ रचनाएँ ज्ञात हैं ( देखिए जिनरत्नकोश ) । यह कथा महापुराण, पर्व ४६ में भी आयी है ।
ऊपर बतलाया जा चुका है कि ग्रन्थकार सुग्रीव, बालि प्रभाण्डल आदिकी कथाएँ रामकथा से ग्रन्थ से मेल खाते हैं जो इस प्रकार हैं :
पुण्य० कथा
२९ ३१ वज्रकर्ण
४७
४८-४९
५०
रामचन्द्र मुमुक्षु रविषेण कृत पद्मचरितसे सुपरिचित हैं; सम्बन्धित हैं । और प्रस्तुत कथाओंके अनेक प्रसंग उस
१०
३९
५२-५५
पर्व ९५
पद्मचरित
31
३३- १३० आदि
५- १३५ आदि
31
,,, ५-५८ व १०४
३१-४ आदि
"1
ऊपर कहा जा चुका है कि पुण्यास्रव में एक श्लोक जिनसेन कृत हरिवंशपुराणसे उद्धृत किया गया है। इस ग्रन्थसे भी कुछ कथाओंका मेल बैठता है । जैसे
पुण्य० कथा
हरिवंश प०
१८-१९ आदि
६०-४२ आदि
६०-५६, ८७, ९७, १०५ आदि
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
१३
हरिषेण कृत बृहत्कथाकोशसे मेल रखनेवाली अनेक कथाओं का उल्लेख ऊपर आ चुका है। कुछ और कथाओंका मेल इस प्रकार है - पुण्य० कथा
बृ० क० कोश
५६
१६
१२७ ३२-३३वीं कथाओंके नायक वे ही हैं जिनके नाम रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ३-१८ में आये हैं । इनकी कथाएँ प्रायः जैसीकी तैसी प्रभाचन्द्र कृत संस्कृत टोकामें आयी हैं। अनुमानत: टीकाकारने ही उन्हें कथाकोशसे लो होंगो, और उन्होंने उन्हें अधिक सौष्ठवसे भी प्रस्तुत किया है। किन्तु यह भी सम्भव है कि उक्त दोनों ग्रन्थकारोंने उन्हें स्वतन्त्रतासे किसी अन्य ही प्राचीन कथाकोशसे ली हों।
इस प्रकार जहाँ तक पता चलता है, प्रस्तुत कथाकोशके स्रोत, उसमें उल्लिखित ग्रन्थोंके अतिरिक्त रविषेण कृत पद्मचरित, जिनसेन कृत हरिवंश पुराण, जिनसेन-गुणभद्र कृत महापुराण और सम्भवतः हरिषेण कृत बृहत्कथाकोश रहे हैं। इसके उपाख्यान बहुधा राम, कृष्ण आदि शलाका पुरुषों सम्बन्धी कथाचक्रोंसे, अथवा भगवती आराधनामें निर्दिष्ट धार्मिक पुरुषोंसे सम्बद्ध पाये जाते हैं, जिनके विषयमें प्राचीन टीकाओंके आधारसे सम्भवतः अनेक कथाकोश रचे गये हैं। सम्भव है धीरे-धीरे प्रस्तुत कथाओंके और भी आधारोंका पता चले जिनसे अनेक प्राप्य कथाकोशोंके बीच रामचन्द्र मुमुक्षुकी प्रस्तुत रचनाके स्थानका ठीक-ठीक मूल्यांकन किया जा सके।
(७) पुण्यास्रव : उसके सांस्कृतिक आदि तत्व जैसा कि बहुधा पाया जाता है, पुण्यास्रवकी कथाओंमें जैन धर्म और सिद्धान्त सम्बन्धी बहुत-सा विवरण आया है। पात्रोंके भूत और भावी जन्मान्तरोंका वर्णन करने में केवल ज्ञानी मुनियोंका महत्त्वपूर्ण स्थान है। जातिस्मरणको घटना बहुलतासे आयी है । जैन पारिभाषिक शब्द सर्वत्र बिखरे हए हैं। विद्याधरों
और उनकी चमत्कारी विद्याओंके उल्लेख बारंबार आते हैं। छोटे-छोटे लौकिक उपाख्यान यत्र-तत्र समाविष्ट किये गये हैं, जैसे पृ० ५३ आदिपर । व्रतोंमें पुष्पांजलि (४) और रोहिणी (३७) व्रत प्रमुखतासे आये हैं । सोलह स्वप्नोंका पूरा विवरण मिलता है (पृ० २३२) और उसी प्रकार कालके छह युगोंका (पृ० २५७) जो सम्भवतः हरिवंश पुराणपर आधारित है। समवसरणका वर्णन भी है (पृ० २७२ )। श्रेणिक, चन्द्रगुप्त, अशोक, बिन्दुसार आदि ऐतिहासिक सम्राटों एवं भद्रबाहु, चाणक्य आदि महापुरुषों, तथा तत्कालीन संघ-भेदोंके उल्लेख नाना सन्दर्भोमें आये हैं (पृष्ठ २१९, २२७; २२९ आदि)।
जैन कथा साहित्यको जटिल शृंखलामें पुण्यास्रव कथाकोशकी कड़ी अपना विशेष महत्त्व रखती है । रचना भले ही पर्वकी हो या पश्चातकी, किन्तु ये कथाएं अति प्राचीन प्राकृत, संस्कृत और कन्नडके मल स्रोतोंसे प्रवाहित हैं. इसमें सन्देह नहीं। कथाकोश अनेक प्रकाशित हो चके हैं, किन्तु अनेकों अभी भी लिखित रूपमें अप्रकाशित पड़े हैं। यह बहुत आवश्यक है कि एक-एक कथाको लेकर आदिसे अन्त तक उसके विकासका अध्ययन किया जाय। इस कार्यमें जैन साहित्यको दृष्टिमें रखते हुए बाह्य प्रभावकी उपेक्षा नहीं की जाना चाहिए । अन्ततः तो इन कथाओंका भारतीय साहित्यकी धारामें ही अध्ययन करना योग्य है। हो सकता है कि इन कथाओंमें कहीं न केवल भारतीय, किन्तु अन्तर्राष्ट्रीय व विश्वव्यापी कथा-तत्वोंका पता चल जाय। इसी प्रकारके अध्ययनसे इन कथाओंके क्रम-विकासका ठीक-ठोक परिज्ञान हो सकता
Jain Education Internati Shal
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
.१४
पुण्यास्रव कथाकोश
है और यह भी जाना जा सकता है कि यहाँ जो जोड़-तोड़ व परिवर्तन किये गये हैं उनका यथार्थ उद्देश्य क्या है ।
(८) पुण्यास्रवकी भाषा
साहित्यिक संस्कृत भाषाके जिस लोक प्रचलित रूपको अनेक जैन लेखकोंने, विशेषतः पश्चिम भारत में, अपनाया, उसे जैन संस्कृत नाम दिया गया है। इस नामकी क्या सार्थकता है व उसकी भाषा- शास्त्रीय पार्श्वभूमि क्या है, इसका विचार बृहत्कथाकोशकी प्रस्तावना ( पृ० ९४ आदि ) में किया जा चुका है । अभी-अभी डा० बी० जे० सांदेशरा और श्री जे० पी० ठाकरने इस विषयके समस्त अध्ययनका विधिवत् उपसंहार किया है । इसके लिए उन्होंने सामग्री ली है मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि ( सन् १३०५ ), राजशेखर सूरि कृत प्रबन्धकोश ( सन् १३४९), और पुरातन प्रबन्ध संग्रह से । इस आधार पर यह कहना असत्य होगा कि जैन लेखकों द्वारा प्रयुक्त संस्कृतकी सामान्य संज्ञा 'जैन संस्कृत' है, क्योंकि समन्तभद्र, पूज्यपाद, हरिभद्र आदि अनेक ऐसे जैन लेखक हुए हैं जिनकी संस्कृत भाषा पूर्णतः शास्त्रीय है | अतः 'जैन संस्कृत' से अभिप्राय केवल कुछ सीमित लेखकों द्वारा प्रयुक्त भाषासे ही हो सकता है । इन लेखकों को अपनी बात सुशिक्षित वर्ग तक ही सीमित न रखकर अधिक विस्तृत जन-समुदाय तक पहुँचाना था, और उनकी रचनाओं के प्रत्यक्ष व परोक्ष आधार बहुधा प्राकृत भाषाओंके ग्रन्थ थे । अतः उनकी संस्कृत लौकिक बोलियोंसे प्रभावित हो, यह स्वाभाविक है । दूसरी बात यह भी है कि ये लेखक लोक प्रचलित शैली में लिखना चाहते थे, अतः उन्होंने संस्कृत व्याकरणके कठोर नियमोंका पालन करना आवश्यक नहीं समझा । उनकी सरल संस्कृत तत्कालिक आधुनिक बोलियोंसे प्रभावित हुई । उसमें देशी शब्दों का भी समावेश हुआ, एवं मध्यकालीन और अर्वाचीन शब्दोंको संस्कृतकी उच्चारण-विधिके अनुरूप बनाकर प्रयोग कर लिया गया । ये प्रायः सभी प्रवृत्तियाँ पुण्यास्रवकथाकोश में भी पायी जाती हैं । रामचन्द्र मुमुक्षु प्राकृतके उत्तराधिकारी भी थे, और संभवतः उनपर यत्र-तत्र कन्नड शैलीका भी प्रभाव पड़ा था ।
पुण्यात्रवकथाकोशके पाठान्तरोंसे स्पष्ट है कि बहुधा य और ज, तथा प और ख का परस्पर विनिमय हुआ है । ग्रन्थकार संधिके नियमोंका विकल्पसे ही पालन करते हैं, कठोरता से नहीं । इस विषय में जो पाठान्तर पाये जाते हैं उनसे अनुमान होता है कि प्रतिलेखकोंने भी अपनी स्वच्छन्दता वर्ती है । प्रस्तुत संस्करण में प्राचीन प्रतियोंको मान्यता दी है, और शब्दरूपों को बलपूर्वक व्याकरणके चौखटेमें बैठानेका प्रयत्न नहीं किया गया । यहाँ शब्द - सौष्ठवको अपेक्षा ग्रन्थकारका ध्यान कथा और उसके सारांशकी ओर अधिक रहा है । व्याकरणकी दृष्टिसे अशुद्ध प्रयोगोंके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार है
भूयोक्तवान् ( ७५, १४ ) में संधि अशुद्ध है । दृशद् बद्धः, वृत्तान्तम् ( १५६-७ ), कैवल्यो ( २७०१३) शत और सहस्र ( २७७, २७८, ३०२ आदि ) में लिंग प्रयोग ठीक नहीं है । सोमशर्मन्के स्त्रीलिंग रूप सोमशर्मा ( ५१, १२ ) और सोमशर्मणी ( ५२-१ ) पाये जाते हैं । गच्छन्ती के लिए गच्छती (९४-९) प्रयुक्त हुआ हैं । कारक रचनाकी दृष्टिसे पतेः ( १५४-२, १९३-१४ आदि ), राजस्य ( १९६-५ ), मे ( ३१९-१३ व इमा ( १६५ - ५ ) विचारणीय हैं । भूतकालसंबन्धी तीन लकारोंके ही है, किन्तु उक्तवान् के लिए उक्तः ( १४०-१२ ) व आज्ञापितौ के लिए आज्ञातो के लिए आक्रोशते ( १८१-१० ) तथा तिरोभूत्वा ( १०० १० ), नमस्कृत्वा ( ( २९१-३ ) ध्यान देने योग्य हैं ।
प्रयोग में तो भेद नहीं
—'
कारक विभक्तियोंके अनियमित प्रयोग हैं - उपवासो ( १३०-१२ ) हस्त संज्ञाम् ( १४३-४ ), मदनमञ्जूषया ( १४-७ ), सर्वेभ्यः ( १४६-९), सीताया: ( १०२-६ ), वज्रजंघस्य ( १४७ - ८ ) शाखायाम् ( १००-१० ), गंगायाम् ( ५३-५ ) मदहस्ते ( ९१-४ ), तथा भक्षणे ( १३६-८ ), दिव्यभोगान् ( १२४
१४७-७ ), आक्रोश्यते१०२-६ ), संस्थित्वा
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
१५
१२ ), अयोध्याबाह्ये ( ३०२-१२), पृष्टयोः ( १४२-२ ), पठिता ( ८-१४ ) यहाँ प्रयुक्त कारक विभक्तियोंके स्थानपर नियमानुसार अन्य विभक्तियाँ अपेक्षित थीं।
इनके अतिरिक्त यत्र-तत्र कर्ता और क्रियामें वैषम्य, समासकी अनियमितता, द्विरुक्ति आदि भी देखे जाते हैं।
अनेक शब्द ऐसे आये हैं जो उच्चारण व अर्थकी दष्टिसे संस्कृत में प्रचलित नहीं पाये जाते । कुछ प्राकृतसे आये है, और कुछ देशी है । ( शब्द-सूची अंगरेजो प्रस्तावनामें देखिए )
(8) नागराज कृत पुण्यास्रव और उसका रामचन्द्र मुमुक्षुकी कृतिसे संबन्ध
नागराज कृत पुण्यास्रव (कर्णाटक कवि चरिते, १, बंगलोर, १९२४) कन्नड़ भाषाका एक चम्पू काव्य है ! नागराजने स्वयं अपना, अपने पूर्वजोंका तथा अपनी काव्य-रचनाका कुछ परिचय दिया है। वे कौशिक-गोत्रीय थे, पिताका नाम विवेक विट्टलदेव था जो 'जिनशासन-दीपक' थे और वे सेडिम्ब ( सेडम) के निवासी थे जहाँ अनेक नये 'जिन चैत्य-गह' थे । उनको माता भागीरथी, भ्राता तिप्परस और गुरु अनन्तवीर्य मुनीन्द्र थे । ग्रंथकी पुष्पिकाओंमें उन्होंने अपने को मासिवालद नागराज कहा है, एवं सरस्वती-मुखतिलक, कवि-मुख-मुकुर, उभयकविता-विलास आदि उपाधियाँ भी प्रकट की हैं। ग्रन्थके आदिमें उन्होंने वीरसेन, जिनसेन, सिंहनन्दि, गृद्धपिंछ, कोण्डकुण्ड, गुणभद्र, पूज्यपाद, समन्तभद्र, अकलंक, कुमारसेन ( सेनगणाधीश) धरसेन और अनन्तवीर्यका उल्लेख किया है। उन्होंने पम्प, बन्धुवर्म, पोन्न, रन्न, गजांकुश, गुणवर्य, नागचन्द्र आदि पूर्ववर्ती कन्नड़ कवियोंसे प्रोत्साहन पाया था। पम्प आदि कन्नड़ कवियोंके विषय उनका कथन महवपूर्ण है। (कन्नड़ अवतरण अंग्रेजी प्रस्तावनामें देखिए )।
नागराजने सगरके लोगोंके हितार्थ अपने गुरु अनन्तवीर्यको आज्ञासे शक १२५३ ( ई० १३३१ ) में प्रस्तुत ग्रन्यको संस्कृतसे कन्नड़में रूपान्तर किया। उन्होंने यह भी कहा है कि उनकी कृतिको आर्यसेनने सूधारकर अधिक चित्ताकर्षक बनाया। ( मल अवतरण अंगरेजी प्रस्तावनामें देखिये।
नागराजके स्वयं कथनानुसार उनकी रचनामें उन प्राचीन महापुरुषोंकी कथायें कही गयी हैं जिन्होनें गृहस्थोंके षट् कर्मों - देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, दान और तपका पालन करने में यश और अन्ततः मोक्ष प्राप्त किया।
नागराजने अपने मौलिक संस्कृत पुण्यास्रवके कर्ताका नाम नहीं बतलाया। किन्तु जब हम नागराजके कथनको ध्यान में रखकर रामचन्द्र मुमुक्षुको कृतिसे उसका मिलान करते हैं, तब इस बातमें सन्देह नहीं रहता कि नागराजने अपना कन्नड़ पुण्यास्रव इसी संस्कृत ग्रन्थके आधारसे लिखा है। दोनोंमें कथाओंकी संख्या समान है, और उनका क्रम भी वही है। षट् कर्मों के अनुसार कथाओंका वर्गीकरण भी दोनोंमें एक-सा है । कहीं-कहीं उक्तियों में भी समानता है। दोनों में कथाओंके प्रारम्भिक पद्य, शब्द और अर्थ दोनों दृष्टिओंसे बहुत कुछ समता रखते हैं। किन्तु जहाँ रामचन्द्र मुमुक्षुका ध्येय बिना काव्य और व्याकरणादिके गुणोंकी ओर ध्यान दिये कथा-वर्णन मात्र है, वहाँ नागराज कन्नड़ भाषाके सिद्धहस्त कवि हैं। अत: उनकी रचनामें भाषा, शैली व कवित्वका विशेष सौष्ठव पाया जाता है। उन्होंने रामचन्द्र ममक्षके कुछ प्राकृत उद्धरण तो जैसे के तैसे ले लिए हैं (पृ० १०५ ), किन्तु संस्कृत अवतरणों ( पृ० ३२, ७४, आदिको बहुधा कन्नड़ पद्योंमें परिवर्तित किया है।
नागराजकी रचनाको देखते हए ऐसा भी विचार उठ सकता है कि रामचन्द्र ममक्षने ही उसका आधार लिया हो, विशेषतः जबकि उन्होंने कन्नडके कुछ स्रोतोंका उपयोग किया है (पृ०६१)। किन्तु यह सम्भावना निम्न कारणोंसे ठीक नहीं जंचती। एक तो नागराजने स्पष्ट ही कहा है कि उन्होंने एक पूर्ववर्ती संस्कृत पुण्यास्रवका आधार लिया है। दूसरे रामचन्द्र ने एकाधिक स्थानोंपर अपने मूलाधारोंका निर्देश
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
पुण्यास्रव कथाकोश
किया है, जिनमें संस्कृत के ग्रन्थ हैं और कन्नडके भी। अतः कोई कारण नहीं कि वे यदि नागराजकी कृतिका इतना अधिक उपयोग करते तो उसका निर्देश न करते । तीसरे, रामचन्द्रने अपने छह विषय निर्धारित करनेमें अपनी विशेष मौलिकता बतलाई है, और नागराजने उसका अनुकरण मात्र किया है, जिसमें उन्होंने सोमदेवके यशस्तिलकचम्प व पद्मनन्दि कृत पंचविंशतिके अनुसार कुछ शब्दभेद कर लिया है । चौथे, रामचन्द्रने अपने आधारभूत ग्रन्थोंका बहुत स्पष्टतासे उल्लेख किया है, जिनमें आराधना - कर्नाटक टीका व स्वयं कृत शान्तिचरितका वैशिष्टय है, जबकि उन्हीं सन्दर्भोमें नागराजके चम्पके उल्लेख, यदि है भी तो बहुत अनियमित । और पांचवें, जहां रामचन्द्रने हरिवंश पुराणका एक श्लोक उद्धृत किया है (पृ० ७४ ) वहाँ नागराजने उस श्लोकका सीधा कन्नड अनुवाद कर डाला है। यदि रामचन्द्रने नागराजकी कृतिका आधार लिया होता तो उनका उक्त श्लोकको उद्धृत करना असम्भव था । पहले बतला आये हैं कि रामचन्द्रने अपनी कृतिको अपने छह विषयोंके अनुसार छह खण्डोंमें विभाजित किया है, तथा प्रथम पाँच खण्डोंमें आठ-आठ कथायें हैं और छठे खण्डमें सोलह । नागराजको इस वर्गीकरणकी अच्छी तरह जानकारी है। तथापि उन्होंने जिस चम्पू काव्यरूपमें अपनी कतिको ढाला है उसकी आवश्यकतानसार उन्होंने बारह आश्वासोंकी योजना की है जिनमें कथाओंका समावेश निम्न प्रकार है :आश्वास
पुण्य० कथा
wor» १००
१२
९-१५ १६-२० २१-२५ २६-३४ ३५-३७ ३८-४३ ४३ ( अन्तिम भाग) ४४-५०
५१-५८ यहाँ प्रथम तीन आश्वासोंमें रामचन्द्र की कथाओंका एक अष्टक पूर्ण हुआ है। आगे नागराजके वर्णनकी घटा-बढ़ी अनुसार आश्वासोंमें कथाओंको संख्याका कोई नियम नहीं रहा। ४३वों कथा दो आश्वासोंमें पल गयी है। तथापि यह मानना पड़ेगा कि नागराजने अपने आदर्शभत कथाकोशकी नीरस शैलीसे ऊपर उठकर एक श्रेष्ठ कन्नड़ चम्पू काव्यकी सृष्टि की है ।
(१०) ग्रन्थकार रामचन्द्र मुमुक्षु रामचन्द्र मुमुक्षुने स्वयं अपने विषयको बहुत कम जानकारी दी है। पुष्पिकाओंमें कहा गया है कि वे 'दिव्यमुनि केशवनन्दि' के शिष्य थे। अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार (पृ० ३३७) ये केशवनन्दि कुन्दकुन्दान्वयी थे। उनकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे भव्य रूपी कमलोंको सूर्य के समान थे, संयमी थे, मदनरूपी हाथीको सिंहके समान थे, कर्मरूप पर्वतोंके लिए वज्र थे, दिव्य-बुद्धि थे, बड़े-बड़े साधुओं और नरेशों द्वारा वन्दित थे, ज्ञानसागरके पारगामी थे और बहुत विख्यात थे। उनके धर्मिष्ठ शिष्य थे रामचन्द्र जिन्होंने महायशस्वी, वादीभसिंह महामनि पद्मनन्दिसे व्याकरण शास्त्रका अध्ययन किया। रामचन्द्र ने इस पुण्यास्त्रवकी रचना की.
तथा ५७ श्लोकोंमें कथाओंका सारांश दिया । रचनाका ग्रन्थान ४५०० है। यह सब जानकारी प्रशस्तिके
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तावना
प्रथम तीन पद्योंसे प्राप्त होती है।
प्रशस्तिके अन्तिम छह श्लोक पोछेसे जोड़े गये प्रतीत होते हैं । उनमें कहा गया है कि सुविख्यात कुन्दकुन्दान्वयमें देशीगणके प्रसिद्ध संघाधिपति पद्मनन्दि हुए जो रत्नत्रयसे भूषित थे। उनके उत्तराधिकारी हुए माधवनन्दि पण्डित जो महादेवके सदश गगनायक, शिव और प्रसिद्ध थे। उनके शिष्य वसुनन्दि सूरि सिद्धान्त-शास्त्र-विशारद, मासोपवासी, विद्वत्श्रेष्ठ थे। वसुनन्दिके पट्टशिष्य हुए मौलि ( मौनि ? ) जो भव्यप्रबोधक, देव-वन्दित और सब जीवोंके प्रति दयालु थे। उनके पट्टपर श्रीनन्दि सूरि विराजमान हुए जो विविध कलाओं में कुशल, साधुवन्द-वन्दित दिगम्बर थे । वे आकाशमै पूर्णचन्द्र के समान, तथा चार्वाक, बौद्ध आदि नाना दर्शनों व शास्त्रोंके ज्ञाता थे।
प्रशस्तिका यह भाग पण्यास्रवकी कुछ प्रतियोम जोड़ा गया जान पड़ता है । बहुत सम्भव है कि इस भागमें उल्लिखित पद्मनन्दि और कार पद्य दोमें उल्लिखित रामचन्द्रके व्याकरण-गुरु एक हो हों। इस प्रशस्ति-खण्ड परसे रामचन्द्र मुमुक्षकी गुरुपरम्परा निम्न प्रकार सिद्ध होती है :-पद्मनन्दि, माधवनन्दि, वसुनन्दि, मौलि ( या मौनि ), श्रीनन्दि। सिद्धान्तशास्त्र के ज्ञाता बसूनन्दिके उल्लेखसे हमें मूलाचार-टीकाके कर्ता वसुनन्दि सैद्धान्तिकका स्मरण आता है, जिनका आशावर ( ई० १२३४ ) ने अनेक बार उल्लेख किया है । किन्तु नामसाम्य मात्रपरसे किन्हीं आचार्योंका एकत्व स्थापित करना उचित नहीं है, क्योंकि वही नाम भिन्न कालमें, एवं एक ही कालमें भी, अनेक जैन आचार्योंका पाया जाता है।
रामचन्द्र ममक्ष एक प्रसिद्ध ग्रन्थकार है। उन्होंने संस्कृत और कन्नड दोनों भाषाओं की रचनाओंका उपयोग किया है। निश्चयसे तो नहीं कहा जा सकता कि वे देशके किस भागके निवासी थे, किन्तु यह निश्चित है कि वे कन्नड भाषा जानते थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थोंका उपयोग किया, जैसे हरिवंश पुराण, महापुराण, बहत्कथाकोश आदि। इस ग्रन्थके प्रकाशित हो जानेपर विद्वान् पाठक संभवत: अन्य अनेक मूल स्रोतोंका पता लगा सकेंगे। ग्रन्थकारके स्वयं कथनानुसार उन्होंने एक और ग्रन्थ शान्तिनाथचरित ( पृ० २३ ) की रचना की थी, किन्तु इस ग्रन्थका अभी तक पता नहीं चला। एक धर्मपरीक्षा नामक ग्रन्थ पद्मनन्दिके शिष्य रामचन्द्र मुनिकृत कहा जाता है, किन्तु निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि रामचन्द्र मुनि और रामचन्द्र ममक्ष एक ही है ( जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग १, दिल्ली, १९५४, १०३३)। रामचन्द्रका संस्कृत व्याकरणका ज्ञान परिपूर्ण नहीं था। उनकी शैलो और मुहावरोंमें बहुत शैथिल्य व स्खलन पाये जाते है । उनकी शैलीके कुछ लक्षण हमें मध्य और मध्योतर कालीन गजरात व उसके आसपासके लेखकोंकी शैलीका स्मरण कराते हैं। हो सकता है कि इनमेंके कुछ लक्षण उन्हें उनके प्राकृत और कन्नड स्रोतोंसे प्राप्त हुए हा।
रामचन्द्र मुमुक्षने अपने लेखनकालका कोई निर्देश नहीं किया। अतः हम केवल स्थल कालावधि हो नियत करने का प्रयत्न कर सकते हैं। उन्होंने हरिवंश, महापुराण और बहत्कथाकोशका उपयोग किया था, अतएव निश्चय ही वे सन् ७८३, ८९७ व ९३१-३२ से पाश्चात्कालीन हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि रामचन्द्र मुमुक्षुको कृतिके आधारसे नागराजने अपना कन्नड चम्प सन् १३३१ में पूर्ण किया था। इस सम्बन्धमें दो और बातोंपर ध्यान देना योग्य है। यदि पूर्वोक्न वनन्दिक एकत्वकी बात सिद्ध हो जाती है तो रामचन्द्र आशाधर ( १३वीं शतीके मध्य ) से पूर्ववतो ठहरेंगे। दुमर, यदि हमारा यह अनुमान ठीक है कि रत्नकरण्डकके टीकाकार प्रभाचन्द्र ने व कयाये रामचन्द्रको इस कृतिसे ली है, तो रामचन्द्र प्रभाचन्द्र (१२वीं शतीका मध्य) से भी पूर्व कालीन सिद्ध होते है। ये कालावधियां और भी सन्निकट आ जाय यदि पण्यावको प्रशस्तिमें उल्लिखित आचार्योम-से किमीका एकत्व व काल-निणय हो सके, तथा पण्यास्रव कथा. कोशका अन्य कथाकोशों, और विशेषतः प्रभा चन्द्र कृत कथाकोशसे पूर्वापरत्वका सम्बन्ध स्थापित किया जा सके।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका
पृष्ठांक
१६२
orr
२३३
श्लोक-क्रमांक
पृष्ठांक क्रमांक १पूजाफल ३०. राज्ञो प्रभावती कथा
१५३ १. कुसुमावती-पुष्पलता कथा १ ३१. वज्रकर्ण कथा
१५५ २. महाराक्षस विद्याधर कथा
३२. वणिकपुत्री नीली कथा
१५७ ३. श्रेष्ठि-नागदत्तचर मण्डूक कथा
३३. अहिंसाणुव्रती चाण्डाल कथा १५९ ४. पुरोहितपुत्री प्रभावती कथा
५ उपवास-फल ५. भूषणवैश्य कथा ६. धनदत्तगोपाल कथा
३४. वैश्यनागदत्तचर नागकुमार कथा ७. वज्रदन्त चक्रवर्ती कथा
३५. भविष्यदत्त वैश्य कथा
१८६ ८. श्रेणिक राजा कथा
३६-३७. धन मित्रपुत्रो दुर्गन्धा व दुर्गन्धकुमार २पंच-नमस्कारपद-फल
कथा १९८
३८. नन्दिमित्र कथा ९. वृषभचर सुग्रीव कथा
२१५ ३९. जाम्बवती कया
२३० १०. मर्कटचर सुप्रतिष्ठितमुनि कथा ११. विन्ध्यकीर्तिपुत्री विजयश्री कथा
४०. ललितघट श्रीवर्धन कुमारादि कथा २३१ १२-१३ वाग्वलिचर अज व रसदग्ववणिक् कथा ६५
४१. चण्ड चाण्डाल कथा १४. सर्प-सर्पिणीचर धरणेन्द्र-पद्मावती कथा ७५
६ दान-फल १५. भूतपूर्व हस्तिनी सीता कथा
४२. श्रोषेण राजा कथा
२३५ १६. दृढसूर्य चोर कथा
४३. वज्रजंघ राजा कथा
२३८ १७. सुभग गोपालचर सुदर्शन सेठ कथा
४४-४५. कबूतर-युगल व कुबेरकान्त सेठ कथा २८३ ३ श्रुतोपयोग-फल ४६. सुकेतु सेठ कथा
२९५ १८. भूतपूर्व हरिण-वालिमुनि कथा ९६ ४७. आरम्भक द्विज कथा
३०१ १९. भूतपूर्व हंस-प्रभामण्डल कथा
९९ ४८. विप्र इन्धक-पल्लव ( नल-नोल ) कथा ३०३ २०. यममुनि कथा
१०४ ४९. विप्रपुत्र वसुदेव-सुदेव कथा २१-२२ सूर्यमित्र द्विज व चाण्डालपुत्री कथा १०६ सूयामत्र द्विज व चाण्डालपुत्रा कथा १०६ ५०. धारण राजा ( दशरथ ) कथा
३०७ २३. विद्युद्वेग चोर ( भीमकेवली ) कथा १२८ ५१. भामण्डल कथा २४. नन्दीश्वर देव ( भूतपूर्व चाण्डाल ) कथा १३२ ५२. प्रामकूटपुत्री यक्षदेवी कथा
३१० २५. सहदेवीचर व्याघ्री कथा १३४ ५३. रुद्रदास पत्नी विनयश्री कथा
३११ ४ शील-फल
५४. वैश्यपत्नी नन्दा ( गौरी ) कथा ३१२ २६-२७. जयकुमार-सुलोचना कथा
१३७ ५५. राजपुत्री विनयश्री कथा २८. कुबेरप्रिय सेठ कथा
१३९ ५६. अकृतपुण्य (धन्यकुमार ) कथा ३१५ २९. जनकपुत्री सीता कथा
१४४ ५७. अग्निला ब्राह्मणी कथा
८१
३१३
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ श्री-रामचन्द्र-मुमुक्षु-विरचितं पुण्यास्रवकथाकोशम्
श्रीवीरं जिनमानम्य वस्तुतत्त्वप्रकाशकम् । वदये कथामयं ग्रन्थं पुण्यानवाभिधानकम् ।।
[१] तद्यथा । वृत्तम् ।
पुष्पोपजीवितनुजे वरबोधहीने जाते प्रिये प्रथमनाकपतेर्गुणाढये। श्रीजैनगेहकुतपं भुवि पूजयन्त्यौ
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥१॥ __ अस्य वृत्तस्य कथा। तथाहि-जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे वत्सकावतीविषयस्यार्यखण्डे सुसीमानगराधिपतिः सकलचक्रवर्ती वरदत्तनामा ऋषिनिवेदकेन विज्ञप्त:-हे देव, अस्य नगरस्य बाह्यस्थितगन्धमादनगिरौ शिवघोषतीर्थकरसमवसृतिः स्थितेति श्रुत्वा सपरिवारस्तत्र गत्वा जिनं पजयित्वा गणधरादीनभिवन्द्य स्वकोष्ठे उपविष्टः। तावत्तत्र द्वे देव्यौ प्रधानदेवैरानीय सौधर्मेन्द्रस्य 'हे देव, तव देव्याविमे' इति समर्पिते दृष्ट्वा चक्रवर्तिना तीर्थ
वस्तुके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेवाले श्री वीर जिनेन्द्रको नमस्कार करके मैं पुण्यास्रव नामक इस कथास्वरूप ग्रन्थको कहता हूँ ।
___वह इस प्रकारसे । वृत्त-- पुष्पोंसे आजीविका करनेवाले (माली)की दो लड़कियाँ सम्यग्ज्ञानसे रहित हो करके भी श्रीजिनमन्दिरकी देहरीकी पूजा करनेके कारण प्रथम स्वर्गके इन्द्रकी गुणोंसे विभूषित बल्लभाएँ हुई । इसीलिए मैं जिनेन्द्र प्रभुकी निरन्तर पूजा करता हूँ ॥१॥
इस वृत्तकी कथा- जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशके भीतर स्थित आर्यखण्डमें सुसीमा नामकी नगरी है। उसका अधिपति वरदत्त नामका सकल चक्रवर्ती (छहों खण्डोंका स्वामी) था। किसी एक दिन ऋषिनिवेदक ( ऋषिके आगमनकी सूचना देनेवाला ) ने उससे प्रार्थना की कि हे देव ! इस नगरके बाह्य भागमें जो गन्धमादन पर्वत है उसके ऊपर शिवघोष तीर्थंकरका समवसरण स्थित है। इस शुभ समाचारको सुनकर उस वरदत्त चक्रवर्तीने परिवारके साथ वहाँ जाकर जिनदेवकी पूजा की। तत्पश्चात् वह गणधर आदिकी वंदना करके अपने कोठेमें बैठ गया । उसी समय वहाँ प्रधान देवोंने दो देवियोंको लाकर सौधर्म इन्द्रसे यह कहते हुए कि हे देव ! ये आपकी देवियाँ हैं, उन्हें उसके लिए समर्पित कर दिया। यह देखकर चक्रवर्तीने
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यालयकथाकोशम्
[१-२ करः पृष्ट इमे पश्चात्किमित्यानीते इति । तीर्थकदाह- इदानीमुत्पन्ने । केन पुण्यफलेनेति चेच्छृणु । अत्रैव नगरे मालाकारिण्यावेकमातृके कुसुमावतीपुष्पलतासंशे पुष्पकरण्डकवनात् पुष्पाणि गृहीत्वा गृहमागच्छन्त्यौ मार्गस्थजिनालयस्य देहलिकां नित्यमेकैकेन कुसुमेन पूजयन्त्यौ अद्य तत्र वने सर्पदष्टे मृत्वेमे देव्यौ संपन्ने । इति श्रुत्वा सर्वे पूजापरा बभूवुरिति ॥१॥
[२] सम्यक्त्वबोधचरणैः खलु वर्जितो ना स्वर्गादिसौख्यमनुभूय वियश्चरेशः। पूजानुमोदजनिताद् भवति स्म पुण्या
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥२॥ अस्य वृत्तस्य कथा । तथाहि-लङ्कानगर्या राक्षसकुलोद्भवो महाराक्षसनामा वियञ्चरराजो मनोहरोद्यानं जलक्रीडाथै गतः सरोवरगतकमले मृतं षट्पदमेकमवलोक्य सवैराग्यस्तत्र भ्रमन् कंचन मुनिं दृष्ट्वा पृष्टवान्-हे मुनिनाथ, मम पुण्यातिशयकारणं कथयेति । कथयति स्म यतिः- अत्रैव भरते सुरम्यदेशस्थपोदनेशकनकरथेन जिनपूजा कारितेति । तत्र तदा त्वं देशान्तरी भद्रमिथ्याष्टिः प्रीतिंकरनामा स्थितोऽसि । पूजानुमोदेन जनितपुण्येनायुरन्ते तीर्थकर प्रभुसे पूछा कि इन्हें पीछे क्यों लाया गया है। इसके उत्तरमें तीर्थकरने कहा कि वे इसी समय उत्पन्न हुई हैं। वे किस पुण्यके फलसे उत्पन्न हुई हैं,यह यदि जानना चाहते हो तो उसे मैं कहता हूँ, सुनो। इसी नगरमें कुसुमावती और पुष्पलता नामकी दो मालाकारिणी ( मालीकी कन्यायें ) थीं जो एक ही मातासे उत्पन्न हुई थीं। वे पुष्पकरण्डक वनसे पुष्पोंको ग्रहण करके घर आते समय मार्ग में स्थित जिनभवनकी देहरीकी एक एक पुष्पसे प्रतिदिन पूजा किया करती थीं। आज उस वनमें पहुँचनेपर उन्हें सर्पने काट लिया था, 'इससे मरणको प्राप्त होकर वे ये देवियाँ उत्पन्न हुई हैं । इस वृत्तान्तको सुनकर सब जन पूजामें तत्पर हो गये ॥१॥
__ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे रहित मनुष्य पूजाके अनुमोदनसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे स्वर्गादिके सुखको भोगकर विद्याधर राजा हुआ है। इसलिये मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥२॥
इस वृत्तकी कथा इस प्रकार है-लंका नगरीके भीतर राक्षसकुलमें उत्पन्न हुआ एक महाराक्षस नामक विद्याधरोंका राजा था । वह मनोहर उद्यानमें जलक्रीड़ाके लिये गया था। वहाँ उसने सरोवरमें स्थित कमलके भीतर मरे हुए एक अमरको देखा । इससे उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उसने वहाँ घूमते हुए किसी मुनिको देखकर पूछा- हे मुनीन्द्र ! मेरे पुण्यके अतिशयका कारण कहिये। मुनिने उसके पुण्यातिशयका कारण इस प्रकार कहा- इसी भरत क्षेत्रके भीतर सुरम्य देशमें स्थित एक पौदन नामका नगर है। उसका स्वामी कनकरथ था। उसने जिनपूजा करायी थी । वहाँ प्रीतिंकर नामसे प्रसिद्ध भद्र मिथ्यादृष्टि तुम देशान्तरसे आकर स्थित थे। उस पूजाकी
१. श . मेकेन । २. ब नापूजयतां । ३. श जनिता भवति । ४. फ श ०गतः कमले। ५.५ कथयति यतिः।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-३]
१. पूजाफलम् ३ मृत्वा यक्षो जातोऽसि । पुण्डरीकिण्यां मुनिवृन्ददावाग्निजनितोपसर्ग निवार्यायुरन्ते तनुं त्यक्त्वा पुष्कलावतीविषयस्थविजयार्धवासिवियच्चरराजतंडिल्लङ्घश्रीप्रभयोः पुत्रो मुदितो भूत्वा कौमारे दीक्षितोऽसि । अमरविक्रमवियच्चरेशश्रियमालोक्य कृतनिदानः समाधिना सनत्कुमारस्वर्गेऽमरो भूत्वा आगत्य त्वं जातोऽसि इति श्रुत्वा स्वपुत्राभ्याममरराक्षसभानुराक्षसाभ्यां राज्यं दत्वा मुनिर्भूत्वा मोक्षं गत इति ॥२॥
[३] भेको विवेकविकलोऽप्यजनिष्ट नाके दन्तैर्गृहीतकमलो जिनपूजनाय । गच्छन् सभां गजहतो जिनसन्मतेः स
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥३॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे मगधदेशस्थराजगृहनगरेशः श्रेणिकः ऋषिनिवेदकेन विज्ञप्तः- हे देव, वर्धमानस्वामिसमवसरणं विपुलाचले स्थितमिति श्रुत्वानन्देन तत्र गत्वा जिनं पूजयित्वा गणधरप्रभृतियतीनभिवन्ध स्वकोष्ठे उपविष्टो यावद्धर्म शृणोति तावजगअनुमोदना करनेसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे तुम आयुके अन्तमें मरकर यक्ष उत्पन्न हुए थे। इस पर्यायमें तुमने पुण्डरीकिणी नगरीके भीतर मुनिसमूहके ऊपर वनाग्निसे उत्पन्न हुए उपसर्गको दूर किया था। इससे तुम आयुके अन्तमें शरीरको छोड़कर पुष्कलावती देशके भीतर स्थित विजयाध पर्वतके ऊपर निवास करनेवाले विद्याधरराज तडिल्लंघके मुदित नामक पुत्र उत्पन्न हुए थे। उसकी ( तुम्हारी ) माताका नाम श्रीप्रभा था। उस पर्यायमें तुमने कुमार अवस्थामें ही दीक्षा ले ली थी। तत्पश्चात् तप करते हुए तुमने अमरविक्रम नामक विद्याधर नरेशको विभूतिको देखकर निदान किया था---उसकी प्राप्तिकी इच्छा की थी। इससे तुम समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होकर प्रथम तो सनत्कुमार कल्पमें देव उत्पन्न हुए थे और फिर वहाँसे च्युत होकर तुम (महाराक्षस विद्याधर ) हुए हो। इस पूर्व वृतान्तको सुनकर महाराक्षस अपने अमरराक्षस और भानुराक्षस पुत्रोंको राज्य देकर मुनि हो गया एवं मुक्तिको प्राप्त हुआ ॥२॥
विवेक ( विशेष ज्ञान ) से रहित जो मेंढक जिनपूजाके अभिप्रायसे दाँतोंके मध्यमें कमलपुष्पको दबाकर सन्मति ( वर्धमान ) जिनेन्द्रकी समवसरणसभाको जाता हुआ मार्गमें हाथीके पैरके नीचे पड़कर मर गया था वह स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ था। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥३॥
इसकी कथा- इसी आर्यखण्डमें मगध देशके भीतर राजगृह नामका नगर है। किसी समय उसका शासक श्रेणिक नरेश था । एक दिन ऋषिनिवेदकने आकर श्रेणिकसे निवेदन किया कि हे देव ! विपुलाचल पर्वतके ऊपर वर्धमान स्वामीका समवसरण स्थित है। इस बातको सुनकर श्रेणिकने वहाँ जाकर आनन्दसे जिन भगवानकी पूजा की और तत्पश्चात् वह गणधरादि मुनियोंकी वन्दना करके अपने कोठेमें बैठ गया । वह वहाँ बैठकर धर्मश्रवण कर ही रहा था कि इतनेमें एक देव लोकको आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिके साथ समवसरणमें आकर उपस्थित हुआ। उसकी
१. प विजयच्चरराज, फ वियच्चरराजा ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ १-४ :
दाश्चर्यविभूत्या मण्डूकाङ्कितमुकुटध्वजोपेतो देवः समायातः । तं दृष्ट्वा साश्चर्यहृदयः श्रेणिकः पृच्छति स्म गणेशम् - अयं किमिति पश्चादागतः केन पुण्यफलेन देवोऽभूदिति । गणभृदाहअत्रैव राजगृहे श्रेष्ठी नागदत्तः श्रेष्ठिनी भवदत्ता । श्रेष्ठी निजायुरन्ते आर्तेन मृत्वा निजभवनपश्चिमवाप्यां मण्डूको जातो निजश्रेष्टिनीं विलोक्य जातिस्मरो जज्ञे । तन्निकटे यावदागच्छति पलाय गृहं प्रविष्टा । स रटन् सरसि स्थितः । एवं' यदा यदा तां पश्यति तदा तदा सन्मुखमागच्छति तदा तदा सा नश्यति । तयैकदागतोऽवधिबोधः सुव्रतनामा मुनिः पृष्टः कः स भेक इति । मुनिनोक्तं नागदत्तश्रेष्ठीति श्रुत्वा तथा स्वगृहं नीत्वा तदुचितप्रतिपत्त्या धृतः । श्रीवीरनाथवन्दनानिमित्तं त्वया कारिता नन्दभेरी निनादाजिनागमनं ज्ञात्वा स भेको दन्तैः कमलं गृहीत्वा अत्रागच्छन् मार्गे तव गजपादेन हतः स देवोऽभूदिति श्रुत्वा भेकोऽपि पूजानुमोदन देवो जातो मनुजः किं न जायते ॥३॥
૪
[ ४ ]
विप्रस्य देहजचरापि सुरो बभूव पुष्पाञ्जलेर्विधिमवाप्य ततोऽपि चक्री । मुक्तश्च दिव्यतपसो विधिमाविधाय नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ||४||
ध्वजा और मुकुटमें मेंढकका चिह्न था । उसको देखकर श्रेणिकके हृदय में बड़ा आश्चर्य हुआ । उसने गणधर से पूछा कि हे भगवन् ! यह देव पीछे क्यों आया है और वह किस पुण्यके फलसे देव हुआ है । गणधर बोले- इसी राजगृह नगर में एक नागदत्त नामका सेठ था । उसकी पत्नीका नाम भवदत्ता था | वह सेठ अपनी आयुके अन्त में आर्त्त ध्यानके साथ मरकर अपने ही भवन के पश्चिम भागमें स्थित बावड़ी में मेंढक उत्पन्न हुआ था । उसे वहाँ अपनी पत्नी को देखकर जातिस्मरण हो गया । वह जब तक उसके समीपमें आता था तब तक वह भागकर घर के भीतर चली जाती थी । वह शब्द करते हुए उस बावड़ी के भीतर स्थित होकर उक्त प्रकारसे जब जब भवदत्ता - को देखता तब तब उसके निकट आता था । परन्तु वह डरकर भाग जाती थी । भवदत्ताने एक समय उपस्थित हुए सुव्रत नामक अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा कि वह मेंढक कौन है । मुनिने कहा कि वह नागदत्त सेठ है । यह सुनकर वह उसे अपने घर ले गई। वहां उसने उसे उसके योग्य आदरसत्कार के साथ रक्खा । तुमने जो श्री महावीर जिनेन्द्रकी वन्दना के लिये आनन्दभेरी करायी थी उसके शब्दको सुनकर और उससे जिनेन्द्रके आगमनको जानकर वह मेंढक दाँतोंसे कमलपुष्पकोलेकर यहाँ आ रहा था। वह मार्गमें तुम्हारे हाथी के पैर के नीचे दबकर मरणको प्राप्त होता हुआ यह देव हुआ है। इस वृत्तान्तको सुनकर यह विचार करना चाहिए कि जब पूजा की अनुमोदनासे मेंढक भी देव हो गया तब भला मनुष्य क्या न होगा - वह तो मुक्तिको भी प्राप्त कर सकता है ॥ ३ ॥
पुष्पांजलि की विधिको प्राप्त करके - पुष्पांजलि व्रतका परिपालन करके - भूतपूर्व ब्राह्मणकी पुत्री पहिले देव हुई, फिर चक्रवर्ती हुई, और तत्पश्चात् दिव्य तपका अनुष्ठान करके मुक्तिको भी प्राप्त हुई । इसलिये मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ||४||
तत्रैव स्थितः एवं। २ प ० वरमपि ब ब्वरापि, श ० चरोपि ।
१. फ सरसि स्थितः स च मण्डूकः ३. श वि ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
ः १-४ ]
१. पूजाफलम् ४
अस्य कथा- - जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे सीतानदी दक्षिणतटयां मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुरेशो वज्रसेनो देवी जयावती । सा चैकदा प्रासादोपरिमभूमौ सखीजनपरिवृता दिव्यासने उपविष्टा दिशमवलोकयन्ती जिनेन्द्रालयात् पठित्वा निर्गतसुकुमारबालकान् विलोक्य 'मम कदा पुत्रो भविष्यति' इति विचिन्त्य दुःखेनाश्रुपातं कुर्वती स्थिता । कयाचित्सख्या भूपतेर्निवेदितम्- 'देव, जयावती देवी रुदती तिष्ठति' इति श्रुत्वा राजा तत्र गत्वा तां विलोक्यार्धासने उपाविश्य स्वोत्तरी येणाश्रुप्रवाहं विलोपयन् पृच्छति स्म देवीं दुःखकारणम् । सा न कथयति तदा कयाचित्सख्योक्तं परपुत्रान् दृष्ट्वा दुःखिता बभूवेति । देवी पुत्रार्थिनीति श्रुत्वा राजा आहे - हे देवि, एहि यावस्तावज्जिनं पूजयितुमिति दुःखं विस्मारयितुं जिनालयं नीता तेन | जिनं पूजयित्वा ज्ञानसागरमुमुत्तुं च वन्दित्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं राजा पृच्छति स्म तस्या देव्याः पुत्रो भविष्यति न वेति । ततो मुनिरुवाच - षट्खण्डाधिपतिश्चरमाङ्गपुत्रो भविष्यतीति । ततः संतुष्टौ दम्पती गृहं गतौ । ततः कतिपयदिनैस्तनुजोऽजनिष्ट । तस्य रत्नशेखर इति नाम कृत्वा सुखेन स्थितौ मातापितरौ । स च वृद्धिंगतः सप्तवर्षानन्तरं तजिनालये जैनोपाध्यायान्तिके पठितुं समर्पितः । कतिपयदिनैः सकलशास्त्रविद्यासु कुशलो जातो युवा च । एकदा चैत्रोत्सवे वनं जलक्रीडार्थं गतः । जलक्रीडानन्तरं तत्र मणिमण्डपस्थे
I
इसकी कथा – जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहमें स्थित सीता नदी के तटपर मंगलावती देशके अन्तर्गत रत्नसंचयपुर है । उसके राजाका नाम वज्रसेन और उसकी पत्नीका नाम जयावती था । वह एक समय महलके ऊपर छतपर सखीजनों के साथ दिव्य आसनपर बैठी हुई दिशाका अवलोकन कर रही थी । इतने में कुछ सुकुमार बालक पढ़ करके जिनालयसे बाहर निकले । उनको देखकर वह 'मुझे कब पुत्र होगा' इस प्रकार चिन्तातुर होती हुई दुःखसे आँसुओं को बहाने लगी । किसी सखीने इस बात की सूचना करते हुए राजासे निवेदन किया कि हे देव ! रानी जयावती रुदन कर रही है । इस बातको सुनकर राजा अन्तःपुरमें गया । उसने वहाँ अर्धासनपर बैठते हुए देवीको रुदन करती हुई देखकर अपने दुपट्टासे उसके अश्रुप्रवाहको पोंछा और दुःखके कारणको पूछा । परन्तु उसने कुछ नहीं कहा। तब किसी सखीने कहा कि यह दूसरोंके पुत्रोंको देखकर दुखी हो गई है । रानी पुत्रकी अभिलाषा करती है, यह सुनकर राजाने उससे कहा कि हे देवि ! आओ जिनपूजाके लिये चलें । इस प्रकार वह दुःखको भुलाने के लिये उसे जिनालय में ले गया । वहाँ राजाने जिन भगवान् की पूजा की और फिर ज्ञानसागर मुमुक्षुकी वन्दना करके धर्मश्रवण करनेके पश्चात् उसने उनसे पूछा कि इस देवीके पुत्र होगा या नहीं । मुनि बोले- इसके छह खण्डों का स्वामी ( चक्रवर्ती ) चरमशरीरी पुत्र होगा । इससे सन्तुष्ट होकर वे दोनों पति-पत्नी घर वापिस गये । तत्पश्चात् कुछ ही दिनोंमें उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । उसका रत्नशेखर नाम रखकर माता और पिता सुखपूर्वक स्थित हुए । वह क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होकर जब सात वर्षका हो गया तब उसे पढ़ने के लिये जिनालय में जैन उपाध्यायके पास भेजा गया । वह थोड़े ही दिनोंमें समस्त शास्त्र - विद्याओं में प्रवीण हो गया। अब वह जवान हो गया था। एक दिन वह वसन्तोत्सवमें जलक्रीड़ा करने के लिये वनमें गया । जलक्रीड़ाके पश्चात् वह मणिमय
मण्डपमें स्थित अनुपम सिंहासनपर
५
१. ब 'आह' नास्ति । २. श विस्मरियितुं । ३ श श्रुतेनन्तरं । ४ प श षट्षंडाधिपति० । ५. श भविष्यति इति तः । ६ प मंडपास्थ ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथा कोश
[ १-४ :
विचित्र सिंहासने आसितो विलासिनीकृतनृत्यं पश्यन् यदा तदा कश्विद्विद्याधरो गगने गच्छंस्तस्योपरि विमानागते तत्रावतीर्णः । इतरेतरदर्शनेन परस्पर स्नेहं गतौ । तत उचितसंभापणानन्तरमेकासने उपविष्टौ । ततो रत्नशेखरेणोक्तं 'कस्त्वं कस्मादागतोऽसि तव दर्शनेन मम प्रीतिः प्रवर्तते' इति । खेचरो ब्रूते - शृणु हे मित्र, अत्रैव विजयार्धे दक्षिणश्रेण्यां सुरकण्ठपुरेशजयधर्मविनयावत्योः पुत्रोऽहं मेघवाहनः सकलविद्यासनाथः । मम पिता महा राज्यं दत्त्वा दीक्षितः । स्वेच्छाविहारं गच्छन् त्वां दृष्टवानहमिति प्रतिपाद्य तं पृष्टवान् खेचरस्त्वं क इति । रत्नशेखरः कथयति - एतद्रत्नसंचयपुरेशवज्रसेनजयावत्योः तनुजोऽहं' रत्नशेखर नामेति कथितौ सखित्वं गतौ । ततो रत्नशेखरेणोक्तं मेरुजिनालयदर्शने मे वाञ्छा वर्तते इति । इतरेणोक्तं तर्हि कुरु विमानारोहणं यावस्तत्रेति । तेनोक्तं- स्वसाधितविद्यया गन्तुमिच्छामि । ततः खेचरेण मन्त्रो दत्तः, इमं जपेति । तदनु परिजनं विसृज्य तमेवोत्तरसाधकं विधाय यावजपति तावत् पञ्चशतविद्याः समागत्य भणन्ति स्म प्रेषणं प्रयच्छेति । ततो दिव्यविमानमारुह्यार्धतृतीयद्वीपेषु स्थितजिनालयान् पूजयित्वा स्वविषयविजयार्ध वासिसिद्ध कूटमागतो जिनं पूजयित्वा तन्मण्डपे यावदुपविश्य स्थितौ तावत्तत्रं विजयार्घदक्षिणश्रेणिस्थरथनूपुरेशविद्युद्वेगसुखकारिण्योः पुत्री मदनमञ्जूषा स्वविलासिनीसहिता जिनं द्रष्टुं समा
६
बैठकर जब वेश्या नृत्यको देख रहा था तब कोई विद्याधर आकाशमार्ग से जाता हुआ उसके ऊपर विमानके आनेपर वहाँ नीचे उतरा । वे दोनों एक दूसरे को देखकर परस्पर में स्नेहको प्राप्त हुए । तब समुचित सम्भाषणके बाद वे दोनों एक आसनपर बैठे । पश्चात् रत्नशेखर ने पूछा- तुम कौन हो और किस कारणसे यहाँ आये हो, तुमको देखकर मुझे प्रीति उत्पन्न हो रही है । विद्याधर बोला सुनो - हे मित्र ! इसी विजयार्धं पर्वतके ऊपर दक्षिण श्रेणिमें सुरकण्ठपुर है । उसका स्वामी
धर्म है । उसकी पत्नीका नाम विनयावती है। इन दोनोंका मैं मेघवाहन नामका पुत्र हूँ जो समस्त विद्याओंका स्वामी है । मेरा पिता मुझे राज्य देकर दीक्षित हो चुका है । मैं स्वेच्छा से विहार करता हुआ जा रहा था कि तुम्हें देखा । इस प्रकार कहकर विद्याधर ने उससे पूछा कि तुम कौन हो । रत्नशेखर बोला- मैं इस रत्नसंचयपुर के अधीश्वर वज्रसेनका रत्नशेखर नामक पुत्र हूँ | मेरी माताका नाम जयावती है। इस प्रकार कहनेपर उन दोनों में मित्रता हो गई । पश्चात् रत्नशेखर ने कहा कि मैं मेरु पर्वत के ऊपर स्थित जिनालयोंके दर्शन करना चाहता हूँ । इसपर मेघवाहन कहा कि तो फिर विमानमें बैठो और चलो वहाँ चलें । उसने कहा कि मैं अपने द्वारा सिद्ध कई विद्या से वहाँ जाना चाहता हूँ । तब विद्याधरने उसे मंत्र दिया और कहा कि इसका जाप करो । तत्पश्चात् वह सेवक समूहको छोड़कर और उसीको उत्तम साधक करके जब तक उसका जाप करता है तब तक पाँच सौ विद्याओंने उपस्थित होकर यह कहा कि हमें आज्ञा दीजिये । तब वे दोनों दिव्य विमानमें बैठकर गये और अढ़ाई द्वीपोंके भीतर स्थित जिनालयों की पूजा करके अपने देशमें स्थित विजयार्ध पर्वतवासी सिद्धकूटके ऊपर आ गये।
वहाँ जिन भगवान्की पूजा करके वे उसके मण्डपमें बठे ही थे कि इतने में वहाँ विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें स्थित रथनूपुरके राजा विद्युद्वेग और रानी सुखकारिणीकी पुत्री मदन
१. फप्रदेश । २. पविनयवत्योः, श विनयावत्यौः । ३ श दृष्टवान् ऽहमिति । ४. फ ब वज्रसेनतनुजोऽहं श वज्रसेनजयावत्यो तनुजोहं । ५. श कथितो । ६. ब जपेत् । ७. ब ०त्तरं साधकं । ८. फ विजयार्द्ध वा सिद्ध० । ९ प तन्मंडपे यावदुपविश्प स्थितौ तौ द्वो तावत्तत्र, फ यावत्तन्मंडपे उपविश्य स्थिती तावत्तत्र ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-४]
१. पूजाफलम ४ गतो तं दृष्टातिविह्वलीबभूव । तद् वृत्तान्तमाकर्ण्य तत्पित्रा तत्रागत्य मित्रेण सार्धं स्वगृहमानीतः। तत्रत्याशेषविद्याधरकुमारभयेन तत्स्वयंवरः कृतः। तया तस्य माला निक्षिप्ता । तदा सर्वे वियच्चराः क्रुद्धाः स्वमन्त्रिवचनमुल्लङ घ्य कदनोद्यता जाताः। तथापि मन्त्रिवचनेन संधानाय तन्निकटमजितनामानं दतं प्रेषयामासः। स गत्वा रत्नशेखरं विज्ञप्तवानहे भूमिप, धूमशेखरप्रभृतिखेचरराजैस्तवान्तिकं प्रस्थापितोऽहम्। ते सर्वेऽपि त्वयि स्निह्यन्ति वदन्ति च खेचरेन्द्रकन्यामस्माकं समर्प्य रत्नशेखरः सुखेनास्तामिति । तस्मात् कन्यां तेषां समर्पयेति श्रुत्वा मेघवाहनमुखमवलोक्योक्तवान्– अनया धिया तवेश्वराणां शिरांसि कबन्धेषु न तिष्ठन्ति । याहि, रणाङ्गणे स्थातुं तेषां निरूपयेति विसर्जितो दूतः । तस्मात्ते सर्वमवधार्य रणावनौ स्थिताः। तेषां स्थितिं विलोक्य रत्नशेखरमेघवाहनौ विद्यया चातुरङ्गं विधाय विद्युद्वेगेन सार्धमाजिरङ्गे स्थितौ । खेचरै त्यवर्गों योद्धं निरूपितो रत्नशेखरेणापि। ततो यथोचितं भृत्यवर्गौ युद्धं चक्रतुः। बृहद्वेलायां खेचरपदातिर्नष्टा, तथाश्वारोहा रथिका योधाश्च । स्वसैन्यभङ्गवीक्षणात् क्रुद्धैर्वियञ्चरैर्मुख्यैः समस्तैर्वेष्टितो रत्नशेखरः । ततो निजहस्तस्थितकोदण्डविसर्जितबाणमुख्यैर्बहून् जघान । ततोऽनेकविद्याबाणा विसर्जितास्तैः। तान् मंजूषा अपनी विलासिनियों ( सखियों ) के साथ जिनदर्शनके लिये आई। वह उसको देखकर अतिशय विह्वल ( कामपीड़ित ) हो गई। उस वृत्तान्तको सुनकर उसका पिता वहाँ आया और मित्रके साथ उसे ( रत्नशेखरको) अपने घरपर ले गया। उसने वहाँ रहनेवाले समस्त विद्याधर कुमारोंके भयसे उसका स्वयंवर किया । मदनमंजूषाने रत्नशेखरके गलेमें माला डाल दी । तब सब विद्याधर ऋद्ध होते हुए अपने मन्त्रियों के वचनका उल्लंघन करके युद्धके लिये तत्पर हो गये। फिर भी उन लोगोंने मंत्रियोंके कहनेसे सन्धिके निमित्त रत्नशेखरके पास अजित नामक दूतको भेज दिया । उसने जाकर रत्नशेखरसे निवेदन किया कि हे राजन् ! धूमशेखर आदि विद्याधर राजाओंने मुझे आपके पासमें भेजा है। वे सब ही आपसे स्नेहपूर्वक कहते हैं कि विद्याधरकन्याको हमें । देकर रत्नशेखर सुखपूर्वक रहे । इसलिये आप उन्हें कन्याको दे दें। इस बातको सुनकर मेघवाहनके मुखकी ओर देखते हुए रत्नशेखरने उससे कहा कि इस दुर्बुद्धिसे तुम्हारे स्वामियों के शिर धड़ोंमें रहनेवाले नहीं हैं। जाओ और उनसे रणाङ्गणमें स्थित होनेके लिये कह दो। इस प्रकार कहकर रत्नशेखरने दूतको वापिस कर दिया। दूतसे वे इस सबको सुन करके युद्धभूमिमें उपस्थित हो गये । उनको युद्धभूमिमें स्थित देखकर रत्नशेखर और मेघवाहन विद्याके बलसे चतुरंग सेनाको निर्मित करके विद्वेगके साथ युद्धभूमिमें आ डटे। विद्याधरोंने भृत्यवर्गको (सेनाको) युद्धके लिये आज्ञा दी। तब रत्नशेखरने भी अपने भृत्यवर्गको युद्ध करनेकी आज्ञा दी। तब यथायोग्य दोनों ओरका भृत्यसमूह युद्ध करने लगा। इस प्रकार बहुत कालके बीतनेपर विद्याधरोंकी सेना ( पदाति ) नष्ट हो गई तथा अश्वारोही व रथारोही सुभट भी नष्ट हो गये। अपनी सेनाको नष्ट होते देखकर क्रोधको प्राप्त हुए मुख्य समस्त विद्याधरोंने रत्नशेखरको वेष्टित कर लिया। तब उसने अपने हाथमें स्थित धनुषसे मुख्य बाणोंको छोड़कर बहुत-से विद्याधरोंको प्राणरहित कर दिया। इससे उन विद्याधरोंने रत्नशेखरके ऊपर अनेक विद्याबाण छोड़े। उनको
१. ब दृष्टुमागता। २. प धूमशिख, श धूमशिखर । ३. श ०वर्गे योद्धं निरूपितो। ४. शब
भृत्यवर्गो।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ १-४ :
प्रतिविद्यावाणैर्विनिर्जितवानुक्तवांश्चे - अद्यापि मम सेवां कृत्वा सुखेन तिष्ठथेति । ततो वरवस्तूपायनेन शरणं प्रविष्टाः । तदनु जगदाश्चर्यविभूत्या समस्तैः सार्धं पुरं प्रविष्टः सुमुहूर्ते कन्यां परिणीतवांश्च । कियन्ति दिनानि तत्र स्थितो मातापित्रोर्दर्शनोत्कण्ठितोऽभूत् । ततो वियश्वरराजैः श्वशुरेण वनितया मित्रेण च विमानमारुह्य नभोऽङ्गणं व्याप्य स्वपुरतदागमं ज्ञात्वा पिता सपरिवारः सन्मुखं ययौ, तं दृष्ट्वा सुखी बभूव । पुरं प्रविश्य मातरं प्रणम्यागतवियच्चराणां प्राघूर्णक्रियां विधाय कतिपयदिनैस्तान् विस सुखेन स्थितः ।
मागतः
एकदा घनवाहनमञ्जूषाभ्यां मेरुं गत्वा तत्रत्यजिनालयान् पूजयित्वा एकस्मिन् जिना - ये यावतिष्ठति तावद् गगनेऽमितगति-जितारिनामानौ चारणाववतीर्णौ । तो वन्दित्वोपविश्य धर्मश्रुतेरनन्तरं पृष्टवान् मम पुण्यातिशयहेतुं मेघवाहनमदनमञ्जषयोरुपरि मोहस्य च कथयेति । कथयति यतिनाथस्तथाहि — अत्रैव भरते आर्यखण्डस्थमृणालनगर्या शंभवनाथतीर्थान्तरे राजाजनि जितारिर्देवी कनकमाला पुरोहितः श्रुतकीर्तिस्तद्ब्राह्मणी बन्धुमती पुत्री प्रभावती । सा राजतनया च जैनपण्डितासमीपे पठिता । एकदा बन्धुमत्या सह सं पुरोहितः स्ववासक्रीडाभवनं क्रीडितुं गतः । क्रीडावसाने निद्रिता सा । भ्रमितुं गतः । बन्धुमती शरीरगत सौरभासक्तागतेन सर्पेण दष्टा मृता । सा तेनागत्यालपिता यदा न वक्ति तदा
८
प्रतिपक्षभूत विद्याबाणोंसे जीतकर रत्नशेखर बोला कि तुम लोग अब भी मेरी सेवा करके सुखपूर्वक रह सकते हो। तब वे विद्याधर उत्तम वस्तुओं को भेंट करके रत्नशेखर के शरण में जा पहुँचे । तत्पश्चात् वह जगत्को आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिको लेकर सबके साथ नगर में प्रविष्ट हुआ। उसने शुभ मुहूर्तमें मदनमंजूषा के साथ विवाह कर लिया । फिर कुछ दिन वहाँ रहकर उसे अपने मातापिताके दर्शन की उत्कण्ठा हुई । तब वह विद्याधर राजाओं, ससुर, पत्नी और मित्र के साथ विमान में बैठकर आकाशको व्याप्त करता हुआ अपने पुरमें आ गया। उसके आगमनको जानकर पिता परिवार के साथ सन्मुख आया और उसको देखकर सुखी हुआ । रत्नशेखरने पुरमें प्रवेश करके माताको प्रणाम किया । तत्पश्चात् साथ में आये हुए विद्याधरोंका अतिथिसत्कार करके उसने कुछ दिनों में उन्हें वापिस कर दिया। इस प्रकार वह सुखसे स्थित होकर कालको बिताने लगा ।
एक समय उसने मेघवाहन और मदनमंजूषाके साथ मेरु पर्वत के ऊपर जाकर वहाँ के जिनालयोंकी पूजा की। पश्चात् वह किसी एक जिनालय में बैठा ही था कि इतने में आकाशसे अमितगति और जितारि नामक दो चारण ऋषि अवतीर्ण हुए । उनकी वन्दना करके उसने धर्मश्रवण किया और फिर उनसे अपने पुण्यातिशय तथा मेघवाहन व मदनमंजूषा विषयक मोहके कारणके कहने की प्रार्थना की। मुनिराजने उसका निरूपण इस प्रकारसे किया - इसी भरत क्षेत्र के भीतर आर्यखण्डमें स्थित मृणाल नगरीमें शम्भवनाथ तीर्थंकरके तीर्थंकाल में जितारि राजा हुआ है । उस पत्नीका नाम कनकमाला था । इस राजाके श्रुतकीर्ति नामका पुरोहित था जिसके बन्धुमती नामकी ब्राह्मणी (पत्नी) और प्रभावती नामकी पुत्री थी । वह पुरोहितपुत्री और राजपुत्री दोनों ही एक जैन पण्डिता के समीपमें पढ़ी थीं। एक दिन वह पुरोहित बन्धुमती के साथ क्रीड़ा करने के लिये अपने निवासस्थान के क्रीड़ाभवनमें गया था । वहाँ वह क्रीड़ाके अन्तमें सो गई थी । पुरोहित घूमने के लिये बाहर निकल गया था । बन्धुमतीके शरीर में स्थित सुगन्धिके कारण वहाँ एक सर्प आया और
१. ब ० वानुक्तांश्च, श ०श्वानुक्तवान्श्च । २. फ 'स' नास्ति । ३. फ स्ववनक्रीडा० ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
ः १-४ ]
१. पूजाफलम् ४
दुःखी बभूव महाशोकं च कृतवान्। संस्कारयितुं च न प्रयच्छति । यदा निद्रापरवशो' ऽभूत्तदा संस्कारिता । तथापि स शोकं न त्यजति । तदा पुत्र्या मुनिसमीपं नीतस्तेन संबोधितः सन् दिगम्बरोऽभूत् । मन्त्रवादपठनेन चारित्रे चलो जातः । विद्यासिद्धिनिमित्तं मन्त्रजपने पुष्पादिकं दातुं पुत्री गिरिगुहामानीता । तया दत्तप्रसवादिना मन्त्रजापं प्रकुर्वतो ऽनेकविद्याः सिद्धाः । तद्बलेन पुरं विधाय स्त्र्यादिकांच भोगान् भुञ्जन्तं पुत्री " संबोधयति । तदा स वदति - पुत्रि, मां मा संबोधयेति । तथापि सा न तिष्ठति । तदा तेन विद्ययाटव्यां त्याजिता । सा धर्मभावनया तत्र स्थिता । पुनस्तेनावलोकिनी प्रस्थापिता । सा तां वदति स्म - हे प्रभावति, यत्र ते प्रतिभाति तत्र ते नयामीति । तयोक्तम् 'कैलासं नय' । नीतां तत्र संस्थाप्य विद्या गता । सा सर्वान् जिनालयान् पूजयित्वा संस्तुत्यैकस्मिन् जिनालये यावतिष्ठति तावत् पद्मावती तत्रागता । देवमभिवन्द्य यावन्निर्गच्छति तावत् कन्यां दृष्ट्रा पृष्टवती का त्वमिति । सा यावदात्मवृत्तान्तं कथयति तावद् देवाः सर्वे समागुः । तान् विलोक्य कन्यया पृष्टा यक्षी 'हे देवि, किमिति देवाः समागताः' इति । तयोक्तम् 'अद्य भाद्रपद शुक्लपञ्चमीदिनं प्रवर्तते । अस्मिन् पुष्पाञ्जलेर्विधानं विद्यते । तत्कर्तु समा
1
उसने उसे काट लिया । इससे वह मर गई । जब पुरोहित वापिस आया तो उसने उसे बुलाया, परन्तु उसने कुछ उत्तर नहीं दिया । इससे वह दुखी होकर अतिशय शोकसंतप्त हुआ । वह अविवेकसे मृत शरीरको संस्कार के लिये भी नहीं देता था । ऐसी अवस्थामें जब वह निद्रा के अधीन हुआ तब कहीं बन्धुमतीके मृत शरीरका दाहसंस्कार किया गया । फिर भी उसने शोकको नहीं छोड़ा | तब उसकी पुत्री प्रभावती उसे मुनिके समीपमें ले गई । मुनिके द्वारा समझाने पर वह दिगम्बर (मुनि) हो गया । परन्तु मंत्रवादके पढ़नेसे वह चारित्रके परिपालनमें अस्थिर हो गया । वह विद्याओंको सिद्ध करनेके लिये मंत्रजापमें पुष्पादिकों को देनेके निमित्त पुत्रीको पर्वतकी गुफा में ले आया । उसके द्वारा दिये गये पुष्पादिसे वह मंत्रोंका जप करने लगा । इस प्रकारसे उसे अनेक विद्याएँ सिद्ध हो गई थीं । उसने विद्या बलसे एक नगर तथा स्त्री आदिको बनाया । वहाँ रहकर वह भोगों को भोगने लगा। जब पुत्रीने उसे समझाने का प्रयत्न किया तब वह बोला कि हे पुत्री ! तू मुझे समझानेका प्रयत्न मत कर । फिर भी वह रुकती नहीं है - समझाती ही है । तब उसने उसे विद्याके द्वारा गहन वनमें छुड़वा दिया । वह वहाँ धर्म - भावना के साथ स्थित रही । फिर उसने अवलोकिनी विद्याको भेजा । उसने वहाँ जाकर उससे कहा कि हे प्रभावती ! जहाँ तुझे अच्छा प्रतीत होता हो वहाँ मैं तुझे ले चलती हूँ । प्रभावतीने कहा कि कैलाश पर्वतपर ले चल । विद्या उसे कैलाश पर्वतपर ले गई और वहाँ स्थापित करके वापिस चली गई । उसने वहाँ सब जिनालयों की पूजा और स्तुति की। तत्पश्चात् वह एक जिनालय में बैठी ही थी कि इतनेमें वहाँ पद्मावती आई । उक्त देवी जिनेन्द्रकी वन्दना करके जैसे ही वहाँ से निकली वैसे ही कन्याको देखकर पूछती है कि तुम कौन हो । वह जब तक अपने वृत्तान्तको कहती है तब तक सब देव वहाँ जा पहुँचे । उनको देखकर कन्याने यक्षीसे पूछा कि हे देवी! ये देव किस लिए आये हैं । यक्षीने कहा कि आज भाद्रपद शुक्ला पंचमी - का दिन है । इसमें पुष्पाञ्जलि व्रतका विधान है। उसे करनेके लिए वे देव यहाँ आये हैं । कन्याने
१. शनिद्रावरवशो । २. क मंन्त्रवादं पठते । ३. फ स्त्रियादिकं च, श वस्वादिकं च । ४. प प्रत्योः 'यतो मे गुरुरा
भुजुंतं । ५. पफ पुत्रीं । ६. श भावनाया । ७. रु तत्रास्थिता । ८. अतोऽग्रे प श
देशो' इत्यधिकः पाठोऽस्ति ।
ह
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-४ :
याताः' इति । तर्हि तत्स्वरूपं मे प्रतिपादय । प्रतिपाद्यते शृणु । तथाहि-- हे कन्ये, भाद्रपदाश्विनकार्तिकमार्गशिरपुष्यमाघफाल्गुनचैत्रमासानां मध्ये कस्यचिन्मासस्य शुक्लपञ्चम्याम् उपवासपूर्वकं पूर्वाद्धं प्रारभ्य यामे यामे चतुर्विंशतितीर्थंकरप्रभृतीनाम् अभिषेक पूजां विधाय चतुर्विंशतितण्डुलपुञ्जकान् जिना कृत्वा यक्षिदेव्याः द्वादशपुञ्जन् कृत्वा प्रदक्षिणीकुर्वन् तीर्थ करनामपूर्वकं पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । कथम् । तथाहि-
त्रिदशराजपूजितं वृषभनाथमूर्जितम् । कनक केतकैर्यजे भवविनाशकं जिनम् ॥ १ ॥ अजितनामधेयकं भुवनभव्य सौख्यकम् । विदितचम्पकैर्यजे भव० ॥२॥ सकलबोधसंयुजं " तमिह संभवं यजे । सुरभिसिन्दुवारकैर्भव० ॥३॥ वरगुणौघसंयुजं तमभिनन्दनं यजे । बकुलमालया सदा भव० ॥४॥ सुमतिनामकं परैः सुरभिवृक्षपुष्पकैः । वरगणाधिपं यजे भव० ॥५॥ त्रिभुवनस्य वल्लभं विदितमम्बुजप्रभम् । नवसिताम्बुजैर्यजे भव० ॥६॥
सुपार्श्वनामरहितघातिकर्मकम् । बहु यजे हि पाटलैर्भव० ॥७॥ 'विहितमुक्तिसौख्यकैः सुरभिनागचम्पकैः । वरशशिप्रभं यजे भव० ||८|| सकलसौख्यकारकैः सुशतपत्रदामकैः । सुविधिनामकं यजे भव० ॥६॥
कहा- तो उस व्रतका स्वरूप मेरे लिए बतलाइए । यक्षीने कहा- बतलाती हूँ, सुनो । हे कन्ये ! भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशिर, पुष्य, माघ, फाल्गुन और चैत्र इन मासों के मध्य में किसी भी मास की शुक्ल पंचमी दिन उपवासपूर्वक पूर्वाह्न कालसे प्रारम्भ करके प्रत्येक प्रहर में चौबीस तीर्थंकरों आदिके अभिषेक व पूजाको करके चौबीस तंदुलपुंजोंको जिनेन्द्रोंके आगे करके तथा बारह पुंजोंको यक्षिदेवीके आगे करके प्रदक्षिणा करते हुए तीर्थंकरोंके नामनिर्देशपूर्वक पुष्पांजलिका क्षेपण करे । वह किस तरहसे करे, इसका स्पष्टीकरण करते हैं
जो वृषभनाथ जिनेन्द्र इन्द्रोंसे पूजित, तेजस्वी ( या अतिशय बलशाली ) और संसारके विनाशक हैं उनकी मैं कनक (चम्पा या पलाश) व केतकी के फूलोंसे पूजा करता हूँ ॥१॥ मैं लोकके समस्त भव्य जीवोंको सुख देनेवाले एवं संसारके नाशक अजित नामक जिनेन्द्रकी विदित चम्पक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ||२|| मैं यहाँ केवलज्ञान से संयुक्त होकर संसारको नष्ट करनेवाले उन सम्भवनाथ जिनेन्द्रकी सुगन्धित सिन्दुवारक ( श्वेतपुष्प ) पुष्पोंसे पूजा करता हूँ || ३ || जो अभिनन्दन जिनेन्द्र उत्तमोत्तम गुणोंके समूहसे सहित तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं बकुलपुष्पों की माला से पूजा करता हूँ || ४ || जो सुमति जिनेन्द्र चातुर्वर्ण्य संघ ( अथवा गणधरों ) के अधिपति होकर संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्कृष्ट सुरभि वृक्षके फूलोंसे पूजा करता हूँ || ५ | | कमलके समान कान्तिवाले जो पद्मप्रभ जिनेन्द्र तीन लोकके प्रिय एवं संसार के नाशक हैं उनकी मैं उत्तम श्वेत कमलोंके द्वारा पूजा करता हूँ || ६ || जो सुपार्श्व नामक जिनेन्द्र लोकमें घातिया कर्मोंसे रहित होकर संसारके नाशक हैं उनकी मैं पाटल पुष्पोंसे बहुत पूजा करता हूँ || ७|| मैं मुक्तिसुखको करनेवाले सुगन्धित नागचम्पक फूलोंसे उत्कृष्ट चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र की पूजा करता हूँ। वे जिनेन्द्र संसार के नाशक हैं ||८|| मैं समस्त सुखको उत्पन्न करनेवाले उत्तम कमलपुष्पों की मालाओंसे संसारके नाशक सुविध
१. पूर्वा । २. प श प्रभृतीनां । ३. श जिनाकृत्वा । ४. प श द्वादशपुञ्जकान् प्र० । ५ प संयुजे, संयुते । ६. प संयुजे, फ संयजे । ७. श घात । ८. शविहत ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. पूजाफलम् ४ प्रचुरभृङ्गसंचरैविकचनीलकैरवैः । जगति शीतलं यजे भव० ॥१०॥ विबुधचित्तैनन्दनं क्षितिपविष्णुनन्दनम् । कुवलयैर्यजे विभुं भव० ॥११॥
अरुणपनकान्तिकं सुगुणवासुपूज्यकम् । प्रवरकुन्दकैर्यजे भव० ॥१२॥ विपुलसौख्यसंयुजं विमलनामकं यजे । प्रवरमेरुपुष्पकैर्भव० ॥१३॥ वरचरित्रभूषकं नुतमनन्तनामकम् । कनकपद्मकैर्यजे भव० ॥१४॥ निखिलवस्तुबोधकं विदितधर्मनामकम् । नवकदम्बकैर्यजे भव० ॥१५।। भुवनवर्तिकीर्तिकं परमशान्तिनामकम् । विचकिलैर्यजे सदा भव० ॥१६॥ तिलकपुष्पदामकैः प्रचुरपुण्यकारकैः । जगति कुन्थुमायजे भव० ॥१७॥
अरमनङ्गवर्जितं सकलभव्यवन्दितम् । कुरबकेतकैर्यजे भव० ॥१८॥ तमिह मल्लिनामकं त्रिजगदीशनाथकम् । कुटजपुष्पकैर्यजे भव० ॥१९॥ गुणनिधिं च सुब्रतं यमनियमसुव्रतम् । सुमुचकुन्दकैर्यजे भव० ॥२०॥ भुवि नमि सुनामकं भवपयोधिपोतकम् । विमलकुन्दकैर्यजे भव०॥२१॥
शशिकरौघकीर्तिदं विशदनेमिनामकम् । तमरविन्दकैर्यजे भव० ॥२२॥ ( पुष्पदन्त ) जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ ॥९॥ मैं बहुत-से भौरोंके संचारसे संयुक्त ऐसे विकसित नील कमलोंके द्वारा संसारके नाशक शीतल जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ ॥१०॥ मैं देवोंके चित्तको आनन्दित करनेवाले राजा विष्णुके पुत्र श्री श्रेयांस जिनेन्द्रकी कुमुदपुष्पोंसे पूजा करता हूँ। वे भगवान् संसारके नाशक हैं ॥११॥ जो वासुपूज्य जिनेन्द्र लाल कमलके समान कान्तिवाले और संसारके नाशक हैं उन उत्तमोत्तम गुणोंसे संयुक्त वासुपूज्यकी मैं उत्तम कुन्दपुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१२॥ जो विमल जिनेन्द्र निर्मल सुखसे सहित और संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्तम मेरुपुष्पोंसे पूजा करता हूँ॥१३॥ जो देवादिकोंसे स्तुत अनन्त जिनेन्द्र उत्तम चारित्रसे विभूषित एवं संसारके नाशक हैं उनकी मैं चम्पक और कमल पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१४॥ जो जिनेन्द्र 'धर्म' इस नामसे जाने गये हैं ( प्रसिद्ध हैं), समस्त वस्तुओंके जानकार ( सर्वज्ञ ) और संसारके नाशक हैं उनकी मैं नवीन कदम्ब वृक्षके फूलोंसे पूजा करता हूँ॥१५॥ जिनकी कीर्ति लोकमें विस्तृत है तथा जो संसारके नाशक हैं उन उत्कृष्ट शान्तिनाथ नामक जिनेन्द्रकी विचकिल पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१६॥ मैं लोकमें संसारदुःखके नाशक कुन्थु जिनेन्द्रकी अतिशय पुण्यको करनेवाले तिलक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१७॥ जो अर जिनेन्द्र कामसे रहित, समस्त भव्य जीवोंसे वंदित एवं संसारके नाशक हैं उनकी मैं कुरवक और केतकी पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१८॥ जो मल्लि नामक जिनेन्द्र यहाँ तीन लोकके स्वामियोंके-इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्तियोंके- अधिपति हैं उनकी मैं कुटज पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥१९॥ जो सुव्रत जिनेन्द्र गुणोंके भण्डार होकर यम, नियम व उत्तम व्रतोंसे सहित तथा संसारका नाश करनेवाले हैं उनकी मैं सुन्दर मुचकुन्द पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥२०॥ जो उत्तम नामवाले नमि जिनेन्द्र संसाररूप समुद्रसे पार होनेके लिए नावके समान होकर उक्त संसारका नाश करनेवाले हैं उन नमि जिनेन्द्रकी मैं निर्मल कुन्द पुप्पोंके द्वारा पूजा करता हूँ ॥२१॥ मैं कमलपुष्पोंके द्वारा उन नेमिनाथ जिनेन्द्रकी पूजा करता हूँ जो कि चन्द्रकी किरणोंके समूहके समान निर्मल कीर्तिके देनेवाले, पवित्र और संसारके नाशक हैं ॥२२॥ जो उत्कृष्ट पार्श्व नामक जिनेन्द्र
१ प श विबुद्धचित्त । २. श भुवनकीर्तिकीतिकं । ३. फ विचिकिल०। ४. फ कुरवकर्यजे। ५. श पुष्पकर्जजे । ६. प जमनियमसूव्रतम, फ वरविनेयसूक्तम् । ७.फ विमलगोज्जकै ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-४:
प्रवरपार्श्वनामकं हरितवर्णदेहकम् । सुकणवीरकैर्यजे भव० ॥२३॥ सुभगवर्धमानकं विबुधवर्धमानकम् । स्तवकपुष्पकैर्यजे भव० ॥२४॥ इति विश्वलतान्तगणेन जिनं विगताखिलदोषसमूहमहम्। वरमुक्तिसुखाय सदा सुयजे परिशुद्धशरीरवचोमनसा ॥२५॥
इति अमुना प्रकारेण पञ्चदिनानि यावत् रात्रावपि जागरणपूर्वकमेव कृत्वा द्वितीयाह्ने यामद्वयं तथा प्रवृत्य' पारणायां चतुर्विंशतियतीन् व्यवस्थाप्य न लभेत चेत् पञ्च एकं च, सभर्तृपुण्याङ्गनाद्वयस्य भोजनवस्त्रादिकं दत्त्वैकैकं मातुलिङ्गं देयम् । एवं चतुर्दिनानि पुष्पाञ्जलि विधाय नवम्यामुपवासं कृत्वा तथैवाभिषेकादिकं चरमाञ्जलिः कर्तव्यः। उक्तप्रकारेण पुष्पाणि न लभेत चेत् पञ्चप्रकारैः पुष्पाञ्जलिं कुर्यात् । एवं त्रिवर्षेरुद्यापने चतुर्विंशतिप्रतिमाः कारयित्वा जिनालयेभ्यो दद्याषिभ्यः पुस्तकादिकं चातुर्वर्णार्य यथाशक्त्या भोजनादिकं देयम् , पटहझल्लरीकलशभृङ्गारारार्तिके धूपदहनचन्द्रोपकं ध्वजचामरादिकं देयम् । एतत्फलेने स्वर्गादिसुखं लभेत । अथ नोद्यापनादौ शक्तिः, तर्हि पञ्च वर्षाणि सुवर्णवर्णतण्डुलान् पुष्पाञ्जलिसंकल्पेन क्षिपेत् , तत्फलं प्राप्नुयादित्युक्ते कन्ययोक्तम्-मयायं विधिहरितवर्ण शरीरके धारक तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं उत्तम कणवीर पुष्पोंके द्वारा पूजा करता हूँ ॥२३॥ जो सुन्दर वर्धमान जिनेन्द्र देवोंके द्वारा अभ्युदयको प्राप्त तथा संसारके नाशक हैं उनकी मैं स्तवक पुष्पोंसे पूजा करता हूँ ॥२४॥ इस प्रकारसे मैं उत्तम मोक्षको प्राप्त करनेके लिए समस्त दोषसमूहसे रहित जिनेन्द्र देवकी पवित्र मन, वचन और कायसे सब पुष्पोंके समूहसे निरन्तर पूजा करता हूँ ॥२५॥
इस प्रकार पाँच दिन तक रात्रिमें भी जागरणपूर्वक ही करके दूसरे दिन दो प्रहर तक उसी प्रकारसे प्रवृत्ति करके पारणाके समय चौबीस मुनियोंकी व्यवस्था करे, यदि चौबीस मुनि प्राप्त न हों तो पाँच मुनियोंकी अथवा एक मुनिकी व्यवस्था करे तथा दो पवित्र सधवा स्त्रियोंको भोजन वस्त्रादि देकर एक-एक मातुलिंग फल देवे । इस प्रकार चार दिन पुष्पांजलिको करके नवमीके दिन उपवास करता हुआ उसी प्रकारसे अभिषेकादिपूर्वक अन्तिम अंजलिको करे । उक्त प्रकारसे यदि पुष्पोंको न प्राप्त कर सके तो पाँच प्रकारोंसे पुष्पांजलिको करे । इस प्रकार तीन वर्षों में उद्यापन करते समय चौबीस जिनप्रतिमाओंको कराकर जिनालयोंके लिए देवे, ऋषियोंके लिए पुस्तकादिको देवे; चातुर्वर्ण संघके लिए शक्तिके अनुसार भोजन आदिको देवे; तथा पटह, झालर, कलश, आरार्तिक, धूपदहन, चंदोवा, ध्वजा और चामर आदिको देवे । इस व्रतके फलसे स्वर्गादिका सुख प्राप्त होता है । यदि उद्यापनादि विषयक शक्ति न हो तो पाँच वर्ष तक पुष्पांजलिके संकल्पसे सुवर्णके समान वर्णवाले तन्दुलोका क्षेपण करे और उसके फलको प्राप्त करे ।
इस प्रकार यक्षीके कहनेपर कन्याने कहा कि मैं इस विधिको ग्रहण करती हूँ। तब उस
१.फ वर्द्धनामकं । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श अमुना पंचप्रकारेण । ३. ब प्रवृत्या । ४.१ लभेत्पंचेत्पंच, फ लभेते चेत् पंच, श न लभरपंचेत्संच । ५. फ प्रकाराणि । ६. फ लभेत् पंच । ७. प श तृभिर्वर्षे उद्यापने, ब त्रिभिवर्षेकद्यापने। ८. फ ब चातुर्वाय । फ दद्या: रिषिभ्यः । फ 'पडह....."देयम्' इत्येतनास्ति । ९. प श पडह। १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श भृङ्गारात्तिक । ११. फ एतत्फले । १२. पश
शक्ति । १३. ५ श सुवर्णतंदुलान् ।।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
:१-४]
१. पूजाफलम् ४ गुहयते । तयोक्तम्-- गृहाण, मनुजानां प्रकाशयेति । तदनु पञ्चदिनानि पद्मावत्या' तथा चकार । गतेषु देवेषु पद्मावत्यानीय मृणालपुरे धृता सा । पुण्यप्रभावतः प्राणिनां किं किं न संपद्यते । ततः सा विप्रपुत्री भूतिलकजिनालयं प्रविष्टा देवमभिवन्द्य त्रिभुवनस्वयंभुवमृषि च तत्समीपे दीक्षां ययाचे। तेनोक्तम्--भद्रं कृतम्, त्रिदिनान्येव तवायुरिति । ततो दीक्षां विभृत्य पुष्पाञ्जलिविधि प्रकाशयन्ती स्थिता। इतो जनकेन सा क्व कथं तिष्ठतीत्यवलोकिनी प्रेषिता । तया स्वरूपे निरूपिते आत्मसमाना कर्तुं उपसर्गादिना तपोविनाशार्थ विद्याः प्रेषिता नयेन तपोविनाशं कर्तुमशक्ता उपसर्ग कर्तुं लग्नाः। तथाप्यचलचित्ता धर्मध्यानेन स्थिता । व्रतप्रभावेन धरणेन्द्रः पद्मावतीसमेतः समायातः। तमवलोक्य नष्टा विद्याः। समाधिना तनुं तत्याज, अच्युतकल्पे पद्मावर्तविमाने पद्मनाभनामा महर्द्धिको देवोऽजनि । स्वपितुः संबोधनार्थ जगदाश्चर्यविभूत्यागत्य पितरं संबोध्य स्वगुरोरन्ते दीक्षां ग्राहितवान् स्वगुरुं च पूजयित्वा स्वर्गलोकं च गत्वा विभूत्या स्थितः। श्रुतकीर्तिरपि समाधिना तत्रैव स्वर्गे प्रभासविमाने प्रभासनामा देवोऽभूत् । तत्र पद्मनाभस्य पट्टमहादेवीषु बहीषु गतासु काचित् पद्मिनीदेवी जाता। तस्मादागत्य पद्मनाभदेवस्त्वं जातोऽसि । प्रभासो मेघवाहनो यक्षीने कहा कि ग्रहण कर और मनुष्यों के मध्यमें उसे प्रकाशित कर। तत्पश्चात् पद्मावती के साथ उसने पाँच दिन तक वैसा ही किया । पश्चात् देवोंके चले जानेपर पद्मावतीने लाकर उसे (प्रभावतीको ) मृणालपुरमें पहुँचा दिया। ठीक है, पुण्यके प्रभावसे प्राणियोंको कौन कौन-सी सम्पत्ति नहीं प्राप्त होती है ? सब ही अभीष्ट सम्पत्ति प्राप्त होती है । पश्चात् वह ब्राह्मणकन्या भूतिलक जिनालयके भीतर गई। वहाँ उसने जिनेन्द्रदेव तथा त्रिभुवन स्वयम्भू ऋषिकी वन्दना करके उनके समीप दीक्षाकी प्रार्थना की । ऋषिने कहा- तूने बहुत अच्छा किया, अब तेरी तीन दिनकी ही आयु शेष है । तब वह दीक्षाको धारण करके पुष्पांजलिकी विधिको प्रकट करती हुई स्थित रही।
इधर पिताने वह कहाँ और किस प्रकार है, यह ज्ञात करनेके लिए अवलोकिनी विद्याको भेजा । उस अवलोकिनी विद्यासे उसके वृत्तान्तको जानकर पुरोहितने उसे अपने समान करनेके लिए उपसर्ग आदिके द्वारा तपसे भ्रष्ट करनेके विचारसे विद्याओंको भेजा। किन्तु जब वे विद्यायें उसे नीतिपूर्वक भ्रष्ट न कर सकी तब उन सबने उसके ऊपर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया । फिर भी प्रभावती स्थिरचित्त रहकर धर्मध्यानसे स्थित रही। तब व्रतके प्रभानसे पद्मावतीके साथ वहाँ धरणेन्द्र आया । उसको देखकर विद्याएँ भाग गई। प्रभावती समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर अच्युत स्वर्गमें पद्मावत विमानके भीतर पद्मनाभ नामक महर्द्धिक देव हुई। तब वह ( पद्मावतीका जीव ) अपने पिताको सम्बोधित करनेके लिए संसारको आश्चर्यचकित करनेवाली विभूतिके साथ वहाँ आया। उसने पिताको सम्बोधित करके उसे अपने गुरुके पासमें दीक्षा ग्रहण करा दी। पश्चात् वह अपने गुरुकी पूजा करके स्वर्गलोक वापिस चला गया और वहाँ विभूतिके साथ रहने लगा । श्रुतकीर्ति भी समाधिके प्रभावसे उसी सोलहवें स्वर्गमें प्रभास विमानके भीतर प्रभास नामक देव हुआ। वहाँ पद्मनाम देवकी बहुत-सी अग्र देवियोंके मरणको प्राप्त हो जानेपर कोई पद्मिनी नामकी देवी उत्पन्न हुई। उक्त स्वर्गसे आकर पद्मनाभ देव तुम उत्पन्न हुए हो, प्रभास
१. फ पद्मावत्यां। २. फ प्रकाशयती। ३. फ लोकिनीविद्यां प्रेषिता, शलोकनी प्रेषिता । ४. पश
आत्मसमानं । ५. श पद्मनी ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-५ :
ऽजनि । पद्मिनी मदनमञ्जूषा जातेति स्नेहकारणं श्रुत्वा पुष्पाञ्जलिविधानं गृहीत्वा मुनीन् नत्वा स्वपुरमागतः । पुष्पाञ्जलविधानं कुर्वन् स्थितः ।
अथास्थानगतस्य भूपतेर्वनपालेन कमलं दत्तम् । तत्र मृतभ्रमरमालोक्य वैराग्याद्रत्नशेखराय राज्यं दत्त्वा राजसहस्रेण यशोधरमुनिसमीपे दीक्षां बभार । इतो रत्नशेखरायुधागारे चक्रमुत्पन्नम् । षट्खण्डवसुमतीं प्रसाध्य स्वपुरमागतः । पितुः कैवल्यवार्तामा कर्ण्य सपरिजनो वन्दितुं गतः । वन्दित्वागत्य मेघवाहनं खेचरेशं कृत्वा राज्यं कुर्वतो मदनमञ्जूषया कनकप्रभनामा' पुत्रो जातः । नवनवतिलक्ष- नवनवतिसहस्र-नवशत- नवनवतिपूर्वाणि राज्यं कृत्वा तत्रोल्कापातमवलोक्य वैराग्यं गतः । ततः कनकप्रभाय राज्यं दत्त्वा मेघवाहनादि - बहुभिः क्षत्रियैस्त्रिगुप्तमुनिनिकटे दीक्षितः केवलमुत्पाद्य मोक्षं गतो मेघवाहनोऽपि । मदनमञ्जूषादयस्तपसा यथोचित स्वर्गे पुण्यानुसारेण देवादयो जाता इति सकृजिनपूजया द्विजनन्दना एवंविधभूतिभाजनमभून्नित्यं जिनपूजया किं प्रष्टव्यम् ॥४॥
[ ५ ] वैश्यात्मजो विगतधर्ममनाः सुमूढो रागी सदा जगति भूषणरूढनामा ।
देव मेघवाहन उत्पन्न हुआ है, और पद्मिनी देवी मदनमंजूषा उत्पन्न हुई है । इस प्रकार स्नेहके कारणको सुनकर और पुष्पांजलिके विधानको ग्रहण करके मुनियोंको प्रणाम करता हुआ वह रत्नशेखर अपने नगरमें वापिस आ गया । तत्पश्चात् वह पुष्पांजलि के विधानको करता हुआ स्थित हो गया ।
किसी समय जब राजा दरबार में स्थित था तब उसे वनपालने आकर एक कमल-पुष्प दिया । उसमें मरे हुए भ्रमरको देखकर राजा विरक्त हो गया । उसने रत्नशेखरको राज्य देकर एक हजार राजाओं के साथ यशोधर मुनिके समीपमें दीक्षा धारण कर ली । इधर रत्नशेखर की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह छह खण्डरूप समस्त पृथिवीको जीतकर अपने नगर में वापिस आ गया। जब उसने पिता के केवलज्ञान उत्पन्न होनेकी बात सुनी तब वह कुटुम्बीजन एवं भृत्यवर्ग के साथ उनकी वन्दना करने के लिए गया । वन्दनाके पश्चात् वह वापिस आया और मेघवाहनको विद्याधरोंका राजा बनाकर राज्य करने लगा । कुछ समय के पश्चात् उसके मदनमंजूषा पत्नी से कनकप्रभ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । निन्यानबे लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे पूर्व तक राज्य करके वह रत्नशेखर चहाँ बिजली के पातको देखकर वैराग्यको प्राप्त हुआ । इससे वह कनकप्रभके लिए राज्य देकर मेघवाहन आदि बहुत-से राजाओं के साथ त्रिगुप्त मुनिके निकटमें दीक्षित हो गया और केवलज्ञानको उत्पन्न करके मोक्षको प्राप्त हुआ। मेघवाहन भी मोक्षको प्राप्त हुआ । मदनमंजूषा आदि तपके प्रभावसे अपने अपने पुण्यके अनुसार यथायोग्य स्वर्गमें देवादिक उत्पन्न हुए । इस प्रकार जब वह पुरोहितकी पुत्री एक बार जिन पूजाके प्रभावसे इस प्रकारकी विभूतिका भाजन हुई तब भला निरन्तर की जानेवाली जिनपूजा के प्रभावसे क्या पूछना है ? अर्थात् तब तो प्राणी उसके प्रभावसे यथेष्ट सुख प्राप्त करेगा ही || ४ ||
संसार में भूषण इस नामसे प्रसिद्ध जो वैश्यपुत्र धर्माचरण से रहित, अतिशय मूख और
१. फ मदनमंजूषा साकं कनकप्रभानामः ।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
:१-५]
.
१. पूजाफलम् ५
देवोऽभवत्स जिनपूजनचेतसैव
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥५॥ अस्य कथा । तथाहि'-रामायणे रामो रावणं निहत्य पुनरयोध्यामागतः सन् भरतायोक्तवान्-यदभीष्टं पुरं तद् गृहाण । भरतेनोक्तम्-महाप्रसादः, त्रिलोकशिखरमभीष्टं, तद् गृह्यते । रामेणोक्तम्-कियत्कालं राज्यं कृत्वा मया सह तद् गृहाण । भरतेनोक्तम्-वारद्वयमन्तरितम्, अत इदानीमेव गृह्यते, इति गच्छन् लक्ष्मीधरेण धृतः। रामेणोक्तम्-मम चित्तवृत्त्या गन्तव्यमिति स्थापितः। रागवर्धननिमित्तं जलकेली प्रारब्धा। भरतोऽन्तःपुरेण विलासिनीजनेन च क्रीडितुं प्रेषितः । स गत्वा सरोवरेऽनुप्रेतां भावयन् स्थितः । जनेन सहागमनसमये स्तम्भमून्मूल्य रामलक्ष्मीधरावुल्लंघ्य निर्गतत्रिजगद्भूषणेन राज्यप्रासादमूलस्तम्भन भरतमेलापकमवलोक्य मारयितुमागतेन च्यादिजनस्योत्पादितभयेन भरतसंत्रासादुपशान्तचित्तेन निजस्कन्धमारोप्य पुरं प्रवेशितः । तदनु लोकाश्चर्य जातम् । स च हस्ती तद्दिनमादिं कृत्वा कवलं पानीयं च न गृह्णाति । तत्परिचारकैरागत्य राघवाय निवेदितम् । चतुर्भिरपि गत्वा संबोधितोऽपि किंचिदपि नाभ्युपगच्छति । रामादयः सचिन्ता बभूवुः। एवं त्रिषु दिनेषु गतेषु ऋषिनिवेदकेनानगत्य विज्ञप्तः- देशभूषणसमवसरणं भवत्पुण्योदयेन महेन्द्रोद्याने रागी था वह केवल जिनपूजामें मन लगानेसे ही देव हुआ है। इसीलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभु की पूजा करता हूँ ॥५॥
____ इसकी कथा- रामायण ( पद्म चरित ) में जब रामचन्द्र रावणको मारकर अयोध्या नगरीमें वापिस आये तब उन्होंने भरतसे कहा कि जो नगर तुम्हें अभीष्ट हो उसे ग्रहण करो। यह सुनकर भरतने कहा कि हे महाभाग ! मुझे तीन लोकका शिखर ( सिद्धक्षेत्र ) अभीष्ट है, उसे मैं ग्रहण करता हूँ। तब रामने कहा कि कुछ समय राज्य करके उसे मेरे साथ ग्रहण करना । इसपर भरतने कहा कि इस कार्यमें मुझे दो बार विघ्न उपस्थित हुआ है । अतएव अब मैं उसे इसी समय ग्रहण करना चाहता हूँ। यह कहकर भरत जानेको उद्यत हो गया। तब उसे लक्ष्मणने पकड़ लिया। राम बोले कि हे भरत, तुम्हें मेरे मनके अनुसार चलना चाहिए- मेरी आज्ञा मानना चाहिए, ऐसा कह कर उन्होंने भरतको दीक्षा ग्रहण करनेसे रोक दिया । उन्होंने भरतको अनुरक्त करनेके लिए जलक्रीड़ाकी योजना करते हुए भरतको अन्तःपुर और विलासिनीजनके साथ क्रीड़ाके निमित्त भेज दिया । वह जाकर सरोवरके ऊपर बारह भावनाओंका चिन्तन करता हुआ स्थित रहा। जन समुदायके साथ यात्राके समयमें त्रिलोकमण्डन हाथी खम्भेको उखाड़कर तथा राम-लक्षमणको लांधकर वहाँ आ पहुँचा। राज्यरूप प्रासादका मूल स्तम्भभूत वह हाथी भरतके निमित्तसे आयोजित इस मेलाको देखकर मारनेके लिए आया। इससे स्त्री आदि जनोंको बहुत भय उत्पन्न हुआ। किन्तु भरतके द्वारा पीड़ित होकर उसका मन शान्त हो गया। उसने भरतको अपने कन्धेपर बैठाकर नगरमें पहुँचाया । यह देखकर लोगोंको बहुत आश्चर्य हुआ। उस दिनसे उस हाथीने खाना-पीना छोड़ दिया । तब उसकी परिचर्या करनेवाले सेवक जनोंने आकर इसकी सूचना रामचन्द्रको दी । तब उसे रामचन्द्र आदि चारों ही भाइयोंने जाकर समझाया । किन्तु उसने खाना-पीना आदि कुछ भी स्वीकार नहीं किया। इससे रामादिको बहुत चिन्ता हुई । इस प्रकार तीन दिन बीत गये । इस बीचमें ऋषिनिवेदकने आकर रामचन्द्रसे निवेदन किया कि आपके पुण्योदयसे महेन्द्र उद्यानमें
१. प फ श 'तथाहि' नास्ति, ब-प्रती त्वस्ति । २. फ महाप्रसाद ! । ३. श कवलपानीयं ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-५ स्थितमिति । निधानं प्राप्तनिर्धना' इव हृष्टाः सपरिजनेन वन्दितुं गताः। वन्दित्वा स्वकोष्ठे उपविष्टाः । पदार्थावबोधनान्तरं भगवान पद्मन पृष्टः- भरतसंत्रासानन्तरं त्रिजगद्भूषणस्य कोपाकरणे कवलादिपरिहरे किं कारणमिति । भगवतोक्तं - जातिस्मरणम् । तर्हि भवसंबन्धिनिरूपणे महाप्रसादः । मुनिरुभयोर्भवान्तरमाह
अस्यामयोध्यायां क्षत्रियसुप्रभप्रह्लादिन्योरपत्ये सूर्योदयचन्द्रोदयौ जातौ। सह वृषभस्वामिना प्रबजितौ मरीचिना सह नष्टौ । बहुभवान् तिर्यग्गतो परिभ्रम्य कुरुजङ्गलदेशे हस्तिनापुरेशहरिपतिमनोहर्योश्चन्द्रोदयः कुलंकरनामा पुत्रोऽभूत् । श्रीदामानाम्नों राजपुत्री परिणीतवान् । तत्प्रधानविश्वावस्वग्निकान्त्योः सूर्योदयो मूढश्रुतिनामा पुत्रोऽभूत् । कुलं करो राज्ये, इतरः प्राधान्ये स्थितः। एकदा तापसान् पूजयितुं गच्छता कुलंकरेणाभिनन्दनभट्टारकानभिवन्द्य धर्ममाकर्ण्य व्रतानि गृहीतानि । मुनिनोक्तम्-शृणु वृत्तान्तमेकम् । तव पितामहो रगस्यनामा तापसत्वेन मृत्वा तापसाश्रमसमीपे शुष्ककाष्ठकोटरे सर्पत्वमापनः, इति निरूपिते तं च तथाविधमवलोक्य दृढव्रती बभूव । तानि च दृढव्रतानि मूढश्रुतिना नाशितानि । तावुभौ देशभूषण केवलीका समवसरण ( गन्धकुटी ) स्थित है। यह सुनकर जैसे निर्धन मनुष्य अकस्मात् निधिको पाकर हर्षित होते हैं वैसे ही वे सब हर्षको प्राप्त हुए। उन्होंने परिवारके साथ जाकर केवलीकी वन्दना की। पश्चात् वे अपने कोठेमें बैठ गये। धर्मश्रवणके पश्चात् रामचन्द्रने पूछा कि हे भगवन् ! भरतसे पीड़ित होकर त्रिलोकमण्डन हाथीने क्रोधके परित्यागके साथ ही भोजनपानादिका भी परित्याग किस कारणसे किया है। भगवान् बोले---- उसने जातिस्मरणके कारण वैसा किया है । यह सुनकर रामचन्द्रने प्रार्थना की कि भगवन् ! तब तो मुझे उसके भवोंके निरूपण करनेकी कृपा कीजिए । तब मुनिने उन दोनोंके भवोंका निरूपण इस प्रकार किया
इसी अयोध्यापुरीमें क्षत्रिय सुप्रभ और उसकी पत्नी प्रह्लादिनीके सूर्योदय और चन्द्रोदय नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए। वे दोनों वृषभ जिनेन्द्र के साथ दीक्षित होकर मरीचिके साथ भ्रष्ट हो गये । इस कारण उन्होंने बहुत भवों तक तियच गतिमें परिभ्रमण किया। तत्पश्चात् उनमेंसे चन्द्रोदय कुरुजांगल देशके भीतर हस्तिनापुरके स्वामी हरिपति और उसकी पत्नी मनोहरीके कुलंकर नामका पुत्र उतन्न हुआ। उसका विवाह श्रीदामा नामकी राजपुत्रीके साथ सम्पन्न हुआ। उक्त राजाके जो विश्वावसु नामक प्रधान था उसकी पत्नीका नाम अग्निकान्ति ( अग्निकुण्डा ) था । सूर्योदय इन दोनोंके मूढश्रुति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुलंकर राजपदपर और दूसरा ( मूलश्रुति ) प्रधानके पदपर प्रतिष्ठित हुआ। एक समय कुलंकर तापसोंकी पूजा करने जा रहा था । मार्गमें उसे अभिनन्दन भट्टारकके दर्शन हुए। उसने वन्दनापूर्वक उनसे धर्मश्रवण करके व्रतोंको ग्रहण किया । मुनिने उससे कहा कि एक वृत्तान्त सुनो-तुम्हारा रगस्य(?) नामका पितामह तापस स्वरू पसे मरकर तापसोंके आश्रमके समीपमें सूखे काष्ठके कोटरमें सर्प पर्यायको प्राप्त हुआ है । इस वृत्तान्तको सुनकर कुलंकर वहाँ गया और उसने अपने पितामहको मुनिके कहे अनुसार ही वहाँ सर्प पर्यायमें देखा । इससे वह ग्रहण किये हुए अपने व्रतोंमें अधिक दृढ़ताको प्राप्त हुआ। उसके
१. ब प्राप्तानिर्द्धना। २. फ पृष्टभरतसंत्रासनंतरा। ३. प श कोपकारणे कवलादिपरिहारेण, ब कोपकारणे कवलादिपरहारे । ४. फ भगवानोक्तं । ५. फ संबंधिनिरूपते मे महा० । ६. ब प्राजिती । ७. ब
विश्ववश्वग्निकांडयोः । ८. मूलश्रुतिः । ९. प श महोरगस्यनामा, फ ०महोरेभ्यनामा ब ० महोरगभ्यनामा ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-५]
१. पूजाफलम् ५ जारासक्तया श्रीदामया मारितौ । शशकनकुलौ मूषकमयूरो सर्पसारंगौ गजद१रौ [जातौ] । तद्गजपादेन मृत्वा वारत्रयं दर्दुरो दर्दुर एव जातः। तद्गजपादेनैव मृत्वा कुर्कुटको [कुक्कुटोऽ] भूत् । गजो मार्जारो जातः। अनन्तरं कुर्कटो जातः। कुर्कटका काकैर्भक्षितो मृत्वा शिशुमारोऽभूत् । कुर्कटो मत्स्य-इत्यादिषु भ्रमित्वा राजगृहे विप्रवह्वाश-उलूकयोः मूढश्रुतिरागत्य विनोदनामा पुत्रोऽभूत् । इतरस्तदनुजो रमणः । स च विद्यार्थी देशान्तरं गतः । विद्यापारगो भूत्वागत्य रात्रौ स्वपुरं प्राप्य यक्षागारे स्थितः। नारायणदत्तजारासक्ता विनोदभार्या समिधा संकेतवशात्तत्रागत्य तेन सह जल्पन्ती स्थिता। तत्पृष्ठतः आगतेन विनोदेन अयमेव जार इति स्वभ्राता हतः। सा स्वगृहमानीता । तया सोऽपि हतः। चतुर्गतिं परिभ्रम्यैकदामहिषौ भिल्लौ [महिष-भल्लौ] अग्निना मतौ भिल्लौ तदनु हरिणौ जातौ। तयोर्माता वनचरेण मारिता। तो जीवन्तो धृत्वा नीतो पोषितौ वृद्धिं गतौ विमलनाथसर्वशं वन्दित्वागच्छता स्वयंभूतिनार्धराजेन द्रव्यं दत्त्वा स्वगृहमानीतौ । देवतागृहार्चननिकटे बद्धौ। तत्र रमणचरो हरिण उपशान्तचेतसा मृत्वा दिवं गतः । इतरस्तिर्यग्गतौ भ्रान्त्वा पल्लवदेशकाम्पिल्ये धनदत्तउन दृढ़ व्रतोंको मूढश्रुतिने नष्ट करा दिया । उन दोनोंको जार पुरुषमें आसक्त होकर श्रीदामाने मार डाला । इस प्रकार मर करके वे क्रमसे खरगोश और नेवला, चूहा और मयूर, सर्प और सारंग ( हरिण ) तथा हाथी और मेंढक हुए । मेंढक उस हाथीके पैरके नीचे दबकर मरा और तीन बार मेंढक ही हुआ । फिर वह उस हाथीके पैरसे ही मरकर मुर्गा हुआ और वह हाथी बिलाव हुआ। तत्पश्चात् वह केकड़ा हुआ। उस केंकड़ेको कौओंने खा डाला। इस प्रकारसे मरकर वह ( मूढ़श्रुति ) शिशुमार ( हिंस्र जलजन्तु ) हुआ । और कुर्कट मत्स्य हुआ । इस प्रकारसे परिभ्रमण करके मूढश्रुतिका जीव राजगृह नगरमें ब्राह्मण बह्वाश और उसकी पत्नी उलका ( उल्का ) इनके विनोद नामक पुत्र हुआ। दूसरा ( कुलंकर ) रमण नामक उसका लघु भ्राता हुआ। वह (रमण) विद्याध्ययनकी इच्छासे देशान्तरमें जाकर विद्याका पारगामी (अतिशय विद्वान् ) हुआ। तत्पश्चात् वह देशान्तरसे वापिस आकर रात्रिमें अपने नगरके पास किसी यक्ष मन्दिरमें ठहर गया। इसी समय विनोदकी पत्नी समिधा नारायणदत्त जारमें आसक्त होकर संकेतके अनुसार वहाँ आई और उससे वार्तालाप करती हुई स्थित हो गई। उसके पीछे उसका पति विनोद भी वहाँ आया। उसने 'यही जार है' ऐसा समझ करके अपने भाईको मार डाला । पश्चात् वह उसे ( पत्नीको ) घर लाया । पत्नीने उसे (विनोदको) भी मार डाला । पश्चात् वे दोनों ( विनोद और रमण) चारों गतियोंमें परिभ्रमण करते हुए भैंसा और भील [ भालु ] हुए जो अग्निमें जलकर मरणको प्राप्त हुए। फिर वे भील तत्पश्चात् हरिण हुए । उनकी माताको भीलने मार डाला था, परन्तु इन दोनोंको वह जीवित ही पकड़कर घर ले गया था । उसने इन दोनोंका पोषण करके वृद्धिंगत किया। एक समय स्वयंभूति राजा विमलनाथ जिनेन्द्रकी वन्दना करके वापिस आ रहा था। उसने इन्हें देखा और तब वह भीलको धन देकर उन्हें अपने घर ले आया । उसने उन्हें देवालयार्चनके निकट बाँध दिया । वहाँ भूतपूर्व रमणका जीव हिरण शान्तचित्त होकर मरणको प्राप्त हुआ और स्वर्गमें गया। दूसरा ( विनोदका जीव ) तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करके पल्लव देशके अन्तर्गत काम्पिल्य नगरमें धनदत्त
१. प ब श 'तद्गजपादेन' "मार्जारो जातः' इत्येतावान् पाठो नोपलभ्यते । २. कर्कटो, फ ब कक्कूटो कुर्कुटो,श कुर्कटो । ३. प कर्कटकः, फ कर्कुटकः, ब कक्कूटकः श. कुक्कटकः । ४. व कुक्कृटो । ५. फ विप्रबह्वा
सनुलकयोः । ६. श नारायणदत्ताजाराशक्ता । ७. फ महिषौ भिल्लंछौ,श महिषौ भिलौ। ८. फनाथराजेन ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-५ :
नामा वणिगभूत्, तद्भार्या धारिणी, तयोः स स्वर्गादागत्य भूषणनामा पुत्रोऽभूत् । तस्य च मुनिदर्शनतपश्चरणादेशभया त्पित्राष्टादश । कोटिद्रव्येश्वरेण सर्वतोभद्रमाटे स्थापितः । स कुमार इव तत्र तिष्ठति स्म । श्रीधरभट्टारक के बलपूजार्थ जातदेवागमं दृष्ट्वा जातिस्मरो भूत्वा गूढवेषेण निर्गत्य समवसरणं गच्छन् श्रान्तो मध्ये उपविष्टः । तच्छरीरसौगन्ध्यासक्त्यागतेन सर्पेण भक्षितो मृत्वा माहेन्द्रं गतः । पिता तिर्यग्गतिसमुद्रं प्रविष्टः ।
२
माहेन्द्रादागत्य पुष्करार्धद्वीपे चन्द्रादित्यपुरेशप्रकाशयशोमाधव्योर्जगद्धुतिनामा पुत्रो जातः । सत्पात्रदानेन देवकुरुषूत्पन्नः । ततः स्वर्गे जातः । तस्मादागत्य जम्बूद्वी पापरविदेहनन्द्यावर्त पुरेशसकलचक्रवर्त्यचलवाहन हरिण्योः अभिरामनामा पुत्रो जातः । चतुः सहस्रान्तःपुराaralsपि विरागो पित्रा तपश्चरणे निषिद्धोऽपि गृहे दुर्द्धरमणुव्रतं परिपाल्य ब्रह्मोत्तरे जातः । स धनदत्तः भ्रान्त्वा पोद वैश्य- अग्निमुखशकुनयो मृदुमतिपुत्रो जातः । स च न पठति सप्तव्यसनाभिभूतश्च जनोद्दाहात्पित्रा निःसारितः । देशान्तरे पठितो युवा च भूत्वागत्य देशिकवे पेण गृहं प्रविष्टः । पानीयं पाययन्त्या मात्रा रुदितम् । तेन किं कारणमिति पृष्टया तव सदृशः
नामका वैश्य हुआ । इसकी पत्नीका नाम धारिणी ( वारुणी ) था । इन दोनोंके वह (रमणका जीव देव ) आकर भूषण नामक पुत्र हुआ । उसके पिताने— जो कि अठारह करोड़ द्रव्यका स्वामी था - उसे मुनिदर्शन और तपश्चरणके आदेशके भय से सर्वतोभद्र माटपर स्थापित किया । वह कुमारके समान वहाँ स्थित रहा । किसी समय उसने श्रीधर भट्टारकके केवलज्ञानकी पूजा के निमित्त जाते हुए देवोंको देखा । इससे उसे जातिस्मरण हो गया । वह गुप्तरूपसे निकलकर समवसरणको जा रहा था कि थककर बीच में बैठ गया । उसके शरीरकी सुगन्धिमें आसक्त होकर एक सर्प वहाँ आया और उसने उसे काट लिया । वह मरकर माहेन्द्र स्वर्ग में गया । उसका पिता धनदत्त तिर्यंचगतिरूप समुद्र में प्रविष्ट हुआ ।
तत्पश्चात् माहेन्द्र स्वर्गसे आकर वह पुष्करार्ध द्वीपके भीतर चन्द्रादित्यपुरके अधिपति प्रकाशयश और उसकी पत्नी माधवीके जगद्युति नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । फिर वह सत्पात्रदान के प्रभावसे देवकुरु ( उत्तम भोगभूमिमें) और तत्पश्चात् स्वर्ग में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीपके अपरविदेहगत नन्द्यावर्त पुरके अधीश्वर सकल चक्रवर्ती अचलवाहन और रानी हरिणी के अभिराम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । वह चार हजार ( ४००० ) स्त्रियोंका स्वामी होकर भी विरक्त रहा | उसे तपश्चरणके लिए पिताने रोक दिया था, इसीलिए वह घरमें रहकर ही दुर्धर अणुव्रतका परिपालन करता हुआ ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ । वह धनदत्तका जीव परिभ्रमण करके पोदनपुर में वैश्य अग्निमुख और शकुना के मृदुमति नामक पुत्र हुआ । उसने सात व्यसनोंमें आसक्त होकर कुछ पढ़ा नहीं था । लोगों के उलाहनोंसे संतप्त होकर पिताने उसे घर से निकाल दिया । तब देशान्तरमें जाकर उसने विद्याध्ययन किया। अब वह युवा हो गया था । वह पथिकके वेशमें आकर घरके भीतर प्रविष्ट हुआ । उसकी माँ उसे पानी पिलाते हुए रो पड़ी। उसने उसके रोनेका कारण पूछा । उत्तर में उसने कहा कि तुम्हारे समान मेरा एक पुत्र देशान्तर में गया है । 'वह मैं ही हूँ' इस प्रकार
१. क ० दर्शनात्तप० । २. फ समवसूति । ३. फ सौगंध्यासक्तागतेन । ४. ब महेन्द्रं । ५. ब महेन्द्रादागत्य । ६. ब पौदने । ७. ब जनोडाहात् ० । ८ ब भवादृशः ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-५ ]
१. पूजाफलम् ५
१६
पुत्रैको देशान्तरं गतः । तेनाहमेवेत्युक्त्वा प्रत्यये पूरिते पित्रा द्वात्रिंशत्कोटिद्रव्यस्य स्वामी कृतः । तद्द्द्रव्यं वसन्त- अमरूरमणाभ्यां च वेश्याभ्यां भक्षितम् । तदनुचौर्येण प्रवर्तते स्म । एकदा शशाङ्कपुरं गतः । एकस्यां रात्रौ राजभवनं प्रविश्य शय्यागृहं प्रविष्टः । तस्मिन्नेव दिने तदधीशनन्दिवर्धनराजेन शशाङ्कमुखभट्टारकपार्श्वे धर्ममाकर्ण्य विरक्तेन रात्रौ राशी प्रतिबोध्यते - प्रातर्मया तपश्चरणं गृह्यते, त्वया दुःखं न कर्तव्यमिति । तदाकर्ण्य मृदुमतिरपि प्रव्रजितः । द्वादशे वर्षे एकाकी विहर्तु लग्नः ।
प्रस्तावेऽत्रापरं वृत्तान्तम् । आलोकनगरे बाह्यपर्वतस्योपरि गुणसागरभट्टारकः चातुर्मासिकप्रतिमायोगेन स्थितः । प्रतिज्ञासमाप्तौ देवागमे पुराचर्य जातम् । गगनेन * तो भट्टारको जनैर्न दृष्टः । चर्यार्थमागतं मृदुमतिं दृष्ट्वा अयमेव स इति पूजितः । सोऽपि मौनेन स्थितः । अस्मिन्नवसरे तिर्यग्गतिनामकर्मोपार्ण्य ब्रह्मोत्तरं गतः । तत्रोभयोर्मेलापकः स्नेहश्च जातः । तस्मादागत्याभिरामो भरतोऽभूदितरो हस्तीति जातिस्मरणकारणं श्रुत्वा साश्चर्यो वैराग्यपरायणो भूत्वा भरतो रामादिभिः क्षमितव्यं विधाय प्रव्रजितवान् । केकय्यपि त्रिशतराजपुत्रीभिः पृथिवीमत्यार्यिकानिकटे दीक्षिता । गजोऽपि विशिष्टं श्रावकधर्म गृहीतवान्, देशमध्ये परिभ्रमन् प्रासुकाहारं जलं च गृहीत्वा दुर्धरानुष्ठानं कृत्वा
कहकर जब उसने इस बातका विश्वास करा दिया तब पिताने उसे बत्तीस करोड़ द्रव्यका स्वामी बना दिया । उस सब द्रव्यको वसन्तरमणा और अमररमणा नामकी दो वेश्याओंने खा डाला । तत्पश्चात् वह चोरी करनेमें प्रवृत्त हो गया । किसी एक दिन वह शशांकपुरमें जाकर राजभवनके शयन - गृहमें प्रविष्ट हुआ। उसी दिन उक्त पुरका स्वामी नन्दिवर्धन राजा शशांकमुख भट्टारकके पासमें धर्मको सुनकर विषय-भोगोंसे विरक्त होता हुआ रात्रिमें रानीको समझा रहा था कि मैं कल प्रातःकालमें जिन-दीक्षाको ग्रहण करूँगा, तुम्हें इसके लिए दुखी नहीं होना चाहिए । इसको सुनकर मृदुमति भी विरक्त होकर दीक्षित हो गया । वह बारहवें वर्ष में एकाकी विहार में संलग्न हुआ ।
।
वहाँ परस्पर मिलकर
इस बीचमें यहाँ एक दूसरी घटना घटित हुई- आलोक नगर में बाह्य पर्वतके ऊपर गुणसागर भट्टारक चातुर्मासिक प्रतिमायोगसे स्थित थे । प्रतिज्ञा ( चातुर्मास ) की समाप्ति होनेपर देवोंके आनेसे नगरमें आश्चर्य हुआ । गुणसागर मुनीन्द्र आकाश मार्गसे विहार कर गये थे । इसलिए वे लोगों के देखने में नहीं आये। इसी समय वहाँ मृदुमति आहारके निमित्त आये । उनको देखकर लोगोंने यह समझकर कि ये वे ही मुनीन्द्र हैं उनकी पूजा की। वे भी मौनपूर्वक स्थित रहे । इससे वे तिर्यग्गति नामकर्मको उपार्जित करके ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में गये उन दोनोंमें स्नेह उत्पन्न हुआ । वहाँ से आकर अभिरामका जीव भरत और दूसरा ( मृदुमति ) हाथी हुआ है । इस प्रकार हाथीके जातिस्मरणके कारणको सुनकर आश्चर्यको प्राप्त हुए भरको बहुत वैराग्य हुआ । उसने रामचन्द्रादिसे क्षमा-याचना करके दीक्षा ले ली । केकयी भी तीन सौ राजपुत्रियों के साथ पृथ्वीमती आर्यिका के निकटमें दीक्षित हो गई । हाथीने भी विशिष्ट श्रावकधर्मको ग्रहण किया । वह देशमें परिभ्रमण करता हुआ प्रासुक आहार और जलको लेता था । इस प्रकारसे वह दुर्धर अनुष्ठानको करके ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें गया । उस देशमें रहनेवाले मनुष्य 'यह देव
१. प ब श वसंतडमरा० । २. फ चौर्येऽप्यप्रवर्त्तते, ब चौर्येण प्रवर्त्तति । ३. प श ० वर्ष एकाकी फ० ० वर्ष काकी । ४. फ गगने । ५. फ कैकापि, प कैकय्यपि, शकैकयापि ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०
पुण्यानवकथाकोशम्
[ १-६ : ब्रह्मोत्तरं गतः। तद्देशवर्तिनो जना देवोऽयमेतन्माहात्म्याद्रोगादिकमस्मिन् देशे न जातमिति तबिम्बं विधाय पूजयितुं लग्नाः। स विनायकोऽभूत् भरतभट्टारकः संयमफलेन चारणाद्यनेकर्द्धिसंयुक्तो विहृत्य केवलमुत्पाद्य निर्वाणं गतः इति भूषणो यदि जिनपूजनचेतसैवंविधं विभवं लभते ' स्म नित्यं जिनपूजकस्य किं प्रष्टव्यमिति ॥५॥
गोपो विवेकविकलो मलिनोऽशुचिश्च राजा बभूव सुगुणः करकण्डुनामा । दृष्ट्वा जिनं भवहरं स सरोजकेन
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥६॥ अस्य वृत्तस्य कथा श्रोणकस्य गौतमस्वामिना यथा कथिताचार्यपरम्परयागता संक्षेपेण कथ्यते । अत्रैवार्यखण्डे कुन्तलविषये तेरपुरे राजानौ नोलमहानीलौ जातौ । श्रेष्ठी वसुमित्रो भार्या वसुमती तद्गोपालो धनदत्तः । तेनैकदाटव्यां भ्रमता सरसि सहस्रदलकमलं दृष्टं गृहीतं च । तदा नागकन्या प्रकटीभूय तं वदति सर्वाधिकस्येदं प्रयच्छेति। तदनु स कमलेन सह गहमागत्य श्रेष्ठिनं तवृत्तान्तं निरूपितवान् । तेन राज्ञो भाषितम् । राज्ञा गोपालेन श्रेष्ठिना च सह सहस्रकूटजिनालयं गत्या जिनमभिवन्द्य सुगुप्तमुनि च ततो [राज्ञा] पृष्टो मुनिः कः सर्वोत्कृष्टः इति । तेन जिनो निरूपितः। श्रुत्वा गोपालो जिनाग्रे स्थित्वा हे सर्वोस्कृष्ट, कमलं गृहाणेति देवस्योपरि निक्षिप्य गतः। है, इसके माहात्म्यसे इस देशमें रोगादि नहीं उत्पन्न हुए हैं' ऐसा मानकर उसकी मूर्ति बनाकर पूजामें तत्पर हो गये। वह विनायक (गणेश) हुआ। भरत भट्टारक संयमके प्रभावसे चारण आदि अनेक ऋद्धियोंसे सम्पन्न होते हुए केवलज्ञानको उत्पन्न करके मुक्तिको प्राप्त हुए। इस प्रकार भूषणने जब जिनपूजामें मन लगाकर इस प्रकारके विभवको प्राप्त किया तब जिनभगवान्की पूजा करनेवाले श्रावकका क्या पूछना है ? वह तो महाविभवको प्राप्त करेगा ही ॥५॥
वह विवेकसे रहित ग्वाला मलिन और अपवित्र होकर भी कमल पुष्पके द्वारा संसारके नाशक जिन भगवान्की पूजा करके उत्तम गुणोंसे युक्त करकण्डु नामक राजा हुआ है। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥६॥
गौतम स्वामीने इस कथाको जिस प्रकार श्रेणिकके लिए कहा था उसी प्रकार आचार्यपरम्परासे आई हुई उसको यहाँ मैं संक्षेपसे कहता हूँ। इसी आर्यखण्डके भीतर कुन्तल देशमें स्थित तेरपुरमें नील और महानील नामक दो राजा थे। वहाँ वसुमित्र नामका एक सेठ था । उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। उसके धनदत्त नामका एक ग्वाला था । एक समय उस ग्वालाने वनमें घूमते हुए तालाबमें सहस्रदल कमलको देखकर उसे ले लिया। तब नागकन्याने प्रगट होकर उससे कहा कि जो सबसे अधिक हो उसके लिए यह कमल देना। तत्पश्चात् उसने कमलके साथ घर आकर इस वृत्तान्तको सेठसे कहा । सेठने उस वृत्तान्तको राजासे कहा। तब राजाने सेठ और ग्वालाके साथ सहस्रकूट जिनालयमें जाकर जिन भगवान्की और तत्पश्चात् सुगुप्त मुनिकी वंदना की। पश्चात् राजाने मुनिसे पूछा कि हे साधो ! लोकमें सर्वश्रेष्ठ कौन है । मुनिने कहा कि सर्वश्रेष्ठ जिन
१. श लभ्यते । २. फ ब सगुणः । ३. ब अतोऽग्रे 'तद्यथा' इत्येतदधिकं पदमस्ति । ४. ब -प्रतिपाठोऽयम् । प श परंपरायामागता, फ परंपरायागतो। ५. श भेरपुरे ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१
१. पूजाफलम् ६ अत्रापरं वृत्तान्तम् । तथाहि- श्रावस्तिपुर्या श्रेष्ठी सागरदत्तो भार्या नागदत्ता । द्विजसोमशर्मणोऽनुरक्तां तां ज्ञात्वा श्रेष्ठी दीक्षितो दिवं गतः। तस्मादागत्याङ्गदेशे चम्पायां राजा वसुपालो देवी वसुमती, तयोः पुत्रो दन्तिवाहननामा जातः । एवं स वसुपालो यावत्सुखेनास्ते तावत्कलिङ्गदेशे दन्तिपुरे' राजा बलवाहनस्तेन यः सोमशर्मा जारो मृत्वा भ्रान्त्वा तत्र कलिङ्गदेशे दन्तिपुराटव्यां नर्मदातिलकनामा हस्ती जातः स बलवाहनेन धृत्वा वसुपालाय प्रेषितः । स तत्र तिष्ठति । सा नागदत्ता मृत्वा भ्रमित्वा च ताम्रलिप्तनगर्या वणिग् वसुदत्तस्य भार्या नागदत्ता जाता।सा द्वे सुते लेभे धनवती धनश्रियं च। धनवती नागालन्दपुर वैश्यधनदत्तधनमित्रयोः पुत्रेण धनपालेन परिणीता। धनश्रीवत्सदेशे कौशाम्बीपुरे वसुपालवसुमत्योः पुत्रेण श्रेष्ठिना वसुमित्रेण परिणीता, तत्संसर्गेण जैनी बभूव । नागदत्ता पुत्रीमोहेन धनश्री.
पं गता। तया मनिसमीपं नीता. अणतानि ग्राहिता। ततो बहत्पत्रीसमीपं गता। तया बौद्धभक्ता कृता । लघ्व्या वारत्रयमणुवतानि ग्राहिता। धनवत्या नाशितानि । चतुर्थवारे दृढा बभूव । कालान्तर मृत्वा तत्कौशाम्बीशवसुपालवसुमत्योः पुत्री जाता। कुदिने जातेति मञ्जूषायां स्वनामाङ्कितमुद्रिकादिभिर्निक्षिप्य यमुनायां प्रवाहितां गङ्गां मिलित्वा पनद्रहे
हैं। इसे सुनकर ग्वालाने जिन भगवान्के आगे स्थित होकर 'हे सर्वोत्कृष्ट ! इस कमलको ग्रहण कीजिए' ऐसा निवेदन करते हुए उसे जिन भगवान्के ऊपर रख दिया और वहाँ से वापिस चला गया।
यहाँ दूसरा एक वृत्तान्त घटित हुआ । वह इस प्रकार है- श्रावस्तीपुरीमें एक सागरदत्त नामक सेठ था। इसकी पत्नीका नाम नागदत्ता था। वह सोमशर्मा नामक ब्राह्मणसे अनुराग रखती थी। इस बातको ज्ञात करके सेठने जिनदीक्षा ले ली। वह मरकर स्वर्गमें देव हुआ। वहाँ से आकर वह चम्पापुरीमें राजा वसुपालके वसुमती रानीसे दन्तिवाहन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इस प्रकारसे वह वसुपाल राजा जब तक सुखपूर्वक स्थित है तब तक कलिंग देशके भीतर स्थित दन्तिपुरके राजा बलवाहनने नर्मदातिलक नामक जिस हाथीको पकड़कर उपर्युक्त वसुपाल राजाके लिए भेंट किया था वह नागदत्ताका जार ( उपपति) सोमशर्मा ब्राह्मण था जो मर करके परिभ्रमण करता हुआ उस कलिंग देशके अन्तर्गत दन्तिपुरके गहन वनमें इस हाथीकी पर्यायमें उत्पन्न हुआ था। वह हाथी वसपाल राजाके यहाँ स्थित था। वह नागदत्ता मर करके संसारमें परिभ्रमण करती . हुई ताम्रलिप्त न ध्य वसुदत्तकी पत्नी नागदत्ता हुई। उसके धनवती और धनश्री नामकी दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई। । वनवतीका विवाह नागालन्दपुरवासी वैश्य धनदत्त और उसकी पत्नी धनमित्राके पुत्र धनपालके साथ सम्पन्न हुआ तथा दूसरी धनश्रीका विवाह वत्स देशके अन्तर्गत कौशाम्बीपुरके निवासी वसुपाल और वसुमतीके पुत्र सेठ वसुमित्रके साथ सम्पन्न हुआ था । उसके संसर्गसे वह ( धनश्री ) जैन धर्मका पालन करनेवाली हो गई । नागदत्ता पुत्रीके मोहसे धनश्रीके पास गई। धनश्री उसे मुनिके समीप ले गई। वहाँ उसने उसको अणुव्रत ग्रहण करा दिये । तत्पश्चात् वह बड़ी पुत्रीके पास गई । उसने ( बड़ी पुत्रीने ) उसे बौद्धभक्त बना दिया। छोटी पुत्रीने उसे तीन बार अणुव्रत ग्रहण कराये, परन्तु धनवतीने उन्हें नष्ट करा दिया। चौथी बार वह अणुव्रतोंमें दृढ़ होती हुई कालान्तरमें मरणको प्राप्त होकर कौशाम्बी नगरीके स्वामी वसुपाल और रानी वसुमती
१ ब दन्तपुरे । २. ५ श बलवाहनः अपुत्रीकस्तेन । ३. फ मारयित्वा । ब अतोऽग्रेऽग्रिम 'मृत्वा' पदपर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. प बलवाहने, श बलवाहनो। ५. शवणिज । ६.श धनवति । ७. फ नागनंदपुर । ८. ५ श धनश्री वत्स० । ९. फ गृहीतानि । १०. प श लध्वी।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-६ पतितां कुसुमपुरे कुसुमदत्तमालाकारेण दृष्ट्वा स्वगृहमानीय स्ववनिताकुसुममालायाः समर्पिता। तया च पनद्रहे लब्धेति पद्मावतीसंशया वर्धिता । युवतिर्जाता । केनचिद्दन्तिवाहनस्य तत्स्वरूपं कथितम् । तेन तत्र गत्वा तद्रूपं दृष्टा मालाकारः पृष्टः- सत्यं कथय कस्येयं पुत्रीति । तेन तदने निक्षिप्ता मञ्जूषा । तत्रस्थितनामाङ्कितमुद्रादिकं वोच्य तजाति शात्वा परिणीता। स्वपुरमानोतातिवल्लभा जाता। कियत्काले गते सत्पिता स्वशिरसि पलितमालोक्य तस्मै राज्यं दत्त्वा तपसा दिवं गतः।
पद्मावती चतुर्थस्नानानन्तरं स्ववल्लभेन सह सुप्ता स्वप्ने सिंहगजादित्यान् स्वप्नानद्राक्षीत् । राज्ञः स्वप्ने निरूपिते तेनोक्तम्-सिंहदर्शनात्प्रतापी गजदर्शनात्क्षत्रियमुख्यो रविदर्शनात्प्रजाम्भोजसुखाकरः पुत्रो भविष्यतीति। संतुष्टा सुखेन स्थिता । इतस्तेरपुरे स गोपालः सशैवलद्रहे तरितुं प्रविष्टः सन् शेवालेन वेष्टितो मृत्वा पद्मावतीगर्भे स्थितः। तन्मृतिं परिज्ञाय संस्कार्य श्रेष्ठी सुगुप्तमुनिनिकटे तपसा दिवं गतः। इतः पद्मावत्या दोहलको जातः । कथम् । मेघाडम्बरे चपलाकुले वृष्टौ सत्यां स्वयमङ्कुशं गृहीत्वा पुरुषवेषेण द्विपं चटित्वा पृष्ठे राजानं की पुत्री हुई । उसे कुदिनमें ( अशुभ मुहूर्तमें ) उत्पन्न हुई जानकर अपने नामकी मुद्रिका आदिके साथ पेटीमें रखा और यमुनाके प्रवाहमें बहा दिया था । वह गंगाके प्रवाहमें पड़कर पद्मद्रहमें जा गिरी। उसे देखकर कुसुमपुरमें रहनेवाला कुसुमदत्त नामक माली अपने घरपर ले आया और अपनी पत्नी कुसुममालाको सौंप दिया। वह चूँकि पद्मद्रहमें प्राप्त हुई थी अतएव कुसुममालाने उसको पद्मावती नाम रखकर वृद्धिंगत किया । वह कुछ समयमें युवती हो गई । किसी मनुष्यने दन्तिवाहन राजासे उसके रूपकी चर्चा की। राजाने वहाँ जाकर उसके सुन्दर रूपको देखा । उसने मालीसे पूछा कि यह पुत्री किसकी है, सत्य बतलाओ। मालीने राजाके सामने वह पेटी रख दी। उसने पेटीमें स्थित नामांकित मुद्रिका आदिको देखकर और इससे उसके जन्मविषयक वृत्तान्तको जानकर उसके साथ विवाह कर लिया। वह उसे अपने नगरमें ले आया। उक्त पद्मावती राजाके लिए अतिशय प्यारी हुई। कुछ समय बीतनेपर दन्तिवाहनका पिता अपने शिरपर श्वेत बालको देखकर विरक्त हो गया। उसने दन्तिवाहनको राज्य देकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली । वह मरकर तपके प्रभावसे स्वर्गमें जाकर देव हुआ।
पद्मावती चतुर्थस्नानके पश्चात् अपने पतिके साथ सोयी थी। उसने स्वप्नमें सिंह, हाथी और सूर्यको देखा। तत्पश्चात् उसने इन स्वप्नोंके सम्बन्धमें राजासे निवेदन किया। राजाने कहा-देवि ! तेरे सिंहके देखनेसे प्रतापी, हाथीके अवलोकनसे क्षत्रियोंमें मुख्य और सूर्यके दर्शनसे प्रजाजनोंरूप कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला पुत्र होगा। इसको सुनकर पद्मावती सन्तुष्ट होकर सुखपूर्वक स्थित हुई । इधर तेरपुरमें वह धनदत्त ग्वाला तैरनेके लिए काई सहित तालाबके भीतर प्रविष्ट हुआ। वह काईसे वेष्टित होकर मृत्युको प्राप्त होता हुआ पद्मावतीके गर्भ में आकर स्थित हुआ । ग्वालाके मरणको जानकर वसुमित्र सेठने उसके मृत शरीरका दाह-संस्कार किया। तत्पश्चात् वह सुगुप्त मुनिके पासमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे स्वर्गको प्राप्त हुआ। उधर पद्मावतीको यह दोहल ( सातवें मासमें होनेवाली इच्छा ) उत्पन्न हुआ कि जब आकाश मेघोंसे व्याप्त हो, बिजली चमक रही हो, तथा वृष्टि भी हो रही हो; ऐसे समयमें मैं स्वयं अंकुशको ग्रहण करके पुरुषके वेषमें हाथीके ऊपर चढू और पीछे राजाको बैठाकर दोनों नगरके बाहर भ्रमण करें। उसने १. श इतस्तेर स । २. प सशिवाल, फ शशिवाल,ब सिवाल, श ससिवाल । ३. फ सेवालेन, ब सैवालेन ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-६ ] १. पूजाफलम् ६
२३ गृहीत्वा पत्तनाद् बहिर्धमाव इति । तत्स्वरूपे राशः कथिते तेन स्वमित्रवायुवेगखेचरेण मेघाडम्बरादिकं कारयित्वा नर्मदातिलकद्विपमलंकृत्वा राज्ञो स्वयं च समारुह्य परिजनेन पुरानिर्गतौ । स च गजोऽङ्कशमुल्लङ घ्य पवनवेगेन गन्तुं लग्नः । सर्वोऽपि जनः स्थितः । महाटव्यां वृक्षशाखामादाय राजा स्थितः । स्वपुरमागत्य हा पद्मावति तव किमभूदिति महाशोकं कृतवान् । विबुधैः संबोधितः।
इतः स हस्ती नानाजनपदानुल्लङध्य दक्षिणं गत्वा श्रान्तो महासरसि प्रविष्टो जलदेवतया समुत्तार्य तटे उपवेशिता सा। अनावसरै तत्रागतेन भट्टनाममालाकारेण रुदतो संबोधिता-हे भगिनि, एहि मद्गृहमित्युक्ते तयोक्तं 'कस्त्वम्' । तेनोक्तं मालिकोऽहमिति । ततो हस्तिनापुरे स्वगृहे मद्भगिनीयमिति स्थापिता । तस्मिन् कापि गते तद्वनितया मारिदत्तया निोटिता पितृवने पुत्रं प्रसूता। तदा मातङ्गेन तस्थाः प्रणम्योक्तं-मत्स्वामिनी त्वमिति । तयोक्तं 'कस्त्वम् । स आह- अत्रैव विजयार्धे. दक्षिणश्रेण्यां विद्युत्प्रभपुरेशविद्युत्प्रभविद्युल्लेखयोः सुतोऽहं बालदेवः । स्ववनिताकनकमालया दक्षिणं क्रीडार्थगच्छतो मम रामगिरौवीरभट्टारकस्योपरि न गतं विमानम् । क्रुद्धेन मया तस्योपसर्गः कृतः। पद्मावत्या तं निवार्य ममइस दोहलकी सूचना राजाको की। तब राजाने अपने मित्र वायुवेग विद्याधरके द्वारा मेघसमूह आदिकी रचना करायी। तत्पश्चात् नर्मदातिलक हाथीको सुसज्जित करके उसके ऊपर रानी और स्वयं भी ( दोनों ) चढ़कर सेवक जनके साथ नगरके बाहर निकले । वह हाथी अंकुशकी परवाह न करके वायुवेगसे शीघ्र गमनमें उद्यत हुआ। इस कारण सब सेवक जन पीछे रह गये । राजा महावनमें एक वृक्षकी शाखाको पकड़कर स्थित रह गया। पश्चात् वह नगरमें आकर 'हा ! पद्मावती, तेरा क्या हुआ होगा' इस प्रकार पश्चात्ताप करने लगा। तब विद्वानोंने उसे सम्बोधित किया।
इधर वह हाथी अनेक देशोंको लाँधकर दक्षिणकी ओर गया और थककर किसी महा सरोवरके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय जलदेवताने पद्मावतीको हाथीके ऊपरसे उतारकर तालाबके किनारेपर बैठाया । इस अवसरपर वहाँ एक भट नामक माली आया। उसने रोती हुई देखकर उससे कहा कि हे बहिन ! आ, मेरे घरपर चल । ऐसा कहनेपर पद्मावतीने उससे पूछा कि तुम कौन हो । उसने कहा कि मैं माली हूँ। तत्पश्चात् उसने उसे हस्तिनापुरके भीतर अपने घरमें 'यह मेरी बहिन है' ऐसा कहकर स्थापित किया। पश्चात् मालीके कहीं बाहर जानेपर उसकी पत्नी मारिदत्ताने उसे घरसे निकाल दिया। तब उसने वहाँ से निकलकर और श्मशानमें जाकर पुत्रको उत्पन्न किया । उस समय किसी चण्डालने आकर उसे प्रणाम किया और कहा कि तुम मेरी स्वामिनी हो। पद्मावतीने उससे पूछा कि तुम कौन हो । उत्तरमें उसने कहा कि मैं इसी विजयार्ध पर्वतके ऊपर दक्षिण श्रेणिमें स्थित विद्युत्प्रभ पुरके स्वामी विद्युत्प्रभ और विद्युल्लेखाका बालदेव नामक पुत्र हूँ। मैं अपनी पत्नी कनकमालाके साथ दक्षिणमें क्रीड़ा करनेके लिए जा रहा था। मेरा विमान रामगिरि पर्वतके ऊपर स्थित वीर भट्टारकके ऊपरसे नहीं जा सका। इससे क्रोधित होकर मैंने उक्त वीर भट्टारकके ऊपर उपसर्ग किया। पद्मावती देवीने उसको दूर करके मेरी विद्याओंको नष्ट कर
१. ब -प्रतिपाठोऽयम्, प फ श सा । अवसरे । २. फ ब भट। ३. फ श 'विद्युत्प्रभपुरेश' नास्ति ।
४.ब-प्रतिपाठोऽयम्, प फ श उपरितनगतं ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-६ : विद्याच्छेदः कृतः। तदनु मया सा प्रणम्योपशान्ति नीता। ततो हे स्वामिनि, मम विद्याप्रसादं कुर्वित्युक्ते तयोक्तं- हस्तिनागपुरे पितृवने यं द्रक्ष्यसि बालं तद्राज्ये तव विद्याः सेत्स्यन्ति, याहीत्युक्ते सोऽहं मातङ्गवेषेणेमं रक्षन् स्थित इति । तदनु संतुष्टया बालः समर्पितः, त्वं वर्धयैनमिति । ततस्तेन काञ्चनमालाया समर्पितः । स च करयोः कण्डूयुक्त इति करकण्डुनाम्ना पालयितुं लग्ना। सा पद्मावती गान्धारी या ब्रह्मचारिणी तामाश्रिता। तया सह गत्वा समाधिगुप्तमुनि दीक्षां याचितवती । तेनाभाणि- न दीक्षाकालः प्रवर्तते । पूर्व वारत्रयं यद् व्रतं खण्डितं तत्फलेन त्रिर्दुःखमासीत् । तदुपशमे पुत्रराज्यं वीक्ष्य तेन सह तपो भविष्यतीत्युक्ते संतुष्टा पुत्रं विलोक्य ब्रह्मचारिणीनिकटे स्थिता । स बालस्तेन सर्वकलाकुशलः कृतः।
तौ खेचर-करकण्डू पितृवने यावत्तिष्ठतस्तोवजयभद्र-वीरभद्राचार्यो समागतो। तत्र नर-कपाले मुखे लोचनयोश्च वेणुत्रयमुत्पन्नमालोक्य केनचिद्यतिनोक्तमाचार्य प्रति 'हे नाथ, किमिदं कौतुकम् ।' आचार्योऽवदद्योऽत्र राजा भविष्यति तस्याङ्कुशच्छत्रध्वजदण्डाः स्युरिति श्रुत्वा केनचिद्विप्रेणोन्मूलिता । तस्मात्करकण्डुना गृहीताः।
कियहिनेषु तत्र बलवाहनो नाम राजाऽपुत्रको मृतः । परिवारेण विधिना हस्ती राशोदिया। तत्पश्चात् मैंने प्रणाम करके उसे शान्त किया। उससे मैंने प्रार्थना की कि हे देवि ! कृपाकर मेरी विद्याओंको मुझे वापिस कर दीजिए । इसपर उसने कहा कि जा, हस्तिनापुरके श्मशानमें तू जिस बालकको देखेगा उसके राज्यमें तेरी विद्याएँ तुझे सिद्ध हो जावेंगी। वही मैं बालदेव विद्याधर चाण्डालके वेषमें इसकी रक्षा करता हुआ यहाँपर स्थित हूँ। उसके यह कहनेपर पद्मावतीने सन्तुष्ट होकर 'इसको तुम वृद्धिंगत करो' कहकर उस बालकको उसे दे दिया । तत्पश्चात् उसने उसे अपनी पत्नी काञ्चनमाला (कनकमाला) को दे दिया । वह बालक चूंकि दोनों हाथोंमें कण्डु (खाज ) से संयुक्त था, अतएव उसका करकण्डु नाम रखकर वह भी उसके परिपालनमें संलग्न हो गई। उधर पदमावती गान्धारी नामकी जो ब्रह्मचारिणी थी उसके आश्रयमें चली गई । पश्चात् उसने उक्त ब्रह्मचारिणीके साथ जाकर समाधिगुप्त मुनिसे दीक्षाकी प्रार्थना की । तब मुनि बोले- अभी दीक्षाका समय नहीं आया है । तुमने जो तीन बार व्रतको खण्डित किया है उसके फलसे तुम्हें तीन बार दुःख हुआ। व्रतभंगसे उत्पन्न पापके उपशान्त होनेपर पुत्रके राज्यको देखकर उसके साथ तेरा तप होगा। इसको सुनकर पद्मावतीको बहुत सन्तोष हुआ। तब वह पुत्रको देखकर ब्रह्मचारिणीके समीपमें स्थित हो गई। बालदेवने उस बालकको समस्त कलाओंमें निपुण कर दिया।
इधर वह विद्याधर और करकण्डु ये दोनों श्मशानमें ही स्थित थे कि वहाँ जयभद्र और वीरभद्र नामक दो आचार्य उपस्थित हुए । वहाँ किसी मनुष्यके कपालमें एक मुखमेंसे और दो दोनों नेत्रोंमेंसे इस प्रकार तीन बाँस उत्पन्न हुए थे। इनको देखकर किसी मुनिने आचार्यसे पूछा कि हे नाथ ! यह कौन-सा कौतुक है। आचार्य बोले कि यहाँ जो मनुष्य राजा होगा उसके ये तीन बाँस अंकुश, छत्र और ध्वजाके दण्ड होंगे। इस मुनिवचनको सुनकर किसी ब्राह्मणने उन्हें उखाड़ लिया। उस ब्राह्मणसे उन्हें करकण्डुने ले लिया।
कुछ दिनोंमें वहाँ बलवाहन नामक राजाकी मृत्यु हुई। वह पुत्रसे रहित था। इसलिए
१. प यं द्रक्ष्यशि, फ यद्रक्षसि, श यद्रक्ष्यसि । २. फ ब्रह्मचारिणीं। ३. फ श समाधिगुप्ति । ४. फ ततो। ५. ५ श यावत्तिष्ठतिस्ताव० ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-६ ]
१. पूजाफलम् ६
२५
ऽन्वेषणार्थं मुक्तस्तेन च करकण्डुरभिषिच्य स्वशिरसि व्यवस्थापितः । ततः परिजनेन राजा कृतो बालदेवस्य विद्यासिद्धिरभूत् । स तं नत्वा तस्य तन्मातरं समर्प्य विजयार्धं गतः । करकण्डुः प्रतिकूलानुन्मूल्य राज्यं कुर्वन् स्थितः । तत्प्रतापं श्रुत्वा दन्तिवाहनेन तदन्तिकं दूतः प्रेषितः । स गत्वा तं विज्ञप्तवान् - त्वया मत्स्वामिनो दन्तिवाहनस्य भृतिभावेन राज्यं कर्तव्यमिति । कुपित्वा करकण्डुनोक्तम् - रणे यद्भवति तद् भवतु, याहीति विसर्जितः । स स्वयं प्रयाणं दत्त्वा चम्पावाहये स्थितः । दन्तिवाहनोऽप्यतिकौतुकेन सर्वबलान्वितो निर्गतः । उभयबले संनद्धे व्यूहप्रतिव्यूहक्रमेण स्थिते तदवसरे पद्मावती गत्वा स्वभर्तुः स्वरूपं निरूपितवती । ततो जादुत्तीर्य संमुखमागतः पिता, पुत्रोऽपि । उभयोर्दर्शनं नमस्काराशीर्वाददानं च जातम् । मातापितृभ्यां जगदाश्चर्यविभूत्या [सः ] पुरं प्रविष्टः । पित्राष्टसहस्रकन्याभिर्विवाहं स्थापितः । तस्मै राज्यं समर्प्य पद्मावत्या भोगाननुभवन् स्थितो दन्तिवाहनः ।
राज्यं कुर्वतस्तस्य मन्त्रिभिरुक्तम् - हे देव, त्वया चेरमपाण्डयचोलाः साधनीया इति । ततस्तेषां उपरि गच्छन् तेरपुरे स्थित्वा तदन्तिकं दूतं प्रेषितवान् । तेन गत्वागतेन तदौडत्ये विज्ञप्ते' रोषात्तत्र गत्वा युद्धावनौ स्थितः । तेऽपि मिलित्वागत्य महायुद्धं चक्रुर्दिनावसाने *
परिवारने राजाके अन्वेषणार्थं विधिपूर्वक हाथीको छोड़ा। उसने करकण्डुका अभिषेक करके उसे अपने सिरपर स्थापित किया । तब परिवारने उसे राजा बनाया । उस समय बालदेवकी वे नष्ट विद्याएँ सिद्ध हो गई । अब बालदेवने उसको नमस्कार करके उसकी माताको समर्पित कर दिया और वह विजयार्धपर चला गया। करकण्डु शत्रुओं को नष्ट करके निष्कण्टक राज्य करने लगा। उसके प्रताप को सुनकर दन्तिवाहनने उसके पास अपने दूतको भेजा। उसने जाकर करकण्डुसे निवेदन किया कि आप हमारे स्वामी दन्तिवाहनके सेवक होकर राज्य करें। इसे सुनकर करकण्डुने क्रोधित होकर दूतसे कहा कि जाओ, युद्ध में जो कुछ होना होगा सो होगा; ऐसा कहकर उसने उस दूतको वापिस कर दिया । साथ ही वह स्वयं प्रस्थान करके चम्पापुरके बाहर पड़ाव डालकर ठहर गया। इधर दन्तिवाहन राजा भी अतिशय कौतूहलके साथ समस्त सेनासे सुसज्जित होकर नगरके बाहर निकल पड़ा। दोनों ओर की सेनाएँ तैयार होकर व्यूह और प्रतिव्यूह के क्रमसे स्थित हो गई । इसी समय पद्मावतीने जाकर अपने पतिसे वस्तुस्थितिका निरूपण किया । तब पिता ( दन्तिवाहन ) हाथीसे नीचे उतरकर पुत्र ( करकण्डु ) के सामने आया और उधर पुत्र भी पिता के सामने आया । दोनोंमें एक दूसरे को देखकर पुत्रने पिताको प्रणाम किया और पिताने उसको आशीर्वाद दिया । फिर करकण्डु विश्वको आश्चर्यचकित करनेवाली विभूतिसे संयुक्त होकर माता-पिता के साथ पुरमें प्रविष्ट हुआ । पश्चात् पिताने उसका आठ हज़ार कन्याओं के साथ विवाह कराया । फिर दन्तिवाहन उसे राज्य देकर पद्मावती के साथ भोगोंका अनुभव करने लगा ।
इधर करकण्डु जब राज्य करने लगा तब मन्त्रियोंने उससे कहा कि हे देव ! आपको चेरम, पाण्ड्य और चोल देशों को अपने अधीन करना चाहिए । तब वह उनके ऊपर आक्रमण करनेके विचारसे गया और तेरपुरमें ठहर गया । वहाँसे उसने उपर्युक्त राजाओं के पास दूतको भेजा । उस दूतने जाकर वापिस आनेपर जब उक्त राजाओं की उद्धतताका निरूपण किया तब करकण्डुको बहुत क्रोध आया । इसीलिए वह वहाँ जाकर युद्धभूमिमें स्थित हो गया । वे राजा भी मिल करके
१. प श बाह्ये मुत्का स्थितः ब बाह्ये मुक्ता स्थितः । २. फ उभयोर्दर्शननम । ३. प श गत्वा दूतेन गतेन । ४. फ विज्ञप्तैः । ५ प चक्रतुः दि श चक्रतुर्दि ।
3
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-६ :
ર
उभयबलं स्वस्थाने स्थितम् । द्वितीय दिनेऽतिरौद्रे संग्रामे जाते स्वबलभङ्गं वीक्ष्य कोपेन करकण्डुर्महायुद्धं कृत्वा त्रीनपि बन्बन्ध । तन्मुकुटे पादं न्यसन् तत्र जिनबिम्बाि विलोक्य 'मिच्छामि' इति भणित्वा यूयं जैना इत्युक्ते तैरोमिति' भणिते, हा हा निकृष्टोऽहं जैनानामुपसर्ग कृतवानिति पश्चात्तापं कृत्वा क्षमां कारिता तैः । स्वदेशं गच्छन् तेरसमीपे विमुच्य स्थितः ।
तत्र' दौवारिकैरन्तःप्रवेशिताभ्यां धाराशिवँभिल्लाभ्यां विज्ञप्तो राजा - देवास्माद्दक्षिदिशि त्रिगव्यत्युत्तरें पर्वतस्योपरि धाराशिवं नाम पुरं तिष्ठति सहस्रस्तम्भजिनालयं चतस्योपरि पर्वतमस्तके वल्मीकं च । तत् श्वेतो हस्ती पुष्करेण जलं कमलं च गृहीत्वागत्य त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जलेन सिक्त्वा अरविन्देन पूजयित्वा प्रणमतीति [ श्रुत्वा कर कण्डुना ] ताभ्यां तुष्टिं दत्त्वा तत्र गत्वा जिनं समर्च्य वल्मीकं पूजयन्तं हस्तिनं वीच्य तत् खनितम् । तत्र स्थितां मञ्जूषामुत्पाटय रत्नमयपार्श्वनाथप्रतिमां वीक्ष्य हृष्टः । तल्लयणेऽर्गलदेवसंज्ञया" स्थापितवांश्च । मूलप्रतिमा ग्रन्थि विलोक्य विरूपको दृश्यते इति शिलाकर्मिणं बभाणेमं
सेना अपने स्थानमें ठहर गई । दबाव को देखकर करकण्डुने क्रुद्ध फिर उसने उनके मुकुटपर पैर
आये और घोर युद्ध करने लगे । सूर्यास्त होनेपर दोनों ओरकी दूसरे दिन भी अतिशय भयानक युद्धके होनेपर अपनी सेना के होकर महान् युद्ध किया और उन तीनों राजाओंको बाँध लिया । रखते हुए जब जिनप्रतिमाओं को देखा तब ' तस्स मिच्छामि [ तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ]' अर्थात् उसका मेरा यह दोष मिथ्या हो, यह कहकर उसने आत्मनिन्दा करते हुए उनसे पूछा कि आप जैन हैं क्या ? उत्तर में जब उन्होंने यह कहा कि हाँ हम लोग जैन हैं तब उसने कहा हा ! हा ! मैं बहुत निकृष्ट हूँ, मैंने जैनोंके ऊपर उपसर्ग किया है, इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए उसने उनसे क्षमा करायी । तत्पश्चात् स्वदेशको वापिस आता हुआ वह तेरपुरके समीपमें पड़ाव डालकर ठहर गया ।
उस समय वहाँ धारा और शिव नामक दो भील आये जिन्हें द्वारपाल भीतर ले गये । उन्होंने राजासे निवेदन किया कि हे देव ! यहाँ से दक्षिण दिशा में तीन कोशके ऊपर स्थित पर्वतके ऊपर धाराशिव नामका नगर है और सहस्रस्तम्भ जिनालय है । उक्त पर्वत के शिखरपर एक सर्पकी बाँबी है । वहाँ एक श्वेत हाथी सूँड़ में जल और कमलको लेकर आता है व तीन प्रदक्षिणा करता है । फिर वह उसे जलसे अभिषेक करके कमल-पुष्पसे पूजा करता हुआ प्रणाम करता है । यह सुनकर करकण्डुने उन दोनों भीलोंको पारितोषिक दिया । तत्पश्चात् उसने वहाँ जाकर जिन भगवान्की पूजा करके बाँबीकी पूजा करते हुए उस हाथी को देखा । उसने उक्त खुदवाया | उसके भीतर स्थित पेटीको तोड़कर उसमें स्थित रत्नमय पार्श्वनाथ जिनेन्द्रकी प्रतिमाका दर्शन करके वह बहुत हर्षित हुआ । उस लयन ( पर्वतस्थ पाषाणमय गृह ) में उसने उक्त मूर्तिको अर्गल देवके नामसे स्थापित किया । मूल प्रतिमा के आगे गाँठको देखकर उसने यह विचार करते हुए कि वह यहाँ विकृत दीखती है, शिल्पीको उसे तोड़ डालनेके लिए कहा ।
१. प श दिने इति रौद्रे । २. फ न्यसत् । ३. प्रतिषु विलोक्य तस्स मिच्छामीति । ४. प तैरोमिति, श तेराहुउमिति । ५. फकारिताः । ६. श तत्रा । ७. फ धराशिव, श धरोशिव । ८. व्यन्तरे । ९. फ जिनालयणं च तस्यो, श जिनालयं तस्यो । १०. फ सीत्कारविंदेन । ११. फ तल्लयणार्गलदेव ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. पूजाफलम् ६ स्फोटयेति । तेनोक्तं जलसिरेयं जलपूरो निःसरिष्यतीति । तथापि स्फोटितम् । तदनु निर्गतं जलम् । राजादीनां निर्गमने संदेहोऽभूत् । ततो राजा दर्भशय्यायां द्विविधसंन्यासेन स्थितः।
नागकुमारः प्रत्यक्षीभूय वक्तुं लग्नः । कालमाहात्म्येन रत्नमयी प्रतिमा रक्षितुं न शक्यते इति मया जलपूर्ण लयनं [कृतम्] । ततस्त्वया जलापनयनायाग्रहो न कर्तव्य इति महताग्रहेण दर्भशय्याया उत्थापितो राजा । ततस्तं पृच्छति स्म-केनेदं लयनं कारितं, तथा वल्मीकमध्ये प्रतिमा केन स्थापितेति। नागकुमारः प्राह- अत्रैव विजयाधैं उत्तरश्रेण्यां नभस्तिलकपुरे राजानौ अमितवेगसुवेगौ अत्रार्यखण्डे जिनालयान् वन्दितुमागतो मलयगिरौ रावणकृतजिनगृहानपश्यताम् । वन्दित्वा तत्र परिभ्रमन्तौ पार्श्वनाथप्रतिमा लुलोकाते । तां मञ्जूषायां निक्षिप्य गृहीत्वेमं पर्वतमागतौ । अत्र मञ्जूषां व्यवस्थाप्य क्वापि गतो। आगत्य यावदुत्थापयतस्तावन्नोत्तिष्ठति मञ्जूषा । गत्वा तेरपुरे अवधिबोधिं महामुनिं पृष्ठवन्तौ मञ्जूषा किमिति नोत्तिष्टतीति । तैरवादीयं मञ्जूषा लयणस्योपरि लयणं कथयति । अयं सुवेगोऽपध्यानेन मृत्वा गजो भूत्वा तां मञ्जूषां यदा करकण्डुस्तामुत्पाटयिष्यति तदा गजः संन्यासेन दिवं यास्यति इति प्रतिमास्थिरत्वमवधार्येदं लयणं केन कारितमिति पृष्टो मुनिः कथयति-विजयार्धदक्षिणशिल्पीने कहा कि यह जलकी नाली है, इसके तोड़नेसे जलका प्रवाह निकलेगा। परन्तु यह सुन करके भी करकण्डने उसे तुड़वा दिया। तत्पश्चात् उससे जलका प्रवाह निकल पड़ा। राजा आदिको उक्त जल-प्रवाहसे निकलनेमें सन्देह हुआ। तब राजा दो प्रकारके संन्यासको धारण करके कुशासनपर स्थित हो गया।
तब वहाँ नागकुमार देव प्रगट होकर इस प्रकार कहने लगा-कालके प्रभावसे इस रत्नमयी प्रतिमाकी रक्षा नहीं की जा सकती है, इसलिए मैंने इस लयनको जलसे परिपूर्ण किया है । अतएव आपको इस जलके नष्ट करनेका आग्रह नहीं करना चाहिए। इस प्रकार कहकर नागकुमारने राजाको बहुत आग्रहके साथ उस कुशासनके ऊपरसे उठाया । तत्पश्चात् उसने नागकुमारसे पूछा कि इस लयनको किसने बनवाया है तथा बाँवीके बीचमें प्रतिमाको किसने स्थापित किया है। नागकुमार बोला- इसी विजयाध पर्वतके ऊपर उत्तर श्रेणिमें नभस्तिलक नामका नगर है। वहाँ के राजा अमितवेग और सुवेग इस आर्यखण्डमें जिनालयोंकी वन्दना करनेके लिए आये थे। उन्होंने मलयगिरिके ऊपर रावणके द्वारा बनवाये गये जिन-भवनोंको देखा। तब उन दोनोंने उक्त जिनभवनोंकी वन्दना करके वहाँ परिभ्रमण करते हुए पार्श्वनाथकी प्रतिमाको देखा । वे उक्त प्रतिमाको पेटीमें रखकर और उसे साथमें लेकर इस पर्वतके ऊपर आये । यहाँ उस पेटीको रखकर वे कहीं दूसरे स्थानमें गये । वापिस आकर जब उन्होंने उसे उठाया तो वह पेटी नहीं उठी। तब उन्होंने तेरपुरमें जाकर अवधिज्ञानी मुनिसे पेटीके न उठनेका कारण पूछा। उन्होंने कहा कि यह पेटी लयनके ऊपर लीन होनेको कहती है । यह सुवेग अपध्यानसे मरकर हाथी होगा और फिर जब करकण्डु उस पेटीको तुड़वावेगा तब वह हाथी संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर स्वर्गमें पहुँचेगा। इस प्रकार प्रतिमाकी स्थिरताको जानकर उन्होंने पुनः मुनिराजसे पूछा कि इस लयनको किसने निर्मित कराया है। उत्तरमें मुनिराज बोले-विजयाकी दक्षिण श्रेणिमें रथनूपुर नामका नगर है। वहाँ
१. श रत्नमयीं। २. फ गृहान् पश्यतां । ३. श तत्र भ्रमन्तौ। ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । फ ललोकते तां-प श लुलोकते तां। ५. प ब श यावदुच्चायतस्ताव । ६. ब करकंडुभूपस्ता ।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-६ : श्रेण्यां रथनूपुरे राजानौ नीलमहानीलो जाती । संग्रामे शत्रुभिः कृतविद्याछेदावशेषितौ ताविदं कारितवन्तौ । विद्याः प्राप्य विजयाधं गतौ तपसा दिवं गताविति निशम्य तौ दीक्षितौ । ज्येष्ठो ब्रह्मोत्तरं गत इतर आर्तेन हस्ती जातस्तेन देवेन संबोधितः सन् जातिस्मरो भूत्वा सम्यक्त्वं व्रतानि चादाय तां पूजयितुं लग्नः । यदा कश्चिदिमां खनति तदा शक्त्या संन्यासं गृहाणेति प्रतिपाद्य देवो दिवं गतः। त्वयोत्पाटिते सति हस्ती संन्यासेन तिष्ठति । त्वं पूर्वमत्रैव गोपालो जिनपूजया राजा जातोऽसि इति तं संबोध्य नागकुमारो नागवापिकां गतः ।
तृतीयदिने गत्वा राज्ञा तस्य हस्तिनो धर्मश्रवणं कृतम् [कारितम् ] । सम्यकपरिणामेन तनुं विसृज्य सहस्रारं गतो हस्ती । करकण्डुः स्वस्य मातुरर्गलस्य च नाग्ना लयणत्रयं कारयित्वा प्रतिष्ठांच, तत्रैव स्वतनुजवसुपालाय स्वपदं वितीर्य स्वपितृनिकटे चेरमादि क्षत्रियैश्च दीक्षां बभार, पद्मावत्यपि। करकण्डुर्विशिष्टं तपो विधायायुरन्ते संन्यासेन वितनुर्भूत्वा सहस्त्रारं गतः । दन्तिवाहनादयः स्वस्य पुण्यानुरूपं स्वर्गलोकं गता इति जिनपूजया गोपालोऽप्येवंविधो जो ऽन्यः किं न स्यादिति ॥६॥ नील और महानील राजा राज्य करते थे। शत्रुओंने युद्ध में उनकी समस्त विद्याओंको नष्ट कर दिया था। तब निःशेष होकर उन्होंने इस लयनका निर्माण कराया था। तत्पश्चात् वे अपनी उन विद्याओंको फिरसे प्राप्त करके विजयापर वापिस चले गये और पश्चात् वे दीक्षित होकर तपके प्रभावसे स्वर्गमें पहुँचे। मुनिके द्वारा प्ररू पित इस वृत्तान्तको सुनकर वे दोनों ( अमितवेग और सुवेग ) दीक्षित हो गये। उनमें बड़ा ( अमितवेग ) ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें गया और दूसरा ( सुवेग) आर्तध्यानसे मरकर हाथी हुआ। वह उक्त देवसे संबोधित होकर जातिस्मरणको प्राप्त हुआ। तब उसने सम्यक्त्वके साथ व्रतोंको ग्रहण कर लिया और फिर वह उसकी पूजा करनेमें संलग्न हो गया। जब कोई इसको खोदे तब तुम शक्तिके अनुसार सन्यासको ग्रहण कर लेना, इस प्रकार समझा करके उपर्युक्त देव स्वर्गमें वापिस चला गया। तदनुसार तुम्हारे द्वारा उसके खोदे जानेपर उक्त हाथीने संन्यास ग्रहण कर लिया है। तुम पूर्वमें यहींपर ग्वाला थे जो जिन-पूजाके प्रभावसे राजा हुए हो । इस प्रकार संबोधित करके वह नागकुमार नागवापिकाको चला गया ।
तीसरे दिन करकण्डु राजाने जाकर उस हाथीको धर्मश्रवण कराया। इससे वह हाथी निर्मल परिणामोंसे मरकर सहस्रार स्वर्गमें गया । करकण्डुने अपने, अपनी माताके और अर्गल देवके नामसे तीन लयन ( पर्वतवर्ती पाषाणगृह ) बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करायी। फिर उसने वहींपर अपने पुत्र वसुपालको राज्य देकर चेरम आदि राजाओंके साथ अपने पिताके समीपमें दीक्षा धारण कर ली । उसके साथ ही पद्मावतीने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । करकण्डुने विशेष तपश्चरण किया। आयुके अन्तमें वह संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर सहस्रार स्वगमें गया। दन्तिवाहन आदि भी अपने-अपने पुण्यके अनुसार स्वर्गलोकको गये। इस प्रकार जिनपूजाके प्रभावसे जब ग्वाला भी इस प्रकारकी विभूतिसे संयुक्त हुआ है तब दूसरा विवेकी जीव क्या न होगा ? वह तो मोक्षसुखको भी प्राप्त कर सकता है ॥६॥
१. फछेदावतोषितो ताविदं। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । पफ श तदाशक्ता । ३. फ धर्माधर्मश्रवणं। ४. प स्वस्य मातुरर्गलादवस्यवनाम्ना फ स्वमातुर्बालदेवस्य च नाम्ना। ५. श कारित्वा । ६. प स्वपित्रा पार्वे वेरमादि फ स्वपितृनिकटे चौरमादि ब स्वपित्रा चेरमादि श स्वपित्रा पावें चरमादि। ७. श संन्यासे ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. पूजाफलम् ८
[७] नानाविभूतिकलितो व्रतवर्जितोऽपि चक्री सजिनपतिं परिपज्य भक्त्या। संजातवानवधिबोधयुतो धरित्र्यां
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥७॥ अस्य कथा- जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतोविषये पुण्डरीकिणीपुरे राजा यशोधरस्तीर्थकरकुमारः वैराग्यस्य किंचिन्निमित्तं प्राप्य वज्रदन्ततनुजाय राज्यं दत्त्वा स्वयं निःक्रमणकल्याणमवाप । वज्रदन्तमण्डलेश्वर एकदास्थानस्थो दुकूलध्वजहस्ताभ्यां पुरुषाभ्यां विज्ञप्तः, देव आयुधागारे चक्रमुत्पन्नमिति एकेन, इतरेण यशोधरभट्टारकस्य केवलमुत्पन्नमिति श्रुत्वा द्वाभ्यां तुष्टिं दत्त्वा सकलजनेन समवसृतिं जगाम। जिनशरीरदीप्तिं विलोक्याभ्यर्चितानन्तरं अधिकविशुद्धिपरिणामजनितपुण्येन तदैवावधियुक्तो बभूव षटखण्डं प्रसाध्य सुखेन राज्यं कृतवानित्यादिपुराणे प्रसिद्धेयं कथा ॥७॥
[८] संबद्धसप्तमधरानिजजीवितोऽपि श्रीश्रेणिकः स च विधाय समय॑ 'पुण्यम् । वीरं जिनं जगति तीर्थकरत्वमुच्चै
नित्यं ततो हि जिनपं विभुमर्चयामि ॥८॥ जो चक्रवर्ती अनेक प्रकारकी विभूतिसे सहित और व्रतोंसे रहित था वह भक्तिपूर्वक एक बार ही जिनेन्द्रकी पूजा करके पृथिवीपर अवधिज्ञानसे संयुक्त हुआ। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥७॥
___ इसकी कथा- जम्बूद्वीपके भीतर पूर्वविदेहमें पुष्कलावती देश है। उसके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी पुरीमें यशोधर नामक तीर्थंकरकुमार राजा थे। किसी वैराग्यके निमित्तको पाकर उन्हें संसार व भोगोंसे विरक्ति हो गई। तब उन्होंने वज्रदन्त नामक पुत्रको राज्य देकर स्वयं दीक्षा धारण कर ली। उस समय देवोंने उनके दीक्षाकल्याणकका महोत्सव किया। एक दिन राजा वज्रदन्त सभाभवन ( दरबार ) में विराजमान था। तब वहाँ अपने हाथोंमें वस्त्रयुक्त ध्वजाको लेकर दो पुरुष उपस्थित हुए । उनमेंसे एकने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । दूसरेने निवेदन किया कि यशोधर भट्टारकके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। यह सुनकर राजा वज्रदन्त उन दोनोंको पारितोषिक देकर समस्त जनोंके साथ समवसरणमें गया। जब उसने जिन भगवान्के शरीरकी कान्तिको देखकर उनकी पूजा की तब परिणामोंमें अतिशय निर्मलता होनेसे उसके जो पुण्य उत्पन्न हुआ उससे उसी समय उसे अवधिज्ञानकी प्राप्ति हुई। तत्पश्चात् वह छह खण्डोंको जीतकर सुखपूर्वक राज्य करने लगा । यह कथा आदिपुराणमें प्रसिद्ध ही है ॥७॥
जिस श्रेणिक राजाने पूर्व में सातवें नरककी आयुका बन्ध कर लिया था उसने पीछे श्री वीर जिनेन्द्रकी पूजा करके लोकमें अतिशय पवित्र तीर्थंकर प्रकृतिको बाँध लिया है। इसलिए मैं निरन्तर जिनेन्द्र प्रभुकी पूजा करता हूँ ॥८॥
१. प स च विधा समर्थ्य, फ स स चिचाप समय॑ ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
goraवकथाकोशम्
[ १-८ :
अस्य कथा - - अत्रैवार्यखण्डे मगधदेशे राजगृहे राजा उपश्रेणिकः । तस्मै एकदा प्रत्यन्तवासिपूर्ववैरिणा सोमशर्मराजेन मायया सखित्वं गतेन दुष्टाश्वः प्रेषितः । वाह्यालि तो राजा अजानन् तं चटितस्तेन महाटव्यां निक्षिप्तः । तत्र च पल्लीमवस्थितेन भ्रष्टराज्येन यमदण्डक्षत्रियेण स्वगृहं नीत उपश्रेणिकः । तस्य विद्युन्मतीदेव्याश्चोत्पन्नां तिलकावतीमद्राक्षीत् याचितवांश्च । तेनोक्तम्- यदि मम पुत्र्याः पुत्राय राज्यं ददासि तदा दीयते, नान्यथेति । ततस्तेनाभ्युपगम्य परिणीता, तया सह स्वपुरमागतः । तस्याश्चिलातीपुत्रनामा 'पुत्रोऽजनि । तमादिं कृत्वा तस्य पञ्चशतपुत्राः सन्ति । राज्ञोऽपरा देवी इन्द्राणी पुत्रः श्रेणिकोऽति
रूपवान् ।
३०
एकदा राज्ञा नैमित्तिकः पृष्टः एकान्ते, कस्य मत्पुत्रस्य राज्यं स्यादिति । तेन कथ्यतेकुमारेभ्यः प्रत्येकं शर्कराघटे दत्ते योऽन्येन धारयित्वा सिंहद्वारं नाययिष्यति, तथा नृतनं घट तृणविन्दुजलेन यः पूरयिष्यति, तथा सर्वकुमाराणामेकपङ क्तौ पायसभोजनेषु मुक्तेषु श्वसु यस्तान् निवार्य भोक्ष्यते, तथा नगरदाहे सिंहासनादिकं निःसारयिष्यति तस्य स्थान्नान्यस्येति ।
एकदा राजभवनान्तः शर्करा घटेषु दत्तेषु चिलातीपुत्रादिभिः स्वयं गृहीत्वा सिंहद्वार
इस
खण्ड में मगध देशके भीतर राजगृह नगर है । वहाँपर राजा उपश्रेणिक राज्य करता था । एक समय उसके लिए म्लेच्छ देशमें रहनेवाले पूर्वके शत्रु सोमशर्मा राजाने कपट मित्रताका भाव प्रकट करते हुए एक दुष्ट घोड़े को भेजा । बाह्य वीथी में गये हुए राजा उपश्रेणिकने इस बात को नहीं जाना और वह उसके ऊपर सवार हो गया । उक्त घोड़ेने उसे ले जाकर एक भीषण वनमें छोड़ दिया । वहाँ भील वस्ती में स्थित यमदण्ड क्षत्रिय, जिसे कि राज्यसे भ्रष्ट कर दिया गया था, उपश्रेणिक को अपने घरपर ले गया । वहाँ उसने यमदण्डकी पत्नी विद्युन्मतीसे उत्पन्न हुई तिलकावती पुत्रीको देखकर उसकी याचना की । यमदण्डने कहा कि यदि मेरी पुत्री के पुत्र के लिए तुम राज्य दो तो मैं उसे तुम्हारे लिए दे सकता हूँ, अन्यथा नहीं। तब उपश्रेणिकने इस बात को स्वीकार कर उसके साथ विवाह कर लिया और फिर उसको साथमें लेकर अपने नगर में वापिस आ गया । उसके चिलातीपुत्र नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । उसको आदि लेकर उपश्रेणिक पाँच सौ पुत्र थे । राजाकी दूसरी देवी इन्द्राणी थी । उसके अतिशय सुन्दर श्रेणिक नामका पुत्र था ।
एक समय राजाने एकान्तमें किसी ज्योतिषी से पूछा कि मेरे पुत्रोंमें राजा कौन-सा पुत्र होगा उत्तर में ज्योतिषी ने कहा कि प्रत्येक राजपुत्र के लिए शक्करका घड़ा देनेपर जो उसे दूसरेके ऊपर धराकर सिंहद्वारपर लिवा ले जायगा, जो मिट्टीके नये घड़ेको तृणबिन्दुओं के जलसे ( ओसबिन्दुओंसे ) पूरा भर देगा, जो सब कुमारोंकी एक पंक्ति में खीरको परोसकर कुत्तोंके छोड़ने पर उनके बीच में स्थित रहकर उन्हें रोकता हुआ उसे खावेगा, तथा जो नगर के प्रज्वलित होनेपर सिंहासन आदिको निकालेगा, वह पुत्र राजा होगा, अन्य नहीं ।
एक समय राजभवन के मध्यमें शक्करके घड़ोंके देनेपर चिलातीपुत्र आदिने उन्हें स्वयं ले जाकर सिंहद्वारपर स्थित अपने-अपने पुरुषोंके लिए समर्पित किया । परन्तु श्रेणिक किसी दूसरे के
१. प श तस्मादेकदा । २. फ बाह्योलिंगतो । ३. प ब तया स्वपु र फ तयाश्चपुरं । ४. क नाम । ५. फ राज्ञो देवी । ६. फ भोजने मुक्तेषु श्वषु ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
१-८] १. पूजाफलम् ८
३१ स्थितैः स्वपुरुषाण समर्पिताः। श्रेणिकः केनचित् ग्राहयित्वा स्वपुरुषहस्ते दापितवान् । एकदा कुमारानाहूयोक्तवान् राजा तृणबिन्दुजलघटमेकैकमा नयन्त्विति । ततः प्रातरेकैकं घटमध्यक्षेण सह गृहीत्वान्योन्यं यथा न पश्यति तथा सतृणप्रदेशं गताः। हस्तेन जलमादाय नूतनघटे निक्षिपन्ति तत्तदैव शुष्यति । सर्वेऽपि रिक्ता आगताः। श्रेणिको वस्त्रं सान्द्रं तृणस्योपरि प्रसार्य संगृहोतजलं घटे निःपीड य पूरयित्वा गृहीत्वागत्य राज्ञो दर्शितवान् । एकदा सर्वेभ्यः पायसं भोक्तुं परिविष्टं श्वानश्च मुक्तास्तैोजनभाजनानि वेष्टितानि। सर्व कुमारास्तान् त्यक्त्वा नष्टाः । श्रेणिकः सर्वाणि संगृह्य एकैकं श्वभ्यो निक्षिपन् भुक्तवान् । अन्यदा नगरदाहे सिंहासनादिकं निःसारितवानिति सर्वाणि चिह्नानि तस्यैव मिलितानि । ततस्तं राज्याहं विशाय गूढवेषधारिपञ्चशतसहस्रभटेर्मातापितृभ्यामसन्तमपि दोषं व्यवस्थाप्य देशानिर्झटितः।
एकाकी गच्छन् नन्दिग्रामे सभामण्डपं प्रविष्टः । तत्र वयोज्येष्ठमिन्द्रदत्तनामानं वैश्यमपश्यदुक्तवांश्च । माम, एहि मया सह ब्राह्मणान्तिकमित्युभावपि तदन्तिकं गत्वा आवां राजपुरुषौ राजकार्येण गच्छन्तावास्वहे इति भोजनादिकं दीयतामित्युक्ते तैरवादीदिदमग्रहारं
ऊपर धराकर ले गया और उसे अपने पुरुषके हाथमें दिलाया । एक दिन राजाने कुमारोंको बुलाकर यह कहा कि तृणबिन्दुओं ( ओसबिन्दुओं ) के जलसे भरे हुए एक-एक घड़ेको लावो। तब प्रातःकालमें वे कुमार अध्यक्ष ( निरीक्षक ) के साथ एक-एक घड़ा लेकर ऐसे तृणयुक्त प्रदेशमें गये जहाँ कि कोई एक दूसरेको न देख सके । वहाँ वे हाथसे उस जलको लेकर नवीन घड़ेमें रखने लगे, किन्तु वह उसी समय सूख जाता था। इस प्रकार वे अन्तमें सब ही खाली हाथ वापिस आये । परन्तु श्रेणिकने सघन वस्त्रको घासके ऊपर फैलाकर और फिर जलसे परिपूर्ण उस वस्त्रको निचोड़कर उक्त जलसे घड़ेको भर लिया। पश्चात् उसने उसको लाकर राजाको दिखलाया । एक समय सब कुमारोंको खानेके लिए खीर परोसी गई, साथ ही कुत्तोंको भी छोड़ा गया । उन कुत्तोंने भोजनके पात्रोंको घेर लिया। तब सब कुमार उन पात्रोंको छोड़कर भाग गये। किन्तु श्रेणिकने उन सब पात्रोंका संग्रह करके और उनमेंसे एक-एक प्रत्येक कुत्तेको देकर अपने पात्र में स्थित खीरका स्वयं उपभोग किया। दूसरे दिन नगरके अग्निसे प्रज्वलित होनेपर श्रेणिकने सिंहासन आदि ( छत्र-चामरादि ) को बाहिर निकाला। इस प्रकार ज्योतिषीके द्वारा निर्दिष्ट वे सब चिह्न उस श्रेणिकके ही पाये गये। इससे उसको ही राज्यके योग्य जानकर माता-पिताने गुप्त वेषको धारण करनेवाले पाँच लाख सुभटोंके साथ अविद्यमान भी दोषको उसमें विद्यमान बतलाकर-कुछ दोषारोपण करके-उसे देशसे निकाल दिया ।
वह वहाँ से अकेला निकलकर नन्दिग्रामके भीतर सभामण्डपमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ उसने अवस्थामें अपनेसे बड़े किसी इन्द्रदत्त नामक वैश्यको देखकर कहा कि हे मामा ! मेरे साथ ब्राह्मणोंके पास आओ। इस प्रकार उन दोनोंने ब्राह्मणों के पास जाकर उनसे कहा कि हम दोनों राजपुरुष हैं और राजाके कार्यसे जाते हुए यहाँ उपस्थित हुए हैं, हम दोनोंको भोजन आदि दो । यह सुनकर ब्राह्मणोंने कहा कि यह सर्वमान्य अग्रहार है, इसलिए यहाँ राजपुरुषोंको पीनेके लिए
१. ब -प्रतिपाठोऽयम् । पश द्वारे स्थितैः स्व० फ द्वारे स्थितं स्व स्व० । २. फ विंदुजलमेकैकं घटमा० । ३. पश अध्यक्षेण संगहीत्वा । ४. फश तत्तदेव । ५. फ गच्छतामावामिति ब गच्छंतावस्वहें इति ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
पुण्यास्रवकथाकोशम् सर्वमान्यमिति राजपुरुषाणां जलमपि पातुं न दीयते यात' युवामिति । ततो जठराग्नेर्भगवतो मठं गतौ । तेन भोजनं कारितौ । श्रेणिकः स्वधर्म ग्राहितः । ततो द्वितीयदिने मार्गे गच्छता श्रेणिकेनोक्तम्-हे माम, जिह्वारथं चटित्वा याव इति । इतरो पहिलोऽयमिति मत्वा न किमपि वदति । ततोऽग्रे जलं विलोक्य प्राणहिते परिहितवान् , वृक्षतले छत्रं धृतवान् , भृतं ग्राममवेक्ष्य मामायं ग्रामो भृत उद्वस इति पृष्टवान् , कमपि पुरुषं स्वस्त्रीमाताडयन्तं विलोक्य बद्धा मुक्तां चेमामयं ताडयतीति पृष्टवान् , कमपि नरं मृतं वीक्ष्यायं मृत इदानीं पूर्व वेति पृष्टवान् , पकं शालिक्षेत्रं दृष्ट्वास्य फलमस्य स्वामी भुक्तवान् भोक्ष्यतीति पृष्टवान् , क्षेत्रे हलं क्षेटयन्तं नरं विलोक्य हलस्य कियन्ति डालानीति पृष्टवान् , बदरीवृक्षमवेक्ष्यास्य कियन्तः कण्टका इति पृष्टवान् । तथा चोक्तम्
जिह्वारथं प्राणहितातपत्रकुंग्रामनार्यों मृतकं च शालीन् ।
डालं च कोलद्रुमकण्टकाश्च पृष्टः कुमारेण पथीन्द्रदत्तः ॥१॥ इति । एतेषु प्रश्नेषु इन्द्रदत्तो वेणातडागं नाम स्वपुरं प्राप्तवान् । बहिस्तडागतटे वृक्षतले तं धृत्वा स्वं गृहं गतः । स्वतनुजया नन्दश्रिया प्रणम्य पृष्टः-हे तात, किमेकाकी आगतोऽसि केनचित्सार्धं वा । तेनोक्तं-मया स हैकोऽतिरूपवान् युवा च अहिलः समायातः । कीदृशं पानी भी नहीं दिया जाता है, अतएव तुम दोनों यहाँ से चले जाओ। तत्पश्चात् वे भगवान् जठराग्नि (बुद्धगुरु ) के मठमें गये। उसने उन्हें भोजन कराया और फिर श्रेणिकको अपना धर्म ग्रहण कराया । तत्पश्चात् दूसरे दिन आगे जाते हुए श्रेणिकने कहा कि हे मामा ! हम दोनों जिह्वा-रथपर चढ़कर चलें । इसपर इन्द्रदत्तने उसे पागल समझकर कुछ नहीं कहा । इसके आगे जानेपर श्रेणिकने जलको देखकर जूतोंको पहिन लिया, वृक्षके नीचे पहुँचकर छत्रीको धारणकर लिया, परिपूर्ण ग्रामको देखकर उसने पूछा कि हे मामा ! यह ग्राम परिपूर्ण है अथवा उजड़ा हुआ है, किसी पुरुषको अपनी स्त्रीको ताड़ित करते हुए देखकर उसने यह पूछा कि वह बँधी हुई स्त्रीको ताड़ित कर रहा है या छूटी हुई को, किसी मरे हुए मनुष्यको देखकर उसने पूछा कि वह अभी मरा है या पूर्वमें मरा है, पके हुए धानके खेतको देखकर उसने पूछा कि इस खेतके स्वामीने इसके फलको खा लिया है या उसे भविष्यमें खावेगा, खेतमें हलको चलाते हुए मनुष्यको देखकर उसने पूछा कि हलके कितने डाल हैं, तथा बेरीके वृक्ष को देखकर उसने पूछा कि इसके कितने काँटे हैं। वैसा ही कहा भी है
___ जिह्वारथ, जूता, छत्री, कुग्राम, स्त्री, मृत मनुष्य, धान, हलका फाल और बेरी वृक्ष के काँटे; इनके सम्बन्धमें श्रेणिक कुमारने मार्गमें इन्द्रदत्तसे प्रश्न किये ॥१॥
इन प्रश्नोंके चलते हुए इन्द्रदत्त वेणातडाग नामक अपने गाँवमें पहुँच गया। वह उसे गाँवके बाहिर तालाबके किनारे वृक्षके नीचे बैठाकर अपने घर चला गया। वहाँ अपनी पुत्री नन्दश्रीने प्रणाम करके उससे पूछा कि हे तात ! क्या आप अकेले आये हैं अथवा किसीके साथमें । उत्तरमें उसने कहा कि मेरे साथ एक अतिशय सुन्दर पागल युवक आया है। जब पुत्रीने उससे
१. प श यावां श यावो । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दिनमग्रे गच्छता । ३. श ताडयंतीति । ४.फ पूर्व मृत इदानीं चेति । ५. ब स्वामीदं भुक्तवान् । ६. ब खेटयंतं । ७. ब -प्रतिपाठोऽयम् । श पत्रं । ८. ब -प्रतिपाठोऽयम् । शथिलः ।।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
:१-८]
१. पूजाफलम् ८ तद्ग्रहिलत्वमिति पृष्टे' सर्व तद् वृत्तान्तं निरूपितं तेन । श्रुत्वा तयोक्तम्--स पहिलो न भवति । कथमिति चेत् शृणु। यदकस्मान्मामेत्युक्तवान्, भागिनेयो मान्यो भवतीत्यभिप्रायेणोक्तवान् । जिह्वारथः कथाविनोदः । जले कण्टकादिकं न दृश्यते इत्युपानहौं परिदधाति । काकादिविष्ठाभयेन वृक्षतले छत्रं धारयते । तद्ग्रामे युवां भुक्तवन्तौ नो वा। यदि भुक्तवन्तौ तदा भृतोऽन्यथोद्वंस इति । नारी यदा संगृहीता तदा मुक्तां ताडयति, परिणीतां चं बद्धामिति । यो मृतः स गुणवान् चेदिदानी मृतोऽन्यथा पूर्वमेव । शालिक्षेत्रं यदि ऋणं गृहीत्वा कृतं तदा तत्फलं भुक्तम् । नो चेत् भोक्ष्यते । हलस्य द्वे डाले । बदर्या द्वौ कण्टकाविति ।
नन्दश्रिया तदभिप्रायं व्याख्याय स व तिष्ठतीति पृष्टे तडागतटे तिष्ठतीत्युक्ते सा स्वसखीं दीर्घनखीं निपुणमतीसंज्ञां नखेन तैलं गृहीत्वा तदन्तिकं प्रेषितवती। तया गत्वा स पृष्टः- इन्द्रदत्तश्रेष्ठिना सह त्वमागतोऽसि । तेन ओमित्युक्त तर्हि तत्सुता नन्दश्री कन्या, तयेदं तैलं प्रेषितमिदमभ्यज्य स्नात्वा गहमागच्छेत्युक्ते तैलं वीक्ष्य पादेन गर्ने विधाय जलेन फिर पूछा कि उसका पागलपन कैसा है तब उसने मार्गकी उपर्युक्त सब घटनाओंको कह सुनाया। उनको सुनकर नन्दश्रीने कहा कि वह पागल नहीं है। वह पागल कैसे नहीं है, इसे सुनियेउसने अकस्मात् जो आपको मामा कहकर सम्बोधित किया है उससे उसका यह अभिप्राय था कि भानजा आदरके योग्य होता है। जिह्वारथपर चढ़कर चलनेसे उसका अभिप्राय यह था कि हम परस्पर कुछ कथावार्ता करते हुए चलें, जिससे कि मार्गमें थकावटका अनुभव न हो । जलके भीतर चूंकि काँटे आदिको नहीं देखा जा सकता है अतएव वह जलमेंसे जाते हुए जूतोंको पहिन लेता है। कौवा आदिका विष्ठा ऊपर न गिरे, इस विचारसे वह वृक्ष के नीचे जाकर छत्ता लगा लेता है। उस गाँवमें तुम दोनोंने भोजन किया अथवा नहीं किया ? यदि भोजन कर लिया है तो वह गाँव परिपूर्ण है, अन्यथा वह ऊजड़ ही है। जिस स्त्रीको वह मार रहा था वह यदि उसकी रखेली थी तब तो वह मुक्त स्त्रीको मार रहा था, और यदि वह उसकी विवाहिता थी तो वह बद्ध स्त्रीको मार रहा था । जो मनुष्य मर गया था वह यदि गुणवान् था तब तो समझना चाहिए कि वह अभी मरा है, परन्तु यदि वह गुणहीन था तो उसे पूर्व में भी मरा हुआ ही समझना चाहिये । धानके खेतको यदि किसानने कर्ज लेकर किया था तब तो उसका फल खाया जा चुका समझना चाहिये; और यदि उसे कर्ज लेकर नहीं किया गया है तो उसका फल भविष्यमें खाया जावेगा, यह समझना चाहिए । हलके दो डाल होते हैं। बेरीके दो-दो मिले हुए काँटे होते हैं ।
इस प्रकार नन्दश्रीने श्रेणिकके अभिप्रायकी व्याख्या करके पितासे पूछा कि वह कहाँ है। उत्तरमें इन्द्रदत्तने कहा कि वह तालाबके किनारे बैठा है। यह सुनकर उसने अपनी निपुणमती नामकी दीर्घ नखवाली दासीको नखमें तेल लेकर उसके पास भेजा। दासीने जाकर उससे पूछा कि इन्द्रदत्त सेठके साथ तुम आये हो क्या । उत्तरमें जब उसने कहा कि 'हाँ' तब निपुणमतीने उससे कहा कि इन्द्रदत्तके एक नन्दश्री नामकी कन्या है, उसने यह तेल भेजकर कहलाया है कि इस तेलको लगाकर और स्नान करके मेरे घरपर आवो । यह सुनकर श्रेणिकने तेलकी ओर देखा। फिर पाँवसे एक गड्ढा करके और उसे पानीसे भरकर उससे कहा कि तेलको यहाँ रख दो। तदनुसार
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श तद्ग्रथिलत्वं पृष्टे । २. फ सर्वं तद्वृत्तं निवेदितवान् तेन । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । प श मान्यो भवतीत्युक्तवान् अभि० फ मान्यो भविष्यतीत्यभि०। ४. ब इति पानहो । ५. पश
वष्टयाभयेन । ६. फ छत्रं धूत इति ब छत्रं धरते । ७. ब भती नान्यथो०। ८. फ 'च' नास्ति ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८: पूरित्वात्र तैलं निक्षिपेत्युक्ते सा तत्र निक्षिप्य गच्छन्ती पृष्टा तद्गुहं केति । सा को प्रदर्श्य गता । स स्नात्वा तदभ्यज्य केशादिकं स्निग्धं कृत्वा नगरं प्रविष्टस्तालगुमालंकृतं गृहं गतः। तावत् सा द्वारे पकं कारयामास । तस्योपरि लघुपाषाणान् धरते स्म । स तान् वीक्ष्य तत्र प्रविश्य बहुकर्दमपादः प्राङ्गणे उपविष्टः । तयातिस्तोकं जलं प्रस्थापितम् । पादौ प्रक्षाल्यान्तः प्रविशेति । स जलदर्शनाद्विस्मितो वेणुचीरणं गृहीत्वा पङ्कमपसार्य जलेन पादौ साद्रौं कृत्वा स्तोकं जलं पुनः समर्पितवान् । ततोऽत्यासक्तया तयान्तः प्रवेशितो भणितश्चास्माकं प्राघूर्णको भव । स बभाणाद्य परान्नं न भुञ्जाम । मद्धस्ते द्वे षोडषिके तण्डुलास्तिष्ठन्ति, तैर्यद्यष्टादशभक्ष्यादियुक्तभोजनं कोऽपि ददाति तदा भुज्यते, नान्यथा । ततः सा तान् जग्राह, तत्पिप्टेनापूपाश्च कारिता [:]| निपुणमती व्यक्रोणीत । विटजनस्तस्यै अपूपग्रहणव्याजेन बहु द्रव्यं दत्तवान् । तेन द्रव्येण सा तथा तस्य भोजनमदात् । ततः सकषायपूगीफलभागान स्वल्पपर्णबहुचूर्णोपेतान् ताम्बूलानदात् । स तान् चर्वन् कषायं परित्यजन् चूर्णेन विचित्रं चित्रमलिखत् । पत्रयोग्यपूगीफलं सावशेष पत्रं चखाद। तदनु सातिहृष्टानेकप्रदेशवकं सछिद्रं प्रवालं तदने धृतं दवरकश्च । दवरकाग्रे गुडं विलिप्य यावत्तत् प्रविशति तावत्तच्छिद्रे प्रवेश्य वह तेलको रखकर जब वापिस जाने लगी तब श्रेणिकने उससे पूछा कि नन्दश्रीका घर कहाँपर है। उत्तरमें वह कानोंको दिखलाकर वापिस चली गई। तब श्रेणिकने स्नान किया और फिर उस तेलको लगाते हुए बालों आदिको स्निग्ध करके वह नगरमें जा पहुँचा । वहाँ वह तालवृक्षसे सुशोभित घरको देखकर उसके भीतर चला गया। इस बीचमें नन्दश्रीने वहाँ कीचड़ कराकर उसके ऊपर छोटे पत्थरोंको डलवा दिया था। वह उनको देखकर कीचड़के भीतर प्रविष्ट हुआ। इससे उसके पाँवोंमें बहुत-सा कीचड़ लग गया था । वह उसी अवस्थामें आंगनमें जाकर बैठ गया। नन्दश्रीने पाँव धोनेके लिए बहुत ही थोड़ा जल रखकर उससे कहा कि पाँवोंको धोकर भीतर आओ। उस जलको देखकर श्रेणिकको बहुत आश्चर्य हुआ। उसने बांसके चीरनको लेकर पहिले उससे कीचड़को दूर किया, फिर जलसे पाँवोंको गीला करके बचे हुए थोड़े-से जलको वापिस दे दिया। तत्पश्चात् नन्दश्री अतिशय अनुरक्त होकर उसे भीतर ले गई और उससे अपने अभ्यागत होनेको कहा । उत्तरमें उसने कहा कि मैं आज दूसरेके अन्नको न खाऊँगा। मेरे हाथमें बत्तीस चावल स्थित हैं। उनसे यदि कोई अठारह भोज्य आदि पदार्थोंसे संयुक्त भोजन देता है तो मैं उसे खाऊँगा, अन्यथो नहीं । इसपर नन्दश्रीने उन चावलोंको ले लिया और उनके आटेसे पुए बनाये । उनको निपुणमतीने ले जाकर बेच दिया । जार पुरुषोंने पुओंके बहानेसे उसे बहुत-सा धन दिया। इस धनसे नन्दश्रीने श्रेणिकको उसके कहे अनुसार अठारह भोज्य पदार्थोंसे संयुक्त भोजन करा दिया। तत्पश्चात् उसने उसे पान खानेके लिए छोटा पान और बहुत चूना तथा कत्थाके साथ सुपाड़ीके टुकड़ोंको दिया। तब वह कषायरसको थूकते हुए उन्हें चबाने लगा । साथ ही उसने चूनाके चूर्णसे अनुपम चित्र बनाया। जब पानके योग्य सुपाड़ी शेष रही तब उसने ताम्बूलपत्रको खाया। पश्चात् नन्दश्रीने अतिशय हर्षित होकर अनेक स्थानमें कुटिल छेदयुक्त प्रवाल (मुंगा) और धागेको उसके सामने रक्खा। तब श्रेणिकने धागेके अग्रभागमें गुड़को लपेटकर जितना जा सका उतना उसे प्रवालके छेदमें डाल दिया। पश्चात् उसे चीटियोंके स्थानमें रख दिया । वहाँ
१. पश तदभ्यक्तके व तदा भ्युज्य । २. फ श धारते। ३. बे प्रद्याखणे । ४. ब प्रविश्योति । ५. फ ब चीवरं । ६. फ ब श भुंजीय । ७. ब मद्वस्वे [स्त्र] । ८. फ ब भक्षादि । ९. ब मलखीत् ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८]
१. पूजाफलम् ८ स पिपीलिकाप्रदेशे धृतवान् । पिपोलिकाभिराकृष्टो दवरकः । ततः सगुणं प्रवालं तस्या दत्तवान्।
___ ततोऽत्यासक्ता पितरं बभाण शोधं विवाह कुर्विति । ततस्तत्पितुः प्रार्थनावशात् सानुरागबुद्धया च तां परिणीतवान् श्रेणिकः सुखेन स्थितः । कतिपयदिनैस्तस्या गर्भोऽभूदोहलकश्च सप्तदिनान्यभयघोषणारूपस्तमप्राप्नुवन्ती क्षीणशरीरा जाता। तच्चित्तं कथमपि विभिद्य श्रेणिकश्चिन्ताप्रपन्नो वेन्नानदीतटे गत्वा स्थितस्तदवसरे तदधीशवसुपालस्य हस्ती स्तम्भमुन्मूल्य राजादीनुल्लङध्य निर्गतः श्रेणिकेन वशीकृतः । तं चटित्वा पुरं प्रविश्य हस्ती बद्धस्तुऐन राशाभीष्टं याचस्वेत्युक्तेऽभिमानित्वादहंकारित्वाञ्च न किमपि याच्यते । तदेन्द्रदत्तनोक्तम्- देवास्य सप्तदिनान्यभयघोषणावाञ्छा विद्यते, तां प्रयच्छेति याचिता प्राप्ता च । ततस्तस्या अभयकुमारनामा पुत्रो बभूव । तमक्षरादिविद्यासु शिक्षयन् सुखेन स्थितः श्रेणिकः।
इतो राजगृहे उपश्रेणिकश्चिलातोपुत्राय राज्यं दत्त्वा मृतिमुपजगाम । स चान्याये प्रवर्तितुं लग्नः। ततः प्रधानैः श्रेणिकस्य विज्ञापनापत्र प्रस्थापितं राज्यार्थ शीघ्रमागम्यतामिति । ततः श्वशुरस्य स्वरूपं निवेद्य सपुत्रीपुत्रश्च पश्चादागच्छेति गमनोत्सुकोऽभूद्यदा तदा चीटियोंने उस धागेको खींचकर उसके दूसरी ओर पहुँचा दिया। बस फिर क्या था ? श्रेणिकने धागेसे संयुक्त प्रवाल मणि नन्दश्रीके लिए दे दिया।
तत्पश्चात् नन्दश्रीने श्रेणिकके ऊपर अत्यन्त आसक्त होकर उसके साथ शीघ्र ही विवाह कर देनेके लिए पितासे कहा। तब श्रेणिकने उसके पिताकी प्रार्थनासे तथा स्वयं अनुरागयुक्त होनेसे नन्दश्रीके साथ विवाह कर लिया। फिर वह वहाँ सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ दिनोंमें नन्दश्रीके गर्भ रह गया। उस समय उसे सात दिन जीवहिंसा न करनेकी घोषणारूप दोहल उत्पन्न हुआ। उक्त दोहलकी पूर्ति न हो सकनेसे उसका शरीर उत्तरोत्तर कृश होने लगा। तब श्रेणिक किसी प्रकारसे उसके दोहलको ज्ञात करके चिन्तातुर हुआ। वह व्याकुल होकर वेन्ना (कृष्णवेणा ) नदीके किनारे जाकर स्थित था। इसी समय उस पुरके राजा वसुपालका हाथी खम्भेको उखाड़ कर राजा आदिको लाँघता हुआ वहाँ जा पहुँचा। श्रेणिकने उसे वशमें कर लिया। वह उसके ऊपर चढ़कर नगरमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ पहुँचकर उसने हाथीको बाँध दिया। इससे राजाको बहुत प्रसन्नता हुई। उसने श्रेणिकसे अभीष्ट वरकी याचना करनेके लिए कहा। परन्तु अभिमानी और अहंकारी होनेसे श्रेणिकने राजासे कुछ भी याचना नहीं की। तब इन्द्रदत्तने कहा कि हे राजन् ! इसकी.इच्छा है कि नगरमें सात दिन तक अभयकी घोषणा की जाय। उसे स्वीकार करके वैसी घोषणा करा दीजिए। राजाने इसे स्वीकार करके नगरमें सात दिन तक अभयकी घोषणा करा दी । पश्चात् नन्दश्रीके अभयकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। श्रेणिकने उसे अक्षरादि विद्याओंमें शिक्षित किया । इस प्रकार श्रेणिक वहाँ सुखसे स्थित था।
उधर राजगृहमें उपश्रेणिक राजा चिलातीपुत्रको राज्य देकर मृत्युको प्राप्त हुआ। वह चिलातीपुत्र अन्याय मार्गमें प्रवृत्त हो गया। तब मंत्रियोंने श्रेणिकके पास विज्ञप्तिपत्र भेजकर उससे राज्य कार्यके निमित्त शीघ्र आनेकी प्रार्थना की। इस वृत्तान्तको श्रेणिकने अपने ससुरसे कहा। फिर वह 'आप अपनी पुत्री ( नन्दश्री ) और पुत्रीपुत्र ( अभयकुमार ) के साथ हमारे यहाँ पीछे आर्वे'
१. ब तस्य । २.५ वेत्रानदीतटे फ वेणानदीतटे ब वैण्णानदीतटे। ३. श वसुधापालस्य । ४. याचते। ५. फ ब शीघ्रमागंतव्यमिति । ६. फ ब निवेद्य पुत्र्या नप्ता च पश्चां ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
goraवकथाकोशम्
[ १-८ :
पञ्चशतसहस्रभटाः प्रकटीभूतास्तैः श्वशुरदत्तभृत्यैश्च' कतिपयदिनै राजगृहमवाप । तदागमनं परिज्ञाय चिलातीपुत्रो नष्ट्वा दुर्गमाश्रितः । श्रेणिको राजाजनि । राज्ये स्थिरे जाते नन्दिग्रामग्रहणार्थे भृत्यान् प्रेषितवान् यदा तदा प्रधानैः किमित्युक्ते स एकग्रामो मया विनाश्यते । तस्योपरि वैरमस्तीति । तर्हि दोषं व्यवस्थाप्य विनाशनीय इति तैरुक्तस्तत्र मेषः प्रस्थापितोऽस्य यथेष्टं ग्रासो दातव्यः, कृशः पुष्टश्च भवति चेद्युष्मान् विनाशयामीति । तदागमनेन ब्राह्मणा दुःखिता जातास्तदैवेन्द्रदत्तः सपरिवारस्तत्र प्राप्तः । तद्वृत्तान्तं विज्ञायाभयकुमारेण समुद्धीरिताः । व्याघ्रद्वयमध्ये बद्धो यदि पुष्टो भवति तौ समीपे क्रियेते, यदि कृशस्तदा दूरं विधीयेते इति तन्मान एव कतिपयदिनैस्तस्य दर्शितः । ततोऽभयकुमारस्य पादयोर्लग्नाः विप्राः, यावदस्माकं शान्तिर्भवति तावत्त्वयात्र स्थातव्यमिति । प्रतिपन्नं तेन । अन्यदा विप्राणामादेशो दत्तः कर्पूरवापिका आनेतव्येति । अभयकुमारोपदेशेन तत्समीपवर्तिनः कस्यचिदुक्तचोदन्तो राज्ञो निद्रावसरः कथनीय इति । ग्रामे यावन्तो बलीवर्दा महिषाश्च तेषां युगकन्धराणां मालां कृत्वा राजगृहाद् बहिः स्थिताः । तन्निद्रावसरे तूर्यादि निनादैरन्तः प्रविष्टा देव,
३६
इस प्रकार ससुर से कहकर जब राजगृह जानेके लिए उत्सुक हुआ तब वे गुप्त पाँच लाख सुभट प्रगट हो गये । इस प्रकार वह इन सुभटों और ससुर के द्वारा दिये गये सेवकों के साथ कुछ दिनों में राजगृह नगर में जा पहुँचा। उसके आगमनको जानकर चिलातीपुत्र भागकर दुर्गके आश्रित हुआ । तब श्रेणिक राजा हो गया । राज्यके स्थिर हो जानेपर जब श्रेणिकने नन्दिग्रामको ग्रहण करने के लिए सेवकोंको भेजा तब मन्त्रियों के पूछनेपर उसने कहा कि उस एक गाँवको मुझे नष्ट करना है, उसके ऊपर मेरी शत्रुता है । इसपर मन्त्रियोंने कहा कि जब उसे नष्ट ही करना है तो कुछ दोषारोपण करके नष्ट करना चाहिए । तब श्रेणिकने वहाँ एक मेढ़ेको भेजकर यह सूचना करायी कि इसे इसकी रुचि के अनुसार घास दिया जाय । परन्तु यदि वह दुर्बल अथवा पुष्ट हुआ तो मैं आप trist नष्ट कर दूँगा । इस प्रकार की राजाज्ञाको पाकर नन्दिग्रामके ब्राह्मण दुःखी हुए। इसी समय वहाँ परिवार के साथ इन्द्रदत्त आ पहुँचा । उपर्युक्त राजाज्ञाके वृत्तान्तको जानकर अभयकुमारने उन ब्राह्मणों को धैर्य दिलाया, उसने उक्त मेढ़ेको दो व्याघ्रोंके बीच में बाँध दिया । यदि वह पुष्ट होता दिखता तो उन व्याघ्रोंको उसके कुछ समीप कर दिया जाता था और यदि वह दुर्बल होता दिखता तो उक्त व्याघ्रोंको कुछ दूर कर दिया जाता था। इस प्रकार कुछ दिनों तक उसके शरीरका प्रमाण उतना ही दिखलाया गया । इससे वे ब्राह्मण अभयकुमारके चरणोंमें गिर गये । उन सबने अभयकुमारसे प्रार्थना की कि जब तक हम लोगोंका उपद्रव दूर नहीं होता है तब तक आप यहीं रहें । अभयकुमार ने इसे स्वीकार कर लिया। दूसरी बार राजाने ब्राह्मणों को कर्पूरवापीके लाने की आज्ञा दी । तब अभयकुमारके उपदेशसे राजाके समीपवर्ती किसी मनुष्यसे यह वृत्तान्त कहकर उससे श्रेणिकके सोनेके समयको बतला देनेके लिए कहा । गाँवमें जितने बैल और भैंसा थे उनकी युगग्रीवाओंकी माला बनाकर वे ब्राह्मण वहाँ गये और राजप्रासाद के बाहिर स्थित गये । पश्चात् वे राजाके सोनेके समयमें वादित्रोंके शब्दों के साथ राजप्रासादके भीतर प्रविष्ट
१. कतैः स्वसुरेंद्रदत्त व ते स्वसुरदत्त पशतैः श्वसुरदत्तं । २. फ परिज्ञात्वा । ३. प पुत्र दृष्ट्वा दुर्ग व पुत्रो नष्टादुग्रं श पुत्रस्तं दृष्ट्वा दुर्गं । ४. प तैरुक्तौ फ तैरुक्तैः ब तैरुक्त श तैरुक्तो । ५. प चोदत्तो ब चौदत्तो । ६. प तुर्यादि श भूर्यादि । ७. पश रंतरं प्रविष्टा । ८. श देहेव ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८]
१. पूजाफलम् ८ वापिका आनीतेति कथिते निद्रालुना तेन तत्रैव मुञ्चतेत्युक्ते बलीवान् गृहीत्वा गताः। राज्ञा पृष्टे तत्रैव मुक्तेत्युक्तम् । अन्यदा हस्ती अस्य गौरवप्रमाणं प्रतिपादनीयमिति प्रस्थापितः । अभयकुमारेण तडागे वहिनं निक्षिप्य हस्ती प्रवेश्य निःसारितः। तत्प्रमाणास्तत्र पाषाणा निक्षिप्ताः । तानूर्वमानेन प्रमीय तद्गुरुत्वं कथितम् । अन्यदा खदिरसारभूतं हस्तप्रमाणं काष्ठं प्रेषितवानस्याधस्तनोपरितनांशी कथनीयाविति । तजले निक्षिप्य तौ परिज्ञाय निरूपितौ । अन्यदा तिलाः प्रेषिताः, येन केनचिन्मानेन तिलान् गृहीत्वा तन्मानप्रमाणमेव तैलं दातव्यमिति । दर्पणतले तिलान् गृहीत्वा तैलं दत्तम् । अन्यदादेशो दत्तो द्विपदचतुष्पदनालिकेरक्षीरं विहाय भोजनयोग्यं तीरमानेतव्यमिति क्षीरग्रहणावसरे शालिकणिशानि निःपीड्य घटान्तरितं कृत्वा तत्क्षीरं प्रेषितम् । अन्यदादेशो दत्तो एक एव कुक्कुटोऽस्मदने योद्धव्य इति तस्य दर्पणं प्रदर्श्य तबिम्बेनैव योधितः। अन्यदादेशो दत्तो बालुकावेष्टनमानेतव्यमिति वालुकां गृहीत्वा राजनिकटं गत्वोक्तवन्तो हे देव, भवद्भाण्डागारस्थं तद्वेष्टनं प्रदर्शनीयं येन तत्प्रमाणं कुर्म इति । अस्मद्भाण्डारे नास्ति तर्हि वापि नास्तीति वचनेन जित्वा गतः। अन्यदादेशो
हुए । उन लोगोंने राजासे निवेदन किया कि हे देव ! हम लोग कर्पूरवापीको ले आये हैं। इसे सुनकर राजाने नींदकी अवस्थामें कहा कि उसको वहींपर छोड़ दो। यह सुनकर वे बैलोंको लेकर वापिस चले गये। फिर जब राजाने उनसे पूछा तो उन लोगोंने कह दिया कि आपकी आज्ञानुसार हमने उसको वहीं छोड़ दिया है। तीसरी बार श्रेणिकने एक हाथीको पहुँचाकर उसके शरीरका प्रमाण ( वजन ) बतलानेकी आज्ञा दी। तब अभयकुमारने तालाबमें एक नावको रखकर उसके भीतर हाथीको प्रविष्ट कराया और पश्चात् उसे निकाल लिया। हाथीके साथ उस नावको गहरे पानी में ले जाकर उसका जितना अंश पानीमें डूबा उसको चिह्नित कर दिया। फिर नावमेंसे उस हाथीको नीचे उतारकर उसमें पत्थरोंको रक्खा। उपर्युक्त चिह्न प्रमाण नावके डूबने तक जितने पत्थर नावमें आये उन सबको तौलकर तत्प्रमाण हाथीके शरीरका प्रमाण निर्दिष्ट करा दिया। चौथी बार श्रेणिकने एक हाथ प्रमाण खैरकी सारभूत लकड़ीको भेजकर उसके नीचे और ऊपरके भागोंको बतलानेकी आज्ञा दी। तब उसको पानीमें डालकर उन दोनों भागोंको ज्ञात किया और श्रेणिकको बतला दिया । पाँचवीं बार उसने तिलोंको भेजकर यह आज्ञा दी कि जिस किसी मानसे तिलोंको ले करके उस मानके प्रमाण ही तेल दो। तब दर्पणतलके प्रमाण तिलोंको लेकर तत्प्रमाण तेल समर्पित कर दिया गया । छठी बार ब्राह्मणों को यह आज्ञा दी गई कि द्विपद ( मनुष्य ), चतुप्पद ( गाय-भैंस आदि ) और नारियलके दूधको छोड़कर भोजनके योग्य दूधको लाओ। इस आज्ञाकी पूर्तिके लिए दूधके ग्रहणके समय धानके कणोंको पेरकर और उसे घड़ेके भीतर करके वह दूध श्रेणिके पास भेज दिया गया । सातवीं बार उन्हें यह आदेश दिया गया कि हमारे आगे एक ही मुर्गेको लड़ाओ। तब उस मुर्गेको दर्पण दिखलाते हुए उसके प्रतिबिम्बके साथ ही लड़ाकर उक्त आदेशकी पूर्ति कर दी गई। आठवीं बार जब उन्हें बालुके वेष्टनको लानेकी आज्ञा दी गई तब वे बालुको लेकर राजाके पास गये और उससे कहा कि हे देव ! आप अपने भाण्डागारमें स्थित बालुके वेष्टनको दिखलाइए, जिससे कि हम उसके बराबर इसे तैयार कर दें। यह सुनकर जब राजाने कहा कि हमारे भाण्डागारमें वह नहीं है तब उन ब्राह्मणोंने कहा कि तो फिर वह कहीं
१. फ 'अस्य' नास्ति । २.फ पटांतरितं कृत्वा तत्क्षीरे ब पट्टांतरितं कृत्वा तत् क्षीर-।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८: दत्तो घटस्थकूष्माण्डमानेतन्यमिति लघु तत्फलं घटे निक्षिप्य वर्धयित्वा दत्तम् । अन्यदा राशा प्रत्युपायदायकपरिक्षानार्थे विचक्षणाः प्रेषिताः। तानागच्छतो बहिर्जम्बूवृक्षस्योपरिस्थितोऽभयकुमारोऽपश्यत् । अमोभिर्मा कोऽपि वदत्विति' सर्वे बटुका निवारिताः । तैरागत्य वृक्षतले उपविश्य कुमारस्योक्तमस्मभ्यं जम्बूफलानि देहीति । तेनोक्तमुष्णानि दीयन्ते शीतलानि वा। तैरुक्तमुष्णानि प्रयच्छेति, ततः पक्कानि गृहीत्वा ईषद्धस्ते मर्दयित्वा बालुकामध्ये निक्षिप्तानि । वालुकाः फूत्कुर्वतस्तानवलोक्यं कुमारोऽभणत् 'दूरेण फूत्कुर्वन्त्वन्यथा श्मभूणि उपप्लुष्यन्ति ।' ततस्ते लजिताः शीतलानि याचयित्वा व्याघुट य गत्वा राक्षस्तत्स्वरूपं कथितवन्तः । ततोsन्यदादेशो दत्तस्तत्रत्यबालकैर्मार्गमुन्मार्ग शकटाद्यारोहणमहोरात्रं च वर्जयित्वागन्तामति । ततः शकटीनामक्षेषु शिक्यानि बन्धयित्वा तेषु प्रविश्याभयकुमारादयः संध्यावसरे राजानमपश्यन् । तदुक्तम्
मेषश्च वापी करिकाष्ठतैलं क्षीराण्ड वालुकवेष्टनं च ।
घटस्थकूष्माण्डफलं शिशूनां दिवानिशावर्जसमागमं च ॥२॥ भी सम्भव नहीं है, यह कहकर वे वापिस चले गये। नवमी बार राजा श्रेणिकने उन्हें यह आज्ञा दी कि घड़ेमें रखकर कुम्हड़ाको लाओ। तब उन्होंने एक छोटे-से कुम्हड़ाके फलको घड़के भीतर रखकर वृद्धिंगत किया और फिर उसे राजाको समर्पित कर दिया ।
इसके पश्चात् राजाने प्रत्युपाय देनेवाले (उक्त समस्याओंके हल करनेका उपाय बतानेवाले) मनुष्यको ज्ञात करनेके लिए चतुर पुरुषोंको नन्दिग्राम भेजा । उस समय अभयकुमार गाँवके बाहिर एक जामुनके वृक्षपर चढ़ा हुआ था । उसने उनको आते हुए देखकर सब बालकोंसे कहा कि इनके साथ कोई वार्तालाप न करे, इस प्रकार कहकर उसने समस्त बालकोंको उनसे बातचीत करनेसे रोक दिया। तत्पश्चात् राजाके द्वारा भेजे हुए वे चतुर पुरुष वहाँ आकर उक्त जामुन वृक्षके नीचे बैठ गये। वहाँ उन्होंने अभयकुमारसे कहा कि हमारे लिए कुछ जामुनके फल दो। इसपर अभयकुमारने उनसे पूछा कि गरम फल दिये जाँय या शीतल । उत्तरमें उन्होंने गरम फल देनेके लिए कहा। तब अभयकुमारने पके हुए फलोंको लेकर और उन्हें कुछ हाथसे मसलकर वालुके मध्यमें कस्खा, उन फलोंको पाकर जब वे उनके ऊपरकी धूलको फूंकने लगे तब उन्हें ऐसा करते हुए देखकर अभयकुमारने कहा कि दूरसे फूंको, अन्यथा दाढ़ियां जल जावेंगीं। इससे लज्जित होकर उन्होंने उससे शीतल फलोंकी याचना की । तत्पश्चात् वापिस जाकर उन लोगोंने यह सब वृत्तान्त राजासे कह दिया। उसे सुनकर राजाने दूसरे दिन उन्हें यह आदेश दिया कि नन्दिग्रामके बालक मार्ग, कुमार्ग और गाड़ी आदि सवारी तथा दिन-रात्रिको छोड़कर यहाँ उपस्थित हों। तब अभयकुमार आदिने गाड़ी आदिके अक्षोंमें सीकोंको बाँधकर और उनके भीतर प्रविष्ट होकर सन्ध्याके समयमें राजाके दर्शन किये । वही कहा है
__ मेढ़ा, वापी, हाथी, लकड़ीका टुकड़ा, तेल, दूध, मुर्गा, बालुवेष्टन, घड़ेमें स्थित कुम्हड़ाका फल और दिन व रातको छोड़कर बालकोंका आगमन; इतने प्रश्नोंका समाधान करके राजाज्ञाकी आज्ञाके पालन करनेका आदेश नन्दिग्रामके उन ब्राह्मणोंको दिया गया था ॥२॥
१. फ वदंत्विति । २. ५ वटुकार्निवारिताः, फ वटुकानि निवारिताः ब वाटुका निवारिताः । ३. श अतोऽग्रेऽग्रिम मुष्णाणि' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । ४. फ ब च । ५. फ फुत्कुर्वन्त त-। ६ फ स्मश्रुव्यपष्णुष्यन्ति, ब स्मंश्रत्युपश्ष्यनुन्ति । ७. फ लक्षिताः । ८. श क्षीरांवुजं ।
:
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८ ]
१. पूजाफलम् ८
३६
कर्तव्यमिति । ततः पितापुत्रयोः संयोग इति तेन तद्ग्रामस्याभयदानं दापितम् । ततो राज्ञा नन्दश्रियो महादेवपट्टो बद्धो । अभयकुमारस्य च युवराजपट्टः । जठराग्निं राजगुरुं कृत्वा वैष्णवं धर्म प्रकाशयन् सुखेन स्थितः ।
अत्र कथान्तरम् । तथाहि - अत्रैक इभ्यः समुद्रदत्तस्तस्य द्वे भायें, वसुदत्ता वसुमित्रा च । कनिष्ठायाः पुत्रोऽस्ति । उभे अपि तं क्रीडयतः स्तनं च पाययतः । मृते श्रेष्ठिनि तयोविवादोऽजनि मम पुत्र इति । राजापि तं निवर्तयितुं न शक्नोति । अभयकुमारोऽपि बहुप्रकारैस्तद्भेदयन्नपि यदा न जानाति तदा वालं भूमौ निक्षिप्य छुरिकामाकृष्य तस्योपरि व्यवस्थाप्योभाभ्यामर्धमर्ध पुत्रस्य ग्राह्यमित्युक्ते मात्रोदितमस्यै समर्पय देवाहमवलोक्य तिष्ठामोति । ततस्तन्मातरं परिज्ञाय तस्यै समर्पितः ।
अन्यदायोध्यानगरे कश्चित्कुटुम्बी बलभद्रः, तद्वनितां रूपवर्ती भद्रसंज्ञां विलोक्य ब्रह्मराक्षसस्तत्कुटुम्बी वेषेण गृहं प्रविष्टस्तया गतिभङ्गेन ज्ञात्वा द्वारं दत्तमपवरकस्य । इतरो प्यागतः । तदा गोत्रस्य विस्मयोऽभूत् । संकेतादिकमुभावपि कथयतः । कोऽपि भेदयितुं न शक्नोति । तदा अभयकुमारान्तिकमागतौ सभामध्ये । दृष्टि- स्वर - गतिभङ्गेन भेदयितुमशक्त:
७
तत्पश्चात् पिता और पुत्रका मिलाप हो जानेसे अभयकुमार के द्वारा उस नन्दिग्रामको अभयदान दिलाया गया । पश्चात् राजाने नन्दश्री को महादेवीका और अभयकुमारको युवराजका पट्ट बाँधा । वह जठराग्निको राजगुरु बनाकर वैष्णव धर्मका प्रचार करता हुआ सुखपूर्वक राज्य करने लगा |
।
यहाँ दूसरा एक कथानक है जो इस प्रकार है- यहाँ एक समुद्रदत्त नामका एक धनी था । उसके दो स्त्रियाँ थीं- वसुदत्ता और वसुमित्रा । छोटी पत्नीके एक पुत्र था । उसको वे दोनों ही खिलातीं और स्तनपान कराती थीं सेठके मर जानेपर उन दोनोंमें पुत्रविषयक विवाद उत्पन्न हुआ – वसुदत्ता कहती कि पुत्र मेरा है और वसुमित्रा कहती कि नहीं, वह पुत्र मेरा है। राजा' भी इस विवादको नष्ट नहीं कर सका । अभयकुमारने भी अनेक प्रकारसे इस रहस्यको जानने का प्रयत्न किया, किन्तु जब वह भी यथार्थ बातको नहीं जान सका तब उसने बालकको पृथिवीपर रखकर एक छुरी उठायी और उसे उस बालकके ऊपर रखकर उन दोनोंसे कहा कि मैं इस बालकके बराबर-बराबर दो टुकड़े कर देता हूँ । उनमेंसे तुम दोनों एक-एक टुकड़ा ले लेना । इसपर बालककी जननीने कहा कि हे देव ! ऐसा न करके बालकको इसे ही दे दें । मैं उसको देखकर ही सुखी रहूँगी । इससे अभयकुमारने बालककी यथाथ माताको जानकर पुत्रको उसके लिए दे दिया ।
किसी समय अयोध्या नगरमें एक बलभद्र नामका किसान रहता था। एक समय उसकी भद्रा नामकी सुन्दर स्त्रीको देखकर बलभद्रके वेषमें उसके घर के भीतर ब्रह्मराक्षस प्रविष्ट हुआ । तब भद्राने गतिभंगसे जानकर घरका ( या शयनागारका ) द्वार बम्द कर लिया । इतनेमें दूसरा ( बलभद्र ) भी आ गया । तच कुटुम्बीजनको आश्चर्य हुआ, क्योंकि संकेत आदिको वे दोनों ही बतलाते थे । इस रहस्यको कोई भी नहीं जान पा रहा था। तब वे दोस्रो अभयकुमार के पास सभाके
१. प श जठराग्निराज । २. फ अत्रैकेभ्यः । ३. पजदा न यानाति, फ यदा न यावति, ब मदा न यानाति । ४. श विवस्थाप्य । ५. फ मात्रोदितास्यै श मानोदितामस्य । ६ प ब परिज्ञाय तस्यैव श परिज्ञाया स्यैव । ७. श सद्वनितां । ८. फ रुद्रा संज्ञां । ९. फ. संकेतादपिक- ।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८ सन्नुभावप्यवरकान्तः प्रवेश्य द्वारं दत्त्वा उक्तवान्-यः कुञ्चिकाविवरेण निःसरति स गृहस्वामो भवतीति । ततो निर्गतो ब्रह्मराक्षसः । इतरो न शक्नोति । ततस्तस्य समर्पिता इति प्रसिद्धिं गतोऽभयकुमारः।
____ अत्रान्या कथा । अयोध्यायां भरतनामा चित्रकः पद्मावतीमाराधयन् यद्रपं' मनसि विचिन्त्य लेखनी पटे ध्रियते तद्रूपं स्वयमेव भवत्विति वरो याचितवांश्च । लब्ध्वानेकदेशेषु स्वविद्यां प्रकाशयन् सिन्धुदेशे वैशालीपुरं गतः। तत्र राजा चेटको देवी सुभद्रा पुत्र्यः सप्तप्रियकारिणी मृगावती जयावती सुप्रभा ज्येष्ठा चेलिनी चन्दना । तत्र लेखिनोमवलम्बितवान् । राज्ञोऽग्रे सर्वे चित्रकारा जिताः। ततो राशा तस्मै वृत्तिर्दत्ता । कन्यानां रूपाणि विलेख्य द्वारेऽविलम्ब्य धृतानि विलोक्य जनेन नमस्कृत्य स्वयं विलेख्य स्वस्वद्वारेऽवलम्बितानि । ताः सप्तमातृकाः जाताः । तासु चतसणां विवाहो जातः। तिस्र कन्याः माटे स्थिताः । तत्र चेलिन्या निर्ग्रन्थरूपं मनसि धृत्वा पटे लेखिनी धृता तेन । तदनु यथावपं बभूवाङ्गे विद्यमानस्तिलोऽपि तत्रासीत् । तं दृष्टानेन कन्याशीलं विनाशितमिति रुष्टो राजा । केनचिद्भरताय निवेदितं तव राजा कुपित इति । मध्यमें आये। वह भी दृष्टि, स्वर और गतिके भेदसे उनमें भेद नहीं कर सका। तब उसने उन दोनोंको. ही घरके भीतर करके द्वार बन्द कर दिया और कहा कि जो कुञ्चिका ( चाबी ) के छेदसे बाहिर निकलता है वह घरका स्वामी समझा जावेगा । तब ब्रह्मराक्षस उस कुञ्चिकाके छेदसे बाहिर निकल आया । परन्तु दुसरा ( बलभद्र ) नहीं निकल सका । इसलिए अभयकुमारने भद्राको उसके लिए ( बलभद्रके लिए ) समर्पित कर दिया। इस प्रकारसे अभयकुमार प्रसिद्ध हो गया ।
यहाँ दूसरी एक कथा है- अयोध्यापुरीमें एक भरत नामका चित्रकार था । उसने पद्मावतीकी उपासना करते हुए उससे ऐसे वरकी याचना की कि मैं जिस रूपका विचार कर लेखनीको पटके ऊपर धरूँ वह रूप स्वयं हो जावे । इस वरको पाकर वह अनेक देशोंमें अपनी विद्याको प्रकाशित करता हुआ सिन्धुदेशस्थ वैशाली नगरमें पहुँचा। वहाँका राजा चेटक था। उसकी पत्नीका नाम सुभद्रा था । इनके ये सात पुत्रियाँ थीं---प्रियकारिणी, मृगावती, जयावती, सुप्रभा, ज्येष्ठा, चेलिनी और चन्दना । भरत चित्रकारने वहाँ लेखनीका अवलम्बन लेकर इस विद्यामें राजाके समक्ष सब चित्रकारोंको जीत लिया। तब राजाने उसे वृत्ति (आजीविका ) दी। उसने उससे कन्याओंके रूपोंको लिखाकर उन्हें द्वारके ऊपर लटकवा दिया। उनको देखकर प्रजाजनने नमस्कारपूर्वक उन्हें स्वयं लिखाकर अपने-अपने द्वारके ऊपर टँगवा दिया। इस प्रकार वे सात मातृका प्रसिद्ध हो गई थीं। उनमें चार कन्याओंका विवाह हो चुका था। शेष तीन कन्याएँ माट (घर ) में स्थित थीं-कुंवारी थीं। वहाँ उक्त चित्रकारने मनमें चेलिनीके निर्वस्त्र ( नग्न ) रूपका विचारकर पटपर अपनी लेखनीको रक्खा। तब तदनुसार जैसा उसका रूप था पटपर अंकित हो गया । यहाँ तक कि उसके गुप्त अंगपर जो तिल था वह भी चित्रपटमें अंकित हो गया था। उसे देखकर राजाको यह विचार हुआ कि इसने कन्याके शीलको नष्ट किया है। अतएव उसको चित्रकारके ऊपर अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। किसीने जाकर भरत चित्रकारसे यह कह दिया कि तुम्हारे ऊपर राजा रुष्ट हो गया है। इससे वह वहाँ से भाग गया।
१. फ ब माराधयद्रूपं शमाराधयत् यद्रूपं । २. फ लेखनीपटे तद्रूपं । ३. राज्ञाग्रे सर्वे चित्रकारान् । ४. फ तस्यै वृत्ति दत्ता ब तस्यैव वृत्ति ईत्ता। ५ फ ब विलिख्य । ६. फ पट । ७. श लेखिनी ता।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८] १. पूजाफलम् क
४१ ततः स पलाय्य राजगृहे श्रेणिकस्य तद्रूपमदर्शयत् । स तद्वीक्षणात् सचिन्तोऽजनिकथं सा प्राप्यते, स जैनं विहायान्यस्य स्वतनुजां न प्रयच्छति, युद्धे च विषम इति । अभयकुमारः पितृभक्त्या तं समुद्धीर्य स्वयं सार्थाधिपो भूत्वा तत्र जगाम । चेटकमहाराज वोदय संभाष्य च तस्यातिप्रियोऽजनि। राजभवनान्तिके आवासं ययाचे । तत्र तिष्ठन् जैनत्वेन गुणेन चातिप्रसिद्धोऽभूत् । कन्यात्रयाग्रे श्रेणिकरूपं प्रशंसयामास। तास्तदासक्तास्तं प्रार्थिरे, अस्मान् तं प्रति नयेति । स स्वावासात्तत्र सुरङ्गामकार्षीत् । तेनाकर्षणावसरे चन्दना अवादीन्मुद्रिका विस्मृता मया, ज्येष्ठावदत् हारो मयेति द्वे अपि व्याघुट येते । स चेलिन्या तस्मानिर्जगाम पुरादपि, दिनान्तरे राजगृहं समाययो। श्रेणिकोऽर्धपथान्महाविभूत्या तां पुरमवीविशत्सुमुहूर्त अवीवरदग्रमहिषी चकार ।
तया भोगाननुभवन् स्वधर्म तस्या अचीकथन् । तथापि सा जिनधर्म नात्यजत् । एकदा जठराग्निरागत्य तदग्रेऽभणत्-हे देवि, क्षपणका मृत्वा सुरलोके क्षपणका एव भक न्तीति । तयावादि कथं त्वयाबोधीदम् । सोऽवदद्विष्णुर्मतिमदात्तयाबोधि मया। एवं तर्हि
उसने वहाँसे राजगृहमें जाकर वह रूप राजा श्रेणिकको दिखलाया। उस रूपको देखकर श्रेणिकको उसके प्राप्त करनेकी चिन्ता उत्पन्न हुई। श्रेणिक विचार करने लगा कि वह (राजा चेटक) जैनको छोड़कर दूसरेके लिए अपनी कन्या नहीं दे सकता है। उधर युद्ध में उसको जीतना अशक्य है । तब पितृभक्त अभयकुमारने पिताको धैर्य दिलाया और वह स्वयं व्यापारियोंके संघका स्वामी बनकर वैशाली जा पहुँचा । वहाँ जाकर वह चेटक महाराजसे मिलकर और उनसे सम्भाषण करके उनका अतिशय प्रेमपात्र बन गया । उसने चेटकसे राजभवनके पास ठहरनेके लिए स्थान देनेकी प्रार्थना की । तदनुसार स्थान प्राप्त करके वहाँ रहता हुआ वह जैनत्व गुणसे अतिशय प्रसिद्ध हो गया। उसने चेटक राजाकी अविवाहित तीन कन्याओंके समक्ष श्रेणिकके रूपकी खूब प्रशंसा की। श्रेणिकके विषयमें अनुरक्त होकर उन कन्याओंने उससे श्रेणिकके पास ले चलनेकी प्रार्थना की। इसके लिए अभयकुमारने वहाँ अपने निवासस्थानसे लगाकर एक सुरंग बनवायी। अभयकुमार जब इस सुरंगसे उन तीनोंको ले जा रहा था तब चन्दना बोली कि मैं मुंदरी भूल आयी हूँ और ज्येष्ठा बोली कि मैं हारको भूल आयी हूँ । इस प्रकार वे दोनों वापिस हो गई। तब अभयकुमार चेलिनीके साथ वहाँ से निकल पड़ा और कुछ ही दिनोंमें वैशालीसे राजगृह आ गया । श्रेणिकने चेलिनीको आधे मार्गसे महा विभूतिके साथ नगरमें प्रविष्ट कराया और शुभ मुहूर्तमें उसके साथ विवाह करके उसे पटरानी बना दिया।
___ वह उसके साथ भोगोंका अनुभव करता हुआ उसे अपने धर्मके विषयमें कहने लगा। तो भी उसने जिनधर्मको नहीं छोड़ा । एक दिन जठराग्निने आकर उससे कहा कि हे देवी! क्षपणक ( दिगम्बर ) मर करके स्वर्गलोकमें क्षपणक ( दरिद्र) ही होते हैं । यह सुनकर चेलिनीने उससे कहा कि यह तुमने कैसे जाना है। उत्तरमें उसने कहा कि मुझे विष्णुने बुद्धि दी है, उससे मैं यह सब जानता हूँ। यह सुनकर चेलानी बोली कि यदि ऐसा है तो आप
१. फ ब तद्रूपमदीदर्शन् । २. फ युद्धे तदुर्गातिविषम । ३. श तास्तदासक्त्या सं० । ४. फ सुरंगमाकार्षी ब सुरंगमाकाषीं। ५. प श चंदनावावदी ब चंदना अवदी । ६. प श व्याजघुटतुः फ व्याघुट्यते ब व्याघुटतु । ७. ५ श श्रेणिकोर्द्धपथमहाँ ब श्रेणिकोर्टपथा महा। ८. ब तस्याचीकथं । ९. फ क्षपणा एव भवतीति ब क्षपणा
एव भवन्तीति श क्षपका एव भवंतीति । १०. प°द्विष्णुमतिमदात्तथाबोधि । Jain Education Internatęnal
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-८: ममालये श्वो युष्माभिर्भोक्तव्यमभ्युपगतं तेन । अपराह्ने तान् सर्वानाहृयोपवेशिताः । तेषामेकैकामुपानहमपनीय सूक्ष्मांशान् कृत्वा अन्न निक्षिप्य तेषामेव भोक्तुं दत्ताः। तैश्च भुक्त्वा गच्छद्भिरेकैका प्राणहिता न दृष्टा । तदा देवी पृष्टा। साब्रवीत-शानेन ज्ञात्वा गृह्णन्तु । न तथाविधं ज्ञानमस्ति तर्हि दिगम्बरगतिं कथं जानीध्वे । न जानीमः, प्राणहिता दापय । साभणत् 'भवद्भिरेव भक्षिताः कस्मादापयामि । तत्रैकेन छर्दितम् । तत्र चर्मखण्डानि विलोक्य ललजिरे, स्वावासं जग्मुः ।
अन्यदा राजा अभाणीत्'-देवि, मदीया गुरवो यदा ध्यानमवलम्बन्ते तदात्मानं विष्णुभवनं नीत्वा तत्र सुखेनासते । [तयोक्तम्-] तर्हि तद्ध्यानं पुराबहिर्मण्डपे मे दर्शय यथा त्वद्धर्म स्वीकरोमि । ततस्तन्मण्डपे वायुधारणं विधाय सर्वे तस्थुः । स तस्या अदर्शयत् । सा तान् वीक्ष्य सख्या मण्डपे अग्निमदीपयत् । तस्मिन् प्रज्वलिते तेऽनश्यन् । राजा तस्या रुष्टोऽवदच्च-यदि भक्तिर्नास्ति तर्हि किमेतान् मारयितुं तवोचितमिति । सावोचत्-देव, शृणु कथानकमेकम् । वत्सदेशे कौशाम्ब्यां राजा वसुपालो देवी यशस्विनी श्रेष्ठी सागरदत्तो भार्या वसुमती। अन्योऽपि श्रेष्ठी समुद्रदत्तो वनिता सागरदत्ता। श्रेष्टिनौ परस्परस्नेहकल मेरे घरपर आकर भोजन करें। उसने इसे स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन चेलिनीने उन सबको बुलाकर महलके भीतर बैठाया । तत्पश्चात् उसने उनमें से हर एकका एक-एक जूता लेकर उसके अतिशय सूक्ष्म भाग किये और उनको भोजनमें मिलाकर उन सभीको खिला दिया । भोजन करके जब वे वापिस जाने लगे तब उन्हें अपना एक-एक जूता नहीं दिखा। इसके लिए उन्होंने चेलिनीसे पूछा । उत्तरमें चेलिनीने कहा कि ज्ञानसे जानकर उन्हें खोज लीजिए । इसपर उन लोगोंने कहा कि हमको वैसा ज्ञान नहीं है। वह सुनकर चेलिनी बोली कि तो फिर दिगम्बर साधुओंकी परलोकवार्ता कैसे जानते हो ? इसके उत्तरमें साधुओंने कहा कि हम नहीं जानते हैं, हमारे जूतोंको दिलवा दो । तब चेलिनीने कहा उनको तो आप लोगोंने ही खा लिया है, मैं उन्हें कहाँसे दिला सकती हूँ ? इसपर उनमेंसे एक साधुने वमन कर दिया। उसमें सचमुचमें चमड़ेके टुकड़ोंको देखकर लज्जित होते हुए वे अपने स्थानपर चले गये ।
दूसरे दिन किसी समय राजाने चेलिनीसे कहा कि हे देवी! जब मेरे गुरु ध्यानका आश्रय लेते हैं तब वे अपनेको विष्णुभवनमें ले जाकर वहाँ सुखपूर्वक रहते हैं। यह सुनकर चेलिनीने कहा कि तो फिर आप नगरके बाहिर मण्डपमें मुझे उनका ध्यान दिखलाइए। इससे मैं आपके धर्मको स्वीकार कर लूंगी। तत्पश्चात् वे सब गुरु उस मण्डपके भीतर वायुका निरोध करके बैठ गये । श्रेणिकने यह सब चेलिनीको दिखला दिया। तब चेलिनीने उन्हें देखकर सखीके द्वारा मण्डपमें आग लगवा दी। अग्निके प्रदीप्त होनेपर वे सब वहाँ से भाग गये। इससे क्रोधित होकर राजाने उससे कहा कि यदि तुम्हारी उनमें भक्ति नहीं थी तो क्या उनके मारनेका प्रयत्न करना तुम्हें योग्य था। उत्तरमें चेलिनीने श्रेणिकसे कहा कि हे देव ! एक कथानकको सुनिए-वत्स देशके भीतर कौशाम्बी नगरीमें वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम यशस्विनी था । इसी नगरीमें एक सागरदत्त नामका सेठ रहता था, इसकी पत्नीका नाम वसुमती था। वहींपर दूसरा एक समुद्रदत्त नामका भी सेठ था उसकी पत्नीका नाम सागर
१. प राजा राज्ञो अभाणीत् फ राजा अभणोत् श राजा राज्ञो अभणीत् । २. ब अग्निमदोदयत् श अग्निमदापयन् ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
:१-८]
१. पूजाफलम् ८ वृद्धयर्थं वाग्निबन्धं चक्रतुः। आवयोः पुत्रपुत्र्योरन्योन्यं विवाहेन भवितव्यमिति प्रतिपन्नमुभाभ्याम् । सागरदत्तवसुमत्योः सर्पः पुत्रो वसुमित्रनामाजनि इतरयो गदत्ता' पुत्री। समुद्रदत्तस्तस्या वसुमित्रस्य च विवाहं चकार । एकदा नागदत्तां यौवनवतीं वीक्ष्य तन्मातारोदीत् मम पुत्र्याः कीदृशो वरोऽभवदिति । तनुजापृच्छत् 'हे मातः, किमिति रोदिषि' । तयोक्तम् 'तवेशं वीक्ष्य रोदिमि'। तनुजा आलपीत्-ममेशो दिवा पिट्टारके सो भूत्वास्ते, रात्रौ दिव्यपुरुषो भूत्वा भोगान्मया सह भुनक्ति । तर्हि तस्मानिर्गते पिट्टारकं मद्धस्ते देहीत्युक्ते तयादत्ता । इतरया दग्धस्ततः स पुरुष एव भूत्वा स्थित इति । एतेऽपि शरीरे दग्धे तत्रैव तिष्ठन्तीति मयैतत् कृतमिति । राजा मनसि को निधाय तूष्णी स्थितः । 'अन्यदा पापद्धिं गच्छन् आतापनस्थं यशोधरमुनि विलोक्य कुक्कुरान् मुमोच । प्रणम्य स्थितान्' विलोक्य तत्कण्ठे मृतसो बद्धस्तदवसरे सप्तमावनौ आयुर्बद्धम् । चतुर्थदिने रात्री देव्याः कथितवांस्तयाभाणि विरूपकं कृतमात्मानं दुर्गतौ निक्षिप्तवान् इति । सोऽभणत् 'त्यक्त्वा किं दत्ता था। इन दोनोंने परस्परके स्नेहको स्थिर रखनेके लिए ऐसा वाग-निश्चय किया कि हम दोनोंके जो पुत्र और पुत्री हो उनका परस्पर विवाह कर दिया जाय । इसे उन दोनोंने स्वीकार कर लिया । पश्चात् सागरदत्त और वसुमतीके वसुमित्र नामका सर्प पुत्र उत्पन्न हुआ तथा अन्य ( समुद्रदत्त और सागरदत्ता ) दोनोंके नागदत्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। तब पूर्व प्रतिज्ञानुसार समुद्रदत्तने नागदत्ता और वसुमित्रका परस्परमें विवाह कर दिया । एक समय नागदत्ता पुत्रीको यौवनवती देखकर उसकी माता (सागरदत्ता 'मेरी पुत्रीको कैसा वर मिला है' यह सोचकर रो पड़ी । तब नागदत्ताने उससे पूछा कि हे माँ ! तू क्यों रोती है। उसने उत्तर दिया कि मैं तेरे पतिको देखकर रोती हूँ। यह सुन पुत्रीने कहा कि मेरा स्वामी दिनमें सर्प होकर पिटारेमें रहता है और रातमें दिव्य पुरुषके रूपमें मेरे साथ भोगोंको भोगता है। यह सुनकर सागरदत्ता बोली कि तो फिर जब तेरा पति उस पिटारेमेंसे निकले तब तू उस पिटारेको मेरे हाथमें दे देना । तदनुसार पुत्रीने वह पिटारा. माँको दे दिया। तब सागरदत्ताने उसे अग्निमें जला दिया। इससे अब वह ( वसुमित्र ) दिन-रात पुरुषके ही स्वरूपमें रहने लगा। इसी प्रकार हे स्वामिन् ! ये आपके गुरु भी शरीरके जल जानेपर उसी विष्णुभवनमें रहेंगे, ऐसा विचारकर मैंने भी यह कार्य किया है। यह चेलिनीका उत्तर सुनकर राजाके मनमें अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ । परन्तु उसे चुप रहने पड़ा ।
किसी दूसरे समय राजा श्रेणिक शिकारके लिए जा रहा था । मार्गमें उसे आतापनयोगमें स्थित यशोधर मुनि दिखायी दिये। उन्हें देखकर उसने उनके ऊपर कुत्तोंको छोड़ दिया । वे कुत्ते प्रणाम करके मुनिके पासमें स्थित हो गये। उन्हें इस प्रकार स्थित देखकर श्रेणिकने मुनिके गलेमें मरा हुआ सर्प डाल दिया। इस समय राजा श्रेणिकने इस कृत्यसे सातवीं पृथिवीकी आयुका बन्ध कर लिया। इस वृत्तान्तको श्रेणिकने चौथे दिन रात्रिमें चेलिनीसे कहा। तब चेलिनीने श्रेणिकसे कहा कि आपने इस कुकृत्यको करके अपनेको दुर्गतिमें डाल दिया है। इसपर श्रेणिकने
१. श इतरोयोनाग। २. ब -प्रतिपाठोऽयम् । प श समुद्रदत्तस्य वसुमित्रस्य च विवाहं चकार, फ समुद्रदत्तसागरदत्तयोस्तस्य वसुमित्रस्य विवाहं चकार । ३. श यौवनमतीं। ४. प श वीक्ष्यरोदीन्मम । ५. फ वरो भवति । ६. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पपेट्रारकं फ पिट्टाकं श पिदारकं । ७. फ कृत इति । ८. प श गच्छता [ना ] तापनस्थं । ९. प श विलुलोके । १०. कुक्कुरान् । ११. ब- प्रतिपाठोऽयम्। प फ श स्थित्वा तान् ।
१२. फ बद्धभावादवसरे ( अर्थसूचकटिप्पणेनानेन भवितव्यम् ) सप्तमोऽवनौ आयुर्बध ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८ गन्तुं न शक्नोति' । तया जल्पितम्-महामुनयस्तथा न यान्ति । त_दानीमेव यावोऽवलोकयितुम् । तदानेकदीपिकाप्रकाशेनानेकभृत्यादिभिर्ययतुस्तथैवेक्षांचक्राते । तत्र उष्णोदकेन शरीरं प्रक्षाल्य समय॑ तत्पदसेवां कुर्वाणावासतुः । सूर्योदये प्रदक्षिणीकृत्य देवी बभाण-हे संसृतिसागरोत्तारक, उपसर्गो ययौ हस्तावुत्थाप्य गृहाण । ततो हस्तावुद्धृत्योपविष्टो मुनिरुभाभ्यां प्रणतः, उभयोधर्मवृद्धिरस्त्विति उक्तवान् । ततस्तेन चिन्तितम्- अहोऽद्वितीया क्षमा मुनेरिति । स्वशिरश्छेदयित्वास्य पादौ पूजयामीति मनसि धृतम् तेन । ततो मुनिरुवाच-हे राजन् , विरूपकं चिन्तितं त्वया। कथम् । इत्थमिति । राजा जजल्प 'कथमिदं ज्ञातम्' । देवी बभाण-किमिदं कौतुकमालोकि त्वया, स्वातीतभवान् पृच्छ । ततो विज्ञापयांचकारावनिपालो भो प्रभो, कोहंऽपूर्वजन्मनि कथयेति । अचीकथन्मुनिपस्तथाहि_अवार्यखण्डे सूरकान्तदेशे प्रत्यन्तपुरे राजा मित्रस्तत्पुत्रः सुमित्रः । प्रधानपुत्रः सुषेणस्तं राजतनुजो जलक्रीडावसरेऽतिस्नेहेन वापिकायां निमजयति । तस्य महासंक्लेशो भवति । कालान्तरेण सुमित्रो राजासीत्तद्भयेन सुषेणस्तापसो बभूव । एकदा आस्थानगतः सुमित्रः सुषेणमपश्यन् कमपि पृष्टवान् सुषेणः क्वेति । स्वरूपे निरूपिते तत्र जगाम तत्पादयोकहा कि क्या वे उसे (सर्पको) अलग करके नहीं जा सकते हैं। चेलिनीने उत्तर दिया कि महामुनि ऐसा नहीं किया करते हैं । अच्छा चलो, हम दोनों इसी समय वहाँ जाकर देखें । तब वे दोनों अनेक दीपकोंको लेकर बहुत-से सेवकोंके साथ वहाँ गये। उन्होंने वहाँ मुनिको उसी अवस्थामें स्थित देखा । तब उन दोनोंने मुनिके शरीरको गरम जलसे धोया और फिर पूजा करके उनके चरणोंकी आराधना करते हुए वहाँ बैठ गये । जब प्रातःकालमें सूर्यका उदय हुआ तब चेलिनीने मुनिकी प्रदक्षिणा करके कहा कि हे संसार रूप समुद्रसे पार उतारनेवाले साधो ! अब उपसर्ग नष्ट हो चुका है, हाथोंको उठाकर ग्रहण कीजिए। तब मुनि महाराज दोनों हाथोंको उठाकर बैठ गये। फिर दोनोंने मुनिराजको प्रणाम किया और उन्होंने उन दोनोंको 'धर्मवृद्धिरस्तु' कहकर आशीर्वाद दिया। यह देखकर श्रेणिकने विचार किया कि मुनिकी क्षमा अद्वितीय व आश्चर्यजनक है, और अपने शिरको काटकर इनके चरणोंकी पूजा करूँ, ऐसा उसने मनमें विचार किया । तत्पश्चात् मुनि बोले कि हे राजन् ! तुमने अयोग्य विचार किया है। राजाने पूछा कि कैसा विचार । उत्तरमें मुनिराजने कहा कि तुमने अपने शिरको काटनेका विचार किया है । तब श्रेणिकने फिरसे पूछा कि आपने यह कैसे जाना है। इसपर चेलिनीने राजासे कहा कि इसमें आपको कौन-सा कौतुक दिखता है, अपने अतीत भवोंको पूछिए। तब राजाने मुनीन्द्रसे प्रार्थना की कि हे प्रभो ! मैं पूर्व जन्ममें कौन था, यह कहिए। उत्तरमें मुनिराज इस प्रकार बोले
___ इसी आरखण्डमें सूरकान्त देशके भीतर प्रत्यन्त(सूरपुर)पुरमें मित्र नामका राजा राज्य करता था। उसके सुमित्र नामका एक पुत्र था। राजा मित्रके मन्त्रीके भी एक पुत्र था । उसका नाम सुषेण था। इसको राजकुमार सुमित्र जलक्रीड़ाके समय बड़े स्नेहसे बावड़ीमें डुबाता था, परन्तु इससे उसको बहुत संक्लेश होता था। कुछ समयके पश्चात् सुमित्र राजा हो गया । उसके भयसे सुषेण तपस्वी हो गया। एक समय सभा-भवनमें स्थित सुमित्रने सुषेणको न देखकर किसीसे पूछा कि सुषेण कहाँ है । पश्चात् उससे सुषेणके वृत्तान्तको जानकर वह
१. ५ श हस्तावुच्चाप्य ब हस्ताबुच्चार्य । २. फ उभयाद्धर्म । ३. ५ श मुनिरिति । ४. चिंतयन् त्वया कथमिच्छसीति । ५. फ त्वयं । ६. प श पृष्टः ब पृछः ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८]
१. पूजाफलम् ८ लग्नस्तपस्त्याज्यमिति । तेन कथमपि न त्यक्तम् । तदा मम गृह एव भिक्षां गृहाणेति प्रार्थितोऽभ्युपजगाम। स मासोपवासपारणायां तद्गृहमाययो । राजा व्यग्रस्तं' नापश्यत् । द्वितीय-तृतीयपारणयोरपि । निःशक्तं गच्छन्तं तं कश्चिद्ददर्श ललाप च-निकृष्टो राजा स्वयमस्मै भिक्षां न ददाति ददतो निवारयतीति मारितस्तेनायमिति श्रुत्वा कोपेन भिक्षुः किमप्यनवधारयन् पाषाणलग्नपादः पपात ममार व्यन्तरदेवो जज्ञे । राजा तन्मृति विशाय तापसोऽजनि जीवितान्ते व्यन्तरदेवोऽपि बभूव । ततश्च्युत्वा त्वमासीरितरोऽस्याश्चेलिन्याः कुणिकाख्यो नन्दनः स्यादिति निरूपिते जातिस्मरोऽजनि जजल्प च 'जिन एव देवो दिगम्बरा एव गुरवो अहिंसालक्षण एव धर्मः' इत्युपशमसद्दष्टिरभवीत् । अन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वमाश्रित्य सुखेन स्थितः।
अन्यदा त्रयो मुनयो देवीभवनं चर्यार्थ समागुः, राजा बभाणीदेवि मुनीन् स्थापय। उभौ सन्मुखमीयतुस्तत्र देव्या त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठन्त्वित्युक्ते त्रयोऽपि व्याघुटयोद्याने तस्थुः । वहाँ गया और सुषेणके पैरोंको पकड़कर उससे तपका त्याग करनेको कहा । परन्तु उसने किसी भी प्रकारसे तपको नहीं छोड़ा। तब उसने उससे अपने घरपर ही भिक्षा लेनेकी प्रार्थना की। इसे उसने स्वीकार कर लिया। तदनुसार वह एक मासके उपवासको समाप्त करके पारणाके लिए सुमित्रके घरपर आया। परन्तु कार्यान्तरमें व्यग्र होनेसे राजा उसे नहीं देख सका। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी पारणाके समय भी उसे आहार नहीं प्राप्त हुआ। इससे वह अशक्त होकर वापिस जा रहा था। उसको देखकर किसीने कहा कि देखो राजा कैसा निकृष्ट है। वह स्वयं भी इसके लिए भोजन नहीं देता है और दूसरे दाताओंको भी रोकता है। इस प्रकारसे तो वह उसकी मृत्युका कारण बन रहा है। इसे सुनकर साधुको अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ, तब वह विमूढ़ होकर कुछ भी नहीं सोच सका। इसी क्रोधावेशमें उसका पाँव एक पत्थरसे टकरा गया। इससे वह गिरकर मर गया और व्यन्तर देव उत्पन्न हुआ। राजाको जब उसके मरनेका समाचार ज्ञात हुआ तब वह तापस हो गया । वह भी आयुके अन्तमें मरकर व्यन्तरदेव हुआ। फिर वहाँसे च्युत होकर तुम हुए हो । सुषेणका जीव व्यन्तरसे च्युत होकर इस चेलिनीके कुणिक नामका पुत्र होगा । इस प्रकारसे मुनिके द्वारा प्ररूपित अपने पूर्व भवके वृत्तान्तको जानकर श्रेणिकको जाति-स्मरण हो गया । वह कह उठा कि जिन ही यथार्थ देव हैं, दिगम्बर हो यथार्थ गुरु हैं, और अहिंसा रूप धर्म ही सच्चा धर्म है। इस प्रकारसे वह उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया । तत्पश्चात् वह अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सुखपूर्वक स्थित हुआ ।
किसी समय तीन मुनि आहारके निमित्त चेलिनीके घरपर आये। तब राजाने चेलिनीसे कहा कि हे देवी! मुनियोंका प्रतिग्रह (पडिगाहन) करो। पश्चात् वे दोनों जाकर मुनियों के सम्मुख गये । उनमें चेलिनीने कहा कि हे तीन गुप्तियोंके परिपालक मुनीन्द्र ! ठहरिए । ऐसा कहनेपर वे तीनों वापिस उद्यानमें चले गये । तब राजाने चेलिनोसे पूछा कि हे देवी! वे ठहरे क्यों नहीं ।
१. प राजा विग्रस्तं, फ राज्याविग्रहः तं । २. ब -प्रतिपाठोऽयम्। श द्वितीयपारणयोरपि। ३.फ नवधारयत् प श नावधारयन् । ४.फ 'बभूव' नास्ति । ५. फ कुणिकाख्य श कुलिकाख्यो। ६. श दिगम्बर । ७. ५ श रवोभूत् । ८. फ अन्तर्मुहूर्त, ब श अन्तरमुहूर्ते । ९. श देवीदेवीभवनं । १०. श समागु । ११. ब बभाणी देवी श बभाणीद्देवी। १२. ब -प्रतिपाठोऽयम् श देव्याः । १३. प श व्याघुटयरुद्याने ।
१४. फ तत्थः ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
राज्ञा किमिति न स्थिता इति देवी पृष्टा। सावदत्तानेव पृच्छावः', एहि तत्रेति। तत्र जग्मतुर्वन्दनानन्तरं राजा पृच्छति स्म धर्मघोषमुनिम् । स आह-अस्माकं मनोगुप्तिन स्थिता। कथमिति चेत् कलिङ्गदेशे दन्तिपुरे राजा धर्मघोषो देवी लक्ष्मीमती। स केनचिन्निमित्तेन दिगम्बरो भूत्वा कौशाम्ब्यां चर्यार्थ प्रविष्टो राजमन्त्रिगरुडस्य भार्यया स्थापितः । चर्याकरणावसरे हस्तात्सिक्थं भूमौ पतितम् । तदवलोकयन् तदङ्गुष्ठमद्राक्षीत् लक्ष्मीमत्या अङ्गुष्ठसम इति स्ववनितां सस्मारेत्यन्तरायं चकार । ते वयं कयाचिद्देवतयोक्तं । त्वद्देव्या त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठन्त्वित्युक्ते अस्माकं तदा मनोगुप्तिनष्टेति न स्थिताः। श्रुत्वा समाश्चर्यचेतोऽवोभवीत् ।।
ततो जिनपालमुनि पप्रच्छ 'यूयं किमिति न स्थिताः'। स आह-भूमितिलकनगरे राजा प्रजापालो देवी धारिणी। सता वसुकान्ता कौशाम्ब्याधिपचण्डप्रद्योतनेन याचिता । स नादात् । इतरस्तदेतत्पुरं विवेष्ट । तदा दुर्गसंलग्नवने जिनपालमुनिर्ध्यानेनास्थाद्वनपालाद्विबुध्य प्रजापालः सानन्दो वन्दितुमैत् । वन्दनानन्तरं कोऽप्यवदत्-हे मुने, राज्ञो अभयप्रदानं प्रयच्छेति । ततस्तत्पुण्येन कयाचिद्दे वतयोक्तं माभैषीरिति । ततो विभूत्या पुरं प्रविष्टः । ततस्तं जैनं मत्वा चण्डप्रद्योतनो व्याघुटितः । तत इतरस्तदन्तिकं विशिष्टान् प्रस्थाइसपर चेलिनीने उत्तर दिया कि चलो वहाँ जाकर उन्हींसे पूछे । तब वे दोनों वहाँ गये। वन्दना करनेके पश्चात् राजा श्रेणिकने धर्मघोष मुनिसे उसके विषयमें प्रश्न किया । उत्तरमें मुनि बोले कि हमारे मनोगुप्ति नहीं थी। वह इस प्रकारसे-कलिंग देशके अन्तर्गत दन्तिपुरमें धर्मघोष नामका राजा (मैं) राज्य करता था। रानीका नाम लक्ष्मीमती था। वह किसी निमित्तसे दिगम्बर मुनि होकर आहारके लिए कौशाम्बी पुरीमें गया । वहाँ उसका पडिगाहन राजमन्त्री गरुड़की पत्नीने किया । आहारके समय हाथमेंसे पृथिवीपर गिरे हुए ग्रासकी ओर दृष्टिपात करते हुए उसने गरुड़की पत्नीके अंगूठेको देखा । उसे देखकर उसको 'यह लक्ष्मीमतीके अंगूठेके समान है' इस प्रकार अपनी पत्नीका स्मरण हो आया । इससे उसने ( मैंने ) अन्तराय किया। वे हम लोग विहार करते हुए यहाँ आये हैं । तुम्हारी पत्नीने 'तीन गुप्तियोंके परिपालक' कहकर हमारा पडिगाहन किया था। परन्तु उस समय हमारी मनोगुप्ति नष्ट हो चुकी थी। इसी कारणसे हम वहाँ नहीं रुके। इस वृत्तान्तको सुनकर राजा श्रेणिकको बहुत आश्चर्य हुआ।
तत्पश्चात् श्रेणिकने जिनपाल मुनिसे पूछा कि आप क्यों नहीं रुके । वे बोले- भूमितिलक नगरमें प्रजापाल नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम धारिणी था। इन दोनोंके एक वसुकान्ता नामकी पुत्री थी, जिसे कौशाम्बीके राजा चण्डप्रद्योतनने माँगा था । परन्तु प्रजापालने उसे पुत्रीको नहीं दिया । तब चण्डप्रद्योतने आकर उसके नगरको घेर लिया। उस समय दुर्गसे लगे हुए वनमें जिनपाल मुनि ध्यानसे स्थित थे। प्रजापाल राजा वनपालसे इस शुभ समाचारको जानकर आनन्दपूर्वक उनकी वन्दनाके लिए गया । वन्दनाके पश्चात् किसीने कहा कि हे साधो ! राजाके लिए अभयदान दीजिए । तब उसके पुण्यके प्रभावसे किसी देवताने कहा कि भयभीत मत हो । तत्पश्चात् वह विभूतिके साथ पुरमें प्रविष्ट हुआ । इससे चण्डप्रद्योत उसे जिनभक्त जानकर वापिस चला गया। तब प्रजापालने उसके वापिस हो जानेका कारण ज्ञात
१.प पृष्टावः । २.१ श दन्तपुरे । ३. फ हस्ताच्छिक्तो। ४. फ सस्मरेत्यंतरायं श संस्मारेत्यंतरायां । ५. प गुप्ति नष्ट इति फ गुप्तिर्नतिष्ठेति श गुप्तिनष्टे इति । ६. प ससास्वर्यचित्तो अवोभवीत् श ससाश्चर्यचित्तोऽवोभवीत् । ७. श धारिणी सुकांता । ८. प श इतरस्तत्पुरं तदा विवेष्टो। ९. पब श जिनपालि । १०.फ वंदितुमेत्य आयतः ब वंदितुमैयागत्तः श वंदितुमेत् ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. पूजाफलम् ।
४७ पयामास किमिति व्याघुटसे इति । सोऽवोचत् जैनेन सह न युयुधे इति व्याघुटे । इतरस्तज्जैनत्वमवबुध्यान्तः प्रवेश्य पुत्रीमदत्त। एकदा चण्डप्रद्योतनः स्ववनितान्तिके ऽवदत्तव पितरं यदि तदा जैनं न जानाम्यनर्थ करिष्ये । तयावादि मम पितुर्जिनपालभट्टारकैरभयप्रदानं दत्तमित्यनर्थो न स्यात् । एवं तर्हि तान् वन्दामहे इति तया वन्दितुमगात् । वन्दित्वा जगाद-समपरिणामयतीनां कस्यचिदभयप्रदानं कस्यचिदविनाशचिन्तनं किमचितम । ते मौनेन स्थिताः। वसुंकान्तयोक्तं मे पितुः पुण्येन दिव्यध्वनिनिसृत इत्यमीषां दोषो नास्ति । एहीति भवनं नीतः, तया सुखेन स्थितः। तेऽमी वयम् । तदा वाग्गुप्तिनष्टेति न स्थिता इति ।
ततो हृष्टो भूपः मणिमालिनं पृष्टवान् । स आह- मणिव देशे मणिवतनगरे राजा मणिमाली भार्या गुणमाला पुत्रो मणिशेखरः। राज्ञः केशान् विरुलयन्त्या . देव्या पलितमालोक्योदितम् 'यमदूतः समागतः' इति । राक्षा क्वेत्युक्त सा तं प्रदर्शयामास । ततो मणिशेखरं राज्ये नियुज्य बहुभिरदीक्षत । सोऽपि सकलागमधरो भूत्वोजयिन्याः पितृवने करने के लिए उसके पास अपने विशिष्ट पुरुषोंको भेजा । उनसे चण्डप्रद्योतनने कहा कि मैं जैनके साथ युद्ध नहीं करता हूँ, इसीलिए वापिस आ गया हूँ । तब प्रजापाल राजा जैन जानकर उसे भीतर ले गया और फिर उसने उसे अपनी पुत्री दे दी। एक समय चण्डपद्योतनने अपनी पत्नीके समीपमें स्थित होकर उससे कहा कि यदि मैंने तुम्हारे पिताको उस समय जैन न जाना होता तो अनर्थ कर डालता । इसपर पत्नीने कहा कि मेरे पिताको जिनपालि भट्टारकने अभयदान दिया था, इसलिए अनर्थ नहीं हो सकता था। तब चण्डपद्योतन बोला कि यदि ऐसा है तो चलो उनकी वन्दना करें । इस प्रकार वह पत्नीके साथ उनकी वन्दना करनेके लिए गया । वन्दना करनेके पश्चात् वह बोला कि जब साधुजन शत्रु और मित्र दोनोंमें समताभाव धारण करते हैं तब उनको किसीके लिए अभय प्रदान करना और किसीके विनाशकी चिन्ता करना उचित है क्या ? उसके इस प्रकार पूछनेपर वे मौन-से स्थित रहे । तब वसुकान्ताने कहा कि मेरे पिताके पुण्योदयसे दिव्य ध्वनि निकली थी, इसमें इनका कोई दोष नहीं है। चलो, इस प्रकार कहकर वह चण्डप्रद्योतनको घर ले गई । फिर वह उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। वे ये हम ही हैं । हे राजन् ! उस समय हमारी वचनगुप्ति नष्ट हो चुकी थी, इसीलिए हम आहारार्थ आपके घर नहीं रुके ।
तत्पश्चात् राजा श्रेणिकने हर्षित होकर मणिमाली मुनिसे पूछा । वे बोले- मणिवत देशके भीतर मणिवत नगरमें मणिमाली नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम गुणमाला और पुत्रका नाम मणिशेखर था। किसी समय रानी गुणमाला राजाके बालोंको सँभाल रही थी। तब उसे उनमें एक श्वेत बाल दीख पड़ा। उसे देखकर उसने राजासे कहा कि यमका दृत आ गया है। वह कहाँ है, ऐसा राजाके पूछनेपर उसने उसे दिखला दिया। इससे राजाको विरक्ति हुई। तब उसने मणिशेखरको राज्य देकर बहुत-से राजाओंके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। एक समय वह समस्त आगमका ज्ञाता होकर उज्जयिनीके श्मशानमें मृतकशय्यासे स्थित था। इतनेमें
१. ब व्याघोटसे। २. फ युधे इति व्याघोटो, ब युद्धे इति व्याघोटे। ३. ब मदत्ता । ४. ब यदि न जैनं तदा जानाम्यनर्थ । ५. प श मौनेनास्तुर्वसु० । ६. प श वाग्गुप्तिन तिष्ठतीति फ वागुप्तिनष्टेति । ७. ब 'मणिवतदेशे' नास्ति । ८. श
। ९. फ. राज्ञोक्तेति सा।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८: मृतकशय्यया अस्थात् । तावत्तत्र कश्चित्सिद्धो वेतालविद्यासिद्धयर्थं नर-कपाले क्षीरं तण्डुलांश्च गृहीत्वा तत्र नरमस्तकचुल्ल्यां रन्धुं समायातः । चौरमस्तकद्वयं मुनिमस्तकं मेलयित्वा रन्धनावसरे शिरासंकोचेन मुनेह स्तो मस्तकोपरि समायातः । पतितं कपालं दुग्धेनाग्निर्गतः। सोऽपि पलायितः। सूर्योदये' मुनिनिवेदकेन जिनदत्तश्रेष्ठिनः कथितम् । तेन चानीय स्ववसतिकायां व्यवस्थाप्य वैद्यो भेषजं पृष्टः । सोऽवोचत् सोमशर्मभट्टगृहे लक्षमूलं तैलमस्ति । तेन दग्धो नीरोगो भवेत् । ततोऽगाच्छ्रेष्ठी तद्भार्या तुंकारी तैलं ययाचे । सा बभाणोपरिभूमौ तत्तैलघटा आसते । तत्रैकं गृहाण । श्रेष्ठी तं वण्ठस्य हस्ते ददानो निक्षिप्तवान् । . तयोक्तमपरं गृहाण । तथा तमपि, तृतीयमपि । ततः श्रेष्ठो भीतिं जगाम । तदनु सा बभाषे 'मा भैषीर्यावत्प्रयोजनं तावद् गृहाण'। ततो घटमेकं प्रस्थाप्य श्रेष्ठी तामपृच्छत् 'हे मातः, स्फुटितेषु घटेषु कोपः किमिति न विहितः' इति । ततोऽजल्पत्सा श्रेष्ठिन् ,कोपफलं भुक्तं मया । कथम् । तथाहि
आनन्दपुरे द्विजः शिववर्मा भार्या कमलश्रीः 'पुत्रा अष्टौ' अहं च भट्टा नाम पुत्री। यदा मां कोऽपि 'तु' भणति तदा महदनिष्टं भवति। पित्रा पुरे आज्ञा दापिता भट्टां मा कोऽपि 'तुं' वहाँ कोई सिद्ध (मन्त्रसिद्धि सहित) पुरुष वेताल विद्याको सिद्ध करने के लिए मनुष्यकी खोपड़ीमें दूध और चावलों को लेकर आया । उसे मनुष्यके मस्तकरूप चूल्हे पर खीर पकानी थी। उसने दो चोरोंके मस्तकोंके साथ मुनिके मस्तकको मिलाकर और उसे चूल्हा बनाकर उसके ऊपर उसे पकाना प्रारम्भ कर दिया। इस अवस्थामें शिराओं (नसों) के सिकुड़नेसे मुनिका हाथ मस्तकपर आ पड़ा । इससे वह खोपड़ी नीचे गिर गई और दूधके फैल जानेसे आग भी बुझ गई । तब वह (सिद्ध) भाग गया। प्रातःकालमें सूर्यका उदय हो जानेपर किसी मुनिनिवेदकने इस उपसर्गका समाचार जिनदत्त सेठसे कहा । सेठने उन्हें लाकर अपने घरपर रक्खा और औषधके लिए वैद्यसे पूछा । वैद्यने उत्तर दिया कि सोमशर्मा भट्टके घरमें लक्षमूल तेल है। इससे जला हुआ मनुष्य नीरोग हो जाता है । तत्पश्चात् जिनदत्त सेठने सोमशर्माके घर जाकर उसकी पत्नी तुंकारीसे तेलकी याचना की । वह बोली कि ऊपरके खण्डमें उस तेलके घड़े स्थित हैं, उनमें से एक घड़ेको ले लो। सेठ उसे लेकर सेवकके हाथमें दे रहा था कि वह नीचे गिरकर फूट गया । तब उसने कहा कि दूसरा ले लो । परन्तु इस प्रकारसे वह दूसरा और तीसरा घड़ा भी नष्ट हो गया । तब सेठको भय उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वह बोली कि डरो मत, जब तक प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है तब तक उसे ग्रहण करो। तब जिनदत्तने एक घड़ेको भेजकर उससे पूछा कि हे माता ! घड़ोंके फूट जानेपर तुमने क्रोध क्यों नहीं किया । उसने उत्तर दिया कि हे सेठ ! मैं क्रोधका फल भोग चुकी हूँ। वह इस प्रकारसे
आनन्दपुरमें शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्रीका नाम कमलश्री था । उनके आठ पुत्र और भट्टा नामकी एक पुत्री मैं थी। जब कोई मुझे 'तू' कहता तब बड़ा अनिष्ट (अनर्थ) होता। इसीलिए पिताने नगरमें यह घोषणा करा दी कि भट्टाको कोई 'तू' न कहे ।
१. फ सूर्योद्गते ब सूर्योद्गमे । २. फ लक्षमूल्य ब लक्षमूल। ३. फ तुंकारी ततो तैलं ययाचे श तुंकारी तैलं याचे। ४. फ आसतः । ५. फ कंठस्य। ६. फ ददानोऽतिक्षिप्तवान् श ददानो निक्षिमवान ।
७. फ तमपि द्वितीयं तृतीयमपि ततः श्रेष्ठीब तथा तमपि पतितः श्रेष्ठी। ८. फत् ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
: १-८]
१. पूजाफलम् ८ भणत्विति । ततस्तुंकारीति नाम जातम् । कोपशीलां मां न कोऽपि परिणयति । अनेन सोमशर्मणाहमियं न त्वंकरोमीति व्यवस्थाप्य परिणीयात्रानीता, तथैव पालयति। एकदा नाटयमवलोकयन् स्थितः सोमशर्मा बृहद्रात्रावागत्य हे प्रिये, द्वारमुद्घाटयेत्यव्रवीत् । कोपेन मया नोद्घाटितम् । ततो बृहद्वेलायां तुंकार-इत्युक्तवान् । ततः कोपेनाहं निर्गता पत्तनादपि । चौरैराभरणादिकं संगृह्य भिल्लराजस्य समर्पिता। स मे शीलं खण्डयन् वनदेवतया निवारितस्तेनापि सार्थवाहस्थ समर्पिता। सोऽपि मे शीलं खण्डयितुं न शक्तः, कृमिरागकंबलद्वोपमनैषीत्पारसकुलस्य व्यकैषीच्च। स पक्षे पक्षे शिरामोचनेन मे रुधिरं वस्त्ररञ्जनार्थ गृह्णाति लक्षमूलतैलाभ्यङ्गेन शरीरपीडां च निवारयति । एवं दुःखानि सहमाना तत्रोषिताहम् । अथ यो मे भ्राता धनदेवः स उज्जयिनीशेन तत्र पारसराजसमीपं प्रेषितः । स कृतराजकार्यो मां विलोक्य मोचयित्वानीय सोमशर्मणः समर्पितवान् । जिनमुनिसमीपे कोपनिवृत्तिवतं चागृलत [चागृहाम्] । ततः कोपो न विधीयते इति ।
तेन तैलेन स मुनि निर्वणं कृतवान् । स तत्रैव वर्षाकालयोगमग्रहीत । श्रेष्ठी निजपुत्र कुवेरदत्तभयेन रत्नपूर्ण ताम्रकलशमानीय मुनिविष्टरनिकटे पूरयित्वा दधानो गर्भगृहस्थेन पुत्रेण दृष्टः । पुत्रेणैकदा मुनौ पश्यति स कलशोऽन्यत्र धृतः। योगं निवर्त्य मुनिर्जगाम । इससे मेरा नाम 'तुकारी' प्रसिद्ध हो गया । क्रोधी स्वभाव होनेसे मेरे साथ कोई भी विवाह करनेके लिए उद्यत नहीं होता था। इस सोमशर्मा ब्राह्मणने 'मैं इसे तू कह करके न बुलाऊँगा' ऐसी व्यवस्था करके मेरे साथ विवाह कर लिया और फिर वह मुझे यहाँ ले आया। पूर्व निश्चयके अनुसार वह मेरे साथ कभी 'तू' का व्यवहार नहीं करता था। एक दिन वह नाटक देखनेके लिए गया और बहुत रात बीत जानेपर घर वापिस आया । उसने आकर कहा कि हे प्रिये ! द्वारको खोलो। परन्तु क्रोधके वश होकर मैंने द्वारको नहीं खोला। इस प्रकारसे जब बहुत समय बीत गया तब उसने मुझे 'तू' कहकर बुलाया। बस फिर क्या था, मैं क्रोधित होकर नगरसे बाहिर निकल गई। तब चोरों ने मेरे आभरणादिकोंको छीनकर मुझे एक भीलोंके स्वामीको दे दिया । वह मेरे सतीत्वको नष्ट करनेके लिए उद्यत हो गया । तब उसे वनदेवताने निवारित किया । उसने भी मुझे एक व्यापारीको दे दिया। वह भी मेरे सतीत्वको भ्रष्ट करना चाहता था. परन्तु कर नहीं सका। तब उसने मुझे कृमिरागकम्बल द्वीपमें ले जाकर किसी पारसीको बेच दिया। वह प्रत्येक पखवाड़े मेरी धमनियोंको खींचकर वस्त्र रंगनेके लिए रुधिर निकालताऔर लक्षमूल तेलको लगाकर शरीरकी पीड़ाको नष्ट किया करता था। इस प्रकार दुःखोंको सहन करती हुई मैं वहाँ रह रही थी। कुछ समय पश्चात् मेरा जो धनदेव नामका भाई था उसे उज्जयिनीके राजाने वहाँ पारसके राजाके पास भेजा था । उसने राजकार्यको करके जब मुझे यहाँ देखा तब किसी प्रकार उससे छुड़ाकर सोमशर्माके पास पहुँचा दिया । पश्चात् मैंने जैन मुनिके समीपमें क्रोधके त्यागका नियम ले लिया। • यही कारण है जो अब मैं क्रोध नहीं करती हूँ।
तत्पश्चात् जिनदत्त सेठने उस तेलसे मुनिके घावोंको ठीक कर दिया । मुनिने वहाँपर ही वर्षायोग (चातुर्मासका नियम)को ग्रहण कर लिया। उधर सेठने अपने पुत्र कुबेरदत्तके भयसे रत्नोंसे परिपूर्ण एक ताँबेके घड़ेको लाकर मुनिके आसनके समीपमें भूमिके भीतर गाड़ दिया । जिस समय सेठ उक्त घड़ेको गाड़कर रख रहा था उस समय उसे कुबेरदत्तने गर्भगृह के भीतर स्थित रहकर देख
१.प श न त्वंकारीति। २.प शमित्थं। ३.क त्वंकरोति व्यवस्थाया परिणीयात्रानीत, बन करोमीति व्यवस्थया परिणीयात्रानीता। ४. फ त्वंकारमयीत्युक्तवान्, ब तुंकामुईत्युक्तवान् । ५. फ चागृलतां, ब च गृहं ।
Jain Education Internagonal
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानवकथाकोशम्
[१-८: श्रेष्ठी कलशमपश्यन् मुनिनिवर्तनार्थ सर्वत्र भृत्यान् प्रस्थापितवान् स्वयमप्येकस्मिन् मार्गे लग्नः विलोक्य व्याघोटितवान् उक्तवांश्च 'कथामेकां कथय'। मुनिरुवाच 'त्वमेव कथय । ततः स्वाभिप्रायं सूचयन् कथयति
वाराणस्यां जितशत्रुराजस्य वैद्यो धनदत्तो भार्या धनदत्ता पुत्रौ धनमित्रधनचन्द्रो पित्रा पाठयतापि नापठताम् । मृते पितरि तजीवितमन्येन गृहीतम् । ततस्तावभिमानेन चम्पायांशिवभूतिपाइँ पठताम्। स्वनगरमागच्छन्तौ वने लोचनपोडापीडितंव्याघ्रमद्राक्षिष्टाम् । कनिष्ठेन निवारितोऽपि ज्येष्ठस्तल्लोचनयोरौषधमदात्तदैव पोडानिवृत्तौ स एव भक्षितस्तेनेति। किं तस्योचितमिदम् । मुनिर्वभाण 'नोचितम्' ।१। शृणु मत्कथाम्- हस्तिनापुरे विश्वसेनो नाम राजा। तस्मै केनचिद्वणिजा बलिपलितविनाशकमानस्य वीजं दत्तम् । तेन वनपालाय समर्पितम् । तेन चोप्तम् । तद्वक्षे फलमायातं, खे गृध्र सर्प गृहीत्वा गच्छति सति विषबिन्दुः फलस्योपरि पतितः। ततस्तदृष्मणा फलं पक्वं वनपालकेन राज्ञः समर्पितं, तेन युवराजस्य । तद्भक्षणात् ममार कुमारः। ततो राजा तं तरं खण्डयामासेति । अन्यदोषेकिंतस्य तत्खण्डनलिया था। पश्चात् पुत्रने मुनिके देखते हुए एक दिन उस घड़ेको निकालकर दूसरे स्थानमें रखदिया। इधर चातुर्मासको समाप्त कर मुनि अन्यत्र चले गये। उधर सेठको जब वह घड़ा वहाँ नहीं दिखा तब उसने मुनिको लौटानेके लिए सेवकोंको भेजा तथा वह स्वयं भी एक मार्गसे उनके अन्वेषणार्थ गया। उसने उन्हें देखकर लौटाया और एक कथा कहनेके लिए कहा । तब मुनि बोले कि तुम ही कोई कथा कहो। तब सेठ अपने अभिप्रायको सूचित करते हुए कथा कहने लगा
वाराणसी नगरीमें एक जितशत्रु नामका राजा राज्य करता था। उसके यहाँ एक धनदत्त नामका वैद्य था। उसकी पत्नीका नाम धनदत्ता था । इनके धनमित्र और धनचन्द नामके दो पुत्र थे। उन्हें पिताने पढ़ाया भी, परन्तु वे पढ़े नहीं। इससे पिताके मरनेपर उसकी आजीविकाको किसी दूसरेने ले लिया। तब उन्होंने अभिमानके वशीभूत हो चम्पापुरीमें जाकर शिवभूतिके पास पढ़ना प्रारम्भ किया। तत्पश्चात् विद्याध्ययन करके जब वे अपने नगरके लिए वापिस आ रहे थे तब मार्गमें उन्हें नेत्र-पीड़ासे पीड़ित एक व्याघ्र दिखा। तब छोटे भाई के रोकनेपर भी बड़े भाईने उस व्याघ्रके नेत्रोंमें औषधिका उपयोग किया। इससे उसकी नेत्रपीड़ा नष्ट हो गई । परन्तु उसने उसीको खा लिया । क्या उसे अपने उपकारीको खाना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं, उसको ऐसा करना उचित नहीं था ॥१॥
___ अब मेरी कथाको सुनो-हस्तिनापुरमें विश्वसेन नामका राजा राज्य करता था। उसके लिए किसी व्यापारीने एक आमका बीज दिया जो कि बलि ( झुर्रियों) और पलित (श्वेत बालों) को नष्ट करके जवानीको स्थिर रखनेवाला था। राजाने उसे मालीको दिया और उसने उसे बगीचेमें लगा दिया । उस वृक्षमें फलके आनेपर आकाशमें एक गीध सर्पको लेकर जा रहा था । उस सर्पके विषकी एक बूंद उक्त फलके ऊपर गिर गई। उसकी गर्मीसे वह फल पक गया । तब वनपालने ले जाकर उसे राजाको दिया और राजाने उसे युवराजको दे दिया। युवराज उसे खाकर तत्काल मर गया। इस कारण राजाने उस वृक्षको कटवा डाला। इस प्रकार दूसरेके दोषसे राजाको उसका कटवाना क्या उचित था ? सेठने उत्तर दिया कि नहीं ॥२॥
१. फ भृत्यावस्थापितवान् । २.५ श व्याधुटितवान् । ३. श तज्जीवनमन्येन । ४. ५ श कनिष्ठेनानि । ५.५ चोकतं । ६. श फलंऽयाते । ७. फ 'तं' नास्ति ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
:१-८] १. पूजाफलम् ८
५१ मुचितम् । श्रेष्ठी अभणत् 'ने' ।२। अहं कथयामि- गङ्गापूरेण गच्छन् लघुकलभो विश्वभूतितापसेन दृष्टः । आकृष्टः पोषितो लक्षणयुक्तो बभूव । श्रेणिकस्तमग्रहीत् । अङ्कशघातादिकमसहिष्णुः पलाय्य तदावासं प्रविशंस्तापसेन निवारितः सन् कुपितस्तममीरत । किं तस्य तदुचितम् । मुनिरब्रवीत् 'न' ।३। मुनिः कथयति- चम्पायां वेश्या देवदत्ता शुकं पुपोष । सा
आदित्यवारदिने वर्तुलिके मद्यं निधायान्तः प्रविष्टा । तदवसरे अन्या काचिदागत्य तत्र विषं चिक्षेप । देवदत्तागत्य यदा पास्यति तदा तन्मरणभीत्या शुकोऽकिरत् । स तया मारितः । एतदपरीक्षितं" तस्याः कर्तुमुचितम् । श्रेष्ठिनोक्तं 'न' ।। श्रेष्ठी कथयति-वाराणस्यां वैश्यः सुवर्णव्यवहारी वसुदत्तस्तुन्दोदर आपणे पोतं संहृत्य गमनोद्यतोऽभूत् । तदवसरे चौरः पलायमानस्तदुदरमाश्रितः। तेन वस्त्रेण पिहितस्तलवराः श्रेष्ठिन उदरमीशमिति तूष्णीं गताः। स च चौरः तत्पोत्तं गृहीत्वा गतः इति । तस्यैतत्कर्तुमुचितम् । मुनिरब्रवीत् 'न'५॥ मुनिः कथयति"-- चम्पायां द्विजसोमशर्मणो द्वे भार्ये सोमिल्ला सोमशर्मा च । सोमिल्लायाः पुत्रोऽजनि ।
मैं कहता हूँ गंगाके प्रवाहमें एक हाथीका बच्चा बहता हुआ जा रहा था। उसे किसी विश्वभूति नामके तापसने देखा । उसने प्रवाहमेंसे निकालकर उसका पालन-पोषण किया । तत्पश्चात् जब वह उत्तम लक्षणोंसे संयुक्त हुआ तब उसे श्रेणिक राजाने ले लिया। परन्तु वहाँ जाकर वह अंकुशके ताड़न आदिको सहन नहीं कर सका। इसीलिए वहाँसे भागकर वह तापसके आश्रममें प्रविष्ट होना चाहता था, परन्तु तापसने उसे आश्रमके भीतर प्रविष्ट नहीं होने दिया । इससे क्रोधित होकर उसने उक्त तापसको मार डाला। क्या उसे ऐसा करना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं ॥३॥
__ मुनि कहते हैं- चम्पापुरीमें एक देवदत्ता नामकी वेश्या थी। उसने एक तोता पाला था। रविवार के दिन वेश्या कटोरीमें मद्यको रखकर चली गई । इतने में किसी दूसरी स्त्रीने आकर उसमें विष मिला दिया। तोतेने सोचा कि जब देवदत्ता आकर उसे पीवेगी तो वह मर जावेगी । इस भयसे तोतेने उस मद्यको विखेर दिया। इससे क्रोधित होकर वेश्याने उसे मार डाला । इसकी परीक्षा न करके वेश्याका क्या उसे मार डालना उचित था ? सेठने उत्तर दिया- नहीं, उसक वैसा करना उचित नहीं था ॥४॥
सेठ कहता है- वाराणसी नगरीमें वसुदत्त नामका एक सुवर्णका व्यवहार करनेवाला (सराफ)वैश्य था । उसका पेट बड़ा था। एक दिन वह दूकानसे वस्त्र (थैली) में सुवर्णादिको रखकर घर जाने के लिए उद्यत हुआ। इसी समय एक चोर भागता हुआ उसके पेटकी शरणमें आया। सेठने उसे वस्त्रसे छुपा लिया। कोतवाल यह सोचकर कि सेठका पेट ही ऐसा है, चुप-चाप चले गये । तत्पश्चात् वह चोर सेठकी उस थैलीको लेकर चल दिया । क्या उस चोरको वैसा करना योग्य था ? मुनिने उत्तर दिया कि नहीं ॥५॥
मुनि कहते हैं- चम्पा पुरीमें सोमशर्मा ब्राह्मणके सोमिल्ला और सोमशर्मा नामकी दो स्त्रियाँ थीं। उनमें सोमिल्लाके एक पुत्र उत्पन्न हुआ था । वहाँ एक भद्र बैल था । लोग उसे घास
१.फ श्रेष्ठी भणत नोचितं, ब श्रेष्ठ्यं भणत्त्वा। २. श न ॥२॥ श्रेष्ठी। अहं । ३. श आकृष्ट पोषितो। ४.फ मसहित्युः पलाय, बमसहिष्ण: पलाज्य। ५. फ ब प्रविश्यंस्तापसेन । ६. फ कुपितः स तमब निवारितः कुपितः सन् तम । ७. फ पपोषीत् । ८. श चतलके । ९. फ ब पश्यति । १०.प शुको अकिरन, बश शको किरन् । ११. फ इत्यपरिक्षतं । १२. श वाणारस्यां। १३. पश प्रोत्तं । १४. फ यतिनोक्तं नाह, ब यतिनोक्तं न । १५. ब शृणु मत्कथां।
-----...-.-. -... -
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-८ : तत्रैको वृषभो भद्रो जनस्तस्य ग्रासं ददाति । सोमशर्मणी गृहद्वारे उपविष्टः । सोमशर्मया स बालः तस्य शृङ्गे प्रोतो मृतः । तत्प्रभृति सर्वैर्वृषभोऽवज्ञातः । स च चिन्तया क्षीणो बभूव । एकदा जिनदत्तश्रेष्ठिभार्यायाः परपुरुषदोषो जनेन धृतः। सा आत्मशुद्धयर्थ दिव्यगृहे तप्तफालधारणार्थ स्थिता। तेन वृषभेन स फालः दन्तैराकृष्टः, शुद्धोऽभूदिति । निर्दोषस्य जनेन किमवज्ञातुमुचितम् । जिनदत्तोऽवदत् 'न"।६। श्रेष्ठी कथयति-पद्मरथनगराधिपवसुपालेन अयोध्याधिपजितशत्रोनिकट कश्चिद्विप्रो राजकार्यार्थ प्रेषितः । स महाटव्यां तृषितो मूच्छितो वृक्षतले पतितः। तस्य वानरेण जलं दर्शितम् । स च जलमपिबत्। तदने जलं स्यान्न स्यादिति विचिन्त्य तं मर्कट मारितवान् । तच्चमणः खल्लिका जलेनापूर्यानैषीदिति । किं तस्य तन्मारणमुचितम् । मुनिरवदत् 'न'।७। तिः कथयति-कौशाम्ब्यां द्विजः सोमशर्मा भार्या कपिला अपुत्रा। द्विजेन वने नकलपिल्लको" दृष्टः, प्रानीय कपिलायाः समर्पितः । तया च शिक्षितो भणितं करोति । कतिपयदिनैः तस्याः पुत्र आसीत्तं हिन्दोलके शयानं तस्य समर्प्य बहिस्
खिलाया करते थे। वह एक दिन सोमशर्माके घरके द्वारपर बैठा था। सोमशर्मा ( सोमिल्लाकी सौत ) ने ईर्ष्यावश उस पुत्रको इस बैलके सींगमें पो दिया। इससे वह मर गया। तबसे समस्त जन उस बैलका तिरस्कार करने लगे। वह चिन्तासे कृश हो गया । एक समय जिनदत्त सेठकी पत्नीके विषयमें लोगोंने पर-पुरुषसे सम्बन्ध रखनेका दोषारोपण किया। तब वह आत्मशुद्धिके निमित्त तपे हुए फाल ( हलके नीचे स्थित पैना लोहा ) को धारण करनेके लिए दिव्य गृहमें स्थित हुई । उस तपे हुए फालको उक्त बैलने दाँतोंसे खींच लिया। इस प्रकारसे उसने आत्मशुद्धि प्रगट कर दी। इस तरह जो बैल सर्वथा निर्दोष था उसका जनोंके द्वारा तिरस्कार करना क्या उचित था ? जिनदत्तने कहा कि उन्हें वैसा करना उचित नहीं था ॥६॥
सेठ बोला-पद्मरथ नगरमें वसुपाल नामका राजा था। उसने राजकार्यके लिए किसी ब्राह्मणको अयोध्याके राजा जितशत्रुके पास भेजा। वह किसी महावन में जाकर प्याससे व्याकुल होता हुआ मूच्छित होकर एक वृक्षके नीचे पड़ गया । वहाँ उसे एक बन्दरने जलको दिखलाया । तब उसने जलको पी लिया । फिर उसने विचार किया कि क्या जाने आगे जल मिलेगा अथवा नहीं। बस, इसी विचारसे उसने उस बन्दरको मारकर उसके चमड़ेकी मशक बना ली और उसे जलसे भरकर साथमें ले गया। उक्त ब्राह्मणको क्या उस बन्दरका मारना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं ॥७॥
___ मुनि बोले- कौशाम्बी पुरीमें एक सोमशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था । उसके कपिला नामकी स्त्री थी जो पुत्रसे रहित थी। किसी दिन ब्राह्मणको वनमें एक नेवलेका बच्चा दिखा । उसने उसको लाकर कपिलाको दे दिया । उसने उसको शिक्षित किया। वह उसके संकेतके अनुसार कार्य किया करता था। कुछ दिनोंके बाद कपिलाके पुत्र उत्पन्न हुआ । एक दिन कपिलाने पुत्रको पालने में सुलाकर नेवलेके संरक्षणमें किया और स्वयं वह बाहर जाकर चावलोंको कूटने
१. फ जनास्तस्य। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श भार्यायाः पुरुष । ३. स्थितास्तेन । ४. प फ ब स्थिता। स फालस्तेन दंत । ५. फ जिनदत्ताऽवदत् ॥६॥ ब जिनदत्तोवदत् ॥६॥ ६. प फ ब अहं कथयामि । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । पश स्यादिति विधि वियिन्त्य, फ स्यादिति चिन्त्य । ८. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श खल्लिकायां ।
९. फनेषादिति । १०. फ अपुत्रद्विजेन । ११. फ नकूलापिल्लको। १२. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श शयनं ।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. पूजाफलम् ८
५३ तण्डुलान् खण्डयन्ती स्थिता। नकुलो वालस्याभिमुखमागच्छन्तमहिं विलोक्याचखण्ड । तद्रक्तलिप्तं स्वमुखं तस्या श्रदर्शयेत् । सा 'अनेन पुत्रो हतः' इति मत्वा तं मुशलेन व्याजघानेति । किमविचारितं तस्याः कर्तुमुचितम् । सोऽवोचत् 'न' श्रेष्ठी कथयति-कश्चिद् वृद्धो ब्राह्मणो वेणुयष्टौ स्वर्ण निक्षिप्य गङ्गायां चलितः । केनचिद् बटुकेन यष्टिर्लक्षिता । तदनु सह चचाल । कुम्भकारशालायां सुषुपतुः । प्रातः कियदन्तरं गत्वा बटुकोऽब्रवीददत्ता तृणशलाका मस्तके लग्ना आयात्पामजनिष्ट । तत्रैव निक्षिप्य आगमिष्यामि इति व्यावृतो वृद्ध एकस्मिन् ग्रामे यजमानगृहे स्वयं बुभुजे, तस्य च स्थलं चकार । एकस्मिन् मठे तस्थौ। रात्रावागतो बटुको भोक्तुं प्रस्थापितः। कुक्कराचं भविष्यन्तीति न याति । स तन्निवारणार्थयष्टि ददौ । स चादाय जगामेति । कि तस्येत्थमुचितम् । यतिरभणत् 'न । शृणु मत्कथाम् । कौशाम्ब्यां राजा गन्धर्वानीकस्तत्सुवर्णकारोऽङ्गारदेवनामा। स चैकदा राजकीयं मणिपद्मरागं" संस्कारार्थ स्वगृहमानिनाय । तदा कश्चिन्मुनिश्चर्याथमाययो । स स्थापयामास लगी। उस समय एक सर्प बालककी ओर आ रहा था। नेवलने सर्पको बालककी ओर आता हुआ देखकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये । ज्योंही कपिलाने नेवलेके मुखको सर्पके रक्तसे सना हुआ देखा त्योंही उसने यह सोचकर कि इसने बालकको खा लिया है, मूसलके आघातसे उसे मार डाला । क्या बिना विचारे ही कपिलाको निरपराध नेवलेका मार डालना उचित था ? सेठने कहा कि नहीं ॥८॥
सेठ बोला- कोई एक बूढ़ा ब्राह्मण बाँसकी लाठीके भीतर सुवर्णको रखकर गंगा नदीकी ओर जा रहा था। किसी बालकने उसे लाठीमें सुवर्ण रखते हुए देख लिया । तत्पश्चात् वह भी उसके साथ चलने लगा और वे दोनों रातमें किसी कुम्हारकी शालामें सो गये और प्रातःकालके होनेपर वहाँ से आगे चल दिये । कुछ मार्ग चलनेके पश्चात् बालक बोला कि मेरे माथेपर चिपटकर एक बिना दी हुई तृणकी शलाई चली आयी है । यह तो चोरीका पाप हुआ है । इसलिए मैं उसे वहींपर रखकर वापिस आता है। ऐसा कहकर वह वापिस चला गया। तब वृद्ध ब्राह्मणने किसी गाँवमें पहुँचकर एक यजमानके घरपर स्वयं भोजन किया और उक्त बालकके लिए भी भोजनका स्थल कर दिया- उसे भी भोजन करा देनेके लिए कह दिया। फिर वह एक मठमें ठहर गया । जब रातमें वह बालक वापिस आया तब ब्राह्मणने उसे उक्त यजमानके घरपर भोजनके लिए भेजना चाहा । परन्तु वह 'मार्गमें कुत्ते होंगे' यह कहकर वहाँ जानेको तैयार नहीं हुआ। तब ब्राह्मणने कुत्तोंसे आत्मरक्षा करनेके लिए उसे लाठी दे दी। उसे लेकर वह चल दिया। क्या उस बालकको ऐसा करना उचित था ? मुनिने उत्तरमें कहा कि नहीं ॥१॥
तत्पश्चात् मुनि बोले कि मेरी कथाको सुनो- कौशाम्बी नगरीमें गन्धर्वानीक नामका राजा राज्य करता था । उसके यहाँ एक अंगार देव नामका सुनार था । वह एक दिन राजाके पाससे पद्मराग मणिको शुद्ध करनेके लिए अपने घरपर ले आया। उस समय कोई एक मुनिचर्याके
१. फ मागच्छन्नहिं विलोक्याचरखंडन् ब आगच्छन्तमहिं विलोक्य चखंडन् । २. फ ब तस्यादर्शन् । ३. फ व्याघातेति । ४. फ स्वस्य वदंतोऽहं ब्रुवे । बसोवदीन् ।।८।। अहं ब्रुवे । ५. श गंगाया। ६. फ शुषपतुः । ७. फ. आयातपाप, बलग्नायात्पाप । ८. फ तत्कुक्कूराश्च,श कुरूराश्च। ९. ब तिष्ठतीति । १०.फ यामि । ११. शतान्निवारणार्थं । १२. फ यतिरभण, ब यतिरभणत ॥९॥ १२. श यतिः कथयति ॥ शृणु ब श्रृणु । कौमत्कथं को। १४. फ 'राजा' नास्ति । १५. प मणी पद्मराग-फ मणि पद्मदाग-ब मणि
पद्मरागं।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
५४
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-८ कर्ममठसमीपे उपावीविशत् । तं मणि मयूरो जगार। तमपश्यन् सुवर्णकारो मुनि मणि ययाचे । स ध्यानेनास्थात् । स दूरस्थो मुनये काष्ठं मुमोच । तच्च तमस्पृशन् मयूरगले लग्नम् । तदा मुखान्मणिरुच्चचाल । तं विलोक्य राज्ञः समर्प्य दिदीक्षे इति । किं तस्येत्थं कर्तुमुचितम् । श्रेष्टिनोक्तं 'न'।१०। श्रेष्ठी कथयति-कश्चित्पुरुषोऽटव्यामटन् गजमालुलोके, भयात्तरुमारुरोह। गजस्तमलभमानो जगाम । स तस्मादुत्तीर्य गच्छन् भेय काष्ठमवलोकयतां तक्ष्णामदोदर्शत् इति । तस्येदं किमुचितम् । यतिरवोचत् ११। यतिः कथयति-दारावत्यां नारायणोनृपस्तमेकदा ऋषिनिवेदको विज्ञापयामास' 'मेदर्जमुनिरागत्योद्याने स्थितः' इति श्रुत्वा विष्णुजगाम क्वन्दे । तं व्याधितं विलोक्य राजा स्ववैद्यं पप्रच्छ । स च रालकपिष्टपृक्तप्रयोगमचीकथन् । अन्यस्थापकानिवार्य राजा रुक्मिणीगृहे रालकपिष्टपिण्डकान् ददौ । स नीरोगोऽ. जनि। राशा पृष्टेन कर्मणामुपशमे नीरोगोऽभवमिति भणिते वैद्यः कोपमुपजगाम, कालान्तरे लिए उसके घरपर आये । उसने पड़िगाहन करके उन्हें कर्ममठ (प्रयोगशाला) के समीपमें बैठाया। इतनेमें उस मणिको मयूर निगल गया । तब मणिको न देखकर सुनारने मुनिके ऊपर सन्देह करते हुए उनसे उस मणिको दे देनेके लिए कहा। इस उपसर्गको देखकर मुनि ध्यानस्थ हो गये । तब क्रुद्ध होकर सुनारने दूरसे मुनिको एक लकड़ी मारी। वह लकड़ी मुनिको न छूकर उस मयूरके गलेमें जा लगी। उसके आघातसे मयूरके गलेसे वह मणि निकल पड़ा। उसको देखकर सुनारने उसे उठा लिया और जाकर राजाको दे दिया। इस घटनासे विरक्त होकर सुनारने दीक्षा ग्रहण कर ली । बताओ कि उस सुनारको ऐसा करना योग्य था क्या ? सेठ बोला कि नहीं, उसका वैसा करना अनुचित था ॥१०॥
सेठ कहता है- किसी पुरुषने वनमें घूमते हुए एक हाथीको देखा । उसे देखकर वह भयसे वृक्षके ऊपर चढ़ गया। इससे वह हाथी उसे न पाकर वापिस चला गया। फिर वह उस वृक्षके ऊपरसे उतरकर जा रहा था कि इसी समय उसने भेरीके लिए लकड़ीको खोजते हुए किसी बढ़ईको देखा । तब उसने उक्त लकड़ीके योग्य उसी वृक्षको दिखलाया। ऐसा करना क्या उसके लिए उचित था। उत्तरमें मुनिने कहा कि नहीं ॥११॥
मुनि कहते हैं-द्वारावती नगरीमें नारायण (कृष्ण) राजा राज्य करता था। एक दिन ऋषिनिवेदकने आकर राजासे निवेदन किया कि मेदर्ज मुनि ( ज्ञानसागर ) आकर उद्यानमें विराजमान हैं। इस शुभ समाचारको सुनकर कृष्णने जाकर उक्त मुनिराजकी वन्दना की। पश्चात् उसने मुनिके शरीरको व्याधिग्रस्त देखकर अपने वैद्यसे पूछा । उसने मुनिकी व्याधिको दूर करनेके लिए रालकपिष्टपृक्त प्रयोग (?) बतलाया। तब कृष्णने अन्य पडिगाहनेवाले दाताओंको रोककर स्वयं रुक्मिणीके घरपर मुनिराजके लिए रालकपिष्ट पिण्डोंको दिया। इससे मुनिका शरीर नीरोग हो गया । तत्पश्चात् किसी समय कृष्ण के पूछनेपर मुनिने कहा कि कौके उपशान्त हो जानेसे मैं रोग रहित हो गया हूँ। यह सुनकर वैद्यको मुनिके ऊपर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। वह समयानुसार मरकर
१. फ मयूरोजगारा। २ प अहं कथयिष्यामि, फ ब अहं कथयामि । ३. फ गच्छत् । ये ये काष्ट । ४. प॰मवलोकयतां तक्षां तमदीदर्शन इति शमवलोकयंतां तक्षणां त्तमदर्शयन् इति । ५. प ब वयं ब्रूमः, फ वयं ब्रुमः । ६. फ ब विज्ञप्तः । ७. फ मेदजमुनिरागतोद्याने, ब मेदजमनिरागत्योद्याने, श मेदर्ज मुनिराग
तोद्याने । ८. श व्याधिनं । ९. फ रालकपिष्टः प्रोक्तं प्रयोग । १०. प श कर्मणा उपशमे ।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८]
१. पूजाफलम् ८ ममार वानरोऽटव्यां जज्ञे । तत्र मुनिः पल्यङ्केन ध्याने स्थितस्तं स वानरस्तीक्षणकाष्ठेन जवायां विव्याध । तच्छरीरनिर्ममत्वं विलोक्योपशान्तिमितः काष्ठमुत्पाटयौषधेन निव्रणं चकार । वनकुसुमैः पूजयित्वोपसों गतं इति हस्तसंज्ञां व्यबोधि । ततस्तेन हस्तावुद्धतौ । कपिस्तं प्रणम्याणुव्रतान्याददौ इति । वैद्यस्याविचारितकरणं किमुचितम् । जिनदत्तोऽवदत् 'न' ।१२। अहं च कथयामीति श्रेष्ठिना भणिते कुबेरदत्तस्तं कलशं पितुरग्रेऽनिक्षिपदवद- एहि मुने, वने मे दीक्षां प्रयच्छेति ! उक्तं च
विजो तावससेट्टो वाणर बडुअो तहेव वणहत्थी।
अंबगसुंडगवसहो मुंगुस्सो चेव मणि साहू ॥३॥ इति ततः पिता वैराग्यमगमत् । उभौ दीक्षां प्रपन्नौ विहरन्तावासते । ते वयं मणिमालिनस्तदा कायगुप्तिन स्थितेति निशम्य राजा बेदकसदृष्टिरभूत् ।
कतिपयदिनैश्चेलिन्या गर्भसंभूताववाच्यो दोहलकोऽजनि । तदप्राप्तावति क्षीणशरीरां वनमें बन्दर उत्पन्न हुआ। उस वनमें उक्त मुनिराज पल्यङ्क आसनसे ध्यानमें स्थित थे । उनको देखकर बन्दरको जातिस्मरण हो गया। तब उसने मुनिकी जंघाको एक तीक्ष्ण लकड़ीके द्वारा विद्ध कर दिया। इतनेपर भी मुनिके हृदयमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं हुआ। शरीरके विषयमें उनकी इस प्रकारकी निर्ममत्व बुद्धि को देखकर उक्त बन्दरकी क्रोधवासना शान्त हो गई। तब उसने मुनिकी जंघामेंसे उस लकड़ीको निकाल लिया और औषधके प्रयोगसे उनके घावको भी ठीक कर दिया। फिर उसने वनके फूलोंसे मुनिकी पूजा करके हाथके संकेतसे यह जतलाया कि उपसर्ग नष्ट हो चुका है। तब मुनिराजने दोनों हाथोंको ऊपर उठाया। तत्पश्चात् बन्दरने उन्हें प्रणाम करके उनसे अणुव्रतोंको ग्रहण किया। इस प्रकारसे उस वैद्यको क्या ऐसा अविचारित कार्य करना योग्य था । जिनदत्तने कहा कि नहीं ॥१२॥
तत्पश्चात् 'मैं भी कहता हूँ', इस प्रकार जिनदत्त सेठ बोला ही था कि इतने में कुबेरदत्तने उस घड़ेको पिताके सामने रख दिया और उनसे बोला कि हे मुने! वनमें चलिए और मुझे दीक्षा दीजिए । कहा भी है
धनके लोभसे होनेवाले अनर्थके विषयमें वैद्य, तापस, सेठ, बन्दर, बटुक, वनका हाथी, आम्रफल, सुंडग, वृषभ, मुंगूस तथा मणि व साधु; इनके आख्यान कहे गये हैं ॥३॥
इससे पिताको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उन दोनोंने दीक्षा ग्रहण कर ली और विहार करने लगे । वही मैं मणिमाली हूँ। वे ही हम विहार करते हुए यहाँ आये हैं। मुझमें कायगुप्ति स्थिति नहीं थी, इसीलिए हे श्रेणिक ! हम वहाँ नहीं रुके। इस सब वृत्तान्तको सुनकर राजा श्रेणिक वेदकसम्यग्दृष्टि हो गया ।
कुछ दिनोंके पश्चात् चेलिनीके गर्भ धारण करनेपर अनिर्वचनीय दोहल उत्पन्न हुआ। उसकी पूर्ति न हो सकनेसे चेलिनीका शरीर अतिशय कृश हो गया। उसको कृश देखकर श्रेणिकने
१. ५ मतः । २. प ब श विबोध, फ विधात् । ३. फ हस्ताबुधुतौ श हस्ताबुद्धतौ । ४. प फ ब 'च' नास्ति । ५. श 'कलशं' नास्ति । ६. फ निक्षिप्यावदच्च, ब क्षिपदवदच्च । ७. श मुंगस्सो। ८. प प्रपणौ । ९.प श वासते ते वयं, फबासते वयं, ब वासातौ ते वयं । १०. फस्तदैव कायगप्तिनं स्थितेति । ११. फ तदप्राप्तवानिति ।
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
पुण्यावकथाकोशम्
[ १-८ :
राजा महाग्रहेण पृच्छत्तदावदद्देवी हे नाथ, ते वक्षःस्थलं विदार्य रुधिरास्वादने पापिष्ठाया वाञ्छा वर्तते इति चित्रमयस्वरूपे तद्वाञ्छां पूरितवान् राजा । सा पुत्रं लेभे । तन्मुखमवलोकनार्थं राजन्युपस्थिते बालस्तं वीक्ष्य बद्धभ्रुकुटिलोहिताक्षो दष्टाधरश्वासोत् स्वस्य दुःपरितिं चकार । राज्ञो रुष्ट इति देव्युद्यानेऽतित्यजद्राज्ञानीय धात्र्याः समर्पितः कुणिकनामा वर्धितुं लग्नः । क्रमेण वारिषेण हल्ल-विहल्ल- जितशत्रुनामानः पञ्च पुत्रा जनित । पष्टे गर्भे दोहलको जातः । कथम् । हस्तिनमारुह्य प्रावृषि सति भ्रमिष्यामीति । तदप्राप्त्या कृशदेहां नृपालोऽपृच्छत् । सा स्वरूपमवदत् । राजा ग्रीष्मे कथं वाञ्छां पूरयामीति सचिन्तो ऽवोभवीत् । अभयकुमारो वृष्ट्यादिकं करिष्यामीति प्रेषणं प्राप्य रात्रौ व्यन्तरादिकमवलोकयितुं श्मशानं जगाम । वटतलेऽनेकदीपप्रकाशे धूपधूमाकृष्टबहुव्यन्तरे सुगन्धिकुसुमैर्जपन्तं पुरुषमुद्विग्नमद्राक्षीत्, कस्त्वं किं जपसीति पृष्टवांश्च । स ह - विजयार्धोत्तरश्रेणी गगनवल्लभपुरेशो ऽहं पवन वेगो जिनालयवन्दनार्थं मन्दरमयाम् । तत्र वालकापुरेशविद्याधरश्चक्रवर्तितनुजा समायाता । तद्दर्शनेन शतखण्ड जातकामवाणमना श्रहं तामादाय दक्षिणमेतद्भरतस्योपरि गच्छन्
बहुत आग्रहसे इसका कारण पूछा। तब चेलिनीने कहा कि हे नाथ ! मुझ पापिष्ठाकी इच्छा तुम्हारे वक्षस्थलको विदीर्ण करके रक्तके पीने की है । यह सुनकर श्रेणिकने चित्रमय स्वरूपमें उसकी इच्छा को पूर्ण किया - अपने वक्षस्थलको चीरकर रक्तदान किया । समयानुसार उसने पुत्रको प्राप्त किया । उसके मुखको देखनेके लिए जब श्रेणिक वहाँ पहुँचा तब बालकने उसको देखकर भृकुटियों को कुटिल करते हुए लाल नेत्रों को करके अपने अधरोष्ठको काट लिया । इस प्रकार से उसने अपने शरीरकी दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति की । यह राजा के ऊपर रुष्ट है, ऐसा जानकर चेलिनीने उसे वनमें छोड़ दिया । परन्तु जब यह बात राजाको मालूम हुई तब उसने लाकर उसे धायको दे दिया । कुणिक नामको धारण करनेवाला वह बालक क्रमशः वृद्धिंगत होने लगा | तत्पश्चात् क्रमसे चेलिनीके वारिषेण, हल्ल, विहल्ल और जितशत्रु नामके पुत्र हुए; इस प्रकार उसके पाँच पुत्र हुए । छठी बार जब उसके गर्भ रहा तब उसे हाथीके ऊपर चढ़कर वर्षाकालमें घूमनेका दोहल उत्पन्न हुआ । इस दोहलकी पूर्ति न हो सकनेसे चेलिनीका शरीर कृश हो गया । देखकर श्रेणिकने उससे इसका कारण पूछा। तब उसने अपनी वह इच्छा प्रगट कर दी । यह जानकर राजा को बहुत चिन्ता हुई । कारण यह कि ग्रीष्म कालमें उसके उपर्युक्त दोहल (हाथीके ऊपर चढ़कर वर्षाकालमें विहार करना ) की पूर्ति करना कठिन था । तब अभय कुमार 'मैं वृष्टि आदिको करूँगा' यह कहते हुए राजाकी आज्ञा लेकर रात्रिमें व्यन्तरोंके अन्वेषणार्थ श्मशान में गया । वहाँ उसने वट वृक्षके नीचे अनेक दीपोंके प्रकाशमें बहुत पुष्पोंसे जप करते हुए किसी उद्विग्न पुरुषको देखा । उसके जपके समय वहाँ धूपके धुएँसे बहुत-से व्यन्तर आकृष्ट हुए थे । अभयकुमारने उससे पूछा कि तुम कौन हो और क्या जपते हो। वह बोला --- विजयार्ध पर्वतकी उत्तरश्रेणिमें गगनवल्लभ नामका एक नगर है । मैं उसका राजा हूँ । नाम मेरा पवनवेग है। मैं जिनालयों की वन्दना करनेके लिए मन्दर पर्वतपर गया था । उस समय वहाँ बालकापुरके स्वामी विद्याधर चक्रवर्ती की पुत्री आयी थी । उसके देखनेसे मेरा मन कामवाणसे विद्ध हो गया। इसी -
कृश
1
१. फग्रहेण पृच्छंस्तदा शगृहेणाच्छन् तदा । २. फ बद्धभृकुटिलोहिताक्षी, शं वर्धभ्रुकुटिलहिताक्षो । ३. फराज्ञी रुष्टा इति देव्याने ( ब दिव्युद्यानंनि ) तत्यजद्राजानीय । ४. फ व निम्ना ५. फ नामानं । ६ प फ अजनिपतः ब अजनिपतं । ७. प मंदरमयत् तत्र फ मन्दरमयात्तत्र श मंदरमयं तत्र । ८. श विद्याधरश्चक्रवति । ९. श जातः ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
ः १-८ ]
१. पूजाफलम् ८
५७
तत्सखीभ्योऽवधार्य कोपेन चक्री पृष्ठे लग्नोऽहं तेन युद्धवान् । स मे विद्यां छेदयित्वा तां नोतवानहं भूमिगोचरो भूत्वा त्रास्थाम् । द्वादशवर्षानन्तरं मे एतन्मन्त्रजपने पुनर्विद्याः सेत्स्यन्तीति उपदेशोऽस्ति । द्विर्जपनेऽपि न सिद्धा इत्युद्विग्नो गृहं गन्तुमिच्छामीति । अभयकुमारोऽवदन्तं 'मन्त्रं कथय । कथिते तस्मिन् यत्तत्राक्षरं न्यूनं तन्निक्षिप्य जपेत्युवाच । स जपन् ततः सिद्धविद्यस्तं नाम । ततस्तेन तत्सर्वमचीकरत् कुमारस्ततः सा गजकुमारनामानं पुत्रमसूत दिनान्तरैर्मेघकुमारमपीति सप्तपुत्र माताजनि चेलिनी सुखेनातिष्ठत् ।
एकदा ऋषिनवेदन विज्ञप्तो राजा देव, श्रीवर्धमानस्वामिसमवसरणं विपुलाचले - स्थादिति । सकलजनेन सह पूजयितुमियाय, पूजयित्वा तद्विभूत्यातिशयवलोकनादधिक'विशुद्धया क्षायिक सद्दष्टिर्बभूव तीर्थकरत्वं च विचार्य ।
तदनु गौतमं पप्रच्छाभय कुमारपुण्यातिशयहेतुं गजकुमारस्य च । स ग्राह-वेणात टाकपुरे द्विजो रुद्रदत्तो गङ्गायां गच्छन् एकस्मिन् ग्रामे रात्रौ वसतिकायां श्रावकान्तिके भोजनं
लिए मैं उसको लेकर इस दक्षिण भरत क्षेत्रके ऊपरसे जा रहा था। उधर वह विद्याधरोंका स्वामी पुत्रीकी सखियों से यह ज्ञात करके क्रोधसे मेरे पीछे लग गया। तब मुझे उसके साथ युद्ध करना पड़ा । वह मेरी विद्याको नष्ट करके अपनी पुत्रीको ले गया । विद्याके नष्ट होनेसे मैं भूमिगोचरी होकर आकाशमार्गसे जाने में असमर्थ हो गया । तबसे मैं यहाँपर स्थित हूँ । बारह वर्ष के पश्चात् इस मन्त्रके जपनेपर मेरी विद्याएँ फिरसे सिद्ध हो जायेंगी, यह उपदेश है । परन्तु दो बार जपनेपर भी वे विद्याएँ सिद्ध नहीं हुई हैं। इससे क्षुब्ध होकर मैं घर जानेकी इच्छा कर रहा हूँ । इस वृत्तान्तको सुनकर अभयकुमारने उससे उस मन्त्रको बतलानेके लिए कहा । तब उसने वह मन्त्र अभय कुमार के लिए बतला दिया । उस मन्त्रमें जो कम अक्षर था उसको रखकर अभयकुमारने उसे फिरसे जपने के लिए कहा । तदनुसार उसके फिरसे जपनेपर पवनवेगकी वे सब विद्याएँ सिद्ध हो गई । इस प्रकार विद्याओंके सिद्ध हो जानेपर पवनवेगने अभयकुमारको प्रणाम किया । तत्पश्चात् अभयकुमारने पवनवेगकी सहायता से वह सब ( चेलिनी के दोहला की पूर्ति ) किया । इसके बाद चेलिनीने गजकुमार नामक पुत्रको उत्पन्न किया । फिर उसने कुछ दिनोंके पश्चात् मेघकुमार नामक पुत्रको भी जन्म दिया। इस प्रकार चेलिनी सात पुत्रों की माता होकर सुखपूर्वक स्थित हुई । एक समय ऋषिनिवेदकने आकर राजासे निवेदन किया कि हे देव ! विपुलाचलके ऊपर श्री वर्धमान स्वामीका समवसरण स्थित हुआ है। तब श्रेणिक समस्त जनके साथ वर्धमान जिनेन्द्रकी पूजा करने के लिए वहाँ गया और उनकी पूजा करके तथा अलौकिक विभूतिको देख करके अतिशय दर्शनविशुद्धिके होनेसे वह क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो गया । उस समय उसने तीर्थंकर प्रकृतिको भी संचित कर लिया ।
पश्चात् श्रेणिकने अभयकुमार और गजकुमारके अतिशय पुण्यके विषयमें गौतम गणधर से प्रश्न किया । उन्होंने उत्तरमें कहा कि वेणातटाकपुरमें रुद्रदत्त नामका एक ब्राह्मण था । वह गंगा जाते हुए रात्रिमें किसी एक गाँव ( उज्जयिनी ) के भीतर वसतिकामें ठहर गया । उसने वहाँ श्रावक ( अर्हद्दास ) के पास भोजनकी याचना की । तब श्रावकने कहा कि रात्रिमें भोजन
१. फत्रास्य । २. फ कथितेति विस्मिन्त तत्राक्षरं व कथिते तस्मिन् यत्तदक्षरं । ३. फ स चायां जपीत्, ब जंजपीति । ४. फ विद्यास्तं । ५. प नमाम । ६. श ० मचीकरन् । ७. फ०सुखेनावतिष्ठन् ।
८. प श विवाय, फ चियाय ।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रकथाकोश
[ १-८ :
ययाचे । तेन च रात्रौ नोचितमिति धर्म [श्रा]वणं कृतम् । स जैनो भूत्वा संन्यासेन सौधर्म गतः । तस्मादागत्याभयकुमारो जातः । इदानीं गजकुमारस्य भवानाह - तथाहो कस्मिन्नरण्ये ' सुधर्मनामा मुनिर्ध्यानेनास्थात् । तत्र च भिल्लपल्ल्यामतिदारुणभिल्लस्तदरण्येऽग्निमदाद्भट्टारकः समाधिनाच्युतमगात् । भिल्लस्तत्कलेवरं दृष्ट्वा कृतपश्चात्ताप श्रायुरन्ते तत्रारण्ये महान् हस्ती जातः, नन्दीश्वरद्वीपात्स्वर्ग गच्छताच्युतनिवासिनादर्शि । तदनु स सुरो दिगम्बरवेषेण तदागमनमार्गे ध्यानेन स्थितः । तं विलोक्य हस्ती जातिस्मर श्रासीत् प्रणतवांश्च । धर्मश्रवणानन्तरं गृहीतसकलश्रावकत्रतः समाधिना सहस्रारं गत्वागत्य गजकुमारोऽभूदिति निशम्याभयकुमारादयो दीक्षां दधुर्नन्द श्रीश्च । राजा यदभीष्टं तत्सर्वमाकर्ण्य चेलिन्या स्वपुरं विवेश । महामण्डलेश्वरविभूत्या तस्थौ ।
५८
एकदा सौधर्मेन्द्रो निजसभायां सम्यक्त्वस्वरूपं निरूपयन् देवैः पृष्टः किमोहग्विधः सम्यक्त्वाधारो नरो भरतेऽस्ति नो वा । स कथयति श्रेणिकस्तथाविधो विद्यते, इर्ति निशम्य द्वौ देवौ तत्परीक्षणार्थं त्रोत्तीर्णौ । तत्पापर्द्धिगमनपथि नद्यामेको दिगम्बरवेषेण जालं निक्षि
3
करना योग्य नहीं है । इस प्रकार वह धर्मको सुनकर जैन हो गया । तत्पश्चात् संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर वह सौधर्म स्वर्गको प्राप्त हुआ और फिर वहाँ से च्युत होकर अभयकुमार हुआ है । अब गजकुमारके भवको कहते हैं जो इस प्रकार हैं- एक वनमें सुधर्म नामके मुनि ध्यान से स्थित थे । इस वनके भीतर भीलोंकी वस्ती में एक अत्यन्त भयानक भील था । उसने उक्त वनमें आग लगा दी । तब वहाँ स्थित सुधर्म मुनि समाधिपूर्वक प्राणोंको छोड़कर अच्युत कल्पमें देव हुए । भीलने जब मुनिके मृत शरीरको देखा तब उसे पश्चात्ताप हुआ । वह आयुके अन्त में मरणको प्राप्त होकर उसी बनके भीतर विशाल हाथी हुआ । पूर्वोक्त सुधर्म मुनिका जीव वह अच्युतकल्पवासी देव नन्दीश्वर द्वीपसे स्वर्गको वापिस जा रहा था । तब उसने जाते हुए उस हाथी को देखा । तत्पश्चात् वह दिगम्बर वेषको धारण करके उक्त हाथीके आनेके मार्गमें ध्यानसे स्थित हो गया। उसे उस अवस्था में स्थित देखकर हाथी को जातिस्मरण हो गया । तब उसने उसे प्रणाम किया । फिर उसने धर्मको सुनकर श्रावकके समस्त व्रतोंको धारण कर लिया । अन्त में वह समाधिपूर्वक मरकर सहस्रार स्वर्ग में गया और फिर वहाँ से आकर गजकुमार हुआ है। इस प्रकार अपने पूर्वभवोंके वृत्तान्तको सुनकर अभयकुमार आदि के साथ नन्दश्री ( अभयकुमारकी माता ) ने भी दीक्षा धारण कर ली । राजा श्रेणिकको जो भी अभीष्ट था वह सबको सुनकर वह चेलिनी के साथ अपने नगर में वापिस आया और महामण्डलेश्वरकी विभूतिके साथ स्थित हुआ ।
किसी समय सौधर्म इन्द्र अपनी सभा में सम्यक्त्वके स्वरूपका निरूपण कर रहा था । तब देवोंने उससे पूछा कि क्या इस प्रकारके सम्यक्त्वका धारक कोई मनुष्य भरत क्षेत्र में है या नहीं । इसके उत्तर में सौधर्म इन्द्रने कहा कि हाँ, उस प्रकारके सम्यक्त्वका धारक वहाँ राजा श्रेणिक विद्यमान है । यह सुनकर दो देव उसकी परीक्षा करनेके लिए यहाँ आये। उनमें से एक देव तो राजा श्रेणिक के शिकार के लिए जानेके मार्ग में स्थित एक नदीपर दिगम्बर के वेषमें जालको फैलाकर
१. प ( अस्पष्टमस्ति ), फ श्रवणकृतं ब श्रवणं कृतं । २. फ तथा हि कस्मिन्नरण्ये । ३. पश आयुरन्तेन । ४. श कुमारादयो यो दीक्षां । ५. फ बभु० । ६. श किमीदृग्वेधः । ७. फ ब सम्यक्त्वाधारो
भरते विद्यते नो । ब प्रतिपाठोऽयम् । श विद्यतेति ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
: १-८ ]
१. पूजाफलम् ८
५६
पन्नस्थादन्य आर्यिकारूपेण तेनाकृष्टमत्स्यान् करण्डके निक्षिपन् चासीत् । तथा तद्युगलं ददर्श राजा ननाम, जजल्प च 'किं विधीयते' इति । धर्मवृद्धयनन्तरं कृतकयतिरब्रवीदस्या गर्भसंभूतौ मत्स्यमांसवाञ्छाजनि, एतदर्थ मत्स्याकर्षणं विधीयते । भूयो बभाणैतेन वेषेण नोचितम् । मायावी भणदेवं प्रघट्टकोऽजनि, किं क्रियते । तथापि दिगम्बराणामनुचितम् । यतिरब्रवीत् - प्रघट्टकं प्राप्य सर्वेऽपि मादृशा एव । राज्ञाभाणि त्वं सद्दष्टिरपि न भवसि निकृष्टोऽसि । स बभाण-मया किमसत्यमुक्तं यावत्त्वं मां प्रत्येवं वदसि । परमयतीनां गालिप्रदानात्वमेव न जैनो वयं जैना एव । राजावदत्संवेगादिसम्यक्त्व लक्षणाभावात्कथं जैनोऽसि अप्रभावनाशीलत्वाच्च । किंतु यद्यनेन वेषेणैवं करिष्यसि त्वमेव जानासि । मायाविनोक्तं 'किं करिष्यसि । दर्शनोपटोल कारकत्वादिगम्बरो न भवसीति गर्दभारोहणं कारयिष्यामीति गृहमानीतौ । मन्त्रिणऊचुः - देव, एवंविधस्य नमस्कारकरणे दर्शनातिचारः किं न भवति । स भाणायं वेषधारी जैन इति मत्वा मयानामीति दर्शनातिचारो नास्ति, चारित्रातिचारो भवति यदि मे चारित्रं स्यादिति । तस्य दृढत्वदर्शनाद्धृष्टशै" सुरौ प्रकटीभूतां [भूतौ] तं
बैठ गया और दूसरा आर्यिका के रूपमें वहींपर स्थित होकर उसके द्वारा पकड़ी गई मछलियोंको टोकरी में भरने लगा । राजा श्रेणिकने उस अवस्था में स्थित उक्त युगलको देखकर नमस्कार किया । तत्पश्चात् उसने उनसे पूछा कि आप क्या कर रहे हैं ? उत्तर में धर्मवृद्धि देनेके पश्चात् वह कृत्रिम मुनि बोला कि इसके गर्भावस्था में मछलियोंके मांसकी इच्छा उत्पन्न हुई है । इसके लिए मैं मछलियोंको पकड़ रहा हूँ । श्रेणिकने तब फिरसे कहा कि इस वेषमें ऐसा कार्य करना उचित नहीं है । इसपर वह मायावी मुनि बोला कि प्रयोजन ही ऐसा उपस्थित हो गया है, मैं क्या करूँ ? तब श्रेणिक कहा कि फिर भी दिगम्बर साधुओं को ऐसा करना योग्य नहीं है । यह सुनकर मुनिने उत्तर दिया कि प्रयोजनको पाकर सब ही मेरे समान हो जाते हैं। इसपर राजा बोला कि तुम सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो, निकृष्ट हो । वह बोला कि क्या मैंने असत्य कहा है जो तुम मेरे प्रति इस प्रकार कह रहे हो । उत्तम ऋषियों को गाली देनेके कारण तुम ही जैन नहीं हो, हम तो जैन ही हैं । राजा बोला कि जब तुममें सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत संवेगादि भी नहीं हैं तब तुम कैसे जैन हो सकते हो। क्या कोई जैन इस वेषमें जैनधर्मकी अप्रभावना करा सकता ? यदि तुम मुनिके इस वेषमें इस प्रकारका अकार्य करोगे तो तुम ही जानो । तब मायावी देवने पूछा कि क्या करोगे ? सम्यग्दर्शनके विराधक होनेसे चूँकि तुम दिगम्बर नहीं हो सकते हो, इसीलिए मैं तुम्हारा गर्दभारोहण कराऊँगा । इस प्रकार कहकर श्रेणिक उन दोनोंको अपने घरपर ले आया । उस समय मन्त्रियोंने श्रेणिक से पूछा कि हे देव ! इस प्रकार के भ्रष्ट मुनिके लिए नमस्कार करने में क्या सम्यदर्शन सदोष नहीं होता है ? श्रेणिकने उत्तर दिया कि यह वेषधारी जैन है, यह समझ करके मैंने उसे नमस्कार किया है; इसलिए ऐसा करनेसे सम्यग्दर्शन सातिचार नहीं होता है। हाँ, यदि मुझमें चारित्र होता तो चारित्रका अतिचार अवश्य हो सकता था, सो वह है नहीं । इस प्रकारसे जब उक्त देवोंने श्रेणिककी दृढ़ताको देखा तब उन्होंने हर्षित होकर अपने यथार्थ स्वरूपको
१. प निक्षिपत्तस्थादन्य अर्जिका, श निक्षिप्पन्यस्थादन्यदर्जिका । २. फब यतिरवद् । ३. फ सर्वेऽप्य । ४. प श राजाभाणि, ब राज्ञाभणि । ५. फ यावत्ते । ६. फ वदसि मर्म परम । ७. फत्त्वामेव । ८. फ अतोऽग्रेऽग्रिम 'करिष्यसि पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति । ९. प फ मया १०. प फ चारित्रं न स्यादिति । ११. पशदृढदर्शना । १२. ब प्रकटीव्यभूतां ।
ननामीति ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[१-८: नेमतुर्गङ्गोदकेन दम्पती सुप्लवतुर्दिविजलोकवस्त्राभरणैः पूजयामासतुः स्वर्ग जग्मतुश्च । एवं सुरपूजितः श्रेणिकः कुणिकाय राज्यं दत्त्वा सुखेन तिष्ठामीति मत्वा तं राजानं चकार । स च महताग्रहेण मातरं निवार्य तमेवासिपञ्जरे निक्षिप्तवान् । अलवणकञ्जिककोद्रवान्नं च भोक्तुं दापयति दुर्वचनानि च भणति । एवं दुःखानि सहमानोऽस्थानः। अन्यदा भोक्तुमुपविष्टस्य कुणिकस्य भाजने तत्पुत्रो मूत्रितवान् । स मूत्रोदनमपसार्य हे मातः पृष्टवान् मत्तोऽन्यः किमीदग्विधोऽपत्यमोहवान् विद्यते। सा बभाण ---त्वं किं मोहवान् । शृणु तव पितुर्मोहं वाल्ये तवाङ्गुलो दुर्गन्धरसादियुक्तो व्रण आसोत् । केनाप्युपायेन सुखं नास्ति यदा तदा त्वत्पिताङ्गुलिं स्वमुखे निक्षिप्य आस्ते । इति श्रुत्वोक्तवान् हे मात, उत्पन्नदिने मां त्यक्तवानिति किमीग्विधोऽ. पत्यमोह इति। तयाभाणि मया त्यक्तोऽसि, तेनानीतोऽसि राजापि कृतोऽसि । तस्येत्थं कर्तुं तवोचितमिति श्रुत्वा स आत्मानं निन्दित्वा मोचयितुं यावदागच्छति' तावत्तं विरूपकाननं विलोक्यान्यदपि किंचिदयं करिष्यतीति मत्वा श्रेणिकोऽसिधारासु पपात ममार, प्रथमनरके जज्ञे। कुणिकोऽतिदुःखं चकार तत्संस्कारं च । तन्मुक्तिनिमित्तं ब्राह्मणादिभ्योऽग्रहारादिकं
प्रकट कर दिया। फिर उन दोनोंने उसे नमस्कार करके चेलिनीके साथ उन दोनोंका गंगाजलसे अभिषेक किया। तत्पश्चात् स्वर्गलोकके वस्त्राभरणोंसे उनकी पूजा करके वे स्वर्गको वापिस चले गये । इस प्रकार देवोंसे पूजित होकर श्रेणिकने, कुणिकके लिए राज्य देकर मैं सुखपूर्वक रहूँगा, इस विचारसे उसे राजा बना दिया। तब कुणिकने माताके बाधक होनेपर उसे अतिशय आग्रहसे रोककर पिताको ही असिपंजर (कटघरा) में रख दिया । वह उसके लिए नमकके बिना कांजिक
और कोदोंका भोजन खानेके लिए दिलाता तथा दुर्वचन बोलता था । इस प्रकारसे दुखको सहता हुआ श्रेणिक उस कटघरेमें स्थित रहा । किसी समय जब कुणिक भोजनके लिए बठा था तब उसके पुत्रने भोजनके पात्रमें मूत दिया। उस समय कुणिकने मूत्रयुक्त भोजनको अलग करके शेषको खाते हुए मातासे पूछा कि मुझको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा पुत्र प्रेमी है क्या ? उत्तरमै चेलनाने कहा कि तू कितना मोहवाला है, अपने पिताके पुत्रमोहको सुन-बाल्यावस्थामें तेरी अंगुलिमें दुर्गन्धित पीव आदिसे संयुक्त एक घाव हो गया था। वह किसी भी उपायसे ठीक नहीं हुआ। इससे तू बहुत दुखी था। तब तेरे पिताने उस अंगुलिको अपने मुंहमें रखकर तुझे सुखी किया था। यह सुनकर कुणिकने मातासे कहा कि हे माता ! क्या यही पुत्रमोह है जो कि मुझे उत्पन्न होनेके दिन ही छोड़ दिया गया था ? चेलनाने कहा कि तेरा परित्याग मैंने किया था, राजा तो तुझे वहाँसे उठाकर वापिस लाये थे। इतना ही नहीं, उन्होंने तुझे राजा भी बनाया । ऐसे पुत्रस्नेही पिताके विषयमें तुझे ऐसा अयोग्य व्यवहार करना उचित है क्या ? यह सुनकर कुणिकने अपनी आत्मनिन्दा की । फिर वह पिताको बन्धनमुक्त करनेके लिए उनके पास पहुँचा । किन्तु जब श्रेणिकने उसे मलिन मुखके साथ अपनी ओर आते हुए देखा तो यह सोचकर कि अब और भी यह कुछ करेगा, वह तलवारकी धारपर गिर पड़ा और मर करके प्रथम नरकमें उत्पन्न हुआ। इस दुर्घटनासे कुणिकको बहुत दुख हुआ। उसने श्रेणिकके अग्निसंस्कारको करके उसकी मुक्तिके निमित्त ब्राह्मणादिके लिए अग्रहारादि दिया । माता चेलिनीके समझानेपर भी जब उसने जैन मतको
१. प शमरसार्य भुक्तं मातरं, फमपसार्य तु भुक्त्वा मातरं । २. फ राजापि वृद्धि कृतोऽसि । ३. फ भवानुचितमिति । ४. फ आत्मनो। ५. फ यदा गच्छति । ६. फ सिधारामुपयात:।
www.jainelibrary:org
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-१, ६ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् १
ददौ । मात्रा संबोधितोऽपि जैनमतं नाभ्युप गच्छति । तदा सा वर्धमानस्वामिसमवसरणे स्वभगिनीचन्दनार्यानिकटे दीक्षिता समाधिना दिवि देवो जातः । श्रभयकुमारादयो यथायोग्यां गतिं यः । एवं श्रेणिकः सप्तमावनौ बद्धायुरपि सकृजिनं विलोक्य पूजयित्वावाप्तसम्यक्त्वंप्रभावेन तीर्थकरत्वमु यद्यत्रैव भरते श्रादितीर्थंकरः स्यात्तदान्यो भव्यो दर्शनपूर्वकव्रतधारी जिनपूजकः किं त्रिलोकस्वामी न स्यात् । भ्राजिष्णोराराधना - कर्णाटटीकाकथितक्रमेणोल्लेख मात्रं कथितेयं कथा इति ॥ ८ ॥
भुक्त्वा स्वर्गसुखं हृषीकविषयं दीर्घं मनोवाञ्छितं भूत्वा तीर्थकरास्ततो नतसुराश्चकाधिपा भोगिनः । क्षीरोदामलकीर्तिबोधनिधयो मुक्तौ भजन्ते सुखं पूजाफलवर्णनाष्टकमिदं भव्याः पठन्त्यादरात् ॥ ॥ इति पुण्यास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनि शिष्यरामचन्द्रमुमुक्षु विरचिते पूजाफलवर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥१॥ [ ६ ] वृषो हि वैश्योदितपञ्चसत्पदः
सुखं स भुक्त्वा दिविजं नृलोकजम् । बभूव सुग्रीवसुनामधेयकस्ततो" वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥ १ ॥
६१
स्वीकार नहीं किया तब चेलिनीने वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में अपनी बहिन चन्दना आर्यिका के निकटमें दीक्षा धारण कर ली । वह समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर स्वर्ग में देव हुई । अभयकुमार आदि यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे श्रेणिकने सातवें नरककी आयुको बाँध करके भी जब एक बार जिनेन्द्रका दर्शन व पूजन करके प्राप्त हुए सम्यक्त्वके प्रभावसे तीर्थङ्कर प्रकृतिको भी बाँध लिया और भविष्य में इसी भरत क्षेत्रके भीतर प्रथम तीर्थङ्कर होनेवाला है तब दूसरा कोई भव्य जीव यदि सम्यग्दर्शनके साथ व्रतोंको धारण करके जिनेन्द्रकी पूजा करता है तो वह क्या तीनों लोकोंका स्वामी न होगा ? अवश्य होगा । यह कथा भ्राजिष्णुकी आराधना कर्णाटक टीका में वर्णित क्रमके अनुसार उल्लेख मात्रसे कही गई है ।
जो भव्य जीव पूजाके फलको बतलानेवाले इस अष्टक ( आठ कथाओं) को पढ़ते हैं वे इच्छानुसार बहुत काल तक स्वर्ग सम्बन्धी इन्द्रिय-सुखको भोग करके तत्पश्चात् तीर्थकर होते हुए देवोंसे पूजित चक्रवर्तीके भी सुखको भोगते हैं और अन्तमें क्षीरसमुद्र के समान निर्मल कीर्ति एवं ज्ञानरूप निधि से संयुक्त होकर मोक्ष सुखको भोगते हैं ॥८॥
इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु, विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें पूजाफलका बतलानेवाला अष्टक समाप्त हुआ ||१||
जो एक बैलकी पर्याय में अवस्थित था उसने सेठके द्वारा उच्चारित पंचनमस्कार मन्त्रको सुनकर स्वर्गलोक और मनुष्यलोकके सुखको भोगा । पश्चात् वह सुग्रीव नामका राजा हुआ । इसीलिए हम उस पंचनमस्कार मंत्र के विषय में दृढ़श्रद्धानी होते हैं ॥१॥
४. फ
१. फ गत्यं । २. पशु बद्धायुरिति । ३. फत्वा वाप सस्य सम्यक्त्वा, ब त्वा प्राप्तसम्यक्त्व | 'मुपाजग्रे, बमुपाग्रे, श मुपार्यो । ५ प भ्राजिप्लोराधना, ब भ्राजिष्लोराधना, श भाजिवोराधना । ६. श तीर्थकरस्ततो । ७. ब युक्ता । ८. फमिदं तत्पठदत्यादरात् । ९. सर्वास्वेव प्रतिषु 'पुण्याश्रवाभि' पाठोऽस्ति । १०. ब फलव्यावर्णना । ११. व धीयकस्ततो ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-१ः अस्य कथा- अत्रैव भरतेऽयोध्यायां राजानौ राम-लक्ष्मीधरौ स्वपुरबहिःस्थितमहेन्द्रोद्यानवासिनः सकलभूषणकेवलिनो वन्दितुमीयतुः समय॑ वन्दित्वोपविविशतुः । धर्मश्रुतेरनन्तरं विभीषणोऽप्राक्षीत् केन पुण्यफलेन सहस्राक्षौहिणीबलाधीशो रामप्रियः सुग्रीवोsजनीति । आह देवः- अत्रैव भरते श्रेष्ठपुरे राजा छत्रच्छायो देवी श्रीदत्ता, श्रेष्ठी पद्मरुचिरधिगमसदृष्टिश्चत्यालयाद् गृहमागच्छन् मार्ग युवा पतितं वृषभमद्राक्षीत् । तस्मै पञ्चनमस्कारान् ददौ । तत्फलेन छत्रच्छाय-श्रीदत्तयोर्नन्दनो वृषभध्वजनामा व्यजनिष्ट राज्येऽस्थात् । एकदा गजारूढो नगरे लीलया परिभ्रमन् वृषभपतनस्थानमपश्यन्मूछितो जातिस्मरो भूत्वा तूष्णों स्वभवनमियाय, तत्पुरुषपरिज्ञानार्थ अतिविचित्रं जिनभवनमकार्षीत् तत्रैकदेशे पतितवृषभरूपं पञ्चनमस्कारकथकरूपसहितं च। तत्रैकं विचक्षणपुरुषमस्थापयत् ‘य इमं विस्मितोऽवलोकयति' स मत्सकाशे आनेतव्यः' इति । तथावलोकितं पद्मचिं तदन्तिक' संनिनाय । राजा तमपृच्छत् किमिति तं वृषभं विलोक्य विस्मितोऽसि । स आह-मया पतितवृषभस्य पञ्चनमस्कारा दत्ताः। स क्वोत्पन्न इति तद्दर्शनात्तं स्मृत्वावलोकितवानहमिति निरू
इसकी कथा- इसी भरत क्षेत्रके भीतर अयोध्या पुरीमें राजा राम और लक्ष्मण राज्य करते थे। एक समय वहाँ सकलभूषण केवली आकर नगरके बाहिर महेन्द्र उद्यानमें स्थित हुए । राम और लक्ष्मण उनकी वन्दनाके लिए गये । ज्होंने उनकी पूजा व वन्दना करके धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् विभीषणने पूछा कि हे भगवन् ! हजार अक्षौहिणी प्रमाण सेनाका स्वामी सुग्रीव किस पुण्यके फलसे रामका स्नेहभाजन हुआ है। केवली बोले--- इसी भरत क्षेत्रके भीतर श्रेष्ठपुर नामक नगरमें छत्रछाय नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम श्रीदत्ता था। वहाँ एक पदमरुचि नामका सेठ रहता था । वह अधिगमसम्यग्दृष्टि था। एक दिन उसे चैत्यालयसे घर वापिस आते हुए मार्गमें एक बैल दिखा । वह किसी अन्य बैलसे लड़ते हुए गिरकर मरणोन्मुख हुआ था। सेठने उसे इस अवस्थामें देखकर पंचनमस्कारमंत्र दिया। उसके फलसे वह राजा छत्रछाय और रानी श्रीदत्ताके वृषभध्वज नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। समयानुसार वह राजपदपर प्रतिष्ठित हुआ। एक समय वह हाथीके ऊपर चढ़कर नगरमें घूमते हुए उस स्थानपर पहुँचा जहाँ कि पूर्वोक्त बैल गिरकर मरणको प्राप्त हुआ था । उस स्थानको देखते ही उसे जातिस्मरण हो जानेसे मूर्छा आ गई। सचेत होनेपर वह चुपचाप अपने भवनमें पहुँचा। उसने उक्त वैलको पंचनमस्कार मंत्र देनेवाले पुरुषको ज्ञात करनेके लिए वहाँ एक अनुपम जिनभवन बननाया। इसके भीतर एक स्थानमें उसने पंचनमस्कार मन्त्रको देते हुए पुरुषके साथ उस बैलकी मूर्ति बनवाकर वहाँ एक विद्वान् पुरुषको नियुक्त कर दिया । उसे उसने यह जतला दिया कि जो पुरुष इस मूर्तिको आश्चर्यके साथ देखे उसे मेरे पास ले आना । तदनुसार वह पद्मरुचिको देखकर उसे राजाके पास ले गया। राजाने उससे पूछा कि उस बैलको देखकर आपको आश्चर्य क्यों हो रहा था । सेठने कहा कि मैंने एक गिरे हुए बैलको पंचनमस्कार मंत्र दिया था। न जाने वह कहाँ उत्पन्न हुआ है। इसको देखनेसे मुझे उसका स्मरण हो आया है। इसीलिए मैं उसे आश्चर्यके साथ देख रहा था। इस प्रकार सेठके कहनेपर उसे वृषभध्वजने
१.फ विस्मितो विलोकयति । २.फ पदमरुचिस्तदन्तिक ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
६३
: २- १,१० ]
२. पश्वनमस्कारमन्त्रफलम् २
पिते तेनात्मसमः कृतः । स वृषभध्वजः उभयगतिसुखमनुभूय सुग्रीवोऽभूत्, पद्मरुचिः परं-परया राम आसीत् इति पशुरपि तत्प्रभावेनैवंविधोऽभवदन्यः किं न स्यात् ॥ १ ॥
[ १० ] कपिश्च संमेदगिरौ स चारणैविबोधितः पञ्चपदैर्द्विलोकजम् ।
सुखं स भुक्त्वा भवति स्म केवली ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ||२||
अस्य कथा -
- अत्रैव भरते सौरीपुरे राजान्धकवृष्टिः । तत्पुरबाह्यस्थगन्धमादननगे ध्यानस्थस्य सुप्रतिष्ठितमुनेः सुदर्शनाभिधो देवो दुर्धरोपसर्गमकरोत्तदा स मुनिरभवत्केवली । अन्धकवृष्टिस्तं पूजयित्वाभिवन्द्य पृच्छति स्म भवदुपसर्गस्य किं कारणमिति । स आहसर्वज्ञः । तथाहि— जम्बूद्वीपभरते कलिङ्गदेशनिवासिकाञ्चीपुरे वैश्यों सुदत्तसूरदत्तौ वाणिज्येन बहु द्रव्यं समुपाज्यं स्वपुरप्रवेशे क्रियमाणे शौल्किकभयाद् बहिरेकोभाभ्यां द्रव्यं भूमिक्षिप्तं पूर्णम् । केनचिद् दृष्टोत्खन्य गृहीतम् । तन्निमित्तं परस्परं युद्ध्वा मृतौ प्रथमनर के जाती । ततो मेषौ बभूवतुः, तथैव युद्ध्वा मृतौ । गङ्गातटे वृषभौ भूत्वा तथैव मृतौ । संमेदे मर्कटौ
।
अपने समान कर लिया । वह भूतपूर्व बैलका जीव वृषभध्वज दोनों गतियों (मनुष्य और ईशानकल्पवासी देव ) के सुखको भोगकर सुग्रीव हुआ है और पद्मरुचि सेठ परम्परासे राम हुआ है । इस प्रकार जब उस मंत्र के प्रभावसे पशु भी ऐसी उत्तम अवस्थाको प्राप्त हुआ है तब अन्य मनुष्यों के विषय में क्या कहा जाय ? वे तो उत्तम सुखको भोगेंगे ही ॥ २ ॥
सम्मेद पर्वतके ऊपर चारण ऋषियोंके द्वारा प्रबोधको प्राप्त हुआ वह बन्दर चूँकि पंचनमस्कार मंत्र के प्रभाव से दोनों लोकोंके सुखको भोगकर केवली हुआ है, अतएव हम उस पंचनमस्कार मंत्रमें अधिष्ठित होते हैं ॥२॥
इसी भरत क्षेत्र के भीतर सौरीपुरमें राजा अन्धकवृष्टि राज्य करता था । एक समय इस नगरके बाहिर गन्धमादन पर्वतके ऊपर सुप्रतिष्ठित मुनि ध्यानमें स्थित थे । उनके ऊपर किसी सुदर्शन नामक देवने घोर उपसर्ग किया । इस भीषण उपसर्गको जीतकर उक्त मुनिराजने केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया । यह जानकर अन्धकवृष्टिने वहाँ जाकर उनकी पूजा और वन्दना की । तत्पश्चात् उसने उनके ऊपर किये गये इस उपसर्गके कारणको पूछा केवली बोले- जम्बूद्वीप
।
।
सम्बन्धी भरत क्षेत्र के भीतर कलिंग देशमें एक कांचीपुर नगर उसमें सुदत्त और सूरदत्त नामके दो सेठ रहते थे । उन्होंने बाहिर जाकर व्यापार में बहुत-सा धन कमाया। जब वे वापिस आये और अपने नगर में प्रवेश करने लगे तब उन दोनोंने कर ( टैक्स ) ग्राहक अधिकारीके भयसे उस सब धनको एक स्थानमें भूमिके भीतर गाड़ दिया । उक्त धनको गाड़ते हुए उन्हें किसीने देख लिया था । सो उसने भूमिको खोदकर उस सब धनको निकाल लिया। तत्पश्चात् जब वह धन उन्हें वहाँ नहीं मिला तब वे एक-दूसरे के ऊपर सन्देह करके उसके निमित्तसे लड़ मरे । इस प्रकार मरकर वे प्रथम नरकमें नारकी उत्पन्न हुए। वहाँ से निकलकर वे मेंढ़ा हुए और उसी प्रकार परस्परमें लड़कर मरणको प्राप्त हुए। फिर वे गंगा नदीके किनारेपर बैल हुए और पूर्वके
१. फ सुचारणविबोधितः । २. फ शुल्क । ३. फ ब म्यां पूर्ण कलसं निक्षिपंती केन चिदृष्ट्वोऽन्यगृहीतं, "म्यां पूर्णकलसं निक्षिपंतौ केनचिद्दृष्ट्वोखन्य ।
ब
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-१११ जातौ तथैव युद्धे च सुदत्तचरमर्कटो मृतः। इतरः कण्ठगतासुर्यावदास्ते तावत्सुरगुरु-देवगुरुचारणाभ्यां दृष्टः । तदनु तत्प्रतिपादितपञ्चनमस्कारफलेन सौधर्मे चित्राङ्गदनामा देवो जातः। ततः काञ्चीपुरेशाजितसेनसुभद्रयोः समुद्र दत्तो नाम पुत्रो जातः । तदनु तपसाहमिन्द्रः। ततः पौदनपुरेशंसुस्थिर-लक्ष्मणयोः सुप्रतिष्ठोऽहं जातः । इतरश्चिरं भ्रमित्वा सिन्धुतटेतापसमृगायणविशालयोर्गोतमो भूत्वा पञ्चाग्न्यादितपसा ज्योतिर्लोके सुदर्शनो जातः । वापि गच्छतो ममोपरि विमानागतेः कृतोपसर्ग इति प्रतिपादनानन्तरं सुदर्शनः सम्यक्त्वं जग्राह । पञ्चनमस्कारतो मर्कटोऽप्येवंविधोऽभूदित्येतत्फलं किं वर्ण्यते ॥२॥
नृपालपुत्री व्यजनिष्ट वल्लभा शचीपतेर्धातुजरादिवर्जिता। सुलोचनापादितपश्चसत्पदा
ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥३॥ अस्य कथा-वाराणस्यां राजा अकम्पनो राशी सुप्रभा पुत्री सुलोचनातिजैनी सर्वकलाकुशला सुखेनास्ते यावत्तावद्विन्ध्यपुरे अकम्पनस्य सखा राजा विन्ध्यकीर्तिर्जाया समान ही लड़कर मृत्युको प्राप्त हुए। तत्पश्चात् वे सम्मेदपर्वतपर बन्दर हुए। पहिलेके ही समान उन्होंने फिर भी आपसमें युद्ध किया। इस युद्ध में सुदत्तका जीव जो बन्दर हुआ था वह तो तत्काल मर गया। परन्तु दूसरा ( सूरदत्तका जीव) मरणासन्न था। उसे इस मरणोन्मुख अवस्थामें देखकर सुरगुरु और देवगुरु नामके चारण ऋषियोंने पंचनमस्कार मंत्र सुनाया । उसके प्रभावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें चित्रांगद नामका देव उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह कांचीपुरके राजा अजितसेन और रानी सुभद्राके समुद्रदत्त नामका पुत्र हुआ। फिर वह तपके प्रभावसे अहमिन्द्र हुआ। पश्चात् वहाँ से च्युत होकर पौदनपुरके राजा सुस्थिर और रानी लक्ष्मणाके मैं सुप्रतिष्ठित नामका पुत्र हुआ हूँ। दूसरा ( सुदत्तका जीव ) चिर काल तक परिभ्रमण करके सिन्धु नदीके किनारेपर तापस मृगायण और विशालाके गौतम नामका पुत्र हुआ था जो पंचाग्नि तपके प्रभावसे ज्योतिर्लोकमें सुदर्शन देव हुआ है। वह कहींपर जा रहा था। उसका विमान जब मेरे ऊपर आकर रुक गया तब उसने वह उपसर्ग किया है। इस प्रकार केवलीके द्वारा प्रतिपादन करनेपर उस सुदर्शन यक्षने सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लिया। जब उस पंचनमस्कार मंत्रके प्रभावसे बन्दर भी इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब भला उसके फल का वर्णन कहाँ तक किया जा सकता है ? उसका फल अनिर्वचनीय है ॥२॥
राजा विन्ध्यकीर्तिकी पुत्री विजयश्री सुलोचनाके द्वारा सुनाये गये पंचनमस्कार मंत्रके प्रभावसे सप्त धातुओं एवं जरा आदिसे रहित इन्द्रकी प्रियतमा (इन्द्राणी) हुई थी । इसीलिए हम उस पंचनमस्कार मंत्रमें अधिष्ठित होते हैं।
इसकी कथा इस प्रकार है- वाराणसी नगरीमें अकम्पन नामक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सुप्रभा था। उनके सुलोचना नामकी पुत्री थी जो अतिशय जिनभक्त एवं समस्त कलाओंमें कुशल होकर सुखसे स्थित थी। इधर विन्ध्यपुरमें अकम्पनका एक मित्र विन्ध्यकीर्ति
१ ब 'च' नास्ति । २. फ दृष्टः सुरदत्तचरः । तदनु। ३. प श पुरेश्वरः' ब पुरेशुर । ४. श लक्षणयोः । ५. फ अतोऽग्रे 'सुदर्शनो जातः' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितो जातः ! ६. फ विमानगते, श विमानगतेः । ७. श इति पादनानंतरं ।
.
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
:२-५,१३]
२. पश्चनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५
६५
प्रियङ्गश्रीः पुत्री विजयश्रीः पित्रानीय सुलोचनायाः कलादिषु प्रौढां कुर्विति समर्पिता । तत्र तिष्ठन्ती सुलोचनायोः कन्यामाटाग्देशस्थोद्यानं पुष्पाणि चेतुं जगाम । कालोरगेण प्रस्ता सुलोचनया दत्तपश्चपदप्रभावेन गङ्गाकूटनिवासिनी गङ्गादेवी जाता सुलोचनामपुजन इति ॥३॥
[१२-१३] अजो हि देवोऽजनि दिव्यविग्रहः सुराङ्गनापादितचारुभोगकः । स चारुदत्तार्पितपञ्चसत्पदस्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥४॥ रसेन दग्धः पुरुषो हि कल्पकेऽभवत्सुकान्तारमणः सुनिर्मलः। स चारुदत्तोदितपञ्चसत्पद
स्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥५॥ अनयोवृत्तयोः कथा चारुदत्तचरित्रे विद्यते इति तत्प्रतिपाद्यते । तथाहि- जम्बूद्वोपभरतेऽङ्गदेशे चम्पाया राजा विमलवाहनः, देवी विमलमती',श्रेष्ठीभानुर्भार्या देविला । सा राजा था। उसकी पत्नीका नाम प्रियंगुश्री था। उनके एक विजयश्री नामकी पुत्री थी। उसके पिता विन्ध्यकीर्तिने उसे लाकर कलाओंमें कुशल करनेके लिए सुलोचनाको सौंप दिया। तब विजयश्री वहाँ सुलोचनाके पास रहने लगी। एक दिन वह सुलोचनाके कन्यागृहके पूर्व भागमें स्थित उद्यानमें फूलोंको चुननेके लिए गई थी । वहाँ उसे काले सर्पने डस लिया था। तब उसे मरणासन्न देखकर सुलोचनाने पंचनमस्कारमन्त्र सुनाया। उसके प्रभावसे वह गंगाकूटके ऊपर रहनेवाली गंगादेवी हुई । उसने आकर सुलोचनाकी पूजा की ॥३॥
वह बकरा, जिसे कि मरते समय चारुदत्तने पंचनमस्कारमन्त्र दिया था, उक्त मन्त्रके प्रभावसे देव होकर दिव्य शरीरसे सहित होता हुआ देवांगनाओंसे प्राप्त सुन्दर भोगोंका भोक्ता हुआ । इसलिए हम उस पंचनमस्कारमन्त्रमें अधिष्ठित होते हैं ॥४॥
इसी प्रकार वह रससे दग्ध ( रसकूपमें पड़ा हुआ) पुरुष भी, जिसे कि चारुदत्तने पंचनमस्कारमन्त्र दिया था, उक्त मन्त्रके प्रभावसे स्वर्गमें सुन्दर देवांगनाओंका स्वामी निर्मल देव हुआ। इसीलिए हम उस पंचनमस्कारमन्त्रमें अधिष्ठित होते हैं ॥५॥
____इन दो वृत्तोंकी कथा चारुदत्तचरित्रमें है। उसको यहाँपर कहा जाता है- जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरतक्षेत्रमें अंगदेशके भीतर चम्पा नगरी है । वहाँपर विमलवाहन नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम विमलमती था । वहाँ एक भानु नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नी
१. प तिष्ठति। २. फ श सुलोचनया ब सुलोचनाया। ३. फ. कन्यामाटः । ४. फ गंगातट । ५. फ मपूजदिति प शमपूजन् ( 'इति' नास्ति)। ६.फ श्लोकोऽयं तत्र नास्ति । ७. ब कथे । ८. प वृत्तयोः कघे चारुदत्तचरिते एवोत्पद्यते । इति । तद्यथा तत्प्रतिपाद्यते श वृत्तयोः कथा ॥ चारुदत्तचरिते एवोत्पदाते ।। इति तद्यथा ॥ तत्प्रतिपाद्यते ।। ९. 'देवी विमलमती' इति ब-प्रतावस्ति, श-प्रती नास्ति।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
पुण्यात्र कथाकोशम्
[ २-५, १३ :
तत्र
पुत्रार्थिनी यक्ष-यक्षीः पूजयति । एकदा सुमतिनामदिगम्बर मुख्येन दृष्ट्रोक्तम् - हे' पुत्रि, तवोत्तमपुत्रो भविष्यति, कुदेवपूजया मा सम्यक्त्वं विराधयेति । ततः कतिपयदिनैस्तनयश्चारुदत्तोऽजनि । स च प्रधानपुत्रैर्हरिशिख-गोमुख वराहक- परंतपोमरुभूतिभिः सह वृद्धः । पुराऽग्निमन्दरगिरौ यमधरमुनिः शिवं प्राप्तः । तत्र प्रतिवर्ष मार्गशीर्षे यात्रा भवति । राजादिभिर्गच्छद्भिश्चारुदत्तो व्याघोटितः । स च मित्रैर्नदीतटस्थोपवनं क्रीडार्थ गतः । तत्र परिभ्रमता कदम्बशाखिनि कीलितो मूर्च्छा प्रपन्नः पुरुषो दृष्टः । खेटस्योपरिस्थितदृष्टिभावेन ज्ञात्वा चारुदत्तः खेटं शोधयित्वा गुटिकात्रयमपश्यत् । तत्र कीलोद्भेदिनीप्रभावेण विगतकीलनः संजीविनी सामर्थ्येनोन्मूच्छितः व्रणसंरोहणीप्रभावेन विगतव्रणश्च कृतः सन् चारुदत्तं प्रणम्यावदत् - शृणु, हे भव्योत्तम, विजयार्धदक्षिणश्रेणौ शिवमन्दिरपुरेश महेन्द्रविक्रममत्स्ययोः सुतोऽहममितगतिः धूमसिंह - गोरिमुण्डमित्राभ्यां सह हीमन्तपर्वतं गतः । तत्र हिरण्यरोमनाम क्षत्रियतापसतनुजा निर्जितामराङ्गनारूपविभवा सुकुमारिकानाम्नी दृष्टा याचिता विवाहिता च मया । तामुद्वीक्ष्य धूमसिंह आसक्तान्तरङ्गो हरणार्थ का नाम देविला था । उसके कोई पुत्र नहीं था । इससे वह पुत्रप्राप्तिकी अभिलाषासे यक्षयक्षियोंकी पूजा किया करती थी । एक समय सुमति नामक दिगम्बराचार्यने उसे यक्ष-यक्षियों की पूजा करते हुए देखकर कहा कि हे पुत्री ! तेरे उत्तम पुत्र होगा । तू कुदेवोंकी पूजा करके सम्यग्दर्शनकी विराधना मत कर । तत्पश्चात् कुछ दिनों में उसके चारुदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । वह हरिशिख, गोमुख, वराहक, परंतप और मरुभूति इन प्रधानपुत्रों के साथ वृद्धिंगत हुआ । इसी नगरके बाहिर स्थित अग्निमन्दर पर्वत ( अथवा अग्निदिशागत मन्दर ) के ऊपर यमधर मुनि मुक्तिको प्राप्त हुए थे । वहाँ प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष मास में यात्रा भरती है । इस यात्रामें चारुदत्त भी जाना चाहता था । परन्तु वहाँ जाते हुए राजा आदिने उसे वापिस कर दिया । तब वह मित्रोंके साथ नदीके तटपर स्थित एक उपवनमें क्रीड़ा करनेके लिए चला गया । वहाँ घूमते हुए उसे कदम्ब वृक्षसे कीलित होकर मूर्छाको प्राप्त हुआ एक पुरुष दिखा । उसकी दृष्टि ढालके ऊपर स्थित थी । इससे चारुदत्तने अनुमान करके उस ढालको तलाशा | उसमें उसे तीन औषधकी बत्तियाँ ( या गोलियाँ) दिखीं। उनमें जो कीलों को नष्ट करनेवाली औषधि थी उसके प्रभाव से चारुदत्तने उसकी कीलों को दूर किया, संजीवनी औषधके सामर्थ्य से उसने उसकी मूर्च्छीको नष्ट किया, तथा व्रणसंरोहिणी औषधके प्रयोग से उसने उसको घावरहित कर दिया । तब वह चारुदत्त को नमस्कार करके बोला कि हे श्रेष्ठ भव्य ! मेरी बात सुनिये - विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें शिवमन्दिर नामका एक नगर है । वहाँ महेन्द्रविक्रम नामका राजा राज्य करता है । रानीका नाम मत्स्या है। उन दोनोंका मैं अमितगति नामका पुत्र हूँ । मैं धूम सिंह और गोरिमुण्ड मित्रोंके साथ हीमन्त पर्वत के ऊपर गया था । वहाँपर मैंने हिरण्यरोम नामक एक क्षत्रिय तापसकी कन्या को देखा । वह सुकुमारिका नामकी बालिका अपनी सुन्दरतासे देवांगनाओंके भी रूपको तिरस्कृत करती थी । मैंने उसके लिए उक्त तापससे याचना की। उसने उसका विवाह मेरे साथ कर दिया। सुकुमारिका को देखकर धूमसिंहका मन उसके विषय में आसक्त हो गया । वह उसका अप
१. श यक्षयक्षी व यक्षं यक्षी । २. फ दिगंबरमुनिना दृष्ट्वोक्तः । ३. श हि । ४. फ ब श मंदिर ! ५. प व्याघोटितं फ व्याघुटितः ब व्याघोटितः । ६. फ दृष्ट | ७. फ कोलनं । ८. फ स तु । ९. शं विभावा । १० क याचिता विवाहि च ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-५, १३ ]
२. पश्चनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५ प्रवर्तते। अहं न जाने । तया सहात्र क्रीडितुमागतः प्रमत्तावस्थायां मां कीलयित्वा तो गृहीत्वा गतः । इदानीमेव तां मोचयामि । तं नत्वा गतः।
___ कतिपयदिनैश्चारुदत्तस्य मातुलसिद्धार्थसुमित्रयोस्तनयया मित्रवत्या विवाहः कृता। स कलादिगुणकाव्यचिन्तया कालं निर्वाहयति । एकदा प्रातरेवागतयाँ सुमित्रया :कृतविलेपनादिभिः सह तनुजां दृष्टोक्तम्--पुत्रि, किं भर्ता सह न सुप्ताऽसि येन विलेपनादिकं तथैव तिष्ठति । तयोक्तम्-- कदाचिन्मम चिन्तामपि न करोति, सर्वदा किंचिदनुमानयन्नेव तिष्ठति। तदनु सुमित्रया देविला भणिता-- तव पुत्रः पठितमूर्खः स्त्रियो वार्तामपि न करोति ।' देविलया स्वदेवररुद्रदत्तायोक्तं चारुदत्तो यथा भोगलालसो भवति तथा कर्तव्यमिति । तदनु तेन वसन्तमालायाः पुत्री वसन्ततिलका रूपलावण्यादिगुणगर्विता; सा संकेतं ग्राहिता 'चारुदत्तम् श्रानयामि यथा जानासि तथा वशीकुरु'इति । अनन्तरं तद्गृहं नीतः। उपवेशनानन्तरं सारैः क्रीडा प्रारब्धा। अनन्तरं पानीये याचिते मतिमोहनचूर्णीपेतं तोयं पायितम् । तदनु विह्वलितमतिर्जातः । तया सह हर्म्यस्योपरिभूमौ रन्तु लग्नः । षड्वर्षेः' षोडशकोटिद्रव्ये भक्षिते पुत्रस्य दुर्व्यसनं समीक्ष्य श्रेष्ठी दीक्षितः । अपरहरण करनेमें प्रवृत्त था। परन्तु मुझे इसका ज्ञान नहीं था। मैं सुकुमारिकाके साथ क्रीड़ा करनेके लिए यहाँ आया था, वह प्रमादकी अवस्था में मुझे यहाँ कीलित करके उसे ले गया है। अब मैं उसे इसी समय जाकर छुड़ाता हूँ। इस प्रकार कहकर और उसे नमस्कार करके वह अमितगति विद्याधर वहाँ से चला गया।
कुछ दिनोंके पश्चात् चारुदत्तका विवाह उसके मामा सिद्धार्थ और सुमित्राकी पुत्री मित्रवतीके साथ कर दिया गया । चारुदत्तका सारा समय कला आदि गुणों और काव्यके चिन्तनमें बीतता था। एक दिन सुमित्रा प्रातःकालमें अपनी पुत्री मित्रवतीके पास आयी। तब उसने पुत्रीके द्वारा कलके दिन किये गए चन्दनलेपनादिको ज्योंका त्यों शरीरमें स्थित देखकर उससे पूछा कि हे पुत्री ! तू क्या पतिके साथ नहीं सोयी थी, जिससे कि विलेपन आदि तेरे शरीरमें जैसेके तैसे स्थित हैं ? पुत्रीने उत्तर दिया कि पति मेरी चिन्ता भी नहीं करता है, वह तो सदा कुछ अनुमान करता हुआ ही- शास्त्रीय विचार करता हुआ ही- स्थित है। तत्पश्चात् सुमित्राने देविलासे कहा कि तुम्हारा लड़का पढ़ा हुआ मूर्ख है । वह स्त्रीकी बात भी नहीं करता है। तब देविलाने अपने देवर रुद्रदत्तसे कहा कि जिस प्रकारसे चारुदत्त विषयभोगाभिलाषी बने वैसा तुम प्रयत्न करो। यह सुनकर रुद्रदत्तने वसन्तमालाकी पुत्री वसन्ततिलकाको, जिसे कि अपने रूप-लावण्यादि गुणोंका गर्व था, संकेत किया कि मैं चारुदत्तको लाता हूँ, तुम उसे जैसे समझो वैसे वशमें करना । तत्पश्चात् वह चारुदत्तको उसके घरपर ले गया। वहाँ बैठानेके पश्चात् उसने गोटोंसे क्रीड़ा ( द्यूतक्रीड़ा ) प्रारम्भ की। पश्चात् चारुदत्तके द्वारा पानीके माँगनेपर उसे बुद्धि को प्रान्त करनेवाले मोहनचूर्णसे संयुक्त पानी पिलाया गया। उसे पीकर चारुदत्तकी बुद्धिमें भ्रान्ति उत्पन्न हो गई। तब वह वसन्ततिलकाको ऊपरके खण्डमें ले जाकर उसके साथ रमण करनेमें लग गया। इस प्रकार वहाँ रहते हुए चारुदत्तको छह वर्ष हो गए। इस बीचमें उसके घरसे सोलह करोड़ प्रमाण द्रव्य वसन्तमालाके घर पहुँच गया। चारुदत्तको इस प्रकारसे दुर्व्यसनासक्त देखकर उसके पिताने दीक्षा
१. फ 'ता' नास्ति । २. फ तनया। ३. ब सकलगुणकाव्य। ४. फ सकलागुणकथाचितया कालं निर्धाटयति । ५. फ प्रातरेव गतया। ६. फ सुमित्रया ह्यकृतिलेप० प श सुमित्रया बाह्यःकृताविलेप० । ७. फंदतुमानप्रमाणादियत्नेन तिष्ठति । ८. फ रुद्रदत्तस्य प्रोक्तं । ९. फे गुणवत्तितासां । १०. फब पायितः । ११. फ षड्वर्षे ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ २-५, १३ : षड्वर्षेः षोडशकोटिद्रव्ये गते द्वादशसहस्रहिरण्यस्य स्वावासो ग्रहणं निक्षिप्तः । तस्मिन्नपि गते स्नुषाया आभरणानि निक्षिप्तानि गृहीत्वा प्रेषितानि । तानि वसन्तमालया पुनः प्रेषितानि । तदनु पुत्र्यै प्रतिपादितम् --- इमं गतद्रव्यं त्यक्त्वान्यत्र सधने रतिं कुरु । एवमेव ननु वेश्याशास्त्रम् । उक्तं च
धनमनुभवन्ति वेश्या न पुनः पुरुषं कदापि धनहीनम् ।।
धनहीनकामदेवेऽपि प्रीतिं बध्नन्ति नो वेश्याः ॥१॥ इति ।। तयोक्तमिह जन्मन्ययमेव भर्ता, अन्ये जातानुजाता” इति । मातुश्चित्तं परिशाय सा तं कदाचिदपि न त्यजति । कुट्टिन्यैकदा दत्तनिद्रावर्धनद्रव्यान्विताहारं भुक्त्वा सुप्तौ दम्पती। तत्र चारुदत्तो निरलंकारो निर्वस्त्रं कृत्वार्धरात्रौ कम्बलेन बन्धयित्वा पुरीषगर्तायां निक्षेपितः । तत्र गूथभक्षकसूकरस्पर्श सति वसन्ततिलके अपसरेति वदन् तलवरैः दृष्टः । कस्त्वमिति उत्थापितस्तैः परिज्ञाय निन्दितः। अनन्तरं स्वावासं गतः। दौवारिकैनिर्धाटितः सन् वदति किमिदं मम गृहं न भवति । तैरुक्तं ग्रहणं निक्षिप्तम् । तर्हि मम माता ल ली। तत्पश्चात् दूसरे छह वर्षोंमें उसके यहाँ चारुदत्तके घरसे सोलह करोड़ प्रमाण द्रव्य और भी पहुँच गया। तब बारह हजार सुवर्णमुद्राओंमें अपने निवासगृहको गहना रखना पड़ा । जब यह भी द्रव्य वसन्तमालाके घरमें पहुँच गया तब चारुदत्तकी माताने पुत्रवधूके रखे हुए आभरणोंको लेकर वसन्तमालाके यहाँ भेजा। उन्हें वसन्तमालाने फिरसे भेज दिया- वापिस कर दिया। तत्पश्चात् उसने पुत्रीसे कहा कि अब चारुदत्तका धन समाप्त हो चुका है, अतः इसको छोड़कर तू किसी दूसरे धनी पुरुषसे अनुराग कर । कारण कि वेश्याका सिद्धान्त इसी प्रकारका है । कहा भी है
__ वेश्यायें धनका अनुभव किया करती हैं, वे धनसे हीन पुरुषका उपभोग कभी भी नहीं करती हैं । धनसे रहित हुआ पुरुष साक्षात् कामदेवके समान भी क्यों न हो, परन्तु उसके विषयमें वेश्यायें अनुराग नहीं किया करती हैं ॥१॥ ___ माताके इन वाक्योंको सुनकर उसने कहा कि इस जन्ममें मेरा यही पति है, अन्य सब पुरुष मेरे लिये पुत्र व छोटे भाइयोंके समान हैं। अब वह माताके दुष्ट अभिप्रायको जानकर चारुदत्तको कभी भी नहीं छोड़ती थी। एक दिन वसन्तमाला वेश्याने उन दोनोंके लिये नींदको बढ़ानेवाली औषधसे संयुक्त भोजन दिया । उसे खाकर वे दोनों सो गए। तब वसन्तमालाने आधी रातमें चारुदत्तको वस्त्राभूषणोंसे रहित करके कम्बलमें लपेटा और पाखानेमें फिकवा दिया । वहाँ विष्ठाभक्षी शूकरका स्पर्श होनेपर चारुदत्त बोला कि हे वसन्ततिलके ! दूर हो, [ मुझे अभी नींद आ रही है । इस प्रकार बड़बड़ाते हुए देखकर कोतवालोंने 'तुम कौन हो' यह पूछते हुए उसे पाखानेसे बाहिर निकाला । पश्चात् उन लोगोंने उसकी इस परिस्थितिको जानकर बहुत निन्दा की । तब चारुदत्त अपने घरको गया। जब उसे द्वारपालोंने उस घरसे निकल जानेको कहा तब वह बोला कि क्या यह मेरा घर नहीं है ? उत्तरमें उन लोगोंने कहा कि यह घर गहने
१. फ षड्वर्षे । २. प श आभरणानि निक्षिप्तानि तानि ब आभरणानि गृहीत्वा प्रेषितानि तानि । ३.१ वसन्तमालाया फ वसन्तमालायाः। ४. फ सधनेन । ५. फ एवं ननु । ६. फ 'धनहीन' नास्ति । ७. फ कामदेवोऽपि । ८. प श बध्नाति नो वेश्या । ९. फ इत्यादि ब इति निशम्य । १०. फ जातानुजा । ११.फ
कट्रिन्येकदा दत्ता । १२.फ निर्वसुश्च कृत्वार्द्धरात्रे ब निर्वस्त्रश्च कृत्वार्द्धरात्री। १३. फ निक्षिपितः ।
.
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-५, १३ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५
६६
१०
वास्ते । तैर्निरूपिते तत्र गतः । तदवस्थां दृष्ट्वा मातृ-भार्ये दुःखिते बभूवतुः । कृतस्नानो मातुलेन भणितो 'मदीयं द्रव्यं षोडशकोटिस्तिष्ठति तद् गृहीत्वा व्यवहर । तेनाभाणि । देशान्तरे व्यवहारप्रवृत्तिरिति निर्गतः, मोहात् सिद्धार्थोऽपि । गच्छन्तावलकादेशे' सीमावतीनदीतट्यां मूलिकां गृहीत्वा स्वयमेव मस्तकेन पलाशपुरे वृषभध्वजस्य गृहकोणे स्थित्वा विक्रीय उत्पन्नद्रव्येण कर्पासं संगृह्य बलीवर्दान् पूरयित्वा कंजकनामनायकेन सह गच्छतः । किरातैर्बलीवर्दा गृहीताः कर्णासश्च दग्धः । मलयगिरौ रत्नान्युपायगमनसमये भिल्लैर्गृहीतानि । अनु प्रियङ्गुत्रे लापत्तनं गतौ भानोर्मित्रेण सुरेन्द्रदत्तेन द्रोपान्तरं नीतौ । द्वादशाब्दैर्बहुद्रव्येणागमने स्फुटितं जलयानपात्रम् । प्रमादफलकेन निर्गतौ चारुदत्तसिद्धार्थो । चारुदत्तस्य शुद्धिमजानन् सिद्धार्थः स्वपुरं गतः । चारुदत्त उदुम्बरावतीग्रामे सिद्धार्थशुद्धि प्राप्तः । अनन्तरं सिन्धुदेशे संवरिग्रामे पितुरष्टादशकोटिद्रव्यं स्थितम् । तद् गृहीत्वा जीर्णोद्धारपूजाद्यर्थं दत्तम् । गुणाकर्ण्य परीक्षणार्थं वीरप्रभयक्षो मनुष्यवेषेण वसतौ क[क्व] णन् स्थितः । देवं द्रष्टुमागतचारुदत्तेन' भणितं किमर्थं क[क्व]णसि । रखा हुआ है। तब उसने पूछा कि तो मेरी माता कहाँपर रहती है ? इस प्रकार उनसे माता के स्थानको ज्ञातकर वह वहाँ गया । उसकी इस दयनीय अवस्थाको देखकर माता और पत्नीको बहुत दुःख हुआ । तत्पश्चात् स्नान आदि कर लेनेपर चारुदत्त के मामाने उससे कहा कि मेरे पास सोलह करोड़ प्रमाण द्रव्य है, उसको लेकर तू व्यवहार कर । इसके उत्तर में वह 'मैं देशान्तर में जाकर व्यवसाय करूँगा' यह कहते हुए देशान्तरको चला गया। तब मोहवश सिद्धार्थ भी उसके साथ गया । इस प्रकार जाते हुए उन दोनोंने अलका देशस्थ सीमावती नदी के किनारे से लकड़ियोंके गट्टोंको लिया और उन्हें स्वयं ही शिरके ऊपर रखकर पलाशपुरमें पहुँचे। उन्होंने वहाँ वृषभध्वज सेठके घरके एक कोने में स्थित होकर उनको बेच दिया । इससे जो द्रव्य मिला उससे उन्होंने कपासका संग्रह किया । फिर वे उसे बैलोंके ऊपर रखकर कंजक नामक नायकके साथ आगे गये । मार्गमें भीलोंने उनके बैलोंको छीनकर कपासको जला दिया । पश्चात् उन दोनोंने मलय पर्वत के ऊपर पहुँचकर रत्नोंको प्राप्त किया । आते समय भीलोंने उनके इन रत्नों को भी छीन लिया । फिर वे प्रियंगुवेला पत्तनको गये । वहाँ से उन्हें भानु ( चारुदत्तका पिता ) का मित्र सुरेन्द्रदत्त द्वीपान्तर में ले गया । वहाँ से बारह वर्षोंमें जब वे बहुत-से धनके साथ वापिस आ रहे थे तब मार्ग में उनका जहाज नष्ट हो गया । तब चारुदत्त और सिद्धार्थ दोनों लकड़ीके पटियेका सहारा लेकर समुद्र बाहिर निकले । तत्पश्चात् सिद्धार्थको चारुदत्तका पता न लगनेसे वह अपने नगरको वापिस चला गया। इधर जब चारुदत्त उदुम्बरावती गाँवमें पहुँचा तब उसे सिद्धार्थका वृत्तान्त मालूम हुआ ।
1
पश्चात् चारुदत्त सिन्धु देशके अन्तर्गत संवरिग्राममें गया । वहाँ उसके पिताका जो अठारह करोड़ प्रमाण द्रव्य स्थित था उसे लेकर उसने जीर्णोद्धार और पूजा आदिके निमित्त अर्पित कर दिया । उसके दानगुणको सुनकर वीरप्रभ यक्ष परीक्षा करनेके लिये मनुष्यके वेषमें आया और करुणाक्रन्दन करते हुए जिनालय में स्थित हो गया। उस समय चारुदत्त वहाँ देवदर्शन के लिये
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श कोटितिष्ठति । २. फ व्यवहरः । ३. श तेन । ४. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पश • वलोकदेशे, फव्वालोकदेशे, शब्वलोकादेशे । ५. प श तद्या मूलिकां फ तटया मूलिकां । ऽयम् । पफश गृह्य । ७. पश दग्धा । ८. प श मलया गिरो । ९. ब० न्युपाय गमन । ११. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श०मागतः चारुदत्तेन ।
६. ब- प्रतिपाठो१०. प कर्णन् ।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
७०
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[२-५ १३:
सोऽवदत्-शूलव्यथा महती वर्तते । मनुष्याणां पार्श्वखण्डेन सेकः कर्तव्यः । तच्च दुष्प्रापम् । त्वं महात्यागी प्रयच्छेत्युक्ते छुरिकया प्रलूय दत्ते साश्चर्य यक्षेण पूजितः निव्रणश्च कृतः। ततः स परिभ्रमन् राजगृहं गतः। तत्र विष्णुदत्तएकदण्डिना भणितम्- अत्र कियदन्तरे रसकूपस्तिष्ठति, तस्माद्रस आकृष्टश्चेद् बहुद्रव्यं भवति। तेनाभाणि 'आकृप्यत एव प्रदर्शय'। ततस्तपस्विना तत्तटे काष्टशूल प्राताडितः। तत्र वरत्रां बद्ध्वा चारुदत्तो वन्धयित्वा हस्ते तुम्बकं दत्त्वा उत्तारितश्चारुदत्तो रसतुम्बकं वरत्रायां बन्धयन् केनचिदुक्तः-निकृष्टस्तपस्वी, अहमनेन निक्षिप्तः त्वमपीति । चारुदत्तेनोक्तम् 'कस्त्वम्' । उज्जयिन्या वणिक्पुत्रोऽहं गतद्रव्यः अनेन रसं गृहीत्वा निक्षिप्तः रसेनार्धदग्धदेहः कण्ठगतप्राणस्तिष्ठामि । चारुदत्तेन रसतुम्बकं बन्धयित्वा द्वितीयवारे दृषद् बद्धः । तेन कियदन्तरे वरत्राकृष्य छेदिता । चारुदत्तेन स वणिक् पृष्टः 'अस्ति मम कोऽपि निःसरणोपायः' । स कथितवान्- अत्रैका गोधा रस पातुमागच्छति, तत्पुच्छं धृत्वा निर्गच्छेति । श्रुत्वा चारुदत्तो हृष्टः तस्मै पञ्चनमस्कारान् दत्त्वा तथैव तत्पुच्छं धृत्वा यावद् गच्छति तावदने मार्गः संकीर्णोऽभूत् । तदनु गोधां मुक्त्वान्तराले
आया था । उसने उससे पूछा कि तुम क्यों रो रहे हो ? उसने उत्तर दिया कि मुझे शूलकी पीड़ा बहुत हो रही है। उसे दूर करनेके लिये मनुष्यके पार्श्वभागसे सेक करना पड़ता है। परन्तु वह दुर्लभ है । तुम महादानी हो, मेरे लिये उसका दान करो । यह कहनेपर चारुदत्तने छुरीसे काटकर अपना पार्श्वभाग उसे दे दिया । यह देखकर यक्षको बहुत आश्चर्य हुआ। उसने चारुदत्तकी पूजा करके उसके घावको भी ठीक कर दिया। तत्पश्चात् चारुदत्त घूमता हुआ राजगृह नगरमें पहुँचा । वहाँ विष्णुदत्त नामके किसी एकदण्डी तपस्वीने उससे कहा कि यहाँसे कुछ दूर एक रसका कुआँ है । उसमेंसे यदि रसको निकाला जाय तो बहुत-सा द्रव्य प्राप्त हो सकता है। तब चारुदत्तने उससे कहा कि रसको खींचकर दिखलाओ। इसपर तपस्वीने उसके किनारेपर काष्ठशूल ( मचान ) को आहत किया । फिर उसको रस्सीसे बाँधकर और उसपर चारुदत्तको बैठाकर उसके हाथमें खूबड़ीको देते हुए उसे रसकूपके भीतर नीचे उतारा । चारुदत्त जब उस रसलॅबड़ीको रस्सीमें बाँध रहा था तब किसी अज्ञात मनुप्यने उससे कहा कि वह तपस्वी निकृष्ट है, इसने मुझे यहाँ फेक दिया और तुम्हें भी फेंक दिया। चारुदत्तने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? उत्तरमें उसने कहा कि मैं उज्जयिनीका एक निर्धन वैश्यपुत्र हूँ। इस तपस्वीने रसको लेकर मुझे यहाँ पटक दिया । रससे मेरा शरीर अधजला हो गया है। अब मैं मरना ही चाहता हूँ। यह सुनकर चारुदत्तने पहिले रसतूंचीको रस्सीमें बाँधा और तत्पश्चात् दूसरी बार उसमें पत्थरको बाँधा । तब तपस्वीने कुछ दूर उस रस्सीको खींचकर बीच में ही काट डाला। फिर चारुदत्तने उस वैश्यसे पूछा कि इसमेंसे मेरे बाहिर निकलनेका कोई उपाय है क्या ? तब वैश्यने बतलाया कि यहाँ एक गोह रस पीने के लिये आती है, तुम उसकी पूँछको पकड़कर निकल जाना। यह सुनकर चारुदत्तको बहुत हर्ष हुआ। उसने उस मरणोन्मुख वैश्यको पंचनमस्कारमंत्र दिया । तत्पश्चात् वह उस गोहकी पूँछको पकड़कर बाहिर आ रहा था, परन्तु आगे चलकर मार्ग संकुचित हो गया था। तब वह गोहकी पूँछको
१. फ ब विष्णुमित्र । २. फ केधिन आह धूर्तदुष्टस्तपस्वी, ब केनचिदुक्तं निकृष्टस्तपस्वी । ३. तेनोक्तं ४.फ गोधरसं।
-
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
:२–५, १३ ]
२. पश्वनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५
७१
एकत्वादि भावयन् स्थितः । तावत्तत्राजाश्चरन्त्यः स्थिताः । तत्रैकाजायाः पादस्तत्र प्रविष्टः । स तेन घृतः । अजाकोलाहलमाकर्ण्य तद्रक्षकैः खन्यमाने शनैः खनन्त्वित्युक्तम् । तदनु साश्वर्यैः खनित्वा आकृष्टः । ततो गच्छन्नरण्येऽजगरमुल्लङ्घ्य गतः । अरण्ये महिषौ मारयितुमागतौ । तदा तरुमारूढः । ततो गच्छन्नदीतट्याङ्गविषयादागतरुद्रदत्त-हरिशिखादीनां * मिलितः ।
ततः सप्तापि श्रीपुरं गताः । प्रियदत्तेन मज्जनादिना प्रीणिताः पाथेयं च दत्तम् । तद्द्द्रव्येण काचवलयान् गृहीत्वा गान्धारविषये विक्रीताः । केनचिद्रुद्रदत्तायोपदेशो दत्तःछागनारुह्याजापथेन गत्वाग्रेतन पर्वतमस्तके चर्मभस्त्रिकान्तः प्रविश्य तन्मुखे स्यूते भेरुण्डा मांस्तूप इति मत्वा रत्नद्वीपं नयन्ति भक्षणार्थम्, यदा भूमौ स्थापयन्ति तदा छुरिकया तां विदार्य तत्र रत्नानि ग्राह्माणीति । ततोऽजान् गृहीत्वा अजपथमागताः । तत्र चारुदत्तेनावादि यूयं तिष्ठताहं मार्गमवलोक्यागच्छामि । चतुरङ्गुलरुन्द्रोभयपार्श्वे रसातलावधित्रुटितपर्वतमार्गेण गत्वा यावदागच्छति तावत्तस्य किमिति बृहद्वेला लग्नेति रुद्रदत्तादयोऽपि तन्मार्गेण गच्छन्तोऽन्तराले मिलिताः । चारुदत्तेन भणितमन्यायः कृतः । इदानीं मया
।
छोड़कर एकत्वादि भावनाओंका चिन्तन करता हुआ मध्यमें ही स्थित रह गया । उस समय वहाँ कुछ बकरियाँ चर रही थीं। उनमें से एक बकरीका पैर उस बिलके भीतर घुस गया । चारुदत्तने उसे पकड़ लिया । तब बकरीके कोलाहलको सुनकर उसके रक्षक आये और वहाँकी जमीन खोदने लगे । इस समय चारुदत्त ने उनसे धीरेसे खोदने के लिए कहा। इसे सुनकर उन लोगों को आश्चर्य हुआ । तब उन्होंने धीरेसे खोदकर चारुदत्तको बाहिर निकाला तत्पश्चात् वनके भीतर से जाता हुआ वह चारुदत्त एक अजगरको लाँघकर चला गया। इसी बीच में दो जंगली भैंसा उसको मारने के लिये आये । तब वह एक वृक्षके ऊपर चढ़ गया। फिर उसपर से उतरकर वह नदीके किनारेसे आगे जा रहा था कि उसे अंगदेशसे आये हुए चाचा रुद्रदत्त और हरिशिख आदि मित्र मिल गये । वहाँ से वे सातों श्रीपुरमें गये। वहाँ प्रियदत्तने उन्हें स्नानादिके द्वारा प्रसन्न करके मार्ग के लिए पाथेय (नाश्ता) भी दिया। उन लोगोंने उसके द्रव्यसे कांचकी चूड़ियोंको लेकर उन्हें गान्धार देश में बेच दिया । वहाँपर किसीने रुद्रदत्तको यह उपदेश दिया -- तुम लोग बकरोंपर सवार होकर अजामार्गसे ( बकरेके जाने योग्य संकुचित मार्गसे) आगे के पर्वतशिखरपर जाओ । वहाँ पर चमड़े की मसकें बनाकर उनके भीतर स्थित होते हुए मुँहको सी देना । उनको भेरुण्ड पक्षी मांसके ढेर समझकर खानेके लिए रत्नद्वीप में ले जायेंगे । वे जैसे ही उन्हें भूमिके ऊपर रक्खें वैसे ही छुरीसे काटकर तुम सब उनके भीतरसे बाहिर निकल आना । इस प्रकार से रत्नद्वीपमें पहुँच करके तुम सब वहाँसे रत्नोंको प्राप्त कर सकोगे । इस उपदेश के अनुसार वे बकरों को ले करके अजामार्गमें आ पहुँचे । वहाँ चारुदत्तने रुद्रदत्त आदि से कहा कि आप लोग यहीं पर बैठें, मैं आगे के मार्गको देखकर वापिस आता हूँ। यह कहकर चारुदत्त चार अंगुलमात्र विस्तृत एवं दोनों पार्श्वभागों में पाताल तक टूटे हुए मार्गसे जाकर वापिस आ ही रहा था कि रुद्रदत्तादि भी 'चारुदत्त को इतनी देर क्यों हुई' यह सोचकर उसी मार्गसे आगे चल दिये, उनका मिलाप चारुदत्तसे मार्गके मध्य में हुआ । तब चारुदत्तने कहा कि आप लोगोंने यह योग्य नहीं किया है,
१. फ० मुल्लंघ्यतः ततोऽरण्य । २ प महियो । ४. फ विषयादागतः । ४ प श हरिसिपादीनां । ५. प मिलत: । ६. ब मांसश्रूपाश मांससूपा । ७. श रुद्रो० ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[२-५, १३ : व्याघुटयते चेन्मम पतनं 'युष्माभिश्चेद् युष्माकम् , किं क्रियते ।ऊचुस्ते वयं विगतपुण्या मृताश्चेत् किम्, त्वं चिरजीवी भवेति । स बभाण- अहमेको मृतश्चेत् किम् , यूयं गच्छतेति पदाङ्गुलीभूमौ प्रस्थाप्य शक्तिं कृत्वा छागोऽवाङ्मुखः कृतः । तं चटित्वा भूधरमारुह्य छागान् बन्धयित्वा तरुतले चारुदत्तः सुप्त्वा यावदुत्तिष्ठति तावद्वद्रदत्तेन षट छागा मारिताः । चारुदत्तस्य छागं मारयन् रुद्रदत्तः चारुदत्तेन निन्दितः । तस्मै पञ्चनमस्कारा दत्ताः ।
सर्वे भस्त्रिकाप्रवेशं कृत्वा यावत्तिष्ठन्ति तावद् भेरुण्डास्तान् गृहीत्वा गताः । चारुदत्तं गृहीत्वा गतभेरुण्ड एकाक्षः अन्यैः कदर्थितः समुद्रमध्ये भस्त्रिका निक्षिप्य तान् भेरुण्डान् पलाययित्वा पुनर्गृहीतवान् । एवं चतुर्थे वारे रत्नद्वीपस्थरत्नपर्वतचूलिकायां व्यवस्थाप्य भतयितमद्यमं यावत्करोति तावन्निर्गतश्चारुदत्तः। अन्ये अन्यत्र नीताः। चारुदत्तेन भ्रमता गुहास्थो मुनिरालोक्य वन्दितः। धर्मवृद्धयनन्तरं मुनिरुवाच-कुशलोऽसिं चारुदत्त । तदा तेन साश्चर्येण भणितम्-क्व भगवता दृष्टोऽहम् । सोऽहममितगतिवियच्चरो भायों मोचयित्वा बहुकालं राज्यानन्तरं दोक्षितवान् इति स्वरूपं निवेदितं तेन । अत्रान्तरे इस समय यदि मैं वापिस होता हूँ तो मेरा पतन निश्चित है और यदि आप लोग वापिस होते हैं तो आपका पतन निश्चित है। अब क्या किया जाय ? तब उन लोगोंने चारुदत्तसे कहा कि हम लोग पुण्यहीन हैं, अत एव यदि हम मर जाते हैं तो हानि नहीं है। किन्तु तुम पुण्यात्मा हो । अतः तुम चिरजीवी होओ। यह सुनकर चारुदत्त बोला कि मेरे एकके मरनेसे कितनी हानि हो सकती है ? कुछ भी नहीं । अत एव आप लोग आगे जावं । यह कहकर चारुदत्तने पाँवकी अँगुलियोंको भूमिमें स्थिर स्थापित करके बलपूर्वक अपने बकरेको लौटाया । फिर उसके ऊपर चढ़कर वह पर्वतके ऊपर पहुँच गया। पश्चात् रुद्रदत्त आदि भी उस पर्वतके ऊपर पहुँच गये । उन सबने बकरोंको वहींपर बाँध दिया। उस समय चारुदत्त वहाँ एक वृक्ष के नीचे सो गया। इस बीच में रुद्रदत्तने छह बकरोंको मार डाला। तत्पश्चात् वह चारुदत्तके बकरेको मार ही रहा था कि इतनेमें चारुदत्त जाग उठा । उसने इस दृश्यको देखकर रुद्रदत्तकी बहुत निन्दा की। पश्चात् उसने उसे पंचनमस्कारमन्त्र दिया।
फिर वे सब मसकोंके भीतर प्रविष्ट होकर स्थित हो गये। इतनेमें भेरुण्ड पक्षी आये और उन मसकोंको लेकर उड़ गये। चारुदत्तको लेकर जो भेरुण्ड पक्षी उड़ा था वह एकाक्ष ( काना ) था । अन्य पक्षियोंके द्वारा पीड़ा पहुँचानेपर उसकी चोंचसे चारुदत्तकी भस्त्रा समुद्र में जा गिरी। तब उसने अन्य पक्षियोंको भगाकर उसको फिरसे उठा लिया। इस क्रमसे वह चौथी वारमें उसे लेकर रत्नद्वीपके भीतर स्थित रत्नपर्वतके शिखरपर पहुँच गया। जैसे ही वह उसे वहाँ रखकर खानेके लिए उद्यत हुआ वैसे ही चारुदत्त उसे फाड़कर बाहिर निकल आया। अन्य पक्षी उन भस्त्राओंको दूसरे स्थानमें ले गये । चारुदत्तने घूमते हुए एक गुफामें विराजमान मुनिराजको देखकर उनकी बंदना की। धर्मवृद्धि देनेके पश्चात् मुनिराज बोले कि हे चारुदत्त, कुशल तो है। इससे चारुदत्तको आश्चर्य हुआ। उसने मुनिराजसे पूछा कि भगवन् ! आपने मुझे कहाँ देखा है ? उत्तरमें मुनिराज बोले कि मैं वही अमितगति विद्याधर हूँ जिसको तुमने छुड़ाया था। उस समय मैंने धूमसिंहसे अपनी पत्नीको छुड़ाकर बहुत समय तक राज्य किया।
१. ब श पत्तनं । २. फ ब गच्छंत्विति । ३. प ब श पदांगुली भूमौ । ४. फ चटित्वा भूधरमारुह्यागताः । छागान् । ब चटित्वा गत्वा भूधरमारुह्य छागं । ५. ब कुशल्यसि ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
२-५, १३]
२. एचनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५ तत्पुत्रौ सिंहग्रीव-वराहग्रोवौ सविमानौ तं वन्दितुमागतौ । वन्दित्वोपवेशने क्रियमाणे यतिनोक्तं चारुदत्तस्य इच्छाकारं कुरुतमिति । कृते तस्मिन् कोऽयमिति पृष्ट कथितस्वरूपो मुनिः।
अस्मिन् प्रस्तावे द्वो कल्पवासिनौ चारुदत्तं प्रणतावनन्तरं मुनिम् । सिंहग्रीवेण गृहस्थस्य प्रथमं नमस्कारकरणं' किमिति पृष्टे तत्र छागचरदेव आह-वाराणस्यां विप्रसोमशर्मसोमिलयोरपत्ये भद्रा सुलसा च शास्त्रमदगर्विते कुमावेव परिव्राजके बभूवतुः । तत्प्रसिद्धिमाकण्य याज्ञवल्क्यनामा भौतिको वादार्थो वाराणसी गतः । वादे जितया सुलसया सह सुखेन स्थितः । पुत्रप्रसूत्यनन्तरमेव पिप्पलतरोरधो निक्षिप्य गतौ मातापितरौ। भद्रया स बालः पिप्पलादनामा वर्धितः पाठितश्च । तेनैकदा भद्रा
। किमिति ममेदं नामेति । तया स्वरूपे निरूपिते स तत्र गत्वा पितरं वादे जित्वा स्वरूपं निरूपितवान् । तदाहं पिप्पलादशिष्यो वाग्वलिः नाम गुरूक्तशास्त्रेसमर्थनार्थ वादे रौद्रध्याने सति नरकं गतः। ततोऽजो जातः षड्वारान् यज्ञ एव हुतः। सप्तमे वारे टक्कदेशेऽजो जातश्चारुदत्त दत्त पञ्चनमस्कारफलेनाहं सौधर्मे जातः । इतरोऽप्यतत्पश्चात् जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। इस प्रकारसे मुनिराजने चारुदत्तको अपना पूर्व वृत्तान्त सुनाया । इस बीचमें वहाँ उनके सिंहग्रीव और वराहग्रीव नामके दो पुत्र विमानसे मुनिराजकी वंदना करनेके लिए आये। वंदना करनेके पश्चात् वे बैठ ही रहे थे कि मुनिराजने उनसे चारुदत्तको इच्छाकार करने के लिए कहा । तब इच्छाकार करनेके पश्चात् उन्होंने मुनिराजसे पूछा कि ये कौन हैं ? इसपर मुनिराजने पूर्व वृत्तान्तको सुनाकर चारुदत्तका परिचय कराया।
इस प्रस्तावमें दो स्वर्गवासी देवोंने आकर पहिले चारुदत्तको और तत्पश्चात् मुनिराजको नमस्कार किया। इस विपरीत क्रमको देखकर सिंहग्रीवने उनसे मुनिके पूर्व गृहस्थको नमस्कार करनेका कारण पूछा । उत्तरमें भूतपूर्व बकरेका जीव, जो देव हुआ था, इस प्रकारसे बोलावाराणसी नगरीमें ब्राह्मण सोमशर्मा और सोमिलाके भद्रा और सुलसा नामकी दो कन्यायें थीं। उन्हें अपने शास्त्रज्ञानका बहुत अभिमान था। उन दोनोंने कुमार अवस्थामें ही संन्यास ले लिया था। उनकी कीर्तिको सुनकर याज्ञवल्क्य नामका तापस उनसे विवाद करनेकी इच्छासे वाराणसी पहुँचा। उसने शास्त्रार्थमें सुलसाको जीत लिया। तब वह उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ समय के पश्चात् जब उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ तब वे दोनों उसे पीपलके वृक्षके नीचे रखकर चले गये । तब भद्राने उस पुत्रको पिप्पलाद नाम रखकर वृद्धिंगत किया और पढ़ाया भी। एक दिन बालकने भद्रासे अपने पिप्पलाद नामके सम्बन्धमें पूछा। तब भद्राने उसे पूर्व वृत्तान्त सुना दिया । उसे सुनकर वह वहाँ गया। उसने अपने पिताको वादमें जीतकर उससे अपना वृत्तान्त कह सुनाया। उस समय मैं उस पिप्पलादका वाम्बली नामका शिप्य था। मैं शास्त्रार्थमें गुरुके कहे हुए शास्त्रोंका समर्थन किया करता था। इस प्रकार रौद्रध्यानसे मरकर मैं नरकमें पहुँचा । फिर वहाँसे निकलकर मैं छह बार बकरा हुआ और यज्ञमें ही मारा गया । सातवीं बार मैं टक्क देशमें बकरा हुआ और चारुदत्तके द्वारा दिये गये पञ्चनमस्कारमन्त्रके प्रभावसे फिर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ हूँ।
१. प श कारणं । २. ब वाढलि: गुरुकुशास्त्र । Jain Education Interional
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यावकथाकोशम्
[ २-५, १३ :
भाणीद्र सकूपमध्यवर्तिने मह्यं दत्तपश्चनमस्कारफलेनाहमपि तत्रैव जातः इत्युभयोरप्ययमेव गुरुः । कृतोपकार स्मरणार्थ प्रथमतोऽस्य नमस्कार इति । तथा चोक्तम्
or
अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्धस्य पदस्य वा । दातारं विस्मरन् पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम् ॥२॥ इति
ततश्चारुदत्तादेशेन देवाभ्यां रुद्रदत्तादय आनीतास्ततो देवाभ्यां भणितं यावदिष्टं तावद् द्रव्यं दास्यावः । यामश्वम्पाम् । तौ निवार्य सिंहग्रीवेण स्वपुरं नीतः, तत्रानेकविद्याः साधितवान् । द्वात्रिंशद्वियच्चरकन्याः परिणीताः । ततः सिंहग्रीवेणोक्तं मत्पुत्री गन्धर्वसेना 'यो वीणावाद्येन मां जयति स भर्ता' इति कृतप्रतिज्ञा, स्वपुरं नीत्वा वीणाप्रवीणाय भूपाय प्रयच्छेति समर्पिता । ततश्चारुदत्तोऽनूनद्रव्येणं सिंहग्रीवादिखगैः स्ववनिताभी रुद्रदत्तादिभिश्च स्वपुरमागतः । स्वावासो मोचितः । वसन्ततिलका 'चारुदत्तस्य गतिर्मे गतिः' इति प्रतिज्ञया स्थिता' | सापि प्रिया बभूव इति । चारुदत्तो बहुकालं सुखमनुभूय केनचि
दूसरा देव भी बोला कि मैं रसकूपके मध्य में पड़कर जब मरणासन्न था तब चारुदत्तने मुझे पञ्चमस्कार मन्त्र दिया था । उसके प्रभावसे मैं भी उसी सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ हूँ । इस प्रकार से हम दोनोंका ही यह गुरु है । इसीलिए हम दोनोंने इसके द्वारा किये गये उस महान् उपकारके स्मरणार्थ पहिले उसे नमस्कार किया है । कहा भी है
जो जीव एक अक्षर, आधे पद अथवा पूरे एक पदके प्रदान करनेवाले. गुरुको भूल जाता है— उसके उपकारको नहीं मानता है— पह पापी है। फिर भला ज े धर्मोपदेशक गुरुको भूलता है उसके विषयमें क्या कहा जाय ? वह तो अतिशय पापी होगा ही ॥२॥
तत्पश्चात् वे दोनों देव चारुदत्तकी आज्ञासे रुद्रदत्त आदिको ले आये । फिर उन दोनोंने कहा कि जितना द्रव्य आपको अभीष्ट हो उतना द्रव्य हम देवेंगे । चलिये हमलोग चम्पापुर चलें | तब सिंहग्रीव उन दोनों देवोंको रोककर चारुदत्तको अपने पुरमें ले गया । वहाँ उसने अनेक विद्याओंको सिद्ध करके बत्तीस विद्याधर कन्याओंके साथ विवाह किया। तत्पश्चात् सिंहग्रीने चारुदत्तसे कहा कि मेरे गन्धर्वसेना नामकी एक पुत्री है। उसने यह प्रतिज्ञा की है कि जो पुरुष मुझे बीणा बजानेमें जीत लेगा वह मेरा पति होगा । अत एव आप इसे अपने नगरमें ले जाकर जो राजा बीणावादनमें प्रवीण हो उसे दे दें। यह कहकर सिंहग्रीवने उसे चारुदत्त के लिए समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् चारुदत्त बहुत द्रव्यको लेकर सिंहग्रीवादि विद्याधरों, अपनी पत्नियों और रुद्रदत्तादिकोंके साथ अपने नगर में वापिस आया । तब उसने अपने निवासभवनको, जो कि गहने रखा हुआ था, छुड़ा लिया । वसन्तमाला वेश्याकी पुत्री वसन्ततिलका, जिसने यह प्रतिज्ञा ले रक्खी थी कि जो अवस्था चारुदत्तकी होगी वही अवस्था मेरी भी होगी, उसे भी चारुदत्तने अपनी पत्नी के रूपमें स्वीकार कर लिया। इस प्रकार चारुदत्त ने बहुत समय तक सुखका अनुभव किया । पश्चात् उसने किसी निमित्तको पाकर बहुतों के साथ जिन
१. फ पदार्थस्य ( ह० पु० २१, १२६ ) । २. ब देशनं । ३. ब 'इति' नास्ति । ४. श मत्पुरी ।
५. फ 'दत्तस्तेन द्रव्येण । ६. फश वनिताभि । ७. श प्रतिज्ञायास्थिता ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-६, १४ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ निमित्तेन बहुभिर्दीक्षितः संन्यासेन तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धिं जगामेति । एवं मिथ्यादृष्टिनरतिरश्चोऽपि पञ्चपदफलेन स्वर्गे भवन्ति चेत्सद्दृष्टः किं वक्तव्यम् ॥४-५॥
[१४] फणी सभार्यो भुवि दग्धविग्रहः प्रबोधितोऽभूद्धरणः सरामकः । स पञ्चभिः पार्श्वजिनेशिनां पदै
स्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥६॥ अस्थ कथा-वाराणस्यां राजाश्वसेनो देवी ब्रह्मदत्ता पुत्रस्तीर्थकरकुमारः पार्श्वनाथः। स एकदा हस्तिनमारुह्य पुरबाही यावत् परिभ्रमति तावदेकस्मिन् प्रदेशे पञ्चाग्नि साधयंस्तापसोऽस्थात् । तं विलोक्य कश्चिद् भृत्योऽवदद्देवायं विशिष्टं तपः करोतीति । कुमारोऽब्रवीत् , अज्ञानिनां तपः संसारस्यैव हेतुरिति श्रुत्वा भौतिको जन्मान्तरविरोधात् कोपाग्न्युद्दोपीकृतान्तरङ्गोऽभणत्-- हे कुमार, कथमहमक्षानीति । ततो हस्तिन उत्तीर्य कुमारस्तत्समीपे भूयोक्तवान् – यदि त्वं ज्ञानी तहस्मिन् दह्यमाने काष्ठे किमस्तीति कथय । सोऽत्रवोन्न किमप्यस्ति । तर्हि स्फोटय । ततोऽपिप्यस्फोटयत् । तदन्ते अर्धदग्धं कण्ठगतासुफणियुगमस्थात् । तस्मै पञ्चनमस्कारान् ददौ नाथस्तै त्फलेन तौ धरणेन्द्र पद्मावत्यौ जाते। दीक्षा ग्रहण कर ली । अन्तमें वह संन्यासपूर्वक शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार जब पंचनमस्कारमन्त्रके प्रभावसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यञ्च भी स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं तब भला सम्यग्दृष्टि मनुष्यके विषयमें क्या कहा जाय ? उसे तो स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त होगा ही ॥४॥
जिस सर्पका शरीर सर्पिणीके साथ अग्निमें जल चुका था वह पार्श्व जिनेन्द्रके द्वारा दिये गये पंचनमस्कार मन्त्रके पदोंके प्रभावसे प्रबोधको प्राप्त होकर उस सर्पिणी (पद्मावती) के साथ धरणेन्द्र हुआ। इसीलिए हम उन पंचनमस्कारमन्त्रके पदोंमें अधिष्ठित होते हैं ॥५॥
इसकी कथा- वाराणसी नगरीमें राजा अश्वसेन राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम ब्रह्मदत्ता था । इन दोनोंके पार्श्वनाथ नामक तीर्थंकर कुमार पुत्र उत्पन्न हुआ। वह किसी समय हाथीके ऊपर चढ़कर घूमनेके लिए नगरके बाहर गया था । वहाँ एक स्थानपर कोई तापस पंचाग्नि तप कर रहा था । उसको देखकर किसी सेवकने भगवान् पार्श्वनाथसे कहा कि हे देव ! यह तापस विशिष्ट तप कर रहा है । इसे सुनकर तीर्थंकर कुमारने कहा कि अज्ञानियोंका तप संसारका ही कारण होता है । कुमारके इस कथनको सुनकर जन्मान्तरके वैरसे तापसका हृदय क्रोधरूप अग्निसे उद्दीप्त हो उठा । वह बोला कि हे कुमार ! मैं अज्ञानी कैसे हूँ ? तब कुमारने हाथीके ऊपरसे उतरकर और उसके पास जाकर उससे फिरसे कहा कि यदि तुम ज्ञानवान् हो तो यह बतलाओ कि इस जलती हुई लकड़ीके भीतर क्या है । इसपर तापसने कहा कि इसके भीतर कुछ भी नहीं है । तब पार्श्व कुमारने उससे उस लकड़ीको फोड़नेके लिए कहा । तदनुसार तापसने उस लकड़ीको फोड़ भी डाला । उसके भीतर अधजला होकर मरणोन्मुख हुआ एक सर्पयुगल स्थित था। तब पार्श्व तीर्थंकर कुमारने उक्त युगलके लिए पंचनमस्कारपदोंको दिया। उसके प्रभावसे वे
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श स्वर्गो भवति । २. प-सदृष्टे फ सदृष्टिः । ३. ब किं पृष्टव्यं । ४. ५ जिनेशिता, फ ब जिनेशिना। ५. फ यदि ततो। ६. फ कोपान्योद्दीपीकृतांतरो। ७. फ सोऽब्रवीत् तत्किमपि नास्ति । कुमारोक्तः । तर्हि । ८. फ स्फुटयन् ब स्फुटन् । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शं गतायुर्फणियुग। १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श नागस्त। ११. ब जात्ये ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-६, १४ : स सकोपस्तथैव तपः कर्तुं लग्नः जन्मान्तरविरोधादित्युक्तम् । तयोः कथं विरोधः इति भव्यप्रश्ने यथास्मरणं ब्रवीमि । तथा हि-अस्मिन् भरते सुरम्यविषये पोदनपुरे राजारविन्दो देवी लक्ष्मीमती । तन्मन्त्री द्विजो विश्वभूतिः, भार्यानुन्धरी', पुत्री कमठ-मरुभूती। तत्र ज्येष्ठोऽमनोज्ञ इतरः प्रिय इति वसुंधरीनामकन्यया परिणायितवान् पिता। स एकदा स्वशिरसि पलितमालोक्य मरुभूतिं राज्ञः समर्प्य स्वपदे निधाय दीक्षितः। मरुभूतिभूपस्यातिप्रियोऽभूत् । एकदा राजा वज्रवीर्यमण्डलेश्वरस्योपरि गतः । इतः कमटो निरङ्कशो राजसिंहासने उपाविशत् । अहं राजेति अगम्यगमनादिकं कर्तुमारभत । पकदा स्वभ्रातुः प्रियां विलोक्य मदनेषुभिरतिपीडितो वने लतागृहेऽतिष्ठत् । तं कलहंसो नाम सखापृच्छत् किमिति तवेयमवस्थेति । कथिते स्वरूपे सखा वसुंधरीनिकटमियायावदच्च 'हे वसुंधरि, वने कमठस्य महदनिष्टं वर्तते' इति । अनिष्टस्वरूपमजानती तत्र ययौ । सोऽनेकवचनविज्ञानस्तामभ्यन्तरीकृत्य सिषेवे । इतः शत्रु निर्जित्यागतो राजा तत्कृतं सर्व बुबुधे, मरुभूतिरपि । नृपो मरुभूतिना मन्त्रमालोचितवान् 'कमठ एवंविधान्याये वर्तते, तस्य किं कर्तव्यम्' इति । स व्यामोहेनाब्रवीदेव', किमेवं करोति कमठो दुष्टवचनं मा ग्रहीः । दोनों धरणेन्द्र और पद्मावती हुए। फिर वह तापस जन्मान्तरके वैरसे क्रोधयुक्त होकर पुनः उसी प्रकारसे तप करने में लग गया, ऐसा कहा गया है ।
उन दोनोंमें विरोध कैसे हुआ, ऐसा भव्यके द्वारा पूछे जानेपर स्मरणके अनुसार कहता हूँ- इस भरत क्षेत्रके भीतर सुरम्य देशमें पोदनपुर नामका नगर है । वहाँ अरविन्द राजा राज्य करता था। इसकी पत्नीका नाम लक्ष्मीमती था । उक्त राजाका मंत्री विश्वभूति नामका एक ब्राह्मण था । इसकी पत्नीका नाम अनुन्धरी था । इनके कमठ और मरुभूति नामके दो पुत्र थे। इनमें बड़ा पुत्र अयोग्य तथा दूसरा योग्य था। छोटे पुत्रके योग्य होनेसे ही पिताने उसका विवाह वसुन्धरी नामकी एक कन्याके साथ करा दिया। विश्वभूतिने एक दिन अपने शिरके ऊपर श्वेत बालको देखा । इससे उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने मरुभूतिको राजाके लिए समर्पित करके उसे अपने पद ( मन्त्री) के ऊपर प्रतिष्ठित कराया और स्वयं जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। मरुभूति अपने सद्व्यवहारके कारण राजाका अतिशय प्रिय हो गया। एक समय राजाने वज्रवीर्य राजाके ऊपर चढ़ाई की। इधर कमठ निरंकुश होता हुआ राजसिंहासनके ऊपर बैठ गया । वह अपनेको राजा मानकर अयोग्य आचरण करने लगा। एक दिन वह अपने अनुजकी पत्नी वसुन्धरीको देखकर कामबाणसे पीड़ित होता हुआ वनमें लतागृहके भीतर स्थित हुआ। कमठका एक कलहंस नामका मित्र था। उसने उसकी इस दुरवस्थाको देखकर उसका कारण पूछा। तब कमठने उससे अपने मनकी बात कह दी । तब उसके मनोगत भावको जानकर कलहंस वसुन्धरीके पास गया और उससे बोला कि हे वसुन्धरी वनमें कमठका महान् अनिष्ट हो रहा है । यह सुनकर और अनिष्टके रहस्यको न जानकर वसुन्धरी वहाँ चली गई। तब कमठने उसे अपने वचनोंकी चतुराईसे भीतर बुलाकर उसके साथ विषयसेवन किया। इधर राजा अरविन्द वज्रवीर्यको जीतकर जव वापिस आया तब उसे कमठके उक्त असदाचरणका समाचार ज्ञात हुआ । साथ ही मरुभूतिको भी उसके उस निन्द्य आचरणका पता लग गया । तब राजाने मरुभूतिसे पूछा कि कमठ इस प्रकारके अन्यायमें प्रवृत्त हो रहा है, उसके सम्बन्धमें क्या किया जाय ? इसपर मरुभूतिने भ्रातृमोहके वशीभूत होकर उत्तर दिया कि हे देव ! कमठ क्या कभी ऐसा कर सकता
१. फ भार्यानुधंरी श भार्यानुधरी । २. श कन्याया। ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श राजासिंहासने । ४. ब उपविशत् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शतं कमळं कलहंसो। ६. फ व्यामोहेन व्यब्रवीत् । देव ।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-६, १४ ] २. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६
७७ राजावादीत्- सुनिश्चितदोषस्य तस्य शास्ति करिष्यामि, त्वं खेदं मा कुर्विति संबोध्य तं गृहं प्रेष्य तस्य दोषं निश्चित्य गर्दभारोहणादिकं विधाय कमठो निर्धाटितः। स च गत्वा भूताद्री तापसो भूत्वा शिलोद्धरणं तपः कर्तुं लग्नः । इतरस्तच्छास्तिविधानेऽतिदुःखी बभूव । मरुभूतिस्तच्छुद्धिमवाप्य राजानं विज्ञप्तवान्-देव, कमठः तपः कुर्वन्नास्ते. गत्वा विलोक्यागच्छामीति । नृपोऽपृच्छत् 'किंरूपं तपः स करोति'। सोऽवोवद्भौतिकरूपम् । तर्हि मागमः त्वमिति राज्ञा निषिद्धोऽप्येकाकी जगाम । तं विलोक्याभणत्-- हे तात, मया निषिद्धेनापि राज्ञा यद् विहितं तत्सर्व क्षन्तव्यमिति पादयोः पपात । तदा कमठस्त्वयैव सर्व विहितमिति भणित्वा शिलां तन्मस्तकस्योपरि निक्षिप्यामारयत्तम् । स मृत्वा कूर्चनामसलकीवने वज्रघोषनामा महान् हस्ती जातः। इतरस्तापसैनिर्धाटितः सन् भिल्लानां मिलित्वा चोरयन् ग्राम्यैर्हतः । तत्रैव वने कुक्कुटसोऽजनि । राजैकदाधिज्ञानिनं मुनि पप्रच्छ 'मन्त्री किमिति नागतः' इति । तेन स्वरूपं निरूपितं निशम्य पुरं प्रविश्य कियत्कालं राज्यानन्तरमभ्रं विलीनमभिवीक्ष्य दीक्षितः सकलागमधरो भूत्वा पूर्वोक्तकूर्चकवने वेगावतीहै ? दुष्टके वचनको ग्रहण न करें। यह सुनकर राजा बोला कि कमठका अपराध निश्चित है, मैं उसके लिए दण्ड दूंगा, इसके लिए तुम्हें खिन्न न होना चाहिए । इस प्रकारसे सम्बोधित करके राजाने मरुभूतिको घर भेज दिया और फिर कमठके अपराधको निश्चित करके उसे गर्दभारोहण आदि कराया तथा अपने राज्यसे निर्वासित कर दिया। तब कमठ भूताचल पर्वतके ऊपर-गया और वहाँ तापस होकर शिलोद्धरण ( शिलाको उठाकर ) तपके करने में प्रवृत्त हो गया। उस समय मरुभूति उसको दण्डित किये जानेके कारण अतिशय दुःखी हुआ। उसे जब कमठका समाचार मिला तब उसने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! कमठ तपश्चरण कर रहा है, मैं जाता हूँ और उससे मिलकर वापिस आता हूँ। तब राजाने उससे पूछा कि वह किस प्रकारका तप कर रहा है ? उत्तरमें मरुभूतिने कहा कि वह भौतिक रूप ( भूतिको लगाकर किया जानेवाला) तपको कर रहा है। तब तुम उसके पास मत जाओ, इस प्रकार राजाके रोकनेपर भी मरुभूति उसके पास अकेला चला गया। वहाँ कमठको देखकर मरुभूतिने कहा कि हे पूज्य ! मेरे रोकनेपर भी राजाने जो कुछ किया है उस सबके लिए क्षमा कीजिये । यह कहता हुआ वह उसके चरणों में गिर गया। फिर भी कमठने यह कहते हुए कि वह सब तूने ही किया है, उसके मस्तकपर शिलाको पटककर उसे मार डाला। वह इस प्रकारसे मरकर कूर्च नामक सल्लकीवनमें वज्रघोष नामका विशाल हाथी हुआ। उधर जब कमठने शिला पटककर अपने भाईको मार डाला तब दूसरे तापसोंने उसे आश्रमसे निकाल दिया। फिर वह भीलोंके साथ मिलकर चोरी करने लगा । तब ग्रामीण जनोंने उसे मार डाला। वह इस प्रकारसे मरकर उसी वनमें कुक्कुट सर्प हुआ। उधर मरुभूति जब वापिस नहीं आया तब राजा अरविन्दने किसी समय अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा कि मंत्री मरुभूति क्यों नहीं आया है । उत्तरमें मुनिराजने जो उसके मरनेका वृत्तान्त कहा उसे सुनकर राजा नगरमें वापिस आ गया। तत्पश्चात् उसने कुछ समय और भी राज्य किया । एक समय वह देखते-देखते ही नष्ट हुए मेधको देखकर दीक्षित हो गया। वह समस्त श्रुतका पारगामी हुआ। किसी समय वह पूर्वोक्त कूर्चक वनमें वेगावती नदीके किनारे एक
१.श त्वमति राजा । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श वज्रघोषो नाम। ३. फ बस। ४. बविलीनमवीक्ष्य ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-६, १४ : नदीतीरे शिलातले उपविष्टः । तन्नदीतीरे विमुच्य स्थितसुगुप्तगुप्तसार्थाधिपती धर्ममाकर्णयन्तावूषतुर्यदा तदा स हस्ती तच्छिबिरं विनाश्य भट्टारकस्याभिमुखोऽभूत् । तं विलोक्य जातिस्मरो भूत्वा तं ननाम । तेन दत्तसकलश्रावकवतानि प्रतिपालयन् कायक्लेशेन क्षीणशरीर उदकं पीत्वा गतेषु द्विपेषु विध्वंसितोदकपानार्थ वेगावतीं प्रविशन् कर्दमे पतितः। गृहीतसंन्यासो भावनया यदास्ते तावत्स कुक्कुटसर्पो विलोक्य तं चखाद । मृत्वा सहस्रारे स्वयंप्रभविमाने शशिप्रभनामा महर्द्धिको देवोऽभूत् । कुक्कुटसर्पः पारंपर्येण धूमप्रभां गतः।
स देवोऽवतीर्यात्रैव पुष्कलावतीविषये विजयाधं त्रिलोकोत्तमपुरेशविद्युन्मतिविद्युन्मालयोः सहस्ररश्मिनामा तनुजोऽजनि । कौमारे समाधिगुप्तमुनिसंनिधौ दीक्षित आगमधरो भूत्वा हिमवगिरौ ध्यानेनातिष्ठत् । स कुक्कुटसर्पचरो जीवो धूमप्रभाया निःसृत्य तत्र मिरावजगरोऽभूत्तेन गिलितो मुनिरंच्युते पुष्करविमाने विद्युत्प्रभनामा देव आसीत् । अजगरः परंपरया तमःप्रभा गतः। स देव आगत्य जम्बूद्वीपापरविदेहे पद्माविषये अश्वपुरेशवजचीर्यविजययोः वजनाभनामपत्रोऽभदाज्येऽस्थात्सकलचक्री च जातः, क्षेमंकरम दीक्षितः । तमःप्रभाया निःसृत्याजगरचरो जोवोऽटव्यां कुरङ्गनामा भिल्लो जातः । पापर्धयर्थ शिलाके ऊपर ध्यानस्थ बैठा था । उसी नदीके किनारेपर सुगुप्त और गुप्त नामके दो व्यापारियोंके स्वामी पड़ाव डालकर स्थित थे। वे दोनों जब मुनिराजके समीपमें धर्मश्रवण कर रहे थे तब वह हाथी उनके शिविरको नष्ट करके मुनीन्द्रके सन्मुख आया । उनको देखकर उसे जातिस्मरण हो गया । तब उसने उन्हें नमस्कार किया । फिर उसने मुनिराजके द्वारा दिये गये श्रावकके समस्त व्रतोंको धारण किया । इन व्रतोंका पालन करते हुए कायक्लेशके कारण उसका शरीर कृश हो गया था। एक दिन वह पानी पीकर बहुत-से हाथियोंके चले जानेपर उनके द्वारा विलोडित (प्रासुक ) पानीको पीनेके लिए वेगावती नदीके भीतर प्रविष्ट हुआ । वहाँ वह कीचड़में फँस गया । जब उसमेसे उसका बाहिर निकलना असम्भव हो गया तब उसने संन्यास ग्रहण कर लिया। इसी बीचमें वह कुक्कुट सर्प वहाँ आया और उसे देखकर काट लिया। तब वह मरकर सहस्रार स्वर्गके अन्तर्गत स्वयंप्रभ विमानमें शशिप्रभ नामका महर्द्धिक देव हुआ। वह कुक्कुट सर्प परम्परासे धूमप्रभा पृथिवी ( पाँचवाँ नरक ) में गया ।
वह देव स्वर्गसे च्युत होकर यहीपर पुष्कलावती देशके अन्तर्गत विजयाध पर्वतस्थ त्रिलोकोत्तम पुरके स्वामी विद्युन्मति और विद्युन्मालाके सहस्ररश्मि नामका पुत्र हुआ। उसने कुमार अवस्थामें ही समाधिगुप्त मुनिके निकट दीक्षा ले ली थी। वह आगमका ज्ञाता होकर किसी समय हिमालय पर्वतके ऊपर ध्यानमें स्थित था। उधर वह कुक्कुट सर्पका जीव धूमप्रभा पृथिवीसे निकलकर उसी पर्वतके ऊपर अजगर हुआ था । उससे भक्षित होकर वे मुनिराज अच्युत स्वर्गके अन्तर्गत पुष्कर विमानमें विद्युत्प्रभ नामक देव हुए। वह अजगर परम्परासे तमःप्रभा पृथिवीको प्राप्त हुआ। उक्त देव अच्युत स्वर्गसे च्युत होकर जम्बूद्वीपके अपर विदेहमें पद्मा देशके अन्तर्गत अश्वपुरके अधीश्वर वज्रवीर्य और विजयाके वज्रनाभ नामका पुत्र हुआ। वह क्रमशः राज्य पदपर प्रतिष्ठित होकर चक्रवर्ती हुआ। पश्चात् समयानुसार उसने क्षेमंकर मुनिके समीपमें दीक्षा धारण कर ली । इधर तमःप्रभा पृथिवीसे मिकलकर वह अजगरका जीव वनमें कुरंग नामक
१. फतीरे सिविरं विमुच्य । २. श स्थितः । ३. फ सुगुप्तसार्थाधिपति श सुगुप्त गुप्तसार्थाधिपति । ४. बमाकर्ण्य बभूवतु यदा। ५. प श तन्ननाम । ६. फ ब देव आगत्यात्रैव । ७. शसत्र। ८. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श गभितोध्वनि० । ९. फ अजगरपरंपरया श अजगरंपराया।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-६, १४]
२. पचनमस्कारमन्त्रफलम् ६ भ्रमता तेन वज्रनाभमुनिया॑नस्थो विद्धः समाधिना मध्यमवेयकसुभद्रविमाने जातो भिल्लः सप्तमावनौ। ततोऽवतीर्याहमिन्द्रोऽयोध्यापुरे वज्रबाहुप्रभंकर्योः सुत आनन्दनामा जातो महामण्डलेश्वरश्च, सागरदत्तमुनिसमीपे दीक्षितः षोडशभावनाः संभाव्य तीर्थकृत्त्वमुपायं क्षीरवने प्रतिमायोगं दधौ । भिल्लो नरकान्निःसृत्य तत्रारण्ये सिंहोऽजनि । तेन स मुनिर्मारितः सन् लान्तवेन्द्रोऽभूत् । सिंहो धूमप्रभां गतः । लान्तवेन्द्रो गर्भावतरणकल्याणपुरःसरवैशाखकृष्णद्वितीयायां ब्रह्मदत्तायाः गर्भे स्थितः, पुष्यकृष्णकादश्यां जज्ञे प्रियमुश्यामवर्णः नवहस्तोत्सेधः शतवर्षायुः। त्रिंशद्वर्षकुमारकाले सति पिता तद्विवाहार्थ पञ्चशतकन्याश्चानयामास । पुष्यकृष्णैकादश्यां ता विलोक्य वैराग्यं जगाम । विमलाभिधानां शिबिकामारुह्य पुरान्निःक्रान्तस्तपो गृहीत्वाष्टोपवासपूर्वकं राजसहस्रकेण अश्ववने निःक्रान्तोऽष्टमोपवासानन्तरं चर्यार्थ प्रविः कस्यचित् राज्ञो भवने क्षोरान्नेन पारणां चकार । चातुर्मासं तपो विधाय तत्रैव वने देवदारुवृक्षतले शिलापट्ट ध्यानस्थितो यदा तदा स सिंहो नरकान्निःसृत्य भ्रमित्वा महीपालपुरेशनृपालतनुजो ब्रह्मदत्ताया भ्राता महीपालसंज्ञोऽभूद्राज्येऽस्थात् ।
भील हुआ था । उसने शिकारके निमित्त घूमते हुए उन ध्यानस्थ वज्रनाभ मुनिको विद्ध कियावाणसे आहत किया। इस प्रकार समाधिसे मरणको प्राप्त होकर वे मुनिराज मध्यम अवेयकके अन्तर्गत सुभद्र विमानमें उत्पन्न हुए। और वह भील सातवीं पृथिवीमें जाकर नारकी हुआ । अहमिन्द्र देव अवेयक विमानसे च्युत होकर अयोध्यापुरीमें वज्रबाहु और प्रभंकरीके आनन्द नामका पुत्र हुआ। वह महामण्डलेश्वरकी लक्ष्मीको भोगकर सागरदत्त मुनिके पासमें दीक्षित हो गया। उसने दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिन्तन करके तीर्थकर प्रकृतिको बाँध लिया। वह एक दिन क्षीरवनके भीतर प्रतिमायोगको धारण करके स्थित था। उधर वह भूतपूर्व भीलका जीव नरकसे निकलकर उसी वनमें सिंह हुआ था । उसने उन मुनिराजको मार डाला। इस प्रकारसे शरीरको छोड़कर वे मुनिराज लान्तव स्वर्गमें इन्द्र हुए। और वह सिंह मरकर धूमप्रभा पृथिवीमें नारकी हुआ । लोन्तवेन्द्र गर्भावतरण कल्याणमहोत्सवपूर्वक वैशाख कृष्णा द्वितीयाके दिन ब्रह्मदत्ताके गर्भमें स्थित हुआ। उसने पौष कृष्णा एकादशीके दिन पार्श्वनाथ तीर्थकरके रूपमें जन्म लिया। पार्श्वनाथके शरीरका वर्ण प्रियंगु पुष्पके समान श्याम और ऊँचाई उनकी सात हाथ थी। उनकी आयु सौवर्षकी थी। तीस वर्ष प्रमाण कुमारकालके बीत जानेपर पिता उसके विवाहके लिए पाँच सौ कन्याओंको लाये । उन कन्याओं को देखकर वे पौष कृष्णा एकादशीके दिन वैराग्यको प्राप्त हुए। तब वे विमला नामकी पालकीपर चढ़कर नगरके बाहिर गये। उन्होंने अश्ववनमें पहुँचकर एक हजार राजाओंके साथ तीन उपवासपूर्वक दीक्षा ग्रहण कर ली। तीन उपवासके पश्चात् वे आहारके निमित्त किसी राजाके भवनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने खीरको लेकर पारणा की। एक समय चातुर्मासिक तपको करके वे भगवान् उसी वन में देवदारु वृक्षके नीचे एक शिलाके ऊपर ध्यानस्थ होते हुए विराजमान थे। उधर वह सिंहका जीव नरकसे निकलकर परिभ्रमण करता हुआ महीपालपुरके राजा नृपालका पुत्र और ब्रह्मदत्ता ( भगवान्की माता ) का भाई हुआ
१ फ ब स तु । २. ब कन्या आनयामास । ३. प श पुष्ये। ४. बता। ५. फ शभिधानं । ६. ब शिविकामारुह्याष्टोपवासपूर्वकं राजसहश्रेण । ७. ब 'अष्टमोपवासानन्तरं चर्यार्थं प्रविष्टः' इत्येतावान् पाठो नास्ति । ८. ब पट्टे प्रतिमायोगमध्याद्यदा।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[२-६,१४: स्ववल्लभावियोगेन तापसोऽपि जातो यो हि युगलं दग्धवान् । स मृत्वा संवरनामा ज्योतिष्कसुरोऽजनि । स तं लुलोके, पूर्ववैरं स्मृत्वा घोरोपसर्गः कृतः । श्रासनकम्पात् धरणेन्द्रपद्मा. वत्यो समागतौ । धरणो मुनेरुपरि फणामण्डपं चकार । देवी फणामण्डपस्योपरिछत्रमधत्त । तदा स मुनिश्चैत्रकृष्णचतुर्थ्यां संवरोपसर्गजयात् केवली जशे । तत्समवसरणविभूतिदर्शनात् पञ्चशततापसा दोक्षांचक्रुः । संवरः सम्यक्त्वं जग्राह । बहवः क्षत्रियाः श्रावकाः दीक्षिताश्च जाताः। पित्रादयः समय॑ ववन्दिरे । श्रीपार्श्वनाथः केवली श्रीधरप्रभृतिभिर्दशभिर्गणधरैः १० षष्टयुत्तरपञ्चशतपूर्वधरैः ५६० नवशतोत्तरनवसहस्रशिक्षकैः ६६१० चतुःशतोत्तरपञ्चसहस्रावधिशानिभिः ५४०० एकसहस्रकेवलिभिः १००० तावद्भिरेव वैक्रियद्धिभिः १०००. सप्तशतपञ्चाशदधिकमनःपर्ययधरैः ७५० षट्शतवादिभिः ६०० सुलोचनाप्रभृतिपञ्चत्रिंशत्सहस्रार्यिकाभिः ३५००० एकलक्षश्रावकजनैः १००००० त्रिलक्षश्राविकाभिः ३००००० असं ख्यातकोटिदेवदेवीभिस्तिर्यग्भिश्च चतुर्मासहोनसप्ततिवर्षाणि विहृत्य संमेदशिखरमारुह्य मासमेकं योगनिरोधं विधाय शुक्लध्यानमवलम्य श्रावणशुक्लसप्तम्यां मुक्तिमियायेति करास्मानौ सर्पावपि तन्माहात्म्येन देवगतिमलभेताम् , सद्दष्टेः किं प्रष्टव्यम् ॥६॥ था। उसका नाम महीपाल था। यह जब राजाके पदपर स्थित था तब उसकी प्रिय पत्नीका वियोग हो गया था । इस इष्टवियोगको न सह सकनेके कारण वह तापस हो गया था। इसीने उस सर्पयुगलको पंचाग्नि तप करते हुए दग्ध किया था। वह मरकर संवर नामका ज्योतिषी देव हुआ था । उसने जब भगवान् पार्श्वनाथको वहाँ ध्यानस्थ देखा तब पूर्व वैरका स्मरण करके उनके ऊपर भयानक उपसर्ग किया। उस समय आसनके कम्पित होनेसे धरणेन्द्र और पद्मावती वहाँ आ पहुँचे। तब धरणेन्द्रने भुनिके ऊपर अपने फणको मण्डपके समान कर लिया और पद्मावतीने उस फणरूप मण्डपके ऊपर छत्रको धारण किया। इस प्रकारसे वे मुनीन्द्र संवर देवके द्वारा किये गये उस उपसर्गको जीतकर चैत्र कृष्णा चतुर्थीके दिन केवल ज्ञानको प्राप्त हुए । पार्श्वनाथ जिनेन्द्र के समवसरणकी विभतिको देखकर पाँच सौ तापस जैन धर्ममें दीक्षित हो गये । स्वयं उस संवर ज्योतिषीने सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लिया था। तथा बहुत-से क्षत्रिय ( राजा) श्रावक और मुनि हो गये । पिता अश्वसेन आदिने भगवान्की पूजा करके वंदना की । पार्श्वनाथ जिनेन्द्रने श्रीधर आदि दस (१०) गणधरों, पाँच सौ साठ (५६० ) पूर्वधरों, नौ हजार नौ सौ (९९०० ) शिक्षकों, पाँच हजार चार सौ ( ५४००) अवधिज्ञानियों, एक हजार (१०००) केवलियों, उतने (१०००) ही विक्रियाऋद्धिधारकों, सात सौ पचास ( ७५०) मनःपर्ययज्ञानियों, छह सौ (६००) वादियों, सुलोचना आदि पैंतीस हजार ( ३५०००) आर्यिकाओं, एक लाख (१०००००) श्रावकजनों, तीन लाख ( ३०००००) श्राविकाओं तथा असंख्यात करोड़ देव-देवियों व तियेंचोंके साथ चार मास कम सत्तर वर्ष तक विहार किया । तत्पश्चात् सम्मेदशिखरपर चढ़कर एक मास प्रमाण आयुके शेष रह जाने पर उन्होंने योगनिरोध किया और फिर शुक्लध्यानका आश्रय लेकर श्रावणशुक्ला सप्तमीके दिन मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकारसे जब कर स्वभाववाले सर्प और सर्पिणीने भी उस पंचनमस्कारमंत्रके माहात्म्यसे देवगतिको प्राप्त कर लिया तब भला सम्यग्दृष्टि जीवका क्या पूछना है ? वह तो स्वर्ग-मोक्षको प्राप्त करेगा ही ॥५॥
१. ब लुलोके तदुपसर्ग च प्रारब्धवान् । तदासनकंपात् । २. ब-समागते । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शनाथकैवल्यं । ४. फ ब प्रभृतिनवभिगणधरैः ५.ब पंचाशदुतरसप्तशतमनःपर्य यज्ञानिभिः । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शस्तार्यकादिभिः । ७. ब श्रावकैः ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-७, १५]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ७
[१५] प्रपङ्कमग्ना करिणी सुदुःखिता वियच्चरासादितपञ्चसत्पदा । भवान्तरे सा भवति स्म जानकी
ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥७॥ अस्य कथा- अस्मिन् भरते यक्षपुरे राजा श्रीकान्तः देवी मनोहरी । तत्र वणिक सागरदत्त-रत्नप्रभयोः पुत्री गुणवती। तत्रैवान्यो वणिक् नयदत्तो भार्या नन्दना तत्सुतौ धनदत्तवसुदत्तौ । सा धनदत्ताय किल दातव्या। पुरेशेन मह्यमेव दातव्येत्याज्ञादायि । तं वने रन्तुं गतं वसुदत्तो जघान । तभृत्यैरितरोऽपि हतः । उभावपि कुरङ्गी बभूवतुः । स धनदत्तो देशान्तरं जगाम । सा आर्तेन मृत्वा कुरङ्गी जाता। तन्निमित्तं तौ युद्ध्वा मम्रतुः । ततो वनसूकरावास्ताम् , सा सूकरी बभूव । तौ तथा मृतिमुपजग्मतुः हस्तिनौ जातौ। सा करिणी जाता। तत्रापि तथा मृत्वा महिषो मर्कटौ कुरवको अविकावित्यादिजन्मसु बभ्रमतुः । सापि तदा तदा तज्जातीया स्त्री भवति स्म । तौ तथा च मम्रतुश्च ।
एकदा गङ्गातटे करिणी जाता कर्दमे मग्ना। कण्ठगतप्राणावसरे तरयाः सुरङ्गनामविद्याधरः[रेण] पञ्चनमस्कारान् दत्ता । तत्फलेन मृणालपुरेशशम्भोमन्त्रिश्रीभूति-सरस्वत्योर्वेदवतीसंज्ञा पुत्री जाता। सा चर्यार्थमागतमुनेरपंवादमवदत् पितृभ्यां निवारिता। दिना
जो हथिनी अतिशय गहरे कीचड़में फंसकर अत्यन्त दुखित थी वह विद्याधरके द्वारा दिये गये पंचनमस्कारमंत्रके पदोंके पभावसे भवान्तरमें राजा जनककी पुत्री सीता हुई । इसीलिए हम उन पंचनमस्कारपदोंमें अधिष्ठित होते हैं ।। ७ ।। इसकी कथा
इस भरतक्षेत्रके अन्तर्गत यक्षपुरमें श्रीकान्त नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम मनोहरी था । इसी नगरमें एक सागरदत्त नामका वैश्य था । उसकी पत्नीका नाम रत्नप्रभा था। इन दोनोंके गुणवती नामकी एक पुत्री थी। उसी नगरमें नयदत्त नामका एक दूसरा भी वैश्य रहता था। इसकी पत्नी का नाम नन्दना था । इनके धनदत्त और वसुदत्त नामके दो पुत्र थे। वह गुणवती इस धनदत्त के लिये दी जानेवाली थी। परन्तु राजाने आज्ञा दी कि वह मेरे लिए ही दी जाय । एक दिन जब राजा श्रीकान्त वनमें क्रीड़ार्थ गया था तब वसुदत्तने उसे मार डाला । इधर श्रीकान्तके सेवकोंने वसुदत्तको भी मार डाला। वे दोनों मरकर हिरण हुए । तब वह धनदत्त देशान्तरको चला गया। इससे वह गुणवती आर्त ध्यानसे मरकर हिरणी हुई। उसके निमित्तसे वे दोनों हिरण परस्परमें लड़कर मरे और वनके शूकर हुए। हिरणी मरकर शूकरी हुई । वे दोनों इसी प्रकारसे फिर भी मरणको प्राप्त होकर हाथी हुए और वह शूकरी हथिनी हुई। फिर भी उसी प्रकारसे वे दोनों मरकर क्रमशः भैंसा, बंदर, कुरवक ( सारस ? ) और मेंढा इत्यादि पर्यायोंको प्राप्त हुए । वह हथिनी भी उस-उस कालमें उन्हींकी जातिकी स्त्री हुई। फिर वे दोनों उसी प्रकारसे मरणको प्राप्त हुए। एक समय वह गुणवतीका जीव गंगाके किनारे हथिनी हुआ। यह हथिनी कीचड़में फंसकर मरणासन्न हो गई । उस समय उसे सुरंग नामके विद्याधरने पंचनमस्कारमंत्र दिया । उसके प्रभावसे वह मृणालपुरके राजा शम्भुके मंत्री श्रीभूतिकी पत्नी सरस्वतीके वेदवती नामकी पुत्री हुई। किसी समय एक मुनिराज चर्याके लिए आये। वेदवतीने उनकी
१. ब कुरको । २. श चभ्रमतुः । ३. फ श जाताः। ४. श प्राणावसतस्याः । ५. ५ श शंवोर्मन्त्री ब शंवोमन्त्रि । ६. फौंमागत: मुनेश मागतामुने । ७. पंरपवादत्पितृभ्यां । Jain Education Fernational
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२ पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[२-७, १५: न्तरैस्तस्याः गलरोगोऽभूज्जनेनोक्तं मुनिनिन्दनतोऽभूदिति । तदा व्रतानि जग्राह । सा शम्भुना याचिता । स मिथ्यादृष्टिरिति श्रीभूतिर्नादात्तदा तेन हतो दिवं गतः। सा मत्पिता त्वया हत इति जन्मान्तरैः ते विनाशहेतुर्भविष्यामीति तपसा दिवं गता। ततोऽवतीर्यात्रैव भरते दारुणग्रामे विप्रसोमशर्मज्वालयोस्तनुजा सरसाभिधा जाता। अतिविमतिना परिणीता। जारणकेन देशान्तरं जगाम । मार्गे मुनि ददर्श निनिन्द च । तत्पापेन तिर्यग्गतावाट । कदाचिश्चन्द्रपुरेशचन्द्रध्वज-मनस्विन्योश्चित्रोत्सवाजनि । मन्त्रिपुत्रकपिलेन सह देशान्तरमियाय। तमपि त्यक्त्वा विदग्धनगरेशकुण्डलमण्डितस्य प्रिया बभूव । पूर्वजन्मसंस्कारेण गृहीतश्रावकवता ततः सीता जाता । तत्स्वयंवरादिकं पद्मचरिते ज्ञातव्यमिति । मूढापि हस्तिनी तत्फलेनैवंविधासीत्, किमन्यो भूतिभाग न स्यात् ॥७॥
[१६] सुदुःखभाराक्रमितश्च तस्करो जलाशयोच्चारितपञ्चसत्पदः । तथापि देवोऽजनि भूरिसौख्यक
स्ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥८॥ निन्दा की। तब माता पिताने उसे इस निन्द्य कार्यसे रोंका। कुछ दिनोंके पश्चात् उसे गलेका रोग उत्पन्न हुआ । उसे जन-समुदायने मुनिनिन्दाका फल प्रगट किया । तब उसने व्रतोंको ग्रहण कर लिया । राजा शम्भुने उसे श्रीभूतिसे अपने लिए मांगा। परन्तु श्रीभूतिने मिथ्यादृष्टि होनेके कारण उसके लिए अपनी कन्या नहीं दी। इससे क्रुद्ध होकर राजाने उसे मार डाला । वह मरकर स्वर्गको प्राप्त हुआ । इधर वेदवतीने राजासे कहा कि तुमने चूंकि मेरे पिताको मार डाला है, इसीलिए में जन्मान्तरों में तुम्हारे विनाशका कारण बनूँगी । इस प्रकारसे खिन्न होकर उसने तपको स्वीकार कर लिया। उसके प्रभावसे वह स्वर्गको प्राप्त हुई । तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह इसी भरत क्षेत्रके अन्तर्गत दारुण ग्राममें ब्राह्मण सोमशर्मा और ज्वालाके सरसा नामकी पुत्री हुई । उसका विवाह अतिविभूतिके साथ कर दिया गया था। परन्तु वह एक जार (व्यभिचारी) पुरुषके साथ देशान्तरको चली गई । मार्गमें उसने मुनिको देखकर उनकी निन्दा की। इस पापसे उसे तिर्यञ्चगतिमें परिभ्रमण करना पड़ा। किसी समय वह चन्द्रपुरके स्वामी चन्द्रध्वजे और मनस्विनीके चित्रोत्सवा नामकी पुत्री हुई। वह मंत्रीके पुत्र कपिलके साथ देशान्तरमें चली गई। फिर उसको भी छोड़ करके वह विदग्धपुरके राजा कुण्डलमण्डितकी प्रिया हो गई। तत्पश्चात् पूर्वजन्मके संस्कारसे उसने श्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया । अन्तमें वह सीता हुई। उसके स्वयंवर आदिका वृत्तान्त पद्मचरित्रसे जानना चाहिए। इस प्रकार जब अज्ञान हथिनी भी पंचनमस्कारमंत्रके प्रभावसे उक्त वैभवको प्राप्त हुई है तब फिर दूसरा कौन उसके प्रभावसे वैभवशाली न होगा ? सब ही उसके प्रभावसे यथेष्ट वैभवको प्राप्त कर सकते हैं ॥७॥
जो दृढ़सूर्य चोर शूलीके दुःसह दुखसे अतिशय व्याकुल होकर यद्यपि जलपानकी आशासे ही पंचनमस्कारमंत्रके पदोंका उच्चारण कर रहा था, फिर भी वह उसके प्रभावसे देव पर्यायको प्राप्त करके अतिशय सुखका भोक्ता हुआ। इसीलिए हम उन पंचनमस्कारमंत्रके पदोंमें अधिष्ठित होते हैं ॥८॥
१. ५ श शंवुना ब शांतुना। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शकमतश्च ।
.
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-८, १६ ]
२. पवनमस्कारमन्त्रफलम् ८
अस्य कथा । तथा हि- उज्जयिनीनगर्यो राजा धनपालो राशी धनमती । वसन्तोत्सवे तस्या राश्या दिव्यं हारमवलोक्य वसन्तसेनागणिकया चिन्तितं किमनेन विना जीवितेनेति गृहे गत्वा शय्यायां पतित्वा स्थिता सा । रात्रौ दृढसूर्यचौरेणागत्य पृष्टा 'किं प्रिये, रुष्टासि' । तयोक्तं- तव न रुष्टा । किंतु यदि राशीहारं मे ददासि तदा जीवामि नान्यथेति । तां समुद्धीर्य रात्रौ हारं चोरयित्वा निर्गतो हारोद्योतेन यमपाशकोट्टपालेन धृतो राजवचनेन शूले प्रोत्तः । प्रभाते धनदत्तश्रेष्ठी चैत्यालये गच्छन् तेन भणितो दयालुस्त्वं तृषितस्य मे जलपानं देहि । तस्योपकारमिच्छता भणितं श्रेष्टिना द्वादशवर्षेरद्य मे गुरुणा महाविद्या दत्ता । जलमानयतः सा मे विस्मरति । यद्यागतस्य तां मे कथयसि तदा आनयामि जलम् । तेनोक्तमेवं करोमि । ततः श्रेष्ठी पञ्चनमस्कारांस्तस्य कथयित्वा गतः । दृढसूर्यस्तानुच्चारयन् मृत्वा च सौधर्मे देवो जातः । हेरिकै' राज्ञः कथितं देव, धनदत्तश्रेष्ठी चौरसमीपं गत्वा किंचिन्मन्त्रितवान् । श्रेष्ठिगृहे तस्य द्रव्यं तिष्ठतीति पर्यालोच्य राज्ञा श्रेष्ठधरणकं गृहरक्षणं चाज्ञातम् । तेन देवेनागत्य प्रातिहार्य करणार्थे श्रेष्ठि
इसकी कथा - उज्जयिनी नगरीमें राजा धनपाल राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम धनमती था । किसी दिन वसन्तसेना वेश्याने वसन्तोत्सव के अवसरपर उस रानीके दिव्य हारको देखकर यह विचार किया कि इसके बिना जीना व्यर्थ है । इस प्रकारसे दुखी होकर वह घर वापिस पहुँची और शय्या के ऊपर पड़ गई । रात्रिमें जब दृढ़सूर्य चोर उसके पास आया तब उसने उसे खिन्न देखकर पूछा कि हे प्रिये ! तुम क्या मेरे ऊपर रुष्ट हो गई हो ? तब उसने कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर रुष्ट नहीं हुई हूँ । किन्तु मैं रानीके दिव्य हारको देखकर उसकी प्राप्तिके लिए व्याकुल हो उठी हूँ । यदि तुम उस हारको लाकर मुझे देते हो तो मैं जीवित रह सकती हूँ, अन्यथा नहीं। यह सुनकर दृढ़सूर्य उसे आश्वासन देकर उस हार को चुराने के लिए गया । वह उस हारको चुराकर वापिस आ ही रहा था कि हारके प्रकाशमें उसे यमपाश कोतबालने देखकर पकड़ लिया । तत्पश्चात् वह राजाकी आज्ञानुसार शूली पर चढ़ा दिया गया । वह मरनेवाला ही था कि उसे प्रभात समय में वहाँ से चैत्यालयको जाते हुए धनदत्त सेठ दिखा । तब उसने धनदत्तसे कहा कि हे दयालु ! मैं प्यास से अतिशय पीड़ित हूँ । कृपाकर मुझे जल दीजिए | उसकी उस मरणासन्न अवस्थाको देखकर सेठने उसके हितकी इच्छा से कहा कि मेरे गुरुने मुझे बारह वर्षोंमें आज ही एक महामंत्र दिया है । यदि मैं जल लेने के लिए जाता हूँ तो उसे भूल जाऊँगा । हाँ, यदि तुम मेरे वापिस आने तक उसका उच्चारण करते रहो और तब मुझे कह दो तो मैं जल लेनेके लिए जाता हूँ । तब चोरने कहा कि मैं तब तक उसका उच्चारण करता रहूँगा । तत्पश्चात् सेठ उसे पंचनमस्कार मंत्र के पदोंको कहकर चला गया । इधर दृढ़सूर्य उक्त मंत्र के पदोंका उच्चारण करते हुए मरणको प्राप्त होकर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ । उस समय चोर के पास धनदत्त सेठको कुछ कहते हुए देखकर गुप्तचरोंने राजासे निवेदन किया कि हे देव ! धनदत्त सेठ चोरके पास जाकर कुछ मन्त्रणा कर रहा था । यह समाचार पाकर राजाको सन्देह हुआ कि सेठके घरमें दृढ़सूर्यके द्वारा चुराया हुआ द्रव्य विद्यमान है । इसीलिए उसने राजपुरुषोंको सेठके पकड़ लाने और उसके घरपर पहरा देनेकी आज्ञा दी । तब उपर्युक्त देव
८३
१. प ब ' राज्या' नास्ति । २. श दृढसूर्यपुरचौरेणा । ३. श हैरिकै । ४. फ चाज्ञाते तेन देवें
श चाज्ञातं ने देवें ।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-८, १६: गृहद्वारे लकुटधरपुरुषरूपं धृत्वा तद्गृहे प्रविशन्तो राजपुरुषा निवारिताः। हठात्प्रविशन्तो लकुटेन मायया मारिताः । एवं वृत्तान्तमाकर्ण्य राज्ञा येऽन्ये बहवः प्रेषितास्तेऽपि तथा मारिताः । बहुबलेन कोपाद्राजा स्वयमागतः। तद्वलं समस्तं तथैव मारितम् । राजा नश्यंस्तेने भणितो यदि श्रेष्ठिनः शरणं प्रविशसि तदा रक्षामि, नान्यथेति । ततः श्रेष्ठिन् , रक्ष रक्षेति ब्रुवाणो राजा वसतिकायां श्रेष्ठिसमीपं गतः। श्रेष्ठिना चै कस्त्वं किमर्थमेतत् कृतमिति पृष्टः । ततः श्रेष्ठिनः प्रणम्य तेन कथितं सोऽहं दृढसूर्यो भवत्प्रसादात्सोधर्मे महद्धिको देवो जातः । तव प्रातिहार्यार्थमेतत् कृतम् । एवं मरणे अन्यचेतसापि तदुच्चारणे चोरोऽपि देवोऽभूदन्यो विशुद्धितस्तदुच्चारणे स्वर्गादिभाजनं किं न स्यादिति ॥८॥
[१७] किमद्भुतं यद्भवतीह मानवः पदैः समस्तैर्गुणसौख्यभाजनम् । विवेकशून्यः सुभगाख्यगोपकः सुदर्शनोऽभूत्प्रथमाद्धि सत्पदात् ॥६॥
अस्य कथा। तथाहि- अत्रैव भरते अङ्गदेशे चम्पापुरे राजा 'धात्रीवाहनो देवी आकर सेठके घरकी रक्षा करनेके लिए दण्डधारी पुरुष ( पहरेदार ) के वेषको धारण करके उसके घरके द्वारपर स्थित हो गया। उसने राजाके द्वारा भेजे गये उन राजपुरुषोंको सेठके घरके भीतर जानेसे रोक दिया। जब वे बलपूर्वक सेठके घरके भीतर जानेको उद्यत हुए तब उसने उन्हें मायासे दण्डके द्वारा आहत किया। इस वृत्तान्तको सुनकर राजाने जिन अन्य बहुत-से राजपुरुषोंको वहाँ भेजा उन्हें भी उसने उसी प्रकारसे मार डाला । तब क्रुद्ध होकर राजा स्वयं ही वहाँ बहुत-सी सेना लेकर आ पहुँचा। तब देवने उसकी उस समस्त सेनाको भी उसी प्रकारसे मार गिराया । जब राजा भागने लगा तब देवने उससे कहा कि यदि तुम सेठकी शरणमें जाते हो तो तुम्हें छोड़ सकता हूँ, अन्यथा नहीं। तब राजा जिनमन्दिरमें सेठके पास गया और बोला कि हे सेठ ! मेरी रक्षा कीजिए। तब सेठने उस वेषधारी देवसे पूछा कि तुम कौन हो और यह उपद्रव तुमने किस लिए किया है ? इसपर सेठको प्रणाम करके देवने कहा कि मैं वही दृढ़सूर्य चोर हूँ जिसे कि आपने मरते समय पंचनमस्कारमंत्र दिया था। मैं आपके प्रसादसे सौधर्म स्वर्गमें महा ऋद्धिका धारक देव हुआ हूँ। मैंने यह सब आपकी रक्षाके निमित्त किया है । इस प्रकार वह चोर भी जब अन्यमनस्क हो करके भी उस मन्त्रोच्चारणके प्रभावसे स्वर्गसुखका भोक्ता हुआ है तब अन्य जन विशुद्धिपूर्वक उसका उच्चारण करनेसे क्यों न स्वर्गादिके सुखको प्राप्त करेंगे ? अवश्य प्राप्त करेंगे ॥८॥
यदि मनुष्य यहाँ पंचनमस्कारमंत्र सम्बन्धी समस्त पदोंके उच्चारणसे गुण एवं सुखका भाजन होता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ? देखो, जो शुभग नामका ग्वाला विवेकसे रहित था वह भी उक्त मंत्रके केवल एक प्रथम पद (णमो अरिहंताणं ) के ही उच्चारणसे सुदर्शन सेठ
हुआ है ॥९॥
उसकी कथा इस प्रकार है- इसी भरत क्षेत्रके भीतर अंग देशके अन्तर्गत एक चम्पापुर नगर है। वहाँ धात्रीवाहन नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम अभयमती था। इसी
१. फ नस्य॑स्तेन । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श श्रेष्ठि। ३. ब 'च' नास्ति ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
:२-६, १७]
२. पचनमस्कारमन्त्रफलम्६
अभयमती श्रेष्ठी वृषभदासो भार्या जिनमती तद्गोपालः सुभगनामा । स चैकदा वनाद् गृहमागच्छन्नरण्ये चतुःपथेऽस्तमनसमये शीतकाले ध्यानेन स्थितं कंचनजिनमुनिमद्राक्षीत, चिन्तयति स्मानेन शीतेनायं रात्री कथं जीविष्यति इति गृहं गत्वा काष्ठानि कृशानुं चादाय तत्समीपं जगाम । तत्राग्निसंधुक्षणेन तच्छीतबाधां निराकुर्वन् रात्रौ तत्रैवोषितः। सूर्योदये स मुनिहस्तावुद्धृत्य तं चात्यासन्नभव्यमुद्वीक्ष्य तस्मै उपदेशमदत्त । कथम् । गमनादिक्रियासु प्रथमतस्त्वया 'णमो अरहंताणं' भणितव्यमिति । स्वयं णमो अरहंताणं' इति भणित्वा गगनेनागात् । तथा तद्गमनदर्शनात्तन्मन्त्रे तस्य महती श्रद्धा बभूव तथैव भोजनादिक्रियासु प्रवर्तते च । तमेकदा श्रेष्ठी पप्रच्छ-त्वं किमिति सर्वत्र ‘णमो अरहंताणं' इति भणसीति । स तस्य स्वरूपमचीकथत् । तदा श्रेष्ठी तं प्रशंसितवान् सुग्रासादिकं च दापयामास ।
एकदाटव्यां तस्य कश्चिदकथयत्ते महिष्यो गङ्गापरतीरं गता इति । तन्निवर्तनार्थ यदा तत्र झम्पामादत्तं तदा तत्रत्यतीक्षणकाष्ठेनोदरे विद्धः। तत्र ‘णमो अरहंताणं' भणन् निदानं चकार, एतन्मन्त्रमाहात्म्येन श्रेष्ठिपुत्रो भविष्यामीति मृत्वा जिनमतीगर्भेऽस्थात् । तदा स्वप्ने सुदर्शनमेरुं कल्पतरूं सुरगृहं सागरं वह्नि चापश्यत् । भर्तुः कथिते सोऽवोचत् यावो
पुरमें एक वृषभदास नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम जिनमती था। सेठके यहाँ एक सुभग नामका ग्वाला था। एक दिन वह ग्वाला वनसे घरके लिए वापिस आ रहा था । वहाँ उसे वनमें चौराहे पर एक दिगम्बर मुनि दिखायी दिये। उस समय सूर्य अस्त हो चुका था और समय शीतका था। ऐसे समयमें भी वे मुनि ध्यानमें स्थित थे। उन्हें देखकर उस ग्वालेने विचार किया कि ये ऐसे शीतकालमें रात्रिके समय कैसे जीवित रह सकेंगे ? यही विचार करता हुआ वह घर गया और वहाँसे लकड़ियों व आगको लेकर मुनिराजके पास फिरसे आया। उसने अग्निको जलाकर उनकी शीतबाधाको दूर किया और स्वयं रात्रिमें उन्हींके पास रहा। प्रातःकाल होनेपर जब सूर्यका उदय हुआ तब उन मुनि महाराजने अपने दोनों हाथों को उठाकर उस आसन्न भव्यकी ओर दृष्टिपात किया। उन्होंने उसे निकटभव्य जानकर यह उपदेश दिया कि तुम गमनादि कार्यों में प्रथमतः णमो अरहंताणं' इस मंत्रको बोला करो। तत्पश्चात् वे स्वयं भी 'णमो अरहंताणं' कहते हुए आकाशमार्गसे चले गये। इस प्रकारसे मुनिको जाते हुए देखकर उस ग्वालेकी उक्त मंत्रवाक्यके ऊपर दृढ़ श्रद्धा हो गई। तबसे वह भोजनादि समस्त कार्यों में उक्त मंत्रवाक्यके उच्चारणपूर्वक ही प्रवृत्त होने लगा। उसकी ऐसी प्रवृत्तिको देखकर एक दिन सेठने पूछा कि तू समस्त कार्यों के प्रारम्भमें ‘णमो अरहंताणं' क्यों कहता है ? तब उसने सेठसे उस पूर्व वृत्तान्तको कह दिया । तब सेठने उसकी बहुत प्रशंसा की। वह उसके लिए उत्तम ग्रास आदि ( भोजनादि ) देने लगा।
एक दिन वनमें किसीने उस ग्वालेसे कहा कि तेरी भैंसे गंगाके उस पार चली गई हैं। यह सुनकर वह भैंसोंको वापिस ले आनेके विचारसे गंगामें कूद पड़ा। वहाँ उसका पेट एक पैनी लकड़ीसे विध गया। वहाँ उसने ‘णमो अरहंताणं' मंत्रका उच्चारण करते हुए यह निदान किया कि मैं इस मंत्रके प्रभावसे सेठका पुत्र हो जाऊँ। तदनुसार वह मरकर जिनमतीके गर्भ में स्थित हुआ। उस समय जिनमतीने स्वप्नमें सुदर्शनमेरु, कल्पवृक्ष, देवभवन, समुद्र और अग्निको
___१. श शुभगनामा। २. ब मुदीक्ष । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श तस्मादुपदेश। ४. प श पार। ५. फ ब झम्पामदत्त श सम्पामादत ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानवकथाकोशम्
[२-६, १७ : वसतिकां तत्र मुनि पृच्छाव इति । ततस्तत्र गत्वा जिनं पूजयित्वा संतुष्टुवतुर्मुनिं सुगुप्तं ववन्दाते । तदनु श्रेष्ठी तमपृच्छत् स्वप्नफलम् । सोऽकथयत् गिरिदर्शनेन धीरोऽमरद्रुमावलोकालक्ष्मीनिवासस्त्यागी च सुरगृहदर्शनात्सुरवन्द्यः सागरावलोकाद् गुणरत्नाधारो वह्निविलोकनादग्धकर्मेन्धनश्च पुत्रोऽस्या भविष्यतीति श्रुत्वा संतुष्टौ स्वगृहे सुखेन तस्थतस्ततः पुष्यशुक्लचतुर्थ्यां पुत्रो जशे । सुदर्शनाभिधानेन पुरोहितपुत्रकपिलेन सह वर्धितुं लग्नः।।
तदा तत्रापरो वैश्यः सागरदत्तो वनिता सागरसेना । स वृषभदासं प्रति बभाण यदि मम पुत्री स्यात् सुदर्शनाय दास्यामीति । ततस्तयोर्मनोरमानाम्नी तनुजा आसीदिति । रूपवती सापि वर्धमानाऽस्थात् । एकदा शास्त्रास्त्रविद्याप्रगल्भो युवा च सुदर्शनो मित्रादियुक्तः स्वरूपातिशयेन जनान् मोहयन् राजमार्गे कापि गच्छन् सुशृङ्गारां सखीजनादिवृतां मनोरमां जिनगृहं गच्छन्तीमद्राक्षीत् । आसक्तो बभूव, व्यावृत्त्य स्वगृहं जगाम, शय्यायां पतित्वास्थात्। तदवस्थां विलोक्य पितरावपृच्छतां किमिति तवेयमवस्थेति । यदा स न कथयति तदा कपिलभट्ट पृष्टवन्तौ । तेन मनोरमादर्शनकारणमिति कथिते तद्याचनार्थ सागरदत्तगृहे गमनोद्यतोऽभूद् वृषभदासो यावत्सुदर्शनाद्विरहाग्निदग्धगात्रा मनोरमापि व्यावृत्य स्वगृहं गत्वा देखा। जब उसने पतिसे इन स्वप्नोंके विषयमें कहा तब सेठने कहा कि चलो जिनमन्दिर चलकर उनका फल मुनिराजसे पूर्छ । तब वे दोनों जिनमन्दिर गये। वहाँ उन्होंने जिन भगवान्की पूजा और स्तुति करके सुगुप्त मुनिकी वन्दना की। तत्पश्चात् सेठने मुनिराजसे उक्त स्वप्नोंका फल पूछा। उत्तरमें मुनिराजने कहा कि मेरुके देखनेसे धीर, कल्पवृक्षके देखनेसे सम्पत्तिशाली होकर दानी, देवभवनके दर्शनसे देवोंके द्वारा वंदनीय, समुद्र के दर्शनसे गुणरूप रत्नोंकी खानि, तथा अग्निके देखनेसे कर्मरूप इन्धनको जलानेवाला; ऐसा इस जिनमतीके पुत्र होगा। यह सुनकर वे दोनों सन्तुष्ट होकर अपने घर आये और सुखपूर्वक स्थित हुए। तत्पश्चात् पौष शुक्ला चतुर्थीके दिन जिनमतीके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम सुदर्शन रखा गया। वह पुरोहितपुत्र कपिलके साथ उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होने लगा।
उपर्युक्त नगरमें एक सागरदत्त नामका दूसरा वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम सागरसेना था । उसने वृषभदास सेठसे कहा कि यदि मेरे पुत्री होगी तो मैं उसे सुदर्शनके लिए प्रदान करूँगा । तत्पश्चात् सागरदत्त और सागरसेनाके एक मनोरमा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। वह सुन्दर कन्या भी उत्तरोत्तर वृद्धिको प्राप्त होने लगी। एक दिन शास्त्र व शस्त्र विद्यामें विशारद युवक सुदर्शन अपनी अत्यधिक सुन्दरतासे लोगोंके मनको मोहित करता हुआ मित्रादिकोंके साथ राजमार्गसे कहीं जा रहा था । उस समय मनोरमा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत होकर सखीजनों आदिके साथ जिनमन्दिरको जा रही थी। उसे देखकर सुदर्शन आसक्त हो गया। तब वह लौटकर घर वापिस चला गया और शय्याके ऊपर पड़ गया। उसकी इस अवस्थाको देखकर माता पिताने इसका कारण पूछा । परन्तु उसने उसका कुछ उत्तर नहीं दिया । तब उन्होंने कपिल भट्टसे पूछा । उसने इसका कारण मनोरमाका देखना बतलाया । यह सुनकर वृषभदास सेठ मनोरमाको मांगनेके लिए सागरदत्त सेठके घर जानेको उद्यत हो गया। इतने में सागरदत्त सेठ स्वयं ही वृषभदासके घर आ पहुँचा । उसके आनेका कारण यह था कि जबसे मनोरमाने भी सुदर्शनको देखा था तभीसे उसका
१. प फ रत्नधरो। २. प श विलोकादृग्ध । ३. श दासं प्रबभाण ।
.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
२. पन्चनमस्कारमन्त्रफलम्
२-६, १७]
८७ शय्यायां पपात । तदवस्थाहेतुं विबुध्य तावत्सागरदत्त एव तद्गृहमायात् । सुदर्शनपितापृच्छत् किमिति तवात्रागमनमिति । सोऽवादीत् मम पुत्र्या तव पुत्रस्य विवाहं कुर्विति वक्तुमागत इति । ततो वृषभदासो मदिष्टमेव चेष्टितं त्वयेति भणित्वा श्रीधरनामानं ज्योतिविदमप्राक्षीत् विवादिनम् । ततस्तेन निरूपितम् । वैशाखशुक्लपञ्चम्यां विवाहोऽभूत्तयोरन्योन्यासक्तभावेन सुखमन्वभूतां सुकान्तनामानं. तनुजं चालभेताम् । एकदा नानादेशान् विहरन् समाधिगुप्तनामा परमयतिः संघेन सार्धमागत्य तत्पुरोधानेऽस्थात् । ऋषिनिवेदकाद्विबुध्य राजादयो वन्दितुमीयुर्वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य श्रेष्ठी सुदर्शनं राज्ञः समर्घ्य दिदीक्षे, जिनमत्यपि । आयुरन्ते समाधिना दिवं ययतुः । इतः सुदर्शनः सुकान्तं विद्याः सुशिक्षयन् सर्वजनप्रियो भूत्वा सुखेनास्थात् ।
तपातिशयं निशम्य कपिलभट्टवनिता कपिलासक्तचित्ता वर्तते । एकदा कपिले कापि याते सुदर्शनस्तद्गृहनिकटमार्गेण क्वापि गच्छन् कपिलया दृष्टो विज्ञातश्च । तदनु सखीं बभाण अमुं केनचिदुपायेनानयेति । तदनु सा तदन्तिकं जगाम अवदञ्च-हे सुभग, त्वन्मित्रस्य महदनिष्टं वर्तते, त्वं तद्वार्तामपि न पृच्छसीति । सोऽभणदहं न जानाम्यन्यथा किं
शरीर सुदर्शनके वियोगसे सन्तप्त हो रहा था। वह भी घर वापिस जाकर शय्यापर लेट गई थी। उसकी इस दुरवस्थाके कारणको जान करके ही सागरदत्त वहाँ पहुँचा था। उसे अपने घर आया हुआ देखकर सुदर्शनके पिताने पूछा कि आपका शुभागमन कैसे हुआ ? उत्तरमें उसने कहा कि आप मेरी पुत्रीके साथ अपने पुत्रका विवाह कर दें, यह निवेदन करनेके लिए मैं आपके यहाँ आया हूँ। यह सुनकर वृषभदासने उससे कहा कि यह कार्य तो आपने मेरे अनुकूल ही किया है। तत्पश्चात् उसने श्रीधर नामक ज्योतिषीसे विवाहके मुहूर्तको पूछा। उसने विवाहका मुहूर्त बतला दिया। तदनुसार वैशाख शुक्ला पंचमीके दिन उन दोनोंका विवाह सम्पन्न हो गया। वे दोनों परस्परमें अनुरक्त होकर सुखका अनुभव करने लगे। कुछ समयके पश्चात् उन्हें सुकान्त नामक पुत्रको भी प्राप्ति हुई । एक दिन अनेक देशोंमें विहार करते हुए समाधिगुप्त नामक महर्षि संघके साथ आकर चम्पापुरके बाहर उद्यानमें स्थित हुए। ऋषिनिवेदकसे इस शुभ समाचारको ज्ञात करके राजा आदि उनकी वंदना करनेके लिए गये। उन सबने मुनिराजकी वंदना करके उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् वृषभदास सेठने विरक्त होकर अपने पुत्र सुदर्शनको राजाके लिए समर्पित किया और स्वयं दिनदीक्षा ग्रहण कर ली । जिनमतीने भी पतिके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वे दोनों आयुके अन्तमें समाधिके साथ मरकर स्वर्गको प्राप्त हुए । इधर सुदर्शनने सुकान्तको अनेक विद्याओंमें सुशिक्षित किया । वह अपने सद्व्यवहारसे समस्त जनताका प्रिय बन गया था । इस प्रकारसे उसका समय सुखपूर्वक बीत रहा था।
इधर कपिल ब्राह्मणकी पत्नी कपिलाका चित्त सुदर्शनके अनुपम रूप-लावण्यको सुनकर उसके विषयमें आसक्त हो गया था। एक समय कपिल कहीं बाहर गया था। उस समय सुदर्शन उसके घरके पाससे कहीं जा रहा था। कपिलाने उसे देखकर जब यह ज्ञात किया कि यह सुदर्शन है तब उसने अपनी सखीसे कहा कि किसी भी उपायसे उसे यहाँ ले आओ। तदनुसार वह सुदर्शनके पास जाकर बोली कि हे सुभग ! आपके मित्रका महान् अनिष्ट हो रहा है और आप उसकी बात भी नहीं पूछते हैं। तब सुदर्शनने कहा कि मुझे
१. प सुखमन्वसुतं श सुखमभूभूतां । २. श दिदिक्षे।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
gora auratशम्
[ २-६, १७ :
तमवलोकयितुं नागच्छामीति । ततस्तद्गृहं जगाम मन्मित्रं क तिष्ठतीति चाप्राक्षीत् । साकथयदुपरिभूमौ तिष्ठति । त्वमेवैकाकी गच्छ तदन्तिकमिति । ततो मित्रादिकं तलभूमावेव व्यवस्थाप्य स्वयमेकाको तत्र जगाम । तत्र सा पल्यङ्कस्योपरि हंसतूले सुप्ता स्थिता । तद्वृत्तमजानन् सुदर्शनस्तत्तूलिकातले उपविश्योक्तवान् 'हे मित्र, तव किमनिष्टं प्रवर्तते' इति । सातस्तं धृत्वा स्वकुचयोर्व्यवस्थाप्य वभाण मां तव संगाप्राप्त्या म्रियमाणां दयालुस्त्वं रक्षेति । स जजल्प षण्डकोऽहं बहीं रम्य इति निशम्य सा तं विरज्य मुमोच । ततः स्वगृहे सुखेनातिष्ठत् ।
वद
एकदा वसन्तोत्सवे राजादय उद्यानं जग्मुरभयमती सकलान्तःपुरपरिवृता स्वसखीकपिलया पुष्पकमारुह्य गच्छन्ती रथारूढां सुकान्तं पुत्रं स्वोत्सङ्गे उपवेश्य गच्छन्तीं मनोरमां लुलोके अवदच्च कस्येयं सुपुत्री' कृतार्थेति । कयाचिदुक्तं सुदर्शनस्य प्रिया मनोरमा सुकान्तपुत्र मातेति । श्रुत्वाभयमत्याऽवादि धन्येयमीदृग्विधपुत्रमातेति । कपिलयोच्यते केनचिन्मम निरूपितं सुदर्शनो नपुंसक इति तस्य कथं पुत्रोऽभवदिति । देव्युवाचैवंविधः पुण्याधिकः स किं षण्डो भवति । दुष्टेन केनचित्तन्निरूपितमिति । पुनस्तया यथावन्निरूपिते देव्योक्तं
यह ज्ञात नहीं है, अन्यथा मैं उसे देखनेके लिए अवश्य आता । तत्पश्चात् वह उसके घर गया । वहाँ पहुँचकर उसने पूछा कि मेरा मित्र कहाँ है ? सखीने कहा कि वह ऊपर है । आप अकेले ही उसके पास चले जाइए । तब वह मित्रादिकों को नीचे ही बैठाकर स्वयं अकेला ऊपर गया । वहाँ कपिला पलंग के ऊपर श्रेष्ठ गादीपर पड़ी हुई थी । उसकी कुटिलताका ज्ञान सुदर्शनको नहीं था । इसीलिए उसने उस गादीके ऊपर बैठते हुए पूछा कि हे मित्र ! तुम्हारा क्या अनिष्ट हो रहा है ? तब कपिलाने उसके हाथको खींचकर अपने स्तनोंके ऊपर रखते हुए कहा कि मैं तुम्हारे संयोगविना मर रही हूँ। तुम दयालु हो, अतः मुझे बचाओ । यह सुनकर सुदर्शनने उससे कहा कि मैं केवल बाहर देखने में ही सुन्दर दिखता हूँ, परन्तु पुरुषार्थसे रहित ( नपुंसक ) हूँ । अतएव तुम्हारे साथ रमण करनेके योग्य नहीं हूँ। यह सुनकर सुदर्शन की ओरसे विरक्त होते हुए उसने उसे छोड़ दिया । तब वह अपने घर आकर सुखपूर्वक स्थित हो गया ।
एक बार वसन्तोत्सव के समय राजा आदि नगरके अभयमती भी समस्त अन्तःपुरसे वेष्टित होकर अपनी सखी (थ) बैठकर गई । जब वह जा रही थी तब उसे मार्गमें रथसे जाती हुई मनोरमा दिखी। उसने पूछा कि यह सुन्दर पुत्रवाली किसकी सुपुत्री है ? इसका जीवन सफल है । तब किसी स्त्रीने कहा कि यह सुदर्शन सेठकी वल्लभा मनोरमा है और वह उसका पुत्र सुकान्त है । यह सुनकर अभयमती बोली कि यह धन्य है जो ऐसे उत्तम पुत्रकी माता है । तब कपिला बोली कि 'मुझसे तो किसीने कहा है कि सुदर्शन नपुंसक है, उसके पुत्र कैसे उत्पन्न हुआ है ? उत्तर में अभयमतीने कहा कि इस प्रकारका पुण्यशाली पुरुष कैसे नपुंसक हो सकता है ? किसीने दुष्ट अभिप्रायसे वैसा कहा होगा । तब उसने उससे अपना पूर्वका यथार्थ वृत्तान्त कह दिया । यह सुनकर अभयमतीने कहा कि तुम्हें उसने धोखा दिया है । इसपर
बाहर उद्यानमें गये । साथमें रानी कपिलाके साथ पालकी में (अथवा अपने सुकान्त पुत्रको गोद में लेकर
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । पफश तद्वस्त्रं । २. फश न हि । ३. ब पंडको बही रम्येति । ४. फ बश गच्छती । ५. बसपुत्रा ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
: २-६, १७ ]
२. पश्वनमस्कारमन्त्रफलम्
चितासि तेन त्वम् । तयोक्तं वञ्चिता अहं ब्राह्मण्यविदग्धा,' त्वं सर्वोत्कृष्टा । त्वत्सौभाग्यं तदनुभवने सफलं नान्यथा । देव्योच्यते 'अनुभूयते एवान्यथा म्रियते' इति प्रतिज्ञायोद्यानं जगाम । तत्र जलक्रीडानन्तरं स्वभवनमागत्य शय्यायां पपात । तधात्र्या पण्डितयाभाणि पुत्रि, किमिति सचिन्तासि । तया कथिते स्वरूपे पण्डितयोक्तं विरूपकं चिन्तितं त्वया । किमित्युक्ते स एकपत्नीव्रतो ऽन्यनारीवार्तामपि न करोति । किं च तव भवनं संवेष्टय सप्तप्राकारास्तिष्ठन्तीति तदानयनमपि दुर्घटं तथोचितमपि न भवतीति । देव्या भण्यते यदि तत्संगो न स्यात्तर्हि मरणं किं न स्यादिति तदाग्रहं विबुध्य पण्डिता तां समुद्धीर्य कुम्भकारगृहं ययौ । पुरुषप्रमाणानि सप्तपुरुषप्रतिविम्बानि कारयति स्म । प्रतिपद्रात्रावेकं तत् स्वस्कन्धमारोप्य राज्ञीभवनं प्रविशन्ती द्वारपालकेन निषिद्धा । ततोऽभाणि तया ममापि किं राशीगृहप्रवेशनिषेधो ऽस्ति । तैरवादीयत्यां वेलायाम् अस्ति । हठात्प्रविशन्ती निर्लोठिता । तदा सा तदपीपतदवदच्चाद्य राशी उपोषितास्य मृण्मयकामस्य पूजां विधाय जागरं करिष्यत्ययं च त्वया भग्न इति प्रातः सकुटुम्बस्य नाशं करिष्यामीति । ततः स भीतः सन् तत्पादयोलग्नोऽभणदद्य प्रभृति ते चिन्तां न करिष्यामि क्षमां कुर्विति । ततः स्वगृहं गता । दिनक्रमेणानेकपिलाने कहा कि मैं मूर्ख ब्राह्मणी ठगायी गयी हूँ और तुम सर्वोत्कृष्ट हो, तुम्हारे सौभाग्यको मैं तभी सफल समझँगी जब कि तुम उसके साथ भोग भोग सको, अन्यथा मैं उसे विफल ही समझँगी । तब अभयमतीने कहा कि मैं यह प्रतिज्ञा करती हूँ कि या तो सुदर्शन के साथ विषयसुखका अनुभव ही करूँगी, अन्यथा प्राण दे दूँगी । यह प्रतिज्ञा करके वह उद्यानमें पहुँची और वहाँ जल-क्रीड़ा करनेके पश्चात् महलमें आकर शय्याके ऊपर पड़ गई । तब उसकी पण्डित धायने पूछा कि हे पुत्री ! तू सचिन्त क्यों है ? इसपर उसने अपनी उस प्रतिज्ञाका समाचार पण्डिता से कह दिया । उसे सुनकर पण्डिताने कहा कि तूने अयोग्य विचार किया है। कारण यह कि सुदर्शन सेठ एकपत्नीव्रतका पालक है, वह अन्य स्त्रीकी बात भी नहीं करता है। दूसरी बात यह कि तेरे भवनको वेष्टित करके सात कोट स्थित हैं, अतएव उसका यहाँ लाना भी दुःसाध्य है | इसके अतिरिक्त वैसा करना उचित भी नहीं है । यह सुनकर अभयमतीने कहा कि यदि सुदर्शन सेठका संयोग नहीं हो सकता है तो मेरा मरण अनिवार्य है । जब पण्डिताने उसके इस प्रकार के आग्रहको देखा तब वह उसे आश्वासन देकर कुम्हारके घर गई । वहाँ उसने कुम्हारसे पुरुषके बराबर पुरुषकी सात मूर्तियाँ बनवायीं । तत्पश्चात् वह प्रतिपदाकी रातको उनमें से एक मूर्तिको अपने कंधे पर रखकर अभयमतीके भवनमें जा रही थी । उसे द्वारपालने भीतर जानेसे रोक दिया । तब पण्डिताने उससे पूछा कि क्या मेरे लिए भी रानीके महल में जाना निषिद्ध है ? तब उसने कहा कि हाँ, इतनी रात्रि में तेरा भी वहाँ जाना निषिद्ध है । इतने पर भी जब वह न रुकी और हठपूर्वक भीतर प्रविष्ट होने लगी तब उसने उसे बलपूर्वक रोकनेका प्रयत्न
आज रानीका उपवास था,
उसे इस मिट्टी के
।
इसे तूने फोड़ डाला है
।
किया । इसपर वह वहाँ गिर गई और बोली कि कामदेवकी पूजा करके रात्रिजागरण करना था अब प्रातः काल में तुझे कुटुम्बके साथ नष्ट कराऊँगी । यह सुनकर वह भयभीत होता हुआ उसके पैरोंपर गिर गया और बोला कि मुझे क्षमा कर, आजसे मैं तेरी चिन्ता नहीं करूँगा - तुझे महलके भीतर जानेसे न रोकूँगा । तत्र बह घर चली गई । दिनानुसार ( दूसरे, तीसरे आदि दिन) उसने इसी
१. ब्राह्मण्यदग्धा शब्राह्मणविदग्धा । २. ब तर्हि किं मरणं न । ३. ब प्रतिपदिनरात्रावेकं । ४. फ शं निषिद्धो ।
१२
६९
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ २-६, १७
।
नैव विधिनान्यानपि द्वारपालान् वशीचकार । सुदर्शनोऽष्टम्यां कृतोपवासोऽस्तमनसमये श्मशाने रात्रौ प्रतिमायोगेनास्थात् । रात्रौ तत्र पण्डिता जगामावादीच्च धन्योऽसि त्वं यदभयमती तवानुरक्ता बभूवागच्छ तया दिव्यभोगान् भुङ्क्ष्वेत्यादिनानावचनैश्चित्तविक्षेपेऽप्यक्षोभो यदा तदा तमुत्थाप्य स्वस्कन्धमारोप्यानीय तच्छय्यागृहे चिक्षेप | अभयमती बहुप्रकारस्त्रीविकारैस्तच्चित्तं चालयितुं न शक्ता, उद्विज्य पण्डितां प्रत्यवददमुं तत्रैव निक्षिपेति । सा बहिः प्रभातावसरं निरीक्ष्य बभाण- प्रत्यूषं जातं नेतुं नायाति, किं क्रियते । ततः शय्यागृह एव कायोत्सर्गेण तं व्यवस्थाप्याभयमती स्वदेहे नखक्षतान् कृत्वा पूत्कारं व्यधात् मे शीलवत्याः शरीरमनेन विध्वंसितमिति । ततः केनचिद्राज्ञः कथितं सुदर्शन एवं कृतवानिति । तेन भृत्यानामादेशो दत्तस्तं पितृवने मारयतेति । ततस्ते केशग्रहेणाकृष्य तं तत्र निम्युरुपवेश्य शिरोहननाय येनासिना कृतो घातः स तत्कण्ठे हारो बभूव । अन्यान्यपि मुक्तप्रहरणानि व्रतप्रभावेन पुष्पादिरूपैः परिणामितानि । ततः कश्चित् यक्षः श्रासन कम्पात् तदुपसर्गमवबुध्यागत्य भृत्यान् कीलितवान् । तदाकर्ण्य सुदर्शनेनैव मन्त्रेण कीलिता इति मत्वा रुष्टेन राज्ञान्येऽपि प्रेषिताः । तेऽपि तेन कीलिताः । ततोऽतिबहुबलेन राजा स्वयं
सरीकेसे अन्य द्वारपालोंको भी अपने वशमें कर लिया । इधर सुदर्शन सेठ अष्टमीका उपवास करके सूर्यास्त हो जानेपर रात्रि के समय स्मशानमें प्रतिमायोगसे स्थित ( समाधिस्थ ) था । उस समय रातमें पण्डिता वहाँ गई और उससे बोली कि तुम धन्य हो जो अभयमती तुम्हारे ऊपर अनुरक्त हुई है, तुम चलकर उसके साथ दिव्य भोगोंका अनुभव करो । इस प्रकार से पण्डित अनेक मधुर वचनोंके द्वारा उसे आकृष्ट किया, परन्तु वह जब निश्चल ही रहा तब उसने उसे उठाकर अपने कन्धे पर रख लिया और फिर महलमें लाकर अभयमतीके शयनागार में छोड़ दिया । तब अभयमतीने उसके समक्ष अनेक प्रकारकी स्त्रीसुलभ कामोद्दीपक चेष्टाएँ कीं, परन्तु वह उसके चित्तको विचलित करने में समर्थ नहीं हुई । अन्तमें उद्विग्न होकर उसने पण्डिता से कहा कि इसे ले जाकर वहीं पर छोड़ आओ । पण्डिताने जो बाहर दृष्टिपात किया तो प्रातः काल हो चुका था । तब उसने कहा कि इस समय सबेरा हो चुका है, अब उसे ले जाना सम्भव नहीं है, क्या किया जाय यह देखकर अभयमती किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई । अन्तमें उसने उसे शयनागार में ही कायोत्सर्ग रखकर अपने शरीरको नखोंसे नोंच डाला । फिर वह चिल्लाने लगी कि इसने मुझ शीलवती के शरीर को क्षत-विक्षत कर डाला है । तब किसीने जाकर राजासे कह दिया कि सुदर्शनने ऐसा अकार्य किया हैं । तब राजाने सेवकोंको आज्ञा दी कि इसे स्मशानमें ले जाकर मार डालो | तदनुसार वे उसके बालों को खींचकर उसे स्मशानमें ले गये । फिर वहाँ बैठा करके उन्होंने उसके शिरको काटनेके लिए जिस तलवारका वार किया वह उसके गलेमें जाकर हार बन गई । इस प्रकारसे और भी जितने प्रहार किये गये वे सब ही उसके व्रत के प्रभावसे पुष्पा - दिकों के स्वरूप परिणत होते गये। तब कोई यक्ष अपने आसनके कम्पित होनेसे उसके उपसर्गको ज्ञात करके वहाँ आ पहुँचा। उसने उन राजपुरुषोंको कीलित कर दिया । यह समाचार सुनकर राजाने समझा कि सुदर्शनने ही उन्हें मंत्रके द्वारा कीलित कर दिया है। इससे उसे बहुत क्रोध आया । तब उसने दूसरे कितने ही सेवकों को भेजा । किन्तु उन्हें भी उसने कीलित कर दिया । तत्पश्चात् राजा स्वयं ही बहुत-सी सेनाके साथ निकल पड़ा । उधर मायावी यक्ष भी चतुरंग
१. ब. रात्रि० । २. ब सोऽसिस्तत्कण्ठे |
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१
: २-६, १७ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् । निर्गत इतरोऽपि मायया चातुरङ्गं बलं विधाय व्यूह-प्रतिव्यूहक्रमेण रणरङ्गेऽस्थात् । तदनु उभयोः सेनयोर्जगञ्चमत्कारकारी संग्रामोऽजनि । बृहद्वेलायामुभयबलमप्यावर्तते स्म । तदोभयोमुख्ययोहस्तिनावन्योन्यं संमुखीभूतौ। तत्र देवोऽवोचदहं देवोऽतिप्रचण्डो मद्धस्ते मा म्रियस्व, सुदर्शनस्य चिन्तां विहाय सुखेन राज्यं कुर्विति । भूपेनोच्यते त्वं देवश्चेत्किं जातम् , देवाः किं पार्थिवानां किंकरा न स्युः । कुरु युद्धं, दर्शयामि ते मद्भुजप्रतापमिति । तत उभयोर्महद्रणे राजा विपक्षस्य हस्तिनं बाणैरापूर्यापीपतत् । ततोऽन्यं द्विपं चटित्वा तत्प्रतापमालोक्यानन्देन यक्षो युद्धवान् । तद्वारणं च पातयति स्मान्यवारणमारुह्य राजा युयुधे । यतस्तस्य च्छत्रध्वजौ चिच्छेद वारणं च जघान । राजा रथमारुह्य युद्धवानितरोऽपि । उभावपि विद्याबाणयुद्धेन जगत्त्रयाश्चर्यमुत्पादयांचक्रतुः । बृहद्वेलायां राजा यक्षरथं बभञ्ज । तदनु भूमावस्थात्तं भूपो जघान । तदा तौ द्वौ जातौ । एवं द्विगुण-द्विगुणक्रमेण सर्वा रणभूमियाप्ता तेन । तदा राजा भयभीतो नष्टुं लग्नोऽन्यस्तु पृष्ठतो लग्नोऽवदद्यदि श्रेष्टिनं शरणं प्रविशसि तदा जीवसि, नान्यथेति । ततः स तं शरणं प्रविष्टः 'श्रेष्ठिन्, रक्ष रक्ष' इति । तदा श्रेष्ठी हस्तावुद्धत्य यक्षं निवार्य कस्त्वमिति पृष्टवान् । यक्षः श्रेष्ठिनं प्रणम्य स्वरूपं निरूपितवान् , राशोऽभयमतीवृत्तान्तं प्रतिपाद्य बलं पुनर्जीवयित्वा श्रेष्ठिनं पूजयित्वा तदने पुष्पसेनाको निर्मित करके व्यूह और प्रतिव्यूहके क्रमसे रणभूमिमें आ डटा। फिर क्या था ? दोनों ही सेनाओंमें आश्चर्यजनक घोर युद्ध होने लगा। इस प्रकार बहुत समय बीत जानेपर भी जब दोनों सेनाओंका चक्र पूर्ववत् ही चलता रहा-- दोनोंकी स्थिति समान ही बनी रही- तब उन दोनों प्रमुखोंके हाथी एक-दूसरेके अभिमुख स्थित हुए। उनमेंसे यक्षने राजासे कहा कि मैं अतिशय क्रोधी देव हूँ, मेरे हाथसे तू व्यर्थ प्राण न दे, सुदर्शनकी चिन्ताको छोड़कर तू सुखपूर्वक राज्य कर—उसे दण्ड देनेका विचार छोड़ दे। यह सुनकर राजा बोला कि यदि तू देव है तो इससे क्या हो गया, क्या देव राजाओं के दास नहीं होते हैं ? तू मेरे साथ युद्ध कर, मैं तुझे अपने बाहुबलको दिखलाता हूँ। तब उन दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। उसमें राजाने शत्रुके हाथीको बाणों की वर्षासे परिपूर्ण करके गिरा दिया । तब यक्ष दूसरे हाथीपर चढ़ा और उसके प्रतापको देखकर आनन्दपूर्वक युद्ध करने लगा। उसने भी राजाके हाथीको गिरा दिया। तब राजा दूसरे हाथीके ऊपर चढ़कर युद्ध करने लगा। तब यक्षने उसके छत्र और ध्वजाको नष्ट करके हाथीको भी मार गिराया। तब राजाने स्थपर चढ़कर युद्ध प्रारम्भ किया। यह देखकर शत्रुने भी उसी प्रकारसे युद्ध किया। इस प्रकार दोनोंने विद्यामय बाणोंसे युद्ध करके तीनों लोकों को आश्चर्यचकित कर दिया । बहुत समय बीतनेपर राजाने यक्षके रथको तोड़ डाला । तब वह भूमिमें स्थित हुआ। राजाने उसे मार डाला । तब वे दो हो गये। इस क्रमसे उत्तरोत्तर वे दूने-दूने
गये। इस प्रकार उनसे समस्त रणभूमि ही व्याप्त हो गई। अब तो राजा भयभीत होकर भागने में उद्यत हो गया । तब वह यक्ष भी उसके पीछे लग गया । वह बोला कि यदि तू सेठकी शरणमें जाता है तो तेरी प्राणरक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं। तब वह हे सेठ ! मुझे बचाओ मुझे बचाओ, यह कहता हुआ सुदर्शन सेठकी शरणमें गया। उस समय सेठने हाथों को उठाकर यक्षको रोकते हुए उससे पूछा कि तुम कौन हो। इसके उत्तरमें यक्षने सेठको नमस्कार करके सब वृत्तान्त कह दिया। तत्पश्चात् यक्षने राजासे रानीके दुराचरणकी सब यथार्थ घटना कह १. श चितां । २. प बशपीपतन् । ३. श प्रतिपद्य ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
६२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[२-६, १७: वृष्टयादिकं विधाय स्वर्गलोकं गतः। राशी वृक्षेऽवलम्ब्य मृत्वा पाटलिपुत्रे व्यन्तरी जशे । पण्डिता पलाय्य पाटलीपुत्र एव देवदत्ताभिधवेश्यागृहेऽस्थात् स्वरूपं निरूपितवतो च । देवदत्ता कपिलाभयमत्योर्हास्यं विधाय प्रतिज्ञा चकार यदि सुदर्शनं मुनिं पश्यामि तत्तपो विनाशयिष्यामीति।
इतो राजा सुदर्शनं प्रत्यवदद्यदज्ञानेन मयाकृतं तत्सर्वे क्षमित्वार्धराज्यं गृहाण । सुदर्शनो ब्रूते 'श्मशानादानयनसमय एव यस्मिन्नुपसर्गे जीविष्यामि पाणिपात्रेण भोदये' इति कृतप्रतिशस्ततो दीक्षे" इत्यनेन प्रकारेण व्यवस्थापितोऽपि जिनालयं गतः जिनं पूजयित्वाऽभिवन्द्य विमलवाहनाभिधं यति चापृच्छत् मनोरमाया उपरि मे बहुमोहहेतुः क इति । साह- अत्रैव विध्यदेशे काशीकोशलपुरेशभूपालवसुन्धर्योरपत्यं लोकपालः। स भूपालः पुत्रादियुतः श्रास्थाने आसितः सिंहद्वारे पूत्कुर्वतीः प्रजाः अपश्यत् । तत्कारणे पृष्टे अनन्तबुद्धिमन्त्रिणोच्यतेऽस्मादक्षिणेन स्थितविन्ध्यगिरौ व्याघ्रनामा भिल्लस्तद्वनिता कुरङ्गी। स प्रजानां बाधां करोतीति पूत्कुर्वन्ति प्रजाः। ततो राशा बहुबलेनानन्तनामा चमूपतिस्तस्योदी। फिर वह राजाके सैन्यको जीवित करके और सुदर्शन सेठकी पूजा करके उसके आगे पुष्पोंकी वर्षा आदिको करता हुआ स्वर्गलोकको वापिस चला गया । इधर रानीने जब इस अतिशयको देखा तब उसने वृक्षसे लटककर अपने प्राण दे दिये। इस प्रकारसे मरकर वह पाटलीपुत्र ( पटना ) नगरमें व्यन्तरी उत्पन्न हुई । वह पण्डिता धाय भी भयभीत होकर भाग गई और उसी पाटलीपुत्र नगरमें एक देवदत्ता नामकी वेश्याके घर जा पहुँची । वहाँ उसने देवदत्तासे पूर्वोक्त सब वृत्तान्त कहा । उसको सुनकर देवदत्ताने कपिला और अभयमतीको हँसी उड़ाते हुये यह प्रतिज्ञा की कि यदि मैं उस सुदर्शन मुनिको देखूगी तो अवश्य ही उसके तपको नष्ट करूँगी।
__ इधर इस आश्चर्यजनक घटनाको देखकर राजा सुदर्शन सेठसे बोला कि मैंने अज्ञानतावश जो आपके साथ यह दुर्व्यवहार किया है उस सबको क्षमा करके मेरे आधे राज्यको स्वीकार कीजिए। इसके उत्तरमें सुदर्शन सेठ बोला कि हे राजन् ! मैंने स्मशानसे लाते समय ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि यदि मैं इस उपद्रवसे जीवित रहा तो पाणिपात्रसे भोजन करूँगा- मुनि हो जाऊँगा। इसीलिए अब दीक्षा लेता हूँ। इस प्रकार राजाके रोकनेपर भी उसने जिनालयमें जाकर जिनेन्द्रकी पूजा-वंदना की। फिर उसने विमलवाहन नामक मुनीन्द्रकी वंदना करके उनसे पूछा कि भगवन् ! मनोरमाके ऊपर जो मेरा अतिशय प्रेम है उसका क्या कारण है ? मुनि बोले- इसी भरत क्षेत्रके भीतर विन्ध्य देशके अन्तर्गत काशी-कोशल नामका एक नगर है । उसमें भूपाल नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम वसुन्धरी था। इनके एक लोकपाल नामका पुत्र था। एक दिन राजा भूपाल पुत्रादिकोंके साथ सभाभवनमें बैठा हुआ था। तब उसने सिंहद्वारके ऊपर चिल्लाती हुई प्रजाको देखकर मंत्रीसे इसका कारण पूछा। तदनुसार अनन्त अनन्तबुद्धिः मंत्री बोला कि यहाँसे दक्षिणमें एक विन्ध्य नामका पर्वत है। वहाँ एक व्याघ्र नामका भील रहता है। उसकी स्त्रीका नाम कुरंगी है। वह प्रजाको पीड़ित किया करता है। इसीलिए वह चिल्ला रही है। तब राजाने उसके ऊपर आक्रमण करनेके लिए बहुत-सी सेनाके साथ अनन्त नामक सेनापतिको भेजा । उसे भीलने जीत लिया। तब राजा स्वयं ही जानेको
१. ब स्वल्र्लोकं । २. ब ०दत्ताविधावेश्यागृहेऽस्थात्तस्य [स्या] स्तत्स्वरूपं । ३. प श स्मशाना। ४. फ कृतः प्रतिज्ञा ततो व कृतप्रतिज्ञास्ततो। ५. व दीक्ष्ये । ६. ब इत्यनेकप्र० । ७. प श भूपालबलवसु० ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
:२-६, १७]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ परि प्रेषितः । तं स जिगाय। ततो राजा स्वयं चचाल । तं निवार्य लोकपालो जगाम रणे तं जधान । स मृत्वा वत्सदेशे कस्मिश्चित् गोष्ठे श्वा बभूव । श्राभीर्या सह कौशाम्बीपुरमियाय । तत्रैव जिनगृहमाश्रित्यवास्थात् । तत्रापि मृत्वा चम्पायां लोध इति नरजातिविशेषः सिंहप्रियसिंहिन्योः पुत्रोऽजनि । बालस्यैव पितरौ मम्रतुः । सोऽपि दिनान्तरैर्ममारास्यामेव चम्पायां वृषभदासस्य सुभगनामा गोपालोऽभूञ्चारणान्तिकं णमो अरहंताणं' इति मन्त्रं प्राप्य सर्वक्रियासु तं प्रथममुच्चारयन् वर्तते स्म । आयुरन्ते गङ्गायां मृत्वा निदानेन त्वं जातोऽसि । सा कुरङ्गी तनुं विहाय वाराणस्यां महिषी जाता। तत्रापि मृत्वा चम्पायां रजकसांवलयशोमत्योर्दुहिता वत्सिनी भूत्वार्जिकासंसर्गेणार्जितपुण्येन त्वत्प्रियासीदिति निशम्य मनोरमां निवार्य भूपादिभिः क्षमितव्यं कृत्वा तत्रैव दीक्षितः। राजापि धर्मफले साश्चर्यचित्तः स्वतनुजं राजानं सुकान्तं श्रेष्टिनं च कृत्वा तत्रैव दीक्षितः तदन्तःपुरमपि । सर्वेऽपि तत्रैव पारणं चक्रुर्गुरुभिर्विहरन्तः स्थिताः।।
सुदर्शनः सकलागमधरो भूत्वा गुरोरनुज्ञया एकविहारी जातः । नानातीर्थस्थानानि वन्दमानः पाटलीपुत्रं प्राप्य तत्र चर्यार्थ पुरं प्रविष्टः । पण्डिता तं विलोक्य देवदत्तायाः कथयति स्म सोऽयं सुदर्शन इति । देवदत्ता स्वप्रतिज्ञां स्मृत्वा दास्या स्थापयांचकार उद्यत हुआ । राजाको जाते हुए देखकर लोकपालने उसे रोक दिया और वह स्वयं वहाँ चला गया। उसने उस भीलको युद्धमें मार डाला। वह मरकर वत्स देशमें किसी गोष्ठ (गायों के रहनेका स्थान ) के भीतर कुत्ता हुआ । एक दिन वह ग्वालिनीके साथ कौशाम्बी पुरमें गया और वहाँ ही एक जिनालयके आश्रित रह गया। वहाँपर वह समयानुसार मरणको प्राप्त होकर लोधी नामकी मनुष्यजातिमें सिंहप्रिय और सिंहिनी दम्पतिका पुत्र हुआ। उसके माता पिता बाल्यावस्थामें ही मर गये थे। तत्पश्चात् वह भी कुछ दिनोंमें मृत्युको प्राप्त होकर इसी चम्पापुरमें वृषभदास नामक सेठके सुभग नामका ग्वाला हुआ। उसने एक चारण मुनिके पाससे ‘णमो अरहंताणं' इस मंत्रको प्राप्त किया। वह सब ही कार्योंके प्रारम्भमें प्रथमतः उक्त मंत्रका उच्चारण करने लगा। आयुके अन्तमें वह गंगा नदीमें मरकर किये गये निदानके अनुसार तुम हुए हो । उधर वह कुरंगी ( भील स्त्री.) मर करके वाराणसी नगरीमें भैंस हुई थी। फिर वहाँ भी वह मरकर चम्पापुरमें साँवल और यशोमती नामक धोबीयुगलके वत्सिनी नामकी पुत्री हुई। सौभाग्यसे उसे आर्यिकाकी संगति प्राप्त हुई। इससे जो उसने महान् पुण्य उपार्जित किया उसके प्रभावसे वह मरकर तुम्हारी मनोरमा प्रिय पत्नी हुई है। इस प्रकार अपने पूर्व भवोंके वृत्तान्तको सुनकर सुदर्शन सेठने मनोरमाको समझाया और तदनन्तर वह राजा आदिकोंसे क्षमा कराकर वहींपर दीक्षित हो गया। सुदर्शनको प्राप्त हुए धर्मके फलको प्रत्यक्ष देख करके राजाके मनमें बहुत आश्चर्य हुआ । इसीलिए उसने भी अपने पुत्रको राजा तथा सुकान्तको सेठ बनाकर वहींपर दीक्षा ले ली । राजाके अन्तःपुरने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। तत्पश्चात् सबने वहींपर पारणा की। वे सब गुरुके साथ विहार करते हुए संयमका परिपालन कर रहे थे।
सुदर्शन समस्त आगमका ज्ञाता होकर गुरुकी आज्ञासे अकेला ही विहार करने लगा। वह अनेक तीर्थस्थानोंकी वंदना करता हुआ पाटलीपुत्र नगरमें पहुँचा। वहाँ वह आहारके लिए नगरमें प्रविष्ट हुआ। पण्डिताने उसे देखकर देवदत्तासे कहा कि यही वह सुदर्शन है। १. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श स्थानादि । २. श पाडलीपुत्रं । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श 'पुरं' नास्ति ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
gorate कोम्
[ २-६, १७ :
मुनिरजानन् स्थितोऽन्तः प्रवेश्यावरकान्त उपवेशितः । देवदत्तया भणितम्- हे सुन्दर, त्वमद्यापि युवा, किं ते तपसा मयोपार्जितं बहुद्रव्यमस्ति, तेन सार्धं मां भुधि । मुनिरुवाच - हे मुग्धे, शरीरमिदमशुचि दुःखपुञ्ज त्रिदोषाधिष्ठितं कृमिकुलपरिपूर्ण विनश्वरम् । ततो नोचितं भोगोपभोगानुभवनाय परत्र सिद्धावेवासहायं ततस्तपो विधीयत इति । देवदत्तया पश्चात्तत् कुर्विति भणित्वोत्थाप्य तूलिकायां निक्षिप्तः । तदा स उपसर्गनिवृत्तावाहारादौ प्रवृत्तिरिति गृहीत संन्यासस्तथा नगराद्यप्रवेशप्रतिज्ञोऽप्यभूत् । त्रीणि दिनानि नानास्त्रीविकारैस्तयोपसर्गे कृते ऽप्यकम्पचित्तोऽस्थाद्यदा तदा रात्रौ पितृवने कायोत्सर्गेण स्थापयामास । यावत्तदा स तत्र तिष्ठति तावत्सा व्यन्तरी विमानेन गगने गच्छती विमानस्खलनात्तं लुलोके । विबुध्य अवदत्-रे सुदर्शन, तवार्त्तनाभयमती मृत्वाहं जाता । त्वं तदा केनचिद्देवेन रक्षितोऽसि, इदानीं त्वां को रक्षतीति विजल्प्य नानोपसर्गस्तस्य कर्तुं प्रारब्धः । तदा सं तेनैव यक्षेण निवारितः । सा तेनैव सह युद्धं चकार, सप्तमदिने पलायिता । इतः स मुनिदेवदत्ताने अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण करके दासीके द्वारा मुनिका पडिगाहन कराया । मुनिको उनके कपटका ज्ञान नहीं था । इसीलिए वे वहाँ स्थित हो गये । फिर उसने उन्हें भीतर ले जाकर शयनागार में बैठाया । तत्पश्चात् देवदत्ताने उनसे कहा कि हे सुभग ! तुम अभी तरुण हो, तुम्हें अभी इस तपसे क्या लाभ है ? मैंने बहुत-सा धन कमाया है । तुम उसको लेकर मेरे साथ भोगोंका अनुभव करो । यह सुनकर मुनिने कहा कि हे सुन्दरी ! (अथवा हे मूर्खे ! ) यह शरीर अपवित्र, दुःखों का घर, त्रिदोष (वात, पित्त और कफ ) से सहित, कीड़ोंसे परिपूर्ण और नश्वर है । इसलिए उसे भोगोपभोगजनित सुखका साधन बनाना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से वह परलोक के सुखमय बनाने में सहायक नहीं होता है, बल्कि वह उसे दुखमय ही बनाता है । अतएव उस परलोककी सिद्धि ( मोक्षप्राप्ति ) के लिए इस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको तपश्चरणमें प्रवृत्त करना सर्वथा योग्य है । इस प्रकारसे वह परलोककी सिद्धिमें अवश्य सहायक होता है । मुनिके इस सदुपदेशको देवदत्ताने हृदयंगम नहीं किया । किन्तु इसके विपरीत उसने 'तुम तपको छोड़कर मेरे साथ विषयभोग करो' यह कहते हुए उन्हें उठाकर शय्याके ऊपर रख लिया । तब मुनिने इस उपसर्गके दूर होनेपर ही मैं आहारादिमें प्रवृत्त होऊँगा, इस प्रकार सन्यासको ग्रहण कर लिया । साथ ही उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा कर ली कि अबसे मैं नगरादिमें प्रवेश नहीं करूँगा । इस प्रकार देवदत्ताने अनेक प्रकारके कामोद्दीपक स्त्रीविकारों को करके मुनिके ऊपर तीन दिन उपसर्ग किया । फिर भी जब उनका चित्त चलायमान नहीं हुआ तब उसने उन्हें रात के समय स्मशान में कायोत्सर्गसे स्थित करा दिया । तब वे मुनि वहाँ कायोत्सर्ग से स्थित ही थे कि इतने में विमानसे आकाशमें जाती हुई उस व्यन्तरीने अकस्मात् अपने विमानके रुक जाने से उनकी ओर देखा । देखते ही उसे यह ज्ञात हो गया कि यह वही सुदर्शन सेठ है । तब उसने उनसे कहा कि हे सुदर्शन ! तेरे कारण आर्तध्यानसे मरकर वह अभयमती मैं (व्यन्तरी) हुई हूँ । उस समय तो किसी देवने तेरी रक्षा की थी, अब देखती हूँ कि तेरी रक्षा कौन करता है । इस प्रकार कहते हुए उसने मुनिराजके ऊपर अनेक प्रकारसे घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया । उस समय इस उपसर्ग को भी उसी यक्षने निवारित किया । तब वह उसी यक्षके साथ
९४
९. ब भुनक्ति । २. प ब श पुंजस्त्रिदोषा० । ३ ब सिद्धावेव सहायं ।
५. शब्नात्तां । ६. श सा । ७. ब स एव यक्षो निवारितवान् ।
४. फ यावत्तावत्तदा ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
९५
: २-६, १७ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ६ रुत्पन्नकेवलो गन्धकुटीरूपसमवसरणादिविभूतियुक्तश्चासीत् । श्रीवर्धमानस्वामिनः पञ्चमोऽन्तकृत्केवली' । तदतिशयविलोकनात् देवी सदृष्टिर्बभूव । पण्डिता देवदत्ता च दीक्षां बभ्रतुः । मनोरमापि तज्ज्ञानातिशयमाकर्ण्य सुकान्तं निवार्य तत्र गत्वा दीक्षिता, अन्येऽपि बहवः । सुदर्शनमुनिर्भव्यपुण्यप्रेरणया विहृत्य पौष्यशुक्लपञ्चम्यां मुक्तिमितः धात्रीवाहनादिषु केचिन्मुक्तिमिताः केचित्सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं गताः। अर्जिकाः सौधर्माद्यच्युतान्तकल्पेषु केचिद्देवाः काश्चिद्देव्यश्च बभूवुरिति । गोपोऽपि तदुच्चारणे एवंविधोऽभवदन्यः किं न स्यादिति ॥८॥
सौधर्मादिषु कल्पकेषु विमलं भुक्त्वा सुखं चिन्तितं च्युत्वा सत्कुलवल्लभो हि सुभगश्चक्राधिनाथो नरः। भूत्वा शाश्वतमुक्तिलाभमतुलं स प्राप्नुयादादराद् योऽयं सत्पदसौख्यसूचकमिदं पाठीकरोत्यष्टकम् ॥२॥
इति पुण्यास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्यरामचन्द्रमुमुक्षुविरचिते
पञ्चनमस्कारफलव्यावर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥२॥
युद्ध करने लगी । अन्तमें वह सातवें दिन पीठ दिखाकर भाग गई । इधर उस उपसर्गके जीतनेवाले मुनिराजको केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तब देवोंने गन्धकुटीरूप समवसरणादिकी विभूतिका निर्माण किया। वे श्रीवर्धमान जिनेन्द्र के तीर्थमें पाँचवें अन्तकृत्केवली हुए हैं। इस अतिशयको देखकर वह व्यन्तरी सम्यग्दृष्टि हो गई । पण्डिता और देवदत्ताने भी दीक्षा ग्रहणकर ली। सुदर्शन मुनिके केवलज्ञानकी वार्ताको सुनकर मनोरमाने भी सुकान्तको सम्बोधित करते हुए वहाँ जाकर दीक्षा धारण कर ली । अन्य भी कितने ही भव्य जीवोंने सुदर्शन केवलीके निकट दीक्षा ले ली। फिर सुदर्शन केवलीने भव्य जीवोंके पुण्योदयसे प्रेरित होकर वहाँ से विहार किया । अन्तमें वे पौष शुक्ला पंचमीके दिन मोक्षपदको प्राप्त हुए । राजा धात्रिवाहन आदिकोंमेंसे कितने ही मुक्तिको प्राप्त हुए और कितने ही सौधर्म कल्पको आदि लेकर सर्वार्थसिद्धि तक गये । आर्यिकाओंमेंसे कुछ तो सौधर्म स्वर्गसे लेकर अच्युत स्वर्ग पर्यन्त जाकर देव हो गई और कुछ देवियाँ हुई । इस प्रकार जब ग्वालाने भी उक्त मंत्रवाक्यके प्रभावसे ऐसी अपूर्व सम्पत्तिको प्राप्त कर लिया है तब अन्य विवेकी मनुष्य क्या न प्राप्त करेंगे ? उन्हें तो सब ही प्रकारकी इष्टसिद्धि प्राप्त होनेवाली है ॥८॥
जो भव्य जीव मोक्षपदको प्रदान करनेवाले इस उत्तम अष्टक ( आठ कथाओंके प्रकरण) को पढ़ता है वह सौधर्मादि कल्पोंके निर्मल अभीष्ट सुखको भोगता है। तत्पश्चात् वह वहाँसे च्युत होकर उत्तम कुलमें मनुष्य पर्यायको प्राप्त होता हुआ उत्तम चक्रवर्तीके वैभवको भोगता है और फिर अन्तमें अविनश्वर व अनुपम मोक्ष सुखको प्राप्त करता है ॥२॥ इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक __ ग्रन्थमें पंचनमस्कारमंत्रके फलका वर्णन करनेवाला अष्टक समाप्त हुआ ॥२॥
१.फन्त:कृत्केवली ब ०न्तकृतकेवली । २. श धातिवाहनादव्यं । ३. ब प्रतिपाठोऽयम् । पफश सौधर्मसर्वार्थसिद्धि। ४. फ श अजिका ब अयिका । ५. ब 'केचिद्देवा' नास्ति । ६. फद्योग्यं श द्योग्रय।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-१, १८: [१८] श्रीसौभाग्यपदं विशुद्धिगुणकं दुःखार्णवोत्तारकं सार्वज्ञं बुधगोचरं सुसुखदं प्राप्यामलं भाषितम् । कान्तारे गुणवर्जितोऽपि हरिणो वालीह जातस्ततो
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥१॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे किष्किन्धपुरे कपिध्वजवंशोद्भवविद्याधराणां मुख्यो राजा वालिदेवः। स चैकदा महामुनिमालोभ्य धर्मश्रुतेरनन्तरं 'जिनमुनि जैनोपासकं च विहायान्यस्मै नमो न करोमि' इति गृहीतव्रतः सुखेनास्थात् । इतो लङ्कायां रावणस्तत्प्रतिज्ञामवधार्यामन्यत 'मम नमस्कार' कर्तुमनिच्छन् गृहीतप्रतिज्ञः' इति । ततस्तत्र सप्राभृतं विशिष्टं प्रस्थापितवान् । स गत्वा वालिदेवं विज्ञप्तवान् जगद्विजयिदशास्येनादिष्टं शृणु। तथाहि- आवयोराम्नायभूताः परस्परं स्नेहेनैवावर्तिषतेति तदाचारस्त्वया पालनीयः । किं च, मया ते पितुः सूर्यस्य शत्रु महाप्रचण्डं यमं निर्घाटय राज्यं दत्तम् । तमुपकारं स्मृत्वा स्वभगिनीं श्रीमालां मह्यं दत्त्वा मां प्रणम्य सुखेन राज्यं कर्तव्यं त्वयेति । श्रुत्वा वालिदेवोऽवो. चत्तदुक्तं सर्वमुचितं, किंतु स्वयमसंयत इति तस्य नमस्कारकरणवचनमयुक्तम् , तद्विहा
___ सर्वज्ञके द्वारा प्ररूपित वस्तुस्वरूप लक्ष्मी व सौभाग्यका स्थानभूत, विशुद्धि गुणसे संयुक्त, दुखरूप समुद्रसे पार उतारनेवाला तथा विद्वानोंका विषय होकर निर्मल व उत्तम सुखको प्रदान करनेवाला है। उसको सुनकर एक गुणहीन जंगली हिरण भी यहाँ बाली हुआ है। इसलिए मैं लोकमें उस सर्वज्ञकथित तत्त्वकी प्राप्ति से जिनदेवका भक्त होकर उत्तम चारित्रको धारण करता हुआ धन्य होता हूँ ॥१॥
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर किष्किन्धापुरमें वानर वंशमें उत्पन्न हुए विद्याधरोंका मुख्य राजा वालिदेव राज्य करता था। एक दिन उसने किसी महामुनिका दर्शन करके उनसे धर्मश्रवण किया। तत्पश्चात् उसने उक्त मुनिराजके समक्ष यह प्रतिज्ञा की कि मैं दिगम्बर मुनि और जैन श्रावकको छोड़कर अन्य किसीके लिए भी नमस्कार नहीं करूंगा। वह इस प्रतिज्ञाके साथ सुखपूर्वक राज्य कर रहा था। इधर लंकामें रावणको जब यह ज्ञात हुआ कि वालि मुझे नमस्कार नहीं करना चाहता है तथा उसने इसके लिए प्रतिज्ञा ले रक्खी है, तब उसने वालिके पास भेटके साथ एक दूतको भेजा। दृतने जाकर वालिदेवसे निवेदन किया कि जगद्विजयी रावणने जो आपके लिए आदेश दिया है उसे सुनिए.- हम दोनोंमें परस्पर जो वंशपरम्परासे स्नेहपूर्ण व्यवहार चला आ रहा है उसका तुम्हें पालन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त मैंने तुम्हारे पिता सूर्य ( सूर्यरज ) के अतिशय पराक्रमी शत्रु यमको भगाकर उसे राज्य दिया था । उस उपकारके लिए कृतज्ञ होकर तुम अपनी बहिन श्रीमालाको मेरे लिए दो और मुझे नमस्कार करके सुखपूर्वक राज्य करो। यह सुनकर वालिदेवने कहा कि तुम्हारे स्वामीने जो कुछ कहा है वह सब ठीक है । किन्तु वह स्वयं व्रतहीन है, अतएव उसके लिए इस प्रकार नमस्कार करनेका
१. फमवधार्य अन्यतमं नमस्कार, शमवधार्यमन्यतमं नमस्कारं । २. शतत्र प्राभतं । ३. श तथाहि रावयो । ४. फ नव विवतिषते। इति, पश नव विवतिषते इति । ५. फ त्वदुक्तं । ६. फ' किन्तु' नास्ति।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-१, १८]
३. श्रुतोपयोगफलम् . यान्यत् सर्वे करोमीत्युक्ते दूतोऽवदन्नमस्कार एव कर्तव्योऽन्यथा विरूपकं ते स्यात् । वालिनोक्तं यद् भवति तद् भवतु, याहीति विसर्जितः सः। ततो दशमुखः सर्वमवधार्य सकलसैन्येनागत्य किष्किन्धाद्वहिरस्थात् । वाली स्वमन्त्रिवचनमुल्लच्य स्वबलेन निर्जगाम अभ्यर्णयोः सेनयोरुभयमन्त्रिभिमन्त्रो दृष्टोऽनयोर्मध्ये एकः प्रतिवासुदेवोऽन्यश्चरमाङ्गस्ततोऽनयो रणे मृत्युर्नास्ति बलं त्वावर्तेत ततो द्वावेव युद्धं कुरुतामिति । तावभ्युपगमयांचक्रतुः । ततस्तयोमहत् युद्धं बभूव । बृहद्वेलायां वाली दशकन्धरं बबन्ध मुमोच च । तमितव्यं विधाय स्वभ्रात्रे सुग्रीवाय राज्यं वितीर्य तं दशास्यस्य परिसमj'दीक्षितः।
सकलागमधर एकविहारी च भूत्वा कैलासे प्रतिमायोगं दधौ । तदा रत्नावलीनामकन्याविवाहनिमित्तं गच्छतो दशास्यस्य तस्योपरि स्खलितं विमानम् । किमित्यवलोकनार्थ भूमाववतीर्य तमपश्यत् । अवबुध्य तं चानेन कोपेन स्खलितमिति ततः क्रुध्वा नगेन सार्धममुमुत्थाप्य समुद्र निक्षिपामीति भूम्यां विवेश'। स्वशक्त्या विद्याभिश्च नगमुद्दधे दशास्यः।
आदेश देना योग्य नहीं है । मैं नमस्कारके अतिरिक्त अन्य सब कुछ करनेको उद्यत हूँ। यह सुनकर दूत बोला- आपको रावण के लिए नमस्कार करना ही चाहिए, अन्यथा आपका अनिष्ट होना अनिवार्य है । तब वालिने कहा कि जो कुछ भी होना होगा हो, तुम जाओ; यह कहकर उसने दूतको वापिस कर दिया । दूतसे इस सब समाचारको सुनकर रावण समस्त सेनाके साथ आया और किष्किन्धापुरके बाहर ठहर गया । उधर वालि मंत्रियोंकी सलाहको न मानकर अपनी सेनाके साथ युद्धके लिए निकल पड़ा। दोनों ओरकी सेनाओंके एक दूसरेके अभिमुख होनेपर उनके मंत्रियोंने विचार किया कि इन दोनोंमें एक तो प्रतिनारायण है और दूसरा चरमशरीरी है, अतएव इनमें से युद्धमें किसीका भी मरण सम्भव नहीं है; परन्तु सेनाका नाश अवश्य होगा। इसीलिए उन दोनोंको ही परस्परमें युद्ध करना चाहिए । इस बातको उन दोनोंने भी स्वीकार कर लिया। तदनुसार उन दोनोंके बीच घोर युद्ध हुआ। इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर वालिने रावणको बाँध लिया और तत्पश्चात् उसे छोड़ भी दिया । फिर वालिने उससे क्षमा-याचना करके अपने भाई सुग्रीवको राज्य देकर उसे रावणके लिए समर्पित कर दिया और स्वयं दीक्षित हो गया ।
तत्पश्चात् वह समस्त आगमका पारगामी होकर एकविहारी हो गया। एक दिन वह कैलाश पर्वतके ऊपर प्रतिमायोगको धारण करके समाधिस्थ था। उस समय रावण रत्नावली नामकी कन्याके साथ विवाह करनेके लिए विमानसे जा रहा था। उसका विमान वालि मुनिके ऊपर आकर रुक गया। तब विमान रुकनेके कारणको ज्ञात करनेके लिए वह नीचे पृथिवीपर उतरा । उसे वहाँ वालि मुनि दिखायी दिये। उसने समझा कि इसने ही क्रोधसे मेरे विमानको रोक दिया है। इससे उसे बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। तब वह उसे पर्वतके साथ उठाकर समुद्र में फेंक देनेके विचारसे पृथ्वीके भीतर प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार रावण अपनी शक्तिसे और विद्याओंके बलपर उस पर्वतके उठाने में उद्यत हो गया। उस समय वालि मुनिको कायबल
१. फ वालि । २. ५ श युद्धे । ३. फ वालि ब वली। ४. ५ ब श स्वभ्रातुः । ५. ब दशास्य समय श दशास्य परिसमय । ६. ब'च' नास्ति । ७. श गच्छसतो दशास्य तस्योपरि। ८. व अवघ्यवानेन । ९. प श क्रुद्धा । १०. प श मुच्चाप्य ब मुच्चार्य । ११. ब विवेश्य ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-१, १८ : कायबलद्धि प्राप्तो वालिमुनिस्तत्रत्यचैत्यालयव्यामोहेन वामपादाङ्गुष्ठशक्त्याधो न्यक्षिपत् । तदभराकान्तो निर्गन्तुमशक्तः आरटद्दशास्यः। तदध्वनिमाकर्ण्य विमानास्थितमन्दोदर्यादितदन्तःपुरमागत्य मुनि पुरुषभिक्षां ययाचे । तदा मुनिरङ्गुष्ठसंगं शिथिलीचकार' । ततो निर्गतः सः । मुनेस्तपःप्रभावेनासनकम्पाद्देवा आगत्य पञ्चाश्चर्याणि कृत्वा तं प्रणेमुः । रौतीति रावणः इति दशास्यं रावणाभिधं चक्रुः । स्वर्लोकं जग्मुः । रावणोऽतिनिःशल्यो भूत्वा गतः । मुनिरपि केवली भूत्वा विहृत्य मोक्षमगमदिति।
___ इत्थंभूतो वाली केन पुण्येन जात इति चेद्विभीषणेन सकलभूषणः केवली पृष्टो वालिदेवपुण्यातिशयमचीकथत् । तथाहि- अत्रैवार्यखण्डे वृन्दारण्ये एको हरिणस्तत्रत्यतपोधनागमपरिपाटि प्रतिदिनं शृणोति । तजनितपुण्येनायुरन्ते मृत्वा अत्रैव ऐरावतक्षेत्रेऽश्वत्थपुरे वैश्यविरहितशीलवत्योरपत्यं मेघरत्ननामा जातोऽणुव्रतेनैशानं गतः। ततोऽवतीर्य पूर्व विदेहे कोकिलाग्रामे वणिक्कान्तशोकरत्नाकिन्योरपत्यं सुप्रभोऽभूत्तपसा सर्वार्थसिद्धिं गतः । ततो वालिदेवोऽभूदिति परमागमशब्दश्रवणमात्रेण हरिणोऽप्येवंविधोऽभूदन्यः किं न स्यादिति ॥१॥ ऋद्धि प्राप्त हो चुकी थी। पर्वतके उठानेसे उसके ऊपर स्थित जिनभवन नष्ट हो सकते हैं, इस विचारसे उन्होंने अपने बायें पैरके अँगूठेकी शक्तिसे पर्वतको नीचे दबाया। उसके भारसे दबकर रावण वहाँसे निकलने के लिए असमर्थ हो गया । तब वह रुदन करने लगा। उसके आक्रन्दनको सुनकर विमानमें स्थित मन्दोदरी आदि अन्तःपुरकी स्त्रियोंने आकर मुनिराजसे पतिभिक्षा माँगी। तब वालि मुनीन्द्रने अपने अंगूठेको शिथिल कर दिया। इस प्रकार वह रावण बाहर निकल सका । मुनिराजके तपके प्रभावसे देवोंके आसन कम्पित हुए। तब उन सबने आकर पंचाश्चर्यपूर्वक मुनिराजको नमस्कार किया। रावण चूँकि कैलासके नीचे दबकर रोने लगा था, अतएव 'रौतीति रावणः' इस निरुक्तिके अनुसार शब्द करनेके कारण उक्त देवोंने उसका रावण नाम प्रसिद्ध किया। तत्पश्चात् वे स्वर्गलोकको वापिस चले गये। फिर रावण भी अतिशय शल्य रहित होकर चला गया। उधर मुनिराजने भी केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर विहार करके मुक्तिको प्राप्त किया ।
वालि किस पुण्यके प्रभावसे ऐसी अलौकिक विभूतिको प्राप्त हुआ, इस प्रकार विभीषणने सकलभूषण केवलीसे प्रश्न किया। इसपर उन्होंने वालिदेवके पुण्यातिशयको इस प्रकार बतलायाइसी आर्यखण्डके भीतर वृन्दावनमें एक हिरण रहता था । वहाँपर स्थित साधु जब आगमका पाठ करते थे तब वह हिरण उसे प्रतिदिन सुना करता था। इससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे वह आयुके अन्तमें मरकर इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रके भीतर अश्वत्थपुरमें वैश्य विरहित और शीलवतीके मेघरत्न नामका पुत्र हुआ। वह अणुव्रतोंका पालन करके ईशान स्वर्गको प्राप्त हुआ। पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह पूर्व-विदेहके भीतर कोकिला ग्राममें वैश्य कान्तशोक और रत्नाकिनीके सुप्रभ नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् वह तपके प्रभावसे सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह वालिदेव हुआ है । इस प्रकार परमागमके शब्दोंके सुनने मात्रसे जब एक हिरण पशु भी ऐसी समृद्धिको प्राप्त हुआ है तब दूसरा विवेकी जीव क्या न होगा ? वह तो सब प्रकारकी ही समृद्धिको प्राप्त कर सकता है ॥१॥.
१. ब शिथिलं चकार । २. श रावणो इतिौं । ३. फ वालि । ४. श आयुरन्तेन । ५. फ स्वच्छपुरे प शश्वस्थपुरे । ६. श मेघरभनामा ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
: ३-२, १९]
३. श्रुतोपयोगफलम् २
[१६] पद्मावासतटे विशुद्धलतिके नानाद्रुमैः शोभिते हंसो बोधविवर्जितोऽपि समुदं श्रुत्वा मुमुक्षुदितम् । जातः पुण्यसुदेहको हि सुगुणः ख्यातः प्रभामण्डलो
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥२॥ अस्य कथा-अत्रैवार्यखण्डे मिथिलानगर्या राजा जनको देवी विदेही। तस्या गर्भसंभूतौ युगलमुत्पन्नम् । तत्र कुमारो धूमप्रभासुरेण मारणार्थ नीयमानेन[मानो] तन्मुखावलोकनेन प्राप्तदयेन स्वकुण्डलौ तत्कर्णयोनिक्षिप्य पर्णलघुविद्यायाः समर्पितो यत्रायं वर्धते तत्रा, निक्षिपेति । सा तं कृष्णरात्री गगने यावन्नयति तावद्विजयार्धदक्षिणश्रेणिस्थरथनूपुरपुरेशेन्दुगतिना कुण्डलप्रभया दृष्टः । तदनु तेन हस्तौ प्रसारितौ । देवी तद्धस्ते तं निक्षिप्य गता । तेन स बालः स्ववल्लभापुष्पवत्यास्ते पुत्रोऽयमिति समर्पितस्तत्पुत्रोऽयमिति सर्वत्र घोषणा च कृता । स तत्र प्रभामण्डलाभिधानेन वृद्धि जगाम । सर्वकलाकुशलो युवा चासीत् ।
इतस्तत्पितरौ तद्वियोगातिदुःखं चक्रतुः। बुधसंबोधितौ तनुजायाः सीतेति नाम
उत्तम लताओंसे सहित व अनेक वृक्षोंसे सुशोभित किसी तालाब के किनारेपर रहनेवाला एक हंस अज्ञान होकर भी मुमुक्षु मुनिके द्वारा उच्चारित आगमवचनको सहर्ष सुनकर उत्तम शरीरसे सुशोभित एवं श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न प्रसिद्ध प्रभामण्डल (भामण्डल) हुआ। इसीलिए जिनदेवका भक्त मैं इस पृथिवीतलके ऊपर उक्त जिनवाणीकी प्राप्तिसे चारित्रको धारण करके कृतार्थ होता हूँ ॥२॥
इसकी कथा- इसी आर्यखण्डके भीतर मिथिला नामकी नगरीमें राजा जनक राज्य करता था । रानीका नाम विदेही था । विदेहीके गर्भ रहनेपर उससे बालक और बालिकाका एक युगल उत्पन्न हुआ। इनमेंसे कुमारको धूमप्रभ नामका असुर मार डालनेके विचारसे उठा ले गया । मार्गमें जब वह उस बालकको ले जा रहा था तब उसे उसका मुख देखकर दया आ गई। इससे उसने उसके कानों में अपने कुण्डलोंको पहिना करके पर्णलघु विद्याको समर्पित करते हुए उसे आज्ञा दी कि जहाँपर यह वृद्धिंगत हो सके वहाँपर ले जाकर इसे रख आ। तदनुसार वह कृष्ण पक्षकी अँधेरी रातमें उसे आकाशमार्गसे ले जा रही थी। तब उसे कुण्डलोंकी कान्तिसे इन्दुगति विद्याधरने देख लिया । यह विद्याधर विजयाध पर्वतकी दक्षिणश्रेणिमें स्थित रथन पुरका स्वामी था । बालकको देखकर उसने अपने दोनों हाथोंको फैला दिया। तब देवी उसे उसके हाथों में छोड़कर चली गई। इन्दुगतिने उसे ले जाकर अपनी प्रिय पत्नी पुष्पावतीको देते हुए उससे कहा कि लो यह तुम्हारा पुत्र है। रानीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, ऐसी उसने सर्वत्र घोषणा भी करा दी । वह वहाँ प्रभामण्डल इस नामसे प्रसिद्ध होकर वृद्धिंगत हुआ। वह कालान्तरमें समस्त कलाओं में कुशल होकर युवावस्थाको प्राप्त हो गया ।
इधर मिथिलामें उसके माता-पिता उसके वियोगसे अतिशय दुखी हुए। उन्होंने विद्वानोंसे प्रबोधित होकर जिस किसी प्रकारसे उस शोकको छोड़ा । फिर वे पुत्रीका सीता यह नाम
१. श विशुद्ध तिलके । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सुदेहिको। ३. फश प्राप्तोदयेन । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श पुष्पावत्यास्ते । ५..प बुद्ध ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
१००
पुण्यामवकथाकोश
[ ३–२, १६ :
विधाय सुखेनासतुः । सापि वृद्धिं गता । एकदा जनकः स्वदेशबाधा कारितरङ्गतमाख्यभिल्लस्योपरि गच्छन्नयोध्यापुरेशस्वमित्रदशरथस्य लिखितमस्थापयत् । तदर्थमवधार्य दशरथस्तस्य साहाय्यं कर्तुं गमनार्थ प्रयाणभेरीनादं कारयति स्म । तमाकर्ण्य तन्नन्दनौ रामलक्ष्मणौ तं निवार्य स्वयं जग्मतुर्जनकस्य मिमिलतुः । तत्पूर्वमेव जनकस्तेन युयुधे । तद्भ्रातरं कनकं भिल्लो बबन्ध" । तत् श्रुत्वा रामस्तेन युद्धवांस्तं बबन्ध जनकस्य भृत्यं चकार कनकममूमुचश्च तथा तेन पूर्वधृतक्षत्रियानपि । जनकेन रामप्रतापं दृष्ट्वा सीता तुभ्यं दातव्येत्युक्त्वा प्रस्थापितौ । सीतारूपावलोकनार्थमागतस्य नारदस्य विलासिनीभिर्दशार्धे दत्ते' कुपित्वा गतः कैलासे । तद्रूपं पटे लिखित्वा रथनूपुरचक्रवालपुरं गतः । उद्याने प्रभामण्डलक्रीडाभवनसमीपवृक्षशाखायामवलम्ब्य तिरोभूत्वा स्थितः । प्रभामण्डलोऽपि तद् दृष्ट्वा मूच्छितः । इन्दुगतिना श्रागत्य केनेदमानीतमित्युक्ते नारदेनोक्तं भद्रं भवतु युष्माकम् मयानीतं युवराजयोग्येयमिति सर्वं कथयित्वा गतो नारदः । 'कथं सा प्राप्यते' इति विद्याधरेशेन मन्त्रालोचने क्रियमाणे चपलगतिनोक्तं मयात्र स श्रानीयते, रखकर सुखपूर्वक स्थित हुए। वह पुत्री भी क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुई । एक समयकी बात है। कि तरङ्गतम नामका एक भील राजा जनकके देशमें आकर प्रजाको पीड़ित करने लगा था । तब जनक ने उसके ऊपर आक्रमण करनेके विचारसे अपने मित्र अयोध्यापुरके स्वामी राजा दशरथके पास पत्र भेजा । पत्रके अभिप्रायको जानकर राजा दशरथ जनककी सहायतार्थ वहाँ जानेको उद्यत हो गया । इसके लिए उसने प्रयाणभेरी करा दी । भेरीके शब्दको सुनकर दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण पिताको रोककर स्वयं गये व जनकसे मिले । उनके पहुँचने के पूर्व ही जनकने उक्त भील के साथ युद्ध प्रारम्भ कर दिया था। इस युद्धमें भीलने जनकके भाई कनकको बाँध लिया था । इस बातको सुनकर रामने भीलके साथ युद्ध करके उसे बाँध लिया और राजा जनकका सेवक बना दिया । रामने कनकको भी बन्धनमुक्त करा दिया । उसी प्रकारसे उसने पूर्व में उक्त भीलके द्वारा पकड़े गये अन्य राजाओं को भी बधनमुक्त करा दिया। रामके प्रतापको देखकर राजा जनकको बहुत सन्तोष हुआ । तब उसने 'मैं तुम्हारे साथ सीताका विवाह करूँगा' कहकर उन दोनोंको अयोध्या वापिस भेज दिया ।
,
एक दिन नारद सीताके रूपको देखनेके लिए आये थे । उनको विलासिनियों (द्वारपाल स्त्रियों) ने भीतर जानेसे रोक दिया। इससे क्रुद्ध होकर वे कैलास पर्वत के ऊपर चले गये । वहाँ उन्होंने चित्रपटपर सीताके रूपको अङ्कित किया । उसको लेकर वे रथनूपुर- चक्रवालपुर में गये । वहाँ जाकर वे उद्यानके भीतर प्रभामण्डलके क्रीडागृहके समीपमें एक वृक्षकी शाखा के सहारे छुपकर स्थित हो गये । प्रभामण्डलने जैसे ही उस चित्रको देखा वैसे ही वह मूर्छित हो गया । तब इन्दुगतिने वहाँ आकर पूछा कि इस चित्रको यहाँ कौन लाया है ? यह सुनकर नारदने उसे 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा आशीर्वाद देकर कहा कि इसे मैं लाया हूँ । यह बाला युवराजके योग्य है । यह सब कहकर नारद वापिस चले गये । तत्पश्चात् इन्दुगति उस कन्याकी प्राप्तिकं विषयमें विचार करने लगा । तब चपलगति नामक सेवकने कहा कि आप मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजा जनकको यहाँ ले आता हूँ । इस
१. फश सुखेनास्थात् । २. श लिखत । ३. ब स्यामीमिलतुः । ४ प भिल्लेन बंध फ भिल्लेन बबंध: श भिल्लेन बन्धः । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श दशार्धदत्ते । ६. ब तं दृष्ट्वा ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-२, १६]
३. श्रुतोपयोगफलम् २ लब्धादेशोऽश्वरूपेण गतः । जनकेन बद्धः। तदा भिल्लैकेनागत्य अस्मिन् स्थले हस्ती तिष्ठतीति विज्ञप्ते राजा धर्तुं गतः, तद्भयात्तं चटितः। तेनापि सिद्धकूटे संस्थाप्य स्वस्वामिने आनीत इति निरूपिते वियच्चरपतिनापि स्वगृहमानीय प्राघूर्णकक्रियानन्तरं सीता याचिता। जनकेनोक्तं रामाय दत्तेति । किं तेन भूमिगोचरेणेति निन्दिते जनकेनोक्तं किं विद्याधरैः पक्षिभिरिव खे संचरद्भिस्तीर्थकरादयो भूगोचरा एव । विद्याधरेशेनोक्तं वज्रावर्तसागरावर्तधनुषी अध्यारोपिते चेत्तस्मै दातव्येति । प्रतिपन्नं जनकेन । विद्याधरेशमहत्तरचन्द्रवर्धनोऽपि ते गृहीत्वा गतः । वृत्तान्तं श्रुत्वा विदेह्यादिभिर्दुःखं कृतम् । स्वयंवरभूमौ धनुषोः स्फटाटोपमालोक्य भीति गते क्षत्रियसमूहे रामेण वज्रावर्त लक्ष्मणेन द्वितीयमध्यारोपितम् । तत्सामर्थ्यदर्शनात् दृष्टश्चन्द्रवर्धनः स्वपुत्रीरष्टौ लक्ष्मीधराय दास्यामीत्युक्त्वा गतः । रामादयः स्वपुरं गताः ।
ततो धनुषोर्गमनं रामसीतयोविवाहं चाकर्ण्य सहस्राक्षौहिणीबलेन युद्धार्थमागच्छन् प्रकारसे आज्ञा पाकर वह घोड़े के रूपमें वहाँ चला गया। उसे जनकने बाँधकर रख लिया । उस समय एक भीलने आकर जनकसे निवेदन किया कि अमुक स्थानमें हाथी स्थित है। तब राजा उसे पकड़नेके लिये गया। वह हाथीके भयसे उपर्युक्त घोड़ेके ऊपर सवार हुआ। घोड़ा भी उसे लेकर आकाशमें उड़ गया। उसने जनकको सिद्धकूटके ऊपर छोड़कर उसके ले आनेकी वार्ता अपने स्वामीसे कह दी। तब वह विद्याधरोंका स्वामी चन्द्रगति भी जनकको अपने घरपर ले आया। वहाँ उसने जनकका यथायोग्य अतिथि-सत्कार करके तत्पश्चात् उससे सीताकी याचना की। उत्तरमें राजा जनकने कहा कि वह रामके लिए दी जा चुकी है। यह सुनकर चन्द्रगति बोला कि वह तो भूमिगोचरी है, उससे क्या अभीष्ट सिद्ध हो सकता है। इस प्रकार चन्द्रगतिके द्वारा की गई भूमिगोचरियोंकी निन्दाको सुनकर जनकने कहा- विद्याधर कौन-से महान् हैं, उनमें
और आकाशमें संचार करनेवाले पक्षियोंमें कोई विशेषता नहीं है। क्या आपको यह ज्ञात नहीं है कि तीर्थंकर आदि सब शलाकापुरुष भूमिगोचरी ही होते हैं ? इसपर विद्याधरोंके स्वामी चन्द्रगतिने कहा कि अधिक प्रशंसा करनेसे कुछ लाभ नहीं है, यहाँपर जो ये वज्रावर्त और सागरावर्त धनुष हैं उन्हें यदि वह राम चढ़ा देता है तो उसके लिये सीताको दे देना। इस बातको जनकने स्वीकार कर लिया। तब चन्द्रगतिका महत्तर ( सेवक ) चन्द्रवर्धन उन दोनों धनुषोंको लेकर जनकके साथ मिथिलापुर गया । इस वृत्तान्तको सुनकर विदेही आदिकों को बहुत दुख हुआ । स्वयंवरभूमिमें उन दोनों धनुषोंके घटाटोपको देखकर क्षत्रियों का समूह भयभीत हुआ। परन्तु इस स्वयंवरमें आये हुए उन राजाओंके समूहमें रामने वज्रावर्त धनुषको तथा लक्ष्मणने दूसरे सागरावर्त धनुषको चढ़ा दिया। उनकी असाधारण शक्तिको देखकर चन्द्रवर्धनको बहुत सन्तोष हुआ। तब वह मैं लक्ष्मणके लिये अपनी आठ पुत्रियाँ दूंगा, यह कहकर विजयार्धपर वापिस चला गया। राम आदि भी अपने नगरको वापिस चले गये ।
तत्पश्चात् जब प्रभामण्डलको दोनों धनुषोंके जाने एवं राम-सीताके विवाहका समाचार ज्ञात हुआ तब वह एक हजार अक्षौहिणी प्रमाण सेनाके साथ युद्धके लिये चल पड़ा। इस प्रकार
१. प मया वशो नीयते लब्धादेशे श मयात्र स नीयते लब्धादेशो ब मया सात्रानीयते लब्धादेशो। २. फ श महत्तरं। ३. ब स्फुटाटोप । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श भीति जगाम क्षत्रियसमहे ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-२, १६ : प्रभामण्डलो विदग्धनगरं दृष्ट्वा जातिस्मरो बभूव । व्याघुटय गत्वा स्वभगिनीति निरूपितवान् । इन्दुगतिस्तस्मै राज्यं दत्त्वा सर्वभूतहितशरण्य-भट्टारकसमीपे प्रवजितः । गुरुर्बहुसंघनायोध्यापुरोद्याने दशरथेन सह बन्धुभिरागत्य वन्दितः । इन्दुगतिं दृष्टानेन किमिति दीक्षितमिति पृष्ठे कारणं निरूपितं मुनिना प्रभामण्डल-सीतासंबन्धः । अत्रान्तरे प्रभामण्डलोऽयं मुनिवचनाद्दशरथ-राम-लक्ष्मणेभ्यो नमस्कृत्वोपविष्टायाः सीतायाः प्रणामः कृतः।
___ तदनु प्रभामण्डलेन स्वस्येन्दुगतिपुष्पवत्योः स्नेहकारणं पृष्टः सीताप्रतिबिम्बदर्शनादासक्तश्च । मुनिः प्राह-दारुणग्रामे विप्रविमुचि-मनस्विन्योः पुत्रोऽतिभूतिर्जातः । तत्र रण्डा ज्वाला, तत्पुत्री सरसा परिणीता तेन । पितापुत्रौ दानार्थमाटतुः। सरसा जारेण कयेन गता । उभाभ्यां पथि मुनिराक्रुष्टः तत्पापेन तिर्यग्गतौ बभ्रमतुः । क्वचित्सरसा चन्द्रपुरेशचन्द्रध्वजमनस्विन्योः पुत्री चित्रोत्सवा जाता। कयोऽपि तत्प्रधानधूमकेशिस्वाहयोः पुत्रः कपिलोऽभूत् । सोऽपि चित्रोत्सवां नीत्वा विदग्धनगरे स्थितः । दानं गृहीत्वाऽऽगत्य विभूतिना
युद्धार्थ आते हुए उसे मार्गमें विदग्ध नगरको देखकर जातिस्मरण हो गया। तब उसने वहाँसे वापिस लौटकर यह प्रगट कर दिया कि जिसके विषयमें मुझे अनुराग हुआ था वह मेरी बहिन है। यह सब मेरी अज्ञानताके कारण हुआ है। इस घटनासे इन्दुगतिको वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने प्रभामण्डलके लिये राज्य देकर सर्वभूतहितशरण्य भट्टारकके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। सर्वभूतहितशरण्य भट्टारक विहार करते हुए बहुत-से संघके साथ अयोध्यापुरीके उद्यानमें पहुँचे। तब राजा दशरथने परिवारके साथ जाकर उनकी वंदना की। तत्पश्चात् दशरथने उनके संघमें इन्दुगतिको देखकर मुनिराजसे उसके दीक्षित होनेका कारण पूछा। उन्होंने उसकी दीक्षाका कारण प्रभामण्डल और सीताका सम्बन्ध बतलाया। इस बीचमें उस प्रभामण्डलने मुनिके वचनसे राजा दशरथ, राम और लक्ष्मणको नमस्कार करके पासमें बैठी हुई सीताको प्रणाम किया ।
तत्पश्चात् प्रभामण्डलने मुनिराजसे इन्दुगति और पुष्पवतीके प्रति अपने अनुराग तथा सीताके चित्रको देखकर उसके प्रति आसक्त होने का भी कारण पूछा । मुनि बोले- दारुण ग्राममें ब्राह्मण विमुचि और मनस्विनीके एक अतिभूति नामका पुत्र था। उसी नगरमें एक ज्वाला रांड़ ( वेश्या ) थी। इसके एक सरसा नामकी पुत्री थी। उसके साथ अतिभूतिने अपना विवाह किया था। एक दिन पिता और पुत्र दोनों भिक्षाके निमित्त गये थे। इस बीचमें सरसा कय नामक जारके साथ निकल गई। उन दोनोंने मार्गमें किसी मुनिकी निन्दा की। उससे उत्पन्न पापके कारण वे दोनों तियेचगतिमें घूमे । फिर वह सरसा कहीं नन्द्रपुरके स्वामी चन्द्रध्वज और मनस्विनीके चित्रोत्सवा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। वह कय जार भी उक्त राजाके मंत्री धूमकेशी और स्वाहाके कपिल नामका पुत्र हुआ। वह भी चित्रोत्सवाको ले जाकर विदग्ध नगरमें ठहर गया। इधर विभूति ( अतिभूति ) दानको लेकर जब घर वापिस
१. फश प्रवाजितः । २. फ मिति कारणं पृष्टेति निरूपितं श मिति कारणे पृष्टे तिरूपितं । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श पविष्टाया। ४. प प्रणामः कृतं फ श प्रणाम कृतः। ५. श परणीता। ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । प फ श मुनिराकृष्टः । ७. ब चित्तोत्सवा ( एवमग्रेऽपि )। ८. ब भूमकेशि । ९. बगत्यातिविभूतिना ।
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-२, १६ ]
३. श्रुतोपयोगफलम् २
१०३
शोकः कृतः । तदनु पत्नीगतिमें इति निर्गतः । आर्तेन मृत्वा तिर्यग्गतौ भ्रमित्वा एकदा तारास्येसरोवरे हंसो जातः मुनिवचनानि श्रुत्वा किंनरत्वं प्राप्य तस्मादागत्य तन्नगरेशप्रकाशसिंह- प्रियमत्योः कुण्डलमण्डितो भूत्वा राज्ये स्थितः । स कपिलो गतद्रव्यः काष्ठान्यानेतुं गतः । बाह्याल्यर्थ गच्छता कुण्डलमण्डितेन चित्रोत्सवादर्शनादासक्तचेतसा स्वगृहं नीत्वा स्थितम् । कपिलो गृहमागत्य काष्ठभारं निक्षिप्य तामपश्यन् विलपन्नकेन भणितः आर्जिकाभिर्गतेति । भूवलयं परिभ्रभ्य राशा नीतेति ज्ञात्वा पूत्कारं कुर्वन्निर्धाटितो गत्वा मुनिरभूत्तदार्तेन मृत्वा धूमप्रभो जातः । तद्भयात् दम्पतीभ्यामरण्ये नश्यद्भयां मुनिसमीपे श्रावकव्रतानि गृहीतानि । कियत्कालं राज्यानन्तरं मृत्वा प्रभामण्डल- सीते जाते इत्यासक्तिर्जाता । विमुच्यादयः पुत्रपुत्री स्नेहाद्देशान्तरं गताः । संवरनगरोद्याने मुनिं प्रणस्य तपसा देवो देव्यौ च भूत्वा सौधर्मादागत्य देव इन्दुगतिर्जातः मनस्विनी पुष्पवती, ज्वाला विदेही जातेति स्नेहकारणं निशम्य सर्वेऽपि महाविभूत्या पुरं प्रविष्टाः । विद्याधरपवनवेगाज्जनको ज्ञात्वा द्रष्टुं वियदागतो
२
आया तब वह वहाँ स्त्रीको न पाकर शोकाकुल हुआ । तत्पश्चात् वह जो पत्नीकी अवस्था हुई वही मेरी भी अवस्था क्यों न हो, यह सोचकर घर से निकल गया । वह आर्तध्यानके साथ मरकर तिर्यंचगतिमें परिभ्रमण करता हुआ एक बार तारा नामक तालाब के ऊपर हंस हुआ। फिर वह मुनिके वचनों को सुनकर किन्नर हुआ और तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर उक्त नगर ( विदग्ध ) के स्वामी प्रकाशसिंह और प्रियमतीका कुण्डलमण्डित नामका पुत्र होकर राजाके पदपर स्थित हुआ | उधर निर्धन कपिल एक दिन लकड़ियाँ लानेके लिये जंगलमें गया था । इधर कुण्डलमण्डित भ्रमणके लिये बाहर निकला था । मार्गमें जाते हुए वह चित्रोत्सवाको देखकर उसपर मोहित हो गया । इसीलिये वह उसे अपने घरपर ले गया । उधर जब कपिल वापिस आया तब उसने लकड़ियों के बोझको रखकर चित्रोत्सवाको देखा । परन्तु उसे वह वहाँ नहीं दिखी । तब वह उसके लिये अनेक प्रकारसे विलाप करने लगा । इतने में किसी एक मनुष्यने उससे कहा कि वह आर्यिकाओं के साथ गई है । तब वह उसे खोजने के लिये पृथिवीमण्डलपर घूमा, परन्तु वह उसे प्राप्त नहीं हुई । जब उसे यह ज्ञात हुआ कि चित्रोत्सवाको राजा अपने घर ले गया है तब वह दीनतापूर्ण आक्रन्दन करता हुआ वहाँ पहुँचा । किन्तु उसे वहाँसे निकाल दिया गया । तब वह मुनि हो गया । किन्तु उसका आर्तध्यान नहीं छूटा। इस प्रकार वह आर्तध्यानके साथ मरकर धूमप्रभ असुर हुआ । उसके भयसे कुण्डलमण्डित और चित्रोत्सवा दोनों भागकर वनमें पहुँचे । वहाँ उन दोनों ने मुनिके समीपमें श्रावकके व्रतोंको ग्रहण कर लिया । तत्पश्चात् कुछ समय तक राज्य करके वे मरणको प्राप्त होते हुए प्रभामण्डल और सीता हुए हैं । तुम्हारी सीता विषयक आसक्तिका कारण यह रहा है । विमुचि आदि पुत्र-पुत्री के स्नेह से देशान्तरको चले गये। उन सबने संवर नगरके उद्यानमें जाकर मुनिकी वंदना की और उनसे दीक्षा ले ली । इनमें से विमुचि मरकर देव और मनस्विनी तथा ज्वाला मरकर देवियाँ हुईं । फिर सौधर्म स्वर्गसे च्युत होकर वह देव इन्दुगति, देवी पर्यायको प्राप्त हुई मनस्विनी पुष्पवती, तथा ज्वाला विदेही हुई । इस प्रकार मुनिसे पारस्परिक स्नेहके कारणको सुनकर सब ही महाविभूतिके साथ नगर में वापिस गये। उधर पवनवेग विद्याधरसे प्रभामण्डल के वृत्तान्तको जानकर उसे देखनेके लिये जनक भी वहाँ आकाशमार्गसे
१. व ताराक्ष । २. प बाह्यात्पवंकश बाह्यात्पार्थं । ३. पफश स्थितः ।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ३-२, १९ : दशरथादिभिर्विभूत्या पुरं प्रवेशितः। प्राघूर्णक्रियानन्तरं बालक्रीडाद्यनेकविनोदान दर्शयित्वा प्रभामण्डल: पित्रादिभिः स्वपुरं गत्वा कनकाय तद्राज्यं समर्प्य जनकेन सह रथनूपुरचक्रवाले पुरे स्थितः । विद्याधरचक्री सर्वगुणाधारोऽजनि इति मुनिवचनेन हंसोऽप्येवंविधोऽभून्नरः किं न स्यात् ॥२॥
[२०] संसारे खलु कर्मदुःखबहुले नानाशरीरात्मके प्रख्यातोज्ज्वलकीर्तिको यममुनि?रोपसर्गस्य जित् । श्लोकैः खण्डकनामकैरपि विदां किं कथ्यते देहिनां
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥३॥ अस्य कथा--ओष्ट्रविषये धर्मनगरे राजा यमः सर्वशास्त्रज्ञो राज्ञी धनमती पुत्रो गर्दभः पुत्री कोणिका। अन्यासां राज्ञीनां पुत्राणां पञ्च शतानि। मन्त्री दीर्घनामा । निमित्तिना आदेशः कृतो यः कोणिकां परिणेष्यति स सर्वभूमिपतिर्भविष्यति । ततो यमेन कोणिका भूमिगृहे प्रच्छन्ना धृता । प्रतिचारिका निवारिता न कस्यापि कथयन्ति ताम् । एकदा पञ्चशतयतिभिः सहागतस्य सुधर्ममुनेर्वन्दनार्थ जनं गच्छन्तमालोक्य यमो ज्ञानगर्वान्मुनीनां निन्दां कुर्वाणस्त
जा पहुँचा। तब दशरथ आदि बड़ी विभूतिके साथ उसे नगरके भीतर ले आये। उन सबने जनकका खूब अतिथि-सत्कार किया। तत्पश्चात् प्रभामण्डल बाल-क्रीड़ा आदि अनेक विनोदोंको दिखला करके पिता आदिकों के साथ अपने नगरको गया। वह कनकको वहाँका राज्य देकर जनकके साथ रथनू पुर-चक्रवालपुरमें जाकर स्थित हुआ। वह सर्व गुणोंसे सम्पन्न होकर विद्याधरोंका चक्रवर्ती हुआ। इस प्रकार मुनिके वचनोंको सुनकर जब हंस भी ऐसी समृद्धिको प्राप्त हुआ है तब उसे सुनकर मनुष्य क्या न होगा ? वह तो मुक्तिको भी प्राप्त कर सकता है ॥२॥
अनेक जन्म-मरणरूप यह संसार कर्मजनित बहुत दुःखोंसे व्याप्त है । इस भूमण्डलपर जब यम मुनि कुछ खण्डक श्लोकोंसे ही घोर उपसर्गके विजेता होकर निर्मल कीर्तिके प्रसारक हुए हैं तब भला अन्य विद्वान् मनुष्योंके विषयमें क्या कहा जाय ? मैं पृथिवीतलपर उस जिनवाणीकी प्राप्तिसे जिनदेवका भक्त होकर सम्यक्चारित्रको धारण करता हुआ कृतार्थ होता हूँ ॥३॥
इसकी कथा- ओष्ट्र ( उष्ट्र ) देशके अन्तर्गत धर्मनगरमें यम नामका राजा राज्य करता था। वह समस्त शास्त्रोंका ज्ञाता था। उसकी पत्नीका नाम धनमती था। इनके गर्दभ नामका एक पुत्र तथा कोणिका नामकी पुत्री थी। उसके पाँच सौ पुत्र और भी थे जो अन्य रानियोंसे उत्पन्न हुए थे। उक्त राजाके दीर्घ नामका मंत्री था। किसी ज्योतिषीने राजाको यह सूचना दी थी कि जो कोई इस कोणिकाके साथ विवाह करेगा वह समस्त पृथिवीका स्वामी होगा । इसीलिये उसने कोणिकाको तलगृहके भीतर गुप्तरूपसे रख रक्खा था। उसने परिचयां करनेवाली सब स्त्रियोंको वैसी सूचना भी कर दी थी। इसीलिये वे कभी किसीसे कोणिकाकी बातको नहीं कहती थीं । एक दिन वहाँ पाँच सौ मुनियोंके साथ सुधर्म मुनि आये । उनकी वंदनाके निमित्त जाते हुए जनसमूहको देखकर यम राजाके हृदयमें अभिमानका प्रादुर्भाव हुआ। मुनियोंकी निन्दा करता
१. फ प्राणिकक्रिया ब प्राघूर्णकक्रिया । २. प श विनोदात् ।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
: ३-३, २०]
३. श्रुतोपयोगफलम् ३ समीपं गतः । मुनेनिनिन्दाकरणात् तत्क्षणादेव बुद्धिनाशस्तस्य जातः । ततो निर्मदो मुनीन् प्रणम्य धर्ममाकर्ण्य गर्दभाय राज्यं दत्त्वा पञ्चशतपुत्रैः सह मुनिरभूत् । पुत्राः सर्वे श्रुतधरा जाताः । यममुनेस्तु पञ्चनमस्कारमात्रमपि नायाति । गुरुणा गर्हितो लजितो गुरुं पृष्ठा तीर्थवन्दनार्थमेकाकी गतः। तत्र यवक्षेत्रमध्ये गर्दभरथेन गच्छत एकपुरुषस्य गर्दभा यव. भक्षणार्थ रथं नयन्ति पुननिक्षिपन्ति । तानित्थमवलोक्य यममुनिना खण्डश्लोकः कृतः
कसि पुण णिक्खेवसि रे गद्दहा जवं पत्थेसि खादितुं ॥१॥ अन्यदा तस्य मार्गे गच्छतो लोकपुत्राणां क्रीडतां अष्टकोणिका बिले पतिता। ते तामपश्यन्त इतस्ततो धावन्ति । यममुनिना तामवलोक्य खण्डश्लोकः कृतः
अण्णत्थ किं पलोवह तुम्हे एत्थम्मि निबुड्डिया छिद्दे अच्छइ कोणिश्रा ॥२॥
अथ एकदा मण्डूकं भोतं पमिनीपत्रतिरोहितसाभिमुखं गच्छन्तमालोक्य खण्ड. श्लोकः कृतः
अम्हादो नत्थि भयं दोहादो दीसदे भयं तुझ ॥३॥
हुआ उनके समीपमें गया। मुनियोंके ज्ञानकी निन्दा करनेके कारण उसकी बुद्धि उसी समय नष्ट हो गई। तब अभिमानसे रहित हुए उसने मुनियोंको प्रणाम करके उनसे धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् वह गर्दभ पुत्रको राज्य देकर अन्य पाँच सौ पुत्रोंके साथ मुनि हो गया। उसके वे सब पुत्र आगमके पारगामी हो गये। परन्तु यम मुनिको पंचनमस्कार मन्त्र मात्र भी नहीं आता था। इसके लिये गुरुने उसकी निन्दा की। तब वह लजित होता हुआ गुरुसे पूछकर तीर्थोकी वंदना करनेके लिये अकेला चला गया। मार्गमें उसने एक जौके खेतमें गधोंके रथसे जाते हुए एक मनुष्यको देखा। उसके गधा जौके खाने के लिये रथको ले जाते थे और फिर छोड़ देते थे। उनको ऐसा करते हुए देखकर यम मुनिने यह खण्डश्लोक रचा
कडसि पुण णिक्खेवसि रे गदहा जवं पत्थेसि खादिदं ॥१॥
अर्थात् हे गर्दभो ! तुम रथको खींचते हो और फिर रुक जाते हो, इससे ज्ञात होता है कि तुम जौके खानेकी प्रार्थना करते हो ।
दूसरे समय मार्गमें जाते हुए उसने लोगोंके खेलते हुए पुत्रोंको देखा। उनकी गिल्ली एक छेदमें जा पड़ी थी। वह उन्हें नहीं दिख रही थी । इसलिये वे इधर उधर दौड़ रहे थे । यम मुनिने उसको देखकर यह खण्डश्लोक बनाया
'अण्णत्थ किं पलोवह तुम्हे एत्थम्मि निबुड्डिया छिद्दे अच्छह कोणिआ ॥२॥'
अर्थात् हे मूर्ख बालको ! तुम अन्यत्र क्यों खोज रहे हो, तुम्हारी गिल्ली इस छेदके भीतर स्थित है।
तत्पश्चात् एक बार उसने एक भयभीत मेंढकको जहाँपर सर्प छुपकर बैठा हुआ था उस कमलिनी पत्रकी ओर जाते हुए देखकर यह खण्डश्लोक बनाया
अम्हादो नत्थि भयं दीहादो दीसदे भयं तुज्झ ॥३॥
१. ब कारणात् । २. ब न याति । ३. फ यवभक्ष्यणार्थ, श यवरक्षणार्थ । ४. ब काष्ठकोणिका। ५.ब पलोवसि । ६. फम्मि बुद्धिया । ७. श पद्मिनीपत्र। ८.बतिरोहितं ।
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०.६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-३, २० एतैत्रिभिः श्लोकैः स्वाध्यायवन्दनादिकं कुर्वन् विहरमाणो धर्मनगरोद्याने कायोत्सर्गेण स्थितः । तमाकर्ण्य दीर्घ-गर्दभौ शङ्कितौ तं मारयितुं रात्रौ गतौ । तत्पृष्ठे स्थितो दीर्घस्तन्मारणार्थ पुनः पुनरसिमाकर्षति । बतिवधशङ्कितत्वान्न हन्ति । तथा गर्दर्भोऽपि । तस्मिन् प्रस्तावे मुनिना स्वाध्यायं गृह्यता प्रथमः खण्डश्लोकः पठितः । तमाकर्य गर्दभेन दीपो भणितो लक्षितौ मुनिना। द्वितीयखण्डश्लोकमाकर्ण्य भणितं गर्दभेन भो दीर्घ, मुनिन राज्यार्थमागतः किंतु कोणिकां कथयितुमागतः। तृतीयखण्डश्लोकमाकर्ण्य गर्दभेन चिन्तितं दुष्टोऽयं दी? मां हन्तुमिच्छति । मुनिः स्नेहान्मम बुद्धिं दातुमागतः। ततो द्वावपि तो मुनिं प्रणम्य धर्ममाकर्ण्य श्रावको जाती। यममुनिरप्यतीव वैराग्यं गतः श्रमणत्वं विशिष्टचारित्रं प्राप्य सप्तर्द्धियुक्तो जातः, मुक्तश्च । एवंविधेनापि श्रुतेन यममुनिरेवंविधोऽभूद्विशिष्टश्रुतेनान्यः किं न स्यादिति ॥ ३ ॥
[२१-२२] मायाकर्णनधीरपीह वचने श्रीसूर्यमित्रो द्विजो
जैनेन्द्रे गुणवर्धने च समदो भूपेन्द्रवन्धः सदा । अर्थात् तुम्हें हमसे भय नहीं है, किन्तु दीर्घसे -लंबे सर्पसे-भय दिखता है।
इन तीन श्लोकोंके द्वारा स्वाध्याय एवं वन्दना आदि कर्मको करनेवाला वह यम मुनि विहार करते हुए धर्म नगरके उद्यानमें आकर कायोत्सर्गसे स्थित हुआ। उसे सुनकर दीर्घ मंत्री
और राजकुमार गर्दभको उससे भय हुआ। इसीलिये वे दोनों रात्रिमें उसके मारनेके लिये गये । दीर्घ मंत्री उसके पीछे स्थित होकर उसे मारनेके लिये बार बार तलवारको खींच रहा था। परन्तु व्रतीके वधसे भयभीत होकर वह उसकी हत्या नहीं कर रहा था । उधर गर्दभकी भी वही अवस्था हो रही थी। इसी समय मुनिने स्वाध्यायको करते हुए उक्त खण्डश्लोकोंमें प्रथम खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उससे यह अभिप्राय निकालकर कि 'हे गर्दभ क्यों बार बार तलवार खींचता है और रखता है' गर्दभने दीर्घसे कहा कि मुनिने हम दोनोंको पहिचान लिया है। तत्पश्चात् मुनिने दूसरे खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उससे यह भाव निकालकर कि 'अन्यत्र क्या देखते हो, कोणिका तो तलघरमें स्थित है' गर्दभ बोला कि हे दीर्घ ! मुनि राज्यके लिये नहीं आये हैं, किन्तु कोणिकासे कुछ कहनेके लिये आये हैं । फिर उसने तीसरे खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उसका यह अभिप्राय निकालकर कि 'तुझे हमसे भय नहीं, किन्तु दीर्घ मंत्रीसे भय है' गर्दभने सोचा कि यह दुष्ट दीर्घ मुझे मारना चाहता है। मुनि स्नेहवश मुझे प्रबुद्ध करनेके लिये आये हैं । इससे वे दोनों ही मुनिको नमस्कार करके और उनसे धर्मश्रवण करके श्रावक हो गये । यम मुनि भी अत्यन्त विरक्त हो जानेसे विशिष्ट चारित्रके साथ यथार्थ मुनिस्वरूपको प्राप्त होकर सात ऋद्धियोंके धारक हुए । अन्तमें उन्होंने मोक्ष पदको भी प्राप्त किया। इस प्रकारके श्रुतसे भी जब यम मुनि सात ऋद्धियों के धारक होकर मुक्तिको प्राप्त हुए हैं तब दूसरा विशिष्ट श्रुतका धारक क्या न होगा ? वह तो अनेकानेक ऋद्धियोंका धारक होकर मुक्त होगा ही ॥३॥
जो अभिमानी सूर्यमित्र ब्राह्मण यहाँ गुणोंको वृद्धिंगत करनेवाले जिनेन्द्रके वचन (आगम ) के सुनने में केवल मायाचारसे ही प्रवृत्त हुआ था वह भी उसके प्रभावसे कर्मसे रहित १. फ लक्षितो। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श भूपेन्द्रवन्धं ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०७
:३-४, २१-२२]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४ जातः ख्यातगुणो विनष्टकलिलो देवः स्वयंभूर्यतो धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥ ४॥ निन्द्या दृष्टिविहीनपूतितनुका चाण्डालपुत्री च सा संजातः सुकुमारकः सुविदितोऽवन्तीषु भोगोदयः । यस्माद्भव्यसुवन्द्यदिव्यमुनिना संभाषितादागमात
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ।। ५ ॥ अनयोः कथे सुकुमारुचरित्रे याते इति तत्कथ्यते । तथाहि- अङ्गदेशे चम्पायां राजा चन्द्रवाहनो देवी लक्ष्मीमती पुरोहितोऽतिरौद्रो मिथ्यादृष्टि गशर्मा भार्या त्रिवेदी पुत्री नागश्रीः । कन्या सा एकदा ब्राह्मणकन्याभिः पुरबाडोद्यानस्य नागालयं नागपूजार्थ ययौ । तत्र द्वौ मुनी सूर्यमित्राचार्याग्निभूतिभट्टारकनामानौ तस्थतुः । तौ विलोक्य नागश्रीरुपशान्तचित्ता ननाम धर्ममाकण्यं व्रतानि जग्राह । गृहमागमनसमये तस्याः सूर्यमित्रोऽवदत्-हे पुत्रि, यदि ते पिता व्रतानि त्याजयति तदा व्रतानि मे समर्पणीयानि इति । एवं करोमोति भणित्वा सा कन्या गृहं जगाम । तत्पिता पूर्वमेव ब्राह्मणकन्याभ्यस्तदवधार्य कुपितः आगतां पुत्रीं बभाण-हे पुत्रि विरूपकं कृतं त्वया, विप्राणां क्षपणकधर्मानुष्ठानमनुचितमिति । होकर प्रसिद्ध गुणोंका धारक स्वयम्भू ( सर्वज्ञ ) हो गया। इसीलिये वह सदा राजाओं व इन्द्रोंका भी वंदनीय हुआ। अतएव मैं जिन देवका भक्त होता हुआ उस आगमकी प्राप्तिसे सम्यकचारित्रको धारण करके इस लोकमें कृतार्थ होता हूँ ॥४॥
जो निकृष्ट चाण्डालकी पुत्री दृष्टिसे रहित ( अन्धी ) और दुर्गन्धमय शरीरसे संयुक्त थी वह भी भव्योंके द्वारा अतिशय वंदनीय ऐसे दिव्य मुनिसे प्ररूपित उस आगमके सुननेसे उज्जयिनी नगरीके भीतर भोगोंके भोक्ता सुप्रसिद्ध सुकुमालके रूपमें उत्पन्न हुई। अतएच मैं जिन देवका भक्त होकर उक्त आगमकी प्राप्तिसे सम्यक्चारित्रसे विभूषित होकर इस पृथिवीके ऊपर कृतार्थ होना चाहता हूँ ॥५॥
___ इन दोनों वृत्तोंकी कथायें सुकुमालचरित्रमें प्राप्त होती हैं। तदनुसार उनकी यहाँ प्ररूपणा की जाती है- अंग देशके भीतर चम्पापुरीमें चन्द्रवाहन राजा राज्य करता था। रानीका नाम लक्ष्मीमती था। उक्त राजाके यहाँ एक नागशर्मा नामका मिथ्यादृष्टि पुरोहित था जो अतिशय रौद्र परिणामोंसे सहित था । नागशर्माकी स्त्रीका नाम त्रिवेदी था । इन दोनोंके एक नागश्री नामकी पुत्री थी। एक दिन वह कन्या ब्राह्मण कन्याओंके साथ नागोंकी पूजा करनेके लिए नगरके बाह्य भागमें स्थित एक नागमन्दिरको गई थी। वहाँ सूर्यमित्र आचार्य और अग्निभूति भट्टारक नामके दो मुनिराज स्थित थे। उन्हें देखकर नागश्रीने निर्मल चित्तसे उन्हें प्रणाम किया । तत्पश्चात् उसने उनसे धर्मको सुनकर व्रतोंको ग्रहण कर लिया। जब वह उनके पाससे घरके लिये वापिस आने लगी तव सूर्यमित्र आचार्यने कहा कि हे पुत्री ! यदि तेरा पिता तुझसे इन व्रतोंको छोड़ देनेके लिये कहे तो तू इन व्रतोंको हमें वापिस दे जाना । उत्तरमें उसने कहा कि ठीक है, मैं ऐसा ही करूँगी। यह कहकर वह अपने घरको चली गई। नागश्रीके आनेके पूर्व ही नागशर्माको ब्राह्मण-कन्याओंसे वह समाचार मिल चुका था। इससे उसका क्रोध भड़क उठा । नागश्रीके घर आनेपर वह उससे बोला कि हे पुत्री ! तूने यह अयोग्य कार्य किया है, ब्राह्मणों के लिये दिगम्बर धर्मका आचरण करना
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जाते ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ ततस्तद्वतानि त्यज । पितुराग्रहात तयोदितम्-हे तात, यतिरभाणीद्यदि ते पिता व्रतानि त्याजयति मे समर्पयेति । ततस्तस्य समागच्छामीति निर्गता, तदा सोऽपि ।
मार्गे कंचन युवानं बद्धंमारयितुं नीयमानम् अभीच्य अवलोक्य [नं वीक्ष्य ] नागश्रीः पितरमपृच्छत्-तात, किमित्ययं बद्ध इति । सोऽवददहं न जानामि कोट्टपालं पृच्छामीति तमपृच्छत् 'किमित्ययं बद्धः' इति । स आह-अत्रैव चम्पायामष्टादशकोटिद्रव्येश्वरो वणिक देवदत्तो भार्या समुद्रदत्ता। तत्पुत्र एक एवायं वसुदत्तनामा अद्याक्षधर्तनामद्यतकारेण द्यूतं क्रीडितवान् दीनारलक्षं हारितवांश्च । तेन स्वद्रव्यम् अत्याग्रहेण याचितम् । अनेन कोपेन छुरिकया स मारित इति मारयितुं नीयत इति निरूपिते नागश्रीरव्रत हिंसायामेवं. विधं दुःखं भवति चेत्तद्विरमणं मया तत्समीपे गृहीतं कथं त्यज्यते । पितावोचत्तिष्ठत्विदमन्यानि समागच्छावश्चलेति ॥१॥
__ ततोऽग्रेऽस्मिन् प्रदेशे कस्यचिदुत्तानस्थितस्य मुखे शूलमाताड्यमानं विलोक्य किमित्येवंविधं दुःखं प्राप्तवान् अयमिति पृच्छति स्म नागश्रीः पितरम् । स कथयति-हे
उचित नहीं है । इसलिये तू ग्रहण किये हुए उन व्रतोंको छोड़ दे। नागश्रीने जब पिताका ऐसा आग्रह देखा तब वह उससे बोली कि हे तात ! उस समय मुनिने मुझसे कहा था कि यदि तेरा पिता इन व्रतोंको छुड़ानेका आग्रह करे तो तू इन्हें हमारे लिये वापिस दे जाना। इसलिये मैं जाकर उन्हें वापिस दे आती हूँ। ऐसा कहकर वह घरसे निकल पड़ी। तब पिता भी उसके साथमें गया।
इसी समय मार्गमें कोतवाल एक युवा पुरुषको बाँधकर मारनेके लिये ले जा रहा था। उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा--हे तात ! इसे किसलिये बाँध रक्खा है ? उत्तरमें नागशर्माने कहा कि मैं नहीं जानता हूँ, चलो कोतवालसे पूर्छ । यह कहकर उसने कोतवालसे पूछा कि इस पुरुषको किसलिये पकड़ा है ? कोतवाल बोला-~-इसी चम्पा नगरीमें एक देवदत्त नामका वैश्य है जो अठारह करोड़ द्रव्यका स्वामी है। उसकी पत्नीका नाम समुद्रदत्ता है। उन दोनोंका यह वसुदत्त नामका इकलौता पुत्र है। आज यह अक्षधूर्त नामक जुवारीके साथ जुआ खेलकर एक लाख दीनारोंको हार गया था । अक्षधूर्तने जब इससे अपने जीते हुए धनको आग्रहके साथ माँगा तब क्रोधित होकर इसने उसे छुरीसे मार डाला । यही कारण है जो यह बाँधकर मारनेके लिये ले जाया जा रहा है। कोतवालके इस उत्तरको सुनकर नागश्रीने पितासे कहा कि यदि हिंसाके कारण इस प्रकारका दुख भोगना पड़ता है तो उसी हिंसाके परित्यागका तो व्रत मैंने मुनिके समीपमें ग्रहण किया है। फिर उसे कैसे छोड़ा जा सकता है ? इसपर नागशर्माने कहा कि अच्छा इसे रहने दो, चलो दूसरे सब व्रतोंको वापिस कर आवें ॥१॥
आगे जानेपर नागश्रीने एक स्थानपर किसी ऐसे पुरुषको देखा जो ऊर्ध्वमुख स्थित होकर मुखके भीतरसे गये हुए शूलसे पीड़ित हो रहा था। उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा कि यह इस प्रकारके दुखको क्यों प्राप्त हुआ है ? नागशर्माने उत्तर दिया कि हे पुत्री ! इस चन्द्रवाहन
१.फ श सो पि पितापि। २. बकिंचिधुवानं। ३.५ श नं अभीक्ष्य अवलोक्य नागश्रीः फनं वीक्ष्य अवलोक्य नागश्रीः बनमवीक्ष्य नागश्रीः । ४. फश निरूपितो।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२ ]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४
१०९ पुत्रि, अस्य चन्द्रवाहनस्योपरि समस्तबलेनागत्य वज्रवीर्यनामा राजा देशसीमाय स्थित्वा एतदन्तिकं दूतं प्रेषितवान् । तेनागत्य राजा विज्ञप्तः- हे राजन, मत्स्वामिनादिष्टमवधारय । कथम् । भत्सेवा कर्तव्या, नोचेद्रणरङ्गे स्थातव्यमेतदपि नोचेच्चम्पापुरं दातव्यमिति । चन्द्रवाहनो रण एव तिष्ठामोति भणित्वा दूतं विससर्ज । तदनु बलनामानं सेनापतिं बहुबलेन तस्योपरि प्रेषितवान् । स चागमत् । उभयोर्बलयोर्महायुद्धे सत्ययं राशोऽङ्गरक्षकस्तक्षकनामा भीत्या पलाय्यागत्य राज्ञः कथितवान् देव, वज्रवीर्यश्चमूपतिं हतवान् हस्त्यादिकं गृहीतवानिति निशम्य राजा विषण्णोऽभूत् । इतः संग्रामे बलो विपक्षं बबन्ध गृहीत्वागतवांश्च । तदागमनाडम्बरं वोच्य राजा विपक्ष एवायमिति मत्वा संनद्धो भूत्वा दुर्गस्य प्रतोलीदपितवान् दुर्गस्योपरि वीरान् व्यवस्थाप्य स्वयं हस्तिनं चटित्वाऽस्थात् । तथाविधं राज्ञो व्यग्रत्वमवेदय' बलः प्रकटोभूय प्रतोलीरुद्घाटयति स्म, राजानं दृष्टवान् । राजा वज्रवीर्य विमुच्य परिधानं दत्त्वा तद्देशं तस्य दापितवान् । अनु सुखेनास्थादद्यैतदसत्यं भाषितं स्मृत्वेमां शास्ति निरूपितवान् इति । नागश्रियोक्तमसत्यनिवृत्तिर्मया तदन्तिके गृहीता कथं त्यज्यते इति । पुरोहितोऽभाणीदिदमप्यास्तामन्यानि समर्पयावश्चलेति ॥ २ ॥
राजा के ऊपर आक्रमण करने के लिये वज्रवीर्य नामक राजा समस्त सेना के साथ आकर उसके देशकी सीमा पर स्थित हो गया । पश्चात् उसने चन्द्रवाहनके पास एक दूतको भेजा । दूतने आकर राजासे निवेदन किया कि हे राजन् ! मेरे स्वामीने जो आपके लिये आदेश दिया है उसके ऊपर विचार कीजिये । उनका आदेश है कि तुम मेरी सेवाको स्वीकार करो, यदि यह स्वीकार नहीं है तो फिर युद्धभूमिमें आकर स्थित होओ, और यदि यह भी स्वीकार नहीं है तो चम्पापुरको मेरे स्वाधीन करो । यह सुनकर चन्द्रवाहनने कहा कि ठीक है, मैं रणभूमिमें ही आकर स्थित होता हूँ । यह कहते हुए उसने उस दूतको वापिस कर दिया । तत्पश्चात् उसने अपने बल नामक सेनापतिको बहुत-सी सेना के साथ वज्रचीर्यके ऊपर आक्रमण करनेके लिये भेज दिया । उसके पहुँच जानेपर दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ । उनमें युद्ध चल ही रहा था कि राजाका यह तक्षक नामका अंगरक्षक भयभीत होकर रणभूमिसे भाग आया । इसने राजाके पास आकर उससे कहा कि हे देव ! वज्रवीर्यने सेनापतिको मारकर हाथी, घोड़े आदि सबको अपने अधिकारमें ले लिया है । यह सुनकर राजाको बहुत खेद हुआ। उधर बल सेनापतिने युद्धमें शत्रुको बाँध लिया था । वह उसको लेकर चन्द्रवाहनके पास आया। उसके आनेके ठाट बाटको देखकर राजाको सन्देह हुआ कि यह शत्रु
आ रहा है । इसलिए उसने युद्ध के लिये तैयार होकर किलेके द्वारोंको बन्द करा दिया । साथ ही वह किले के ऊपर सुभटोंको स्थापित करके स्वयं हाथीके ऊपर चढ़कर स्थित हुआ । चन्द्रवाहनकी वैसी उद्विग्नताको देखकर बलने प्रगट होते हुए द्वारोंको खुलवाया और राजाका दर्शन किया । राजाने वज्रवीर्यको बन्धनमुक्त करके उसे वस्त्राभूषणादि देते हुए अपने देश में वापिस भेज दिया । तब वह सुखपूर्वक स्थित हुआ । इसके उपर्युक्त असत्य वचनका स्मरण करके राजाने आज इसके लिये यह दण्ड घोषित किया है। यह सुनकर नागश्रीने पितासे कहा कि मैंने मुनिके समीपमें असत्य वचनके त्यागका नियम लिया है, फिर उसे क्यों छोड़ ? इसपर पुरोहित बोला कि अच्छा इसे भी रहने दो, चलो शेष व्रतों को वापिस दे आयें ॥२॥
१. बमवीक्ष्य । २. ब थापितवान् ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यामकथा कोश
[ ३-४, २१-२२:
ततोऽन्यस्मिन् प्रदेशे शूले प्रोतं पुरुषमीक्षांचकेऽप्रातीच्च पितरं 'किमर्थमयं निगृह्यते' इति सोऽवदन्मया न ज्ञायते, चण्डकर्माणं पृच्छामीत्यपृच्छत् । स आह । श्रत्र राजश्रेष्ठी वसुदत्तो भार्या वसुमती पुत्री वसुकान्ता । कन्यातिरूपवती युवतिश्च । सा एकदा सर्पदष्टा मृतेति श्मशानं दग्धुं नीता । चितारोपणावसरेऽनेकदेशान् परिभ्रमन् वणिग्नन्दनो गरुडनाभिनामा महागारुडी तत्र प्राप्तस्तत्स्वरूपमवबुध्यावादीद्यदीमां मह्यं दास्यति तर्हि जीवयामीति । तत्स्वरूपं विचार्य श्रेष्ठी बभाण - दास्यामि जीवयेति । तेनाभाणि 'प्रातर्निर्विषां करोमि, रात्रावस्या अत्रैव यत्नः कर्तव्यः' इति । ततः श्रेष्ठी सहस्रं सहस्रं दीनाराणामेकैकस्मिन् कर्पटे बबन्धेति । ततश्चत्वारोऽपि पोट्टलकानेकस्मि नेव कर्पटे बद्ध्वा तद्विमाननिकटे धृत्वा चतुर्णा भटानामवदत् हे भटाः, इमां रात्रौ यत्नेन रक्षकस्मै सहस्र- सहस्रद्रव्यं दास्यामि । ततश्चत्वारोऽपि रक्षन्तः स्थिताः । अभ्ये जनाः स्वस्थानं जग्मुः । द्वितीयदिने तेनोत्थापिता सा । श्रेष्ठिना तस्मै दत्ता सा । चतुः स्वर्णपोट्टलकमध्ये त्रय एव स्थिताः । श्रेष्ठिनाभाणि - येन स गृहीतस्तस्य स प्राप्तः, अन्ये
११०
वहाँ से आगे जाते हुए दूसरे स्थानमें नागश्रीने शूलीके ऊपर चढ़ाये गये एक पुरुषको देखकर अपने पिता से पूछा कि इसे यह दण्ड क्यों दिया गया है ? नागशर्मा बोला कि मुझे ज्ञात नहीं हैं, चलकर चण्डकर्मासे पूछता हूँ । तदनुसार उसके पूछनेपर चण्डकर्मा बोलाइसी नगर में एक वसुदत्त नामका राजसेठ रहता है । उसकी पत्नीका नाम वसुमती है । इनके वसुदत्ता नामकी एक पुत्री है । वह अतिशय सुन्दर व युवती है । उसे एक दिन सर्पने काट लिया था । तब उसे मर गई जानकर जलानेके लिये श्मशान में ले गये । वहाँ उसे चिताके ऊपर रखा ही था कि इतने में अनेक देशोंमें परिभ्रमण करता हुआ एक गरुड़नाभि नामका वणिक पुत्र आया । वह गरुड़ विद्या में निपुण था । उसे जब यह ज्ञात हुआ कि इसे सर्पने काट लिया है तब वह बोला कि यदि तुम मेरे लिये देते हो तो मैं इसे जीवित कर देता हूँ । तब तद्विषयक जानकारी प्राप्त करके सेठने उससे कहा कि ठीक है, मैं इस पुत्रीको तुम्हारे लिये दे दूँगा, तुम इसे जीवित कर दो। यह सुनकर गरुड़नाभिने कहा कि मैं इसे प्रातः काल में विषसे रहित कर दूँगा, रात्रिमें यहाँपर ही इसके रक्षणका प्रयत्न कीजिये । तब सेठने एक एक कपड़े में एक एक हजार दीनारें बाँधकर उनकी चार पोटरी बनाई। फिर उन चारों ही पोटरियोंको एक कपड़े में बाँधकर उसे उसने पुत्रीके विमानके पास रख दिया । तत्पश्चात् उसने चार सुभटोंको बुलाकर उनसे कहा कि हे वीरो ! तुम रात्रि में यहाँ इस पुत्रीकी रक्षा करो, मैं तुम लोगोंमेंसे प्रत्येकको एक एक हजार दीनार दूँगा । सेठके कथनानुसार वे चारों उसकी रक्षा करते हुए वहाँ स्थित रहे और शेष सब अपने अपने घरको चले गये । दूसरे दिन गरुड़नाभिने उसे विषसे रहित करके उठा दिया । तब सेठने पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार उस पुत्रीको गरुड़नाभिके लिए प्रदान कर दिया । उधर उन चार सुवर्णकी पोटरियोंमें से तीन ही वहाँ स्थित थीं । यह देखकर सेठने कहा जिसने उस पोटरी को लिया है उसे तो वह मिल ही गई है, दूसरे तीन इन पोटरियों को ले लो । इसपर
१. श रूपवती युवति रूपवती युवतिश्च ।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४ प्रय इमान् गृह्णन्तु । सर्वैर्भणितं मया न गृहोत इति । ततः श्रेष्ठो राशोऽकथयच्चोरिकया मे निष्कसहस्रं गतमिति । राजा चण्डकीर्तिनाम्नश्चण्डकर्मण उक्तवान्-चोरं समर्पय, नोचेत्तव शिर इति । चण्डकीर्तिरवोचत्- पञ्चरात्रे चोरं न समर्पयामि चेद्राजा यज्जानाति तत्करोतु । एवमस्त्विति राजाभ्युपजगाम । चण्डकीर्तिर्राप सचिन्तस्तैश्चतुर्भिः स्वगृहं जगाम । तत्पुत्री सुमतिर्वेश्यातिविदग्धा पितरं सचिन्तं विलोक्यापृच्छत-तात, चिन्ताकारणं किमिति । तेम स्वरूपे निरूपिते तयावादि-निश्चिन्तो भवाहं चोरं ते समर्पयामि । तच्चतुर्णा भोजनादिकं दत्त्वा पञ्चरात्रीन् युष्माभिरत्र स्थातव्यमिति प्रतिपाद्यापपरके मञ्चादिकं च दत्त्या चण्डकीर्तिः सभृत्यस्तं' भेदयितुं लम्नः। सातदिने गृहोतग्रहणका तेष्वेकेमाकारयति स्म । तं विलोक्य गहिकायामपवेश्य क्रमेण सर्वानपि उपवेश्योक्तवती चतथैक- स्या जाता। परं किंतु मनसि मे विकल्पो वर्तते, तमपहरत । कथं युष्मासु स्थितं द्रव्यं चौरो जग्राहेति कौतुकम् । तत्र यूयं किं कुर्वन्तः स्थिता इति निरूप्यताम् । तत्रैकेन भएयते-हे सुमतेऽहमेतेषां निरूप्य वेश्यागृहं गतस्तस्मात्पुनः पश्चिमयामे तत्र गतः। अन्येन भण्यतेऽहमविसमूहं गतः । तस्मादेका मेण्ढिका चोरयित्वानीता मया। तदा प्राक्किमभवदिति
उन चारोंने कहा कि हमने उस पोटरीको नहीं लिया है। तब सेठने राजासे कहा कि मेरी एक हजार दीनारें चोरी गई हैं । राजाने इस चोरीकी वार्ताको ज्ञात करके चण्डकीर्ति नामके कोतवालको बुलाया और उससे कहा कि जाओ व उस चोरका पता लगाकर मेरे पास लाओ, अन्यथा तुम्हारा शिर काट लिया जावेगा। इस राजाज्ञाको सुनकर कोतवालने कहा कि हे राजन् ! यदि मैं पाँच दिनके भीतर उस चोरको खोजकर न ला सकूँ तो आप जो जाने मुझे दण्ड दें। तब 'ठीक है' कहकर राजाने उसकी यह बात स्वीकार कर ली। चण्डकीर्ति भी चिन्तातुर होकर उन चारोंके साथ अपने घरको गया, उस कोतवालके एक सुमति नामकी अतिशय चतुर पुत्री थी। वह वेश्या थी। उसने पिताको सचिन्त देखकर उससे चिन्ताका कारण पूछा । तब उसने उससे पूर्वोक्त घटना कह दी। उसे सुनकर उसने पितासे कहा कि आप चिन्ताको छोड़ दें, मैं उस चोरका पता लगाकर आपके स्वाधीन करती हूँ। कोतवालने उन चारोंको भोजन आदि दिया और उनसे कहा कि तुम्हें पाँच दिन यहींपर रहना पड़ेगा, उसने उन्हें एक कोठेमें चारपाई आदि भी दे दी। फिर वह अन्य सेवकोंके साथ उस चोरीके रहस्यकी जानकारी प्राप्त करनेमें उद्यत हो गया। इधर उस दिन उस वेश्याने उनमें से प्रत्येकको बुलाया और उसे देखकर गादीपर बैठाया। इस प्रकारसे वह सभीको बैठाकर उनसे बोली कि मैं तुम चारों से किसी एकके ऊपर अत्यन्त आसक्त हुई हूँ। किन्तु मेरे मनमें एक सन्देह है, उसे दूर करो। वह यह कि तुम चारोंके वहाँ रहते हुए भी चोरने वहाँ स्थित द्रव्यका अपहरण कैसे किया और तब तुम लोग क्या कर रहे थे, यह मुझे बतलाओ । इसपर उनमें से एक बोला कि हे सुमते ! मैं इन सबको कहकर वेश्याके घर चला गया था और फिर वहाँसे रातके पिछले पहरमें वहाँ वापिस पहुँचा था। दूसरेने कहा कि मैं भेड़ोंके समूहमें गया था और वहाँसे एक भेड़को चुराकर लाया था। उसके पूर्वमें क्या हुआ,
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सभृत्यस्तान् ! २. फ तद्दिने अगृहीत गृहणकालेष्वेकक । ३. श गदिकयामुपवेश्य । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श चतुर्थेष्वेकस्यामहं । ५. श भण्यतेहमेतेषां ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
पुण्या लवकथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ :
न जानामि । श्रपरेण भण्यते तेनानीतमेण्टिकापिशितं कुर्वन्नहं स्थितस्तदा तत्र किमभूदिति न वेद्मि । चतुर्थोऽब्रवीदहं तन्मृतकमेवावलोकयन् स्थितो द्रव्यस्य चिन्ता मे नास्तीति केन नीतमिति न वेद्यहम् । सुमत्योक्तं भवतां दोषो नास्तीति । इदानीं मे आलस्यं वर्तते, कथामेकां कथयतेति । तैरवादि वयं न जानी मस्त्वं कथय । सा कथयति - पाटलीपुत्रे वैश्यो धनदत्तो पुत्री सुदामा । कन्या सा एकदा स्वभवन पश्चिमोद्यानस्थं सरः पादप्रक्षालनार्थं गता । ग्राहपिल्ल केन पादे धृताऽत्यन्तभीता स्वमैथुनिकं धनदेवमपश्यत् । सा तदावोचदहो धनदेव, मां ग्राहो गृह्णाति स्म, त्वं मोचय । तेनावादि बर्करेण मोचयामि यदि भणितं करोषि । सा बभाण कीदृशं तत् । स जजल्प- ते विवाहदिने रात्रौ लग्नकाले वस्त्राभरणैर्मदन्तिकमागन्तव्यमिति । श्रभ्युपगतं तया । स तस्या धर्महस्तं गृहीत्वा मोचितवान् । स्वविवाहदिने सा स्वधर्महस्तमोचनाय रात्रौ तदापणं चलिता । अन्तरे कश्चिच्चौरस्तदाभरणादिकं ययाचे । तयोक्तमेतैः सार्धं मया क्वापि गन्तव्यं ततः श्रागमनावसरे दास्यामीति, तस्यापि धर्महस्तं दत्त्वाऽग्रे जगाम । चौरः कौतुकेन तिरोभूत्वा पृष्ठतो लग्नस्तावत्कश्चिद्राक्षसो मिलितः । स भाण - हे नारि, इष्टदेवतां स्मर गिलामि त्वाम् । साऽवदत्प्रतिज्ञया क्वापि गच्छामि, ततः यह मैं नहीं जानता हूँ | तीसरा बोला कि मैं उसके द्वारा लाई हुई भेड़का मांस निकाल रहा था । उस समय वहाँ क्या हुआ, यह मुझे ज्ञात नहीं है । अन्तमें चौथेने कहा कि मैं उस मुर्दाकी ओर ही देख रहा था, मुझे तब उस द्रव्यका ध्यान ही नहीं था । इसीलिये उसे किसने लिया है, इसे मैं नहीं जानता हूँ। यह सब सुनकर सुमतिने कहा कि आप लोगोंका कुछ दोष नहीं है । मुझे इस समय आलस्य आ रहा है, अतएव किसी एक कथाको कहो । तब उन लोगोंने कहा कि हम नहीं जानते हैं, तुम ही कहो । तब वह कहने लगी
पाटलीपुत्र में एक धनदत्त नामका वैश्य था । उसके एक सुदामा नामकी एक दिन अपने भवन के पिछले भाग में स्थित सरोवर में पाँव धोनेके लिये गई थी । के बच्चेने उसके पाँचको पकड़ लिया था । तब उसने अतिशय डरकर अपने धनदेव नामक मामा के लड़के ( या साले ) की ओर देखते हुए उससे कहा कि हे धनदेव ! मुझे मगर ने पकड़ लिया है, उससे छुड़ाओ । वह मजाकमें बोला कि यदि तुम मेरा कहना मानो तो मैं तुम्हें उस मगरसे छुड़ा देता हूँ । इसपर सुदामाने उससे पूछा कि तुम्हारा वह कहना क्या है ? इसके उत्तर में उसने कहा कि तुम अपने विवाहके दिन लमके समय में वस्त्राभरणोंके साथ मेरे पास आओ । सुदामाने उसकी इस बात को स्वीकार कर लिया। तब उसने उसके धर्महस्त ( प्रतिज्ञावचन ) को ग्रहण करके उसे मगरसे छुड़ाया । तत्पश्चात् जब उसके विवाहका समय आया तब वह अपने दिये हुए उपर्युक्त वचनसे छुटकारा पानेके लिये रात्रि में धनदेवकी दुकानकी ओर चल दी । मार्गमें जाते हुए उससे किसी चोरने आभूषण आदि माँगे । तब उसने उससे कहा कि इन आभूषणोंके साथ मुझे कहीं पर जाना है । अतएव मैं तुम्हें इन्हें वापिस आते समय दूँगी । इस प्रकारसे वह उसको भी धर्महस्त देकर आगे गई । तब वह चोर कौतुकसे छुपकर उसके पीछे लग गया। आगे जानेपर उसे एक राक्षस मिला । वह उससे बोला कि हे स्त्री ! तू अपने इष्ट देवताका स्मरण कर, मैं तुझे खाता हूँ। वह बोली कि मैं अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार कहीं जा रही हूँ,
१. बगता सा पुत्री इति ग्राह
नास्ति । ४. ब वर्करेण ।
-
पुत्री थी। वह वहाँ एक मगर -
।
२. प 'वोचदहो हो धनदेव श वोचदोहो भो धनदेव । ३. ब 'त्वं'
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२ ] ३. श्रतोपयोगफलम् ४-५
११३ आगमने यत्कर्तव्यं तत्कुरु । तस्यापि सूनृतं दत्त्वाग्रे गता। सोऽपि तथा तन्मार्गे लग्नः । ततः कोऽपि कोट्टपालो मिलितः । तेन ध्रियमाणा तथैव गता । सोऽपि तथा । ततस्तदापणं प्राप्ता । धनदेवोऽब्रवीदन्धकार निशि किमित्यागतासि । पूर्व त्वं कन्या मे शालिकेति वकरण मया तद्भणितमिदानीं त्वं परस्त्रीति भगिनीसमा, याहि स्वस्थानमिति । अन्य स्त्रिभिरपि त्वं सत्यवती मातृसमेति भणित्वा प्रेषितेति कथां निरूप्यापृच्छत् सुमतिश्चतुर्णाक उत्कृष्ट इति । मेण्ढिकाचौरश्चौरं स्तुतवान् पिशितकर्ता राक्षसं रक्षकः आरक्षकं वेश्यापतिर्धनदेवम् । तदा तदभिप्रायं विबुध्य तच्छयनस्थलं प्रेषिताः । स्वयमपि निद्रांचकार । द्वितीयेऽह्नि येन चौरः प्रशंसितः स आहृतः स्वतूलिकातले उपवेश्योक्तवती तवानुरक्ताहम्। किंतु पितरावेकेन सार्ध स्थातु मे न प्रयच्छतस्तस्माद्देशान्तरं याव इति। तेनाभ्युपगते द्रव्येण भवितव्यमिति स्वद्रव्यपोलिका तदने व्यधात्सा इदं मदीयं स्वम् , त्वदीयं किंचिदस्ति नो वा । तेनामाणि गृहेऽस्ति, हस्ते इदमस्तीति स पोट्टलक्तको दर्शितो मया गृहीत इति स्वरूपं चाभिधायि । तयोक्तं प्रातर्यावो याहि स्वशयनस्थलमिति पोट्टलं स्वयं गृहीत्वा विसर्जितः । अपराह्न पितुर्हस्ते
इसलिये मेरे वापिस आनेपर जो तुम्हें अभीष्ट हो करना । इस प्रकार वह उसके लिये भी सत्य वचन देकर आगे गई। वह भी उसी प्रकारसे उसके मार्गमें पीछे लग गया। तत्पश्चात् उसे कोई एक कोतवाल मिला । वह जब उसे पकड़ने लगा तब वह उसे भी उसी प्रकार वचन देकर आगे गई । वह भी उसी प्रकारसे उसके पीछे लग गया। अन्तमें वह इस क्रमसे धनदेवकी दुकानपर पहुँच गई । तब धनदेवने उससे कहा कि तुम रातको अन्धकारमें क्यों आई हो ? पूर्वमें तुम कन्या व मेरी साली थीं, अत एव मैंने मजाकमें वैसा कह दिया था। अब तुम परस्त्री हो, अतः मेरे लिये बहिनके समान हो, अपने घर वापिस जाओ। इसपर अन्य (चोर आदि) तीनोंने भी 'सत्य भाषण करनेवाली तुम हमारे लिये माताके समान हो' कहकर उसे घर वापिस भेज दिया । इस कथाको, कहकर सुमतिने उनसे पूछा कि उन चारोंमें उत्तम कौन है ? तब उनमेंसे भेड़के चोरने चोरकी, मांस ग्रहण करनेवालेने राक्षसकी, रक्षा करने वालेने कोतवालकी, तथा वेश्याके पतिने धनदेवकी प्रशंसा की। इस प्रकारसे सुमतिने उनके अभिप्रायको जानकर उन्हें शयनागारमें भेज दिया और स्वयं भी सो गई। दूसरे दिन जिसने चोरकी प्रशंसा की थी उसको बुलाकर सुमतिने अपनी गादीके ऊपर बैठाते हुए उससे कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर आसक्त हूँ। परन्तु मेरे माता पिता मुझे किसी एक पियतमके साथ नहीं रहने देते हैं। इसलिये मेरी इच्छा है कि हम दोनों किसी दूसरे स्थानपर चलें । जब उसने इस बातको स्वीकार कर लिया तब सुमतिने, यह कहते हुए कि देशान्तरमें जानेके लिये द्रव्य चाहिये, उसके आगे अपने द्रव्यकी एक पोटरी रख दी। फिर उसने कहा कि इतना द्रव्य तो मेरे पास है, तुम्हारे पास भी कुछ है या नहीं ? उसने उत्तर दिया कि मेरा द्रव्य घरमें है तथा इतना द्रव्य हाथमें भी है। यह कहते हुए उसने पोटरी दिखलाई। साथ ही उसने मैंने इसे किस प्रकारसे ग्रहण की है, यह भी प्रगट कर दिया। तब उसने कहा कि ठीक है, प्रातःकालमें चलेंगे। फिर उसने यह कहते हुए कि अब तुम अपने शयन-गृहमें जाओ, उसकी उस पोटरीको स्वयं ले लिया और उसे शयनगृहमें भेज दिया। तत्पश्चात् उसने दोपहरमें उस द्रव्यको पिताके हाथमें देकर उस चोरको दिखला दिया । तब कोतवालने उसे राजाके लिये समर्पित कर
१. ब सूक्वतं । २. श प्रेषितः । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श उपविश्योक्तवती । Jain Education Internatif
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
पुण्याकाशम्
[ ३-४, २१-२२ :
तद्रव्यं दत्वा तं दर्शयामास । तेन राज्ञः समर्पितः । राज्ञा इयं शास्तिर्निरूपितास्येति श्रुत्वा नागश्रियावादि 'यद्येवं मया दत्तग्रहणस्य निवृत्तिः कृता, सा कथं त्यज्यते' इति । सोsवोचत् 'इदमपि तिष्टतु ॥३॥
श्रन्यद्वयं' समर्प्य याव एहीत्य गमनेऽन्यस्मिन् प्रदेशे छिन्ननासिकां पुरुषशीर्षबद्धकण्ठां नारीं वीक्ष्य नागश्रीः पितरं पप्रच्छ किमितीयमिमामवस्था प्रापितेति । स आहात्रैव चम्पायां मत्स्यो नाम वैश्यो भार्या जैनी, पुत्रौ नन्दसुनन्दौ । जैनी भ्राता सूरसेनस्तस्य पुत्री मदालनामासीत्तदा नन्दो द्वीपान्तरं गच्छन् मातुलं प्रत्यवदत् - हे माम, अहं द्वीपान्तरं यास्यामि । त्वत्पुत्री मह्यमेव दातव्या, अन्यस्मै दास्यसि चेद्राजाज्ञा । सूरसेनो व्रते कालावधि कुर्विति । स द्वादशवर्षाण्यवधिं कृत्वा जगाम । अवधेरुपरि षण्मासेषु गतेषु सा कन्या सुनन्दाय दत्ता । उभयगृहे विवाहमण्डपादिकं कृतं पञ्चरात्रे लग्ने स्थिते आगतो नन्दो वृत्तान्तं विवेद | तदन्वभाषत मात्रे दत्तेति मत्पुत्री सेति । सुनन्दस्तदाज्ञां दत्त्वा मज्ज्येष्ठो गत इति विबुध्य मन्माता इत्युक्तवान् । सा स्वगृहे कन्यैव स्थिता । तन्निकटगृहे नागचन्द्रनामा वणिक द्वादशकोटिद्रव्येश्वरो द्वादशवनितापतिः । सोऽनया कन्यया गच्छतीति दिया । राजाने इसे इस प्रकारका दण्ड सुनाया है। इस घटनाको सुनकर नागश्री बोली कि यदि ऐसा है तो मैंने उस चोरीका परित्याग किया है, उसको भला किस प्रकार से छोड़ें ? तब नागशर्मा ने कहा कि अच्छा इसे भी रहने दे, शेष दोको चलकर वापिस कर आते हैं || ३ || आगे जानेपर नागश्रीने एक ऐसी स्त्रीको देखा कि जिसकी नाक कटी हुई थी तथा गला एक पुरुषके शिरसे बँधा हुआ था । उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा कि इस स्त्रीकी यह दुर्दशा क्यों हुई है ? वह बोला- इसी चम्पापुर में एक मत्स्य नामका वैश्य रहता है । उसकी पत्नीका नाम जैनी है | इनके नन्द और सुनन्द नामके दो पुत्र हैं । जैनीके भाई का नाम सूरसेन है । उसके मदालि नामकी पुत्री थी । उस समय नन्द किसी दूसरे द्वीपको जा रहा था । उसने वहाँ जाते समय मामासे कहा कि मैं दूसरे द्वीपको जा रहा हूँ । तुम अपनी पुत्रीको मेरे लिए ही देना । यदि तुम उसे किसी दूसरेके लिए दोगे तो राजकीय नियम के अनुसार दण्ड भोगना पड़ेगा । इसपर सूरसेनने उससे कुछ कालमर्यादा करने को कहा । तदनुसार वह बारह वर्षी मर्यादा करके द्वीपान्तरको चला गया । तत्पश्चात् बारह वर्षके बाद छह महीने और अधिक बीत गये, परन्तु वह वापिस नहीं आया । तब वह कन्या सुनन्दके लिये दे दी गई । इस विवाह के निमित्त दोनोंके घरपर मण्डप आदिका निर्माण हो चुका था। अब विवाह - विधिके सम्पन्न होने में केवल पाँच दिन ही शेष रहे थे । इस बीच वह नन्द भी वापिस आ गया । नन्दको जब यह समाचार विदित हुआ तब उसने कहा कि यह कन्या चूँकि मेरे अनुजके लिए दी जा चुकी है, अतएव वह अब मेरे लिये पुत्री के समान है । इधर सुनन्दको जब यह ज्ञात हुआ कि मेरा बड़ा भाई इस कन्या के निमित्त मामाको आज्ञा देकर द्वीपान्तरको गया था तब उसने कहा कि उस अवस्था में तो वह मेरे लिए माता के समान है । इस प्रकारसे जब उन दोनोंने ही उस कन्या के साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया तब उसे अविवाहित अवस्थामें अपने घरपर ही रहना पड़ा । उसके पड़ोसमें एक नागचन्द्र नामका वैश्य रहता था जो बारह करोड़ प्रमाण द्रव्या स्वामी था । उसके बारह स्त्रियाँ थीं । वह इस कन्या के पास जाता आता था । जब उन दोनोंके
I
१ ब अन्यतद्द्वयं । २. श स्थितो ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
११५ ज्ञात्वा परीक्ष्य च चण्डकर्मणा' धृतौ दम्पती राजवचनेनेमां शास्ति प्राप्ताविति प्रतिपादिते नागश्रिया भणितम्- परपुरुषमुखं दुष्टबुद्धया नावलोकनीयमिति तत्समीपे व्रतं गृहीतं मया, तत्कथं त्यज्यते । द्विज़ोऽवदत्तिष्ठत्विदमपि ॥४॥
यदन्यत्तत्तस्य समप्ये यावः आगच्छेत्यग्रे गमने कंचन बद्धं पुरुषं कोट्टपालैारणाय नीयमानं वितयं पुत्री पितरमपृच्छत् कोऽयं किमितीमं विधि प्राप्त इति । स कथयत्ययं राज्ञः क्षीराहारी वीरपूर्णनामा। एकदा पट्टवाजिनिमित्तं रक्षिततृणप्रदेशे कस्यचिद् गोधनं प्रविष्टम् । तदनेनानीय राज्ञो दर्शितम् । राज्ञोक्तमिदं त्वमेव गृहाण । अनेन तद् गृहीत्वातिव्याप्तिः कृता देशमध्ये यदुत्कृष्टं जीवधनं तत्त्वं गृहाणेति राज्ञा मह्यं वरो दत्त इति । ततः सर्वेषां तस्मिन् गृहोते देव्या महिषीर्गृहीतवान् । तया राक्ष: कथिते तेनास्य मारणं कथितमिति निरूपिते नागश्रीरुवाच- तर्हि बहुपरिग्रहाकाङक्षानिवृत्तिव्रतं मयादायि, तत्कथं परिहियते इति । सोऽगदत्तिष्ठत्विदमपि ॥५॥ तं निर्भयागच्छाव इति गत्वा दूरस्थेनोक्तम्-हे दिगम्बर, मम पुत्र्याः किमिति व्रतं दत्तमिति । यतिरभाषत-हे द्विज, इस दुराचरणकी वार्ता कोतवालको ज्ञात हुई तब उसने इसकी जाँच-पड़ताल की। तत्पश्चात् अपराधके प्रमाणित हो जानेपर वे दोनों पकड़ लिये गये और इस प्रकारसे दण्डके भागी हुए हैं। इस प्रकार नागशर्माके कहनेपर नागश्री बोली कि हे तात ! मैंने तो मुनिके. पास यह व्रत ग्रहण किया है कि मैं दुर्बुद्धिसे किसी भी परपुरुषका मुख न देखूगी। फिर मैं उसे क्यों छोइँ ? इसपर नागशर्मा बोला कि अच्छा इसे भी रहने दे, जो एक और शेष है उसे वापिस करके आते हैं, चल ॥४॥
तत्पश्चात् और आगे जानेपर मार्गमें उन्हें एक ऐसा पुरुष मिला जिसे पकड़कर कोतवाल मारनेके लिए ले जा रहे थे। उसके विषयमें ऊहापोह करते हुए पुत्रीने पितासे पूछा कि यह कौन है और किस कारणसे इस अवस्थाको प्राप्त हुआ है ? नागशर्मा बोला--- यह वीरपूर्ण नामक राजाका पुरुष है जो दूधका आहार करनेवाला (ग्वाला ) है । राजाके मुख्य घोड़ेके निमित्त घासके लिए जो प्रदेश सुरक्षित था उसके भीतर एक वार किसीकी गाय जा पहुंची थी। वीरपूर्णने लाकर उसे राजाको दिखलाया । तब राजाने कहा कि इसे तुम्हीं ले लो। तदनुसार इसने उसको लेकर न्यायमार्गका अतिक्रमण करते हुए यह नियम ही बना लिया कि 'देशमें जो भी उत्तम पशुधन है उसको तुम ग्रहण करो' ऐसा राजाने मुझे वरदान दिया है । इस प्रकारसे उसने सबके पशुधनको ग्रहण कर लिया । अन्तमें जब उसने रानीकी भैंसोंको भी ले लिया तब रानीने इसकी सूचना राजासे की । इसपर राजने इसे मार डालनेकी आज्ञा दी है । इस घटनाको सुनकर नागश्रीने कहा कि मैंने तो बहुत परिग्रहकी इच्छा न रखनेका नियम किया है, उसे मैं कैसे छोड़ ? इसके उत्तरमें नागशर्माने कहा कि इसको भी रहने दे। चलो, उस मुनिकी भर्त्सना ( तिरस्कार ) करके आते हैं ॥५॥
इस प्रकार मुनिके पास जाकर और दूर ही खड़े रहकर नागशर्माने मुनिसे कहा कि हे दिगम्बर ! तुमने मेरी पुत्रीके लिये व्रत क्यों दिया है ? इसपर मुनि बोले कि हे विप्र ! मैंने अपनी
१. ब चण्डकर्मणे । २. ब यदन्यत्तस्य । ६. श विभक्यं । ४. श ब-प्रतिपाठोऽयम् । श महिषी गृहीतवान् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दत्तमपि ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[३-४, २१-२२ मत्पुच्या मया व्रते दत्ते तव किमायातम् । द्विजोऽवदत्ते पुत्रीयम् । मुनिरवोचदोमिति । सा मुनिं प्रणम्य तत्समीपे उपविष्टा । स राज्ञो बभाषे तद्वत्तम् । तदा सर्वजनाश्चर्यमभूत । राजा पोराश्च जैनेतराश्च मुनि वन्दितुं कौतुकं द्रष्टुं च जग्मुः। राजा तौ नत्वा सूर्यमित्रं पृच्छति स्म कस्येयं पुत्रीति । मुनिरब्रवीत् मम पुत्रीयम् । द्विजोऽवोचदमुं नागं पूजयित्वा मद्भार्य येयं लब्धेति सर्वजनसुप्रसिद्धं देव, कथमेतत्पुत्री । मुनिरवत- राजन् , यद्यस्य पुत्री तहनेन व्याकरणादिकं पाठिता। द्विजोऽवोचन्न । तहिं कथं तव पुत्रीयम् । पुनर्द्विजोऽ. वोचत्त्वया कि पाठिता। यतिरुवाचौमिति । ततो राजा जजल्प-हे मुने, तर्हि परीक्षां दापय । दाप्यत एव । ततो विदुषां मध्ये मुनिः कन्यामस्तके स्वदक्षिणपाणितलं निधायोक्तवान्-हे वायुभूते, मया सूर्यमित्रेण राजगृहे यत्पाठितोऽसि तस्य सर्वस्य परीक्षा देहीत्युक्ते पण्डितः पृष्टस्थले मृदुमधुरविशदार्थसारध्वनिना परीक्षामदत्त सा । ततः सर्वजनाश्चर्य जातम् । पुनर्भूपो वभाण-हे मुनिनाथ, मे हृदये बहुकौतुकं वर्तते, नागश्रियः परीक्षा याचिता, वायुभूतिर्ददातीति । आचार्योऽब्रवीद्य एव वायुभूतिः सैव नागश्रीः । पुत्रीके लिये व्रत दिया है, इससे भला तुम्हारी क्या हानि हुई है ? यह सुनकर नागशर्माने कहा कि क्या यह तेरी पुत्री है ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ, यह मेरी पुत्री है। वह पुत्री मुनिको नमस्कार करके उनके समीपमें बैठ गई। तब ब्राह्मणने जाकर इस वृत्तान्तको राजासे कहा। इससे उस समय सबको बहुत आश्चर्य हुआ। फिर राजा, पुरवासी जन तथा बहुत-से अजैन जन भी मुनिकी वन्दना करने व इस कौतुकको देखने के लिये मुनिके समीपमें गये । वहाँ पहुँचकर राजाने उपर्युक्त दोनों मुनियों के लिये नमस्कार किया। फिर उसने सूर्यमित्र मुनिसे पूछा कि यह किसकी पुत्री है ? मुनिने उत्तर दिया कि यह मेरी पुत्री है । तब नागशर्माने कहा कि मेरी स्त्रीने उस नागकी पूजा करके इस पुत्रीको प्राप्त किया है, यह सब ही जन भले प्रकार जानते हैं। फिर हे देव ! यह इसकी पुत्री कैसे हो सकती है ? इसपर मुनि बोले कि हे राजन् ! यदि यह इसकी पुत्री है तो इसने उसे क्या कुछ व्याकरणादिको पढ़ाया है या नहीं ? ब्राह्मणने उत्तर दिया कि नहीं। तो फिर यह तुम्हारी पुत्री कैसे है, यह मुनिने नागशर्मासे प्रश्न किया। इसके उत्तरमें उसने पूछा कि क्या तुमने उसे कुछ पढ़ाया है ? इसके प्रत्युत्तरमें मुनिने कहा कि हाँ, मैंने उसे पढ़ाया है। इसपर राजाने कहा कि हे मुनिराज ! तो इसकी परीक्षा दिलाइये । तब मुनि बोले कि ठीक है, मैं इसकी परीक्षा भी दिला देता हूँ। तत्पश्चात् मुनिने उस कन्याके मस्तकपर अपने दाहिने हाथको रखते हुए कहा कि हे वायुभूति ! मुझ सूर्यमित्रने राजगृहके भीतर जो कुछ तुझे पढ़ाया था उस सबकी परीक्षा दे। इस प्रकार मुनिके कहनेपर विद्वान् पुरुषोंने जिस किसी भी स्थल (प्रकरण ) में जो कुछ भी नागश्रीसे पूछा उस सबका उत्तर उसने कोमल, मधुर, स्पष्ट एवं अर्थपूर्ण वाणीमें देकर उसकी परीक्षा दे दी। इससे सब लोगोंको बहुत ही आश्चर्य हुआ। फिर राजा बोला कि हे मुनीन्द्र ! मेरे हृदयमें बहुत कौतूहल हो रहा है। वह इसलिये कि हम लोगोंने नागश्रीसे परीक्षा दिलानेकी प्रार्थना की थी, परन्तु परीक्षा दे रहा है वायुभूति । इसपर मुनि बोले कि वायुभूति और नागश्री एक ही हैं । वह इस प्रकारसे---
१. फ श स द्विजराज्ञो। २. प श मद्भार्यालब्धेयमिति । ३. ब द्विजरुवाच त्वया। ४. ब सर्वपरीक्षाम् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श नागश्रिया ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३–४, २१-२२ ]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
११७
कथमिति चेत् वत्सदेशे कौशाम्ध्यां राजातिबलो देवी मनोहरी पुरोहितो द्विज: सोमशर्मा वनिता काश्यपी पुत्रावग्निभूतिवायुभूती केनाप्युपायेन नापठताम् । पितरि मृते राज्ञाजानता तत्पदं ताभ्यामदायि । एवं तिष्ठतोरेकदानेकवादिमदमञ्जनेन नानादेशपरिभ्रमणशीलेन विजयजिह्वनामवादिना तद्राजालयद्वारे पत्रमवलम्बितम् । वादाधिकारः पुरोहितस्येत्यन्यवादिना न गृहीतम् । तद्राज्ञा तयोरादेशो दत्तः पत्रं गृह्णीतां भित्तां चेतिं । ताभ्यां गृहीतं पाटितं च । ततो राजा मूर्खाविति विबुध्य तत्पदमादाय तद्दायादसोमिलायादत्त तावतिदुःखितावध्येतुं देशान्तरं चेलतुः । तदा मात्रावादि यद्येवं युवयोराग्रहोऽस्ति तर्हि राजगृहपुरे राजा सुबलो बल्लभा सुप्रभा तत्पुरोहितो माता सूर्यमित्रनामातिविद्वान्, तत्समीपं याव इति । तत्र ययतुस्तं च ददृशतुर्वृत्तान्तं कथयांचक्रतुः । स मातुलः मनसि दध्यौ पितुर्निकटे सुग्रासादिप्रभावान्नाधीतावहमपि तद्दास्यामि चेदत्रापि क्रीडिष्यतोऽध्ययनं न स्यादिति मत्वाऽवदत्- मे भगिनी नास्तीति कुतो भागिनेयौ युवाम् । यद्यध्येष्येथें भिक्षाया भुक्त्वा तर्हि अध्यापयिष्यामीति । तौ तथाधीतसकलशास्त्रौ स्वपुरं चलितौ
वत्स देश के भीतर कौशाम्बी नगरीमें अतिबल नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम मनोहरी था । उसका पुरोहित सोमशर्मा नामका एक ब्राह्मण था । इसकी पत्नीका नाम काश्यपी था । इस पुरोहितके अभिभूति और वायुभूति नामके दो पुत्र थे । इनको सोमशर्मा -
पढ़ाने का बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु वे पढ़ नहीं सके। जब उनका पिता मरा तब राजाको उनके विषय में कुछ परिचय प्राप्त नहीं था । इसीलिये उसने अज्ञानता से इनके लिये पुरोहितका पद दे दिया । इस प्रकार से उनका सुखपूर्वक समय बीतने लगा । एक समय वहाँ अनेक वादियों के अभिमानको चूर्ण करनेवाला विजयजिह्न नामका एक वादी आया । वह वादार्थी होकर अनेक देशों में घूमा था । वहाँ पहुँचकर उसने राजप्रासादके द्वारपर एक वादसूचक पत्र लगा दिया । वादका अधिकार पुरोहितको प्राप्त होनेसे अन्य किसी वादीने उसके पत्र ( चैलेंज ) को स्वीकार नहीं किया । तब अतिबल राजाने उन दोनोंके लिये उस पत्रको स्वीकार कर उक्त वादीके साथ विवाद करने की आज्ञा दी । इसपर उन दोनोंने उस पत्रको लेकर फाड़ डाला। तब राजाको ज्ञात हुआ कि ये दोनों ही मूर्ख हैं । इससे उसने उन दोनोंसे पुरोहितके पदको छीनकर उसे किसी सोमिल नामक उनके सगोत्री बन्धुको दे दिया । उन दोनों को इस घटना से बहुत दुख हुआ । फिर वे शिक्षा प्राप्त करनेके लिये देशान्तर जानेको उद्यत हुए । तब उसकी माताने उनसे कहा कि यदि तुम दोनोंका ऐसा दृढ़ निश्चय है तो तुम राजगृह नगर में जाओ । वहाँ सुबल नामका राजा राज्य करता है । रानीका नाम सुप्रभा है। उक्त राजाके यहाँ जो अतिशय विद्वान् सूर्यमित्र नामका पुरोहित है वह मेरा भाई है । तुम दोनों उसके पास जाओ । तदनुसार वे दोनों वहाँ जाकर अपने मामा से मिले । उन्होंने उससे अपने सब वृत्तान्तको कह दिया। तब मामाने मनमें विचार किया कि इन दोनोंने पिताके पास उत्तम भोजनादिको पाकर अध्ययन नहीं किया है । यदि मैं भी इन्हें सुरुचिपूर्ण भोजनादि देता हूँ तो फिर यहाँ भी उनका समय खेल-कूद में ही जावेगा और वे अध्ययन नहीं कर सकेंगे । बस, यही सोचकर उसने उन दोनोंसे कहा कि मेरे कोई बहिन ही नहीं है, फिर तुम भानजे कैसे हो सकते हो ? यदि तुम भिक्षासे भोजन करके अध्ययन
1
१. फ भिन्तां चेति । २ ब पाट्टितम् । ३. ब 'मातुलः ' नास्ति । ४. ब यद्यध्येष्येथ |
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
gora कथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ :
यदा तदा स वस्त्रादिकं दत्त्वाचेऽहं युवयोर्मातुल इति । तच्छ्र ुत्वाग्निभूतिर्ज हर्ष, वायुभूतिकोप चाण्डालस्त्वमावां भिक्षामाटितवान् इति । ततः स्वपुरमागत्य स्वपदे तस्थतुः । राजपूजितौ सुश्रीको भूत्वा सुखिनौ रेमाते ।
इतो राजगृहे सुबलो मज्जनवारे स्वमुद्रिकां सूर्यमित्रस्य हस्ते तैलम्रक्षणभयाददत्त । स स्वाङ्गुलौ निक्षिप्य स्वगृहं जगाम । भोजनादूर्ध्वं राजभवनं गच्छन् समुद्रिका मपश्यन् विषण्णोऽभूत् । स्वयं निमित्तमजानन् परमबोधाभिधं नैमित्तिकमार्यं तस्य नैमित्तिकस्य कथितं मया चिन्तितं कथय । तदग्रे चिन्तयामास । तेनोक्लमेतन्नामानं हस्तिनं प्रभुं याचयिष्यामि प्राप्नोमि न वेति चिन्तितं त्वया । प्राप्स्यसि याचस्येति । तं विसृज्य स्वहर्म्यस्योपरिमभूमौ सचिन्तो यावदास्ते तावत्पुरवहिरुद्यानं प्रविशन्तं सुधर्माभिधदिगम्बरमपश्यत् । तदन्वयं किंचन ज्ञास्यतीति दिनावसाने केनाप्यजानन् तदन्तिकमाट । तमत्यासन्नभव्यं विलोक्य मुनिरुवाच - हे सूर्यमित्र, राजकीयां मुद्रिकां विनाश्यागतोऽसि । श्रमिति भणित्वा पादयोः पपात । मुनिः कथयति स्म - त्वद्भवनपृष्ठस्थितोद्यानस्थितसरस
करना चाहते हो तो पढ़ो मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा । तब उन दोनोंने भिक्षा से ही भोजन करके उसके पास अध्ययन किया । इस प्रकार से वे समस्त शास्त्रों में पारंगत होकर जब घर वापिस जाने लगे तब सूर्यमित्रने उन्हें यथायोग्य वस्त्रादि देकर कहा कि मैं वास्तवमें तुम्हारा मामा हूँ । यह सुनकर अभिभूतिको बहुत हर्ष हुआ । परन्तु वायुभूतिको इससे बहुत क्रोध हुआ । तब उसने उससे कहा कि तुम मामा नहीं, चण्डाल हो, जो तुमने हमें भिक्षाके लिये घुमाया है । तत्पश्चात् वे वहाँसे अपने नगरमें आये और अपने पद (पुरोहित) पर प्रतिष्ठित हो गये । अब वे राजासे सम्मानित होकर उत्तम विभूतिके साथ वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे थे ।
इधर राजगृहमें राजा सुबलने स्नान के अवसरपर तेलसे लिप्त हो जाने के भय से अपनी मुंदरी सूर्यमित्र के हाथमें दे दी । वह उसे अँगुलीमें 'पहिनकर अपने घरको चला गया । भोजनके पश्चात् जब वह राजभवनको जाने लगा तब वह अँगुली में उस मुद्रिकाको न देखकर खेदको प्राप्त हुआ। वह स्वयं निमित्तज्ञ नहीं था, इसलिये उसने परमबोधि नामके ज्योतिषीको बुलाकर उससे कहा कि मैंने जो कुछ सोचा है उसे बतलाइये । तत्पश्चात् उसने उसके आगे कुछ चिन्तन किया । ज्योतिषीने कहा कि तुमने यह विचार किया है कि 'मैं राजासे अमुक नामवाले हाथीको मागूँगा, वह मुझे प्राप्त होता है कि नहीं।' तुम उसको प्राप्त करोगे, याचना करो। फिर वह उस ज्योतिषीको वापिस भेजकर अपने भवनके ऊपर गया । वह वहाँ छतपर चिन्ताकुल बैठा ही था कि इतने में उसे नगरके बाहर उद्यानमें जाते हुए सुधर्म नामके दिगम्बर मुनि दिखायी दिये । तत्पश्चात् उसने विचार किया कि ये उस सुंदरीके सम्बन्ध में कुछ जानते होंगे । इसी विचारसे वह सन्ध्या के समय छुपकर उनके निकट गया। मुनि उसको अति आसन्न भव्य जानकर बोले कि हे सुमित्र ! तू राजाकी सुंदरीको खोकर यहाँ आया है। तब वह 'हाँ, मैं इसी कारण आया हूँ' यह कहते हुए उनके चरणों में गिर गया। मुनिने कहा कि तुम अपने भवन के पीछे स्थित उद्यानवर्ती तालाब में जब
१. ब 'तदा' नास्ति । २. प दत्वा चेहं फ दत्वाहं । शदत्वावं । ३. ब 'भूतिश्च कोपाचाण्डाल' | शभूतिश्चको पोश्चाण्डाल' । ४. ब प्रतिपाठोऽयम् । श मज्जनवासरे । ५ ब निमित्तेनाजानन् । ६. प ब अतोऽग्रे 'कथय' पर्यन्तः पाठो नास्ति । ७. श अकथितं । ८. फ एतदग्रे ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५ सूर्याय॑ ददानस्य तेऽङ्गुल्या निर्गत्य कमलकर्णिकायां सा पतिता वर्तते, प्रातर्गृहाणेति । तथा तां गृहीत्वा राज्ञः समर्प्य कस्याप्यकथयन् तन्निमित्तं शिक्षितुं तदन्तमितः । मुनिर्बभाण निर्ग्रन्थं विहायान्यस्य न सा परिणमतीति । ततः स सर्व पर्यालोच्य निर्ग्रन्थोऽजनि, विद्यां प्रयच्छेति च स वभाण। मुनिरवोचत क्रियाकलापपाठमन्तरेण न परिणमतीति । एवं क्रमेणानुयोगचतुष्टयं पाठयामास । द्रव्यानुयोगपाठे सदृष्टिरासीत् परमतपोधनश्च । स्वगुरुणा सहात्र चम्पायामागतस्य वासुपूज्यनिर्वाणभूमिप्रदक्षिणीकरणेऽवधिरुत्पन्नः । गुरुस्तस्मै स्वपदं दत्त्वा एकविहारी भूत्वा वाराणस्यां मुक्तिमितः।
सूर्यमित्र एकदा कौशाम्ब्यां चर्यार्थ प्रविष्टोऽग्निभूतिना स्थापितः । चर्या कृत्वा गच्छन्नग्निभूतिना भणितो वायुभूतिं विलोकयेति । तेनोक्तं सोऽतिरौद्रो नोचितम् । तथापि तदाग्रहेणाग्निभूतिना तद्गृहं जगाम । स मुनि विलोक्य विबुध्य च बहुशोऽपि निन्दां चकार। ततो मुनिनोद्यानं गत्वाग्निभूतिर्मया मुनिनिन्दा कारितेति तद्वैराग्यात् दिदीक्षे । तद्वृत्तान्तं विबुध्य तद्वनिता सोमदत्ता देवरान्तिके जगामावदच्च-रे वायुभूते, त्वया मुनिनिन्दा कृतेति मे भर्चा तपो गृहीतम् । यावत्कोऽपि न जानाति तावत्संबोध्यानयावः, एहीति । ततो सूर्य के लिये अर्घ्य दे रहे थे तब वह अँगुलीमेंसे निकलकर कमलकर्णिकाके भीतर जा पड़ी है । वह अभी भी वहींपर पड़ी हुई है। उसे प्रातः कालमें उठा लेना । पश्चात् उसने वहाँ से उसे उठा लिया
और राजाको दे दिया। तत्पश्चात् वह किसीको कुछ न कहकर उस निमित्तज्ञानको सीखनेके लिये मुनिराजके समीपमें गया। मुनिराजने उससे कहा कि दिगम्बरको छोड़कर किसी दूसरेको वह निमित्तविद्या नहीं प्राप्त होती है । तब वह सब सोच-विचार करके दिगम्बर हो गया और बोला कि अब मुझे वह विद्या दे दीजिये। फिर मुनि बोले कि वह क्रियाकलाप पढ़नेके बिना नहीं आती है । इस क्रमसे उन्होंने उसे चारों अनुयोगोंको पढ़ाया। तब द्रव्यानुयोगके पढ़ते समय उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया। अब वह उत्कृष्ट तपस्वी हो गया था। वह अपने गुरुके साथ विहार करता हुआ यहाँ चम्पापुरमें आया । यहाँ उसे वासुपूज्य जिनेन्द्रको निर्वाणभूमिकी प्रदक्षिणा करते समय अवधिज्ञान भी उत्पन्न हो गया। पश्चात् गुरु उसके लिये अपना पद देकर एक विहारी हो गये । उन्हें बनारस पहुँचनेपर मुक्तिकी प्राप्ति हुई।
सूर्यमित्र मुनि एक बार आहारके निमित्त कौशाम्बी पुरीके भीतर गये। तब अग्निभूतिने विधिवत् उनका पडिगाहन किया । जब वे आहार लेकर वापिस जाने लगे तब अग्निभूतिने उनसे वायुभूतिको सम्बोधित करनेके लिये प्रार्थना की । मुनिराज बोले कि वह अतिशय क्रूर है, इसलिये उसके पास जाना योग्य नहीं है। फिर भी वे उसके आग्रहको देखकर अग्निभूतिके साथ वायुभूतिके घरपर गये। उसे उन मुनिराजको देखते ही पूर्व घटनाका स्मरण हो आया । तब उसने उनकी बहुत निन्दा की । उस समय अग्निभूतिने मुनिराजके साथ उद्यानमें जाकर विचार किया कि यह मुनिनिन्दा मैंने करायी है। यह विचार करते हुए उसके हृदयमें वैराग्यभावका प्रादुर्भाव हुआ । इससे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । इस वृत्तान्तको जानकर अग्निभूतिकी पत्नी देवरके पास गई
और उससे बोली कि रे वायुभूति ! तेरे द्वारा मुनिनिन्दा की जानेसे मेरे पतिदेवने तपको ग्रहणकर लिया है। जब तक कोई इस बातको नहीं जान पाता है तब तक हम दोनों उसके पास चलें
१. श परम् तपोनश्च । २. फ विलोकेति ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२० पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ : वायुभूतिना कोपेन मुखे पादेन ताडिता' सा निदानं चकार जन्मान्तरे तव पादौ . भक्षयिष्यामि।ततो वायुभूतिः सप्तमदिने उदुम्बरकुष्ठी जातो मृत्वा तत्रैव गर्दभी भूत्वा तत्रैव सूकरी जाता। ततोऽपि मृत्वास्यां चम्पायां चाण्डालवाटके कुक्कुरी जाता। ततोऽपि मृत्वा तत्रैव वाटके मातङ्गनीलकौशाम्ब्योः पुत्री जात्यन्धा दुर्गन्धा च जाता। एकदा तो सूर्यमित्राग्निभूती तत्रागतौ । सूर्यमित्रस्योपवास अग्निभूतिश्चर्यार्थ पुरं प्रविश्यन्नन्तराले जम्बूवृक्षाधस्तान्मातङ्गी वीक्ष्य दुःखेनाश्रुपातं कृत्वा व्याधुटितो गुरुं नत्वा पृष्टवांस्तदर्शनात् किमिति मे दुःखं जातम् । गुरुणा तत्स्वरूपे भव्यत्वे तद्दिने मृत्यौ च कथिते तेन संबोध्याणुव्रतानि संन्यासनं च ग्राहिता । तावदेतद्वनिता त्रिवेद्या इमान् नागान् पूजयितुमागच्छन्तयास्तूर्याड म्बरमाकर्ण्य व्रतमाहात्म्येनास्याः पुत्री भविष्यामीति कृतनिदानेयं नागश्रीर्जाताद्य नागान् पूजयितुमागता । सूर्यमित्राग्निभूतिभट्टारकावावाम् । मे दर्शनात्पूर्वभवस्मरणाद्वेदाभ्यासं अनया बुद्ध्वा कथितम् । तद्वायुभूतिरेव नागश्रीरिति निरूपिते श्रुत्वा नागशर्मादयो
और सम्बोधित करके उसे घर वापिस ले आवें । यह सुनकर वायुभूतिको क्रोध आ गया । तब उसने उसके मुखमें पाँवसे ठोकर मार दी। इस अपमानसे क्रोधके वश होकर उसने यह निदान किया कि मैं जन्मान्तरमें तेरे दोनों पाँवोंको खाऊँगी। तत्पश्चात् सातवें दिन वायुभूतिको उदुम्बर ( एक विशेष जातिका ) कोढ़ हो गया। फिर वह मरकर वहींपर गधी और तत्पश्चात् शूकरी हुआ। इसके पश्चात् वह मरणको प्राप्त होकर इस चम्पापुरमें चण्डालके बाड़ेमें कुत्ती हुआ। फिरसे भी मरकर वह उसी बाड़े चाण्डाल नील और कौशाम्बीकी पुत्री हुआ जो कि जन्मान्ध और अतिशय दुर्गन्धित शरीरसे संयुक्त थी। एक समय वहाँपर वे सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि आये। उस दिन सूर्यमित्र मुनिने उपवास किया था । अकेले अग्निभूति मुनि चर्याके लिये नगरकी ओर जा रहे थे। बीचमें उन्हें जामुन वृक्षके नीचे बैठी हुई वह चण्डालिनी दिखायी दी। उसे देखकर उन्हें दुख हुआ। इससे उनकी आँखोंसे आँसू निकल पड़े। तब वे आहार न लेकर वहाँ से वापिस चले आये। उन्होंने गुरुके पास आकर नमस्कार करते हुए उनसे पूछा कि उस चण्डालिनीके देखनेसे मुझे दुख क्यों हुआ ? उत्तरमें गुरुने उक्त चण्डालिनीके वृत्तान्तका निरूपण करते हुए बतलाया कि वह भव्य है और आज ही उसका मरण भी होनेवाला है। इसपर अग्निभूतिने उसे सम्बोधित करके पाँच अणुव्रतों और सल्लेखनाको ग्रहण कराया। इस बीचमें इस (नागशर्मा) की पत्नी त्रिवेदी इन नागोंकी पूजाके लिये आ रही थी। उसके बाजोंकी ध्वनिको सुनकर इसने निदान किया कि मैं व्रतके प्रभावसे इसकी पुत्री होऊँगी। तदनुसार वह त्रिवेदीकी पुत्री यह नागश्री हुई है। आज यह नागोंकी पूजाके लिये यहाँ आयी थी। हम दोनों वे ही सूर्यमित्र और अग्निभूति भट्टारक हैं। मुझे देखकर इसे पूर्व भवका स्मरण हो गया है। इससे उसने पहिले किये हुए वेदके अभ्यासका स्मरण करके यहाँ उक्त प्रकारसे परीक्षा दी है। इस प्रकारसे वह वायुभूति ही यह नागश्री है। उपर्युक्त प्रकारसे मुनिके द्वारा निरूपित इस वृत्तान्तको सुनकर नागशर्मा आदि ब्राह्मणोंने जैन धर्मकी बहुत प्रशंसा की। उस समय उनमेंसे बहुतोंने
१.प श पादेनाबाडिता ब पादेनाताडिता । २. ब उंदुम्बर श उदंवर । ३.ब जातोनु मृत्वा । ४. प श चंडाल । ५. श कुकरी । ६. प श कौशांब्याः । ७. ब प्रतिपाठोऽयम् । श जात्यन्धापि
दुर्गन्धा जाता । ८. ब प्रतिपाठोऽयम् । श प्रविशंतांतराले । ९. ब त्रिविद्या । १०. श गच्छन्त्या सूर्या ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४.५
१२१ विप्राः 'अहो जैनधर्म एव धर्मो नान्यः' इति भणित्वा बहवो दीक्षिताः, नागश्रीत्रिवेद्यादयो ब्राह्मण्यश्च । राजा स्वपुत्रं लोकपालं राजानं कृत्वा बहुभिर्दीक्षितोऽन्तःपुरमपि ।
ततः संघेन सार्ध सूर्यमित्राचार्यो विहरन् राजगृहमागत्योद्यानेऽस्थात् । तदा कौशाम्ब्यधिपोऽतिबलश्च स्वपितृव्यं सुबलमवलोकयितुमागत्य तत्रास्थात् । तौ वनपालकादववुध्य वन्दितुं जग्मतुः। दीप्तर्द्धिप्राप्तं सूर्यमित्रं विलोक्य राजा तथाविधोऽयमेवंविधोऽभूदिति बहुविस्मयं गतोऽतिबलाय राज्यं ददानस्तेन निवृत्तौ कृतायां मीनध्वजाख्यतनुजाय तद्दत्त्वातिबलादिभिर्बहुभिर्दिदीक्षे, तद्वनिता अपि । इत्याद्यनेकदेशेषु धर्मप्रवर्तनां कुर्वन् सूर्य मित्रोऽस्थात् । नागश्रीबहुकालं तपो विधाय मासमेकं संन्यसनं चकार वितनुबभूवाच्युते पद्मगुल्मविमाने महर्द्धिकः पननाभनामा देवो जज्ञे । नागशर्मापि तत्रैबामरो
दी पद्मनाभस्याङ्गरक्षोऽजनि । चन्द्रवाहनसुबलातिबला श्रारणेऽतिविभूतियुक्ताः सुरा जज्ञिरे। अन्येऽपि स्वयोग्यां गतिं ययुः। सूर्यमित्राग्निभूती वाराणस्यां समुत्पन्नकेवलावग्निमन्दिरगिरी निवृत्तौ। पद्मनाभस्तन्निर्वाणपूजां विधाय द्वाविंशतिसागरोपमकालं सुखं रेमे। दीक्षा धारण कर ली। उनके साथ नागश्री और त्रिवेदी आदि ब्राह्मणियोंने भी दीक्षा ले ली । राजा चन्द्रवाहन अपने पुत्र लोकपालको राज्य देकर बहुतोंके साथ दीक्षित हो गया। उसके साथ उसके अन्तःपुरने भी दीक्षा ग्रहण कर ली।
तत्पश्चात् सूर्यमित्र आचार्य संघके साथ विहार करते हुए राजगृहमें आकर उद्यानके भीतर विराजमान हुए। उस समय कौशाम्बीका राजा अतिबल भी अपने चाचा सुबलसे मिलनेके लिये वहाँ आकर स्थित हुआ । जब उन दोनों (सुबल और अतिबल) को वनपालसे सूर्यमित्र आचार्यके शुभागमनका समाचार ज्ञात हुआ तब वे दोनों उनकी बन्दनाके लिये गये। उस समय सूर्यमित्र आचार्यको दीप्त ऋद्धि प्राप्त हो चुकी थी। उनको दीप्त ऋद्धिसे संयुक्त देखकर राजा सुबलने विचार किया कि जो सूर्यमित्र मेरे यहाँ पुरोहित था, वह तपके प्रभावसे इस प्रकारकी ऋद्धिको प्राप्त हुआ है। इस प्रकार तपके फलको प्रत्यक्ष देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने अतिबलके लिये राज्य देकर दीक्षा लेनेका निश्चय किया । परन्तु जब अतिबलने राज्यको ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया तब उसने मीनध्वज नामक अपने पुत्रको राज्य देकर अतिबल आदि बहुतसे राजाओंके साथ जिन-दीक्षा ग्रहण कर ली। इनके साथ ही उनकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली । इस प्रकारसे सुमित्र आचार्यने अनेक देशोंमें विहार करके धर्मका प्रचार किया। नागश्रीने बहुत समय तक तपश्चरण किया । अन्तमें उसने एक मासका संन्यास लेकर शरीरको छोड़ दिया। तब वह अच्युत स्वर्गके भीतर पद्मगुल्म विमानमें पद्मनाभ नामक महर्द्धिक देव हुई। इसी स्वर्गमें वह नागशर्मा भी देव उत्पन्न हुआ। त्रिवेदीका जीव मृत्युके पश्चात् उस पद्मनाभ देवका अंगरक्षक देव हुआ। चन्द्रवाहन, सुबल और अतिबल राजा आरण स्वर्गमें अतिशय विभूतिके धारक देव हुए। अन्य संयमी जन भी यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए। सूर्यमित्र और अग्निभूतिको वाराणसी पहुँचनेपर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वे दोनों अग्निमन्दिर पर्वतके ऊपर मोक्षको प्राप्त हुए। तब उस पद्मनाभ देवने आकर उनका निर्वाणोत्सव सम्पन्न किया। इस देवने अच्युत स्वर्गमें स्थित रहकर बाईस सागरोपम काल तक वहाँ के सुखका उपभोग किया।
१. ब त्रिविद्यादयो । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सुपितृव्यं । ३. श धर्मवर्तनां ।
Jain Education Interna &ial
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[३-४, २१-२२: अथावन्तिपूजयिन्यां राजा वृषभाङ्कः श्रेष्ठी सुरेन्द्रदत्तो रामा यशोभद्रा। सा पुत्रो नास्तीति विषण्णा यावदास्तें तावद्राजाज्ञाकारितानन्दभेरीनादं श्रुत्वा किमर्थोऽयं नाद इत्यप्राक्षीत् । सख्या भाषितम् 'सुमतिवर्धनो मुनिरुद्याने आगतस्तं वन्दितुं गमिष्यति नरेशः, इति भेरीरवः' इति विबुध्य सापि जगाम । तं वन्दित्वा पृच्छति स्म-हे नाथ, मे पुत्रो भविष्यति नो वेति । मुनिरुवाच-पुत्रो भविष्यति, किंतु तन्मुखं विलोक्य त्वत्पतिस्तपो गृहोष्यति, मुनेरवलोकनेन तनुजोऽपि । श्रुत्वा सा सहर्ष-विषादा जाता। कतिपयदिनैर्गर्भसंभूती श्रेष्ठी ज्ञास्यतीति भूमिगृहे प्रसूता । तदमेध्यलिप्ताशुचिवस्त्रं प्रक्षालयन्त्यश्चेटिकाया ज्ञात्वा कश्चिद्विप्रो वेणुवद्धध्वजहस्तः श्रेष्ठिनोऽचीकथत् । सोऽपि तन्मुखं विलोक्य विप्राय बहु द्रव्यं दत्त्वा दीक्षितः। तया तनुजं सुकुमाराभिधं कृत्वा यथा मुनि न पश्यति तथा करोमीति स्वर्णमयोऽनेकरत्नखचितः सर्वतोभद्राख्यो माटः कारितः । तत्समन्ताद्रजतमया द्वात्रिंशन्माटाः । स तत्राहोरात्रादिकालभेदं राजादिजातिभेदं शोतातपादिकं चाजानन्तुविमाने सुरेशवद्वृद्धिं जगाम । यूनस्तस्य चतुरिकाचित्रा
अवन्ति देशके भीतर उज्जयिनी पुरीमें राजा वृषभांक राज्य करता था। इसी नगरीमें एक सुरेन्द्रदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम यशोभद्रा था। इसके कोई पुत्र नहीं था। इसलिए वह उदास रहती थी। एक समय उसने राजाके द्वारा करायी गई आनन्दभेरीके शब्दको सुनकर पूछा कि यह भेरीका शब्द किसलिये कराया गया है ? इसके उत्तरमें उसकी सखीने कहा कि उद्यानमें सुमतिवर्धन नामके मुनिराज आये हुए हैं । राजा उनकी वन्दनाके लिये जायगा। इसीलिए यह भेरीका शब्द कराया गया है। इस शुभ समाचारको सुनकर वह यशोभद्रा भी मुनिकी वन्दनाके लिये उस उद्यानमें जा पहुँची । वन्दना करनेके पश्चात् उसने उनसे पूछा कि हे नाथ ! मेरे पुत्र होगा कि नहीं ? मुनि बोले--- पुत्र होगा, किन्तु उसके मुखको देखकर तुम्हारा पति दीक्षा ग्रहण कर लेगा। इसके अतिरिक्त मुनिका दर्शन पाकर वह पुत्र भी दीक्षित हो जावेगा। यह सुनकर उसे हर्ष और विषाद दोनों हुए। कुछ दिनोंमें यशोभद्राके गर्भाधान हुआ। पश्चात् उसने सेठको पुत्रजन्मका समाचार न ज्ञात हो, इसके लिये तलघरके भीतर पुत्रको उत्पन्न किया। परन्तु उसके रुधिर आदि अपवित्र धातुओंसे सने हुए वस्त्रोंको धोती हुई दासीको देखकर किसी ब्राह्मणने उसका अनुमान कर लिया । तब वह बाँसमें बँधी हुई ध्वजाको हाथमें लेकर सेठके पास गया और उससे इस पुत्रजन्मकी वार्ता कह दी। सेटने पुत्रके मुखको देखकर उस ब्राह्मणको बहुत द्रव्य दिया। फिर उसने दीक्षा ले ली । यशोभद्राने पुत्रका नाम सुकुमार रखकर 'वह मुनिको न देख सके' इसके लिये सर्वतोभद्र नामका अनेक रत्नोंसे खचित एक सुवर्णमय भवन बनवाया। इसके साथ उसने उसके चारों ओर रजतमय ( चाँदीसे निर्मित ) अन्य भी बत्तीस भवन बनवाये । इस भवनमें रहता हुआ वह सुकुमार दिन व रात आदिरूप कालके भेदको, राजा व प्रजा आदिरूप जातिभेदको तथा शीत ओर आतप आदिके दु:खको भी नहीं जानता था । वह ऋतु विमानमें स्थित इन्द्र के समान इस सुन्दर भवनमें वृद्धि को प्राप्त हुआ । जब सुकुमार युवावस्थाको प्राप्त हुआ
१. प-श :सुमतिवर्धमाननामा मुनि । २. ब जिगमिषति । ३. ब क्य तवेशस्तपो। ४. पश 'लिप्तामूल्यवस्त्रं बलिप्तासूच्यवस्त्रं । ५. प श°श्चेटिकया। ६. ब श्रेष्ठिनो कथयन् । ७. ब रत्नसंचितः । ८. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श तत्समाना रजत । ९. प फ माटः । १०. प श चाजानन् रितु फ चाजानन् ऋजु ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३–४, २१-२२ ]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
१२३
५
रेवतोमणिमाला पद्मिनी सुशीला रोहिणी सुलोचनासुदामाप्रभृतिद्वात्रिंशदिभ्येश्वर कन्याभिः प्रास्मदस्यैवोपरि विवाहं चकार, बहिर्विवाहमण्डपे उचितान्वयं' च । तासामेकैकं रजतमयं प्रासादमदत्त । एवं स सुकुमारो विभूत्यास्थात् । तद्दीक्षाभयान्मात्रा गृहे मुनिप्रवेशो निषिद्धः । एकदा केनचित् ग्रामान्तिकेनानघ रत्नकम्बलो राज्ञो दर्शितः । तेन गृहीतुमशक्तेन विसर्जितो' यशोभद्रया तनुजार्थं गृहीतः । स तं विलोक्य कर्कशोऽयं ममायोग्या [ग्य ] इत्यभणत् । तदा तया द्वात्रिंशद्वधूनां पादुकाः कारिताः । तत्र सुदामा ते पादयोर्निक्षिप्य स्वभवनस्योपरिमभूमौ पश्चिमद्वारमण्डपे उपविश्य ते तत्रैव विस्मृत्यान्तः प्रविष्टा । तत्रैकां पादुकां मांसभ्रान्त्या गृध्रो निनाय, राजभवनशिखरे उपविश्य चञ्च्वा हत्वा कोपेन तत्प्राङ्गणे चिक्षेप | राज्ञा " विलोक्य साश्चर्येण किमिति पृष्ठे केनचित्सुकुमारस्य वनितापादुकेति कथितेऽवनीशः कौतुकेन तं द्रष्टुं चचाल । सा विभूत्या स्वगृहमवी विशदवदच्च – देव, किमित्यागमनम् । सोऽभणत् कुमारान्वेषणार्थम् । तदा भूपं मध्यमभूमावुपावीविशत्, नन्दनमानिनाय दर्शयति स्म । राजा तं विलोक्यातिहृष्टोऽर्धासने उपवेशितवान् । तया
तब यशोभद्राने उसका विवाह चतुरिका, चित्रा, रेवती, मणिमाला, पद्मिनी, सुशीला, रोहिणी, सुलोचना और सुदामा आदि बत्तीस धनिककन्याओंके साथ उस भवनके भीतर से कर दिया तथा भवन के बाहर जो विवाह मण्डप बनवाया गया था वहाँपर उसने समुचित विवाहोत्सव भी किया । यशोभद्राने सुकुमारकी उन पत्नियोंको एक एक रजतमय भवन दे दिया । इस प्रकारसे वह सुकुमार अतिशय विभूतिके साथ वहाँ भोगोंका अनुभव कर रहा था । उसके दीक्षा ले लेनेके भय माताने अपने भवनमें मुनिके प्रवेशको रोक दिया था ।
एक दिन गाँवकी सीमा में रहनेवाले किसी व्यापारीने आकर एक रत्नमय अमूल्य कम्बल राजाको दिखलाया | परन्तु राजाने उसका मूल्य न दे सकनेके कारण उस कम्बलको न लेकर व्यापारीको वापिस कर दिया। तब यशोभद्राने उसका समुचित मूल्य देकर उसे अपने पुत्र के लिये ले लिया | परन्तु सुकुमारने उसे देखकर कहा कि यह कठोर है, मेरे योग्य नहीं है । तब यशोभद्राने उक्त रत्नकम्बलकी अपनी बत्तीस पुत्रवधुओंके लिये पादुका ( जूतियाँ ) बनवा दीं। उनमें से सुदामा एक दिन उन पादुकाओंको पाँवोंमें पहिनकर अपने भवन के ऊपर ( छतपर ) गई और वहाँ पश्चिमद्वारके मण्डपमें कुछ समय बैठी रही । फिर वह उन पादुकाओं को वहीं भूलकर महलके भीतर चली गई । उनमें से एक पादुकाको मांस समझकर गीध ले गया । उसने राजभवन के शिखरपर बैठकर चोंचसे उसे तोड़ा और क्रोधवश राजांगण में फेंक दिया । राजाने उसे आश्चर्यपूर्वक देखकर पूछा कि यह क्या है ? तब किसीने उससे कहा कि यह सुकुमारकी पत्नी की पादुका है । यह सुनकर राजा कैतूहलके साथ सुकुमारको देखनेके लिये चल दिया । उसे यशो सुभद्राने बड़ी विभूति के साथ भवन के भीतर प्रविष्ट कराया । फिर वह उससे बोली कि हे देव ! आपका शुभागमन कैसे हुआ है ? उत्तरमें राजाने कहा कि मैं सुकुमारको देखनेके लिये आया हूँ | तब यशोसुभद्राने उसे भवन के मध्यम खण्डमें बैठाया और फिर पुत्रको लाकर उसे दिखलाया । राजाने उसे देखा और प्रसन्न होकर अपने आधे आसनपर बैठा लिया। तत्पश्चात् यशोभद्राने राजासे
१. प श उचितान्वायं ब उचितात्रयं । २. ब केनचिद्भ्रमं तुकेना । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श तेन ने गृहीतमशक्तेन विराजिते । ४. श सत्यं । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श ममायोग्येत्यभणत् । ६. श 'ते' नास्ति । ७. श राजा । ८. पश उपवेष्टितवान् फ उपविष्टितवान् ।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[३-४, २१-२२: राज्ञो भणितमत्र भुक्त्वा गन्तव्यमभ्युपगतं तेन । भुक्त्यूर्व राजा तामपृच्छदस्य व्याधित्रयं किमित्युपेक्षितम् । तयोक्तं कः को व्याधिः। सोऽभाषत चलासनत्वं प्रकाशे लोचनस्रवणं भोजन एकैकसित्थु[क्थ] गिल नमुगिलनं च । तयोच्यते-नेमे व्याधयः, किंत्वयं दिव्यशय्यायां दिव्यगहिकायां शेते उपविशते चाद्य युष्माभिः सहोपविष्टस्य मस्तके क्षिप्तसिद्धार्थेषु सुखासने पतितसिद्धार्थकार्कश्येन चलासनोऽभूत् । रत्नप्रभां विहायान्या प्रभा कदाचिदनेन न दृष्टा । अद्य युष्माकमारत्युद्धरणे दीपप्रभादर्शनेन लोचनस्रवर्णमस्याभूत् । दिनास्तसमये शालितण्डुलान् प्रक्षाल्य सरसि कमलकर्णिकायां निक्षिप्य ध्रियन्ते । द्वितीयदिने तेषामोदनं भुङ्क्ते। अद्य तदोदनमुभयोर्न पूर्यत इति तन्मध्येऽन्येऽपि तण्डुला निक्षिप्ता इति कृत्वा तथा भुक्तवानिति निरूपिते साश्चर्योऽभूद्राजा। तयोपायनीकृतवस्त्राभरणरत्नस्तं पूजयित्वावन्तिसुकुमार इति तस्यापरं नाम कृत्वा स्वावासं जगाम नृपः । सोऽवन्तिकुमारो दिव्यभोगान् चिक्रीड।
___ एकदा तन्मातुलो महामुनियशोभद्रनामावधिज्ञानी तमल्पायुष विवेद, तत्संबोधनार्थ प्रार्थना की कि आप भोजन करके यहाँसे वापिस जावें। राजाने उसकी प्रार्थनाको स्वाकार कर लिया। भोजनके पश्चात् राजाने यशोभद्रासे पूछा कि कुमारको जो तीन व्याधियाँ हैं उनकी तुम उपेक्षा क्यों कर रही हो ? उत्तरमें सुभद्राने पूछा कि इसे वे कौन कौन-सी व्याधियाँ हैं ? तब राजाने कहा कि प्रथम तो यह कि वह अपने आसनपर स्थिरतासे नहीं बैठता है, दूसरे प्रकाशके समय इसकी आँखोंसे पानी बहने लगता है, तीसरे भोजनमें वह चावलके एक-एक कणको निगलता है
और थूकता है। यह सुनकर यशोभद्रा बोली कि ये व्याधियाँ नहीं हैं। किन्तु यह दिव्य शय्या ( पलंग ) के ऊपर दिव्य गादीपर सोता व बैठता है। आज जब यह आपके साथ बैठा था तब मंगलके निमित्त मस्तकपर फेंके हुए सरसोंके दानोंमेंसे कुछ दाने सिंहासनके ऊपर गिर गये थे। उनकी कठोरताको न सह सकनेके कारण वह आसनके ऊपर स्थिरतासे नहीं बैठ सका था । इसके अतिरिक्त इसने अब तक रत्नोंकी प्रभाको छोड़कर अन्य दीपक आदिकी प्रभाको कभी भी नहीं देखा है। परन्तु आज आपकी आरती उतारते समय दीपककी प्रभाको देखनेसे इसकी आँखों मेंसे पानी निकल पड़ा। तीसरी बात यह है कि सूर्यास्तके समय शालि धान्यके चावलोंको धोकर तालाबके भीतर कमलकी कर्णिकामें रख दिया जाता है। तब दूसरे दिन वह इनके भातको खाया करता है। आज चूंकि उतने चावलोंका भात आप दोनोंके लिये पूरा नहीं हो सकता था इसीलिये उनमें कुछ थोड़े-से दूसरे चावल भी मिला दिये गये थे। इसी कारण उसने अरुचिपूर्वक उन चावलोंको चुन-चुनकर खाया है। इस प्रकार यशोभद्राके द्वारा निरूपित वस्तुस्थितिको जान करके राजाको बहुत आश्चर्य हुआ। उस समय यशोभद्राके द्वारा राजाके लिये जो वस्त्र और आभूषण भेंट किये गये थे उनसे राजाने उसके पुत्रका सम्मान किया, अन्तमें वह कुमारका 'अवन्तिसुकुमार' यह दूसरा नाम रखकर अपने राजभवनको वापिस चला गया। वह अवन्तिसुकुमार दिव्य भोगोंका अनुभव करता हुआ क्रीड़ामें निरत हो गया।
एक दिन सुकुमारके मामा यशोभद्र नामक महामुनिराजको अवधिज्ञानसे विदित हुआ कि अब सुकुमारकी आयु बहुत ही थोड़ी शेष रही है। इसलिये वह सुकुमारको प्रबुद्ध करनेके
१. ब सित्थू । २. ब उपविशति । ३. प विहायन्या। ४. प श श्रमण । ५. प श तयोपानीयकृत
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२] ३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
१२५ योगग्रहणदिन एव तदालयनिकटस्थोद्याने स्थितजिनालयमागतः । वनपालकेनाम्बिकायाः कथिते तया गत्वा वन्दित्वोक्तं हे नाथ, मे पुत्रस्यात बहु विद्यते । स तव शब्दश्रवणेनापि तपो ग्रहीष्यति चेन्मे मरणं स्यादितोऽन्यत्र याहि । मुनिरुवाच-- हे मातर्योगदिनं वर्तते, क्वापि गन्तुं तु नायाति, किन्त्वत्र चातुर्मासिकप्रतिमायोगेन तिष्ठामीतिप्रतिमायोगेने तस्थौ । कार्तिकपूर्णमास्यां रात्रौ चतुर्थयामे योगं निर्वयं विगतनिद्रं तं ज्ञात्वा तदाद्वानार्थं त्रिलोकप्रशप्तेः परिपाटिं कर्तुं प्रारब्धी ? । तां शृण्वन्नच्युतपद्मगुल्मविमानस्थपद्मनाभदेवस्य विभूतिवर्णने क्रियमाणे जातिस्मरो जातः । वैराग्यपरायणो भूत्वा तदुत्तरणोपायः कोऽपि नास्तीति सचिन्तो वस्नपेटिकां ददर्श । ततो वस्त्राण्याकृष्य परस्परं संधिं दत्त्वा तदनमेकं स्तम्भे बद्धमन्यद भूमौ निक्षिप्तम् , तां वस्त्रमालां धृत्वा पुण्येनोत्तीर्णः तदन्तिकं जगाम, तं वन्दित्वा दीक्षां ययाचे । यतिनोक्तं त्वया भद्रं कृतम् , दिनत्रयमेवायुरिति । तदनु स 'विविक्ते शिलातले संन्यासं ग्रहीष्यामि' इति दिदीक्षे । प्रातः पुरान्निर्गत्य मनोज्ञप्रदेशे प्रायोपगमनं जग्राह । यशोभद्राचार्योऽपि तस्मानिर्गत्यै लिये वर्षायोग ग्रहण करने के दिन ही उसके भवनके निकटवर्ती उद्यानमें स्थित जिनभवनमें आया । तब वनपालने मुनिके आनेका समाचार सुकुमारकी माताको दिया। इससे उसने वहाँ जाकर मुनिकी वंदना करते हुए उनसे कहा कि हे नाथ ! मुझे पुत्रका मोह बहुत है । वह तुम्हारे शब्दोंके सुननेसे ही यदि तपको ग्रहणकर लेता है तो मेरा मरण निश्चित है। इसीलिये आप यहाँसे किसी दूसरे स्थानमें चले जावें । इसके उत्तरमें मुनि बोले कि हे माता ! आज वर्षायोगका दिन है, अत एव अब कहीं अन्यत्र जाना सम्भव नहीं है। अब मुझे चातुर्मासिक प्रतिमायोगसे यहींपर रहना पड़ेगा। इस प्रकार वे मुनिराज प्रतिमायोगसे वहींपर स्थित हो गये । जब उनका चातुर्मास पूर्ण होनेको आया तब उन्होंने कार्तिककी पूर्णिमाको रात्रिके अन्तिम पहरमें वर्षायोगको समाप्त किया । इस समय उन्होंने जाना कि अब सुकुमारकी निद्रा भंग हो चुकी है। तब उन्होंने उसको बुलानेके लिए त्रिलोकप्रज्ञप्तिका अनुक्रमसे पाठ करना प्रारम्भ कर दिया । उसमें जब अच्युत स्वर्गके पद्मगुल्म विमानमें स्थित पद्मनाभ देवकी विभूतिका वर्णन आया तब उसे सुनकर सुकुमारको जातिस्मरण हो गया । इससे उसके वैराग्यभावका प्रादुर्भाव हुआ। तब वह उस भवनसे बाहर जानेको उद्यत हुआ । परन्तु उससे बाहर निकलनेके लिये उसे कोई उपाय नहीं दिखा। इससे वह व्याकुल हो उठा । इतने में उसे एक वस्त्रोंकी पेटी दीख पड़ी। उसमेंसे उसने वस्त्रों को निकाल कर उन्हें परस्परमें जोड़ दिया। फिर उसने उस वस्त्रमालाके एक छोरको खम्भेसे बाँधा और दूसरेको नीचे जमीन तक लटका दिया। इस प्रकार वह उस वस्त्रमालाका अवलम्बन लेकर पुण्योदयसे उस भवनके बाहिर आ गया। तत्पश्चात् उसने मुनिराजके निकट जाकर उनकी वंदना करते हुए उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। मुनिराज बोले कि तुमने बहुत अच्छा विचार किया है, अब तुम्हारी केवल तीन दिनकी ही आयु शेष रही है। तत्पश्चात् उसने निर्जन शिलातलके ऊपर संन्यास लेनेका विचार किया और वहीं पर दीक्षित हो गया । पश्चात् प्रातःकाल होनेपर उसने नगरके बाहर जाकर किसी मनोहर स्थानमें प्रायोपगमन ( स्व और परकृत सेवा-शुश्रषाका परित्याग) संन्यास ले लिया। यशोभद्राचार्य भी उसे जिनालयसे जाकर किसी अन्य जिनालयमें ठहर
१. ब 'तु' नास्ति । २. श योगेन ति प्रतिमा । ३. ब निवृत्य । ४. श प्रारब्धां । ५. ब संधित्वा । ६. फ स्वश्रू ब श्वश्रूः।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
[ ३-४, २१-२२ :
कस्मिन् जिनालये तस्थौ । इतस्तद्वनितास्तमदृष्ट्वा स्वश्वश्रवाः कथितवत्यः । सा तच्छ्रुत्वा मूर्च्छिता इतस्ततो गवेषयन्ती वस्त्रमालां ददर्शानया गता इति बुबुधे । तचैत्यालये तं मुनिमपश्यन्ती तेनैव नीतः इति विचिन्त्य राजादयोऽपि महाग्रहेण गवेषयितुं गताः । न च क्वापि दृष्टस्तन्निर्गमनदिने तन्नगरपश्वादिभिरपि ग्रासादिकं त्यक्तम्, किं पुनर्बन्धुभिः । इतः सुकुमारमुनिरेकपार्श्व स्वपरवैयावृत्यनिरपेक्षो भावनया युतो यावदास्ते तावत्सा सोमदत्ताने योनिषु भ्रमित्वा तत्र शृगाली बभूव । तया तद्गमनकाले स्फुटितपादरुधिर'पादुका आस्वादयन्त्या गत्वा स मुनिर्निस्पन्दकात्मको दृष्टः । स्वयं तद्दक्षिणं चरणं पिल्लका वामचरणं च खादितुं लग्नाः । प्रथमदिने जानुनी, द्वितीये जङ्के खादिते । तृतीयदिनेऽर्धरात्रौ जठरं विदार्यान्त्रावली आकृष्टा । तदा परमसमाधिना तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धावजनि । तदा सुरेश्वराणां विष्टराणि प्रकम्पितानि । विबुध्यासौ [ध्याहो] सुकुमारस्वामिना महाकालः कृत इति जयजयशब्देस्तूर्यादिभिश्व व्याप्ताशाः समाः, तच्छरीरपूजां चक्रिरे । तज्जयजयनिनादमाकर्ण्य तन्माता तत्तपोग्रहणं तद्गतिं विबुध्यार्त विसृज्य सोत्साहा बभूव, ततः स्तुतिं च चकार प्रातः सर्वजनमाहूय राजादिभिः सह तत्र जगाम । तदर्धशरीर
पुण्यात्रवकथाकोशम्
गये । इधर सुकुमारकी स्त्रियोंने उसे न देखकर अपनी सासूसे कहा । वह इस बात को सुनकर मूच्छित हो गई। तत्पश्चात् सचेत होकर जब इधर-उधर खोजा तब उसे वह वस्त्रमाला दिखायी दी। इससे उसे ज्ञात हुआ कि वह भवनके बाहर निकल गया है। फिर जब उसने चैत्यालय में जाकर देखा तो वहाँ उसे वे मुनि भी नहीं दिखायी दिये। अब उसे निश्चय हो गया कि कुमारको
मुनि ही गये हैं । इसी विचारसे राजा आदि भी महान् आग्रहसे उसे खोजने के लिये गये । परन्तु वह उन्हें कहीं पर भी नहीं मिला । सुकुमारके जानेके दिन बन्धुजनोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु उस नगर के पशुओं तकने भी आहारादिको ग्रहण नहीं किया। उधर सुकुमार मुनि स्त्र व परकृत वैयावृत्तिसे निरपेक्ष होकर एक पार्श्वभागसे स्थित हुए और भावनाओंका विचार करने लगे ! उस समय वह सोमदत्ता ( अग्निभूतिकी पत्नी) अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हुई उस वनमें श्रृंगाली हुई थी । वनमें जाते समय सुकुमारके कोमल पाँवोंके फूट जानेसे जो रुधिरकी धारा निकली थी उसको चाटती हुई वह शृगाली वहाँ जा पहुँची । उसने वहाँ उन निश्चल सुकुमार मुनिको देखा । तब वह उनके दाहिने पैर को स्वयं खाने लगी और वाँये पैर को उसके बच्चे खाने लगे । उन सबने पहिले दिन उनको घुटनों तक और दूसरे दिन जांघों तक खाया। तीसरे दिन आधी रात के समय जब उन सबने पेटको फाड़कर आँतों को खींचना प्रारम्भ किया तब उत्कृष्ट समाधिके साथ शरीरको छोड़कर वे सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुए । उस समय इन्द्रोंके आसन कम्पित हुए। इससे जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सुकुमार स्वामी घोर उपसर्गको सहकर मरणको प्राप्त हुए हैं । तब वे जय जय शब्दों और वादित्रों आदिके शब्दोंसे समस्त दिशाओं को व्याप्त करते हुए वहाँ गये । वहाँ जाकर उन्होंने सुकुमारके शरीरकी पूजा की। देवोंके जय जय शब्दको सुनकर जब सुकुमारकी माताको उसके दीक्षित होकर उत्तम गतिको प्राप्त होनेका समाचार ज्ञात हुआ तब उसने आर्त ध्यानको छोड़कर सुकुमारको उत्साहपूर्वक स्तुति की । प्रातः काल हो जानेपर वह
१. ब ददर्शनायागति बुबुधे । २. ब लग्नाः । ३ ब तन्निर्गमदिने । ४. पार्श्वणा । ५. श भायनया । ६ ब गता । ७. ब प्रकंपिततानि तत्कालकृति बुध्याहो सुकुमार । ८ फश तच्छरीरे पूजां । ९. ब तत्स्तुतिं चकार ।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-४, २१-२२ ]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४-५
१२७
विलोकनानन्तरं मूर्च्छया धरित्र्यां पपात तदनु महाशोकं चकार वध्वो बान्धवोऽपि । राजादीनां महदाश्चर्य जातम्। तदनु सा आत्मानं जनं च संबोध्य महतामनुष्ठानमेतदिति संतुष्टा तत्पूजां संस्कारं च कृत्वा यत्र यशोभद्राचार्योऽस्थात् तत्र सर्वेऽपि समागताः । मुनिं वीक्ष्य सानन्देन मनाक् हसित्वा जिनं समर्च्य वन्दित्वा, तमपि तदनु तं पप्रच्छ सुकुमारस्योपरि मेsतिस्नेहकारणं किमिति । तदा [ मुनिना] प्राक्तनी कथाशेषाच्युतगमनपर्यन्तं कथिता | नागशर्मचरदेवोंऽच्युतादागत्य राजश्रेष्ठीन्द्रदत्तगुणवत्योः सुरेन्द्रदत्तोऽजनि । चन्द्रवाहनस्तस्मादेत्य वैश्य सर्वयशोयशोमत्यो स्तनुजोऽहं यशोभद्रनामा जातः, कौमारे दीक्षितोsafधमन:पर्यययुतो जातः । त्रिवेदीचरस्तस्मादागत्य मम भगिनी त्वं जातासि । पद्मनाभः समेत्य सुकुमारोऽभूत् । सुबलचर प्रारणादागत्य वृषभाङ्कोऽजनि । अतिबलस्ततोऽवतीर्यास्य भूपस्य नन्दनकनकध्वजों "उजनीत्यादि प्रतिपादिते यशोभद्रा चतसृणां गर्भवतीनां सुकुमारप्रियाणां गृहादिकं समर्प्य शेषस्नुषाभिर्बन्धुभिश्चं दीक्षिता । राजा लघुपुत्राय राज्यं वितीर्य कनकध्वजादिबहुराजपुत्रैर्दीक्षां बभार तनार्योऽपि । सर्वेऽपि विशिष्टं तपश्चक्रुः । ततः सुरेन्द्रदत्तयशोभद्रवृषभाङ्ककनकध्वजा मोक्षं जग्मुः । अन्ये सौधर्मप्रभृतिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं गताः ।
समस्त जनको बुलाकर राजा आदिकोंके साथ उस स्थानपर गई । वहाँ जब उसने सुकुमार के शेष रहे आधे शरीरको देखा तब वह मूर्छित होकर पृथिवीपर गिर गई । उस समय उसके शोकका पारावार न था । सुकुमारकी पत्नियों और बन्धुजनोंको भी बहुत शोक हुआ । सुकुमारकी सहनशीलता को देखकर राजा आदिकों को बहुत आश्चर्य हुआ । तत्पश्चात् उसने सन्तुष्ट होकर अपने आपको तथा अन्य जनता को भी संबोधित करते हुए कहा कि ऐसा दुर्धर अनुष्ठान महा पुरुषोंके ही सम्भव है । अन्तमें वे सब सुकुमारके शरीरकी पूजा व अग्निसंस्कार करके जिस जिनालय में यशोभद्राचार्य विराजमान थे वहाँ गये । मुनिराजको देखकर यशोभद्राने आनन्दपूर्वक कुछ हँसते हुए प्रथमतः जिनेन्द्रकी पूजा व वंदना की और तत्पश्चात् उन मुनिराजकी भी पूजा व वंदना की । फिर उसने उनसे पूछा कि सुकुमारके ऊपर मेरे अतिशय स्नेहका क्या कारण है ? इस प्रश्नको सुनकर यशोभद्र मुनिने अच्युत स्वर्ग जाने तककी पूर्वकी समस्त कथा कह दी । तत्पश्चात् वे बोले कि जो नागशर्माका जीव जो अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था वह वहाँ से च्युत होकर राजसेठ इन्द्रदत्त और गुणवतीका पुत्र सुरेन्द्रदत्त ( यशोभद्राका पति ) ' हुआ है । चन्द्रवाहन राजाका जीव वहाँ से च्युत होकर वैश्य सर्वयश और यशोमतीके मैं यशोभद्र नामक पुत्र हुआ हूँ। मैंने कुमार अवस्थामें ही दीक्षा ले ली थी। मुझे अवधि और मन:पर्ययज्ञान प्राप्त हो चुका है। त्रिवेदीका जीव स्वर्गसे च्युत होकर मेरी बहिन तुम हुई हो । पद्मनाभ देव वहाँ से च्युत होकर सुकुमार हुआ था । राजा सुबलका जीव आरण स्वर्गसे आकर वृषभांक राजा हुआ है । अतिबलका जीव वहाँ से च्युत होकर इस राजाका पुत्र कनकध्वज हुआ है । मुनिराजके द्वारा प्रतिपादित इस सब वृत्तान्तको सुनकर यशोभद्राने सुकुमारकी चार गर्भवती पत्नियोंको घर आदि सँभलाकर शेष सब पुत्रधुओं और बन्धुओं के साथ दीक्षा धारण कर ली । राजाने छोटे पुत्रको राज्य देकर कनकध्वज आदि बहुत-से राजपुत्रों के साथ दीक्षा ले ली । साथ ही उनकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली। उन सभीने घोर तपश्चरण किया। उनमेंसे सुरेन्द्रदत्त, यशोभद्र, वृषभांक और कनकध्वज मोक्षको
१. ब मूछिया । २. फ तमपप्रच्छ । ३. ब पर्यंती । ४. श नागशर्माचर ६. फस्नुपादिभिर्वन्धुभिश्च । ७. ब रचादीक्षिता ।
t
५. श नंदनकध्वजो ।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ३-४, २१-२२ यशोभद्राच्युतमन्याः सौधर्मादितत्पर्यन्तकल्पेषु देवा देव्यश्च बभूवुरिति । एवं माययागमश्रुतावपि सूर्यमित्रः सर्वशोऽभूत, मातङ्गी सुकुमारोऽजनि तद्भावनयान्ये किं लोकाधिपा न स्युरिति ॥ ४-५॥
[२३ ) लाक्षावासनिवासकोऽपि मलिनश्चौरः सदा रौद्रधी
श्चाण्डालादमलोगमस्य वचनं श्रुत्वा ततः शर्मदम् । सर्वज्ञो भवति स्म देवमहितो भीमाह्वयः सौख्यदो ।
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥ ६ ॥ अस्य कथा- सौधर्मकल्पे कनकप्रभविमाने कनकप्रभनामा देवः कनकमालादेव्या सह नन्दीश्वरद्वीपं सर्वदेवैर्गत्वा तत्पूजानन्तरं देवेषु स्वर्गलोकं गतेषु स्वयं जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे. पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीपुरवाह्यस्थितजगत्पालनामधेयचक्रेश्वरकारितकनकजिनालयं पूजयितुं जगाम । तत्र शिवंकरोद्याने स्थितद्वादशसहस्रयतिभिः सुव्रताचार्य ददर्श तन्मध्ये भीमसाधुनामानमृर्षि च। तं स्वजन्मान्तरशत्रु विबुध्य तं निःशल्यं बोर्बु स सवनितो नरो भूत्वा गणिनं समुदायं च वन्दित्वा भीमसाधुमपृच्छद्धर्मम् । सोऽवोचदहं मुखोऽन्यं प्रच्छ। तर्हि त्वं किमिति मुनिरभूत् । स्वातीतभवानाकलय्य यांतरभवम् । ताहि प्राप्त हुए। शेष सब यथायोग्य सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक पहुँचे । यशोभद्रा अच्युत स्वर्गमें तथा शेष स्त्रियाँ सौधर्मसे लेकर यथायोग्य अच्युत स्वर्ग तक देव व देवियाँ हुई। इस प्रकार मायाचारसे भी जब सूर्यमित्र आगमको सुनकर सर्वज्ञ तथा वह चाण्डाली सुकुमार हुई है तब क्या अन्य भव्य जीव सुरुचिपूर्वक उसके चिन्तनसे लोकके स्वामी नहीं होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ४-५ ॥
लाखके घरमें स्थित होकर निरन्तर क्रूर परिणाम रखनेवाला जो निकृष्ट चोर चाण्डालसे निर्मल एवं सुखदायक आगमके वचनको सुनकर भीम नामक केवली हुआ, जिसकी देवोंने आकर पूजा की। इसीलिए जिन भगवान्में भक्ति रखनेवाला मैं उस आगमकी प्राप्तिसे निर्मल चारित्रको धारण करता हुआ पृथिवीतलपर कृतार्थ होता हूँ ॥ ६ ॥
इसकी कथा इस प्रकार है- सौधर्म कल्पके भीतर कनकप्रभ विमानमें स्थित कनकप्रभ नामका देव कनकमाला देवी और सब देवोंके साथ नन्दीश्वर द्वीपमें गया । वहाँ उसने जिन-पूजा की। तत्पश्चात् अन्य सब देवोंके स्वर्गलोक चले जानेपर वह स्वयं जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्व विदेहके भीतर पुष्कलावती देशमें स्थित पुण्डरीकिणी पुरके बाह्य भागस्थ कनक जिनालयकी पूजा करनेके लिये गया। यह जिनालय जगत्पाल नामक चक्रवर्तीके द्वारा निर्मित कराया गया था। वहाँ उसने शिवंकर उद्यानमें स्थित बारह हजार मुनियोंके साथ सुव्रताचार्य और उस संघके मध्यमें स्थित भीमसाधु नामक ऋषिको भी देखा। उसने उसको अपने पूर्व जन्मका शत्रु जानकर उसकी निःशल्यताको ज्ञात करनेके लिये कनकमालाके साथ मनुष्यका वेष धारण किया । फिर उसने आचार्य और संघकी वन्दना करके भीमसाधुसे धर्मके विषयमें पूछा । तब भीमसाधुने कहा कि मैं मूर्ख हूँ, उसके सम्बन्धमें किसी दूसरेसे पूछो । इसपर पुरुष वेषधारी देव बोला कि तो फिर तुम मुनि क्यों हुए हो ? उसने उत्तर दिया कि अपने पूर्व भवोंको जानकर मैं मुनि हुआ हूँ। यह
१. प चंडालादमला, शचंडालार्दमला । २. फ तं निःशल्यंत्वं ब तनिःशल्य [तन्निःशल्यत्वं] ।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-६, २३ ]
१२६
तानेव कथय । कथयामि शृणु त्वम् । अत्रैव विषये मृणालपुरे राजा सुकेतुः, वैश्यः श्रीदत्तो वनिता विमला, पुत्री रतिकान्ता । विमलायाः भ्राता रतिधर्मा, जाया कनकश्रीः, पुत्रो भवदेवो दीर्घग्रीव इति उष्ट्रग्रीवापरनामाभूत् । स द्वीपान्तरं गच्छन् सन् रतिकान्ता मह्यं दातव्या, श्रन्यस्मै ददासि चेद्राजाशेति मातुलस्याज्ञां द्वादशवर्षाण्यवधिं च कृत्वागमत् । श्रवयतिक्रमेऽशोकदेव - जिनदत्तयोर्नन्दनसुकान्ताय दत्ता सा । आगतेन भवदेवेन तन्मारणार्थम् उपार्जितद्रव्येण भृत्याः कृताः । तं ज्ञात्वा दम्पती शोभानगरेशप्रजापालस्य भृत्यं शक्तिसेनं [षेणं] धन्नगाख्याटव्यां स्थानान्तरेण स्थितं सहस्रभटं शरणं प्रविष्टौ । तद्भयात्स तूष्णीं स्थितः । तस्मिन् मृते तेनाग्निं दत्त्वा मारितौ । ग्राम्यैः सोऽपि तदग्नौ क्षिप्तो ममार । तौ पुण्डरीकिण्यां कुबेरकान्तराजश्रेष्ठिगृहे पारापतौ जज्ञाते । स तत्समीपजम्बूग्रामे मार्जारोऽजनि । तौ पारापतावेकदा तद्धामं गतौ तन्मार्जारेण खादितौ । मृत्वा पक्षी हिरण्यवर्मनामा विद्याधरचक्री बभूव, पक्षिणी तदग्रमहिषी प्रभावती जाता । तदनु तपो जगृहतुः । हिरण्यवर्ममुनिः स्वगुरुणा पुण्डरीकिणीमागतः, सापि स्वक्षान्तिकया सह । शिवंकरोद्याने स्थिती समुदायौ । समार्जारो मृत्वा तदा तत्र विद्युद्वेगनामा कोट्टपालकस्य भृत्योऽभूत् । तद्वनिता वन्दितुं
• श्रुतोपयोगफलम् ६
३.
सुनकर वह देव बोला कि तो उन पूर्व भवोंको ही कहिये । इसपर उसने कहा कि उन्हें कहता हूँ, सुनो । इसी देश के भीतर मृणालपुर में सुकेतु राजा राज्य करता था । वहाँ एक श्रीदत्त नामका वैश्य था । इसकी पत्नीका नाम विमला था । इन दोनोंके एक रतिकान्ता नामकी पुत्री थी । विमला एक भाई था, जिसका नाम रतिधर्मा था । रतिधर्माकी पत्नीका नाम कनकश्री था । उसके एक भवदेव नामका पुत्र था । उसकी ग्रीवा लम्बी थी । इसीलिये उसका दूसरा नाम उष्ट्रग्रीव भी प्रसिद्ध था । द्वीपान्तरको जाते हुए उसने अपने मामा से कहा कि रतिकान्ताको मेरे लिये देना । यदि तुम उसे किसी दूसरेके लिए दोगे तो राजाज्ञा के अनुसार दण्डको भोगना पड़ेगा । इस प्रकार मामासे कहकर और उसके लिये बारह वर्षकी मर्यादा करके वह द्वीपान्तरको चला गया। उसकी वह बारह वर्षकी अवधि समाप्त हो गई, परन्तु वह वापिस नहीं आया । तब वह कन्या अशोकदेव और जिनदत्ताके पुत्र सुकान्तके लिये दे दी गई । जब वह भवदेव वापस आया तब उसने सुकान्तको मार डालनेके लिये कमाये हुए द्रव्यको देकर कुछ भृत्योंको नियुक्त किया । इस बातको जान करके वे दोनों ( सुकान्त और रतिकान्ता ) शोभानगरके राजा प्रजापालके सेवक ( सामन्त ) शक्तिसेन नामक सहस्रभटकी शरणमें पहुँचे । उस समय वह सहस्रभट धन्नगा नामकी अटवीमें पड़ाव डालकर स्थित था। उसके भयसे वह भवदेव तब शान्त रहा । तत्पश्चात् भवदेवने उस सहस्रभटके मर जानेपर उन्हें आगमें जलाकर मार डाला । इधर ग्रामवासियोंने उसको भी उसी आगमें फेंक दिया। इससे वह भी मर गया । सुकान्त और रतिकान्ता ये दोनों मरकर पुण्डरीकिणी नगरीमें कुबेरकान्त नामक राजसेठके घरपर कबूतर और कबूतरी हुए थे और वह भवदेव मरकर उसके समीप जम्बू ग्राममें बिलाव हुआ था । वे कबूतर और कबूतरी एक दिन उसके स्थान (जम्बू ग्राम) पर गये, वहाँ उन्हें उस बिलावने खा लिया। इस प्रकारसे मरकर वह कबूतर तो हिरण्यवर्मा नामका विद्याधरोंका चक्रवर्ती हुआ और वह कबूतरी उसकी प्रभावती नामकी पटरानी हुई। कुछ समय के पश्चात् उन दोनोंने दीक्षा ग्रहण कर ली । एक बार हिरण्यवर्मा मुनि अपने गुरुके साथ पुण्डरीकिणी नगरीमें आये। साथ ही वह प्रभावती भी अपनी प्रमुख आर्यिका साथ वहाँ गई । ये दोनों संघ वहाँ जाकर शिवंकर उद्यानमें स्थित हुए ।
Jain Education Internationa
१७
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्या लवकथाकोशम्
[ ३–६, २३ :
गतेराजादिभिस्तत्र गता । लोकपालो राजा रूपसमग्रं युवानं हिरण्यवर्ममुनिं विलोक्य तद्गुरुगुणचन्द्रयोगिनं पृष्टवान् श्रयं कः किमिति दीक्षितः । मुनिरब्रूत - श्रतीतभवे कुबेरकान्तश्रेष्ठ पारापतयुगलमासीत्तजन्मान्तरविरोधिमार्जारेण जम्बूग्रामे भक्षितम् । सहानानुमोद फलेन वियच्चरमुख्यदम्पती जाता । विमाननगरीं विलोक्य जातिस्मरौ भूत्वा दीक्षिताविति श्रुत्वा राजादयो मुनि नत्वा पुरं प्रविष्टाः । तया स्वभर्तुस्तद्वृत्तं कथितम् । तदा सोऽपि जातिस्मरो जातः । रात्रौ तं मुनिं तामर्जिको चोत्थाप्य श्मशानं नीत्वैकत्र बन्धित्वा चिताग्नौ चिक्षेप । तौ दिवं गतौ । दिनान्तरैः सोऽपि राजा [ज] भाण्डागारं मुमोषेति धृत्वा चतुर्दशीदिने मारणाय पितृवनमाकृष्टः । तदा तं चण्डाभिश्चाण्डालो न हन्ति, ममाद्य त्रसघातें निवृत्तिरस्तीति वदति । राज्ञा कोपेन लाक्षागृहे निक्षिप्य प्रातरग्निदयतामित्यादेशो दत्तो भृत्यानाम् । तथा कृते विद्युद्वेगेनोच्यते - हे चण्ड, मां हत्वा सुखेन किं न तिष्ठसि । मातङ्गोऽवोचज्जिनधर्मातिशयं विलोक्य चतुर्दश्यामुपवासोऽहिंसा' चागृहम् । ततो स्त्रिये, न तु मारयामि । तद्वचः श्रुत्वा चौरः स्वनिन्दां चक्रे 'अहोऽहं अस्मादपि निकृष्ट र्यत्यार्जिकयोर्वध कारकत्वात्' । उक्तवांश्व हे चण्ड, 'मुनिअर्जिकावधकस्य मे का गतिः स्यात्ते
१.३०
इधर वह बिलाव मरकर उस समय वहाँ विद्युद्वेग नामका कोतवालका अनुचर हुआ था । उसकी स्त्री निवन्दना के लिये जाते हुए राजा आदिके साथ गई । लोकपाल नामक राजाने सुन्दर हिरण्यवर्मा मुनिको तरुण देखकर उसके गुरु गुणचन्द्र योगीसे पूछा कि यह कौन है और किस कारण से दीक्षित हुआ है ? उत्तर में मुनि बोले कि यह युगल पूर्वभवमें कुबेरकान्त सेठके घरपर कबूतर और कबूतरी हुआ था । उनको इनके जन्मान्तरके शत्रु बिलावने जम्बूग्राममें खा लिया था । इस प्रकार से मरकर वे दोनों उत्तम दानकी अनुमोदना के प्रभावसे विद्याधरोंके स्वामी हुए । उन दोनों विमान नगरीको देखकर जातिस्मरण हो जानेसे दीक्षा धारण कर ली है । इस वृत्तान्तको सुनकर वे राजा आदि मुनिको नमस्कार करके नगरको वापिस जाये | कोतवालकी स्त्रीने घर वापिस आकर उपर्युक्त वृत्तान्तको अपने पति से कहा । तब उसे भी जातिस्मरण हो गया । वह रात में उन मुनि और आर्यिकाको उठाकर श्मशान में ले गया । वहाँ उसने उन दोनोंको एक साथ बाँधकर चिता की अग्निमें फेंक दिया । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर वे दोनों स्वर्गको गये । कुछ दिनोंके पश्चात् विदुद्वेग भी राजकोशके चुरानेके कारण पकड़ लिया गया । उसे चतुर्दशी के दिन मारने के लिये श्मशानमें ले जाकर चण्ड नामक चाण्डालको उसके बध करनेकी आज्ञा दी गई, परन्तु वह उसका वध करने को तैयार नहीं था । वह कहता था कि मैंने आजके दिन सवधका त्याग किया है। तब राजाने क्रोधित हो उसे लाखके घरमें रखकर सेवकों को यह आज्ञा दी कि प्रातःकालमें इसे अग्निसे भस्म कर देना । ऐसी अवस्था में विद्युद्वेगने उस चाण्डालसे कहा कि हे चण्ड ! तू मेरी हत्या करके सुखपूर्वक क्यों नहीं रहता है ? इसके उत्तर में चाण्डाल ने कहा कि मैंने जैन धर्मकी महिमाको देखकर चतुर्दशी के दिन उपवास रखते हुए अहिंसात्रतको ग्रहण किया है । इसीलिये मुझे मरना इष्ट है परन्तु मारना इष्ट नहीं है । चाण्डालके इन वचनों को सुनकर चोरने आत्मनिन्दा करते हुए विचार किया कि खेदकी बात है कि मैं इस चाण्डालसे भी अधम हूँ, क्योंकि, मैंने मुनि
१. फश गता । २. ब तामाजिकां । ३. -ब प्रतिपाठोऽयम् । श दिनान्तरे । ४. प श बकुलाभिधश्चांडालो | ५. फत्रसंघाते श त्रसद्घाते । ६. पमुपवास गृहीतवान् हिंसाव्रतं । ७. ब च गृह्वां । ८. ब त्या । ९. ब मुन्यायिका ।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-६, २३ ] ३. श्रुतोपयोगफलम् ६
१३१ नोक्तं महापापी त्वं सप्तमावनेरन्यत्र न तिष्ठसि, तत्र प्रयस्त्रिोत्सागरोपमकालं महादुःखानुभवनं करिष्यसि । तनिशम्य चौरस्तत्पादयोलग्नो दुःख निवारणं कथयेति । ततस्तेन धर्मः कथितः। तदनु स सम्यक्त्वमाददे । तत्प्रभावेन तपस्विघातकाले सप्तमावनौ बद्धमायुः संक्षिप्य प्रथमावनी चतुरशीतिलतवर्षायुर्नारकोऽभूत् ! चाण्डालो दिवं गतः। नारकस्तस्मादेत्यात्रैव पुण्डरीकिण्यां वैश्यसमुद्रदत्तसागरदत्तयोः सूनु मोऽभूत् । अक्षरादिविज्ञानवैरी प्रवृद्धः सन् चैकदा शिवंकरोद्यानं गतः। तत्र सुव्रतमुनिमपश्यदवन्दत । तेन धर्मे कथिते ऽणुक्तानि गृहीत्वा गृहं गच्छतो मुनिनोक्तम्-हे भीम, ते पिता व्रतानि त्याजयति चेन्मम समर्पयेति । 'ओं' भणित्वा गृहं गतो नृत्यन्तं विलोक्य पित्रा रे भीम, किं नृत्यसि इत्युक्तेऽनो जिनधर्मो लब्ध इति नृत्यामि । तच्छ्र त्वा पितावादीत्-रे विरूपकं कृतं त्वया, मदन्वये केनापि जिनधर्मो न गृह्यत इति त्वं त्यज, नोचेद्याहि । तनुजोऽब्रूत तर्हि तस्य समागच्छामि। ततस्तद्वान्धवाः सर्वे मिलित्वा तदर्पयितुं चलिताः। भीमोऽन्तराले शूले' प्रोत्तं पुरुषं वीक्ष्य मूच्छितो जातिस्मरो जातः । पित्रादीनां स्वरूपं कथितवान् । तदा तेषां और आर्यिकाका वध किया है। पश्चात् उसने चाण्डालसे पूछा कि हे चण्ड ! मुनि और आर्यिकाका वध करनेसे मेरी क्या अवस्था होगी ? चाण्डालने उत्तर दिया कि तुमने महान् पाप किया है, इससे तुम सातवे नरकको छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकते हो। तुम सातवें नरकमें जाकर वहाँ तेतीस सागरोपम काल तक महान् दुखको भोगोगे। यह सुनकर वह चोर चाण्डालके पाँवोंमें गिर गया और बोला कि मेरे इस दुखको दूर करनेका उपाय बतलाइए। तब उसने उसे धर्मका उपदेश दिया। इससे उसने सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लिया। उसके प्रभावसे उसने मुनिकी हत्या करनेके समयमें जो सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था उसका अपकर्षण करके वह प्रथम पृथिवीमें चौरासी लाख वर्षकी आयुका धारक नारकी हुआ। वह चाण्डाल मरकर स्वर्गको गया। और वह नारकी उक्त पृथिवीसे निकलकर इसी पुण्डरीकिणी नगरीमें वैश्य समुद्रदत्त और सागरदत्ताका पुत्र भीम नामका हुआ। वह अक्षरादिज्ञानका शत्रु था--उसे अक्षरका भी बोध न था । वह वृद्धिको प्राप्त होकर किसी समय शिवंकर उद्यानमें गया था । वहाँ उसने सुव्रत मुनिको देखकर उनकी वंदना की। मुनिने उसे धर्मका उपदेश दिया, जिसे सुनकर उसने अणुव्रतोंको ग्रहण कर लिया। जब वह वहाँ से घरके लिए वापिस जाने लगा तब मुनिने उससे कहा कि हे भीम ! यदि तेरा पिता इन व्रतोंको छुड़ानेका आग्रह करे तो तू इन्हें मेरे लिये वापिस दे जाना। तब वह इसे स्वीकार करके घरको वापिस चला गया । घर जाकर वह नाचने लगा। तब उसे नाचते हुए देखकर पिताने पूछा कि रे भीम ! तू किसलिये नाच रहा है ? इसके उत्तरमें भीमने कहा कि मैंने आज अमूल्य जैन धर्मको प्राप्त किया है, इसीलिये हर्षित होकर मैं नाच रहा हूँ | इस बातको सुनकर पिताने कहा कि रे भीम ! तूने यह अयोग्य कार्य किया है। मेरे कुलमें किसीने भी जैन धर्मको धारण नहीं किया है। इसीलिये तू या तो इन व्रतोंको छोड़ दे या फिर मेरे घरसे निकल जा। यह सुनकर भीमने कहा कि तो मैं इन व्रतोंको उस मुनिके लिये वापिस देकर आता हूँ। तब उसके सब ही कुटुम्बी जन मिलकर उन व्रतोंको वापिस करानेके लिये चल दिये । मार्गमें भीम किसी पुरुषको शूलीके ऊपर चढ़ा हुआ देखकर मूर्छित हो गया । उसे उस
६. श तत्रयत्रिंश । १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श धर्म कथितं । ३. ब गतो नृत्यन् तं नृत्यंते । ४. बप्रतिपाठोऽयम् । श चेत्त्वं याहि । ५. ब सर्वेपि । ६. श 'शूले' नास्ति ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ३-६, २३: जीवाभावभ्रान्तिर्गता। तैरणुव्रतानि श्रादायिषत, तेने च तपः। सोऽहं मूर्खध्वज इति । श्रुत्वा कृतकनरेणोक्तम्-हे मुने, यदि तौ इदानीं पश्यसि तर्हि किं करोषि । तर्हि क्षमां कारयाम्येवं चेदावां तवारी त्वया दग्धौ देवलोकेऽजनिध्वहि । मुनिरश्रुपातं कुर्वन्नुवाच यदज्ञानेन मया युवयोर्दुःखं कृतं तत्क्षमेथां तत्फलं मयापि प्राप्तमिति। तदनु तो तत्पादयोलग्नौ, तदा स ध्यानेनास्थात् । तदैव समुत्पन्नकेवलोऽमरादिमहितः श्रीविहारं चकार, सुरगिरौ मुक्तिं ययौ। एवं तपस्विघातकोऽतिरौद्रश्वोरोऽपि मातङ्गोपदिष्टश्रतोपयोगेनैवंविधोऽभूदन्यस्तदुपयोगो किं त्रिलोकीशो न स्यादिति ॥६॥
[२४]
संजातो भुवि लोकनिन्दितकुले निन्द्यः सदा दुःखितश्चण्डालोऽभवदच्युताख्यविदिते कल्पेऽमरो दिव्यधीः । वैश्यापादितचारुधर्मवचनः ख्यातो विनीतापुरे
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥७॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डेऽयोध्यायां वैश्यावेकमातृको पूर्णभद्रमणिभद्रनामानौ । तावेकदा जिनालयं गच्छन्तौ चाण्डालं शुनी च वीक्ष्य मोहमाश्रितौ। जिनमभ्यय॑ नत्वा समय जातिस्मरण हो गया। तब उसने पिता आदिकोंसे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त कह दिया। इससे उनकी जीवके अभावविषयक भ्रान्ति नष्ट हो गई। तब उन सबने तो अणुव्रतोंको ग्रहण किया और भीमने तपको । वह मूर्खशिरोमणि मैं ही हूँ। इस सब वृत्तान्तको सुनकर मनुष्यवेषधारी उस देवने कहा कि हे मुनीन्द्र ! यदि उन दोनोंको आप इस समय देखें तो क्या करेंगे ? इसपर भीमने कहा कि मैं उनसे क्षमा कराऊँगा । तब वह देव बोला कि तुम्हारे शत्रु वे दोनों हम ही हैं, तुम्हारे द्वारा अग्निमें जलाये जानेपर हम दोनों स्वर्गमें उत्पन्न हुए हैं। यह सुनकर अश्रुपात करते हुए मुनि बोले कि मैंने जो अज्ञानताके वश होकर तुम दोनोंको कष्ट पहुँचाया है उसके लिये क्षमा करो। मैं भी उसका फल भोग चुका हूँ। तत्पश्चात् वे दोनों ( देव व देवी) मुनिके चरणों में गिर गये । तब निराकुल होकर भीम मुनि ध्यानमें स्थित हो गये। इसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तब देवोंने आकर उनकी पूजा की। फिर उन्होंने विहारकर धर्मोपदेश किया। अन्तमें वे सुरगिरि ( मेरु पर्वत ) से मोक्षको प्राप्त हुए । इस प्रकार मुनिका घात करनेवाला क्रूर वह चोर भी यदि चाण्डालके उपदेशको सुनकर इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब उस धर्मोपदेशमें उपयोगको लगानेवाला भव्य जीव क्या तीनों लोकों का स्वामी न होगा ? अवश्य होगा ॥६॥
जो निन्द्य चाण्डाल इस पृथिवीपर लोकनिन्दित नीच कुलमें उत्पन्न होकर सदा ही दुखी रहता था वह विनीता नगरीमें वैश्यके द्वारा दिये गये निर्मल धर्मोपदेशको सुनकर अच्युत स्वर्ग में दिव्य बुद्धिका धारी ( अवधिज्ञानी ) प्रसिद्ध देव हुआ था। इसीलिए जिनदेवकी भक्ति करनेवाला मैं उस धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे निर्मल चारित्रका धारक होकर लोकमें कृतार्थ होता हूँ ॥७॥
___ उसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर अयोध्या नगरीमें पूर्णभद्र और मणिभद्र नामके दो वैश्य थे जो एक ही माताके पुत्र थे । एक दिन वे जिनालयको जा रहे थे।
१. ब व्रतान्यादयि तेन । २. ब तव वैरी। ३. श मातंगो यदिदिष्ट । ४. ब चारुजनवचनः ।
५.५ जिनमभय॑ श जिनमर्च ।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
३-७, २४ ] ३. श्रुतोपयोगफलम् ७
१३३ मुनि च पृच्छतः स्म तयोरुपरिमोहहेतुम् । अकथयत् मुनिनाथः । सथाह्यत्रैवार्यखण्डे मगधदेशे शालिग्रामे विप्रसोमदेवाग्निज्वालयोरपत्ये अग्निभूतिवायुभूती । तावेकदा राजगृहं प्रविशन्तौ यात्रां ददृशतुः। किमर्थं यात्रेति पृष्टे केनचिदुक्तम् 'नन्दिवर्धनदिगम्बरवन्दनार्थम्' इति । किमावाभ्याम् अपि कोऽपि वन्द्योऽस्तीति गर्वितौ तत्र गती। मुनिना जानतापि कस्मादागतावित्युक्तम् । शालिग्रामादागतो, सत्यमसत्यं वा यूयं जानीथ । पूर्वजन्मनः कस्मादागतौ । आवां न विद्वः, भवन्तः कथयन्तु । कथ्यते, शृणुथः । शालिग्रामस्यैव सीमान्ते शृगालौ जातौ। तदैकः कुटुम्बी प्रमादकः स्ववरत्रादिकं तत्रैव वटतले बिलस्याभ्यन्तरे निधार्य गृहं गतः । तद्वर्षास्वातिं ताभ्यां भक्षितम् । ततः समुद्भतशूलेन मृतौ युवां जाती। श्रुत्वा तो जातिस्मरौ बभूवतुः । प्रमादकोऽपि मृत्वा स्वसुतस्यैव सुतो जातः, भवस्मरणेन मूकीभूय तिष्ठतोति निरूपिते तमाहूय जनाः पृष्ठा साश्चर्या बभूवुः। ततो मूकः स्पष्टालापो भूत्वा दीक्षितः, अन्येऽपि । तत्सामर्थ्यदर्शनात्तौ मिथ्यात्वोदयात् कुपितौ रात्रौ तं मारयितुमार्गमें उन्हें एक चाण्डाल और एक कुत्ती दिखायी दी। उन दोनोंको देखकर उनके हृदयमें मोहका प्रादुर्भाव हुआ। जिनालयमें जाकर उन दोनोंने जिनेन्द्रकी पूजा की। तत्पश्चात् उन्होंने मुनिको नमस्कार करके उनसे उपर्युक्त चाण्डाल और कुत्तीके ऊपर प्रेम उत्पन्न होनेका कारण पूछा । मुनिराज बोले- इसी आर्यखण्डके भीतर मगध देशके अन्तर्गत शालिग्राममें ब्राह्मण सोमदेव
और अग्निज्वालाके अग्निभूति और वायुभूति नामके दो पुत्र थे। एक दिन उन दोनोंने राजभवनके भीतर प्रवेश करते हुए लोकयात्राको देखकर पूछा कि यह जनसमूह कहाँ जा रहा है ? तब किसीने उत्तर दिया कि ये सब नन्दिवर्धन दिगम्बर मुनिकी वंदनाके लिये जा रहे हैं। यह सुनकर उनके हृदयमें अभिमान उत्पन्न हुआ। वे सोचने लगे कि क्या हमसे भी कोई अधिक वंदनीय है । इस प्रकार अभिमानके वशीभूत होकर वे दोनों उक्त मुनिराजके पास गये । मुनिराजने जानते हुए भी उनसे पूछा कि तुम दोनों कहाँ से आये हो ? उन्होंने उत्तर दिया कि हम शालिग्रामसे आये हैं। यह सत्य है या असत्य, इसे आप ही जानें। फिर मुनिराजने उनसे पूछा कि पूर्व जन्मकी अपेक्षा तुम कहाँ से आये हो ? इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि यह सब हम नहीं जानते हैं, आप ही बतलाइए । तब मुनि बोले कि अच्छा हम बतलाते हैं, सुनो। तुम दोनों पूर्व भवमें इसी शालिग्रामकी सीमाके अन्तमें शृगाल हुए थे। उस समय एक प्रमादक नामका किसान अपनी चाबुक आदि वहाँ एक वट वृक्षके नीचे बिलके भीतर रखकर घरको चला गया था। उस समय वर्षा बहुत हुई। ऐसे समयमें भूखसे व्याकुल होकर उन दोनोंने वर्षासे भीगी हुई उस गीली चाबुकको खा लिया। इससे उन्हें शूलकी बाधा उत्पन्न हुई। तब वे दोनों मरणको प्राप्त हुए व तुम दोनों उत्पन्न हुए हो। यह सुनकर उन दोनोंको जातिस्मरण हो गया। वह प्रमादक मी मरकर अपने पुत्रका ही पुत्र हुआ है, जो जातिस्मरण हो जानेसे मूक ( गूंगा ) होकर स्थित है। इस प्रकार मुनिके द्वारा निरूपण करनेपर समीपस्थ जनोंने जब उसे बुलाकर पूछा तब उसने यथार्थ स्वरूप कह दिया। इससे उन सबको बहुत आश्चर्य हुआ । तत्पश्चात् उस मूकने स्पष्टभाषी होकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। उसके साथ कुछ दूसरे भी भव्य जीवोंने दीक्षा ले ली। मुनिकी इस आश्चर्यजनक शक्तिको देखकर मिथ्यात्वके वशीभूत हुए उन अग्निभूति और वायुभूतिको बहुत
१.ब पृच्छति स्म तयोरुपरिमोहहेतुं कथय स कथयन् मुनि । २. फ श तदेकः । ३. ब विधाय । ४. ५ गतः मृवर्षास्वाद्रितं श ततद्धर्षास्वाद्रितं । ५. प पृष्टा श पृष्टाः । ६. ५ श मूकस्य ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
पुण्यात्रकथाकोशम्
[ ३-७, २४ :
मागतो, क्षेत्रपालेन कीलितौ । प्रातः सर्वैर्निन्दितौ पितृभ्यां मोचितौ राशा च रक्षितौ श्रावकत्वं प्रपन्नौ समाधिना सौधर्ममितौ । ततोऽयोध्यायां श्रेष्ठिसमुद्रदत्तधारिण्योस्तनुजौ युवां जातौ । तौ विप्रभवपितरौ नानायोनिषु भ्रमित्वा चाण्डालशुन्यौ जाते इति मोहकारणम् । तनिशम्य' 'तौ ताभ्यां जिनवचनामृतपानेन प्रीणितौ गृहीताणुव्रतसंन्यसनौ च श्वपाको मासेन वितनुर्भूत्वाच्युते नन्दीश्वरनामा महर्द्धिको देवो बभूव । शुनी तन्नगरेशभूपालतनुजा रूपवती जाता । तत्स्वयंवरे तेन देवेन संबोध्य प्रवाजितो समाधिना दिवि देवोऽजनि । एवं चण्डालोऽपि सकृज्जिनवचनभावनया देवोऽभूदन्यस्य किं प्रष्टव्यम् ॥७॥
[ २५ ] श्रारण्ये मुनिघातिका च समदा व्याघ्री धरित्रीभया कल्पावास मगादनूनविभवं श्रीदिव्यदेहोदयम् । किं मन्ये मुनिभाषितादनुपमादन्यस्य भव्यस्य हो धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ||८||
अस्य कथा -
- अत्रैवायोध्यायां राजा कीर्तिधरो राशी सहदेवी । राजैकदास्थानस्थः क्रोध हुआ । इससे वे रातमें मुनिका घात करने के लिए आये । परन्तु क्षेत्रपालने उन्हें वैसा ही कीलित कर दिया । प्रातः काल होनेपर जब सब लोगोंने उन्हें वैसा स्थित देखा तो सभीने उन दोनों की बहुत निन्दा की । तत्पश्चात् माता-पिता ने उन दोनोंको मुक्त कराया और राजाने भी उन्हें जीवितदान दे दिया । फिर वे श्रावकके व्रतको ग्रहण करके समाधिपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते हुए सौधर्म स्वर्ग में देव हुए । वहाँसे च्युत होकर तुम दोनों अयोध्या में सेठ समुद्रदत्त और धारिणी के पुत्र हुए हो। तुम्हारे ब्राह्मणभवके वे माता-पिता अनेक योनियों में परिभ्रमण करके चाण्डाल और कुत्ती हुए हैं । इसीलिए उन्हें देखकर तुम दोनोंको मोह उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार मोहके कारणको सुन करके पूर्णभद्र और मणिभद्रने उन दोनोंको जिनवचनरूप अमृतका पान कराकर प्रसन्न किया । इस धर्मोपदेशको सुनकर चाण्डाल और उस कुत्तीने अणुव्रतोंको धारण कर लिया । अन्तमें समाधिपूर्वक एक मासमें मरणको प्राप्त होकर वह चाण्डाल तो अच्युत स्वर्ग में नन्दीश्वर नामक महर्धिकदेव हुआ और वह कुत्ती उसी नगरके भूपाल राजाकी रूपवती पुत्री हुई । उसने स्वयंवर के समय में उक्त देवसे सम्बोधित होकर दीक्षा ग्रहण कर ली । फिर वह समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होकर स्वर्ग में देव उत्पन्न हुई । इस प्रकार वह चाण्डाल भी एक बार जिनवचनकी भावना से जब देव हुआ है तब फिर अन्य कुलीन भव्य जीवका क्या कहना है ? वह तो उत्तम ऋद्धिको प्राप्त होगा ही ||७||
जिस व्याधीने गर्वित होकर वनमें मुनिका घात किया था तथा जो पृथिवीको भी भय उत्पन्न करनेवाली थी वह जब मुनिके अनुपम उपदेशको सुनकर विपुल वैभवके साथ दिव्य शरीरको प्राप्त करानेवाले स्वर्गको प्राप्त हुई है तब भला अन्य भव्य जीवके विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् वह तो स्वर्ग-मोक्ष के सुखको प्राप्त होगा ही । इसी कारण जिन भगवान्की भक्ति करनेवाला मैं उस धर्मकी प्राप्तिसे निर्मल चारित्रको धारण करता हुआ इस पृथिवीतलके ऊपर कृतार्थ होता हूँ ॥ ८ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है - इसी अयोध्यापुरीमें कीर्तिधर नामका राजा राज्य करता था ।
१. ब तं मारयंत्तौ क्षेत्र । २. व चांडालपुत्र्यौ जातौ । ३ ब - प्रतिपाठोऽयम् । श मोहकारणं निशम्य । ४. श सन्यासनी । ५. प श प्रव्रजिता । ६. व दन्यस्य ततः किं । ७. ब अरण्ये । ८. प श घातका ।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ३-८, २५ ]
३. श्रुतोपयोगफलम्
१३५
सूर्यग्रहणं विलोक्य निर्विण्णस्तपोऽर्थ गच्छन् प्रधानैः संतत्यभावान्निवारितः कियन्ति दिनानि राज्यं कुर्वन्नस्थात् । सहदेवी स्वस्यं गर्भसंभूतौ तद्दीक्षाभयाद् गूढवृत्त्या भूमिगृहे पुत्रं प्रासूत । तद्गृथवस्त्रं प्रक्षालयन्त्याश्चेटिकाया विबुध्य विप्रेण वेणुबद्धध्वजहस्तेन भूपाय निवेदिते तद्वृत्ते राजा तस्मै तनुजाय राज्यं दत्त्वा विप्राय द्रव्यं च निष्क्रान्तः । बालः सुकोशलाभिधानेन प्रवृद्धो महामण्डलेश्वरोऽभूत् । सोऽपि मुनेर्दर्शनेन तपो ग्रहीष्यतीत्यादेशभयात्पुरे मुनिसंचारो मात्रा वारितः । एकदा भुक्तोत्तरं सुकोशलो मात्रा समं हर्म्यस्योपरिभूमावु पविश्य दिशोऽवलोकयन्नस्थात् । तदवसरे कीर्तिधरो मुनिश्वर्यार्थ तत्पुरं प्रविष्टोऽम्बिकया विलोक्य प्रतिहारेण यापितः गच्छतस्तस्यापरभाग ददर्श राजा कोऽयमित्यपृच्छच्च । मात्रोदितं रङ्कोऽयं न द्रष्टव्यं इति तच्छ्रुत्वा सुकोसलधात्री वसन्तमालाऽरोदीत् । तां विलोक्य राजा पृष्टवान् । तयोक्तं तवं पितायं महातपस्वी रङ्को भणित इति रोदिमि । तदनु भूपस्तद्गति में, नान्येत्युद्याने स्थितस्यान्तिकं गतः, अन्तःपुरादिपरिवारोऽपि । भो भो मुने मां दीक्षां देहि मां दीक्षां देहीति भणन् तत्र गतः । उदरमाताडय रुदन्तीं तद्देवीं चित्रमालां
८
रानीका नाम सहदेवी था । एक दिन राजा सभा भवन में बैठा हुआ था । उस समय उसे सूर्यग्रहणको देखकर वैराग्य उत्पन्न हुआ । तब वह दीक्षा लेनेके लिए उद्यत हो गया । परन्तु सन्तान के न होने से मन्त्रियोंने उससे कुछ दिन और रुक जाने की प्रार्थना की। तदनुसार उसने कुछ दिन तक और भी राज्य किया । इस बीचमें कीर्तिधर की पत्नी सहदेवीके गर्भाधान हुआ। समयानुसार उसने राजाके दीक्षा ले लेनेके भय से गुप्तरूप से पुत्रको तलघर में जन्म दिया। सहदेवी के रुधिरादियुक्त मलिन वस्त्रों को धोती हुई दासीसे ज्ञात करके किसी ब्राह्मणने बाँसमें बँधी हुई ध्वजाको हाथमें ले जाकर राजासे पुत्र जन्मका वृत्तान्त कह दिया । इसे सुनकर राजाने उस पुत्रके लिए राज्य तथा ब्राह्मणके लिए द्रव्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । बालकका नाम सुकोशल रखा गया । वह क्रमशः वृद्धिंगत होकर महामण्डलेश्वर हो गया । पुत्र भी मुनिका दर्शन होनेपर दीक्षा ग्रहण कर लेगा, इस प्रकार मुनिके कहने पर माता के हृदयमें जो भयका संचार हुआ था उससे सहदेवीने नगरमें मुनिके आगमनको रोक दिया था। एक दिन सुकोशल भोजन करनेके पश्चात् माताके साथ भवनके ऊपर बैठा हुआ दिशाओंका अवलोकन कर रहा था । इसी समय कीर्तिधर मुनि आहारके निमित्त उस नगर में प्रविष्ट हुए । परन्तु सुकोशलकी माताने उन्हें देखकर द्वारपालके द्वारा हटवा दिया । तब सुकोशलने जाते हुए उन मुनिराजके पृष्ठ भागको देखकर पूछा कि यह कौन है ? इसके उत्तर में माता ने कहा कि वह रंक ( दरिद्र ) है, उसे देखना योग्य नहीं है । इस बातको सुनकर सुकोशलकी धाय वसन्तमाला रो पड़ी। तब सुकोशलने उसे रोती देखकर उससे रोनेका कारण पूछा । इसपर धायने कहा कि यह महातपस्वी तुम्हारा पिता है, जिसे कि तुम्हारी माता रंक कहती है । यही सुनकर मैं रो रही हूँ। यह सब ज्ञात करके सुकोशलने सोचा कि जो अवस्था उनकी है वही मेरी होगी, और दूसरी नहीं हो सकती । यही विचार करके वह अन्तःपुर आदि परिवार के साथ उद्यानमें विराजमान उन मुनिराजके पास जा पहुँचा, वहाँ पहुँचकर उसने कहा कि हे मुनिराज ! मुझे दीक्षा दीजिए, मुझे दीक्षा दीजिए। इधर सुकोशलकी पत्नी चित्रमाला उसके दीक्षा ग्रहणसे पेटको ताड़ित करके रुदन कर रही थी । उसे इस प्रकारसे रोती हुई देखकर
१. फ अतः प्राक् 'महादेवी' इत्यधिकं पदमस्ति । २. प श सहदेवीस्तस्य । ३ ब तद्वृत्तौ । ४. श हर्योपरि । ५. ब कीर्तिधरोपि । ६. ब पृष्टव्य । ७. ब राज्ञा पृष्टयोदितं तव ।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्र कथाकोशम्
[ ३-८, २५
कीर्तिधरोऽभत्-तन्वि उदरं मा ताडय, अत्रोषितस्य नन्दनस्योपद्रवः स्यादिति । राजाभगदेतद्गर्भे किं पुत्रोऽस्ति । मुनिरुवाचास्ति । ततो राशोक्तमहो जना अस्माकं राजा reat दुःखं मा कार्षीः, चित्रमालागर्भस्थो बालो युष्माकं राजेति भणित्वा गर्भस्य पट्टबन्धं कृत्वा दीक्षितः सकलागमधरो भूत्वा गुरुणा सह तपः करोति । एकदा एकस्मिन् पर्वते वृक्षतले वर्षाकालेचातुर्मासिकप्रतिमायोगं दधानें प्रतिज्ञावसाने सुकोशलमुनिर्मार्गशुद्धिपरीक्षणार्थे" यावद् गच्छति तावन्माता सहदेवी तदार्तेन मृत्वा तत्रादव्यां व्याघ्री बभूव । त बुभुक्षितां रौद्राकारां संमुखमागच्छन्तीं विलोक्य स मुनिर्ध्यानेनास्थात् । तया भक्षणे समुत्पन्न केवलोऽन्तर्मुहूर्ते मोक्षमुपजगाम । जय जय सुकोशलमुने तिर्यगुपसर्गे सहित्वा साधितमोक्षेऽतिदेवनिनादात्परिनिर्वाणपूजाविधाने तत्तूर्यनिनादाच्च तदुपसर्ग मोक्षगति च विबुध्य कीर्तिधरो मुनिस्तन्निर्वाणभूमिमागत्य तत्स्तुतिं परिनिर्वाणक्रियां चकार । तदनु व्याघ्रीं विलोक्योक्तवान्- हे सह देवि, पूर्व सुकोशलस्य कुङ्कुमारुणितं कक्षादिकं वीक्ष्य हा पुत्र, मिति रुधिरं निर्गतमिति विजल्प्य मूर्छितासि । सा त्वं तदार्तेन मृत्वा व्याघ्री भूत्वा तमेव भक्षितवतीति । तदाकर्ण्य जातिस्मरा जाता । पश्चात्तापेन शिलायां स्वशिरस्ताडयन्ती मुनिना
१३.६
"कीर्तिधर मुनि बोले कि हे पुत्री ! तू इस प्रकारसे उदरको ताडित मत कर, ऐसा करने से उदरस्थ बालकको बाधा पहुँचेगी। यह सुनकर सुकोशलने पूछा कि क्या इसके गर्भ में पुत्र है ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ, इसके गर्भ में पुत्र है । तब सुकोशलने कहा कि हे प्रजाजनो ! तुम 'हमारा कोई राजा नहीं है' यह विचार करके दुखी मत होओ। चित्रमाला के गर्भ में जो पुत्र है वह तुम्हारा राजा है, यह कहकर उसने गर्भस्थ बालकको पट्ट बाँध करके दीक्षा ग्रहण कर ली । तत्पश्चात् वह समस्त श्रुतका पारगामी होकर गुरुके साथ तप करने लगा । इसी बीच में वर्षाकालके प्राप्त होनेपर उसने एक पर्वतके ऊपर किसी वृक्ष के नीचे चातुर्मासिक प्रतिमा योगको धारण किया । तत्पश्चात् प्रतिज्ञा के समाप्त हो जानेपर सुकोशल मुनि जब तक मार्गशुद्धिकी परीक्षा के लिए जाते हैं तब तक उनकी माता सहदेवी, जो उसके आर्तध्यानसे मरकर उसी वनमें व्याघ्री हुई थी, उस भूखी भयानक व्याघ्रीको सम्मुख आती देखकर वे मुनि ध्यानमें स्थित हो गये । तब उस व्याघ्रीने उनका भक्षण करना प्रारम्भ कर दिया । इसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ और वे अन्तमुहूर्त में मुक्तिको प्राप्त हो गये । उस समय हे सुकोशल मुने ! हे तिर्यञ्चकृत उपद्रवको सहकर मोक्षको सिद्ध करनेवाले ! आपकी जय हो, जय हो; इस प्रकार देवोंके शब्दों से दिशाएँ मुखरित हो उठी थीं। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा निर्वाणके उपलक्ष्यमें किये गये पूजामहोत्सव के समय में बजते हुए बाजों का जो गम्भीर शब्द हुआ था उससे भी सुकोशल मुनिके उपसर्गको सहकर मुक्त होने के समाचारको ज्ञात करके कीर्तिधर मुनि उनके निर्वाणस्थान में आये । वहाँ उन्होंने उनकी स्तुति करते हुए निर्वाणक्रियाको सम्पन्न किया । तत्पश्चात् वे उस व्याघ्रीको देखकर बोले कि हे सहदेवी ! पहिले तू सुकोशलकी काँख आदिको कुंकुमसे लाल देखकर ' हा पुत्र ! यह रुधिर कैसे निकला' कहकर मूच्छित हो जाती थी । उसी तूने उसके आर्तध्यानसे मरकर इस व्याघ्रीकी अवस्थामें उसे ही खा डाला है । मुनिके इन वचनोंको सुनकर उस व्याघ्रीको जातिस्मरण हो
१. फश नन्दनोपद्रवः । २. शमा कार्य । ३. फ वर्षाकाले । ४. ब दधाते । ५. पश मार्ग
परीक्षणार्थं । ६. ब व्याघ्री संपन्ना तां । ७. फ श रौद्राकारं । ८. श केवलान्त । ९. फ मोक्ष ! इति । १०. श तत्तूर्यनिनादाश्च ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४, १-२, २६-२७ ]
४. शीलफलम् १-२
१३७
परमागमकथनेन संबोधिता सम्यक्त्वपूर्वकम गुव्रतानि संन्यासं च जग्राह । तनुं विहाय सौधर्मे देवोऽतिभोगाधिकों बभूव । एवं मुनिघातिकाया व्याघ्रया अपि तदुपयोगेनैवंविधं फलं जातं संयतस्य किं प्रष्टव्यमिति ॥ ८ ॥
श्रीकीर्ति चारुमूर्ति प्रबलगुणगणं वर्णभोगोपभोगं सौभाग्यं दीर्घमायुर्वरकरणगुणान् पूज्यतां लोकमध्ये | विज्ञानं सार्वभावं कलिलविगमजं सौख्यमैश्यं विशुद्धं लब्ध्वान्ते सिद्धिलाभं भजति पठति यो दिव्यधन्याष्टकं सः ॥ इति पुण्यास्रवामिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्य रामचन्द्रमुमुक्षुविरचिते श्रुतोपयोगफल व्यावर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥ श्रीः ॥ ३॥
3
[ २६-२७ ]
मेघेश्वरो नाम नराधिनाथो लेभे सुपूजामिह नाकजेभ्यः । शीलप्रभावाज्जिनभक्तियुक्तः शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥ १ ॥ विख्यातरूपा हि सुलोचनाख्या कान्ता जयाख्यस्य नृपस्य मुख्या । देवेशपूजां लभते स्म शीलात् शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥ २ ॥ अनयोर्वृत्तयोरेकैव कथा तथा हि- सौधर्मेन्द्रों निजसभायां व्रतशीलस्वरूपं
गया । तब वह पश्चात्ताप करती हुई अपने शिरको पत्थरपर पटकने लगी। उस समय मुनिराजने उसे आगमके उपदेशसे सम्बोधित किया । उसमें उपयोग लगाकर उसने सम्यग्दर्शनपूर्वक अणुSarat ग्रहण कर लिया । अन्तमें वह सन्यास के साथ शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्ग में अतिशय भोगोंका भोक्ता देव हुई इस प्रकार मुनिका घात करनेवाली उस व्याघ्रीको भी जब धर्मोपदेशमें मन लगानेसे इस प्रकारका फल प्राप्त हुआ है तब संयत जीवका क्या पूछना है ? उसे तो उत्कृष्ट फल प्राप्त होगा ही ॥८॥
।
जो भव्य जीव इस दिव्य धन्याष्टक ( जिनागमश्रवणसे प्राप्त फलके निरूपण करनेवाले इस श्रेष्ठ आठ कथामय प्रकरण ) को पढ़ता है वह निर्मल कीर्ति, सुन्दर शरीर, उत्तम गुणसमूह, पूशस्त वर्णादि रूप भोगोपभोग, सौभाग्य, दीर्घ आयु, उत्तम इन्द्रियविषय, लोकमें पूज्यता, समस्त पदार्थोंका ज्ञान (सर्वज्ञता ), कर्ममलके नाशसे होनेवाले निर्मल सुख और विशुद्ध आधिपत्यंको प्राप्त करके अन्तमें मोक्षसुखका अनुभव करता है ।
इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु-द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें श्रुतोपयोगके फलको बतलानेवाला यह अष्टक समाप्त हुआ ||३||
के
जिन भगवान्का भक्त मेघेश्वर ( जयकुमार ) नामक राजा यहाँ शीलके प्रभाव से देवोंद्वारा की गई पूजाको प्राप्त हुआ है । इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥१॥ इस जयकुमार राजाकी सुलोचना नामकी सुप्रसिद्ध रूपवती मुख्य पत्नी शीलके प्रभावसे देवेन्द्रकृत पूजाको प्राप्त हुई है । इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥ २ ॥
इन दोनों पद्यों की कथा एक ही है जो इस प्रकार है- किसी समय सौधर्म इन्द्र अपनी
१. शतिभोगादिको । २. पशिक्षश सिक्ष । ३. प श 'मुमुक्षु' नास्ति । ४ प व्यावर्णः नामाष्टकं समाप्तः फ व्यथावर्णनोऽष्टकं समाप्तः श व्यावर्णनामाष्टकं समाप्तं ।
Jain Education Internal
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
पुण्याrasers शम्
[ ४, १-२, २६-२७ : निरूपयन् रतिप्रभदेवेन पृष्टो देव, जम्बूद्वीपभरते यथावत् शीलप्रतिपालकस्तथानरोऽस्ति नो वा । सुरपतिरुवाच । “कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनागपुरेशो मेघेश्वरो यथावच्छीलधारकस्तथा तदेवी सुलोचना च । सोऽपि पूर्वभवसाधितविद्य इति विद्याधरयुगलदर्शनेन जातिस्मरत्वे सति समागतविद्यः, सापि । स च तया सह संप्रति कैलाशं गत्वा वृषभेशं प्रणम्य समवसरणान्निर्गत्य तथा सहैकस्मिन् प्रदेशे क्रीडित्वा तस्यां विमानान्तर्निद्रायां समागतायां स वने क्रीडन् रम्यां शिलामपश्यत्तत्र ध्यानेन स्थितो वर्तते । साप्युत्थाय तमदृष्ट्रा कायोत्सर्गेणास्थात् ।” तच्छ्रुत्वा स देवस्तच्छीले परीक्षणार्थमागत्य स्वदेवीर्भूपनिकटमगमयत्तच्छीलं विनाशयतेति । स्वयं देवीनिकटं जगाम । ताभिस्तस्य नानाप्रकारस्त्रीधर्मैश्चित्तविक्षेपे कृतेऽपि भूभवनस्थितमणिप्रदीपवदकम्पमनाः स्थितवान् यदा तदा तासामाश्चर्यमासीत् । सोऽपि सुलोचनायाश्चित्तं बहुप्रकारैः पुरुषविकारैर्न चालयामास । तदोभावेकत्र मेलयित्वा हस्तिनागपुरं नीत्वा महागङ्गोदकेन स्नापयित्वा स्वर्गलोकजवस्त्राभरणैस्तावपू पुजत् सुरस्तदनुं शुद्धदृष्टिः स्वर्गलोकमगमत् । स च नृपस्तया सह सुरमहितः सुखेन तस्थौ । एवं बहुपरिग्रहौ सभामें व्रत व शीलके स्वरूपका निरूपण कर रहा था । उस समय रतिप्रभ नामक देवने उससे पूछा कि हे देव ! जम्बूद्वीपके भीतर स्थित भरत क्षेत्रमें इस प्रकार निर्मल शीलका परिपालन करनेवाला वैसा कोई पुरुष है या नहीं ? उत्तर में इन्द्रने कहा कि हाँ, कुरुजांगल देशके भीतर स्थित हस्तिनागपुरका अधिपति मेघेश्वर निर्मल शीलका धारक है । उसी प्रकार उसकी पत्नी सुलोचना भी निर्मल शीलका पालन करनेवाली है। उस मेघेश्वरने चूँकि पूर्वभवमें विद्याओंको सिद्ध किया था इसीलिए उसे एक विद्याधरयुगलको देखकर जातिस्मरण हो जानेसे वे सब विद्याएँ प्राप्त हो गई हैं। साथ ही उसकी पत्नी सुलोचनाको भी वे विद्याएँ प्राप्त हो गई हैं। इस समय उसने सुलोचनाके साथ कैलाश पर्वतपर जाकर ऋषभ जिनेन्द्रकी वंदना की । तत्पश्चात् उसने समवसरणसे निकलकर एक स्थानमें सुलोचना के साथ क्रीड़ा की । इस समय सुलोचनाको विमानके भीतर नींद आ जानसे जयकुमार वनमें क्रीड़ा करता हुआ एक रमणीय शिलाको देखकर उसके ऊपर ध्यान से स्थित है। उधर सुलोचना उठी तो वह भी जयकुमारको न देखकर कायोत्सर्गसे स्थित हो गई है । इन्द्रके द्वारा की गई इस प्रशंसाको सुनकर उस रतिप्रभ देवने आकर उनके शीलकी परीक्षा करनेके लिए अपनी देवियोंको मेघेश्वर के निकट भेजते हुए उनसे कहा कि तुम सब मेघेश्वर के समीपमें जाकर उसके शीलको नष्ट कर दो । तथा वह स्वयं सुलोचनाके पास गया । उन देवियोंने स्त्रीके योग्य अनेक प्रकारकी चेष्टाओं द्वारा मेघेश्वरके चित्तको विचलित करनेका भरसक प्रयत्न किया, फिर भी वह पृथिवीरूप भवनमें स्थित मणिमय दीपकके समान निश्चल ही रहा । उसके चित्तकी स्थिरताको देखकर उन देवियोंको बहुत आश्चर्य हुआ । इधर रतिप्रभ देव स्वयं भी पुरुषके योग्य अनेक प्रकारकी चेष्टाओं के द्वारा सुलोचना के चित्तको चलायमान नहीं कर सका । तब वह देव उन दोनोंको एक साथ लेकर हस्तिनागपुर ले गया । वहाँ उसने उन दोनोंका गंगाजल से अभिषेक करके स्वर्गीय वस्त्राभरणों से पूजा की । तत्पश्चात् वह सम्यग्दृष्टि देव स्वर्गलोकको वापिस चला गया। उधर देवोंसे पूजित वह मेघेश्वर सुलोचना के साथ सुखपूर्वक स्थित हुआ । इस प्रकार बहुत परिग्रहके धारक होकर अतिशय अनुरागी भी वे दोनों जब शीलके
१. ब श विमानान्तनिद्रायां । २. प श देवः शील । ३. फ ब तदा साश्चर्यमासीत् । ४. श लोकवस्त्रा । ५.फवपूपुजन् सुरस्तदनु, व 'वपूजन सुरस्तदनु श वपूपुजनुस्तदनु ।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३९
: ४-३, २८ ]
४. शीलफलम् ३ महारागिणावपि शोलेन सुरमहितौ तौ बभूवतुरन्यः किं न स्यादिति ॥१-२॥
[२८] श्रेष्ठी कुबेरप्रियनामधेयः पूजां मनोशां त्रिदशैः समाप ।
रूपाधिकः कर्मरिपुः से शीलाच्छीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥३॥ अस्य कथा- जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिण्यां राजा गुणपालो राशी कुबेरश्रीः पुत्री वसुपालश्रीपालौ । देवीभ्राता राजश्रेष्ठी कुबेरप्रियोऽनङ्गाकारश्चरमाङ्गः । राज्ञः प्रिया कापि सत्यवती, तद्भाता चपलगतिर्महामन्त्री। एकदा राजाऽपूर्वनाटकावलोकाधृष्टः स्वकिंकरी विलासिनीमुत्पलनेत्रामपृच्छत् ईदृग्विधं कौतुकावहं नाटकं मम राज्ये एव जातमिति । तयाभाणीदं कौतुकं न भवति । किं तु मया यद् दृष्टं कौतुकं तद्वच्मि । देव, एकदाहं तवास्थानस्थं कुबेरप्रियं विलोक्य कामबाणजर्जरितान्तःकरणाऽभवम् । तदनु तदन्तिकं दूतिकां प्रास्थापयम् । तया मत्स्वरूपे निरूपिते सोऽवोचत् एकपत्नीवतमस्तीति । ततस्तं चतुर्दश्यां श्मशाने प्रतिमायोगेन स्थितमानाययं शय्यागृहेऽनेकस्त्रीविकारैस्तश्चित्तं
प्रभावसे देवोंसे पूजित हुए हैं तब निर्ग्रन्थ व वीतराग भव्य जीव क्या न प्राप्त करेगा ? वह तो मोक्षके भी सुखको प्राप्त कर सकता है ॥२॥
अतिशय सुन्दर और कर्मोंका शत्रु वह कुबेरप्रिय नामका सेठ शीलके प्रभावसे देवोंके द्वारा की गई मनोज्ञ पूजाको प्राप्त हुआ है। इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥३॥
इसकी कथा इस प्रकार है- जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें पुष्कलावती नामका देश है। उसमें स्थित पुण्डरीकिणी नगरीमें गुणपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम कुबेरश्री था। इनके वसुपाल और श्रीपाल नामके दो पुत्र थे। रानीके एक कुबेरप्रिय नामका भाई था जो राजसेठके पदपर प्रतिष्ठित था । वह कामदेवके समान सुन्दर व चरमशरीरी था। कोई सत्यवती नामकी रमणी राजाकी वल्लभा थी। सत्यवतीके एक चपलगति नामका भाई था जो महामन्त्रीके पदपर प्रतिष्ठित था। एक दिन राजा गुणपालके लिए अपूर्व नाटकको देखकर बहुत हर्ष हुआ। तब उसने अपनी दासी उत्पलनेत्रा नामकी वेश्यासे पूछा कि इस प्रकारके कौतुकको उत्पन्न करनेवाला नाटक • मेरे राज्यमें ही सम्पन्न हुआ है न ? इसके उत्तरमें उत्पलनेत्राने कहा कि यह कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है । किन्तु मैंने जो आश्चर्यजनक दृश्य देखा है उसे कहती हूँ, सुनिए । हे राजन् ! एक दिन आपके सभाभवनमें स्थित कुबेरप्रियको देखकर मेरा मन काम-बाणसे अतिशय पीड़ित हो गया था। इसलिए मैंने उसके पास अपनी दूतीको भेजा। उसने जाकर मेरा संदेशा सेठसे कहा। उसे सुनकर सेठने मेरी प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए कहा कि मैंने एक-पत्नीव्रतको ग्रहण किया है। तत्पश्चात् वह चतुर्दशीके दिन जब श्मशानमें प्रतिमायोगसे स्थित था उस समय मैंने उसे अपने यहाँ उठवा लिया। फिर मैंने उसे शयनागारमें ले जाकर उसके चित्तको विचलित करनेके लिए स्त्री-सुलभ अनेक प्रकारकी कामोत्पादक चेष्टाएँ की। फिर भी मैं उसके चित्तको विचलित नहीं कर सकी। तब मैंने उसे वहींपर पहुँचा
१.फ सु । २. प फ श नंगाकारकश्चरमांगः । ३. ब प्रिया परापि। ४. प नाटकालाद्धृष्टः, श नाटकालोकाद्धृष्टः । ५. प श मया दृष्टं फ मया यदृष्टं । ६.फ प्रस्थापयंतया ब प्रस्थापयंस्तया । ७. फ
योगस्थितमानाय शय्या । ८. ब प्रतिपाठोऽयम । श°नेकविकार।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४० पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ४-३, २८: चालयितुं न शक्ता। तं तत्रैव निधाय गृहीतब्रह्मचर्यव्रताहमिति । अहमपि तच्चित्तं गृहीतुं न शक्तेति महञ्चित्रमिति । राजा बभाण तत्संतानजाता एतद्विधा एवेति ।
. एकदोत्पलनेत्रया ब्रह्मचर्यव्रतं गृहीतमित्यजानन् चण्डपाशिकपुत्र आगत्य तैलाभ्यङ्गनं कुवेन्त्या जल्पन्नस्थात् । तावन्मन्त्रिपुत्रम् आगच्छन्तं दृष्ट्वा कुट्टिन्या तद्भयात्स मञ्जूषायां क्षिप्तः । मन्त्रिपुत्रस्तया जल्पन स्थितः। तावञ्चपलगतिमागच्छन्तं वीक्ष्य तद्भयात् सोऽपि तत्रैव निक्षिप्तः। चपलगतिना आगत्योक्तम्-हे उत्पलनेत्रे,शृङ्गारं विधाय तिष्ठ,अपराह्ने द्रव्येणागच्छामि । उत्पलनेत्रा उवाच-हे चपलगते, सत्यवतीविवाहदिने मम हारो विवाहानन्तरं दास्यामीति त्वयैव याचित्वा नीतस्तं प्रयच्छेति । तेनोक्तं प्रयच्छामि। तदा तयोक्तं मजूपान्तःस्थितदेवी युवामस्मिन्नर्थे साक्षिणाविति । द्वितीयदिने नृपास्थाने उत्पलनेत्रा चपलगति हारं ययाचे । सोऽवादीदहं न जानामि, कस्माद्दीयते । यदि न नयसि तर्हि ह्यः कथं दास्यामीति उक्तोऽसि । सोऽवोचन्नाब्रुवम् । राजाब्रूतः उत्पलनेत्रेऽस्मिन्नर्थे ते साक्षिणः सन्ति । तयोक्तं सन्ति । तर्हि तान् वादय । वादयामीत्युक्त्वा तत्रानीती मञ्जूषा । तदनु तयावादि हे मञ्जूषान्तःस्थितदेवौ, ह्यः चपलगतिनोक्तं यथोक्तं ब्रूतम् । ततस्ताभ्यां यथोक्तकर ब्रह्मचर्यव्रतको ग्रहण कर लिया । हे देव ! अनेकोंके चित्तको आकर्षित करनेवाली मैं भी उसके चित्तको चलित नहीं कर सकी, यही एक महान् आश्चर्यकी बात है । तव राजाने कहा कि उसकी वंशपरम्परामें उत्पन्न होनेवाले महापुरुष इसी प्रकार दृढ़ होते हैं।
एक दिन 'उत्पलनेत्राने ब्रह्मचर्यको ग्रहण कर लिया है' इस बातको न जानकर उसके यहाँ कोतवालका पुत्र आया। तब वह तेलकी मालिश कर रही थी। वह उसके साथ वार्तालाप करते हुए वहाँ ठहर गया। इतनेमें वहाँ मन्त्रीके पुत्रको आता हुआ देखकर उसके भयसे चपलनेत्राने कोतवालके पुत्रको पेटीके भीतर बैठा दिया । उधर मन्त्रीका पुत्र उसके साथ बातचीत कर रहा था कि इतने में वहाँ चपलगति भी आ पहुँचा। उसे आते हुए देखकर उत्पलनेत्राने उस मन्त्रीके पुत्रको भी उसी पेटीके भीतर बन्द कर दिया। चपलगतिने आकर कहा कि हे उत्पलनेत्रे ! तू शृंगारको करके बैठ, मैं अपराहृमें धन लेकर आता हूँ। इसपर उत्पलनेत्राने उससे कहा कि हे चपलगते ! तुमने सत्यवतीके विवाहके अवसरपर मेरे हारको ले जा करके यह कहा था कि मैं इसे विवाह हो जानेपर वापिस दे दूँगा । इस प्रकार जो तुम उस हारको मांगकर ले गये थे उसे अब मुझे वापिस दे दो। यह सुनकर चपलगतिने कहा कि अभी उसे वापिस दे जाता हूँ। तब उत्पलनेत्रा बोली कि हे पेटीके भीतर स्थित दोनों देवताओ ! इस विषयमें तुम दोनों साक्षी हो । दूसरे दिन उत्पलनेत्राने राजसभामें उपस्थित होकर जब चपलगतिसे उस हारको मांगा तब उसने कहा कि मुझे उसका पता भी नहीं है, मैं उसे कहाँ से दूँ ? इसपर चपलनेत्रा बोली कि यदि तुम नहीं जानते हो तो फिर तुमने कल यह किसलिए कहा था कि मैं उसे वापिस दे दूंगा ? यह सुनकर चपलगति बोला कि मैंने तो ऐसा कभी नहीं कहा। इसपर राजा बोला कि हे उत्पलनेत्रे ! इस विषयमें क्या कोई तुम्हारे साक्षी भी हैं ? उसने उत्तर दिया कि हाँ, इसके लिए साक्षी भी हैं। तो फिर उन्हें संदेश देकर बुलवाओ, इस प्रकार राजाके कहनेपर उत्पलनेत्रा बोली कि अच्छा उन्हें बुलवाती हूँ। यह कहते हुए उसने उस पेटीको वहाँ मंगा लिया। तत्पश्चात् वह बोली कि हे
१. ब मंत्रितनुजस्तया। २. प फ श नानयसि । ३. ब 'ते' नास्ति । ४. फ बाह्वय आह्वयामीत्युक्ता तत्रानीत । ५. ब तथोक्तं ।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-३, २८] ४. शीलफलम् ३
१४१ मुक्त कौतुकेन राशोद्घाटिता मञ्जूषा । तत्र स्थितस्वरूपं विशाय सर्वैरुपहासे कृते तो लजया दीक्षितौ। राज्ञा सत्यवतीसमीपं पुरुषः प्रेषितः 'उत्पलनेत्राया हारस्ते विवाहकाले चपलगतिनानीतः स दातव्यः' इति । तयादायि । तेन पुरुषेण राशो हस्ते दत्तस्तेन विलासिन्याः समर्पितः इति । ततो राजा कोपेन चपलगतेर्जिह्वाच्छेदं कारयन् कुबेरप्रियो न्यवारयत् । स चपलगतिः कुबेरप्रियस्य प्रभुत्वदर्शनात्प्रभुत्व मात्सर्येण कुप्यति, सत्यवत्या हारो दत्त इति तस्या अपि । उभयोरहितं चिन्तयन् विमलजला नदी विनोदेन गतः तत्तटस्थलतागृहे दिव्यां मुद्रिकामपश्यजग्राह च। तदा चिन्ताक्रान्तश्चिन्तागतिनामा विद्याधर आगत्येतस्ततो गवेषयन् चपलगतिना दृष्टः । तदनु हे भ्रातः, किमवलोकयसीत्युक्तवान् । खेचरोऽब्रूत मे मुद्रिका नष्टा, तां विलोकयामीति । ततः सोऽदत्त तां तस्मै । संतुष्टः खेचरोऽपृच्छत्तं कस्त्वमिति । चपलगतिरुवाच कुबेरप्रियस्य देवपूजकोऽहम् । ततः खेचरोऽब्रवीदेवं तर्हि स मे सखा । इयं च काममुद्रिकाभिलषितं रूपं प्रयच्छति । तद्धस्ते इमां प्रयच्छ । पश्चादहं तस्माद् ग्रहीष्यामि इति समर्प्य गतः । स तां गृहीत्वा स्वगृहमियाय स्वभ्रातरं पृथुमतिमशिक्षयञ्चतुपेटीके भीतर स्थित दोनों देवताओ ! कल चपलगतिने जो कुछ भी कहा था उसे यथार्थस्वरूपसे कह दो। तब उन दोनोंने यथार्थ बात कह दी। इसपर राजाको बहुत कौतूहल हुआ। तब राजाने उस पेटीको खुलवा दिया। उसके भीतरकी परिस्थितिको ज्ञात करके सब जनोंने उनका उपहास किया। इससे लज्जित होकर उन दोनोंने दीक्षा ले ली। फिर राजाने सत्यवतीके पास एक पुरुषको भेजकर उससे कहलाया कि तुम्हारे विवाहके समय चपलगति उत्पलनेत्राके जिस हारको लाया था उसे दे दो। तब उसने उस हारको उस पुरुषके लिए दे दिया और उसने लाकर उसे राजाके हाथमें दे दिया। राजाने उसे उस वेश्याके लिए समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् राजाने क्रोधित होकर चपलगतिकी जिह्वाके छेदनेकी आज्ञा दे दी। परन्तु कुबेरप्रियने राजाको ऐसा करनेसे रोक दिया। कुबेरप्रियके प्रभुत्वको देखकर उस चपलगतिको उसकी प्रभुतापर ईर्ष्यापूर्वक क्रोध उत्पन्न हुआ। साथ ही सत्यवतीके उस हारको वापिस दे देनेके कारण चपलगतिको उसके ऊपर भी क्रोध हुआ। इस प्रकार वह इन दोनोंके अनिष्टका विचार करने लगा । एक दिन वह विनोदसे निर्मल जलवाली नदीपर गया। वहाँ उसे नदीके किनारेपर स्थित एक लतागृहमें एक दिव्य मुंदरी दिखायी दी । तब उसने उसे उठा लिया । उसी समय चिन्तागति नामका विद्याधर वहाँ आया और चिन्ताग्रस्त होकर कुछ इधर-उधर खोजने लगा। तब उसे इस प्रकार व्याकुल देखकर चपलगतिने पूछा कि हे भाई ! तुम क्या देख रहे हो ? यह सुनकर विद्याधर बोला कि मेरी एक मुंदरी खो गई है, उसे खोज रहा हूँ। तब चपलगतिने उसके लिए वह मुंदरी दे दी। इससे सन्तुष्ट होकर उस विद्याधरने चपलगतिसे पूछा कि तुम कौन हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं कुबेरप्रियका देवपूजक (पुजारी) हूँ। यह सुनकर विद्याधर बोला कि वह तो मेरा मित्र है। यह काममुद्रिका अभिलषित रूपको देती है। इस मुद्रिकाको तुम कुवेरमित्रके हाथमें दे देना, पीछे मैं उसके पाससे ले लूँगा; यह कहकर विद्याधरने चपलगतिके लिए वह मुद्रिका दे दी। इस प्रकारसे वह चपलगति उक्त मुद्रिकाको लेकर अपने घर गया । वहाँ उसने अपने भाई पृथुमतिको समझाया कि चतुर्दशीके दिन अपराह्नमें जब मैं राजाके पास बैठा
१. फ हास्ये । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श पृष्टः । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श गृहं निनाय । ४. प श मतिं विशिष्ययच्चतु फ शिक्षयच्चतु।
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२ पुण्यानवकथाकोशम्
[ ४-३, २८: दश्यामपराले इमामङ्गुल्यां' निक्षिप्य सत्यवतीगृहं गच्छ यदाहं राजसमीपे तिष्ठामि । सत्यवती राजभवनसंमुखभद्रे चोपवेष्यति तदा कुबेरप्रियस्य रूपं मनसि धृत्वेमामङ्गुलौ भ्रामय, तद्रूपं भविष्यति । तदा तन्निकटे विकारचेष्टां कुर्विति । तदा पृथुमतिस्तथा तांचकार । चपलगती रोशस्तं दर्शयामासोक्तवांश्च 'देवेयत्यां वेलायां कुबेरप्रियोऽनया सार्धमेवं क्रीडतीति पूर्व यन्मया श्रुतमनया तिष्ठतीति सत्यं जातम्' इति । राम्रोक्तं सोऽद्योपोषितस्तस्येदं किं संभवति । चपलगतिनाभाणि प्रत्यक्षेऽर्थे ऽपि संदेहस्तस्मादनयोः शास्तिः कर्तव्येति । तर्हि त्वमेव कुर्वित्युक्ते महाप्रसाद इति भणित्वा चपलगतिस्तस्य शिरश्छेदनानन्तरमस्या नासिकालवणं करिष्यामीति सत्यवत्या रक्षां कृत्वा इमं कुबेरप्रियं महान्यायिनं प्रातरियामीति मायास्वभ्रातरं धृत्वा स्वगृहं निनाय । तं मुक्त्वा श्मशानात्कुबेरप्रियमानीय तत्रास्थापयत्तदा पुरक्षोभोऽभूत् । श्रेष्ठी 'यद्यस्मिन्नुपसर्गे जीविष्यामि पाणिपात्रेण भोक्ष्ये' इति गृहीतप्रतिशः। सत्यवत्यपि अनयैव प्रतिज्ञया स्वदेवतार्चनगृहे कायोत्सर्गेणास्थात्। राजा दुःखेन तूलिकातले पतित्वा स्थितः। प्रातः तं शीर्ष केशेषु धृत्वा पितृवनं निनाय । तत्रोपवेश्य तच्छिरोहननार्थ चण्डाभिधमातङ्गमाहूय तद्धस्तेऽसिं दत्त्वैतच्छिरो घातयेत्यवोचत् । तदा तच्छीलप्रभावन
होऊँ तब तू इस मुद्रिकाको अपनी अंगुलीमें पहिनकर सत्यवतीके घर जाना । वहाँ पहुँचनेपर जब सत्यवती तुम्हें राजभवनके सम्मुख स्थित भद्रासनपर बैठा दे तब तुम कुबेरप्रियके रूपका मनमें चिन्तन करके अँगुलिमें स्थित इस मुद्रिकाको घुमाना। इससे तुम्हें कुबेरप्रियका रूप प्राप्त हो जावेगा । फिर तुम सत्यवतीके समीपमें कामविकारकी चेष्टा करनेमें उद्यत हो जाना । तदनुसार उस समय पृथुमतिने वह सब कार्य चेष्टा की भी। तब चपलगतिने उसे राजाको दिखलाया और कहा कि हे देव ! कुबेरप्रिय इतने समयमें सत्यवतीके साथमें इस प्रकारकी क्रीड़ा किया करता है, यह जो मैंने सुना था वह इस समय उसे सत्यवतीके साथ बैठा हुआ देखकर सत्य प्रमाणित हो गया है । यह सुनकर राजाने कहा कि आज उसका उपवास है, इसलिए उसका ऐसा करना भला कैसे सम्भव हो सकता है ? इसपर चपलगतिने कहा कि प्रत्यक्ष पदार्थमें भी क्या सन्देहके लिए स्थान रहता है ? अतएव इन दोनोंको दण्ड देना चाहिए। तब राजाने कहा कि तो फिर तुम ही उनको दण्डित करो। इसके लिए राजाको धन्यवाद देकर चपलगतिने विचार किया कि पहिले कुबेरप्रियके शिरको काटकर तत्पश्चात् सत्यवतीकी नाक काटूंगा। इस प्रकार सत्यवतीको बचाकर उस महान् अन्यायी कुबेरप्रियको कल प्रातःकालमें मार डालूँगा। इस प्रकार सोचता हुआ वह मायाबी कुबेरप्रियके रूपको धारण करनेवाले अपने भाईको साथ लेकर घर पहुँचा । फिर उसने भाईको वहीं छोड़कर श्मशानसे उस कुबेरप्रियको लाकर जब वहाँ स्थापित किया तब नगरके भीतर बहुत क्षोभ हुआ। इस उपसर्गके समय सेठने यह प्रतिज्ञा की कि यदि इस उपसर्गसे बच गया तो पाणिपात्रसे भोजन करूँगा- मुनि हो जाऊँगा। सत्यवती भी ऐसी ही प्रतिज्ञाके साथ अपने देवपूजागृह (चैत्यालय ) में कायोत्सर्गसे स्थित हो गई। उधर राजा दुखित होकर शय्याके ऊपर पड़ गया। प्रातःकालके होनेपर वह सेठ बालोंको खींचकर श्मशानमें ले जाया गया। उसको वहाँ बैठाकर चपलगतिने उसका शिर काटनेके लिए चण्ड नामके
१. ब इयमंगुल्यां । २. ब चोपवेक्ष्येति [ चोपवेशयति ] । ३. ब धृत्वेऽयमंगुल्यो। ४. ब योपेक्षितस्तस्येदं । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श प्रत्यक्षेर्थे संदेह । ६. बलुवनं। ७. श पुरक्षोभ्यो । ८. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श चण्डाधिपं मातंग । पब माज ह्वौ श माजुहाव ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४३
: ४-३, २८]
४. शीलफलम् ३ देवासुराणामासनानि प्रकम्पितानि । ते च तदुपसर्गमवबुध्य तत्र समागुः । सर्वोऽपि पुरजनो हा-हा कुर्वन् कुबेरप्रिय, तव किमभूदिति दुःखी भूत्वावलोकयन् स्थितः। तदा मातङ्गः इष्टदेवतां स्मरेति भणित्वा असिना शिरो हन्ति स्म । सोऽसिस्तत्कण्ठे हारोऽजनि । मातङ्गो जय जयेति भणित्वाऽपससार । मन्त्री प्रवृद्धमत्सरः सभृत्यो नानायुधानि मुमोच । तानि फलपुष्पादिरूपेण परिणतानि । तदा देवैः कृतपञ्चाश्चर्याद्विबुध्य राजागत्य चपलगतिं गर्दभारोहणादिकं कारयित्वा निर्धाटयामास । श्रेष्टिनं क्षमां कारयति स्म । श्रेष्ठी क्षमां कृत्वोक्तवान् पाणिपात्रे भोक्तव्यम् । राज्ञोक्तं मयापि । तदा वसुपालाय राज्यं श्रीपालाय युवराजपदं' श्रेष्ठिपुत्रकुबेरकान्ताय श्रेष्ठिपदं वितीर्य बहुभिनिष्क्रान्ती, सत्यवत्याद्यन्तःपुरमपि। स मातङ्गोऽहिंसाव्रतमुपवासं च पर्वणि करिष्यामीति कृतप्रतिज्ञो यो लाक्षागृहे विद्युद्वेगाय धर्मोपदेशं चकार । तौ कुबेरप्रियगुणपालमुनी सुरगिरी समुत्पन्न केवलौ विहृत्य तत्रैव मुक्ति जग्मतुः। एवं बहुपरिग्रहोऽपि श्रेष्ठी सुरमहितोऽभूच्छीलेनान्यः किं न स्यादिति ॥३॥
चाण्डालको बुलाया और उसके हाथमें तलवारको देकर कहा कि इसके शिरको काट डालो । उस समय उसके शीलके प्रभावसे देवों एवं असुरोंके आसन कम्पायमान हुए। इससे वे कुबेरमित्रके उपसर्गको ज्ञात करके वहाँ आ पहुँचे। उस समय सब ही नगरवासी जन हा-हाकार करते हुए यह विचार कर रहे थे कि हे कुबेरप्रिय ! तुम्हारे ऊपर यह घोर उपसर्ग क्यों हुआ । इस प्रकारसे वे सब वहाँ अतिशय दुखी होकर यह दृश्य देख रहे थे। इसी समय 'अपने इष्ट देवताका स्मरण करो' यह कहते हुए उस चाण्डालने कुबेरप्रियके शिरको काटनेके लिए तलवारका प्रहार किया। परन्तु वह तलवार सेठके गलेका हार बन गई। यह देखकर वह चाण्डाल 'जय जय' कहता हुआ वहाँसे हट गया । तब उस मन्त्रीने बढ़ी हुई ईर्ष्याके कारण अन्य सेवकोंके साथ उसके ऊपर अनेक आयुधोंका प्रहार किया। परन्तु वे सब ही फल-पुष्पादिके रूपमें परिणत होते गये। उस समय देवोंके द्वारा किये गये पंचाश्चर्यसे यथार्थ स्वरूपको जानकर राजा वहाँ जा पहुंचा। उसने चपलगतिको गर्दभारोहण आदि कराकर देशसे निकाल दिया। साथ ही उसने इसके लिए सेठसे क्षमा-प्रार्थना की। सेठने उसे क्षमा करते हुए कहा कि अब मैं पाणिपात्र में भोजन करूँगाजिन-दीक्षा ग्रहण करूँगा। इसपर राजा बोला कि मैं भी आपके साथ दीक्षा धारण करूँगा । तब वे दोनों वसुपालके लिए राज्य, श्रीपालके लिए युवराजपद और सेठपुत्र कुबेरकान्तके लिए राजसेठका पद देकर बहुत जनोंके साथ दीक्षित हो गये। इनके साथ सत्यवती आदि अन्तःपुरकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली। धर्मके माहात्म्यको देखकर उस चाण्डालने भी यह नियम ले लिया कि मैं पर्वके दिनमें किसी प्रकारकी हिंसा न करके उपवास किया करूँगा । यह वही चाण्डाल है जिसने कि लाखके घरमें स्थित होकर विद्युवेग चोरके लिए धर्मोपदेश दिया था (देखो पृष्ठ १२८ कथा २३)। कुबेरप्रिय और श्रीपाल इन दोनों मुनियों को सुरगिरि पर्वतके ऊपर केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने विहार करके धर्मोपदेश दिया । अन्तमें वे उसी पर्वतके ऊपर मुक्तिको प्राप्त हुए । इस प्रकार बहुत परिग्रहसे सहित भी वह सेठ जब शीलके प्रभावसे देवोंके द्वारा पूजित हुआ तब अन्य निर्ग्रन्थ भव्य क्या न प्राप्त करेगा ? वह तो मोक्षको भी प्राप्त कर सकता है ॥३॥
१.ब परिणमितानि । २. ब पाणिपात्रेण । ३. श युवराजपदं । ४. ब ययतः ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ २
]
श्रीजानकी रामनृपस्य देवी दग्धा न 'संधुक्षितवह्निना च । देवेशपूज्या भवति स्म शीलाच्छीलं ततोऽहं खेल पालयामि ||४||
स्य कथा - अत्रैवायोध्यायां राजानौ बलनारायणौ रामलक्ष्मणनामानौ । रामस्याष्ट्रसहस्रान्तः पुरमध्ये सीता-प्रभावती - रतिनिभा श्रीदामाश्चेति चतस्रः पट्टराश्यः । सीता चतुर्थस्नानान्तरं पत्या सह सुप्ता रात्रिपश्चिमयामे स्वप्नमद्राक्षीत् - स्वमुखे प्रविशन्तं शरभद्वयं गगनयाने विमानात्स्वस्य पतनं च । रामाय निरूपिते तवोत्तमं पुत्रयुग्मं भविष्यति किंचिद् दुःखं चेति । तदनु सीता श्रेयोऽर्थ जिनपूजां कर्तु लग्ना । गर्भसंभूतौ तीर्थस्थानवन्दनादोहलकोऽभूत् । तदा रामो नभोयानेन तन्मनोरथान् पूरितवान् । ततस्तत्र कुलटत्वमुद्दिश्य स्वभर्तृभिः पुनः पुनस्ताडयमाना बन्धक्यः स्व-स्वभर्तारं प्रत्युत्तरं दत्तवत्यः तद्वनप्रवेशकाले सीता रावणेन चोरयित्वा वर्षमेकं तत्र स्थिता पुनस्तं हत्वानीयं तथैव गृहे स्थापिता इति । कियत्सु दिनेषु पर्यालोच्य मेलापकेन राघवद्वारे' प्रजागमनं जातम् । प्रतिहारैर्विशप्ते रामेणाहूताः अन्तः प्रविश्य बलनारायणाववलोक्य रामेणागमनकारणे पृष्ठे वक्तुमशक्यत्वा
[ ४-४, २६ :
राजा रामचन्द्रकी पत्नी व जनककी पुत्री सीता सती शीलके प्रभावसे भड़की हुई अग्नि में न जलकर इन्द्रोंके द्वारा पूजित हुई । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ||३||
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी भरत क्षेत्र के भीतर अयोध्या पुरीमें राजा राम और लक्ष्मण राज्य करते थे । इनमें रामचन्द्र तो बलभद्र और लक्ष्मण नारायण थे । रामचन्द्रके आठ हजार स्त्रियाँ थीं। उनमें सीता, प्रभावती, रतिनिभा और श्रीदामा ये चार पट्टरानियाँ थीं । सीता चतुर्थ स्नान के पश्चात् पतिके साथ सो रही थी । उस समय उसने रात्रिके अन्तिम पहर में स्वप्न में अपने मुखमें प्रवेश करते हुए दो सिंहोंको तथा आकाश मार्ग से गमन करते हुए विमानसे अपने अधःपतनको देखा । तब उसने इन स्वप्नोंका वृत्तान्त रामचन्द्र से कहा । उन्हें सुनकर रामचन्द्रने कहा कि तुम्हारे उत्तम दो पुत्र होंगे। साथ ही कुछ कष्ट भी होगा । तत्पश्चात् सीता कल्याणके निमित्त जिनपूजा में तत्पर हो गई । गर्भकी अवस्थामें उसके तीर्थ-स्थानोंकी वन्दनाका दोहल हुआ । तब रामचन्द्र ने उसके इन मनोरथोंको आकाशमार्गसे जाकर पूर्ण किया । पश्चात् अयोध्या में कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं कि जिनमें किन्हीं पतियोंने दुराचार के कारण अपनी पत्नियोंको बार-बार ताड़ना की । परन्तु उन दुश्चरित्र स्त्रियोंने उसके उत्तर में अपने पतियोंको यही कहा कि जब राजा रामचन्द्र वनमें गये थे तब रावण सीताको हरकर ले गया था । वह रावण के यहाँ एक वर्ष रही। फिर भी रामचन्द्र रावणको मारकर उसे वापिस ले आये और अपने घरमें रक्खा है । तब उत्तरोत्तर ऐसी ही अनेक घटनाओं के घटने पर कुछ दिनों में प्रजाके प्रमुखोंने इसका विचार किया । तत्पश्चात् वे मिलकर रामचन्द्र के द्वारपर उपस्थित हुए । द्वारपालोंके निवेदन करनेपर रामचन्द्रने उन सबको भीतर बुलाया । भीतर जाकर उन्होंने बलभद्र और नारायणको देखा । तब रामचन्द्र ने उनसे आनेका कारण पूछा। परन्तु उन्हें कुछ कहने का साहस नहीं हुआ। इस प्रकार वे मौनका आलम्बन करके
१. ब प्रतिपाठोऽयम् । श सिंधुक्षित। २ क परि° ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श तीर्थस्नानवंदन | ४. ब ' ततस्तत्र कुलटत्व प्रत्युत्तरं दत्तवत्यः' एतावान् पाठो नोपलभ्यते । ५. ब चोरयित्वा नीता तं हत्वानीय । ६. श राज्यवहारे । ७. ब दिवसेषु मेलापकेन प्रजागमनं ।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-४, २६ ]
४. शीलफलम् ४
न्मौनेन स्थिताः । पुनः पृष्ठे विजयनाम्ना पुरोहितेन विज्ञप्तं देव, यथा जलधिर्वज्र वेदिकोल्लङ्घनं न करोति तथा राजापि धर्मलङ्घनं न करोति, तच्च कृतवान् । देव, 'यथा राजा तथा प्रजा' इति वाक्यानुस्मरणात्प्रजापि तथा वर्तते इति सीतास्थापनं तवानुचितम् । श्रुत्वा केशवस्तं भारयितुमुत्थितः पद्मेन निवारितः ।
१४५
सर्व पर्यालोच्य त्यजनमेव निश्चितम् । लक्ष्मणेन निवारितेनापि कृतान्तवक्त्रमाहूय आदेशो दत्तः- - वैदेही [हीं] निर्वाणक्षेत्र वन्दनार्थमागच्छेति आहूय नीत्वाटव्यां त्यक्त्वागच्छ । ततस्तेन रथमध्यारोप्य नीता नानाविधद्रुम अनेकवनेंचरसंकीर्णायामटव्यां रथादुत्तारिता । क तन्निर्वाणक्षेत्रमिति पृष्टवती सीता । तदनु रुदितं तेन । किं कारणमिति पृष्टवैती, सर्वस्मिन् कथिते मूच्छिता । तदनु चैतन्यं प्राप्योक्तं तया - वत्स, मा रोदनं कुरु, गत्वा रामाय मदीया प्रार्थना कथनीया । कथम् । यथा जनापवादभयेन निरपराधाहं त्यक्ता तथा मिथ्यादृष्टिभयाजैनधर्मो न त्यजनीय इति । स श्रात्मानं निन्दित्वा गतः इति । निरूपिते तस्मिन् मूच्छितों रामः, दुःखितो लक्ष्मणस्तथा सर्वे जना अपि । कृतान्तवक्त्रेण प्रतिबोधितेन रामेण सीता
स्थित रहे। तब रामचन्द्रके द्वारा फिरसे पूछे जानेपर विजय नामक पुरोहितने प्रार्थना की कि हे देव ! जिस प्रकार समुद्र अपनी वज्रमय वेदिकाका उल्लंघन नहीं करता है उसी प्रकार राजा भी धर्ममार्गका उल्लंघन नहीं करता है । परन्तु आपने उसका उल्लंघन किया है । यही कारण है जो देव ! 'जैसा राजा वैसी प्रजा' इस नीतिका अनुसरण करनेवाली प्रजा भी उसी प्रकारका आचरण कर रही है । इस कारण आपको सीताका अपने भवनमें रखना उचित नहीं है । विजयके इस दोषारोपणको सुनकर लक्ष्मणको बहुत क्रोध आया, इसीलिये वह उसको मारनेके लिये उठ खड़ा हुआ । परन्तु रामचन्द्रने उसे ऐसा करने से रोक दिया ।
तब रामचन्द्र ने सब कुछ सोच करके सीताके त्याग देनेका ही निश्चय किया । इसके लिये लक्ष्मणके रोकनेपर भी रामने कृतान्तवक्त्र को बुलाकर उसे यह आज्ञा दी कि तुम निर्वाणक्षेत्रोंकी वन्दना करानेके मिषसे सीताको बुलाओ और फिर उसे लेजाकर वनमें छोड़ आवो । तदनुसार कृतान्तवक्त्र उसे रथमें बैठाकर अनेक प्रकारके वृक्षों एवं वनचर (वनमें संचार करनेवाले
1
आदि) जीवों व्याप्त वनमें ले गया । वहाँ जब उसने सीताको रथसे उतारा तब वह पूछने लगी कि वह निर्वाणक्षेत्र यहाँ कहाँ है ? यह सुनकर कृतान्तवक्त्र रो पड़ा । तब सीताने उसके रोनेका कारण पूछा । इसके उत्तर में उसने वह सब घटना सुना दी । उसे सुनकर सीता मूर्छित हो गई । फिर वह सचेत होनेपर बोली कि हे वत्स ! रोओ मत। तुम जाकर मेरी ओरसे रामसे यह प्रार्थना करना कि आपने जिस प्रकार लोकनिन्दाके भयसे निरपराध मुझ अबलाका परित्याग किया है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जनोंके भयसे जैनधर्मका परित्याग न कर देना । अन्तमें कृतान्तवक्त्र अपनी अत्मनिन्दा करता हुआ अयोध्याको वापिस गया । वहाँ जाकर उसने जब रामसे सीताके वे प्रार्थनावाक्य कहे तब वे उन्हें सुनकर मूर्छित हो गये । लक्ष्मणको भी बहुत दुख हुआ । इस घटनासे सब ही जन अतिशय दुखी हुए । तत्पश्चात् कृतान्तवक्त्रके द्वारा प्रतिबोधित होकर
१. फ तथा राजापि धर्मोल्लंघनं व तथापि राजा धर्मोल्लंघनं । २. श वदेहि । ३. ब त्यक्ता । ४. फ नानाद्रुमविधअनेकवन बनानाविद्रुमवन । ५. श 'पृष्टवती' नास्ति । ६. ब 'इति' नास्ति । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जनाः कृतान्त |
Jain Education Integrational
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૬
gomtaaresोशम्
महत्तरं भद्रकलशमाहूयादेशो दत्तः यथा सीतया धर्मः क्रियते तथा कुरु त्वमिति ।
इतः सीता द्वादशानुप्रेक्षा भावयन्ती तस्थौ । अस्मिन् प्रस्तावे तत्र हस्तिधरणार्थं कश्चिन्मण्डलेश्वरः समायातः । तद्धृत्यैर्दृष्ट्रा राज्ञे निरूपिते तेनागत्य विस्मितेन दृष्ट्वा का यमिति पृष्टा । ज्ञातवृत्तान्तेनोक्तं राज्ञा 'जैनधर्मेण मम भगिनी त्वम्' । तयोक्तं कस्त्वम् । पुण्डरीकिणी पुरेशः सूर्यवंशोद्भवो वज्रजङ्गोऽहम् । आगच्छ मत्पुरं कुरु प्रसादम् | गजधरणं विहाय तां पुरस्कृत्य स्वपुरं गतः । स्वभगिनी प्रभावती सर्वगुणसंपूर्णा विधवा सर्वदा धर्मरता, तत्स्वरूपं निरूप्य तस्याः समर्पिता । तत्र तिष्ठन्ती नवमासावसानेषु पुत्र [त्रौ ] प्रसूतौ, वज्रजङ्गेन महोत्सवः कृतः, लवाङ्कुशमदनाङ्कुशनामानौ कृतौ । बाल्ये सर्वेभ्यः सोत्साहं रेमाते । शैशवावसाने नानादेशान् परिभ्रमता तत्रैकदागतेन तयोर्दशनमात्राजनित स्नेहेन सिद्धार्थलकेन शास्त्रास्त्रप्रौढी कृतौ । तयोर्यौवनमभीर्य वज्रजङ्घन स्वस्य लक्ष्मीमत्याश्चोत्पन्नाः शशिचूडादयो द्वात्रिंशत्कुमार्यो लवाय दत्ताः । तदनु अङ्कुशाय पृथिवीपुरेशपृथु पृथिवीश्रियोः पुत्री कनकमाला याचिता । तेनोक्तम्- 'स्वयं नष्टो दुरात्मान्यांश्च नाशयति, अज्ञात
[ ४-४, २३ :
रामचन्द्र ने सीता के महत्तर ( अन्तःपुरका रक्षक ) भद्रकलशको बुलाया और उसे यह आज्ञा दी कि जिस प्रकार सीता धर्म किया करती थी उसी प्रकारसे तुम धर्म करते रहो ।
उधर सीता बारह भावनाओंका विचार करती हुई उस भयानक वनमें स्थित थी । इस बीचमें वहाँ कोई मण्डलेश्वर राजा हाथी को पकड़नेके विचारसे आया । उसके सेवकोंने वहाँ विलाप करती हुई सीताको देखकर उसका समाचार राजासे कहा । तब राजाने आश्चर्यपूर्वक सीताको देखकर पूछा कि तुम कौन हो ? उत्तर में सीताने जब अपने वृत्तान्तको सुनाया तब यथार्थ स्थितिको जान करके वह बोला कि जैन धर्मके नातेसे तुम मेरी धर्मबहिन हो । तब सीता ने भी उससे पूछा कि तुम कौन हो ? इसके उत्तर में वह बोला कि मैं पुण्डरीकिणी पुरका राजा सूर्यवंशी वज्रजंघ हूँ । तुम कृपा करके मेरे नगर में चलो। इस प्रकार वह हाथीको न पकड़ते हुए सीताको आगे करके अपने नगरको वापिस गया । वज्रजंघके एक प्रभावती नामकी सर्वगुण सम्पन्न विधवा बहन थी । वह निरन्तर धर्मकार्य में उद्यत रहती थी । वज्रजंधने सीताके वृत्तान्तको कहकर उसे अपनी उस बहिन के लिये समर्पित कर दिया । वहाँ रहते हुए सीताने नौ महीनों के अन्तमें दो पुत्रोंको जन्म दिया । इसके उपलक्ष्य में वज्रजंघ राजाने महान् उत्सव किया। उसने उन दोनों के लवांकुश और मदनांकुश नाम रक्खे । बाल्यावस्थामें वे दोनों आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करते हुए सबको प्रसन्न करते थे । धीरे-धीरे जब उनका शैशव काल बीत गया तब वहाँ एक समय अनेक देशों में परिभ्रमण करता हुआ सिद्धार्थ क्षुल्लक आया । इन दोनों को देखते ही उसके हृदय में स्नेह उत्पन्न हुआ । तब उसने इन दोनों को शास्त्र व शस्त्र विद्यामें निपुण क्रिया । उन दोनोंकी युवावस्थाको देखकर वज्रजंघने लवके लिये अपनी पत्नी लक्ष्मीमती से उत्पन्न हुई कुमारिकाओं को दे दिया । तत्पश्चात् उसने अंकुशके लिये पृथिवी पुरके पुत्री कनकमालाको मांगा । उसके उत्तर में पृथु राजाने कहा कि वह हुआ ही है, साथ ही वह दूसरोंको भी नष्ट करना चाहता है । जिसके कुल और स्वभावका परि
शशिचूडा आदि बत्तीस राजा पृथु और पृथिवी श्रीकी दुष्ट वज्रजंघ स्वयं तो नष्ट
१. फश भावयती । २. ब स्थिताः । ३. ब ज्ञातवृतान्ते तेनोक्तं । ४. श पुंडरीपुरेशः । ५. ब वसाने पुत्रयुगलं प्रसूते । ६. ब महोत्साहः कृतो । ७. फ परिभ्रमिता । ८. बमवीक्ष्य । ९. ब- प्रतिपाठोऽयम् ।
श लक्ष्मीमत्यादयोत्पन्ना ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-४, २६ ]
४. शीलफलम् ४
१४७
कुलाय कि पुत्री दीयते' इति श्रुत्वा हठाद् ग्रहीतुं वज्रजङ्घो बलेन निर्गतः । तत्पाक्षिकेन व्याघ्ररथेन कदने कृते वज्रजङ्घेन बद्धो व्याघ्ररथः । तदाकर्ण्य पृथुना स्ववर्याः सर्वे मेलिताः । अत्याश्चर्यसामग्रया स्थित इति ज्ञात्वा वज्रजङ्घन स्वपुत्रानानेतुं प्रेषित लेखादि ज्ञात्वा लवाङ्कुशौ सीतया निवारितौ श्रपि निर्गत्य पञ्चरात्रेण वज्रजङ्घस्य मिलितौ । तेन युवां किमित्यागताविति पृष्ठे द्रष्टुमागतौ । पृथुः समस्तबलेन व्यूह - प्रतिव्यूहक्रमेर्णे रणभूमौ स्थितः । लवाङ्कुशौ वज्रजङ्घनाज्ञातौ गत्वा योद्धुं लग्नौ । विलयप्रापिते पृथुबलें" पृथुना लवः स्वीकृतः । उभयोरत्यद्भुते रणे विरथीभूय नष्टुं लग्नः पृथुस्तदनु लवेनोक्तं अज्ञातकुलाय कुमारी दातुमनुचितम् किमभिमानादि सर्वस्वं दातुमुचितमिति प्रचा[ता]रिते पादयोः पतित्वा भृत्यो बभूव । तदनु ताभ्यां निजपौरुषेण जगदाश्चर्यमुत्पादितम् । दिनोत्तमेऽङ्कशकनकमालयोविवाहोऽभूत् । कियद्दिनेषु वज्रजङ्घ पुण्डरीकिण्यां प्रस्थाप्य निजबलेन नानादेशान् साधयित्वा महामण्डलिकश्रियालंकृतौ पुण्डरीकिण्यां ऊषतुः ।
कतिपयदिनेषु तयोरवलोकनार्थ नारद श्रागतः । सीतासमीपस्थयोर्विचित्रभूषणोज्ज्वलवेषयोः स्वरूपातिशयेन निर्जितपुरन्दरयोरनन्तवीर्ययोर्नतयोरुक्तं नारदेन रामलक्ष्मीधराविव ज्ञान नहीं है उसके लिये क्या पुत्री दी जा सकती है ? इस उद्धतता पूर्ण उत्तरको सुनकर वज्रजंधको क्रोध उत्पन्न हुआ । तब उसने पृथुका बलपूर्वक निग्रह करनेके लिये उसके ऊपर सेनाके साथ चढ़ाई कर दी। इस युद्ध में वज्रजंघने पृथुके पक्ष के सुभट व्याघ्ररथके साथ युद्ध करके उसे बाँध लिया । इस बात को सुनकर पृथुने अपने पक्षके सभी योद्धाओं को एकत्रित किया । इस प्रकार वह अतिशय आश्चर्यजनक सामग्री के साथ आकर स्वयं रणभूमिमें स्थित हुआ । तब इस वृत्तको जानकर वज्रजंघने भी अपने पुत्रों को लानेके लिये लेख भेज दिया । उक्त लेखसे वस्तुस्थितिको जान करके सीताके रोकने पर भी लव और अंकुश पुण्डरीक पुरसे निकलकर पाँच दिनमें वज्रजंघसे जा मिले । वज्रजंधने जब उन्हें देखकर यह पूछा कि तुम दोनों यहाँ क्यों आये हो तो इसके उत्तर में उन्होंने यही कहा कि हम आपको देखनेके लिये आये हैं । उस समय पृथु राजा समस्त सैन्यके साथ व्यूह और प्रति व्यूहके क्रमसे रणभूमिमें स्थित था । लव और अंकुश दानों वज्रजंधकी आज्ञा पाकर युद्ध में संलग्न हो गये। उन दोनोंने पृथुकी बहुत-सी सेनाको नष्ट कर दिया। तब पृथु स्वयं ही लबके सामने आया। फिर उन दोनोंमें आश्चर्यजनक युद्ध हुआ । अन्तमें जब पृथु रथसे रहित होकर भागनेके लिये उद्यत हुआ तब लवने उससे कहा कि जिसके कुलका पता नहीं है उसके लिये कन्या देना तो उचित नहीं है, परन्तु क्या उसके लिये अपना स्वाभिमानादि सब कुछ दे देना उचित है ? इस प्रकार लवके द्वारा तिरस्कृत होकर वह उसके पाँवों में पड़ गया और सेवक बन गया । इस प्रकार उन दोनोंने अपने पौरुषके द्वारा संसारको आश्चर्यचकित कर दिया । अन्ततः अंकुशका विवाह शुभ दिनमें कनकमाला के साथ हो गया । तत्पश्चात् कुछ दिनोंमें वे दोनों वज्रजंघको पुण्डरीकिणी नगरीमें भेजकर अपने सामर्थ्यसे अनेक देशों को जीतने के लिये गये और उन्हें जीत कर के महामण्डली की लक्ष्मीसे विभूषित होते हुए पुण्डरीकिणी पुरीमें वापिस आकर स्थित हुए । कुछ दिनों में उनको देखने के लिये वहाँ नारदजी आ पहुँचे । उस समय विचित्र आभूषणोंके साथ निर्मल वेषको धारण करनेवाले, अपनी अत्यधिक सुन्दरता से इन्द्र के स्वरूपको जीतने
१. ब कदाने । २. फश मिलिताः । ३. ब लेखान् । ४ प श क्रमे । ५. फश 'पृथुबले' नास्ति । ६. प किमपिमानादि श किमपिमानापि । ७. फ वीर्ययोस्तपो । ८. फ 'नारदेन' नास्ति ।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
gotoकथाकोशम्
[ ४-४, २६ :
बहुविधाभ्युदय सौख्येनैवास्थामिति । तौ काविति पृष्टयोर्नारदेन सीताहरणादित्यजन पर्यन्ते संबन्धे निरूपिते श्रवणमात्रेणैवोत्पश्नकोपाभ्यां भणितम् अयोध्या श्रस्मात् कियद्दूरे तिष्ठति । कलहप्रियेण भणितं पञ्चाशदधिकशतयोजनेषु तिष्ठति । तदैव प्रयाणभेरीरवेण पूरिताशी चातुरङ्गेण निर्गतौ । कियत्सु अहःसु अयोध्याबाह्य मुक्तौ । बलाच्युतसमीपं दूतः प्रेषितः । तेन च बलोपेन्द्रौ नत्वोक्तं युवयोर्विस्यातिमाकर्ण्य लवाङ्कुशौ पार्थिवपुत्रौ युद्धार्थमागतो, यद्यस्ति सामर्थ्यं ताभ्यां युद्धं कुर्याताम् । साश्चर्याभ्यां बलगोविन्दाभ्याम् उक्तम् एवं क्रियते " । इतः प्रभामण्डल- सीता - सिद्धार्थ नारदो लवाङ्कुशान्तःपुरेण सह वियत्यवलोकयन्तः स्थिताः । प्रभामण्डलेन सर्वेभ्यो विद्याधरेभ्यो लवाङ्कुशस्वरूपं निरूपितम् । विद्याधरबलं च मध्यस्थेन स्थितम् । बलोपेन्द्रौ रथारूढी समस्तायुधालंकृतौ निर्गत्य स्वबलाग्रे स्थितौ । इतरावपि तथैव । लवो बलेन परो वासुदेवेन योद्धुं लग्नः । श्रभूद्विस्मितजगत्त्रयं रणम् । लवसामर्थ्य दृष्ट्वा रामः कोपेन योद्धुं लग्नः । लवेनँ रथे भग्ने द्वितीयमारुह्य युद्धवान् । एवं तृतीयो
१४८
वाले एवं अनन्त वीर्यके धारक वे दोनों विनीत कुमार सीताके समीपमें स्थित थे । उन दोनों को आशीर्वाद देते हुए नारद बोले कि तुम दोनों राम और लक्ष्मणके समान बहुत प्रकारके अभ्युदय एवं सुखके साथ स्थित रहो। इस आशीर्वचनको सुनकर दोनों कुमारोंने पूछा कि ये राम और लक्ष्मण कौन हैं ? तब नारदने उनसे राम और लक्ष्मणसे सम्बन्धित सीताके हरणसे लेकर उसके परित्याग तककी कथा कह दी । उसको सुनते ही उन्हें अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ । उन्होंने नारदसे पूछा कि यहाँसे अयोध्या कितनी दूर है ? यह सुनकर कलहमें अनुराग रखनेवाले नारदने कहा कि वह यहाँ से एक सौ पचास योजन दूर है । यह सुनते ही वे दोनों प्रस्थानकालीन भेरीके शब्दसे दिशाओंको पूर्ण करते हुए वहाँसे अयोध्याकी ओर चतुरंग सेनाके साथ निकल पड़े | तत्पश्चात् कुछ ही दिनोंमें उन्होंने अयोध्या पहुँचकर नगरके बाहर पड़ाव डाल दिया । फिर उन्होंने बलभद्र (राम) और नारायण ( लक्ष्मण ) के पास अपने दूतको भेजा । दूत गया और उन दोनोंको नमस्कार करके बोला कि आप दोनोंकी प्रसिद्धिको सुनकर लव और अंकुश ये दो राजपुत्र युद्धके लिये यहाँ आये हैं। यदि आपमें सामर्थ्य हो तो उनसे युद्ध कीजिये । यह सुनकर राम और लक्ष्मणको बहुत आश्चर्य हुआ । उत्तर में इन दोनोंने उस दूतसे कह दिया कि ठीक है, हम उन दोनोंसे युद्ध करेंगे। इधर प्रभामण्डल, सीता, सिद्धार्थ और नारद लव व अंकुशकी पत्नियों के साथ आकाशमें स्थित होकर उस युद्धको देख रहे थे । प्रभामण्डलने समस्त विद्याधरोंसे लव और अकुशके वृत्तान्तको कह दिया था । इसीलिये विद्याधरोंकी सेना मध्यस्थ स्वरूपसे स्थित थी । इस समय राम और लक्ष्मण समस्त आयुधोंसे सुसज्जित होते हुए रथपर चढ़कर निकले और अपनी सेना के आगे आकर स्थित हुए । इसी प्रकारसे लव और अंकुश भी अपनी सेना के सम्मुख स्थित हुए । तब लब तो रामके साथ और अंकुश लक्ष्मणके साथ युद्ध करने में निरत हो गया । फिर उनमें परस्पर तीनों लोकोंको आश्चर्यान्वित करनेवाला युद्ध हुआ । लवके सामर्थ्य को देखकर रामचन्द्र अतिशय क्रोध के साथ उससे युद्ध करने लगे। उस समय लवने रामचन्द्रके रथको नष्ट कर दिया। तब रामचन्द्र दूसरे रथपर स्थित हुए। परन्तु लवने उसे भी नष्टकर डाला । इस
१. ब सौख्येनैव वाथामिति । २. प श रणितं । ३. प श कुर्यास्तां व कुर्यातं । ४. ब भ्यां युक्तमेव क्रियते । ५. पश नारदलवा ब नारदः लवा । ६. श वलोकयन्त्यः । ७. श वलेन ।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-४, २६] ४. शोलफलम् ४
१४६ यावत्सप्तमो रथः। इतोऽङ्कशाच्युतयोर्महारणे जाते अङ्कशेन मुक्त बाणं खण्डयितुमशक्तो हरिस्तेन मूञ्छितः । ततो विराधितेन रथोऽयोध्याभिमुखः कृतः । उन्मूञ्छितेन हरिणा व्याघुटय युद्धे क्रियमाणे सामान्यास्त्रैरजेयं दृष्ट्वा गृहीतं चक्ररत्नम् । ततः सीतादीनां भयमभूत् । परिभ्रम्य मुक्तं चक्रं खण्डमानमपि त्रिः परीत्य दक्षिणभुजे स्थितम् । तदङ्कुशेन गृहीत्वा तस्मै मुक्तम् । तत्तत्रापि तथा यावत्सप्तवारान् । तदनु उद्विग्नो हरिनिरुद्यमः स्थितः । नारदेनागत्योक्तं किमिति निरुद्यमः स्थितोऽसि । हरिणोक्तं किं क्रियते, अजेयोऽयम् । नारदेनोक्तं इमौ न ज्ञायते । जलजनाभेनोक्तम् , न । सीतापुत्राविति कथिते श्रवणादुत्पन्नहर्षोद्धसितगात्रः प्रहसितवदनोऽच्युतो रामसमीपं गतः। नत्वोक्तं देव, सीतातनुजाविमाविति । श्रुत्वा युद्धानि परित्यज्य रामलक्ष्मीधरौ संमुखमागच्छन्तौ संवीक्ष्य तावपि रथादुत्तीर्य मुकुलितकरकमलौ विनयान्वितावागत्य पादयोरुपरि पतितौ। रामेण हर्षादालिङ्गिती। ताभ्यां लक्ष्मणेन बहव आशीर्वादा दत्ताः । तदनु जगदाश्चर्येण स्वपुरं प्रविष्टौ । सीता स्वस्थानं गता। लवाङ्कुशौ युवराज्यपदव्यलंकृती जगत्त्रयविदितौ स्थिती। प्रकारसे तीसरे आदि रथके भी नष्ट होनेपर रामचन्द्र सात रथपर चढ़कर युद्ध करनेमें तत्पर हुए । इधर अंकुश और लक्ष्मणके बीच भी भयानक युद्ध हुआ। अंकुशके द्वारा छोड़े गये बाणको खण्डित न कर सकनेके कारण लक्ष्मण उसके आघातसे मूर्छित हो गया । तब विराधितने रथको अयोध्याकी ओर लौटा दिया । पश्चात् जब लक्ष्मणकी मूर्छा दूर हुई तब वह रथको फिरसे रणभूमिकी ओर लौटाकर युद्ध करनेमें लीन हो गया। अब जब लक्ष्मणको यह ज्ञात हुआ कि यह सामान्य शस्त्रोंसे नहीं जीता जा सकता है तब उसने चक्ररत्नको ग्रहण किया । इससे सीता आदिको बहुत भय उत्पन्न हुआ। इस प्रकार लक्ष्मणने उस चक्रको घुमाकर अंकुशके ऊपर छोड़ दिया । किन्तु वह निष्प्रभ होता हुआ तीन प्रदक्षिणा देकर उसके दाहिने हाथमें स्थित हो गया। फिर उसे अंकुशने लेकर लक्ष्मणके ऊपर छोड़ दिया । तब वह उसी प्रकारसे लक्ष्मणके हाथमें भी आकर स्थित हो गया। यह क्रम सात बार तक चला। तत्पश्चात् लक्ष्मणको बहुत उद्वेम हुआ। अन्तमें वह हतोत्साह होकर स्थित हुआ। यह देखते हुए नारदने आकर पूछा कि तुम हतोत्साह क्यों हो गये हो ? लक्ष्मणने उत्तर दिया कि क्या करूँ, यह शत्रु अजेय है। तब नारद बोले कि क्या तुम इन दोनोंको नहीं जानते हो ? उत्तरमें पद्मनाभ ( नारायण )ने कहा कि 'नहीं' । तब नारदने बतलाया कि ये दोनों सीताके पुत्र हैं। यह सुनकर उत्पन्न हुए हर्षसे लक्ष्मणका शरीर रोमांचित हो गया। तब वह प्रसन्नमुख होकर रामके समीप गया और उन्हें नमस्कार करके बोला कि हे देव ! ये दोनों सीताके पुत्र हैं। यह सुनकर राम और लक्ष्मण युद्धको स्थगित करके लव और अंकुशके समीपमें गये । उन्हें अपने सम्मुख आते हुए देखकर वे दोनों भी रथसे नीचे उतर पड़े और नम्रता पूर्वक हाथों को जोड़कर राम व लक्ष्मणके पाँवोंमें गिर गये । रामने उन दोनोंका हर्षसे आलिंगन किया तथा लक्ष्मणने उन्हें अनेक आशीर्वाद दिये । तत्पश्चात् वे सब संसारको आश्चर्यचकित करते हुए नगरके भीतर प्रविष्ट हुए । सीता वापिस पुण्डरीक पुरको चली गई। लव और अंकुश युवराज पदसे विभूषित होकर तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध हुए ।
१.प श मूच्छितो ततो। २. ५ ब खण्डयमानमपि। ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पश मुक्तं तथापि तत्रापि या फ तत्रापि तथापि या । ४. ब- प्रतिपाठोऽयम् । प फ शतनुजाविति । ५. ब नताभ्यां । ६. बप्रतिपाठोऽयम् । श युवराज्य ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५० पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[४-४, २६: एकस्मिन् दिने प्रधानैविज्ञप्तो रामः जगत्प्रसिद्धा महासती सीता आनेतव्या।रामेणोक्तं तच्छीलमजानता न त्यक्ता, जनापवादभयेन त्यक्ता । यथापवादो गच्छति तथा दिव्यः कश्चनाभ्युपगन्तव्यः । ततः सुग्रीवादिभिस्तत्र गत्या सीतां दृष्ट्वा प्रणम्य रामेणोक्तं सर्वे कथितम् । दीक्षार्थिन्याभ्युपगतम् । तदनु पुष्पकमारुह्यापराले अयोध्यामागत्य रात्री महेन्द्रोद्याने स्थिता । राज्यवसाने रामादयो देवतार्चनपूर्वकं सातिशयङ्गारालंकृता अास्थाने उपविष्टाः । तदनु आगता सीता यथोचितासने उपवेशिता। राम उवाच जनापवादभयेन त्यक्तासि, ततो दिव्येन जन-प्रत्ययः पूरयितव्य इति । 'इत्थं क्रियते' इति सीतयोक्ते तत एकस्मिन् रम्यप्रदेशे कुण्डं खनित्वा कालागरुगोशीर्षचन्दनादिभिर्नानासुगन्धेन्धनैः पूरयित्वा अग्नौ प्रज्वालितेऽङ्गारावस्थायां आसनादुत्थाय सीतयोक्तम् 'भो जनाः, शृणुत अस्मिन् भवे त्रिशुद्ध या रामाद्विना यद्यन्यः कश्चन दुष्टभावेन मे विद्यते तानेन कृशानुना मे मरणं भवतु' इति प्रतिज्ञाकरणकाले अपरं कथान्तरम्
विजयार्धदक्षिणश्रेण्यां गुअपुराधिपसिंहविक्रमश्रियोः पुत्रः सकलभूषणस्तद्भार्याप्ट
एक दिन मन्त्रियोंने रामसे प्रार्थना की कि लोकप्रसिद्ध महासती सीताको राजभवनमें ले आना उचित है। इसपर राम बोले कि सीताके शीलको न जानकर--उसके विषयमें शंकित होकर-उसका परित्याग नहीं किया गया है, किन्तु लोकनिन्दाके भयसे उसका परित्याग किया है । वह लोकनिन्दा जिस प्रकारसे दूर हो सके, ऐसा कोई दिव्य उपाय स्वीकार करना चाहिये । यह सुनकर सुग्रीव आदि पुण्डरीकपुरको गये । उनने सीताका दर्शन करके उससे रामके अभिप्रायको प्रगट किया । सीता इस घटनासे विरक्त हो चुकी थी। अब उसने दीक्षा ले लेनेका निश्चय कर लिया था। इसीलिये उसने रामके आदेशको स्वीकार कर लिया । पश्चात् वह पुष्पक विमानपर चढ़कर दोपहरको अयोध्या आ गई और रातमें महेन्द्र उद्यानमें ठहर गई । रात्रिका अन्त हो जानेपर राम आदिने प्रथमतः जिन-पूजन की । तत्पश्चात् वे वस्त्राभूषणोंसे अतिशय अलंकृत होकर सभाभवनमें विराजमान हुए। तब वहाँ वह सीता आकर उपस्थित हुई। उसे वहाँ यथायोग्य आसनके ऊपर बैठाया गया । तत्पश्चात् रामने सीतासे कहा कि मैंने लोकनिन्दाके भयसे तुम्हारा परित्याग किया है, इसलिये तुम किसी दिव्य उपायसे लोगोंको शीलके विषयमें विश्वास उत्पन्न कराओ। तब सीताने कहा कि ठीक है, मैं वैसा ही कोई उपाय करती हूँ। तत्पश्चात् सीताके इस प्रकार कहनेपर एक रमणीय स्थानमें कुण्डको खोदकर उसे कालागरु, गोशीर्ष और चन्दन आदि अनेक प्रकारके सुगन्धित इन्धनोंसे पूर्ण किया गया। फिर उसे अग्निसे प्रज्वलित करनेपर जब वह अंगारावस्थाको प्राप्त हो गया तब सीताने अपने आसनसे उठकर कहा कि हे प्रजाजनो ! सुनिए, यदि मैंने इस जन्ममें रामको छोड़कर किसी अन्य पुरुषके विषयमें मन, वचन व कायसे दुष्प्रवृत्ति की हो तो यह अग्नि मुझे भस्म कर देगी । इस प्रकार सीताके प्रतिज्ञा करनेपर यहाँ एक दूसरी कथा आती है जो इस प्रकार है
विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें गुंजपुर नामका नगर है। उसमें सिंहविक्रम नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम श्री था। इन दोनोंके एक सकलभूषण नामका पुत्र था । उसके
१.फ जनापवादेन । २. प श कश्चनोफ कश्चिनो । ३. फ बश दीक्षार्थिना। ४. श सातिशयं प्रभाते शृं। ५. प उपविशिता। ६.फ 'इत्थं नास्ति । ७. ब प्रज्वलिते।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-४, २ε ]
४. शीलफलम् ४
I
"
शतान्तःपुरमुख्या किरणमण्डला । तस्याः पितुर्भगिनीपुत्रो हेममुखः, सा तस्य सोदरस्नेहरूपेण स्नेहिता । सिंहविक्रमेण प्रव्रजिता सकलभूषणो राज्ये धृतः । एकदा तस्मिन् राशि बहिर्गते राशीभिरागत्य देवी भणिता हेममुखरूपं पटे विलिख्य प्रदर्शय । तयोक्तं नोचितम् । ताभिरुक्तं दुष्टभावेन नोचितम् निर्विकल्पकभावेन दोषाभावः इति प्रार्थ्य लेखितम् । श्रागतेन राज्ञा तद् दृष्ट्रा रुषितम् । ततः सर्वाभिः पादयोः पतित्वोपशान्ति नीतः । कियति काले ग एकस्यां रात्रौ तथा सुप्तावस्थायां 'हा हेममुख' इति जल्पितम् । श्रुत्वा राजा वैराग्यात् प्रव्रजितः । सकलागमधरो नानर्द्धिसंपन्नश्च महेन्द्रोद्याने प्रतिमायोगेन स्थितः । सा श्रार्तेन मृत्वा व्यन्तरी जाता । तया तत्र स्थितस्य मुनेर्गृढवृत्त्या सप्तदिनानि घोरोपसर्गे कृते तस्मिनेवावसरे जगत्त्रयावभासि केवलमुत्पन्नम् । तत्पूजानिमित्तं देवागमे जाते तस्या उपरि विमानागतेरिन्द्रेण महासतीदिव्यमवधार्य प्रभावनानिमित्तं मेघकेतुदेवः स्थापितः । स यावदाकाशे तिष्ठति तावत्सीता प्रतिज्ञां कृत्वा पञ्चपरमेष्ठिनः स्मृत्वा श्रग्निकुण्डं प्रविष्टा । प्रवेशं दृष्ट्वा राघवो मूच्छितः, केशवो विह्वलः, पुत्रौ विस्मितौ । सर्वजनेन हा जानकी हा जानकीति
आठ सौ स्त्रियाँ थीं। उनमें किरणमण्डला नामकी स्त्री मुख्य थी । किरणमालाकी बुआके एक हेममुख नामका पुत्र था । वह उसके साथ सहोदर ( सगा भाई ) के समान स्नेह करती थी । राजा सिंहविक्रमने सकलभूषण पुत्रको राज्य पदपर प्रतिष्टित करके दीक्षा धारण कर ली । एक समय अन्य रानियोंने आकर किरणमालासे कहा कि हे देवी! हमें हेममुखके सुन्दर रूपको चित्रपटपर लिखकर दिखलाओ। इसपर उसने कहा कि ऐसा करना योग्य नहीं है । तब उन सबने कहा कि दुष्ट भावसे वैसा करना अवश्य ही ठीक नहीं है, किन्तु निर्विकल्पक भाव से - (भ्रातृस्नेह से) वैसा करने में कोई दोष नहीं है । इस प्रकार प्रार्थना करके उन सबने उससे चित्रपटके ऊपर हेममुखके रूपको लिखा लिया। इधर राजाने आकर जब किरणमालाको ऐसा करते देखा तब वह उसके ऊपर क्रुद्ध हुआ । उस समय उन सब रानियोंने पाँवों में गिरकर उसे शान्त किया । फिर कुछ कालके बीतने पर एक रातको जब वह शय्यापर सो रही थी तब नींदकी अवस्था में उसके मुखसे 'हा हेममुख' ये शब्द निकल पड़े । इन्हें सुनकर राजाको वैराग्य उत्पन्न हुआ । इससे उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार दीक्षित होकर वह समस्त श्रुतका पारगामी होता हुआ अनेक ऋद्धियों से सम्पन्न हो गया । वह उस समय महेन्द्र उद्यानके भीतर समाधिमें स्थित था । इधर वह किरणमण्डला आर्तध्यान से मरकर व्यन्तरी हुई थी । उसने महेन्द्र उद्यानमें स्थित उन मुनिराजके ऊपर गुप्त रीति से सात दिन तक भयानक उपसर्ग किया । इसी समय उन्हें तीनों लोकों को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान प्राप्त हो गया । तब उस केवलज्ञानकी पूजाके लिये वहाँ देवोंका आगमन हुआ । इस प्रकारसे आते हुए इन्द्रका विमान जब सती सीताके ऊपर आकर रुक गया, तब उसे महासती सीताके इस दिव्य अनुष्ठानका पता लगा । इससे उस इन्द्रने सीताके शीलकी महिमाको प्रगट करने के लिये मेघकेतु नामक देवको स्थापित किया । वह आकाश में स्थित ही था कि सीता पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके पाँच परमेष्ठियों का स्मरण करती हुई उस अग्निकुण्डके भीतर प्रविष्ट हुई। उसे इस प्रकारसे उस अग्निकुण्डमें प्रविष्ट होती हुई देखकर रामचन्द्रको मूर्छा आ गई, लक्ष्मण व्याकुल हो उठा, तथा लव व अंकुश आश्चर्यचकित रह गये । उस समय इस दृश्यको
१. फतेऽतिराज्ञीभि । २. फ हेमसुखस्वरूपं । . फ हेमसुख ।
१५१
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
पुण्यानवकथाकोशम्
[४-४,२९:
हा-हारवः कृतः। तदनु तेन देवेनाग्निकुण्डं सरः कृतम् , तन्मध्ये सहस्रदलकमलम् , तत्कर्णिकामध्ये सिंहासनस्योपरि उपवेशिता। उपरि मणिमण्डपः कृतः। तदनु पञ्चाश्चर्याजनानन्दः। देवपूज्यजानकीनिकटं राघवेनागत्य भणितं जनापवादभयेन यन्मया कृतं तत्सर्वे क्षमित्वा मया सार्ध भोगानुभवनं कुरु । तयोक्तं त्वां प्रति क्षमैव, किंतु यैः कर्मभिरेतत्कृतं तानि प्रति क्षमाऽभावः। तेषां विनाशनिमित्तं तपश्चरणमेव शरणम् , नान्यदिति केशान् उत्पाटय रामाने क्षिप्त्वा देवपरिवारेण सह समवसृतिं गत्वा जिनवन्दनापूर्वकं पृथ्वीमतिक्षान्तिकाभ्यासे निःक्रान्ता। रामोऽपि केशानालिङ्ग्य मूच्छितोऽन्तःपुरेणोन्मूञ्छितः कृतः सन् सीतातपोविनाशनार्थ समस्तजनेन सह तत्र गतः । जिनदर्शनादेव मोहोपशमे जाते निरा” जिनमभ्यर्थ्य स्तुत्वा च स्वकोष्ठे उपविष्टोधर्मश्रुतेरनन्तरं रामादयः सीतया क्षमितव्यं विधाय पुरं प्रविष्टाः ।
सीतार्जिको द्वाषष्टिवर्षाणि तपश्चकार । त्रयस्त्रिंशद्दिनानि संन्यसनेन तनुं विसृज्याच्युते स्वयंप्रभनामा प्रतीन्द्रोऽभूदिति । एवं स्त्री बाला मोहावृतापि शीलेन देवपूज्या जातान्यः किं न स्यादिति ॥४॥
देखनेवाली समस्त ही जनता 'हा सीता, हा सीता' कहकर हा-हाकार कर उठी। पश्चात् उस देवने इस अग्निकुण्डको तालाब बना दिया। तालाबके भीतर उसने हजार पत्तोंवाले कमलकी रचना की और उसकी कर्णिकाके मध्य में सिंहासनको स्थापित करके उसके ऊपर सीताको विराजमान किया। उसने उस सिंहासनके ऊपर मणिमय मण्डपका निर्माण किया। तत्पश्चात् उसने जो पंचाश्नर्य किये उन्हें देखकर सब ही जनोंको आनन्द हुआ । इस प्रकार देवोंसे पूजित हुई सीताके पास जाकर रामचन्द्रने कहा कि लोकनिन्दाके भयसे मैंने जो यह कार्य किया है उस सबको क्षमा करो और अब पूर्ववत् मेरे साथ भोगोंका अनुभव करो। इसके उत्तरमें सीता बोली कि तुम्हारे प्रति मेरा क्षमाभाव ही है, किन्तु जिन कर्मोंने यह सब किया है उनके प्रति मेरा क्षमाभाव नहीं है। इसलिये उनको नष्ट करनेके लिये अब मैं तपश्चरणकी ही शरण लूँगी। उसको छोड़कर अन्य कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है । इस प्रकार कहते हुए उसने केशोंको उखाड़ कर उन्हें रामके आगे फेंक दिया । तत्पश्चात् देव परिवारके साथ समवसरणमें जाकर उसने जिन भगवान् की वंदना की और पृथ्वीमती आर्यिकाके पास दीक्षा ग्रहण कर ली। इधर राम उन केशोंको देखकर मूर्छित हो गये। तत्पश्चात् अन्तःपुरकी स्त्रियों-द्वारा उनकी मूर्छाके दूर करनेपर वे समस्त जनताके साथ सीताको तपसे भ्रष्ट करनेके लिये बहाँ गये। वहाँ जाकर जिन भगवान्का दर्शन मात्र करनेसे ही उनका वह मोह नष्ट हो गया । तब उन्होंने आर्तध्यानसे रहित होकर जिन भगवान्की पूजा व स्तुति की। फिर वे मनुष्योंके कोठेमें जा बैठे । धर्मश्रवण करने के पश्चात् राम आदि सीतासे क्षमा कराके नगरमें वापिस आ गये। सीता आर्यिकाने बासठ वर्ष तपश्चरण किया। तत्पश्चात् उसने तेंतीस दिन तक संन्यासको धारण करके शरीरको छोड़ा। वह अच्युत स्वर्गमें स्वयंप्रभ नामका प्रतीन्द्र उत्पन्न हुई। इस प्रकार मोहसे युक्त वह बाला स्त्री भी जब शीलके प्रभावसे देवोंसे पूजित हुई है तब भला अन्य पुरुष क्या न होगा ? अर्थात् वह तो अनुपम सुखको प्राप्त होगा ही ॥४॥
१. श केशात्र उत्पाद्य व केशानुत्पाद्य । २. ब सीतायिका। ३. ब सन्न्यासनेन ।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५३
:४-५, ३०]
४. शीलफलम् ५
[ ३० ] नारीषु रम्या त्रिदशस्य पूज्या राज्ञी प्रभावत्यभिधा बभूव ।
त्रिलोकपूज्यामलशीलतो यत् शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥५॥ अस्य कथा-वत्सदेशे रौरवपुरे राजा उद्दायनो राक्षी प्रभावती शुद्धजैनी। राजा प्रत्यन्तवासिनामुपरि ययौ। इतः प्रभावत्या धात्री मन्दोदरी, सा परिव्राजिका जज्ञे। सा बह्रोभिः परिवाजिकाभिरागत्यं तत्पुरबाोऽस्थात् । प्रभावतीनिकटमहमागतेति निरूपणार्थ कामपि नारीमयापयत्तया गत्वा त्वदवलोकनार्थ मन्दोदरी समागत्य बहिस्तिष्ठतीति कथिते देव्योक्तं मनिवासमागच्छन्तु । तया पुनर्गत्वा तथा निरूपिते राशी संमुखं नागतेति सा कोपेन तदगृहं प्रविष्टा । प्रभावत्या प्रणाममकृत्वासनस्थय तस्या आसनं दापितम् । तदा मन्दोदोक्तम्- हे पुत्रि, पूर्व तावदहं ते माता, सांप्रतं तपस्विनी, किं मां न प्रणमर्सि। प्रभावत्यभणत्-- अहं सन्मार्गस्था, त्वं चोन्मार्गस्थेति न प्रणमामि । परिव्राजिकावदच्छिवप्रणीतः सन्मार्गः किं न भवति । देव्योक्तं 'न' । तदोभयोर्महाविवादोऽजनि । देव्या निरुत्तरं जिता।सामनसि कुपिता जगाम। देव्या रूपं पटेलिलेखोजयिनीशचण्डप्रद्योतनाय दर्शयामास ।
स्त्रियोंमें रमणीय प्रभावती नामकी रानी निर्मल शीलके प्रभावसे देवके द्वारा पूजाको प्राप्त होकर तीनों लोकोंकी पूज्य हुई है । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥५॥
इसकी कथा इस प्रकार है-- वत्सदेशके भीतर रौरवपुरमें उद्दायन नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम प्रभावती था। वह विशुद्ध जैन धर्मका परिपालन करती थी। एक समय राजा म्लेच्छ देशमें निवास करनेवाले शत्रुओंके ऊपर आक्रमण करने के लिए गया था। इधर प्रभावतीकी जो मन्दोदरी धाय थी उसने दीक्षा ले ली। वह बहुत-सी साध्वियोंके साथ आकर उक्त रौरवपुरके बाहर ठहर गई। उसने अपने आनेकी सूचना करनेके लिए प्रभावतीके पास किसी स्त्रीको भेजा । उसने जाकर प्रभावतीसे कहा कि तुम्हें देखनेके लिए मन्दोदरी यहाँ आकर नगरके बाहर ठहर गई है। यह सुनकर प्रभावती बोली कि उससे मेरे निवासस्थानमें आनेके लिए कह दो । तब उसने वापिस जाकर मन्दोदरीसे प्रभावतीका सन्देश कह दिया । इसे सुनकर रानीके अपने सन्मुख न आनेसे उसे क्रोध उत्पन्न हुआ। वह उसी क्रोधके आवेशमें प्रभावतीके घरपर पहुँची । प्रभावती उसे नमस्कार न करके अपने आसनपर ही बैठी रही और इसी अवस्थामें उसने मन्दोदरी के लिए आसन दिलाया । तब मन्दोदरी बोली कि हे पुत्री ! पूर्वमें मैं तेरी माता थी और इस समय तपस्विनी हूँ। मेरे लिए तू प्रणाम क्यों नहीं करती है ? इसके उत्तरमें प्रभावतीने का कि मैं समचीनी मार्गमें स्थित हूँ, किन्तु तुम कुमार्गमें प्रवृत्त हो; इसीलिए मैं तुम्हें नमस्कार नहीं कर रही हूँ | इसपर मन्दोदरी बोली कि क्या महादेवके द्वारा प्ररूपित मार्ग समीचीन नहीं है ? प्रभावतीने कहा कि 'नहीं' । तब उन दोनों के बीचमें बहुत विवाद हुआ । अन्तमें प्रभावतीने उसे निरुत्तर करके जीत लिया । इससे वह मन ही मन क्रोधित होकर चली गई। तब उसने प्रभावतीके सुन्दर रूपको चित्रपटके ऊपर लिखकर उसे उज्जयिनीके राजा चण्डप्रद्योतनके लिए दिखलाया ।
१. ब या। २. फ वस्तदेश श वस्तदेशे। ३. ब रोरकपुरे । ४. श सा परिवाजिका भगवंतदाक्षभिरागत्य । ५. फ निकटमागतेति । ६. ब कापि । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श गत्वाकथित्वदव। ८. फब सनस्थैव । ९. ब मां किं न प्रणमति ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
goraवकथाकोशम्
[ ४-५, ३० :
स चासको भूत्वा तत्पतेस्तत्राभावं विबुध्य समस्तसैन्येन तत्र ययौ, बहिर्मुमोच । देव्यन्तिकमतिविचक्षणं नरमगमयत् । तेन गत्वा देव्या अग्रे स्वस्वामिनो गुणरूपसौन्दर्यद्वारेण प्रशंसा कृता । सालालपीत् किं तद्गुणादिना, उद्दायनादन्ये मे जनकादिसमास्ततस्तद्दतो निःसारितः । अन्येषां प्रवेशो निवारितोऽन्तः स्थितं बलं संनद्धम्, गोपुराणि दत्त्वा दुर्गस्योपरि स्थितम् । तदा स पुरग्रहणायोद्यमं चकार । युद्ध माकर्ण्य सा स्वदेवतार्चनगृहेऽस्मिन्नुपसर्गे निवर्तिते शरीरादौ प्रवृत्तिर्नान्यथेति प्रतिज्ञया स्थितम् । तदवसरे कश्चिद्देवो नभोऽङ्गणे गच्छंस्तस्या उपरि विमानागते तस्या उपसर्ग विज्ञाय मनसैव बहिःस्थं बलमुजयिन्यामस्थापयत् । स्वयं तच्छीलपरीक्षणार्थं चण्डप्रद्योतनो भूत्वा बलं विकुर्व्य माययान्तःस्थं बलं निपात्यान्तः प्रविश्य तद्देवतार्चनगृहं विवेश । विचित्रपुरुषविकारैस्तच्चित्तं भेत्तुमशक्तो मायामपसंहृत्य तां पूजयामास । शीलवतीति घोषयित्वा स्वर्लोक मियाय । इत श्रागतो राजा तद्वृत्तं विवेद जहर्ष च । बहुकालं राज्यं च कृत्वा सुकीर्तिनामानं नन्दनं भूपं विधाय वर्धमान
1
उसको, देखकर चण्डप्रद्योत उसके ऊपर आसक्त हो गया । उसे यह ज्ञात ही था कि उसका पति उद्दायन अभी वहाँ नहीं है । इसीलिए वह समस्त सेनाके साथ रौरवपुरमें जा पहुँचा । उसने वहाँ नगरके बाहर पड़ाव डालकर रानीके पास एक अतिशय चतुर मनुष्यको भेजा । उसने जाकर प्रभावती के आगे अपने स्वामीके गुण, रूप एवं सौन्दर्य की खूब प्रशंसा की। उसे सुनकर प्रभावतीने कहा कि मुझे तुम्हारे स्वामी गुण आदिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है, उद्दायनके सिवा अन्य सब जन मेरे लिए पिता आदि समान हैं । यह कहकर उसने उस दूतको घरसे निकाल दिया । फिर उसने अपने यहाँ अन्य पुरुषोंके आगमनको रोक दिया और भीतरी सैन्यको सुसज्जित करते हुए गोपुरद्वारोंको बंद करा दिया । वह स्वयं दुर्गके ऊपर स्थित हो गई । तब वह चण्डप्रद्योतन नगरको अपने अधिकारमें करनेके लिए प्रयत्न करने लगा । युद्धको सुनकर प्रभावती अपने देवपूज (भवन (चैत्यालय) में चली गई । वहाँ वह 'जब यह उपद्रव नष्ट हो जावेगा तब ही मैं शरीर आदिके विषय में प्रवृत्ति करूँगी, अन्यथा नहीं, यह प्रतिज्ञा करके स्थित हो गई। इसी समय कोई देव आकाशमार्ग से जा रहा था। उसका विमान प्रभावती के ऊपर आकर रुक गया । इससे उसे प्रभावती के ऊपर आए हुए उपसर्गका परिज्ञान हुआ । तब उसने मनके चिन्तनसे ही नगरके बाहर स्थित चण्डप्रद्योतन के सैन्यको उज्जयिनी में भेज दिया और स्वयंने प्रभावतीके शीलकी परीक्षा करनेके लिए चण्डप्रद्योतन के रूपको ग्रहण कर लिया । साथ ही उसने विक्रियासे सेनाका भी निर्माण कर लिया । पश्चात् वह दुर्गके भीतर स्थित सैन्यको मायासे नष्ट करके उसके भीतर पहुँच गया । फिर उसने देवपूजाभवनमें जाकर प्रभावती के सामने अनेक प्रकारकी कामोत्पादक पुरुषकी चेष्टाएँ कीं । परन्तु वह उसके चित्तको विचलित नहीं कर सका । तब उसने उस मायाको दूर करके प्रभावती की पूजा करते हुए यह घोषणा कर दी कि वह शीलवती है। अन्त में वह स्वर्गलोकको वापिस चला गया । तत्पश्चात् नगर में वापिस आनेपर जब यह समाचार राजा उद्दायनको ज्ञात हुआ तब उसे अतिशय हर्ष हुआ । फिर उसने बहुत समय तक राज्य किया । अन्तमें उसने अपने सुकीर्ति नामक पुत्रको
१. श गुणसौन्दर्य ं । २. व तनुगुणादिना 1 ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श निवर्त्तते । ४. बस्तस्योपरि । ५. फ ब तस्योपसर्ग । ६. शनिपात्यन्तः । ७. ब. मुपसंहृत्य । ८. फ 'च' नास्ति । ९ ब प्रतिपाठोऽयम् । श नंदनं राज्यं विधाय ।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-६, ३१ ]
४. शीलफलम् ६
१५५
समवसरणे बहुभिर्दीक्षितौ दम्पती | उद्यायनमुनि र्निवाणं ययौ । शीलवती समाधिना ब्रह्मस्वर्गेऽमरोऽजनि । एवं सर्वावस्थापि स्त्री शीलेनोभयभवपूज्या बभूवान्यो भव्यः किं न स्यात्पूज्य इति ॥५॥
[ ३१ ]
श्री वज्रकर्णो नृपतिर्महात्मा पूज्यो बभूवात्र बलाच्युताभ्याम् । शीलस्य रक्षापरभावयुक्तः शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ||६||
'अस्य कथा— अत्रैवायोध्यायां राजा दशरथो देव्योऽपराजिता सुमित्रा कैका सुप्रभा चेति चतस्रः । तासां क्रमेण पुत्रा रामलक्ष्मण भरत शत्रुघ्नाः । तत्र रामलक्ष्मणौ बलगोविन्दौ । दशरथस्तपसे गच्छन् रामाय राज्यं ददानः कैकयागत्य पूर्ववरो याचितो । राशोक्तम्तपोविध्मं विहायान्य द्यावस्व । तया द्वादशवर्षाणि भरताय राज्ये याचिते राजा विस्मितो न किमपि वदति । पितृवचनपालनार्थं भरताय राज्यं दत्त्वा रामो मातरं संबोध्य लक्ष्मणसीताभ्यां सह निर्गत्य रात्रौ जिनालये परिजनं विसृज्य तत्रैव शयितः । प्रातः क्षुल्लकद्वारेण निर्गत्य सरयूं लङ्घयित्वा कियदन्तरे उपविष्टाः । तदनु आगतं परिजनं विसृज्य तत्रैव स्थिताः । कैश्विद्भरतायं रामादिगमने कथिते मात्रा सह गत्वा गमने निषिद्धेऽपि वर्षद्वयराज्य देकर वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में रानी प्रभावती एवं अन्य बहुत-से जनों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वह उद्दायन मुनि मुक्तिको प्राप्त हुआ तथा शीलवती प्रभावती समाधि - पूर्वक शरीरको छोड़कर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुई । इस प्रकार सब अवस्थावाली स्त्री भी जब शीलके प्रभावसे दोनों लोक में पूज्य हुई तब दूसरा भव्य जीव क्या पूज्य न होगा ? अवश्य होगा || ५ ||
यहाँ महात्मा श्री कर्ण राजा शीलकी रक्षाके उत्कृष्ट भावसे बलदेव और नारायणसे - पूजित हुआ है । इसीलिए मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ||६||
यहाँ अयोध्या में राजा दशरथ राज्य करता था । उसके अपराजिता, सुमित्रा, कैका और सुप्रभा नामकी चार रानियाँ थीं । उनके क्रमसे राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे । इनमें से राम बलदेव और लक्ष्मण नारायण था । जब राजा दशरथ विरक्त होकर दीक्षा लेने के लिए उद्यत हुए, तब उन्होंने रामके लिए राज्य देना चाहा । परन्तु इस बीच में कैकाने आकर महाराज दशरथसे अपने पूर्व वरकी याचना की। तब राजाने उससे कहा मेरे तपमें बाधा न पहुँचाकर तुम अन्य कुछ भी माँग सकती हो। कैकाने बारह वर्षके लिए अपने पुत्र भरतको राज्य देनेकी याचना की । इससे राजा को बहुत आश्चर्य हुआ, वह इसका कुछ उत्तर ही न दे सका । तब रामने पिता के वचनकी रक्षा करते हुए भरतके लिए राज्य दे दिया और स्वयं माताको आश्वासन देकर लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या से निकल पड़े। इस प्रकार से जाते हुए वे रात्रि में जिनालय के भीतर सोये । कुटुम्बी जनको उन्होंने वहींसे वापिस किया । प्रातः काल के होनेपर वे जिनालय के छोटे द्वारसे निकलकर सरयू नदीको पार करते हुए कुछ दूर जाकर ठहर गये । तत्पश्चात् वे साथमें आये हुए भृत्यवर्ग व अन्य प्रजाजनों को वापिस करके वहीं पर स्थित रहे । इधर किन्हीं पुरुषों के कहनेपर भरत राम आदिके जानेके वृत्तान्तको जानकर माता के साथ उनके पास गया । उसने उन्हें वन जानेसे रोककर अयोध्या वापिस चलनेकी प्रार्थना की । परन्तु रामने
१. ब कि न स्यादिति । २. श देव्यपराजिता । ३. ब सुप्रभाश्चेति । ४. ब सरयुं । परिजनं व्याघोद्य[य]स्थिताः । ५. फ केचिद्भरताय ।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[४-६, ३१ : मधिकं दत्त्वा गतश्चित्रकूटं दक्षिणं निक्षिप्यावन्तिषु प्रविष्टः । तत्र च निर्मनुष्याणि पक्षक्षेत्राणि दृष्टा केनचित्पृष्टेनोक्तम्- अत्रैवोजयिन्यां राजा सिंहोदरो राशी श्रीधरा तन्महासामन्तेन वज्रकर्णेन दशपुराधिपतिनैकदा पापर्द्धिगतेन मुनिमालोक्य विवादं कृत्वा व्रतानि गृहीतानि जैनं विनान्यस्य नै नमस्कारकरणं च गृहीतम् । मुद्रिकायां जिनबिम्ब प्रतिष्ठाप्य प्रवर्तमान श्रुत्वा राक्षा कोपात्तदाबानार्थ राजादेशः प्रेषितः। आगमिष्यति न वेति सचिन्तो राजा शय्यागृहे देव्या चिन्ताकारणं पृष्टः । कथितं वृत्तान्तम् । देवीकर्णपूरचोरणार्थमागतासंयतसम्यग्दृष्टिविद्युदण्डेन श्रुत्वा निर्गत्य मार्गे आगच्छते वज्रकर्णाय निरूपितम् । सोऽपि स्वपुरं गत्वा सामन्या स्थितम् इति श्रुत्वा सिंहोदरस्तत्पुरं गत्वा सामन्या वेष्टयित्वा तिष्ठतीति । श्रुत्वा रामेण कटिमेखलां निरूपितपुरुषो भ्रात्रा निजकटको च दत्त्वा प्रेषितः । स्वयं गत्वा तत्पुरबाह्यचन्द्रप्रभजिनालयं प्रविष्टाः । प्रविशता" वनकर्णेन दृष्ट्वा दृष्टपूर्वा इति रसवती
उसे स्वीकार नहीं किया । उन्होंने बारह वर्षों में दो वर्ष और बढ़ाकर चौदह वर्षमें अपने अयोध्या आनेका वचन दिया। तत्पश्चात् वे आगे चल दिये और चित्रकूटको दक्षिणमें करके अवन्ति देशके भीतर प्रविष्ट हुए । वहाँ उन्होंने पके हुए खेतोंको मनुष्योंसे रहित देखकर किसीसे इसका कारण पूछा । उसने उत्तर दिया कि इसी उज्जयिनी नगरीमें सिंहोदर नामका राजा राज्य करता है। उसकी पत्नीका नाम श्रीधरा है । उसके एक वज्रकर्ण नामका महासामन्त है जो दशपुर (दशांगपुर) का स्वामी है । वह एक समय शिकारके लिए वनमें गया था । वहाँ उसने किसी मुनिको देखकर उनके साथ विवाद किया। तत्पश्चात् उनसे प्रभावित होकर उसने व्रतोंको ग्रहण कर लिया। साथ ही उसने एक यह भी प्रतिज्ञा की कि मैं जैनको छोड़कर किसी दूसरेको नमस्कार नहीं करूँगा । इसके लिए वह मुद्रिकामें जिनप्रतिमाको प्रतिष्ठित कराकर नमस्कार क्रियामें प्रवृत्त होने लगा। इस बातको सुनकर राजाको क्रोध उत्पन्न हुआ। तब उसने वज्रकर्णको बुला लानेके लिए आज्ञा देकर राज कर्मचारीको भेजा। वह आवेगा या नहीं, इस चिन्तासे व्यथित होकर सिंहोदर स्वयं शय्याके ऊपर पड़ गया। रानीने जब उसकी चिन्ताका कारण पूछा तब उसने रानीसे उक्त वृत्तान्त कह दिया। इसी बीच एक विद्युदण्ड नामका असंयतसम्यग्दृष्टि चोर रानीके कर्णफूलको चुरानेके लिए राजभवन में आया था। उसने इस वृत्तान्तको सुन लिया। तब उसने राजभवनसे बाहर निकलकर मार्गमें आते हुए वज्रकर्णसे वह सब वृत्तान्त कह दिया। इस बातको सुनकर वज्रकणे भी अपने नगरमें वापिस जाकर सामग्री (सेना आदि ) के साथ स्थित हो गया । जब सिंहोदरको यह ज्ञात हुआ तब उसने सेनाके साथ जाकर वज्रकर्णके नगरको घेर लिया है। [इसलिये नगरके भीतर इस समय मनुष्योंके न रहनेसे ये पके हुए खेत मनुष्योंसे रहित हैं। ] उपर्युक्त पुरुषसे इस वृत्तान्तको सुनकर उसे रामने करधनी और लक्ष्मणने अपने दोनों कड़े देकर वापिस भेज दिया। तत्पश्चात् वे स्वयं उस नगरके बाह्य भागमें स्थित चन्द्रप्रभ जिनेन्द्रके मन्दिरमें गये । उन्हें मन्दिरके भी र जाते हुए जब वज्रकर्णने देखा तब उसे ऐसा भान हुआ कि मैंने इन्हें कहीं
१. पश'च' नास्ति । २. ब 'गहीतानि' नास्ति । ३.ब 'न' नास्ति । ४. ब नमस्काराकरणं । ५. पश वर्तमानं । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श आगमिष्यतीति । ७. ब स्थिता । ८. बस्तत्पुरं वेष्टयित्वा । ९. ब रामेण निरूपितपुरुषो ब्रतानि कटकौ । १०. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श बाह्य जिनालयं चन्द्रप्रभस्य प्रविष्टाः । ११. फ ब प्रविशन्तो।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-७, ३२ ]
४. शीलफलम् ७
१५७
प्रेषिता । भोजनानन्तरं जिनगृहं प्रविश्य स्थिताः । भरतदूतवेषधारिणा लक्ष्मणेन महायुद्धे सिंहोदरी बद्ध्वा आनीय रामाय समर्पितः वज्रकर्णेन रामलक्ष्मीधरौ प्रणम्य मोचितस्ततो रामेणोभौ 'समप्रतिपत्त्या स्थापितौ । बहुपरिग्रहोऽपि वज्रकर्णो बलाच्युतपूज्योऽजन्यपरः किं न स्यादिति ॥ ६ ॥
[ ३२ ]
किं वर्ण्यते शीलफलं मया यनीलीति नाम्ना वणिजो हि पुत्री । शीलात्पूजां लभते स्म यक्ष्याः शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ॥७॥ अस्य कथा – अत्रैवार्यखण्डे लाटदेशे भृगुकच्छपत्तने राजा वसुपालः वणिग्जिनदत्तो भार्या जिनदत्ता, पुत्री नीली अतिशयरूपवती । तत्रैवापरः श्रेष्ठी समुद्रदत्तो भार्या सागरदत्ता पुत्रः सागरदत्तः । पकदा महापूजायां वसतौ कायोत्सर्गे स्थितां सर्वाभरणभूषितां नीलीमालोक्य सागरदत्तेनोक्तं किमेषा देवता काचिदेतदाकर्ण्य तम्मित्रेण प्रियदत्तेन भणितम् - जिनदत्तश्रेष्ठिन इयं नीली पुत्री । ततस्तद्रूपावलोकनातीवासको भूत्वा कथमियं प्राप्यत इति तत्परिणयनचिन्तया दुर्बलो जातः । समुद्रदत्तेन चैकदाकर्ण्य भणितः पुत्रो हे जैनं मुक्त्वा नान्यस्य जिनदत्तो ददातीमां पुत्रिकां परिणेतुम् । ततस्तौ कपटेन श्रावकौ पहिले देखा है । इससे उसने उनके पास भोजन सामग्री भेजी । भोजनके पश्चात् वे जिनभवन के भीतर प्रविष्ट होकर स्थित हो गये । तत्पश्चात् भरतके दूतका वेष धारण करके लक्ष्मण युद्धमें सिंहोदरको बाँध लिया और लाकर रामको समर्पित कर दिया । तब वज्रकर्णने राम और लक्ष्मणको नमस्कार करके सिंहोदरको बन्धन से मुक्त कराया । फिर रामने उन दोनोंको समान आदर के साथ प्रतिष्ठित कराया । इस प्रकार बहुत परिग्रहसे संयुक्त वह वज्रकर्ण जब बलदेव (राम) और नारायण ( लक्ष्मण ) के द्वारा पूज्य हुआ तब दूसरा क्या न होगा ? ॥ ६ ॥
पुत्र,
जिस शीलके प्रभावसे नीली नामकी वैश्यपुत्री यक्षीसे उत्तम पूजाको प्राप्त हुई है उस शीलके फलका मैं क्या वर्णन कर सकता हूँ ? अर्थात् नहीं कर सकता हूँ । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥ ६ ॥
इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्डके भीतर लाट देश में भृगुकच्छ नामका नगर है । उसमें वसुपाल नामका राजा राज्य करता था । उसी नगर में एक जिनदत्त नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम जिनदत्ता था । इनके नीली नामकी अतिशय रूपवती पुत्री थी। वहीं पर समुद्रदत्त नामका एक दूसरा भी सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम सागरदत्ता था । इनके सागरदत्त नामका एक पुत्र था । एक बार सागरदत्तने महापूजा के समय वसति ( जिनभवन) में समस्त आभरणोंसे विभूषित होकर कायोत्सर्गसे स्थित उस नीलीको देखा। उसे देखकर वह बोला कि क्या यह कोई देवता है ? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठकी पुत्री नीली है। उसके सौन्दर्यको देखकर सागरदत्तको उसके विषय में अतिशय आसक्ति हुई । तब वह उसको प्राप्त करने की चिन्तासे उत्तरोत्तर कृश होने लगा । समुद्रदत्तने जब यह सुना तो वह उससे बोला कि हे पुत्र ! जिनदत्त सेठ इस पुत्रीको जैनके सिवाय किसी दूसरेको नहीं दे सकता है । इससे वे दोनों
१. फ 'सम' नास्ति । २. फ यक्षाच्छीलं श यक्षाः शीलं । ३. प श भरुकच्छ । ४. फ ददाति इमां श ददाति मां ।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८ पुण्यास्त्रक्कथाकोशम.
[४-७, ३२ : जातौ परिणीता च सा । ततः पुनस्तौ बुद्धभक्तौ जाती। नोल्याः स्वैपितृगृहे गमनमपि निषिद्धमेवं वचने [वञ्चने] जाते भणितं जिनदत्तेन इयं मम न जाता, कूपादौ पतिता वा; यमेन वा नीता इति। नीली च श्वशुरगृहे भर्तुर्बल्लमा विभिन्नगृहे जिनधर्ममनुष्ठन्ती तिष्ठति । दर्शनात् संसर्गाद्वचनात् धर्मादेवाकर्णनाद्वा कालेनेयं बुद्धभक्ता भविष्यतीति पर्यालोच्य समुद्रदत्तेन भणिता नीली पुत्रि, शानिनां वन्दकानामस्मदर्थ भोजनं देहि । ततस्तया वन्दकानामन्ध्याह्वय च तेषामेकैका प्राणहितातिमृष्टं संस्कार्य तेषामेव भोक्तुं दत्ता । तैर्भोजनं भुक्त्वाँ गच्छद्भिः पृष्टं व प्राणहिताः। तयोक्तं भवन्त एव ज्ञानेन जानन्तु यत्र ताः तिष्ठन्ति । यदि पुनर्ज्ञानं नास्ति तदा वमनं कुर्वन्तु भवतामुदरेण[मुदरे] प्राणहितास्तिष्ठन्तीति । एवं वमने कृते दृष्टानि प्राणहिताखण्डानि । ततो रुष्टः श्वशुरपक्षजनः। ततः सागरदत्तभगिन्यादिभिः कोपात्तस्या असत्या परपुरुषोद्भावना कृता। तस्यां प्रसिद्धिं गतायां नीली देवाग्रे संन्यासं गृहीत्वा कायोत्सर्गेण स्थिता दोषोत्तरें भोजनादौ प्रवृत्तिर्मम, नान्यथेति । ततः तुभितनगरदेवतयागत्य रात्री सा भणिता-हे महासति, मा प्राणत्यागमेवं कुरु । अहं राशः प्रधानानां पुरजनस्य च स्वप्नं ददामि-लग्ना यथा नगरप्रतोल्यः कीलिता महासतीवामेन (पिता-पुत्र ) कपटसें श्रावक बन गये। इस प्रकारसे सागरदत्तके साथ उस नीलीका विवाह सम्पन्न हो गया। तत्पश्चात् वे फिरसे बौद्ध हो गये। तब उन्होंने नीलीको अपने पिताके यहाँ जानेसे भी रोक दिया। इस प्रकार धोखा खानेपर जिनदत्तने विचार किया कि यदि यह मेरे यहाँ उत्पन्न नहीं होती तो अच्छा था, अथवा कुएं में गिरकर मर गई होती या यमके द्वारा ग्रहण कर ली गई होती तो भी अच्छा होता। उधर नीली ससुरके घरपर पतिकी प्रिया होकर दूसरे घरमें जिनधर्मकी उपासना करती हुई समयको बिता रही थी। यह [ भिक्षुओंके ] दर्शनसे, उनकी संगतिसे, वचनसे अथवा धर्मके सुननेसे कुछ समयमें बुद्धदेवकी भक्त (बौद्ध) हो जावेगी, ऐसा विचार करके समुद्रदत्तने उससे कहा कि हे नीली पुत्री ! हमारे लिये निमित्तज्ञानी बन्दकों (बौद्ध भिक्षुओं ) को भोजन दो । इसपर उसने बन्दकोंको निमन्त्रित करके बुलाया और उनमेंसे प्रत्येक बन्दकके एक एक जूताको महीन पीसकर उसे घृतादिसे संस्कृत करते हुए उन्हींको खिला दिया । जब वे सब भोजन करके वापिस जाने लगे तब उन्हें अपना एक एक जूता नहीं दिखा । इसके लिये उन्होंने पूछा कि हमारा एक-एक जूता कहाँ गया है ? नीलीने उत्तर दिया कि आप सब ज्ञानी हैं, अतएव आप ही अपने ज्ञानके द्वारा जान सकते हैं कि वे जूते कहाँपर हैं । और यदि आप लोगों को उसका ज्ञान नहीं है तो फिर वमन करके देख लीजिये। वे आप लोगोंके ही पेटमें स्थित हैं । इस प्रकारसे वमन करनेपर उन्हें उसमें जूतेके टुकड़े. देखने में आ गये । इससे ससुरके पक्ष के लोग नीलीके ऊपर क्रुद्ध हुए। तत्पश्चात् सागरदत्तकी बहिन. आदिने क्रोधवश उसके विषयों पर पुरुषके साथ सम्बन्ध रखनेका झूठा दोष उद्भावित किया । इस दोषके प्रसिद्ध होनेपर वह नीली देवके आगे संन्यास लेकर कायोत्सर्गसे स्थित हो गई। उस समय उसने यह देव.प्रतिमा कर..ली कि इस दोषके दूर हो जानेपर ही मैं भोजनादिमें प्रवृत्त होऊँगी, अन्यथा नहीं । इस घटनासे क्षुभित होकर रात्रिमें नगरदेवता आया और उससे बोला हे महासती ! तू इस प्रकारसे प्राणोंका त्याग न कर । मैं राजाके प्रधान पुरुषों और नगरवासी जनोंको स्वप्न देता
१. फ नील्याश्च स्वपित ब नील्याश्च पितृ । २. ब कूपादौ वा पतिता । ३. ब गाद्वचनधर्मदेवा । ४. ब मस्मदर्थेन । ५.५ मष्टं संस्कार्ये शमष्टसंकार्य। ६.ब दत्वा । ७.ब कृत्वा। ८. ब दोषोत्तारे। श 'सा' नास्ति।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ४-८, ३३ ]
४ शीलफलम् ८
१५९
चरणेन संस्पृष्टा उद्घाटिष्यन्ते । ताश्च प्रभाते तव चरणस्पृष्टा एवोद्घ टिष्यन्ते इति पादेन प्रतोली स्पर्श कुर्यास्त्वमिति भणित्वा राजादीनां तथा स्वप्नं दर्शयित्वा पत्तनप्रतोलीः कीलित्वा स्थिता सा नगरदेवता । प्रभाते प्रतोलीः कीलिता दृष्ट्वा राजादिभिस्तं स्वप्नं स्मृत्वा नगरसर्वस्त्रीचरणताडनं प्रतोलीनां कारितम्, न चैकापि प्रतोली कयाचिदप्युद्घाटिता । सर्वासां पश्चान्नीली तत्रोत्क्षिप्य नीता, तच्चरणस्पर्शात्सर्वा अपि उद्घाटिताः प्रतोत्यः । निर्दोषा जाता । एवं यक्षपूजिता नीली नृपादिभिरपि पूजिता । ईषद्विवेकिनी स्त्री बालापि देवपूज्याजनि शीलादन्यः किं न स्यादिति ॥ ७ ॥
[ ३३ ] निन्द्यः श्वपाकोऽपि सुरैरनेकैः संपूजितः शीलफलेन राजा । संस्पृश्यभावं ह्युपनीतवांस्तं शीलं ततोऽहं खलु पालयामि ||८||
अस्य कथा - अत्रैवार्यखण्डे 'सुरम्यदेशे' पोदनपुरे राजा महाबलः पुत्रो बलः । नन्दीश्वराष्ट्रस्यां राज्ञाष्ट्रदिनानि जीव श्रमारणघोषणायां कृतायां बलकुमारेण चात्यन्तमांसासक्तेन कंचिदपि पुरुषमपश्यता राजोद्याने राजकीयमेढकः प्रच्छन्नेन मारयित्वा संस्कार्य भक्षितः । राज्ञा च मेढकमारणमाकर्ण्य रुष्टेन मेषमारको गवेषयितुं प्रारब्धः । तदुद्याने
हूँ कि नगर के जो प्रधान द्वार बन्द हो रहे हैं वे किसी महासती के बायें पैर के स्पर्शसे खुलेंगे । इस प्रकार से वे प्रभात समय में तेरे चरण के स्पर्शसे ही खुलेंगे । इसीलिए तू अपने पाँव से उक्त द्वारोंका स्पर्श करना | यह कहकर वह नगरदेवता राजा आदिकों को वैसा स्वप्न दिखलाकर और नगर द्वारोंको कीलित करके स्थित हो गया । प्रातः काल के होनेपर उन नगरद्वारोंको कीलित देखकर राजा आदिको उस स्वप्नका स्मरण हुआ तब उन्होंने नगरकी समस्त स्त्रियोंको बुलाकर गोपुरोंसे उनके पाँवका स्पर्श कराया । परन्तु उनमें किसीके द्वारा एक भी गोपुरद्वार नहीं खुला, अन्तमें उन सबके पीछे नीलीको वहाँपर लाया गया। तब उसके चरणके स्पर्शसे वे सब द्वार
।
से
इस प्रकार उस
खुल गये । इससे उसका वह दोष दूर हो गया। यक्षीसे पूजित वह नीली राजा आदि महापुरुषोंके द्वारा भी पूजित हुई । जब भला थोड़े विवेकसे सहित वह स्त्री बाला भी शीलके प्रभावसे देवसे पूजित हुई है तब दूसरा पूर्णविवेकी भव्य जीव क्या उन देवादिकों से पूज्य न होगा अवश्य होगा ||७||
शीलके प्रभावसे अतिशय निन्दनीय चाण्डाल भी अनेक देवोंके द्वारा पूजित होकर राजाके द्वारा स्पर्श करनेके योग्य किया गया है । इसीलिये मैं उस शीलका परिपालन करता हूँ ॥८॥
इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्डके भीतर पोदनपुर में राजा महाबल राज्य करता था । उसके पुत्रका नाम बल था । राजाने नन्दीश्वर ( अष्टाहिक ) पर्वकी अष्टमीको आठ दिन तक जीवहिंसा न करनेकी घोषणा करायी। उधर उसका पुत्र बलकुमार अतिशय मांसप्रिय था । उसने इन दिनोंमें किसी भी पुरुषको न देखकर गुप्त रीतिसे बगीचे में राजाके मेढ़ेका बध कराया और उसे पकाकर खाया । राजाको जब उस मेढेके बधका समाचार ज्ञात हुआ तब उसे
१. प उद्यरिप्यन्ते फ उद्घाटिष्यन्ते । २. फ ब यक्षा । ३. श देशो । ४. व पौदनपुरे । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श जीवमारणायां घोषणायां । ६, ब. मारणवार्तामाकर्ण्य । ७. ब मेंढकमारको ।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६० पुण्यानवकथाकोशम्
[४-८, ३३: मालाकारेण वृक्षोपरि चटितेन स तन्मारणं कुर्वाणो दृष्टो रात्रौ च निजभार्यायाः कथितम् । तत्प्रच्छन्नचरपुरुषेणाकर्ण्य राज्ञः कथितम् । प्रभाते मालाकार श्राकारितस्तेनैवं पुनः कथितम् । मदीयामाज्ञां मम पूत्रोऽपि खण्डयतीति रुष्टेन राज्ञा कोपालो भणितो बलकमारं नवखण्डं कारयेति । ततस्तं कुमारं मारणस्थानं नीत्वा मातङ्गमानेतुं ये गताः पुरुषास्तान् विलोक्य मातङ्गेनोक्तं प्रिये, 'मातङ्गोऽद्य ग्रामं गतः' इति कथय त्वमेतेषामित्युक्त्वा गृहकोणे प्रच्छन्नो भूत्वा स्थितः। तलारैश्चाकारिते मातङ्गया कथितम्-मातङ्गोऽद्य ग्रामं गतः। भणितं च तलारैः-स पापोऽपुण्यवानद्य ग्रामं गतः, कुमारमारणे तस्य बहुस्वर्णरत्नादिलाभो भवेत् । तेषां वचनमाकर्ण्य द्रव्यलुब्धया तया मातङ्गभीतया हस्तसंशया दर्शितो ग्रामं गत इति पुनः पुनर्भणन्त्या। ततस्तैस्तं गृहानिःसार्य तस्य मारणार्थ कुमारः समर्पितः । तेनोक्तम् - नाहमद्य चतुर्दशीदिने जीवघातं करोमि । ततस्तलारैः स नीत्वा राज्ञो दर्शितो देवायं राजकुमारं न मारयति । तेन राज्ञः कथितं देव, सर्पदष्टोऽहं मृतः श्मशाने निक्षिप्तः । सर्वौषधिमुनिशरीरस्पर्शिवायुना जोवितोऽहम् । तत्पावें चतुर्दशीदिवसे मया जीवाहिंसाणुव्रतं गृहोतमतोऽद्य न मारयामि । देवो यजानाति तत्करोतु । अद्य चाण्डालस्यापि व्रतमिति बहुत क्रोध आया । उसने उक्त मेढ़ेके मारनेवाले मनुष्यको खोजना प्रारम्भ किया। जब बगीचेमें वह मेढ़ा मारा जा रहा था तब वृक्षके ऊपर चढ़े हुए मालीने उसे देख लिया था। उसने रातमें मेढ़ेके मारने की बात अपनी स्त्रीसे कही। उसे वहाँ पासमें स्थित किसी गुप्तचरने सुन लिया था। उसने जाकर मेढ़ेके मारे जानेका वृत्तान्त राजासे कह दिया । तब प्रभातमें वह माली वहाँ बुलाया गया। उसने उसी प्रकारसे फिरसे भी वह वृत्तान्त कह दिया। मेरी आज्ञाको मेरा पुत्र ही भंग करता है, यह सोचकर राजाको क्रोध उत्पन्न हुआ। तब उसने कोतवालको बलकुमारके नौ खण्ड करानेकी आज्ञा दी। तत्पश्चात् कुमारको मारनेके स्थानमें ले जाकर जो राजपुरुष चाण्डालको लेनेके लिये गये थे उन्हें देखकर चाण्डालने अपनी पत्नीसे कहा कि हे प्रिये ! तुम इन पुरुषोंसे कह देना कि आज चाण्डाल गाँवको गया है। यह कहकर वह घरके एक कोनेमें छुप गया । तत्पश्चात् उन पुरुषों द्वारा चाण्डालके बुलाये जानेपर चाण्डालिनीने उनसे कह दिया कि वह आज गाँवको गया है। यह सुनकर उन पुरुषोंने कहा कि वह पापी पुण्यहीन है जो आज गाँवको गया है, आज राजकुमारका बध करनेपर उसे बहुत सुवर्ण और रत्नों आदिका लाभ होनेवाला था। उनके इस कथनको सुनकर उस चाण्डालिनीको धनका लोभ उत्पन्न हुआ। तब उसने चाण्डालके भयसे बार-बार यही कहा कि वह तो गाँवको गया है । परन्तु इसके साथ ही उसने हाथके संकेतसे उसे दिखला भी दिया। तब उन लोगोंने उसे घरके भीतरसे निकालकर मारनेके लिये उस कुमारको समर्पित कर दिया। इसपर चाण्डालने उनसे कहा कि मैं आज चतुर्दशीके दिन जीवहिंसा नहीं करता हूँ। तब उन लोगोंने उसे ले जाकर राजाको दिखलाते हुए कहा कि हे देव ! यह राजकुमारको नहीं मार रहा है। इसपर उस चाण्डालने राजासे कहा कि हे देव ! एक बार मुझे सपने काट लिया था। तब लोग मुझे मरा हुआ समझकर श्मशानमें ले गये । वहाँ मैं सौषधि ऋद्धिके धारक मुनिके शरीरसे संगत वायुके स्पर्शसे जीवित हो गया । तब मैंने उनके समीपमें जीवोंकी हिंसा न करने रूप अहिंसाणुव्रतको ग्रहण कर लिया था।
१. श तत्प्रच्छन्नं चर'। २. ब मारयाभि । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श 'कथितो' । ४. ब-प्रतिपाठोऽयन् । श स्पर्शवायुना। ५. फ गृहीतमद्य । ६. ब तु । राडस्य चंडा।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १ संचिन्त्य रुष्टेन राज्ञा द्वावपि गाढं बन्धयित्वा सिसुमारदहे निक्षिप्तौ। तत्र मातङ्गस्य प्राणात्ययेऽप्यहिंसाणुव्रतमपरित्यजतो व्रतमाहात्म्याजलदेवतया जलमध्ये सिंहासनमणिमण्डपिकादुन्दुभिसाधुकारादि प्रातिहार्य कृतम् । महाबलराजेने चैतदाकर्ण्य भीतेन पूजयित्वा निजच्छत्रंतले स्नापयित्वा संस्पृश्यो विशिष्टः कृत इति । कुमारः सिसुमारेण भक्षितों दुर्गतिं ययौ । एवं चाण्डालोऽपि शीलेन सुरपूज्योऽभूदन्यः किं न स्यादिति ॥८||
त्रिदशभवने सौख्यं भुक्त्वा नरोत्तमजातिजं भजति तदलं भव्यो भक्त्या पठेदतुलाष्टकम् । नृसुरविभुभिः पूज्यो भूत्वा सुशीलफलाख्यकं
स खलु लभते मोक्षस्थानं सदात्मजसौख्यकम् ॥ इति पुरयास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्य-रामचन्द्र-मुमुक्षविरचिते
शीलफलव्यावर्णनो नामाष्टकम् ॥४॥
[३४ ] भुवनपतिसुखानां कारणं लोकपूज्यं
खलु वृजिनविनाशं शोषकं चेन्द्रियाणाम् । इसीलिये मैं आज जीववध नहीं कर रहा हूँ। अब आप जो उचित समझें करें । चाण्डालके इस कथनको सुनकर राजाने विचार किया कि भला चाण्डालके भी व्रत हो सकता है। बस यही सोचकर उसका क्रोध भड़क उठा। तब उसने उन दोनोंको ही बंधवाकर शिशुमारद्रह (हिंसक जल-जन्तुओंसे व्याप्त तालार)में पटकवा दिया। परन्तु उस चाण्डालने चूँकि मरणके सन्मुख होनेपर भी अपने ग्रहण किये हुए अहिंसाणुव्रतको नहीं छोड़ा था इसीलिये उस व्रतके प्रभावसे जलदेवताने उसे जलके मध्यमें सिंहासन देकर मणिमय मण्डप, दुन्दुभि और साधुकार ( साधु कृतं साधु कृतम्, यह शब्द ) आदि प्रातिहार्य किये। इस घटनाको सुनकर महाबल राजा बहुत भयभीत हुआ। तब उसने उक्त चाण्डालकी पूजा करके उसका अपने छत्रके नीचे स्नान कराया
और फिर उसे विशिष्ट स्पर्शके योग्य घोषित किया । वह कुमार शिशुमार ( हिंस्र जलजन्तु ) का ग्रास बनकर दुर्गतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चाण्डाल भी जब शीलके प्रभावसे देवसे पूजित हुआ है तब दूसरा क्या देवोंसे पूजित नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥८॥
जो भव्य जीव भक्तिसे इस अनुपम आठ कथामय शीलके प्रकरणको पढ़ता है वह स्वर्गके सुखको भोगकर मनुष्यों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती आदिके भी सुखको भोगता है। तथा अन्तमें चक्रवर्तियों
और इन्द्रोंका भी पूज्य होकर उत्तम शीलके फलभूत उस मोक्षस्थानको भी प्राप्त कर लेता है जहाँपर कि निरन्तर आत्मीक अनन्त सुखका अनुभव किया करता है । इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्ष द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक
कथाकोश ग्रन्थमें शील के फलका वर्णन करनेवाला अष्टक समाप्त हुआ ||४|| जो उपवास तीनों लोकोंके अधिपतियों ( इन्द्र, धरणेन्द्र एवं चक्रवर्ती ) के सुखका कारण,
१. ५ ब सुंसुमारद्रहे । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श महाबल राज्ञा। ३. ब संस्पृशो। ४. ब सुंसुमारेण भक्षतो। ५. ब भुवने । ६. फ 'कारणं' नास्ति । Jain Education Interio ponal
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४: विपुलविमलसौख्यो वैश्यपुत्रो यतोऽभू
दुपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्ध्या ॥१॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे मगधदेशे कनकपुरै राजा जयंधरो राशी विशालनेत्रा पुत्रः श्रीधरो महाप्रतापी मन्त्री नयंधरः। स च राजैकदास्थाने समस्तजनेनासितस्तदानेकदेशपरिभ्रमता वासवनाम्ना तत्सखेन रत्नोपायनस्योपरि कृत्वा चित्रपट आनीय दर्शितः। रांजा तं प्रसार्यावलोकयन् तत्र स्थितं कन्यारूपं विलोक्यात्यासक्तो भूत्वा वणिजं पृच्छति स्म कस्याः रूपमिदमिति । स आह-सुराष्ट्रदेशे गिरिनगरेशः श्रीवर्मा देवी श्रीमती पुत्रो हरिवर्मा पुत्री पृथ्वी, तस्या रूपमिदं तवेष्टयं भवति नो वेति तव चित्तपरीक्षार्थमानीतमिति । तदनु राशा स एव कन्यावरणार्थमुत्तमप्राभृतेन समं प्रस्थापितः। स च जगाम, श्रीवर्माणं ददर्श प्राभृतं समर्प्य विज्ञापयांचकार- मत्स्वामी मगधदेशेशो युवातिरूपवान् प्रतापी जैनः सर्वकलाकुशलस्त्यागी भोगी महामण्डलेश्वर आत्मार्थ त्वत्पुत्रीं याचितुं मां प्रेषितवानिति । ततः श्रीवर्मातिसंतुष्टः स्वप्रधानैर्वासवेन समं तन्निमित्तं तां यापयामास । तदागमनमाकर्ण्य
लोकमें पूज्य, पापका नाशक और इन्द्रियोंका दमन करनेवाला है; उसके करनेसे चूँकि वैश्यका पुत्र निर्मल एवं महान् सुखका उपभोक्ता हुआ है, अतएव मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उसे करता हूँ ॥१॥
इसकी कथा इस प्रकार है--- इसी आर्यखण्डके भीतर मगध देशमें कनकपुर नामका नगर है। वहाँ जयंधर नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम विशालनेत्रा था। उनके एक श्रीधर नामका महाप्रतापी पुत्र था। राजाके मन्त्रीका नाम नयंधर था। वह राजा एक समय समस्त जनोंके साथ सभाभवनमें बैठा हुआ था। उस समय उसका वासव नामक मित्र अनेक देशोंमें पर्यटन करके वहाँ आया। उसने उपहार स्वरूप लाये हुए रत्नोंके ऊपर एक चित्रपटको करके उसे राजाके लिए दिखलाया । राजाने जब उसे खोलकर देखा तो उसमें एक सुन्दर कन्याका रूप अंकित दिखा। उसे देखकर राजाके लिये उक्त कन्याके विषयमें अतिशय अनुराग हुआ। तब उसने उस व्यापारीसे पूछा कि यह किस कन्याका चित्र है ? व्यापारी बोला- सुराष्ट्र देश में एक गिरिनगर नामका पुर है। उसमें राजा श्रीवा राज्य करता है। रानीका नाम श्रीमती है । इन दोनोंके एक हरिवर्मा नामका पुत्र और पृथ्वी नामकी पुत्री है। यह उसी पुत्रीका चित्र है। यह कन्या आपको प्रिय है अथवा नहीं, इस प्रकार आपके अन्तःकरणकी परीक्षा करनेके लिए मैं इस चित्रको आपके पास लाया हूँ। यह सुनकर राजाने उक्त कन्याके साथ विवाह करनेके लिए उसी व्यापारीको उत्तम भेंटके साथ वहाँ भेज दिया। उसने वहाँ जाकर श्रीवा राजाको भेट देते हुए उससे यह निवेदन किया कि मेरा स्वामी मगध देशका राजा तरुण, अतिशय सुन्दर, प्रतापी, जिनेन्द्र देवका उपासक, समस्त कलाओंमें कुशल, दानी, भोगी और महामण्डलेश्वर है । उसने आपकी पुत्रीकी याचना करनेके लिये मुझे यहाँ भेजा है । यह सुनकर राजा श्रीवर्माको बहुत आनन्द हुआ। तब उसने अपने मन्त्रियों और उस वासव व्यापारीके साथ अपनी पुत्रीको जयंधर राजाके साथ विवाह करा देनेके लिये कनकपुर भेज दिया । उसके
१. श कनकापुरे । २. ब तत्सखिना । ३. फ रत्नोपयनस्योपरि ब रत्नोपायतस्योपरि ।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १
१६३
पुरुशोभां कृत्वा जयंधरः संमुखं ययौ, महाविभूत्या पुरं प्रवेश्य सुमुहूर्ते अवीवरत्, महादेव 'चकार । तां विहायान्या अष्टसहस्रास्तद्राइयो विशालनेत्रां सेवन्ते ।
एवमेकदा वसन्तोत्सवे राजा सकलजनेन सहोद्यानं गतः । विशालनेत्रा तदन्तः पुरादिसकलस्त्रीजनेन पुष्पकमारुह्य चलिता । तदनु सुशृङ्गारितं भद्रहस्तिनं चटित्वा पृथ्वी महादेवी चलिता । तदागमनाडम्बरं निरीक्ष्य कोsय [केय ]मागच्छतीति विशालनेत्रा कांचिदपृच्छत् । तयोक्तुं पृथ्वीति श्रुत्वा सा तद्रूपावलोकनार्थं तत्रैवास्थात् । तत्स्थितिं वीक्ष्य पृथ्व्योक्तं तिष्ठति । कयाचिदुक्तं श्रप्रेमहिषीति । मत्प्रणामार्थं तिष्ठतीति मत्वा पृथ्वी जिनालयं ययौ । जिनमभ्यर्च्य मुनिं पिहितास्रवं च नत्वा दीक्षां ययाचे । मुनिर्वभाण - तव पुत्रराज्यविभूतिदर्शनानन्तरं राज्ञा सह तपो भविष्यतीति । तयाभाणि मे किं तनयो भविष्यतीति । तेनोक्तं भविष्यति । स च कामो महामण्डलेश्वरश्वरमाङ्गश्च स्यात् । स चैवंविधः स्यादित्यमीभिः साभिज्ञानैर्विबुध्यस्व | कैरित्युक्ते राजभवननिकटोद्याने सिद्धकूटो जिनालयोऽस्ति । तत्कपाटो देवैरप्युद्घाटयितुं न शक्यते स कपाटस्तत्सुतंचरणाङ्गुष्ठस्पर्शनमात्रेणोटियति । तदा स नागवाप्यां पतिष्यति । तं नागाः स्वशिरःसु धरिष्यन्ति । प्रवृद्धः सन्नील
1
आगमनको सुनकर जयंधर राजा नगरको सुसज्जित कराकर अगवानी के लिए सन्मुख गया । तत्पश्चात् उसने महती विभूतिके साथ पुरमें प्रविष्ट होकर शुभ लग्न में उस कन्याके साथ विवाह कर लिया । साथ ही उसने उसे महादेवी भी बना दिया । उस पृथ्वी देवीको छोड़कर दूसरी आठ हजार रानियाँ विशाल नेत्राकी सेवा करती थीं ।
एक समय वसन्तोत्सवमें राजा जयंधर समस्त जनोंके साथ उद्यानमें गया | साथमें विशालनेत्रा भी अन्तःपुरकी समस्त रानियों के साथ पुष्पक ( पालकी ? ) पर चढ़कर गई । उसके पीछे सुसज्जितभद्र हाथी के ऊपर चढ़कर पृथ्वी महादेवी भी चल दी। उसके आगमन के ठाटबाटको देखकर विशालनेत्राने किसीसे पूछा कि यह कौन आ रहा है ? उसने उत्तर दिया कि वह पृथ्वी रानी आ रही है । इस बातको सुनकर वह उसके रूपको देखने के लिये वहींपर ठहर गई । उसके अवस्थानको देखकर पृथ्वीने पूछा कि यह आगे कौन स्थित है ? तब किसी ने कहा कि वह पट्टरानी है । यह सुनकर पृथ्वीने विचार किया कि शायद वह लिये यहाँ रुक गई । यह सोचकर वह जिनालय में चली गई । वहाँ उसने पिहितास्रव मुनिको नमस्कार करते हुए उनसे दीक्षा देनेकी याचना की । कि तू अपने पुत्रकी राज्यविभूति को देखकर तत्पश्चात् राजाके साथ दीक्षा ग्रहण करेगी । तब
मुझसे प्रणाम कराने के जिनेन्द्र की पूजा करके इसपर मुनिराजने कहा
पृथ्वीने उनसे पूछा कि क्या मेरे पुत्र उत्पन्न होगा ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ तेरे पुत्र होगा और वह भी कामदेव, महामण्डलेश्वर एवं चरमशरीरी होगा । वह पुत्र इस प्रकारका होगा, इसका निश्चय तुम इन चिह्नों से करना - राजभवन के निकटवर्ती उद्यानमें सिद्धकूट जिनालय है । उसके किवाड़ों को खोलने के लिए देव भी समर्थ नहीं हैं । फिर भी वे किवाड़ उस पुत्रके पाँवके अँगूटेके छूने मात्रसे ही खुल जावेंगे । उस समय वह बालक नागवापिका में गिर जावेगा । उसे वहाँ सर्प अपने शिरोंके ऊपर धारण करेंगे। जब वह विशेष वृद्धिंगत होगा तब वह नीलगिरि नामक हाथीको अपने वश में करेगा । इसी प्रकार वह दुष्ट घोड़े को भी वश में करेगा । इस शुभ वार्ताको
१. ब 'च' नास्ति । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् श कोग्रे । ३. बस त्वत्सुत' । ४. ब स्वशिरसि ।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४: गिर्यभिधं हस्तिनं वशीकरिष्यते दुष्टाश्वं च इति श्रुत्वा हृष्टा सात्मगृहं जगाम । इतो नृपो जलक्रीडावसरे तामपश्यन् विषण्णस्तगृहं शीघ्रमागतः पृष्टवांश्च किमिति नागतासीति । तया मुनिनोदितं सर्वे कथितम् । तदा सोऽपि जहर्ष । ततस्तस्याः कतिपयदिननन्दनो जनि। स च प्रतापंधरसंशया वर्धितुं लग्नः । तं गृहीत्वैकदा माता तं जिनालयं गता, तथा स कपाट उद्घाटितः। बालं बहिर्निधाय वसतिकान्तं प्रविष्टा सा। सर्वो जनोऽपि जिनदर्शने व्यग्रोऽभूत्तदा बालो रङ्गन् गत्वा नागवाप्यामपतत् । तमपश्यन्त्या धात्रिकायाः कोलाहलमाकाम्बिका तत्र पतितं तत्रत्यदेवैर्नागरूपेणात्मफणासु जलादुपरि धृतं वीक्ष्य स्वयमपि 'हा पुत्र' इति भणित्वा तत्र पपात । तदागाधमपि जलं तत्पुण्येन तस्या जानुदध्नमबोभवीत् । तदाङ्गरक्षादिकृतकलकलमाकर्ण्य तत्र गजागमत् । सपुत्रां तां तथा लुलोके जहर्ष च । ततस्तमाकर्षध्वं [माकृष्य] जिनाभ्यर्चनं चक्रे अनु स्वसद्म ययौ । ततः सुतं नागकुमाराभिधं कृत्वा सुखेनास्थात् । सकलकलाकुशलोऽभूत्सः'।
एकदा राजास्थानं पञ्चसुगन्धिनीनामवेश्या समागत्य भूपं विज्ञापयति स्म देव, मे सुते द्वे किंनरी मनोहरी च वीणावाद्यमदगर्विते । नागकुमारस्यादेशं देहि तयोर्वाद्यं परीक्षितुम् । सुनकर पृथ्वी रानी हर्षित होती हुई अपने भवनमें वापिस चली गई। इधर राजा जलक्रीड़ाके समय पृथ्वीको न देखकर खिन्न होता हुआ उसके भवनमें गया। वहाँ शीघ्र जाकर उसने पृथ्वीसे उद्यानमें न जानेका कारण पूछा। तब उसने मुनिके द्वारा कहे हुए उस सब वृत्तान्तको राजासे कह दिया । उसे सुनकर राजाको भी बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् कुछ दिनोंके बीतने पर उसके पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम प्रतापन्धर रक्खा गया । वह क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होने लगा। एक दिन उसकी माता उसे लेकर उक्त जिनालयको गई । . वहाँ मुनिके कथनानुसार उस बालकके अंगूठेके स्पर्शसे जिनालयके वे बन्द किवाड़ खुल गये । पृथ्वी उस बालकको बाहर छोड़कर जिनालयके भीतर गई। उस समय सब ही जन जिनदर्शनमें लीन थे। तब वह बालक घुटनोंके सहारे जाकर नागवापीमें गिर गया। तब उसे न देखकर उसकी धाय कोलाहल करने लगी। उसे सुनकर उसकी माता पृथ्वी बाहर आयी। उसने देखा कि पुत्र वावड़ीमें गिर गया है । उसे सर्पोके रूपमें स्थित बावड़ीके देवोंने जलके ऊपर अपने फणोंसे धारण कर लिया था। तब वह 'हा पुत्र' कहकर स्वयं भी उस बावड़ीमें कूद पड़ी। उस समय उसके पुण्यके प्रभावसे उस बावड़ीका अथाह जल भी उसके घुटने प्रमाण हो गया। उस समय अंगरक्षक आदिकों के कोलाहलको सुनकर राजा भी वहाँ जा पहुँचा। उसे उस अवस्थामें पृथ्वीको पुत्रके साथ देखकर बहुत हर्ष हुआ। पश्चात् उसने माताके साथ पुत्रको बावड़ीसे बाहर निकलवाकर. जिनेन्द्रकी पूजा की। फिर वह राजप्रासादमें वापिस चला गया। तत्पश्चात् वह पुत्रका नागकुमार नाम रखकर सुखपूर्वक स्थित हुआ । वह पुत्र भी समस्त कलाओं में प्रवीण हो गया ।
एक समय पंचसुगन्धिनी नामकी किसी वेश्याने राजसभामें आकर राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! मेरे किंनरी और मनोहरी नामकी दो पुत्रियाँ हैं। उन्हें वीणा बजानेका बहुत अभिमान है। आप उनके वीणावादनकी परीक्षा करनेके लिये नागकुमारको आज्ञा दीजिये ।
१. ब वशीकरिष्यति । २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शस्तद्गहं जगाम शीघ्र। ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श ततस्तया कतिपयदिनानि उल्लंघ्य नन्दनो। ४. ब 'पि' नास्ति। ५. ब रंगत् । ६. श 'तत्र' नास्ति । ७. फ 'कृत' नास्ति । ८. फ स्वपुत्रं श सुपुत्रां। ९. प माकर्षध्वः ब माकर्षज्य । १०. ब चक्रे तु स्वसद्म । ११. ब 'सः' नास्ति ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१६५ तदनु तनुजस्यादेशे दत्ते पितुर्निकटे स उपविवेश। सर्वेऽपि वीणावाद्यकुशला उपविष्टाः। तदनु तत्कुमारीभ्यां परीक्षा दत्ता। तदा पित्रा पृष्टोऽतिकुशला केति । सोऽवोचल्लध्वी कुशला । पुनः राजापृच्छदनयोर्यमलकयोमध्ये गुरुलघुभावः कथं विज्ञातस्त्वया। सोऽकथयद्देव, यदैषा लघ्वी वीणां वादयति तदैषा ज्यायसी मुखमवलोकयति । इमा यदा वादयति तदेषाधो ऽवलोकयतीति इङ्गिताकारेण बुध्ये इति निरूपिते जनकौतुकमासीत् । ते चात्यासक्ते पितृवचनेन परिणीतवान् प्रतापंधरः सुखमार्स।
एकदास्थानस्थो भूपः केनचिद्विशप्तो देवानेकदेशान् विनाशयन्नीलगिर्यभिधो हस्ती समागत्य पुरावहिः सरसि तिष्ठतीति राजा श्रीधरं तं धर्तुमस्थापयत् । स च बलेन गत्वा तं क्षोभं निनाय, धतुमशक्तः पलाय्य पुरं प्रविष्टः। तदाकर्ण्य राजा स्वयं निर्गतः। तं निवार्य नागकुमार एकाकी गत्वा गजधरणशास्त्रोक्तक्रमेण तं दधे । तत्स्कन्धमारुह्येन्द्रलीलया पुरं विवेश। पितरं प्रति वभाण देव, हस्तिनं गृहाणेति। तेनोक्तं तवैव योग्योऽयम् , त्वमेव गृहाण । स महाप्रसाद इति भणित्वा तमादाय स्वगृहं गतः। तदनुसार राजाके आज्ञा देनेपर नागकुमार पिताके पासमें बैठ गया । अन्य जन जो वीणा बजानेमें निपुण थे वे भी सब सभामें आकर बैठ गये। इसके पश्चात् उन दोनों कुमारियोंने अपनी वीणावादनमें परीक्षा दी । तब पिताने नागकुमारसे पूछा कि इन दोनोंमें विशेष निपुण कौन है ? नागकुमारने उत्तर दिया कि छोटी पुत्री अधिक प्रवीण है। तब राजाने उससे फिर पूछा कि ये दोनों युगल स्वरूपसे साथमें उत्पन्न हुई हैं, ऐसी अवस्थामें तुमने यह कैसे ज्ञात किया कि यह बड़ी है और यह छोटी है ? इसके उत्तरमें नागकुमार बोला कि हे देव ! जब यह छोटी लड़की वीणाको बजाती है तब यह बड़ी लड़की उसके मुखको देखती है और जब यह बड़ी लड़की बीणाको बजाती है तब छोटी लड़की नीचे देखती है। इस शारीरिक चेष्टाके द्वारा उनके छोटे-बड़ेपनका ज्ञान हो जाता है । नागकुमारके इस उत्तरसे लोगोंको बहुत कौतुक हुआ। वे दोनों कन्यायें भी नागकुमारकी कुशलताको देखकर उसके ऊपर अतिशय आसक्त हुई। तब नागकुमारने पिताकी आज्ञा पाकर उनके साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार प्रतापन्धर सुखपूर्वक रहने लगा।
एक समय राजा सभामें बैठा हुआ था । तब किसीने आकर उससे प्रार्थना की कि हे देव ! नीलगिरि नामका हाथी अनेक देशोंको उजाड़ता हुआ यहाँ आकर नगरके बाहर तालाबपर स्थित है। यह सुनकर राजाने उस हाथीको पकड़ने के लिए श्रीधरको भेजा। तदनुसार वह सेनाके साथ उक्त हाथीको वशमें करनेके लिए गया भी। परन्तु वह उसे वशमें नहीं कर सका । बल्कि इससे वह हाथी और भी क्षुब्ध हो उठा। तब श्रीधर भागकर नगरमें वापिस आ गया । यह सुनकर उक्त हाथीको वशमें करनेके लिए राजा स्वयं ही वहाँ जानेको उद्यत हुआ । तब नागकुमार पिताको रोककर स्वयं अकेला वहाँ गया। उसने शास्त्रमें निर्दिष्ट हाथी पकड़नेकी विधिसे उसे पकड़ लिया। फिर वह उसके कंधेपर चढ़कर इन्द्र जैसे ठाट-बाटसे नगरके भीतर प्रविष्ट हुआ और पितासे बोला कि हे देव ! यह है वह हाथी, इसे ग्रहण कीजिये । तब पिताने कहा कि यह तुम्हारे ही योग्य है, इसे तुम ही ले लो। इसपर नागकुमारने 'यह आपकी बड़ी कृपा है' कहकर उसे ले लिया और अपने निवास स्थानको चला गया ।
१. ब 'तदा' नास्ति । २. फ ज्ञायसी। ३. प तदैमाधो बतदाधो। ४. फ सुखमासीत् । ५. फ श तमस्थापयत् ।
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-१,३४: अन्यदा यन्त्रेण चारिं चारयन्तम् अश्वं विलोक्य तच्चारकं पप्रच्छास्येत्थं किमिति ग्रासो दीयते इति । तेनोक्तमयं दुष्टाश्वो मारयत्यासन्नवर्तिनमिति । कुमारस्तद्वन्धनानि मोचयित्वा दभ्रे । तमारुह्य ततो धावयामास । आश्रममानीय राज्ञ उक्तवान् सोऽयं दुष्टाश्वो वशीकृत इति । राज्ञोक्तं तव योग्यस्त्वमेव गृहाण । प्रसाद इति गृहीत्वा गतः । इत्यादितत्प्रसिद्धि विज्ञाय विशालनेत्रा स्वतनयं ब्रवीति स्म-हे पुत्र, दायादोऽतिप्रौढोऽभूत्तस्मात्त्वं स्वात्मनो यत्नं कुरु । ततस्तेन तन्मारणार्थ पञ्चशतसहस्रभटाः संगृहीतास्ते च तदवसरमवलोकयन्तस्तिष्ठन्ति । स न जानाति ।
एकदा नागकुमारः स्वभवनपश्चिमोद्यानस्थकुब्जवापिकायां सह प्रियाभ्यां जलक्रीडार्थ जगाम । तदा तदन्तिकं विलेपनादिकमादाय नियतसखोजनेन गच्छन्तीं पृथ्वीं स्वप्रासादस्योपरिभूमौ स्थितया विशालनेत्रया दृष्टोक्तं स्वनिकटस्थस्य भूपस्य देव, संकेतितस्थलं गच्छन्तीं स्वप्रियामवलोकय । श्रुत्वा तथा तां विलुलोके विस्मयं जगाम । क्व यातीत्यवलोकयन् तस्थौ । वाप्या निर्गतं मातृपादयोनमन्तं सुतं वीक्ष्य स्वागवल्लभां ततर्ज
दूसरे किसी समयमें नागकुमारने किसी घोड़ेको यन्त्रसे चारा खिलाते हुए सईसको देखकर उससे पूछा कि इस घोड़ेको इस रीतिसे घास क्यों खिलाया जा रहा है ? सईसने उत्तर दिया कि यह दुष्ट घोड़ा निकटवर्ती मनुष्यके लिए मारता है, इसीलिये इसको दूरसे ही घास खिलाया जाता है । यह सुनकर नागकुमारने उसके बन्धनोंको खोलकर उसे पकड़ लिया। फिर उसने उसके ऊपर चढ़कर उसे इधर-उधर दौड़ाया। तत्पश्चात् उस घोड़ेको आश्रममें लाकर नागकुमार पितासे बोला कि यह वह दुष्ट घोड़ा है, इसे मैंने वशमें किया है । तब राजाने कहा कि यह तुम्हारे योग्य है, इसे तुम ही ले लो। तदनुसार नागकुमार इसे भी प्रसादके रूपमें लेकर चला गया । इत्यादि प्रकारसे नागकुमारकी ख्यातिको देखकर विशालनेत्रा अपने पुत्र श्रीधरसे बोली कि हे पुत्र ! राज्यका उत्तराधिकारी अतिशय प्रौढ़ ( उन्नत ) हुआ है। इसीलिये तुम अपने लिए प्रयत्न करो। यह सुनकर श्रीधरने नागकुमारको मार डालनेके लिए पाँच सौ सहस्रभटोंको एकत्रित किया । वे भी उसके वधका अवसर देखने लगे। उधर नागकुमारको इस बातका पता भी न था।
____एक समय नागकुमार अपने भवनके पश्चिम भागवर्ती उद्यानमें स्थित कुब्ज वापिकामें अपनी दोनों प्रियतमाओंके साथ जलक्रीड़ाके लिए गया था। उस समय उसकी माता पृथ्वी विलेपन आदिको लेकर नियमित सखीजनोंके साथ उसके पास जा रही थी। उसे देखकर अपने भवनके ऊपर छतपर बैठी हुई विशालनेत्रा अपने पासमें बैठे हुए राजासे बोली कि हे देव ! देखिये आपकी प्रिया संकेतित स्थान ( व्यभिचारस्थान ) को जा रही है। यह सुनकर राजाने उसे उस प्रकारसे जाते हुए देखा । इससे उसे बहुत आश्चर्य हुआ। तब वह यही देखता रहा कि पृथ्वी कहाँ जाती है। अन्तमें उसने देखा कि वह बावड़ीपर पहुँच गई और नागकुमार उस बावड़ीमेंसे निकलकर उसके चरणों में प्रणाम कर रहा है । यह देखकर उसने विशालनेत्राको बहुत फटकारा । तत्पश्चात् उसने पृथ्वीके भवनमें जाकर उससे पूछा कि तुम कहाँ गई थीं ? तब
१. ब यत्नेन । २.फ 'ग्रासो' नास्ति । ३. आश्रयमानीय श आश्रमानीय। ४. ब राज्ञोक्तवान् । ५. ब कुब्जवापिकां । ६. श विप्राभ्यां । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दृष्टोक्तं । ८. ब स्थानं । ९. ब विलोकयेन् ।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१६७ भूपः । ततः पृथ्व्या गृहमागत्य राज्ञा व गतासीत्युक्ते देवी यथावदचीकथत् । ततोऽग्रमहिष्याः क्षुद्रत्वभयेन प्रिये, पुत्रस्य बहिनिर्गन्तुं न ददस्वेति तद्भ्रमणं निवार्यात्मगृहं जगाम भूपः । देवी श्रीधरमेव प्रकाशितं भूपोऽभिलषतीति विपरीतधिया दुःखिनी बभूव । क्वापि गत्वागतन नन्दनेनाम्बिका चिन्ताकारणं पृष्टा । तयोक्तं राशा ते बहिर्निर्गमनं निषिद्धमिति दुःखिताहं जातेति । तदनु नागकुमारो नीलगिरि विभूष्य तत्स्कन्धमारुरोहाखण्डललीलयानेकजनवेष्टितो गृहान्निर्जगाम । पुरे स्वरूपातिशयेन स्त्रीजनं मोहयन भ्रमितु लग्नः । तत्पश्चमहाशब्दकोलाहलमाकर्ण्य राजा किं कोलाहल इति कमपि पप्रच्छ। स उवाच नागकुमारभ्रमणाडम्बर इति श्रुत्वा मदाशोल्लङ्घनं कृतवतीति कोपेन राजा तस्याः सर्वस्वहरणं चकार । आगतः कुमारो निरलंकारां मातरमीक्षांचक्र स्वरूपं च बुबुधे । तदनु घृतस्थानमाट । मन्त्रिमुकुटबद्धादीनां सर्वस्वं जूते जिगाय जननीगृहमानिनाय च । स्वसभायां निराभरणान् तान् ददर्श राजा। किमित्येवं यूयमिति पप्रच्छ । तैः स्वरूपे कथिते कोपेनाहं तं जेष्यामीति सुतमाहूय मया द्यतं रमस्वेत्युक्तवान् । सुतोऽब्रवीन्नोचितं नृपस्य । द्यूते जितमन्त्र्यादेश्चापृथ्वीने यथार्थ बात कह दी। राजाने पट्टरानीकी क्षुद्रताके भयसे पृथ्वीसे कहा कि हे प्रिये ! पुत्रको बाहर न निकलने दो। इस प्रकार वह नागकुमारके घूमने फिरनेपर प्रतिबन्ध लगाकर अपने भवनमें चला गया। इससे पृथ्वीको यह भ्रम उत्पन्न हुआ कि राजा श्रीधरको ही प्रकाशमें लाना चाहता है। इस कारणसे वह बहुत दुखी हुई। उस समय नागकुमार कहीं बाहर गया था । उसने भवनमें आकर जब माताको खेदखिन्न देखा तो उससे चिन्ताका कारण पूछा। तब पृथ्वीने कहा राजाने तुम्हारे बाहर जाने-आनेको रोक दिया है, इससे मैं दुखी हूँ। यह सुनकर नागकुमार नीलगिरि हाथीको सुसज्जित कर उसके कन्धेपर चढ़ा और अनेक जनोंसे वेष्टित होकर इन्द्रके समान ठाटबाटके साथ भवनसे बाहर निकल पड़ा। वह अपने सुन्दर रूपसे स्त्रीजनोंको मोहित करता हुआ नगरमें घूमने फिरने लगा । तब उसके पाँच (शंख, काहल एवं तुरई आदि के ) महाशब्दोंके कोलाहलको सुनकर राजाने किसीसे पूछा कि यह किसका कोलाहल है ? उसने उत्तर दिया कि यह नागकुमारके परिश्रमणका आडम्बर है। यह सुनकर राजाको ज्ञात हुआ कि पृथ्वीने मेरी आज्ञाका उल्लंघन किया है। इससे उसे बहुत क्रोध आया। तब उसने पृथ्वीके 'वस्त्राभूषणादि सब ही छीन लिये । नागकुमारने वापिस आकर जब माताको आभूषणादिसे रहित देखा तब उसने वस्तुस्थितिको जान लिया। तत्पश्चात् उसने चूतस्थान (जुआरियोंका अड्डा )में जाकर मन्त्री और मुकुटबद्ध राजा आदिके सब धनको जुएमें जीत लिया तथा उस सबको अपनी माँ के घरमें ले आया। जब राजाने अपनी सभामें उक्त मन्त्री आदि जनोंको आभरणोंसे रहित देखा तो उसने उनसे इसका कारण पूछा। तब उन सबने राजासे यथार्थ वृत्तान्त कह दिया । इससे उसे नागकुमारके ऊपर बहुत क्रोध उत्पन्न हुआ। इस क्रोधावेशमें उसने नागकुमारको बुलाकर अपने साथ जुआ खेलने के लिये कहा । यह सुनकर नागकुमारने कहा कि राजाका (आपका ) मेरे साथ जुआ खेलना उचित नहीं है। फिर भी वह जुएमें पूर्व में जीते गये उन मन्त्री आदिके अधिक आग्रह करनेपर पिताके साथ जुआ खेलनेके लिये बाध्य हुआ। तब उसने जुएमें राजाके
१. फ 'ततः' नास्ति । २. फ क्षुद्रस्वभावेन । ३. ब प्रकाशितुं । ४. फ श किमपि । ५. फश
जननीमानिनाय। ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श स्वसभे । ७. ब-प्रतिपाठोश्यम् । श जूते जिते मंत्र्यादे।।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-१, ३४ : ग्रहेण चिक्रीड। पितुर्भाण्डागारे जिते देशमाधि कुर्वतः पादयोः पपात देव पूर्यत इति । तदा मातुर्द्रव्यं मातुः समान्यदन्येभ्यः समर्पितवान् कुमारः । राजा परमानन्देन स्वपुरादहिरपरं पुरं विधाय तत्र तं व्यवस्थापयामास । सोऽपि सुखेन तस्थौ।
अत्रापरं कथान्तरम्- अत्रैव सूरसेनदेशे उत्तरमथुरापुर्या राजा जयवर्मा जाया जयावती सुतौ व्यालमहाव्यालौ कोटीभटो। तत्र व्यालस्त्रिलोचनः। एकदा तत्पुरोद्याने यमधरमुनिस्तस्थौ । वनपालकाद्विबुध्य राजा वन्दितुं ययौ । वन्दित्वा तं पृच्छति स्म मत्सुतौ स्वतन्त्री राज्यं करिष्यतः कमपि सेवित्वा वा। साधरुवाच यर्शनेन व्यालभालस्थं चक्षुर्याति तं सेवित्वायं राज्यं करिष्यति । या कन्या महाव्यालं नेच्छती यस्य प्रिया स्यात्तं सेवित्वायमपि राज्यं करिष्यतीति । श्रुत्वा जयवर्मा एवंविधावपि मत्सुतौ परसेवको स्यातामिति ताभ्यां राज्यं वितीर्य वैराग्येण दीक्षितः । तावपि मन्त्रितनयं दुष्टवाक्यं राज्ये नियुज्य स्वस्वाम्यन्वेषणाय निर्जग्मतुः। पाटलीपुत्रपुरं प्राप्य जनं मोहयन्तावापणे तस्थतः। तत्पतिः श्रीवर्मा रामा श्रीमती दुहिता गणिकासुन्दरी । तत्सखी त्रिपुरा । तया तावालोक्य तद्रूपातिशयं गणिकासुन्दर्याः प्रतिपादितम् । सापि गूढवेषेण निरीक्ष्य महाव्यालस्यात्यासक्ता समस्त कोषको जीत लिया। पश्चात् जब राजा देशको भी दावपर रखने लगा तब उसने पिताके पाँवोंमें गिरकर प्रार्थना की कि हे देव ! अब इसे समाप्त कीजिये । इसके पश्चात् नागकुमारने माताके धनको माताके लिये देकर शेष धनको उसके स्वामियोंके लिये दे दिया। राजाने सन्तुष्ट होकर अपने नगरके बाहर दूसरे नगरका निर्माण कराकर वहाँ नागकुमारको प्रतिष्ठित कर दिया। वह भी वहाँ सुखपूर्वक रहने लगा।
यहाँ दूसरी कथा आती है- यहाँ ही सूरसेन देशके भीतर उत्तर मथुरापुरीमें जयवर्मा नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम जयावती था। इनके व्याल और महाव्याल नामके दो पुत्र थे जो कोटिभट (करोड़ योद्धाओंको पराजित करनेवाले ) थे । इनमें से व्यालके तीन नेत्र थे। एक दिन उक्त नगरके उद्यानमें यमधर नामके मुनि आकर विराजमान हुए। वनपालसे उनके आगमनके समाचारको जानकर राजा उनकी वन्दनाके लिये गया। वन्दनाके पश्चात उसने उनसे पूछा कि मेरे दोनों पुत्र स्वतन्त्र रहकर राज्य करेंगे अथवा किसीके सेवक होकर । मुनि बोले-जिस पुरुषको देखकर व्यालके मस्तकपर स्थित नेत्र नष्ट हो जावेगा उसकी सेवा करके वह राज्य करेगा। और जो कन्या व्यालकी इच्छा न करके जिस अन्य पुरुषकी प्रियतमा बनेगी उसकी सेवा करके यह महाव्याल भी राज्य करेगा । यह सुनकर जयवर्माने विचार किया कि देखो ये मेरे दोनों पुत्र कोटिभट हो करके भी दूसरोंके सेवक बनेंगे। यह विचार करते हुए उसका हृदय वैराग्यसे परिपूर्ण हो गया । तब उसने उन दोनों पुत्रोंको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । उधर वे दोनों पुत्र भी मन्त्रीके पुत्र दुष्टवाक्यको राज्यकार्यमें नियुक्त करके अपने-अपने स्वामीको खोजनेके लिये निकल पड़े । वे दोनों पाटलीपुत्रमें पहुँचकर लोगोंको मुग्ध करते हुए बाजारमें ठहर गये । पाटलीपुत्रमें उस समय श्रीवर्मा राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम श्रीमती था । इनके गणिकासुन्दरी नामकी एक पुत्री थी। उसकी त्रिपुरा नामकी एक सखी थी। उसने उन दोनोंको देखकर उनकी सुन्दरताकी प्रशंसा गणिकासुन्दरीसे की। तब वह भी गुप्त रूपसे महा
१. २. प जिते देशमावि फ जिते मर्यादादेशमाधि श जिते मर्यादाशमाधि । २. फ जैनमोहया ताश
जनं मोहया ता।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१६६ बभूव। तदवस्थां विबुध्य श्रीवर्मा इङ्गिताकारेण तौ क्षत्रियाविति शात्वा स्वगृहं प्रवेश्य गणिकासुन्दाः धात्रिकापुत्री ललितसुन्दरी व्यालाय दत्त्वा महाव्यालाय गणिकासुन्दरीमदत्त । तौ तत्र विभूत्या यावत्तिष्ठतस्तावद्विजयपुरंशो जितशत्रुः पूर्व ते कन्ये याचित्वाप्राप्य रुषा तत्पुरं' विवेष्टे । स्ववल्लभायाः सकाशात् व्यालस्तद् वृत्तान्तमवगम्य महाव्यालस्यादेशं दत्तवार तशत्रोर्बद्ध निरूपयेति । स च श्रीवर्मणो दतव्याजेन तदन्तिकं जगाम यत्किचिद्वभाषे । जितशत्रुश्चकोप, तं निर्लोठयामास यदा तदा महाव्यालस्तं दध्र तत्पट्टिकया बबन्ध निनायाग्रजस्य पादयोरपीपतत् । तेन श्वशुरस्य समर्पितः । तेन परिधानं दत्त्वा तद्देशं प्रेषितः। तौ तत्र जनविदितशौर्यो सुखेनास्थाताम् ।
नागकुमारस्य ख्यातिमाकर्ण्य व्यालस्तं द्रष्टुं तत्र ययौ। नीलगिरिमारुह्य वाह्यालिं गत्वा पुरे प्रविशन्तं तं ददर्श । तदैव समदृष्टिर्जशे', भालस्थं नेत्रं च नष्टम् । ततः कथितात्मस्वरूपो भृत्यो बभूव । प्रभुः स्वहस्तिनमारोप्य निनाय, द्वारे तं विसृज्यान्तः प्रविष्टः। स तत्रैव स्थितः । तदा हेरिकेण श्रीधराय निवेदितं नागकुमारोऽद्वितीयः स्वभवने आस्त इति । तदा तेन ते भृत्यास्तद्वधनार्थं कथिताः। संनद्धांस्तानागच्छतो वीक्ष्य व्यालो द्वारवासिनोsव्यालको देखकर उसके ऊपर आसक्त हो गई। श्रीवर्माने शरीरकी चेष्टासे उसके अभीष्टको जान लिया । इसलिये वह उन दोनोंको क्षत्रिय जान करके अपने घरपर ले गया। फिर उसने व्यालके लिये गणिकासुन्दरीकी धायकी पुत्री ललितसुन्दरीको देकर महाव्यालके लिये गणिकासुन्दरीको अर्पित कर दिया । इस प्रकारसे वे दोनों वहाँ विभूतिके साथ रहने लगे। उस समय विजयपुरके स्वामी जितशत्रुने आकर क्रोधसे उस नगरको घेर लिया था। उसके इस क्रोधका कारण यह था कि उसने पूर्वमें उन दोनों कन्याओंको माँगा था, किन्तु वे उसे दी नहीं गई थीं। व्यालने अपनी पत्नीसे इस वृत्तान्तको जानकर महाव्यालके लिये आदेश दिया कि जितशत्रुकी बुद्धिको देखो- उसे जाकर समझानेका प्रयत्न करो । तब वह श्रीवर्माके दूतके रूपमें जितशत्रुके पास चला गया । वहाँ जाकर उसने जो कुछ भी कहा उससे जितशत्रुका क्रोध भड़क उठा। इससे उसने महाव्यालको अपमानित किया। तब उसने उसे उसकी ही पगड़ीसे बाँध लिया और बड़े भाईके पास ले जाकर उसके पैरोंमें गिरा दिया । तब व्यालने उसे अपने ससुरके लिये समर्पित कर दिया । श्रीवर्माने उसे पोषाक ( वस्त्र ) देकर उसके देशमें वापिस भेज दिया। इस प्रकारसे व्याल और महाव्यालका प्रताप लोगोंमें प्रगट हो गया। फिर वे दोनों वहाँ सुखसे रहने लगे।
___ व्याल नागकुमारकी कीर्तिको सुनकर उसके दर्शनके लिये वहाँ गया। जब वह कनकपुरमें पहुँचा तब नागकुमार नीलगिरि हाथीपर चढ़ा हुआ बाह्य वीथीमें घूमकर नगरके भीतर प्रवेश कर रहा था । उसको देखते ही वह समदृष्टि ( दो नेत्रोंवाला ) हो गया- उसका वह तीसरा भालस्थ नेत्र नष्ट हो गया । तब वह अपना परिचय देकर उसका सेवक हो गया। नागकुमार उसे अपने हाथीके उपर बैठाकर ले गया और फिर भवनके द्वारपर छोड़कर स्वयं भीतर चला गया। वह द्वारपर ही स्थित रहा । इसी समय श्रीधरके गुप्तचरने उसे सूचना दी कि इस समय नागकुमार अकेला ही अपने भवनमें स्थित है। तब उसने नागकुमारका वध करनेके लिये उन पाँच सौ सहस्र भट सेवकोंको आज्ञा दे दो। तदनुसार वे तैयार होकर उधर आ रहे थे। उन्हें आते
१. ब रुष्टात्तत्पुरं । २. प श मास स यदा। ३. प श सम्यग्दृष्टिजज्ञे । ४. पब श विस्मत्यान्तः। ५. बस्तद्धरणार्थं ।
२२
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
पुण्यात्र कथाकोश
[ ५-१, ३४ :
पृच्छत् कस्येमे भृत्या इति । तैः स्वरूपे निरूपिते व्यालस्तदापणस्थापितायुधोऽपि तान् निवारितवान् । यदा न तिष्ठन्ति तदा गजस्तम्भमादाय सिंहनादादिकं कुर्वन् तैर्युद्धवान् । तं कलकलमवधार्य यावन्नागकुमारो बहिर्निर्गच्छति तावद् व्यालस्तान् सर्वान् हत्वा तं नतवान् । साश्चर्य प्रतापंधरः तमालिङ्ग्य तद्धस्तं धृत्वा स्वगृहं विवेश । इतः श्रीधरो भृत्यमारणमाकराय सबलस्तेन योद्धुं निर्जगाम, इतरोऽपि सव्यालः । तदा नयंधरेण राजा विशप्तो देव, द्वयोर्मध्ये एको' निर्धाटनीय इति । राज्ञोक्तं श्रीधरं निर्धाटय । मन्त्रिणोक्तम्-न, सोऽपुण्यो देशान्तरगतश्चेत्तवाप्रसिद्धिर्भविष्यति । अतो नागकुमार एव पुण्यवान् सुभगश्च यात्विति । रामः संमतेन मन्त्रिणा नागकुमारस्योक्तं गेहे शूरस्त्वमन्यथा किं देशान्तरं न यास्यसीति, किं पितृसमानभ्रात्रा युध्यसे । कुमारोऽब्रवीत् - स एव मां मारयितुं लग्नः, किं ममान्यायः । स रणाग्रहं त्यक्त्वा यातु स्वस्थानम् । ततोऽहं देशान्तरं यास्याम्यन्यथा योत्स्यें । ततो मन्त्री श्रीधरान्तिकं जगाम बभाण च हे मूढ, आत्मशक्तिं न जानासिं । तव पञ्चशतसहस्रभटास्तदेकेन भृत्येन मारिताः । तेन सह कथं योत्स्यसे । तस्मान्मा म्रियस्व, याहि स्वावासम्, इत्यादिनानावचनैर्निवर्तितोऽग्रजः ।
उन्हें आते देखकर व्यालने द्वारपालोंसे पूछा कि ये किसके सेवक हैं ? उत्तर में उन्होंने बतलाया कि ये श्रीधरके सेवक हैं ? वह अपने शस्त्रोंको उस समय बाजारमें ही छोड़कर यहाँ आया था, फिर भी उसने बिना शस्त्रोंके ही उन्हें भीतर जानेसे रोक दिया । परन्तु जब वे बलपूर्वक भीतर जानेको उद्यत हुए तब व्याल हाथीके बाँधनेके खम्भेको उखाड़कर सिंहके समान दहाड़ते हुए उनसे युद्ध करने लगा । उस कोलाहलको सुनकर जब तक नागकुमार बाहर आया तब तक व्याल उन सबको नष्ट कर चुका था। उसने कुमारको नमस्कार किया । इस दृश्य को देखकर नागकुमारके लिये बहुत आश्चर्य हुआ । वह व्यालका आलिंगन करते हुए उसे हाथ पकड़ कर भवन के भीतर ले गया । इधर श्रीधर ने जब उन सुभटोंके मारे जानेका समाचार सुना तो वह सेनाके साथ नागकुमारसे स्वयं युद्ध करनेके लिये निकल पड़ा । तब व्यालके साथ नागकुमार भी युद्ध के लिये उद्यत हो गया । तब नयंधर मन्त्रीने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! इन दोनोंमें से किसी एकको निकाल देना चाहिए । तब राजाने कहा कि ठीक है श्रीधरको निकाल दो। इसपर मन्त्री ने कहा कि नहीं, वह पुण्यहीन है । यदि वह देशान्तरको जायेगा तो आपकी अपकीर्ति होगी । किन्तु नागकुमार चूँकि पुण्यात्मा और सुन्दर है, अतएव वही बाहर भेजा जावे | इसपर राजाको सम्मति पाकर मन्त्रीने नागकुमारसे कहा कि तुम घरमें ही शूर हो । नहीं तो देशान्तरको क्यों नहीं जाते हो, पिता के समान भाईके साथ युद्ध क्यों करते हो ? यह सुनकर नागकुमार बोला कि वही मुझे मारनेके लिये उद्यत हुआ है, इसमें मेरा क्या दोष है ? वह युद्धकी हठको छोड़कर यदि अपने स्थानको वापिस जाता है तो मैं देशान्तरको चला जाता हूँ, अन्यथा फिर युद्ध करूँगा । इसपर मन्त्री श्रीधर के पास जाकर उससे बोला कि हे मूर्ख ! तुझे अपनी शक्तिका परिज्ञान नहीं है क्या ? उसके एक ही सेवकने तेरे पाँच सौ सहस्रभटोंको मार डाला है। तू उसके साथ कैसे युद्ध करेगा ? इसलिये तू व्यर्थ प्राण न देकर अपने स्थानको वापिस चला जा | इस प्रकार अनेक बचनोंके द्वारा समझाकर मन्त्रीने श्रीधरको वापिस किया ।
१. शएको पिनि । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । फ नासौ पुण्यो । ३. प श सन्मतेन । ४. क श योत्स्यसे ! ५. ब जानाति । ६. प श स्तदैकेन । ७. ब 'सह' नास्ति ।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
५: -१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १ प्रतापंधरो मातरं संबोध्य प्रियाभ्यां व्यालादिभिश्च तस्मानिर्गत्य क्रमेणोत्तरमथुरामवाप । तत्पुरबाहो शिबिरं निवेश्य व्यालो नीलगिरि पानीयं पाययितुं ययौ। इतः कुमारो भद्रेभमारुह्य कतिपयकिंकरयुतो नगरं द्रष्टुं विवेश । राजमार्गेण गच्छन् देवदत्तास्यवेश्यागृहशोभां वीक्ष्य तत्र प्रविष्टः। तया स्वोचितप्रतिपत्त्या प्रवेशितः। तत्र कियत्कालं विलम्ब्य तदुचितसंमानदानेन च तां संतोष्य निर्गच्छंस्तयाभाणि'- देव, राजभवननिकटं मागाः। किमित्युक्ते सा श्राह- कन्याकुण्डलपुरेशेजयवर्मगुणवत्योर्दुहिता सुशीला । सा सिंहपुरे हरिवर्मणे दातुं नीयमानै स्तत्पुरेशदुष्टवाक्येन हठात् धृता, नेच्छन्ती स्वभवनाद्बहिः कारागारे निहिता। सा यं यं नृपं पश्यति तं तं प्रति वदति मां मोचय, मां मोचयेति । तत्करुणश्रवणेन मोचनाग्रहेऽनर्थः स्यादिति निवारितोऽसि । स न यास्यामीति भणित्वा तत्र गतस्तया तं दृष्ट्राभाणि भो भो भ्रातरन्यायेन मां निग्राहयन्नास्ते दुष्टवाक्य इति मोचयेति । हे भगिनि, मोचयामीत्युक्त्वा तद्रक्षकान् निर्धाट यात्मरक्षकान् ददौ। तदा दुष्टवाक्यः सैन्येन निर्गत्य योर्बु लग्नो महासंग्रामे प्रवर्तमाने केनचित् व्यालस्य स्वरूपे निरूपिते व्यालो नीलगिरिमारुह्य स्वनाम गृह दुष्टवाक्यस्य संमुखमागतः । स स्वस्वामिनमव
तत्पश्चात् प्रतापंधर माताको समझा बुझाकर अपनी दोनों पत्नियों और व्यालादिकोंके साथ वहाँ से निकलकर क्रमसे उत्तर मथुराको प्राप्त हुआ। वहाँ नगरके बाहर पड़ाव डालकर व्याल नीलगिरि हाथीको पानी पिलानेके लिये गया। उधर नागकुमार भद्र हाथीपर चढ़कर कुछ सेवकोंके साथ नगरको देखनेके लिये उसके भीतर प्रविष्ट हुआ । वह राजमार्गसे जाता हुआ बीचमें देवदत्ता नामकी वेश्याके घरकी शोभाको देखकर उसके भीतर चला गया। वह भी यथायोग्य आदरके साथ उसे भीतर ले गयी। नागकुमार वहाँ कुछ समय तक स्थित रहा । पश्चात् जब वह देवदत्ताको यथायोग्य सम्मान देकर व सन्तुष्ट करके वहाँसे जाने लगा तब वेश्याने उससे कहा कि हे देव ! राजप्रासादके समीपमें न जाना । नागकुमारके द्वारा इसका कारण पूछनेपर देवदत्ता बोली- कन्याकुण्डलपुरके स्वामी जयवर्मा और गुणवतीके एक सुशीला नामकी पुत्री है। उसे जब सिंहपुरमें हरिवर्माको देनेके लिये ले जाया जा रहा था तब इस नगरके राजा दुष्टवाक्यने उसे जबरन् पकड़ लिया था । परन्तु उसने उसकी इच्छा नहीं की। तब उसने उसे अपने भवनके बाहर बन्दीगृहमें रख दिया है। वह जिस-जिस राजाको देखती है उस उससे अपनेको मुक्त करानेके लिये कहती है। उसके करुणापूर्ण आक्रन्दनको सुनकर उसके छुड़ानेका हठ करनेपर अनिष्ट हो सकता है । इसीलिये मैं तुम्हें वहाँ जानसे रोक रही हूँ। यह सुनकर नागकुमार उससे वहाँ न जानेके लिये कह करके भी वहाँ चला ही गया। तब उसको देखकर वह ( सुशीला ) बोली कि हे भ्रात ! यह दुष्टवाक्य राजा अन्यायपूर्वक मेरा निग्रह करा रहा है। मुझे उसके बन्धनसे मुक्त करा दीजिये। यह सुनकर नागकुमारने कहा कि हे बहिन ! मैं तुम्हें छुड़ा देता हूँ। यह कहकर उसने बन्दीगृहके पहरेदारों को हटाकर उक्त पुत्रीको बन्धनमुक्त करते हुए अपने रक्षकोंको दे दिया । इस समाचारको सुनकर दुष्टवाक्य सेनाके साथ आकर युद्धमें प्रवृत्त हो गया । इस प्रकारसे उन दोनोंमें भयानक युद्ध हुआ। वह युद्ध चल ही रहा था कि किसीने जाकर उसकी वार्ता व्यालसे कह दी। तब व्याल नीलगिरि हाथीके ऊपर चढ़कर अपने नामको लेता
१. बस्तया भणितः । २. ब कन्याकुब्जपुरेश । ३. पश नीयमानौ तत्पुरेश । ४. फग्रहेणानर्थ ब अहे. नानर्थः । ५. फ ब निग्रयन्नास्ते । ६. फ निद्घाटयात्म । ७. फ निर्गतर्योर्बु श निर्गतयोर्बु । ८. ब ग्रहन् ।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ५-१, ३४:
लोक्य नतवान् । तदा व्यालस्तं प्रभोः पादयोरपीपतत् स्वरूपं विशप्तवान् । तदा जायंधरिविभूत्या राजभवनं विवेश सुखेन तस्थौ । सुशीलां सिंहपुरमयापयत् ।
एकदोद्यानं व्यालेन समं क्रीडितुं ययौ । तत्र वीणाहस्तान् कुमारकान् वीच्या पृच्छच्च के यूयं कस्मादागता इति । तत्रैकोऽब्रवीत् सुप्रतिष्ठपुरेशशर्के विनयवत्योः सुतोऽहं कीर्तिवर्मा वीणावाद्येऽतिकुशलो मच्छात्रा एते पञ्चशताः । काश्मीरपुरेशनन्दधारिण्योः सुता त्रिभुवनतिर्वोणया यो मां जयति स भर्तेति कृतप्रतिज्ञा । तद्वृत्तं समवधार्य वादार्थी तत्रागमम् । तया निर्जितोऽहमिति । निशम्य कुमारस्तान् विससर्ज । तत्र गन्तुमुद्यतो " जज्ञे । व्यालस्तत्र व्यवस्थापितोऽपि सह चचाल । दुष्टवाक्यमेव तत्र नियुज्य ययौ । तां जिगाय ववार च सुखेन तस्थौ ।
एकदास्थानगतमनेकदेशपरिभ्रमणशीलं वणिजमप्राक्षीत् किं क्वापि त्वया कौतुकं दृष्टमिति । स कथयति - रम्यकाख्यकानने त्रिशृङ्गनगस्योपरि स्थितभूतिलकजिनालयस्याग्रे प्रतिदिनं मध्याह्ने व्याध आक्रोशं करोति, कारणं न वेद्मि । त्रिभुवनरतिं तत्रैव निधाय तत्राट ।
हुआ दुष्टवाक्य के सामने आया । तब वह अपने स्वामी व्यालको देखकर नम्रीभूत हो गया । पश्चात् व्यालने उसे अपने स्वामी (नागकुमार) के पैरों में झुकाते हुए नागकुमारका परिचय दिया । तत्र जयन्धरका पुत्र वह नागकुमार महाविभूतिके साथ राजभवनमें प्रविष्ट होकर सुखपूर्वक स्थित हो गया । उसने सुशीलाको सिंहपुर पहुँचा दिया |
एक समय नागकुमार व्यालके साथ क्रीड़ा करनेके लिये उद्यानमें गया । वहाँ उसने हाथमें वीणा को लिये हुए कुछ कुमारों को देखकर उनसे पूछा कि आप लोग कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? तब उनमेंसे एकने उत्तर दिया कि मैं सुप्रतिष्ठपुरके स्वामी शक और विनयवतीका पुत्र हूँ । नाम मेरा कीर्तिवर्मा है । मैं वीणा बजाने में अतिशय प्रवीण हूँ । ये मेरे पाँच सौ शिष्य हैं । काश्मीरपुरके राजा नन्द और धारिणीके त्रिभुवनरति नामकी एक कन्या है । उसने यह प्रतिज्ञा की है कि जो मुझे वीणा बजाने में जीत लेगा वह मेरा पति होगा । उसकी इस प्रतिज्ञाका विचार करके मैं वादकी इच्छासे वहाँ गया था । परन्तु उसने मुझे जीत लिया है । इस वृत्तान्तको सुनकर नागकुमार ने उन्हें विदा कर दिया और स्वयं काश्मीर जानेके लिए उद्यत हो गया । यद्यपि नागकुमारने व्यालको वहीं पर रहनेके लिए प्रेरणा की थी, परन्तु वह उसके साथ ही गया । वह दुष्टवाक्यको ही वहाँ नियुक्त करता गया । काश्मीरपुरमें जाकर नागकुमारने उक्त कन्याको वीणावादनमें जीत कर उसके साथ विवाह कर लिया । फिर वह कुछ दिन वहाँ ही सुखपूर्वक स्थित रहा ।
एक बार जब नागकुमार सभा में स्थित था तब वहाँ अनेक देशोंमें परिभ्रमण करनेवाला एक वैश्य आया । उससे नागकुमारने पूछा कि क्या तुमने कहींपर कोई आश्चर्य देखा है ? उसने उत्तर दिया— रम्यक नामके वनमें त्रिशृंग पर्वतके ऊपर स्थित भूतिलक जिनालय के आगे प्रतिदिन मध्याह्नके समयमें एक भील चिल्लाया करता है । वह किस कारण से चिल्लाया करता है, यह मैं स्वयं नहीं जानता हूँ | यह सुनकर नागकुमार त्रिभुवनरतिको वहीं पर छोड़कर उक्त पर्वतपर गया ।
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । शमवापयत् । २. ब पुरेशशांक विनय । ३ ब शताः काश्मीरदेशे काश्मीर' । ४. त्रिभुवनवती । ५. श तत्र मुद्यतो । ६. ब त्रिसंग |
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१,३४] ५. उपवासफलम् १
१७३ जिनमभ्यर्च्य स्तुत्वोपविष्टो यावदास्ते तावत्तदाक्रोशरवमवधार्य तमाह्वाप्यापृच्छंदाक्रोशकारणम् । सोऽवोचद्देवात्रैव भिल्लेशोऽहं रम्यकाख्यो मद्भार्या हठान्नीत्वा भीमराक्षसः कालगुफायां तिष्ठतीति ममाक्रोशः । कुमारेण तां गुफां दर्शयेत्युक्ते तेन दर्शिता । तत्र व्यालेन समं प्रविष्टस्तं विलोक्य भीमराक्षसः संमुखमाययो। प्रणिपत्य चन्द्रहासोऽसि गशय्या निधिः कामकरण्डकश्च तदने व्यवस्थाप्योक्तवानेतेषां त्वमेव योग्यस्त्वं चात्र भिल्लाकोशवशात्प्रवेक्ष्यसीति केवलिभाषितादत्रेयं मयानीतेति भणित्वा सापि तस्य समर्पिता। स चन्द्रहासादिकं मत्स्मरणे आनयेति तस्यैव समर्प्य निर्गतः । तां भिल्लस्य समर्प्य तं पृष्टवानर अत्र वसता त्वया किमपि कौतुकं दृष्टमस्ति । स आह
काञ्चनाख्यगुफास्ति । तत्र त्रिसंध्यं तूर्यनिनादो भवति, कारणं न जाने। तां दर्शयेत्युक्ते दर्शितवान् । तदा स तत्र व्यालेन सह प्रविष्टम्तं दृष्ट्वा सुदर्शना यक्षी संमुखमाययौ । नत्वा दिव्यासने उपवेश्य विज्ञप्तवती नार्थ, विजयार्धदक्षिणश्रेण्यामलकानगरेशविद्युत्प्रभविमलप्रभयोर्नन्दनो जितशत्रुश्चतुःसहस्रास्मत्प्रभृतिविद्या अत्र स्थित्वा द्वादशाब्दैः ससाध । वह वहाँ भूतिलक जिनालयमें जिनेन्द्रकी पूजा व स्तुति करके बैठा ही था कि इतनेमें उसे चिल्लानेकी ध्वनि सुनायी दी। इससे नागकुमारने उसका निश्चय करके उसे बुलवाया और उससे इस प्रकार आक्रन्दन करनेका कारण पूछा । वह बोला-- हे देव ! मैं रम्यक नामका भीलोंका स्वामी हूँ और यहीं पर रहता हूँ। मेरी स्त्रीको भीमराक्षस बलपूर्वक ले गया है और कालगुफामें स्थित है । मेरे आक्रन्दन करनेका यही कारण है । तब नागकुमारने उससे कहा कि वह गुफा मुझे दिखलाओ। तदनुसार उसने वह गुफा नागकुमारको दिखला दी। तब वह व्यालके साथ उस गुफाके भीतर गया । उसको देखकर भीम राक्षसने सामने आते हुए उसे प्रणाम किया। फिर वह चन्द्रहास खड्ग, नागशय्या और कामकरण्डक निधिको उसके आगे रखकर बोला कि इनके योग्य तुम ही हो । मुझे केवलीने कहा था कि तुम भीलके करुणाक्रन्दनको सुनकर यहाँ प्रवेश करोगे। इसीलिये मैं उस भीलकी स्त्रीको यहाँ ले आया था। यह कहकर उस राक्षसने उस भीलकी स्त्रीको भी नागकुमारके लिए समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् नागकुमारने 'मेरे स्मरण करनेपर इन चन्द्रहासादिकों को लाना' यह कहते हुए उन्हें उस राक्षसको ही दे दिया। फिर गुफासे बाहर निकलकर नागकुमारने भीलकी स्त्रीको उसके लिए देते हुए उससे पूछा कि यहाँ रहते हुए तुमने क्या कोई आश्चर्य देखा है ? इसके उत्तरमें वह बोला---
यहाँ एक काँचनगुफा है। वहाँ तीनों सन्ध्याकालोंमें वादित्रोंका शब्द होता है । वह कैसे होता है, मैं उसके कारणको नहीं जानता हूँ। तत्पश्चात् नागकुमारके कहनेपर उसने उसे वह गुफा भी दिखला दी। तब नागकुमार व्यालके साथ उस गुफाके भीतर गया। उसे देखकर सुदर्शना नामकी यक्षी उसके सामने आयी। उसने दिव्य आसनपर बैठाते हुए नागकुमारसे निवेदन किया-- हे नाथ ! विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें अलका नामका नगर है। वहाँ विद्युत्प्रभ राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम घिमलप्रभा था। इनके एक जितशत्रु नामका पुत्र था। उसने इस गुफामें स्थित होकर मुझको आदि लेकर चार हजार विद्याओंको बारह वर्षों में
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श तमाह्वाह्यपृच्छ। २. श रम्यकाक्ष्यो। ३. पहासोसि शफ हासोऽसिनाग । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श केवल । ५. ब भाषिता तत्रेयं । ६. ब मत्स्मरणा। ७. ब सा भिल्लस्य समप्पितां पृष्टवान् रे। ८. प उपविश्य विज्ञप्तवती नाथ श उपविज्ञप्तवती नाहथ । ९. ब विद्याधरा।
--
-.--..- ---
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४ विद्यासिद्धिप्रस्तावे देवदुन्दुभिनिनादमवधार्य शुद्धयेऽवलोकिनीमस्थापयत् । तयागत्य विशप्तो देव, सिद्धविवरगुहायां मुनिसुव्रतमुनेः केवलोत्पत्ती समागुः सुरा इति । ततस्तं वन्दितुमियाय । समय॑ तुष्टवान् दीक्षां ययाचे। अस्माभिरुक्तं कष्टेनास्मान् साधयित्वास्मत्फलं किमपि भुक्त्वा पश्चात्तपः कुरु। कथमपि यदा न तिष्ठति तदास्माभिरुक्तं कस्यचिदस्मान् समर्प्य तपो गृहाणेति । तेन केवलिनं पृष्ट्रोक्तमग्रेऽत्र' काञ्चनगुहायां नागकुमार
आगमिष्यति, तं सेवन्तामिति निरूप्य प्रवज्य मोक्षमुपजगाम । वयमत्र स्थिताः । त्वमस्मत्स्वामीत्यस्मान् स्वीकुरु । स्वीकृताः, स्मरणेन आगच्छतेति निरूप्य निर्गतः । पुना, पप्रच्छापरमपि कौतूहलं कथय । तेन भिल्लेन वेतालगुफा दर्शिता । तद्वारि खड्गं भ्रामयन् वेतालस्तिष्ठति । स यस्तत्र प्रविशति तं हन्ति । तं वीक्ष्य तद्घातं वञ्चयित्वा पादे धृत्वाकृष्य पातयति स्म । तदधो निधीनपश्यच्छासनं च वाचितवान् यो वेतालं पातयति स निधिस्वामीति । निधिरक्षणं विद्यानां दत्त्वा तस्मानिर्गत्य पुनर्व्याधं पृष्टवान किमपरं कौतुकमस्ति न वेति । नास्तीत्युक्ते जिनमानम्य तस्मानिर्जगाम । गिरिनगरासन्ने वंटीवृक्षाध उपविष्टस्तदैव सिद्ध किया था। विद्याओंके सिद्ध हो जानेपर उसने देवदुंदुभीके शब्दको सुनकर कारण ज्ञात करनेके लिये अवलोकिनी विद्याको भेजा। उसने वापिस आकर जिनशत्रुसे निवेदन किया कि हे देव ! सिद्धविवर गुफामें मुनिसुव्रत मुनिके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। इसीलिये वहाँ देव आये हैं । यह ज्ञात करके जितशत्रु केवलीकी वन्दनाके लिए गया। वहाँ जाकर उसने केवलीकी पूजा करके सन्तुष्ट होते हुए उनसे दीक्षा देनेको प्रार्थना की। तब हम लोगोंने उससे कहा कि तुमने हमें कष्टपूर्वक सिद्ध किया है, इसलिये हमारे कुछ फलको भोगकर पीछे तप करना । परन्तु जब उसने यह स्वीकार नहीं किया तब हम लोगोंने उससे कहा कि तो फिर हम लोगोंको किसी दूसरेके लिए देकर तपको ग्रहण करो । तब उसने केवलीसे पूछकर हमसे कहा कि आगामी कालमें यहाँ इस कांचनगुफाके भीतर नागकुमार आवेगा, तुम सब उसकी सेवा करना । यह कहकर उसने दीक्षा ग्रहण कर ली । वह तपश्चरण करके मोक्षको प्राप्त हो चुका है। तबसे हम लोग यहाँ स्थित हैं । तुम हमारे स्वामी हो, अतः हमें स्वीकार करो। तब नागकुमारने उन्हें स्वीकार करके उनसे कहा कि जब मैं स्मरण करूँ तब तुम आना । यह कहते हुए उसने गुफासे निकलकर उस भीलसे पुनः पूछा कि क्या तुमने और भी कोई आश्चर्य देखा है ? इसपर भीलने उसे बेतालगुफा दिखलायी। उसके द्वारपर तलवारको घुमाता हुआ वेताल स्थित था । वह जो भी उस गुफाके भीतर जाता था उसे मार डालता था । नागकुमारने उसे देखकर उसके प्रहारको बचाते हुए पाँव पकड़े और नीचे पटक दिया। उसके नीचे नागकुमारको निधियोंके साथ एक आज्ञापत्र दिखा । उसने जब उस आज्ञापत्रको पढ़ा तो उसमें लिखा था कि जो इस वेतालको गिरावेगा वह इन निधियोंका स्वामी होगा। तब वह उन निधियोंकी रक्षाका भार विद्याओंको सौंपकर वहाँसे बाहर निकला । फिर उसने उस व्याधसे पुनः पूछा कि क्या और भी कोई आश्चर्य देखा है अथवा नहीं ? व्याधने उत्तर दिया 'नहीं'-1
तत्पश्चात् नागकुमार जिनदेवको प्रणाम करके वहाँसे निकला और गिरिनगरके समीप एक वट वृक्षके नीचे बैठ गया। उसी समय उस वृक्षके प्ररोह ( जटायें ) निकल आये । नागकुमार
१. ब केवलो पृष्टोक्तमग्रेत्र । २. ब त्वमेवास्मात्स्वा । ३. व 'भिल्लेन' नास्ति । ४. फ पश्यत् सिहासनं चावोचितवान् श पश्यच्छाशनं वाचितवान् । ५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श किमपि। ६. ब वडीवृक्षा।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७५
:५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १ तद्रुमस्य प्ररोहा' निर्गतास्तत्रान्दोलयनस्थात् । तदा वटीवृक्षरक्षक आगत्य तं ननाम विजिशपच्च देवात्र गिरिकूटनगरेशवनराजवनमालयोः सुता लक्ष्मीमती विशिष्टरूपा । तस्या वरः को भवेदित्येकदा राक्षावधिबोधो मुनिः पृष्टोऽकथयद्यद्दर्शनेनामुष्यप्रदेशस्थवटीवृक्षस्य प्ररोहा निस्सरिज्यन्ति स स्यादिति कथिते तदैव भूपेनाहमत्रादेशपुरुषगवेषणार्थ व्यवस्थापित इति । तदनु स गत्वा स्वस्वामिने ध्वजहस्तः कथितवान् । तेनागत्य प्रणम्य विभूत्या पुरं प्रवेश्य तस्मै स्वसुता दत्ता। स यावत्तत्र तिष्ठति तावजयविजयाख्यौ मुनी तत्पुरोद्याने तस्थतुः । कुमारस्तौ नत्वा पृष्टवान् वनराजकुले मे संदेहो वर्तते. किंकुलोऽयमिति । तत्र जय अाह- अत्रैव पुण्डवर्धननगरे राजापराजितोऽभूहेन्यौ सत्यवती वसुंधरा च। तयोः पुत्रौ क्रमेण भीममहाभीमौ। भीमाय राज्यं दत्त्वा अपराजितः प्रव्रज्य मुक्तिमगमत् । इतो भीमो महाभीमेन पुरानिर्धाटितः। तेनेदं पुरं कृतम् । तत्र महाभोमस्य पुत्रो भीमाङ्कोऽभूत्तस्यापि सोमप्रभो महाभीमस्य नप्ता सांप्रतं तत्र राजा। अयं भीमस्य नप्तेति सोमवंशोद्भवोऽयमिति निरूपिते हृष्टः कुमारः तौ नत्वा गृहं ययौ।
उन प्ररोहोंके आश्रयसे झूलने लगा। उसी समय वट वृक्षके रक्षकने आकर नागकुमारको प्रणाम करते हुए इस प्रकार निवेदन किया- हे देव ! यहाँ गिरिकूट नगरके स्वामी वनराज और वनमालाके एक लक्ष्मीमती नामकी पुत्री है । वह अतिशय रूपवती है। एक बार राजाने उसके वरके सम्बन्धमें किसी अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था । उत्तरमें मुनिने कहा था कि जिसके देखनेसे इस प्रदेशमें स्थित वट वृक्षके प्ररोह निकल आवेंगे वह तुम्हारी पुत्रीका वर होगा। मुनिके इस प्रकार कहनेपर राजाने उसी समयसे उस निर्दिष्ट पुरुषकी खोजके लिये मुझे यहाँ नियुक्त किया है। यह निवेदन करके उक्त पुरुष हाथमें ध्वजाका लेकर अपने स्वामीके पास गया और उससे नागकुमारके आनेका समाचार कह दिया । तब वनराजने आकर उसको प्रणाम किया । फिर उसने उसे विभूतिके साथ नगरमें ले जाकर अपनी पुत्री दे दी। नागकुमार वहाँ स्थित ही था कि उस समय उस नगरके उद्यानमें जय और विजय नामके दो मुनि आकर विराजमान हुए। तब नागकुमारने नमस्कार करके उनसे पूछा कि मुझे वनराजके कुलके विषयमें सन्देह है । अतएव मैं यह जानना चाहता हूँ कि उसका कुल कौन-सा है। उत्तरमें जय मुनि बोले- यहाँ ही पुण्डवर्धन नगरमें अपराजित राजा राज्य करता था। उसके सत्यवती और वसुन्धरा नामकी दो पलियाँ थी। इनसे क्रमशः उसके भीम और महाभीम नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे । अपराजितने भीमको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार तपश्चरण करके वह मुक्तिको प्राप्त हुआ। इधर भीमको महाभीमने नगरसे बाहर निकाल दिया और नगरको अपने स्वाधीन कर लिया। तब महाभीमने वहाँसे आकर इस नगरको बसाया है। वहाँ महाभीमके भीमांक नामका पुत्र हुआ और उसके भी सोमप्रभ नामका । वह महाभीमका नाती है और इस समय उस पुण्डवर्धन नगरमें राज्य कर रहा है। यह वनराज भीमका नाती है जो सोमवंशमें उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार जय मुनीन्द्रसे वनराजकी पूर्व परम्पराको सुनकर नागकुमारको बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् वह उन्हें नमस्कार करके घरको वापिस गया।
१. ब प्रारोहा । २. वृक्षरक्षको नामागत्य तं । ३. व देवामैत्र। ४. श यावत्तत्र तिताव। ५. ब धृतं ।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४ : अन्यदा शिलोत्कीर्ण तवंशशासनमपश्यत् । तदा व्यालायादेशमदत्त पुण्डवर्धनपुरे वनराजस्य राज्यं यथा भवति तथा कुर्विति । स महाप्रसादं भणित्वा तत्राट तं ददर्श' । तदने तस्थौ बभाण-हे राजन् , तवान्तिकं मां जायंधरिरवस्थापयद्वनराजस्य राज्यं समर्प्य तदानुकूल्येन वर्तस्वान्यथा त्वं जानासीति भणित्वा । तत उवाच सोमप्रभो जायंधरिर्मम किं शास्ता । व्यालोऽवोचत्तत्र किं ते संदेहः। राजाभाषत तर्हि वनराजयुक्तो रणावनौ तिष्ठतु तस्य तत्र राज्यं दापयन् । व्यालोऽरणतत्पर्यन्तं त्वं किम् । तदनु सोमप्रभोऽब्रवीदयं निःसार्यतामिति । ततस्तस्यार्धचन्द्रं दातुं ये समुत्थितास्ते तेन भूमावाहत्य मारिताः। सोऽसिना हन्तारं भूपं धृत्वा बबन्ध । स्वस्वामिनो विक्षपनपत्रं प्रस्थापयामास । स श्वशुरेणागत्य पुरं राजभवनं च विवेश । सोमप्रभ ममोच बभाण च तस्य कमारवत्तौ तिष्ठति । सोऽलालपीद गृहस्थाश्रमेण तृप्तोऽहमतः क्षमितव्यं त्रिशुद्धया भणित्वा निर्जगाम, यमधरान्तिके बहुभिरदीक्षितः सकलागमधरः संघाधारश्च भूत्वा विहरन प्रतिष्ठपुरं गत्वोद्यानेऽस्थात् । तत्र राजा. नावच्छेद्याभेद्यनामानौ । तयोश्चादेशो विद्यते । कथमित्युक्ते तत्पिता जयवर्मा माता जयावती।
अन्य समयमें जब नागकुमारने शिलापर खोदे गये वनराजके कुटुम्बके शासनको- उसकी वंशपरम्पराको देखा-तब उसने व्यालको बुलाकर यह आदेश दिया कि पुण्डवर्धन नगरमें जैसे भी सम्भब हो वनराजके शासनकी व्यवस्था करो । तब वह 'महाप्रसाद' कहकर पुण्डवर्धन नगरको चला गया। वहाँ जाकर और सोमप्रभको देखकर वह उसके आगे स्थित होता हुआ बोला कि हे राजन् ! नागकुमारने मुझे आपके लिये यह आदेश देकर भेजा है कि तुम वनराजको राज्य देकर उसके अनुकूल प्रवृत्ति करो, अन्यथा फिर क्या होगा सो तुम ही समझो। यह सुनकर सोमप्रभ बोला कि क्या नागकुमार मेरा शासक है ? इसके उत्तरमें व्यालने कहा कि हाँ, वह तुम्हारा शासक है । क्या तुम्हें इसमें सन्देह है ? इस उत्तरको सुनकर सोमप्रभने कहा कि यदि ऐसा है तो तुम जाकर नागकुमारसे वनराजके साथ युद्धभूमिमें स्थित होकर उसे राज्य दिलानेके लिये कह दो । इसपर व्यालने कहा कि तुम नागकुमारके समीपमें क्या चीज़ हो। यह सुनकर सोमप्रभने व्यालको वहाँसे निकाल देनेकी आज्ञा दी। तदनुसार जो राजपुरुष व्यालकी गर्दन पकड़कर उसे बाहर निकाल देनेके लिए उठे थे उन्हें व्यालने पृथ्वीपर पटककर मार डाला। यह देखकर जब सोमप्रभ स्वयं उसे तलवारसे मारनेके लिए उद्यत हुआ तब व्यालने उसे पकड़कर बाँध लिया और अपने स्वामी नागकुमारके पास विज्ञप्तिपत्र भेज दिया। तब नागकुमार अपने ससुर वनराजके साथ पुण्डवर्धन नगरमें आकर राजभवनमें प्रविष्ट हुआ। फिर नागकुमारने सोमप्रभको बन्धनमुक्त करते हुए उसके लिए पुत्रके समान आज्ञाकारी होकर रहनेका आदेश दिया । इसपर सोमप्रभ बोला कि मैं गृहस्थाश्रमसे सन्तुष्ट हो चुका हूँ, अतएव अब आप मुझे मन, वचन एवं कायसे क्षमा करें । इस प्रकार निष्कपटभावसे कहकर वह यमधर मुनिराजके पास गया
और बहुतोंके साथ दीक्षित हो गया। तत्पश्चात् वह समस्त श्रुतका ज्ञाता और संघका प्रमुख होकर विहार करता हुआ प्रतिष्ठपुरमें पहुँचा । वहाँ जाकर वह उद्यानमें ठहर गया । वहाँ अच्छेद्य और अभेद्य नामके दो राजा थे। उनके लिये यह आदेश था- इन दोनोंके पिताका नाम जयवर्मा और माताका नाम जयावती था । एकबार उनके पिताने अपने उद्यानमें स्थित पिहितास्रव मुनिसे
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श दर्शितवान् । २. ब राजाभाषतहि । ३. फ दापयतु व्यालोऽभणब दापयत् यालोरण । ४. ब विज्ञापन पत्र। ५. श भेदनामानी ।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१७७ पित्रा एकदा स्वोद्याने स्थितः पिहितास्रवो मुनिः पृष्टो मत्सुतौ कोटीभटौ स्वतन्त्रं राज्यं करिष्यतोऽन्यं सेवित्वा वा । मुनिरुवाच-यः सोमप्रभं पुण्डवर्धनानिर्धाटय वनराजाय राज्यं दास्यति स तयोः प्रभुरिति श्रुत्वा ताभ्यां राज्यं दत्त्वा निःकान्तः सुगतिमियाय । तौ सोमप्रभमुनि वन्दितुमागतौ । तद्वृत्तं विबुध्य मन्त्रिणं राज्ये नियुज्य स्वस्वामिनं द्रष्टुं पुण्डवर्धनमीयतुः । तं ददृशतु त्यो बभूवतुः ।
___ अन्यदा लक्ष्मीमतीं तत्रैव निधाय स्वयं व्यालादिभिर्गत्वा जालान्तिकवनं प्राप्य न्यग्रोधच्छायायामुपविष्टस्तत्रत्यविषाम्रवृक्षफलानि तत्परिवारस्य तत्पुण्येनामृतरूपेण परिणतानि'। तदा पञ्चशतसहस्रभटास्तं नेमुर्विज्ञापयांचक्रुः देवास्माभिरेकदावधिज्ञानी मुनिः पृष्टो वयं के सेवामहे इति । तेनोक्तं जालान्तिकवने विषाम्रफलान्यमृतरसं यस्य दास्यन्ति तं सेविष्यध्वे' इत्युक्ते वयमत्र स्थिताः। मुनिनोक्तो यः, स त्वमेवेति त्वत्सेवका वयमिति । ततः कुमारेण सन्मानदानेन तोषिताः। ततोऽन्तरपुरं जगाम । तत्पतिसिंहरथेन विभूत्या पुरं प्रवेशितः। तत्र सुखेन यावत्तिष्ठति तावर्तिसहरथेन विज्ञप्तः देव, सुराष्ट्र गिरिनगरेशहरिवर्ममृगलोचनयो
पूछा कि मेरे दोनों पुत्र, जो.कि कोटिभट हैं, स्वतन्त्र रहकर राज्य करेंगे अथवा किसी दूसरेको सेवा करके ? मुनिराज बोले कि जो महापुरुष सोमप्रभको पुण्डवर्धन नगरसे निकालकर वनराजके लिए राज्य दिलावेगा वह इन दोनोंका स्वामी होगा। यह सुनकर राजा जयवर्माको वैराग्य उत्पन्न हुआ, अतः उसने उन दोनों पुत्रोंको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। वे दोनों ( अच्छेद्य व अभेद्य ) उस समय सोमप्रभ मुनिकी वन्दनाके लिए उद्यानमें आये थे। जब उन्हें सोमप्रभका उपर्युक्त वृत्तान्त ज्ञात हुआ तब वे दोनों मंत्रीको राज्यकार्यमें नियुक्त करके अपने स्वामीका दर्शन करनेके लिए पुण्डवर्धनपुरको गये और वहाँ नागकुमारको देखकर उसके सेवक हो गये।
दूसरे समय नागकुमार लक्ष्मीमतिको वहींपर छोड़कर च स्वयं व्यालादिकोंके साथ जाकर जालान्तिक नामक वनमें पहुँचा । वहाँ वह वटवृक्षकी छायामें बैठ गया । तब उसके पुण्यके प्रभावसे उक्त वनके विषमय आम्रवृक्ष के फल उसके परिवारके लिए अमृत स्वरूपसे परिणत हो गये। उस समय पाँचसौ सहस्रभटोंने भाकर नागकुमारको नमस्कार करते हुए उससे निवेदन किया कि हे देव ! एक समय हम सबने किसी अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था कि हम लोग किसकी सेवा करेंगे? उसका उत्तर देते हुए उन मुनिराजने कहा था कि जालान्तिक वनमें विषमय आम्रके फल जिस महापुरुषके लिए अमृतके समान रस देंगे उसकी तुम सब सेवा करोगे। मुनिराजके इन बचनोंको सुनकर हम सब तभीसे यहाँ स्थित हैं। उन मुनिराजने जिस विशिष्ट पुरुषका संकेत किया था वह तुम ही हो, इसलिए हम सब तुम्हारे सेवक हैं। तब नागकुमारने यथायोग्य सन्मान देकर उन सबको सन्तुष्ट किया। तत्पश्चात् वह अन्तरपुरको गया। वहाँका राजा सिंहस्थ उसे विभतिके साथ नगरके भीतर ले गया । वह वहाँ पहुँचकर सुखपूर्वक ठहर गया। इसी समय सिंहस्थने उससे प्रार्थना की कि हे देव ! सुराष्ट्र देशके भीतर गिरिनगर नामका एक नगर है। वहाँ हरिवर्मा नामका राजा राज्य करता है। उसकी पत्नीका नाम मृगलोचना है। इनके एक गुणवती नामकी पुत्री
१. ब रूपेण तानि । २. ब 'क' नास्ति । ३. फ सेविष्यध्व । ४. श सिंहरथकेन ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
[ ५-१, ३४ :
रपत्यं गुणवती | राशेमां मद्भागिनेयनागकुमाराय दास्यामीति प्रतिपन्नम् । तां सिन्धुदेशेशोऽतिप्रचण्डः स्वयं कोटिभटः तथा जयविजय सूरसेनप्रवरसेनसुमतिनामभिः कोटिभटेर्युक्तः चण्डप्रद्योतननामा याचितवान् । नागकुमाराय दन्तेति हरिवर्मणोदिते स तत्पुरं वेष्टयित्वा तिष्ठति । हरिवर्मा मन्मित्रम्, तेन लेखः प्रस्थापितः इति तस्य सहायतां कर्तुं व्रजामि । यावदह मेमि तावत्तिष्ठात्रेति । कुमार ईषद्धसित्वा सिंहरथेन सह तत्र ययौ । तदागतिं विबुध्य चण्डप्रद्योतनेन जयविजयौ रोद्धुं प्रस्थापितौ । तयोरुपरि कुमारेण पञ्चशतसहस्रभटाः कथितास्तैस्तौ बद्ध्वानीय प्रभोः समर्पित । तद्बन्धनमाकर्ण्य चुकोप चण्डप्रद्योतनो व्यूहत्रयं विधाय रणावनौ तस्थौ । कुमारोऽच्छेद्याभेद्यौ सूरसेनप्रवरसेनयोः, व्यालं सुमतेरुपरि कथयित्वा स्वयं चण्डप्रद्योतनस्याभिमुखीबभूव । महायुद्धे स्वस्य स्वस्याभिमुखीभूत्वा बद्धा नागकुमारादिभिः शत्रवः । हरिवर्मा विदितवृत्तान्तः, सोऽर्धपथमाययौ । तं चण्डप्रद्योतनादिभिः स्वं पुरं विवेशयामास । सुमुहूर्ते गुणवत्या तस्य विवाहं चकार । कुमारश्चण्डप्रद्योतनादिकान् विमुच्य परिधानं दत्त्वा निःशल्यान् कृत्वा तद्देशं प्रस्थाप्य स्वयमूर्जयन्ते नेमिजिनं वन्दितुमियाय । वन्दित्वा गिरिनगरं प्रत्यागमे विज्ञापनपत्रं दत्त्वा कश्चिद्विशप्तवान्
पुण्यावकथाकोशम्
I
1
है । राजाने उसे अपने भानजे नागकुमारके लिए देना स्वीकार किया था । परन्तु उसकी याचना सिंधुदेशके राजा अतिशय प्रतापी चण्डप्रद्योतनने की थी । वह स्वयं तो कोटिभट है ही, साथ में उसके सहायक जय, विजय, सूरसेन, प्रवरसेन और सुमति नामके अन्य कोटिभट भी हैं । इसपर जब हरिवर्माने उससे यह कहा कि वह पुत्री नागकुमारके लिए दी जा चुकी है तब वह वहाँ जाकर हरिवर्मा नगरको घेरकर स्थित हो गया है । हरिवर्मा मेरा मित्र है, इसीलिए उसने मुझे पत्र भेजा है । अतएव मैं उसकी सहायता करनेके लिए जा रहा हूँ। जब तक मैं यहाँ वापिस नहीं आ जाता हूँ तब तक आप यहाँ ही रहें । यह सुनकर नागकुमार कुछ हँसा और सिंहरथके साथ गिरिनगर के लिए चल दिया । सिंहरथके साथ नागकुमारके आनेके समाचारको जानकर चण्डप्रद्योतनने उन्हें रोकनेके लिए जय और विजयको भेजा । उन दोनोंके ऊपर आक्रमण करने के लिए नागकुमारने पाँचसौ सहस्रभटोंको आज्ञा दी । तब वे उन दोनोंको बाँधकर ले आये और नागकुमारको समर्पित कर दिया । जय और विजयके बाँधे जानेके समाचारको जानकर चण्डप्रद्योतनको बहुत क्रोध आया । तब वह तीन व्यूहों को रचकर स्वयं भी युद्धभूमिमें स्थित हुआ । उस समय नागकुमार अच्छेद्य और अमेद्यको सूरसेन और प्रवरसेनके साथ, तथा व्यालको सुमतिके साथ युद्ध करने की आज्ञा देकर स्वयं चण्डप्रद्योतनके सामने जा डटा । इस महायुद्ध में नागकुमार आदिने अपने अपने शत्रुओं का सामना करके उन्हें बाँध लिया । जब यह सब समाचार हरिवर्माको ज्ञात हुआ तब वह नागकुमारका स्वागत करनेके लिये आधे मार्ग तक आया और उसे चण्डप्रद्योतन आदिकोंके साथ नगरके भीतर ले गया । फिर उसने उसका विवाह शुभ मुहूर्तमें गुणवती के साथ कर दिया । तत्पश्चात् नागकुमारने चण्डप्रद्योतन आदिको छोड़कर और उन्हें वस्त्रादि देकर निश्चिन्त करते हुए उनके देशको वापिस भेज दिया । वह स्वयं ऊर्जयन्त पर्वत के ऊपर नेमि जिनेन्द्रकी बन्दना करने के लिए गया । जब वह उनकी वन्दना करके गिरिनगर वापिस आ रहा था तब उसे किसीने विज्ञप्तिपत्र देकर इस प्रकार निवेदन किया
१. प्रथिता । २. फश प्रभौ । ३. ब वेशयामास ।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १
१७६
देव, वत्सदेशे कौशाख्यां राजा शुभचन्द्रो देवी सुखावती पुत्र्यः स्वयंप्रभासुप्रभा - कनकप्रभा - कनक माला-नन्दा - पद्मश्री-नागदन्ताश्चेति सप्त । एवं शुभचन्द्रो सुखेन तिष्ठति । विजयार्धदक्षिणश्रेण्यां रत्नसंचयपुरेशः सुकण्ठः । स च तद्वैरिणा मेघवाहनेन तस्मान्निर्धाटितः कौशाम्या बहिर्दुर्लङ्ध्यपुरं कृत्वा तस्थौ । तेन ताः कन्या याचिताः, शुभचन्द्रेण न दत्ताः । ततस्तमवधीत् । कन्याभिरुक्तमस्मत्पिता त्वया हत इति तव शिरश्छेदकोऽस्माकं पतिरिति । तेन कारागारे निहितास्तत्र नागदत्ता कथमपि पलाय्य कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनागपुरेशस्वपितृव्याभिचन्द्रस्य स्वरूपमकथयत्तेनाहं तवान्तिकं प्रेषित इति । श्रुत्वा कुमारो मामं गुणवत्याः पुरं प्रेष्य विद्याः समाहूय गगनेन कौशाम्बीं गतः, तदन्तिकं दूतमयापन् । स गत्वोकवान् तस्य हे खेचर, नागकुमारादेशं शृणु - कन्या विमुच्य शीघ्रमस्मदन्तिकं प्रस्थापनीया, नोचेश्वं जानासि इत्युक्तम् । दूतं क्रुद्धः स निःसारयामास । ततो युद्धाभिलाषेण व्योम्नि तस्थौ । नागकुमारोऽपि महायुद्धे चन्द्रहासेन तं जघान । तत्पुत्रो वज्रकण्ठः शरणं प्रविवेश । तं रत्नसंचयपुरं नीत्वा मेघवाहनं हत्वा तत्र राजानं चकार । वज्रकण्ठस्यानुजा रुक्मिणी,
हे देव ! वत्स देशके भीतर कौशाम्बी नामकी एक नगरी है । वहाँ शुभचन्द्र राजा राज्य करता है । रानीका नाम सुखावती है । उनके स्वयंप्रभा, सुप्रभा, कनकप्रभा, कनकमाला, नन्दा, पद्मश्री और नागदत्ता ये सात पुत्रियाँ हैं । इस प्रकारसे वह शुभचन्द्र राजा सुखसे स्थित था । परन्तु उधर विजयार्धकी दक्षिण श्रेणिमें जो रत्नसंचयपुर है उसमें सुकण्ठ नामका राजा राज्य करता था । उसे उसके शत्रु मेघवाहनने उस नगरसे निकाल दिया । तब वह कौशाम्बीपुरीके बाहिर एक अलंघ्यपुरका निर्माण करके वहाँ रहने लगा है। उसने शुभचन्द्र से उन कन्याओंकी याचना की । परन्तु उसने उसके लिए देना स्वीकार नहीं किया । इससे सुकण्ठने उसको मार डाला है । इसपर उन कन्याओंने उससे कह दिया है कि तुमने हमारे पिताको मार डाला है, अतएव जो पुरुष तुम्हारे शिरका छेदन करेगा वही हमारा पति होगा । इससे क्रोधित होकर उसने उन्हें बन्दीगृह के भीतर रख दिया । उनमें से नागदत्ता पुत्री किसी प्रकारसे भागकर हस्तिनापुरके राजा अभिचन्द्रके पास पहुँची । वह कुरुजांगल देशके अन्तर्गत हस्तिनापुरका राजा व उस नागदत्ताका चाचा है। उससे जब नागदत्ताने उक्त घटनाको कहा तब अभिचन्द्र ने मुझे आपके पास भेजा है । यह सुनकर नागकुमारने मामाको गुणवतीके [ गुणवतीको मामाके ] नगरमें भेजकर समस्त विद्याओं को बुलाया और तब वह आकाशमार्गसे कौशाम्बीपुर जा पहुँचा । वहाँ जाकर नागकुमारने सुकण्ठके पास दूतको भेजा । उसने वहाँ जाकर उससे कहा कि हे विद्याधर ! नागकुमारने तुम्हें यह आदेश दिया है कि तुम शीघ्र ही उन कन्याओं को छोड़कर मेरे पास
दो, अन्यथा तुम ही जानो। दूतके इन वचनोंसे क्रोधित होकर सुकण्ठने उसे वहाँ से निकाल दिया । तत्पश्चात् वह युद्धकी इच्छासे आकाशमें स्थित हो गया । तब नागकुमारने भी उसी प्रकार आकाश में स्थित होकर महायुद्धमें उसे चन्द्रहास से मार डाला । तब उसका पुत्र वज्रकण्ठ नागकुमारकी शरण में आ गया । इससे नागकुमार उसे रत्नसंचयपुर में ले गया और मेघवाहनको मारकर वहाँका राजा बना दिया । उस समय नागकुमार वज्रकण्ठकी बहिन रुक्मिणी, अभिचन्द्र
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श स्वयंप्रभाकनकप्रभाकनकमालाघनश्रीनन्दा । २. ब माम । ३. ब प्रतिपाठोऽयम् । श महायुध ।
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८० पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४: अभिचन्द्रस्य तनुजा चन्द्राभा, शुभचन्द्रस्य सप्त कुमार्यः एताः परिणीय हस्तिनागपुरे सुखेन तस्थौ।
इतो महाव्यालः पाटलीपुत्रे तिष्ठन् पाण्डुदेशे दक्षिणमथुरायां राजा मेघवाहनः, प्रिया जयलक्ष्मीः, पुत्री श्रीमती नृत्ये मां मृदङ्गवाद्येन यो रजयति स भर्तेति कृतप्रतिज्ञा। तद्धात्रिकापुत्री कामलता मारमपि नेच्छतीति श्रुतवान् । ततस्तत्र जगाम पुरं प्रविश्यापणे उपविष्टः। तदा तदीशमेघवाहनस्य भागिनेयाः कामाङ्कनामा कोटीभटः। स मामपार्वे कामलतां ययाचे । तेन दत्ता सा नेच्छति। तेन हठान्नीयमाना महाव्यालं ददर्शासक्ता बभूव । सा बभाण च मां रक्ष रक्षेति । ततो महाव्यालोऽव्रत कन्यां मुञ्च मुञ्चेति । स बभाण-त्वं मोचयिष्यसि । मोचयामीत्युक्त्वा कृपाणपाणिः संमुखं तस्थौ, कामाकोऽपि । महाकदने कामाकं जघान । तदा मेघवाहनो भीत्या संमुखमाययो। स्वभवनं प्रवेश्य कामलतामदत्त । तया समं तत्र सुखेन तस्थौ।
अथावन्तीपूज्जयिन्यां राजा जयसेनो देवी जयश्रीः। पुत्री मेनकी कमपि नेच्छतोति श्रुत्वा तत्र ययौ । सा तं विलोक्य मे भ्रातेति बभाण । ततः स संतुष्टो हस्तिनागपुरं व्यालकी पुत्री चन्द्राभा और शुभचन्द्रकी उन सात कन्याओंके साथ विवाह करके सुखपूर्वक हस्तिनागपुरमें स्थित हुआ।
___ इधर महाबल जब पाटलीपुत्रमें स्थित था तब पाण्डु देशके भीतर दक्षिण मथुरामें मेघवाहन नामका राजा राज्य कर रहा था। उसकी पत्नीका नाम जयलक्ष्मी था । इनके एक श्रीमती नामकी पुत्री थी। उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो मृदंग बजाकर मुझे नृत्यमें अनुरंजित करेगा वह मेरा पति होगा। श्रीमतीकी धायके भी एक कामलता नामकी पुत्री थी। वह कामदेवके समान भी सुन्दर पुरुषको नहीं चाहती थी। यह जब महाव्यालने सुना तब वह पाटलीपुत्रसे दक्षिण मथुराको चल दिया । वहाँ नगरके भीतर पहुँचकर वह बाजारमें ठहर गया। उधर उस दक्षिण मथुराके राजा मेघवाहनके कामांक नामका एक कोटिभट भानजा था । उसने मामाके पास जाकर उससे कामलताको माँगा। तदनुसार उसने उसे दे भी दिया। परन्तु कामलताने स्वयं उसे स्वीकार नहीं किया । तब कामांक उसे बलपूर्वक ले जा रहा था। उस समय कामलता महाव्यालको देखकर उसके ऊपर आसक्त हो गई। तब उसने महाव्यालसे अपनी रक्षा करनेकी प्रार्थना की। इसपर महाव्यालने कामांकसे उस कन्याको छोड़ देनेके लिए कहा। परन्तु उसने उसे नहीं छोड़ा। वह बोला कि क्या तुम मुझसे इस कन्याको छुड़ाओगे ? इसके उत्तरमें वह 'हाँ छुड़ाऊँगा' कह कर तलवारको ग्रहण करता हुआ कामांकके सामने स्थित हो गया। उधर कामांक भी उसी प्रकारसे युद्धके लिए उद्यत हो गया। तब दोनोंमें घोर युद्ध हुआ। अन्तमें महाच्यालने कामांकको मार डाला । तब मेघवाहन भयभीत होकर महाव्यालके समक्ष आया और उसे अपने भवनके भीतर ले गया। फिर उसने उसे कामलता दे दी। इस प्रकार महाव्याल कामलताके साथ वहाँ सुखसे स्थित हुआ।
अवन्ति देशके अन्तर्गत उज्जयिनी नगरीमें जयसेन नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम जयश्री था। उनके एक मेनकी नामकी पुत्री थी जो किसी भी पुरुषको नहीं चाहती थी। यह सुनकर महाव्याल उज्जयिनी गया । उसे देखकर मेनकीने अपने भाईके रूपमें सम्बोधित किया। इससे सन्तुष्ट होकर महाव्याल हस्तिनापुरमें व्यालके समीप गया, वहाँ उसने
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१८१ स्यान्तं जगाम । नागकुमाररूपं पटे विलिख्यानीय तस्या दर्शितवान् । सा पासक्ता जाता। ततः पुनर्गत्वा व्यालं पुरस्कृत्य प्रभु दृष्टवान् । कथित आत्मवृत्तो भृत्यो बभूव । ततःप्रतापंधरः उजयिनीमियाय, मेनकी परिणीतवान् , तत्र सुखेनास्थात् । एकदा महाव्यालः श्रीमतीवार्ता विज्ञप्तवान् । कुमारस्तत्र जगाम । तां तथा रजयित्वा ववार ।
तत्रैव सुखेन यावदास्ते तावत् कश्चिद्वणिग्राजास्थानमाययौ । तमपृच्छत्कुमारः- कि क्वापि त्वया कौतुकं दृष्टं किंचिदस्ति न वा। स ाह-समुद्राभ्यन्तरे तोयावलीद्वीपे सुवर्णचैत्यालयाग्रे मध्याह्ने प्रतिदिनं लकुटधरपुरुषरक्षिताः पञ्चशतकन्याः आक्रोशन्ति, कारणं न बुध्यते । ततो विद्याप्रभावेन चतुर्भिः कोटिभटैः तत्र ययौ । जिनमभ्यर्च्य स्तुत्वोपविष्टः। ततस्तासामाकोशमवधाय ता पाहूय पृष्टवान् 'किमित्याक्रोशते' इति । तत्र धरणिसुन्दरी जूते स्मास्मिन् द्वोपे धरणितिलकपुरेशस्ति [स्त्रिरक्षो नामविद्याधरस्तत्पुत्र्यो वयं पञ्चशतानि । अस्मत्पितु गिनेयो वायुवेगो रूपदरिद्रोऽस्मानस्मत्पितुः पार्वे याचित्वाप्राप्य ततो राक्षसीं विद्यामसाधीत्। तत्प्रभावेनास्मत्पितरं युद्धेऽवधीदस्मद्भातरौ रक्षमहारक्षौ भूमिगृहे पटपर नागकुमारके रूपको लिखा और फिर उसे लाकर मेनकीको दिखलाया । उसे देखकर मेनकी नागकुमारके विषयमें आसक्त हो गई । तत्पश्चात् महाव्याल फिरसे हस्तिनापुर गया। वहाँ वह व्यालके साथ नागकुमारसे मिला और अपना वृतान्त सुनाकर उसका सेवक हो गया । तब प्रतापंधरने उज्जनियी जाकर मेनकीके साथ विवाह कर लिया। वह वहाँ सुखसे स्थित हुआ । एक समय व्यालने नागकुमारसे श्रीमतीकी प्रतिज्ञाका वृत्तान्त कहा। तब नागकुमारने वहाँ जाकर श्रीमतीको उसकी प्रतिज्ञाके अनुसार मृदंगवादनसे अनुरंजित किया और उसके साथ विवाह कर लिया।
तत्पश्चात् वह वहाँ सुखपूर्वक कालयापन कर ही रहा था कि इतनेमें एक वैश्यों का स्वामी राजाके सभाभवनमें उपस्थित हुआ। उससे नागकुमारने पूछा कि क्या तुमने कहींपर कोई कौतुक देखा है या नहीं ? उसने उत्तरमें कहा कि समुद्रके भीतर तोयावली द्वीपमें एक सुवर्णमय चैत्यालय है । उसके आगे प्रतिदिन मध्याह्नके समयमें दण्डधारी पुरुषोंसे रक्षित पाँच सौ कन्यायें करुण आक्रन्दन करती हैं । वे इस प्रकार आक्रन्दन क्यों करती हैं, यह मैं नहीं जानता हूँ। यह सुनकर नागकुमार विद्याके प्रभावसे चार कोटिभटोंके साथ वहाँ गया। वह वहाँ पहुँच कर जिनेन्द्रकी पूजा और स्तुति करके बैठा ही था कि इतनेमें उसे उन कन्याओंका आक्रन्दन सुनाई दिया । तब उसने उनको बुलाकर पूछा कि तुम इस प्रकारसे आक्रन्दन क्यों करती हो ? इसपर उनमेंसे धरणिसुन्दरी बोली- इस द्वीपके भीतर धरणितिलक नामका नगर है। वहाँ त्रिरक्ष नामका विद्याधर रहता है। हम सब उसकी पाँच सौ पुत्रियाँ हैं। हमारे पिताके वायुवेग नामका भानजा है जो अतिशय कुरूप है । उसने पिता के पास जाकर हम सबको माँगा था। परन्तु पिताने उसके लिए हमें देना स्वीकार नहीं किया। तब उसने राक्षसी विद्याको सिद्ध करके उसके प्रभावसे युद्ध में हमारे पिताको मार डाला तथा रक्ष और महारक्ष नामके हमारे दो भाइयोंको तलघर में रख दिया है। वह हमारे
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श पटे लेष्यानीय । २. ब विज्ञाप्तवान । ३. पक्रोशतमिति । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । पपुरे तरक्षो श पुरे रक्षो। ५. फ श दरिद्रो नोऽस्मा। ६. पनस्मारिपतुः । ७. ब विद्या
मरात्सीत् ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२ पुण्यानवकथाकोशम्
[५-१, ३४ न्यक्षिपत् । अस्मत्परिणयनकामोऽस्माभिर्भणितो यस्त्वां हनिष्यति सोऽस्माकं पतिरिति । स षण्मासाभ्यन्तरे मम प्रतिमल्लमानयतेति भणित्वा बन्दिगृहे निक्षिप्तवान् । अत्र देवाः खेचराश्च जिनवन्दनायागच्छन्तीत्यत्राकोशाम इति । श्रुत्वा तद्रक्षकान् निर्धाटयात्मरक्षकान् ददौ युद्धाय नभसि तस्थौ च । वायुवेगोऽपि महायुद्धं चक्रे । बृहद्धेलायां कुमारश्चन्द्रहासेन तं हतवान् । रक्ष-महारक्षयो राज्यं दत्त्वा ताः परिणीतवान् । ततः पञ्चशतसहस्रभटाः तं प्रणम्य सेवका बभूवुः। किं कारणं मम सेवका जाता इत्युक्ते तैरुच्यतेऽस्माभिरेकदावधिज्ञानी पृष्टोऽस्माक कः स्वामीति । तेनोक्तं वायुवेगं यो हनिष्यति स युष्माकं पतिरिति वयमत्र स्थिताः। त्वया हत इति त्वभृत्या जाता इति ।
ततः काञ्चीपुरमियाय । तत्पतिवल्लभनरेन्द्रेण कन्यादानादिना सन्मानितः । ततः कलिङ्गस्थं दन्तपुरमितस्तत्र राजा चन्द्रगुप्तो भार्या चन्द्रमती तनुजा मदनमञ्जूषा । चन्द्र गुप्तो विभूत्या कृत्वा पुरं प्रवेश्य तां दत्तवान् । तत उष्ट्रदेशस्थत्रिभुवनतिलकपुरमाट । तत्पतिविजयंधरो रामा विजयावती दुहिता लक्ष्मीमती। तेन विभूत्या पुरं प्रवेश्य सुता दत्ता । सा कुमारस्यातिवल्लभा जाता । तत्र तया सुखेनातिष्ठत् । साथ विवाह करना चाहता है। परन्तु हम लोगोंने कह दिया है कि जो तुझे मार डालेगा वह हमारा पति होगा। इसपर उसने 'उस मेरे प्रतिशत्रुको तुम छह मासके भीतर ले आओ' यह कहकर हमें बन्दीगृहमें रख दिया है। यहाँ चूंकि देव और विद्याधर जिनवन्दनाके लिए आया करते हैं, इसीलिए हम लोग यहाँ आक्रन्दन करती हैं । इस घटनाको सुनकर नागकुमारने वायुवेगके रक्षकोंको हटाकर अपने रक्षकोंको वहाँ नियुक्त कर दिया और स्वयं युद्धके लिए आकाशमें स्थित हो गया । तब वायुवेगने भी आकाशमें स्थित होकर नागकुमारके साथ भयानक युद्ध किया। इस प्रकार बहुत समयके बीतनेपर नागकुमारने उसे चन्द्रहास खड्गसे मार डाला । फिर उसने रक्ष और महारक्षको राज्य देकर उन पाँचसौ कन्याओं के साथ विवाह कर लिया। तत्पश्चात् पाँचसौ सहस्रभट नागकुमारको प्रणाम करके उसके सेवक हो गये। जब नागकुमारने उनसे इस प्रकार सेवक हो जानेका कारण पूछा तो उनने बतलाया कि एक समय हमने अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था कि हमारा स्वामी कौन होगा। उसके उत्तरमें मुनिने कहा था जो वायुवेगको मार डालेगा वह तुम सबका स्वामी होगा। तबसे हम लोग यहाँपर स्थित हैं। आपने चूँकि उस वायुवेगको मार डाला है अतएव हम सब आपके सेवक हो गये हैं।
तत्पश्चात् नागकुमार काँचीपुरको गया । उस पुरके राजा वल्लभ नरेन्द्रने उसका पुत्री आदिको देकर सन्मान किया। तत्पश्चात् वह कलिंग देशमें स्थित दन्तपुरको गया । वहाँके राजाका नाम चन्द्रगुप्त और उसकी पत्नीका नाम चन्द्रमती था। इनके मदनमंजूषा नामकी एक पुत्री थी। चन्द्रगुप्तने नागकुमारको विभूतिके साथ नगरमें ले जाकर उसके लिए वह पुत्री दे दी। इसके पश्चात् वह उष्ट्र देशके भीतर स्थित त्रिभुवन तिलक नामक नगरको गया। वहाँपर विजयंधर नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम विजयावती था । इनके लक्ष्मीमती नामकी एक पुत्री थी। राजाने नागकुमारको विभूतिके साथ नगरमें लेजाकर उसके लिए उस पुत्रीको दे दिया । वह नागकुमारके लिए अतिशय प्रीतिका कारण हुई। वह वहाँ उसके साथ कुछ समय तक सुखपूर्वक स्थित रहा।
१. श ततः । २. ब 'कृत्वा' नास्ति । ३. प श उड्देश फ उडुदेश। ४. ब पुरसमावट ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १
१८३
एकदा तत्पुरोद्यानं पिहितास्त्रवमुनिराययौ । नागकुमारो मामेन समं वन्दितुं जगाम । वन्दित्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं पृष्टवान् लक्ष्मीमत्या उपरि स्वस्य मोहहेतुम् । मुनिराहात्रैव द्वोपे अवन्तिविषये उज्जयिन्यां राजा कनकप्रभो राशी' कनकप्रभा पुत्रः सुवर्णनाभंः दानादिकृत्वा समाधिना महाशुक्रे महर्द्धिको देवोऽभूत् । तस्मादागत्यैरावते श्रार्यखण्डे वीतशोकपुरे राजा महेन्द्रविक्रमः । तत्र वैश्यो धनदत्तः प्रिया धनश्री पुत्रो नागदत्तस्तत्रापरो वैश्यो वसुदत्तो रामा वसुमती सुता नागवसुः। सा नागदत्तेन परिणीता । एकदा तत्पुरोधाने मुनिर्गुप्ताचार्यः" समागतः । तं वन्दितु राजादयो जग्मुः । वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य नागदत्तः पञ्चम्युपवासं । जग्राह । तेन रात्रौ पीडितः पित्रादिभिरनेक प्रकारैरुपवासस्त्याजितःन तत्याज । ततो रात्रिपश्चिमयामे शरीरं विहाय समाधिना सौधर्मे सूर्यप्रभविमानेऽमरोऽभूत्, भवप्रत्ययबोधेन सर्व विबुध्यागत्य च बन्धुजनादिकं संबुबुधे । ततः स्वर्लोक मियाय । नागदत्त वधूस्तपो बभार । तस्यैव देवस्य देवी भविष्यामीति सा निदानात्तद्देवस्य देवी जज्ञे । ततः आगत्य स देवस्त्वं जातोऽसि सा देवी लक्ष्मीमती जातेति । श्रुत्वा पञ्चम्युपवासविधिं पप्रच्छ ।
एक समय उस नगरके उद्यानमें पिहितास्रव मुनि आये । नागकुमार मामाके साथ उनकी वन्दना के लिए गया । वन्दनाके पश्चात् उसने उनसे धर्मश्रवण किया । फिर उसने उनसे पूछा कि लक्ष्मीमतीके ऊपर मेरे अतिशय प्रेमका कारण क्या है ? उत्तर में वे इस प्रकार बोले- इसी द्वीपके भीतर अवन्ति देशमें उज्जयिनी पुरी है । वहाँ कनकप्रभ नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम कनकप्रभा था । उनके एक सुवर्णनाभ नामका पुत्र था । वह दानादि धर्म - कार्योंको करके समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर महाशुक्र स्वर्गमें महर्धिक देव हुआ । इसी जम्बू द्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रके आर्यखण्ड में एक वीतशोक नामका नगर है । वहाँ महेन्द्रविक्रम राजा राज्य करता था । इसी नगर में एक धनदत्त नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम धनश्री था । उपर्युक्त देव महाशुक्र स्वर्गसे च्युत होकर इन दोनोंके नागदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । उसी पुरमें एक वसुदत्त नामका दूसरा भी वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम वसुमती था । इनके एक नागवसु नामकी पुत्री थी । उसके साथ नागदत्तने विवाह किया था। एक बार उस नगर उद्यानमें गुप्ताचार्य नामके मुनि आये । राजा आदि उनकी वन्दनाके लिए गये। उनकी वन्दना के पश्चात् धर्मश्रवण करके नागदत्तने उनसे पञ्चमीके उपवासको ग्रहण किया । इससे उसको रात्रि में कष्ट हुआ । तब पिता आदि कुटुम्बी जनोंने अनेक प्रकारसे उसके उपवासको छुड़ानेका प्रयत्न किया । किन्तु उसने उसे नहीं छोड़ा । तत्पश्चात् रात्रिके पिछले पहर में समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर वह सौधर्म स्वर्गके अन्तर्गत सूर्यप्रभ विमानमें देव उत्पन्न हुआ। फिर वह भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे उस सब वृतान्तको जानकर वहाँ आया । तब उसने शोकसन्तप्त उन बन्धुजनों को संबोधित किया। तत्पश्चात् वह स्वर्गको वापिस चला गया । नागदत्तकी पत्नी नागवसूने भी दीक्षा लेकर उसीकी पत्नी होने का निदान किया था । तदनुसार वह उस देवकी देवी हुई । वहाँ से च्युत होकर वह देव तुम और वह देवी लक्ष्मीमती हुई है। इस प्रकार अपने पूर्व भवके वृत्तान्तको सुनकर नागकुमारने उन मुनिराजसे पञ्चमीके उपवासकी विधिको पूछा । उसकी वि मुनिराजने इस प्रकार बतलायी
१. ब भार्या । २. श सुवर्णलाभः । २फ रामा नागमती श रामामती । नागवसुः । ५. ब 'द्यानं मुनिगुप्ताचार्य: । ६. प श स बुबुधे । ७. ब नागवसूस्तपो ।
४. फ नागवसु श
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४: साधुरचीकथत् । तद्यथा- फाल्गुनस्य वाषाढस्य वा कार्तिकस्य वा शुक्लस्य चतुर्थी शुचिर्भूत्वा साधुमार्गेण भुक्त्वोपवासो ग्राह्यस्तदिवसे सर्वाप्रशस्तव्यापाराणि विहाय धर्मकथाविनोदेन दिनं गमयित्वा सरागशय्यां विवर्य पारणाह्नि यथाशक्ति पात्राय दानं दद्यात्, पश्चात्स्वयं बन्धुभिः पारणां कुर्यात् । एवं प्रतिमासे पञ्चवर्षाणि पञ्चमासाधिकानि वा पञ्चैव मासान् कृत्वोद्यापने पञ्च चैत्यालयान् पञ्चप्रतिमा वा कारयित्वा कलशचामरध्वजदीपिकाघण्टाजयघण्टादिपञ्चपञ्चस्वरूपसहिताः प्रतिष्ठाप्य वसतये दद्यात, पञ्चाचार्येभ्यः पुस्तकादिकमार्यिकाश्रावकश्राविकाभ्यो वस्त्रादिकं दद्यात् तथा यथाशक्ति दानादिकेन प्रभावनां कुर्यादेतत्फलेन स्वर्गादिसुखनाथो भवेत् इति । निशम्य लक्ष्मीमत्यादिसहितः पञ्चम्यपवासविधि गृहीत्वा तत्र कुर्वन सुखेन तस्थौ ।
तावजयंधरो नयंधरं तमानेतुं प्रस्थापयामास । स गत्वा मातापितृभाषितं सर्व तस्य कथयति स्म । तदा नागकुमारः प्रागविवाहितकान्तादियुक्तो गगनमार्गेण स्वपुरमाययौ। पिता विभूत्यार्धपथं निर्जगाम । तं नत्वा यावत्प्रतापंधरः पुरं प्रविशति तावद्विशालनेत्रा पुत्रेण सह दीक्षिता । नागकुमारोऽतिवल्लभो भूत्वा सुखं तस्थौ। जयंधरस्त्वेक
फाल्गुन, अषाढ़ और कार्तिक माससे शुक्ल पक्षकी चतुर्थीको स्नानादिसे शुद्ध होकर समीचीन मार्गसे भोजन ( एकाशन ) करे और उसी समय पञ्चमीके उपवासको भी ग्रहण कर ले । फिर उपवासके दिन समस्त अप्रशस्त व्यापारोंको ( कार्योंको) छोड़कर दिनको धर्मचर्चामें बितावे । साथ ही रागवर्धक शय्या ( गादी व पलंग आदि ) का परित्याग करके पारणाके दिन शक्ति के अनुसार पात्रके लिए दान देवे । तत्पश्चात् बन्धुजनोंके साथ स्वयं पारणाको करे। इस प्रकार पाँच मांसोंसे अधिक पाँच वर्षों तक अथवा पाँच महीनों तक ही प्रतिमासमें उपवासको करके उद्यापनके समय पाँच चैत्यालयों अथवा पाँच प्रतिमाओंको कराकर कलश, चामर, ध्वजा, दीपिका, घण्टा और जयघण्टा आदिको पाँच पाँच-पाँच संख्यामें प्रतिष्ठित कराकर जिनालयके लिए देना चाहिए । पाँच आचार्योंके लिए पुस्तक आदिको तथा आर्यिका, श्रावक और श्राविकाओंके लिए वस्त्रादिको देना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपनी शक्तिके अनुसार दानादिके द्वारा प्रभावना करना भी योग्य है । उस व्रतके फलसे प्राणी स्वर्गादिसुखका भोक्ता होता है । इस प्रकार पञ्चमीके उपवासकी विधिको सुनकर नागकुमारने लक्ष्मीमती आदिके साथ पञ्चमी-उपवासकी विधिको ग्रहण कर लिया । पश्चात् वह उस व्रतका परिपालन करता हुआ सुखपूर्वक स्थित हुआ।
इतनेमें जयंधर राजाने नागकुमारको लानेके लिए उसके पास अपने मन्त्री नयंधरको भेजा। उसने जाकर माता-पिताने जो कुछ सन्देश दिया था उस सबको नागकुमारसे कह दिया । तब नागकुमार पूर्वपरिणीता पत्नियोंको साथ लेकर आकाशमार्गसे अपने नगरमें आ गया। उसको लेनेके लिए पिता विभूतिके साथ आधे मार्ग तक आया । प्रतापंधर पिताको प्रणाम करके जब तक पुरमें प्रवेश करता है तब तक विशालनेत्रा पुत्र ( श्रीधर ) के साथ दीक्षा धारण कर लेती है । नागकुमार वहाँ प्रजाका अतिशय प्यारा होकर सुखपूर्वक रहने लगा। तत्पश्चात् एक
१. फ ब भुक्तोपवासो। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श विसर्य । ३. फ श पारणानि ब पारणाहे । ४. श वधूभिः । ५. ज फ श पारणा: । ६. फ श जयाघण्टादि । ७. फ गत्वा पितृभाषितम् । ८. फ विवाहिताकान्तादियुक्तो श विवाहकान्तावियुक्तो। ९. ज पुत्रेणादीक्षितः पश पुत्रेणादीक्षित ब पुत्रेणादीक्षिता।
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-१, ३४] ५. उपवासफलम् १
१८५ दात्ममुखं दर्पणे पश्यन् पलितमालोक्य प्रतापंधराय राज्यं वितीर्य बहुभिः पिहितास्रवमुनिनिकटे दीक्षितः, पृथ्वी श्रीमत्यार्यिकाभ्यासे । जयंधरः मुनिमुक्तिं ययौ । पृथ्वी अच्युते देवोऽ भूत् । इतो जायंधरियालायाधराज्यं दत्त्वा' अच्छेद्योभेद्ययोर्देशान् कोशलाभीरमालवान् महाव्यालाय गोडवैदर्भदेशौ सहस्रभटेभ्यो[ भ्यः ] पूर्वदेशमन्येभ्योऽपि यथोचितदेशान् ददी। नागकुमारो महामण्डलेश्वरविभूतियुक्तोऽभूत् । अष्टसहस्रान्तःपुरमध्ये लक्ष्मीमती धरणिसुन्दरी त्रिभुवनरती गुणवती चेति चतस्रो महादेव्यः । लक्ष्मीमत्या देवकुमाराख्यो नन्दनोऽजनि । सोऽपि पितृवन्महाप्रतापी। अन्येऽपि कुमारा बहवो अजनिषत । एवं नागकुमारोऽष्टशतवर्षाणि राज्यं कुर्वन् सुखेन तस्थौ। एकदा मेघविलयं दृष्ट्वा वैराग्यमुपजगाम । देवकुमाराय राज्यं दत्त्वा व्यालादिकोटीभटैः सहस्रभटैर्मुकुटबद्धमण्डलेश्वरादिभिरमलमतिकेवलिपार्श्वे दीक्षां बभार । लक्ष्मीमत्यादिस्त्रीसमूहः पद्मश्रीक्षान्तिकाभ्यासे दीक्षितः। प्रतापंधरो मुनिश्चतुःषष्टिवर्षाणि तपश्चकार । कैलाशे स केवली जझे, तथा व्यालमहाव्यालाच्छेद्याभेद्याश्च, षटषष्टिवर्षाणि विहृत्य तत्रैव मुक्तिमापुः [प]। व्यालादयोऽपि । एवं नागकुमारस्य नेमिजिनान्तरे समुत्पन्नस्य कुमारकालः सप्ततिवर्ष [वर्षाणि ७० राज्यकालोऽष्टशतानि वर्षाणि ८०० तपःकालश्चतुःषष्टिवर्षाणि ६४ केवलकालः षट्षष्टिवर्षाणि ६६ एवं ] दिन दर्पणमें मुखावलोकन करते हुए जयंधरको शिरपर श्वेत बाल दिखा। इससे उसे भोगोंकी
ओरसे विरक्ति उत्पन्न हुई। तब उसने प्रतापंधरको राज्य देकर बहुत जनोंके साथ पिहितास्रव मुनिके निकटमें दीक्षा ग्रहण कर ली। पृथ्वी रानीने भी श्रीमती आर्यिकाके पास दीक्षा ग्रहण कर ली । वह जयंधर राजा मोक्ष को प्राप्त हुआ तथा पृथ्वी अच्युत स्वर्गमें देव हुई। इधर नागकुमारने व्यालके लिए आधा राज्य देकर अच्छेद्य व अभेद्यके लिए कोशल, आभीर और मालव देशों को; महाव्यालके लिए गौड़ और वैदर्भ देशोंको; सहस्रभटोंके लिए पूर्व देशको, तथा अन्य जनों के लिए भी यथायोग्य देशोंको दिया । उस समय वह नागकुमार महामण्डलेश्वरकी विभूतिसे संयुक्त हुआ। उसके आठ हजार रानियाँ थीं। इनमेंसे उसने लक्ष्मीमती, धरणिसुन्दरी, त्रिभुवनरति और गुणवती इन चार रानियों को महादेवीका पद प्रदान किया । लक्ष्मीमतीके देवकुमार नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह भी पिताके ही समान महाप्रतापशाली था। इसके अतिरिक्त उसके और भी बहुत-से पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार नागकुमारने आठ-सौ वर्ष तक सुखपूर्वक राज्य किया। तत्पश्चात् वह एक दिन देखते ही देखते नष्ट होनेवाले मेघको देखकर भोगोंसे विरक्त हो गया। तब उसने देवकुमार पुत्र को राज्य देकर व्याल आदि कोटिभटों, सहस्रभटों, मुकुटबद्धों और मण्डलेश्वर आदि राजाओंके साथ अमलमति केवलीके पासमें दीक्षा धारण कर ली । लक्ष्मीमती आदि स्त्रियों के समूहने भी पद्मश्री आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ले ली । प्रतापंधर मुनिने चौंसठ वर्ष तक तपश्चरण किया। उन्हें कैलास पर्वतके ऊपर केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी प्रकार व्याल, महाव्याल, अच्छेद्य और अभेद्य भी केवलज्ञानी हुए। नागकुमार केवली छ्यासठ वर्ष तक विहार करके उसी पर्वतसे मुक्तिको प्राप्त हुए । व्यालादि भी मुक्तिको प्राप्त हुए। वह नागकुमार नेमि जिनेन्द्र के तीर्थमें उत्पन्न हुआ था। उसका कुमारकाल सत्तर (७०) वर्ष, राज्यकाल आठ सौ ( ८०० ) वर्ष, छद्मम्थकाल चौंसठ (६४ ) वर्ष और केवलिकाल छ्यासठ
१. फ्भ्यासे दीक्षिता । २. ज प श पृथ्वी अच्युत ब पृथ्वी च्युते । ३. ब 'दत्त्वा' नास्ति । ४. श सीर'। ५. ज प लक्ष्मीमत्याः । ६. फ श°भेद्या च ।
२४
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-१, ३४ : सहितानि ( ? ) सहस्रवर्षाण्यायुः । सहस्रभटादिमुनयः सौधर्मादिसर्वार्थसिद्धिपर्यन्तं जग्मुः, लक्ष्मीमत्यादयोऽच्युतान्तं गताः। एवं वैश्यात्मज एकेनैवोपवासेनैवंविधोऽजनि, यस्त्रिशुद्धया सततं करोति स किं न स्यादिति ॥१॥
[३५] अनुमननभवाद्वै पुण्यतो यस्य जातः सकलगुणगणेभ्यश्चोपवासस्य पूज्यः । क्षितिपविभवनाथो वैश्यभाविष्यदत्त उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्ध या॥२॥
अस्य कथा। अत्रैवार्यखण्डे कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनापुरे राजा भूपालो देवी प्रियमित्रा । तत्रैव वैश्यो धनपतिः भार्या कमलश्रीः। सा एकदा स्वभवनस्योपरिमभूमावुपविश्य दिशमवलोकयन्ती सद्यःप्रसूतां गामतिस्नेहेन वत्सस्य पृष्ठे गच्छन्तीं विलोक्य पुत्रवाञ्छया दुःखिनी बभूव । पतिर्दुःखकारणं पप्रच्छ । तया निरूपितं पुत्राभाव इति । 'धनपतिर्धर्मेणेष्टार्थसिद्धिभविष्यति इति पुरादहिः रम्यप्रदेशे जिनभवनानि कारयामास । तानि राजा विलोक्य केन कारितानीति कंचन पृष्टवान् । तेन 'धनपतिना' इति निरूपिते तुष्टेन राशा धनपती राजश्रेष्ठी (६६) वर्ष प्रमाण था ] इस प्रकार उसकी आयु एक हजार वर्ष प्रमाण थी। सहस्रभट आदि मुनि सौधर्म स्वर्गको आदि लेकर सवार्थसिद्धि तक गये। लक्ष्मीमती आदि अच्युत स्वर्ग पर्यन्त गई। इस प्रकार वह वैश्यका पुत्र ( नागदत्त ) एक ही उपवाससे इस प्रकारके वैभवको प्राप्त हुआ है । फिर जो मन वचन व कायकी शुद्धिपूर्वक निरन्तर ही उस उपवासको करता है वह क्या वैसे वैभवको नहीं प्राप्त करेगा ? अवश्य प्राप्त करेगा ॥१॥
भविष्यदत्त वैश्य जिस उपवासकी अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे राजवैभवसे संयुक्त होकर समस्त गुणी जनोंसे पूज्य हुआ है मैं उस उपवासको मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक करता हूँ ॥२॥
इसकी कथा इस प्रकार है-- इसी आर्यखण्डके भीतर कुरुजांगल देशके अन्तर्गत एक हस्तिनापुर नगर है। वहाँ भूपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम प्रियमित्रा था। उसी नगरमें धनपति नामका एक वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम कमलश्री था । वह किसी समय अपने भवनकी छतके ऊपर बैठी हुई दिशाओंका अवलोकन कर रही थी। उस समय उसे एक गाय दिखी जो कि उसी समय प्रसूत होकर अतिशय स्नेहसे अपने बछड़ेके पीछे जा रही थी। उसे देखकर वह पुत्रहीना पुत्रप्राप्तिकी इच्छासे बहुत दुखी हुई। उसको दुखी देखकर पतिने उसके दुखका कारण पूछा। उसने इसका कारण पुत्रका अभाव बतलाया । तब धनपतिने धर्मसे अभीष्ट प्रयोजन सिद्ध होगा, यह निश्चय करके नगरके बाहिर एक रमणीय प्रदेशमें जिन भवनोंका निर्माण कराया। उन जिनालयोंको देखकर राजाने किसीसे पूछा कि इन जिनभवनोंका निर्माण किसने कराया है ? उससे जब राजाको यह ज्ञात हुआ कि ये धनपति सेठके द्वारा निर्मापित कराये गये हैं तब इससे उसे बहुत सन्तोष हुआ। इससे उसने धनपतिको राजसेठ नियत कर दिया। इस प्रकारसे वह सेठ सुखपूर्वक काल
१. प 'सप्ततिवर्षसहितानि' इत्येतत्पदम् निष्कास्य तस्थाने माजिने 'कुमारकाल ७० राज्यकाल ८०० तपकाल ६४ केवली ६६ एवं सर्ववर्ष १०००' एतावान् सन्दर्भो लिखितः। २. ब गुणगणेशश्चोप० । ३. ज प श तत्र । ४. फ श धनातिधर्मेणेष्टार्थ ब धनपतिधर्मेण इष्टार्थ ।
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-२, ३५] ५. उपवासफलम् २
१८७ कृतः सुखेन स्थितः । एकदा चर्यामार्गेणागतं श्रीधरमुनि स्थापयित्वा नैरन्तर्यानन्तरं पृष्टवान् धनपतिः 'मत्प्रियायाः पुत्रः स्यान्न वा' इति । सोऽवोचत्' अतिपुण्यवान् पुत्रो भविष्यति' इति । तदनु संतुष्टा सा कतिपयदिनैः पुत्रं लेभे । तदुत्पत्तौ राजादिभिरुत्साहश्चके । स च भविष्यदत्त. नामा सकलकलाकुशलो भूत्वा ववृधे । एकदा निर्दोषापि जन्मान्तरार्जितकर्मवशात्सा कमलश्रीः श्रेष्ठिना स्वगृहानिःसारिता। सा हरिबल-लक्ष्मीमत्याख्ययोः स्वपित्रोहे तस्थौ । तत्रैव वैश्यवरदत्त-मनोहयोः सुतां सुरूपां ववार धनपतिः। सा बन्धुदत्ताख्यसुतं लेभे । स च पितुः प्रियः सर्वकलाधारो युवा बभूव । पित्रा तस्य विवाहे क्रियमाणे स उक्तवान् स्वोपार्जितद्रव्येण विवाहं करिष्यामि, नान्यथेति प्रतिशया पञ्चशतवणिग्नन्दनीपान्तरं चचाल। तद्गमनं विबुध्य भविष्यदत्तो मातरं पप्रच्छ बन्धुदत्तेन सह द्वीपान्तरं यास्यामि । सा बभाण सापत्नेननो चितम् । तथापि गच्छामीत्युक्ते भाण्डाभावे कथं गमिष्यसि । पितुः पार्श्व याचित्वा गृहीत्वा यास्यामीति पितुनिकटे ययाचे। पिता बभाणाहं न जाने, ते भ्राता जानाति । तदनु तन्निकटं जगाम । तेन मायया प्रणम्यावादि हे भ्रातः, किमित्यागतोऽसि । यापन कर रहा था । एक समय धनपति सेठके घरपर चर्यामार्गसे श्रीधर मुनि पधारे। तब उसने उनका पडगाहन करके निरन्तराय आहार दिया। तत्पश्चात् उसने उनसे प्रश्न किया कि मेरी पत्नीके पुत्र होगा अथवा नहीं ? उत्तरमें मुनिने कहा कि हाँ, उसके अतिशय पुण्यशाली पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुनकर कमलश्रीको बहुत सन्तोष हुआ। तदनुसार उसे कुछ दिनों में पुत्रकी प्राप्ति हुई भी। सेठके यहाँ पुत्रका जन्म होनेपर राजादिकोंने उत्साह प्रगट किया-उत्सव मनाया। उसका नाम भविष्यदत्त रखा गया। वह समस्त कलाओंमें कुशल होकर वृद्धिको प्राप्त हुआ।
___एक समय सेठने निर्दोष होनेपर भी उस कमलश्रीको घरसे निकाल दिया। तब वह जन्मान्तरमें उपार्जित कर्मके फलको भोगती हुई अपने हरिवल और लक्ष्मीमती नामक माता-पिताके घरपर रही । वहींपर एक वरदत्त नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम मनोहरी था । इनके एक सुरूपा नामकी पुत्री थी। उसके साथ धनपति सेठने अपना विवाह कर लिया था । उसके एक वन्धुदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। पिताके लिए अतिशय प्यारा वह पुत्र समस्त कलाओं में प्रवीण होकर जवान हो गया। तब पिता उसका विवाह करनेके लिए उद्यत हुआ । परन्तु उसने कहा कि मैं अपने कमाये हुए धनसे विवाह करूंगा, अन्यथा नहीं; यह प्रतिज्ञा करके वह पाँच सौ वैश्यपुत्रोंके साथ दूसरे द्वीपको जानेकी तैयारी करने लगा। उसके द्वीपान्तर जानेके समाचारको जानकर भविष्यदत्तने अपनी माँ से कहा कि मैं बन्धुदत्तके साथ द्वीपान्तरको जाऊँगा । यह सुनकर कमलश्रीने कहा कि वह तुम्हारा सौतेला भाई है, इसलिए उसके साथ जाना योग्य नहीं है। इसपर भविष्यदत्तने उससे कहा कि सौतेला भाई होनेपर भी मैं उसके साथ द्वीपान्तरको जाऊँगा । तब कमलश्रीने पूछा कि पूँजीके बिना तू कैसे द्वीपान्तरको जावेगा ? इसपर भविष्यदत्तने उत्तर दिया कि मैं पिताके पाससे द्रव्य माँगकर जाऊँगा। तदनुसार उसने पिताके पास जाकर उससे द्रव्यकी याचना की । परन्तु पिताने यह कह दिया कि मैं नहीं जानता हूँ, तेरा भाई ( बन्धुदत्त ) जाने । तत्पश्चात् वह बन्धुदत्तके पासमें गया । उसने कपटपूर्वक नमस्कार करते हुए भविष्यदत्तसे पूछा कि हे भ्रात ! तुम किस कारणसे यहाँ आये हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं
१. ५ मत्प्रियाया। २. फ युवा च बभूव । ३. फ सापत्नो। ४. श 'गहीत्वा' नास्ति ।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-२, ३५ : भविष्यदत्तोऽवदत्त्वया सह द्वीपान्तरं यास्यामि', किंचिद्भाण्डं देहि । बन्धुदत्त उवाच ममापि त्वं स्वामी किं नु द्रव्यस्य, यावदिष्टं तावद्गृहाणेति भाण्डमदत्त । ततः सुमुहूर्ते बन्धुदत्तेन सह चचाल । मार्गे एकस्मिन् अरण्ये शिबिरं विमुच्य स्थितः सार्थः । अर्धरात्रौ भिल्लैरागत्य शिबिरे गृह्यमाणे बन्धुदत्तादयः सर्वेऽपि पलायिताः । भविष्यदत्तो युयुधे, जिगाय लब्धप्रशंसो बभूव ।
ततो बहुधान्यखेटवेलापत्तनं जगाम सार्थः । तत्र प्रभावत्यभिधाप्रसिद्धा वेश्या । तस्या ग्रहणं दत्त्वा भविष्यदत्तस्तद्गृहे तस्थौ । बन्धुदत्तो मौल्येन गृहीतवहित्रेषु भाण्डं निक्षिप्य वहित्रप्रेरणावसरे भविष्यदत्तमाह्वाप्य वहित्रमारोप्य तानि प्रेरयामास । दिनान्तरैस्तिलकद्वीपमवाप। तत्र जलकाष्ठसंग्रहार्थं जलयानपात्राणि स्थिरीचकार । तत्र कैश्चिद् रन्धितं प्रारब्धं कैश्चिजलादिकं वहिने निक्षिप्तं यदा तदा भविष्यदत्तोऽटव्यामटन् सरो ददश। तत्र सस्नो जिनं स्तुतवान् तस्थौ। इतः काष्ठादिकं संगृह्य भुक्त्वा च जलयानप्रेरणावसरे वणिभिरुक्तं भविष्यदत्तो न दृश्यत इति । तदा बन्धुदत्तो मनसि जहर्ष, बभाषे चात्र सिंहादिभयमस्ति, यापयन्तु वहित्राणि । यापितेषु भविष्यदत्त आगत्य तानपश्यन् मातृवचनं स्मृत्वैकत्वादिकं भावयन्नटव्यां यावदटति तावद्वटतरोरधोऽधोगतां सोपानपङक्ति लुलोके । तुम्हारे साथ द्वीपान्तरको चलना चाहता हूँ, इसके लिए तुम मुझे कुछ द्रव्य दो । इसपर बन्धुदत्तने कहा कि तुम मेरे भी स्वामी हो, फिर भला द्रव्यकी क्या बात है ? जितना द्रव्य तुम्हें अभीष्ट हो ले लो । यह कहकर उसने भविप्यदत्तको धन दे दिया। तत्पश्चात् वह शुभ मुहूर्तमें बन्धुदत्तके साथ चला गया । वह व्यापारियोंका समूह मार्गमें एक वनके भीतर तम्बू डालकर ठहर गया । तब वहाँ आधी रातमें कुछ भीलोंने आकर उसपर आक्रमण कर दिया। इससे भयभीत होकर बन्धुदत्त आदि सब ही भाग गये । परन्तु भविष्यदत्तने उनके साथ युद्ध करके उन सबको जीत लिया। इससे उसकी खूब प्रशंसा हुई।
तत्पश्चात् वह व्यापारियोंका संघ वहुधान्यखेट वेलापत्तनको गया। वहाँ एक प्रमावती नामकी प्रसिद्ध वेश्या थी। भविष्यदत्त भाड़ा देकर उसके घरपर ठहर गया। इधर बन्धुदत्तने मूल्य देकर कुछ नावोंको खरीदा और उनमें द्रव्यको रक्खा। तत्पश्चात् उसने नावोंको खोलते समय भविष्यदत्तको बुलवाकर उसे नावके ऊपर बैठाया और तब उन्हें चला दिया। कुछ दिनों में वह संघ तिलक द्वीपमें पहुँचा। वहाँपर जल और ईंधनका सग्रह करनेके लिए उन नावोंको रोक दिया गया। तब किन्हीं पुरुषोंने भोजन बनाना प्रारम्भ किया तो कितने ही नावोंमें जलादिको रखने लगे। जब इधर यह कार्य चल रहा था तब भविष्यदत्तने वनमें घूमते हुए वहाँ एक सरोवरको देखा । उसमें स्नान करके वह जिन भगवान्की स्तुति करता हुआ वहाँ ठहर गया। इधर इन्धनादिका संग्रह और भोजन करके जब नावोंके छोड़नेका अवसर हुआ तब वैश्योंने कहा कि भविष्यदत्त नहीं दिखता है । यह जान करके बम्धुदत्तको मनमें बहुत हर्ष हुआ। वह बोला कि यहाँ सिंहादिकोंका भय है, अतएव नावोंको चलने दो। नावोंके चले जानेपर जब भविष्यदत्त वहाँ आया तब वह नावोंको न देखकर माताके उस वचनकी याद करने लगा। तत्पश्चात् वह एकत्वादि भावनाओंका विचार करता हुआ उस वनमें कुछ आगे गया । वहाँ उसे एक वट
१. ज फ श द्वोपान्तरमायास्यामि। २. ज प व श 'तु' । ३. श आरण्ये । ४. फ श 'सार्थः' नास्ति । ५. फ मारोप्य प्रे० ब मारोपितानि । ६. ज भविष्यदत्तो मटन् । ७. फ स्तुवन् । ८. श तान् पश्यन् ।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-२, ३५ ]
५. उपवासफलम् २
१८६
जलाशया यावदधोऽवतरति तावत् कियदन्तुरे भूमेरन्तः स्थितं पुरमपश्यत्तच्चोद्वसेम् । तदीशानकोणे स्थितं जिनालयं वीक्ष्यातिहृष्टस्तद्द्द्वारे तस्थौ जिनं तुष्टाव । तदा तत्कपाटः स्वयमेवोदघाटितः । तत्र पञ्चाशदधिकशतचापच्छ्रिति चन्द्रकान्तरत्नमयीं प्रतिमामभीच्य प्रहसिताननोऽपूर्व चैत्यालयदर्शनक्रियां चकार । तन्मत्तवारणे उपविश्य यावदास्ते तावदन्यकथान्तरमासीत् ।
तत्कथमित्युक्तेऽत्रैव द्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीपुराद्वहिः स्थितयशोधरतीर्थ कृत्समवसरणेऽच्युतेन्द्रेण विद्युत्प्रभेण गणधरदेवः पृष्टः पूर्वभवस्य मम मित्रं धनमित्रः क्वोत्पन्नः कथं तिष्ठतीति । गणभृदवादीदत्रैव भरते हस्तिनापुरे वैश्यधनपति कमलश्रियोः पुत्रो भविष्यदत्तोऽजनि । संप्रति तिलकद्वीपस्थहरिपुरे चन्द्रप्रभजिनालये तिष्ठति । स च तत्पत्यरिंजयचन्द्राननयोः पुत्र भविष्यानुरूपां तत्पतिपूर्वभवविरोधि कौशिकचरराक्षसेन तत्रत्यराजादिजनमारणे रक्षितां परिणीय द्वादशवर्षे बन्धूनां' मिलिष्यतीति । ततोऽच्युतेन्द्रोऽमितवेगदेवं तत्र प्रस्थापयामास भविष्यदत्तभविष्यानुरूपयोर्यथा परस्परं दर्शनं
वृक्षके नीचे उत्तरोत्तर नीचे गई हुई सीढ़ियोंकी एक पंक्ति दिखी । वह जब जलप्राप्तिकी आशा से नीचे उतरा तो उसे कुछ दूर जानेपर भूमिके भीतर स्थित एक पुर दिखा जो कि वीरान था । उसके ईशान कोण में स्थित जिनालयको देखकर उसे अत्यन्त हर्ष हुआ। वह उसके द्वारपर स्थित होकर जिनेन्द्रकी स्तुति करने लगा । उस समय उसका बन्द द्वार स्वयं ही खुल गया । उसके भीतर डेढ़ सौ धनुष प्रमाण ऊँची चन्द्रकान्तमणिमय प्रतिमाको देखकर उसका मुखकमल विकसित हो उठा। तब उसने अपूर्व चैत्यालयका विधिपूर्वक दर्शन किया । फिर वह उसके छज्जेपर जाकर बैठ गया । इस प्रसंग में यहाँ एक दूसरी कथा प्राप्त होती है जो इस प्रकार है
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देशके भीतर पुण्डरीकिणी पुरी है । उसके बाहिर यशोधर तीर्थंकरका समवसरण स्थित था । वहाँ विद्युत्प्रभ अच्युतेन्द्र ने गणधर देवसे पूछा कि मेरा पूर्वजन्मका मित्र धनमित्र कहाँ उत्पन्न हुआ है और किस प्रकारसे है ? गणधर बोलेइसी जम्बूद्वीप भीतर भरत क्षेत्र में एक हस्तिनापुर नामका नगर है । वहाँ वैश्य धनपति और कमलश्री दम्पति रहते हैं । वह इन दोनोंके भविष्यदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ है । इस समय वह तिलक द्वीपके भीतर स्थित हरिपुरमें चन्द्रप्रभ जिनालय में स्थित है । उक्त हरिपुरके राजाका नाम अरिंजय और रानीका नाम चन्द्रानना था। इनके एक भविष्यानुरूपा नामकी पुत्री थी । एक कौशिक नामका पूर्व भवका तापस उस नगरके स्वामीका शत्रु था जो मरकर राक्षस हुआ था । उसने वहाँ के राजा आदि सब जनोंको मार डाला था । एक मात्र भविष्यानुरूपा ही ऐसी थी जिसकी कि उसने रक्षा की थी । भविष्यदत्त इस राजपुत्रीके साथ विवाह करके बारह वर्षों में कुटुम्बी जनोंसे मिलेगा । गणधर के इस उत्तरको सुनकर उस अच्युतेन्द्रने वहाँ अमितवेग नामक देवको भेजते हुए उसे यह आदेश दिया कि भविष्यदत्त और भविष्यानुरूपाका जिस प्रकार से सम्मिलन हो सके, ऐसी व्यवस्था करो । तदनुसार उक्त देवने वहाँ जाकर देखा तो वह भविष्य -
१. श तच्चोद्धसम् । २. प वीक्ष्य अतिहृष्टस्सन् द्वारे श वीक्षस्ततः द्वारे । ३. श वोद्घटितः । ४. जपफशचापोछति । ५. ब मोक्ष्य । ६. व श विरोध । ७. प रक्षताम् फ रक्षिता तां । ८ प ब शवर्षे बन्धूनाम् । ९. ब मेलयिष्यतीति ।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९० पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-२, ३५: भवति तथा कुरु' इति । स तत्र गत्वा तं निद्रितं द्रष्टवा भविष्यदत्तो यत्र पश्यति तत्रेदं वाक्यं लिखित्वा जगाम। किं तद्वाक्यम् । भविष्यदत्त एतत्पुरपयरिंजय-चन्द्राननयोरुत्पन्नां भविष्यानुरूपां एकामेव राजभवने राक्षसेन रक्षितां परिणीय द्वादशवर्षेः वन्धूनां मिलिष्यतीति । एतद् दृष्ट्वा भविष्यदत्तो राजभवनं जगाम । गवेषयन्नपवरकान्तर्गवाक्षजालेन कन्यामपश्यत् । भविष्यानुरूपे द्वारमुद्घाटयेत्युक्ते सोद्घाटयाञ्चकार । तदनु त्वं क इत्युक्ते सोs. वोचत्कश्चिद्वैश्यपुत्रोऽहं मार्गे गच्छन्नागत इति । तया तन्मजनभोजनाद्यनन्तरमवादि, हे युवनत्रत्य राजादिजनान् कश्चिद्राक्षसो मारयित्वा मां रक्षति स्म । इमानि विचित्ररूपाणि मम प्रेषणकरणे समय॑ गतः । इमानि मे भोजनादिना समाधानं कुर्वन्ति । सो षण्मासेषु षण्मासेष्वागत्यावलोक्य गच्छत्यग्रे सप्तमदिने प्रागमिष्यति । यावत्स नागच्छति तावद् गच्छेति । स तत्प्रतापं पश्यामि, न गच्छामीत्युक्त्वाऽस्थात् । सापि स्वकन्याव्रतेन तस्थौ । आगतो राक्षसस्तं विलोक्य तत्पादयोर्लग्नः। कन्यामदत्त त्वभृत्योऽहं स्मरणे आगच्छामीति भणित्वा स्वर्लोकं गतः । भविष्यदत्तभविष्यानुरूपे तत्र सुखेन तस्थतुः।
इतः कमलश्रीः सुतं स्मृत्वा दुःखिनी जो दुःखविनाशार्थ सुव्रतार्जिकासकाशे श्री
दत्त सो रहा था। तब उसने जहाँपरभविष्यदत्त की दृष्टि पहुँच सकती थी वहाँ ( खित्तिके ऊपर ) यह वाक्य लिख दिया-भविष्यदत्त इस पुरके स्वामी अरिंजय और चन्द्राननाकी पुत्री भविष्यानुरूपाके साथ, जो एक मात्र इस राजभवन में राक्षसके द्वारा रक्षित है, अपना विवाह करके बारह वर्षों में जाकर अपने कुटुम्बी जनोंसे मिलेगा । यह लिखकर वह वापिस चला गया । इस लेखको देखकर भविष्यदत्त राजभवनमें गया। वहाँ खोजते हुए उसने शयनागारके झरोखेसे जब उस कन्याको देखा तब वह बोला कि हे भविप्यानुरूपे ! द्वारको खोलो। इसपर उसने द्वारको खोल दिया । तत्पश्चात् कन्याने उससे पूछा कि तुम कौन हो ? उसने उत्तरमें कहा कि मैं एक वैश्य पुत्र हूँ और मार्गमें जाते हुए यहाँ आया हूँ। तत्पश्चात् वह भविष्यदत्तको स्नान व भोजन आदि कराकर उससे बोली कि किसी राक्षसने यहाँके राजा आदि समस्त जनोंको मारकर केवल मेरी रक्षा की है। वह मेरी सेवाके लिए इन विचित्र रूपोंको देकर चला गया है। ये रूप भोजनादिके द्वारा मेरा समाधान करते हैं। वह छह छह मासमें यहाँ आकर मुझे देख जाता है । अब आगे वह सातवें दिनमें यहाँ आवेगा। वह जबतक यहाँ नहीं आता है तब तक तुम यहाँसे चले जाओ। यह सुनकर उसने कहा कि मैं नहीं जाता हूँ, उसके प्रतापको देखना चाहता हूँ। यह कहकर वह वहींपर ठहर गया । भविष्यानरूपा भी अपने कन्यावतके साथ-अपने शीलको सुरक्षित रखती हुई-स्थित रही। समयानुसार वह राक्षस वहाँ आया और भविष्यदत्तको देखकर उसके पैरोंमें पड़ गया। तत्पश्चात् वह उसे उक्त कन्याको देकर बोला कि मैं आपका दास हूँ, जब आप मेरा स्मरण करेंगे तब मैं आया करूँगा; यह कहकर वह स्वर्गलोकको चला गया। भविष्यदत्त और भविप्यानुरूपा दोनों सुखपूर्वक वहींपर स्थित रहे ।
उधर भविष्यदत्तकी माता कमलश्री पुत्रका स्मरण करके बहुत दुखी हुई। उसने इस
१.प कूवन्ति शकूविते । २. जब गत्वा भविष्यदत्तो श गत्वा तं निनिद्रितं द्रष्टा भविष्यदत्तो । ३. श पश्यति तत्र भित्तो तत्रेदम् । ४. ज प ब वर्षे बन्धूनाम् । ५. प फ श°द्यनन्तरं सावादि । ६. ज युवस्तअत्य, फ युवन्नत्र । ७. श इमानि चित्र । ८.फ प्रेक्षण । ९. श सप्तदिने । १०. श त्वदर्भहम ।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. उपवासफलम् २
१६१
: ५-२, ३५ ] पञ्चमीविधानमादाय तिष्ठन्ती' स्थिता । इतो द्वादशवर्षानन्तरं भविष्यानुरूपा तमपृच्छद्यथा मम कोऽपि नास्ति तथा तवापि किं कोऽपि नास्ति । तेनाभाणि हस्तिनापुरे पित्रादयः सन्ति । तत्र गमनोपायः क इत्युक्ते भविष्यदत्तः सारीभूतरत्नराशि समुद्रतटे चकार । ध्वजमुख्य दिवा तया सह तत्र तिष्ठति । कतिपयदिनैः स बन्धुदत्तो चौरापहृतद्रव्यो वहित्राणि पाषाणै: पूरयित्वा व्याघुटितस्तेन पथा गच्छन् ध्वजोपेतं रत्नपुञ्जमावीदयं तत्रागतो भविष्यदत्तं ददर्श । मायया महाशोकं चकार ववाद च 'दूरं गतेषु वहित्रेषु त्वामपश्यन् मूच्छितोऽतिदुःखी जातो वहित्राणि वायुवशेन न व्याघुटन्ते । ततो गतोऽहं तत्फलं प्राप्तः' इति । ततस्तं संबोध्य सर्वान् पुरमवीविशत् । भोजनादिना तेषां पथश्रमेऽपहारे सति रत्नैर्वहित्राणि विभृत्य भविष्यानुरूपां वहित्रमारोप्य स्वयं यदारोहति तदा तयोक्तं हे नाथ, गरुडोद्गारमुद्रिकां रत्नप्रतिमां च व्यस्मरमिति । ततो भविष्यदत्तस्तदर्थे [ थं ] व्याघुटे । तदा बन्धुदत्तोऽहो यद्वहित्रे यद् द्रव्यमस्ति तत्तस्यैव ममानया कन्ययानेन द्रव्येण च पूर्यते इति भणित्वा तानि प्रेरयामास । तदा सा मूच्छितातिबहुशोकं चक्रे । तस्मिन्नवसरे बन्धुदत्तेनानेकप्रकारविकारैरुपसर्गे क्रियमाणे सात्मनः क्रियां क्रियमाणामवलोक्य' भविष्यानुरूपा त्रस्ता दुखको नष्ट करनेके लिए सुत्रता आर्यिकाके पास जाकर पञ्चमीव्रतके विधानको ग्रहण कर लिया और तब वह इस व्रत का पालन करती हुई स्थित रही । इधर बारह वर्षोंके बीतने पर भविष्यानुरूपाने भविष्यदत्तसे पूछा कि जिस प्रकार मेरे कोई बन्धुजन नहीं है उसी प्रकार आपके भी क्या कोई नहीं है ? इसपर भविष्यदत्तने कहा कि हस्तिनापुर में मेरे पिता आदि कुटुम्बी जन हैं । तब भविष्यदत्ता बोली कि वहाँ जानेका उपाय क्या है ? इसपर भविष्यदत्तने समुद्र के किनारेपर श्रेष्ठ रत्नों की राशि की । फिर वह ध्वजाको फहराकर दिनमें भविष्यानुरूपा के साथ वहीं रहने लगा । कुछ ही दिनों में वह बन्धुदत्त लौटकर वहाँ आया । उसके सब धनको मार्ग में चोरोंने लूट लिया था । अतएव वह नावों को पत्थरोंसे भर कर लाया । मार्ग में जाते हुए उसने ध्वजाके साथ रत्नसमूहको देखा । उसे देखकर वह यहाँ आया तो देखता है कि भविष्यदत्त बैठा हुआ है । तब वह भविष्यदत्त के सामने पसे परिपूर्ण महान् शोकको प्रदर्शित करते हुए बोला कि जब नौकाएँ बहुत दूर चली गईं तब वहाँ तुमको न देखकर मुझे मूर्छा आ गई। उस समय मुझे अतिशय दुःख हुआ । मैंने नौकाओंको वापिस ले आनेका प्रयत्न किया, परन्तु प्रतिकूल वायुके कारण वे वापिस नहीं आ सकीं । इस प्रकार मुझे बाध्य होकर आगे जाना पड़ा। उसका फल भी मुझे प्राप्त हो चुका है - कमाया हुआ सब धन चोरों द्वारा लूट लिया गया गया है । यह सुनकर भविष्यदत्त बन्धुदत्त को समझा बुझाकर उन सबको नगरके भीतर ले गया । वहाँ उसने भोजनादिके द्वारा उन सबके मार्गश्रमको दूर किया । फिर उसने नावोंको उन रत्नोंसे भरकर भविष्यानुरूपाको नावके ऊपर बैठाया । तत्पश्चात् जब वह स्वयं भी नावके ऊपर चढ़ने लगा तब भविष्यानुरूपाने कहा कि हे नाथ ! मैं गरुडोद्गार अंगूठी और रत्नमय प्रतिमाको भूल आई हूँ । तत्र भविष्यदत्त उनको लेनेके लिए वापिस गया । इधर बन्धुदत्तने 'अहो, जिसकी नावमें जो द्रव्य हैं वह उसका ही है' मेरे लिए तो यह कन्या और यह द्रव्य पर्याप्त हैं; यह कहते हुए उन नावोंको छुड़वा दिया ।
१. पशमादाय यावत्तिष्ठन्ती । २ ज पुंजमभवीष्य, प ब पुंजमवीक्ष्य, श पुंजमवीक्षत । ३. ब श्रममपहारे [ श्रमेऽपहृते ] । ४. ज व व्याजघुटे । ५. ज प कन्यया तेन । ६. श प्रकारविकारविकारै । ७. ज सर्गे क्रियमाणेमवलोक्य प रुपसर्गे क्रियमाणमवलोक्य |
О
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
पुण्यात्रकथाकोशम्
[ ५-२,३५ :
अयं महापापी कदाचिद्बलात्कारेण शीलखण्डनं करोति तदा विरूपमिति चिन्तयन्ती समुद्र' निक्षेपणं दध्यौ । तदासनकम्पेन जलदेवतागत्य वहित्राणि निमज्जितुं लग्ना । तदा स भीतस्तूष्णीं स्थितोऽन्यवणिग्भिः हे महासति, क्षमस्व क्षमस्वेति क्षमिता । सैव यथा शृणोति तथा जलदेवतयोक्तं हे सुन्दरि, तव पतिना मासद्वयेन संयोगो भविष्यति, मा दुःखं कुर्विति । ततः सा मूकीभूय तस्थौ । कतिपयदिनैः स्वपुरं प्रविश्य बन्धुदत्तः पितरं प्रत्यवददहं तिलकद्वीपमाम् । तत्र हरिपुरेश भूपाल सुरूपयोरुत्पन्नेयं कन्या । राजा सपरिवारो वनक्रीडार्थमटवीमैदहमपि तेन गतः । तत्रातिरौद्रः सिंहो राशः संमुखमागतः । तं दृष्ट्वा नष्टः परिजनो मया स हत इति' राजा तुष्टः कन्यां मह्यम् अदत्त । मया परिणयनार्थं तवान्तिकमानीता । इयं पित्रोर्वियोगेन मूकीभूत्वा तिष्ठति । यज्जानासि तत्कुरु । ततो धनपत्यादयो नानाप्रकारैस्तां संबोधयन्तस्तस्थुः । सा कथमपि न वक्ति । कमलश्रीरागत्य बन्धुदत्तस्याशिषां' निक्षिप्यापृच्छद्भविष्यदत्तस्य शुद्धिम् । स बहुधान्यखेटे प्रभावतीगृहे तिष्ठतीति ववाद । ततोऽतिदुःखिता बभूव । तत्रैकदागतं विनयंधर केवलिनं पप्रच्छ भविष्यदत्तः कदागमिष्यति । तेनोक्तं मासे आगमिष्यति, ततः कमलश्रीः संतुतोष ।
·
यह देखकर भविष्यानुरूपा मूच्छित हो गई। उस समय उसने बहुत पश्चात्ताप किया। इस अवसरपर जब बन्धुदत्तने अनेक प्रकारके विकारोंको करके उसके ऊपर उपसर्ग करना प्रारम्भ किया तब भविष्यानुरूपा बन्धुदत्तके द्वारा अपने प्रति किये जानेवाले इस दुर्व्यवहारको देखकर बहुत दुखी हुई। उसने विचार किया कि यह महा पापी है, यदि कदाचित् इसने बलात्कार करके मेरे शीलको खण्डित कर दिया तो यह अयोग्य होगा; यह सोचते हुए उसने अपने आपको समुद्र में डाल देनेका विचार किया । तब आसनके कम्पित होनेसे जलदेवताने आकर उन नावोंको डुवाना प्रारम्भ कर दिया । तब बन्धुदत्त भयभीत होकर खामोश रहा । परन्तु अन्य वैश्योंने हे सती ! क्षमा कर क्षमा कर, यह कहते हुए उससे क्षमा कराई। फिर वह जलदेवता केवल वही जिस प्रकारसे सुन सके इस प्रकारसे बोला कि हे सुन्दरी ! तेरा पतिके साथ संयोग दो मास में होगा, तू दुःख मत कर । तबसे भविष्यानुरूपाने मौन ले लिया । कुछ दिनों में जब वह बन्धुदत्त अपने नगरके भीतर पहुँचा तब वह पिता से बोला कि मैं तिलक द्वीपको गया था । उस द्वीपमें स्थित हरिपुरके राजा भूपाल और रानी सुरूपाकी यह कन्या है । राजा परिवार के साथ वनक्रीड़ाके लिए वनमें गया था, उसके साथ मैं भी गया था । वहाँ राजाके सामने अतिशय भयानक सिंह आया । उसे देखकर परिवार के लोग भाग गये । तत्र मैंने उस सिंहको मार डाला । इससे राजाने सन्तुष्ट होकर मुझे यह कन्या दी है। मैं उसे विवाह के निमित्त आपके पास लाया हूँ । इसने माता-पिता के वियोग में मौन ले लिया है। अब आप जैसा उचित समझें, करें । तत्र धनपति सेठ आदिने उसे अनेक प्रकार से समझानेका प्रयत्न किया । किन्तु वह किसी भी प्रकारसे नहीं बोली । कमलश्रीने आकर बन्धुदत्तको आशीर्वाद देते हुए उससे भविष्यदत्तके विषय में पूछा । उत्तर में उसने कहा कि वह बहुधान्यखेटमें प्रभावती वेश्या के घर में स्थित है । यह सुनकर कमलश्रीको भारी दुख हुआ । एक समय वहाँ विनयंधर केवली आये । तब कमलश्रीने उनसे पूछा कि भविष्यदत्त कच आवेगा ? केवलोने उत्तर दिया कि वह एक मासमें आ जावेगा । इससे कमलश्रीको सन्तोष हुआ ।
1,
१. ज प क शन्ती सात्मनः समुद्रे । २ ज 'मायम् प फ श मायाम् । ३. ज ब स हतं इति श सह स्थित इति । ४. जप बश मह्यं दत्त [ मह्यमदात् ] । ५. फ 'न' नास्ति । ६. ज स्याशेषां ।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-२, ३५] ५ उपवासफलम् २
१६३ इतो भविष्यदत्तो मुद्रिकादिकमानीय तामपश्यन् मूच्छितो महता कष्टेनोन्मूञ्छितो भूत्वा वस्तुस्वरूपं भावयन् राजभवन एव तस्थौ। मासद्वयानन्तरं पुनरच्युतेन्द्रेण मन्मित्रं कथं तिष्ठतीति चिन्तितम् । तदवस्थां विबुध्य तदनु स माणिभद्रदेवं तत्र प्रस्थापयामास 'भविष्यदत्तं तन्मातृगृहं नय' इति । ततस्तेन दिव्यविमानमध्यारोप्य विचित्ररत्नादिभिः रात्रौ नीत्वा हरिबलगृहद्वारे व्यवस्थापितः। स च मातामहादीनां संतोषमुत्पाद्य भविष्यानुरूपा वार्तामपृच्छत् । कमलश्रिया स्वरूपे निरूपिते प्रातर्मुद्रिकां तस्या दर्शयेति मातरं तदन्तिकं प्रस्थाप्य स्वयं राजभवनं ययौ, राशस्तवृत्तान्तमचीकथत् । राजा तमपवरकान्तं निधाय धनपतिम् , बन्धुदत्तेन गतवणिजो बन्धुदत्तमप्याहूय पृष्टवान् भविष्यदत्तशुद्धिम् । बन्धुदत्तोऽकथयत् बहुधान्यखेटे प्रभावतीगृहे तिष्ठति । सहगतवणिग्भिर्यथावत्कथिते धनपतिरवत एते बन्धुदत्तं न सहन्ते, एतद्वचनं न प्रमाणमिति । ततो राजा भविष्यदत्त, आगच्छेत्युक्तवान् । तदाऽपवरकान्निर्गत्य राजानं पितरं च ननामोपविवेश, सभान्तराले यथावद्वत्तमचीकथञ्च । तदनु नरेशो धनपति बन्धुदत्तं च कारायां चिक्षेप, भविष्यदत्तो मोचयति स्म । राजा भविप्यानुरूपां मुद्रिकादर्शनेन पतेरागमनं विबुध्य पुलकितशरीरां स्पष्टालापां स्वभवनमानीय तया
इधर भविष्यदत्त मुद्रिका आदिको लेकर जब वहाँ आया तो वह भविष्यानुरूपाको न देखकर महान् दुखसे मूर्छित हो गया। फिर जिस किसी प्रकारसे सचेत होनेपर वह वस्तुस्थितिका विचार करता हुआ उस राजभवनमें ही स्थित हो गया । तब दो मासके पश्चात् उस अच्युतेन्द्रने 'वह मेरा मित्र किस प्रकारसे अवस्थित है' इस प्रकार अपने मित्रके विषयमें फिरसे विचार किया। उसकी पूर्वोक्त अवस्थाको जानकर अच्युतेन्द्रने वहाँ माणिभद्र देवको भेजते हुए उसे भविष्यदत्तको उसकी माताके घर ले जानेका आदेश दिया। तदनुसार वह देव उसे रात्रिके समय दिव्य विमानमें बैठाकर अनेक प्रकारके रत्नादिकोंके साथ ले गया और हरिबलके द्वारपर पहुँचा आया । वहाँ पहुचकर भविष्यदत्तने अपने नाना आदिको सन्तुष्ट करके भविष्यानुरूपाकी बात पूछी। तब अपनी माता कमलश्रीसे वस्तुस्थितिको जानकर उसने उसे अंगूठी देते हुए कहा कि इसे प्रातः कालमें भविष्यानुरूपाके पास ले जाकर उसको दिखलाओ। साथ ही उसने स्वयं राजभवन में जाकर भविष्यानुरूपाके उक्त वृत्तान्तको राजासे कहा । इसपर राजाने उसे एक कोठरीके भीतर रखकर धनपति, बन्धुदत्तके साथ द्वीपान्तरको गये हुए वैश्यों और स्वयं बन्धुदत्तको भी बुलाकर उनसे भविष्यदत्तके सम्बन्धमें पूछ-ताछ की। तब बन्धुदत्तने कहा कि वह बहुधान्यखेटमें प्रभावती वेश्याके घर में है। तत्पश्चात् जब बन्धुदत्तके साथ गये हुए उन वैश्योंने राजासे यथार्थ वृतान्त कहा तब धनपति सेठ बोला कि ये लोग बन्धुदत्तके साथ ईर्ष्या करते हैं, इसलिए इनका वचन प्रमाण नहीं है । यह सुनकर राजाने उस भविष्यदत्तसे कहा कि हे भविष्यदत्त ! अब तुम बाहिर आ जाओ। तव भविष्यदत्त कोठरीसे बाहिर आया और राजा एवं पिताको प्रणाम कर वहाँ बैठ गया। तत्पश्चात् उसने सभाके मध्यमें उस समस्त घटनाको यथार्थरूपमें कह दिया। इससे राजाने धनपति सेठ और बन्धुदत्त इन दोनोंको ही कारागारमें रख दिया। परन्तु भविष्यदत्तने उन्हें उससे मुक्त करा दिया। उधर भविप्यानुरूपाने जब कमलश्रीके पास उस अंगूठीको देखा तब भविप्यदत्तके आगमनको जानकर उसका शरीर रोमांचित हो गया। तब वह स्पष्ट-भाषिणी हो
१. फ 'तत्र' नास्ति । २. श रत्नाभिः । ३. फ कारागारायां ।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९४
पुण्यात्रकथाकोशम्
[ ५-२३५ :
स्वपुत्र्या सुरूपया च परिणाय्यार्धराज्यमदत्त । ततो भविष्यदत्तो राजा ताभ्यां भोगाननुभवन् पित्रादीनां भक्तिं कुर्वन् सुखेन तस्थौ । एकदा भविष्यानुरूपा देवी गर्भसंभूतौ दोहलके हरिपुरचन्द्रप्रभजिनालयदर्शनमभिललाष । भर्तुर्न निरूपयति संक्लेशभयात्स्वयं तदप्राप्त्या कृशा बभूव । तदा कश्चिद्विद्याधरः समागत्य तां ननाम, अवदत् - एहि, हरिपुरचन्द्रप्रभनाथजिनालयं द्रष्टुमिति । तदा भूपाल भविष्यदत्त-भविष्यानुरूपादयो भव्यास्तत्र जग्मुः । अष्टदिनानि तत्प्रभृतितत्रत्यजिनालयानां पूजां विधाय स्वपुरागमनावसरे तत्र गगनगतिनाम - चारणोऽवतीर्णः । सर्वे ववन्दिरे । ततो भविष्यदत्तः पृच्छति स्म - - हे मुने, अकस्मादयं भविष्यानुरूपां नत्वात्र किमित्यानीतवानिति ।
मुनिराह - त्रैार्यखण्डे पल्लवदेशे काम्पिल्ले राजा महानन्दो देवी प्रियमित्रा मन्त्री वासवो भार्या केशिनी पुत्रौ वङ्कसुवङ्कौ पुत्री अग्निमित्रा । सा अग्निमित्रनामपुरोहिताय दत्ता । तं पुरोहितं प्राभृतेन समं कस्यचिद्भ पस्य निकटे प्रस्थापयति स्म राजा । स च बहूनि दिनानि नागच्छतीति सचिन्तो नृपस्तत्रैकदागतं सुदर्शनमुनिं पप्रच्छाग्निमित्रः कि नागच्छति । गई। राजाने उसे राजभवन में बुलाकर उसके साथ तथा अपनी पुत्री सुरूपाके साथ भी भविष्यदत्तका विवाह कर दिया। साथ ही उसने भविष्यदत्त के लिए अपना आधा राज्य भी दे दिया । तत्पश्चात् राजा होकर वह भविष्यदत्त अपनी दोनों पत्नियों के साथ सुखानुभवन करता हुआ सुखपूर्वक रहने लगा । वह पिता आदि गुरुजनोंका निरन्तर भक्त रहा ।
कुछ समय के पश्चात् भविष्यानुरूपाके गर्भाधान होनेपर उसे दोहल के रूपमें हरिपुर में स्थित चन्द्रप्रभ जिनालयके दर्शन की इच्छा उत्पन्न हुई । परन्तु उसने पतिको संक्लेश होनेके भयसे उससे अपनी इच्छा नहीं प्रगट की । उक्त इच्छाकी पूर्ति न हो सकनेसे वह स्वयं कृश होने लगी । उस समय किसी विद्याधरने आकर उसे नमस्कार करते हुए कहा कि हरिपुरस्थ चन्द्रप्रभजिनालयका दर्शन करनेके लिए चलो । तब भूपाल राजा, भविष्यदत्त और भविष्यानुरूपा आदि भव्य जीव उक्त जिनालयका दर्शन करने के लिए हरिपुर गये । वहाँ उन सभीने आठ दिन तक उस चन्द्रप्रभ जिनालयको आदि लेकर वहाँ के सब ही जिनालयों की पूजा की। पश्चात् जब वे अपने नगरको वापिस आने लगे तब आकाश मार्गसे एक गगनगति नामक चारण मुनि नीचे आये । उनकी सबने बन्दना की । पश्चात् भविष्यदत्तने पूछा कि हे साधो ! यह विद्याधर अकस्मात् भविष्यानुरूपाको नमस्कार करके यहाँ क्यों आया है ? मुनि बोले
इसी आर्यखण्ड में पल्लव देशके भीतर काम्पिल्ल नगर में महानन्द नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम प्रियमित्रा था । उसके वासव नामका मन्त्री था । मन्त्रीकी पत्नीका नाम केशिनी था । इनके वंक और सुवंक नामके दो पुत्र तथा अग्निमित्रा नामकी एक पुत्री थी । मन्त्रीने उसका विवाह अग्निमित्र नामक पुरोहित के साथ कर दिया था । एक समय इस पुरोहितको राजाने कुछ उपहार के साथ किसी राजा के पास भेजा । उसके जानेके पश्चात् बहुत दिन बीत गये थे, परन्तु वह वापिस नहीं आया था । इससे राजाको बहुत हुई । एक समय वहाँ सुदर्शन मुनिका शुभागमन हुआ । तब राजा
I
१. ज प ब श० भोगानुभवन् । २. ज तत्रामितगतिगगनगतिनामाचारणौऽवतीर्णी फ ब तत्रामितगतिगगनगतिनामा चारणौ अवतीर्ण श तत्रामितगतिगगनगतिनामा चारणोऽवतीर्णा । ३. ज 'मुनिराह' एतस्य स्थाने अस्य कथा ||' एवंविधोऽस्ति पाठः ।
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-२, ३५] ५. उपवासफलम् २
१९५ मुनिरवदत् तत्प्राभृतं तेन वेश्यया भक्षितम्। भयान्नागच्छति । तथापि पञ्चरात्रे आगमिष्यति । तदा तमागतं सवनितं बन्दिगृहे निक्षिप्तवान् राजा। तत्कारागारावासं विलोक्य सुवङ्कः सुदर्शनमुनिपार्श्वे दीक्षितः, केशिनी सुव्रतार्जिकान्ते । आयुरन्ते सुवङ्कः सौधर्मेन्दुप्रभनाम देवोऽजनि । केशिनी तत्रैव रविप्रभदेवो जातः । अत्रैव विजया) दक्षिणश्रेण्यामम्बरतिलकपुरेशपवनवेगविद्युद्वेगयोरिन्दुप्रभः सौधर्मादागत्य मनोवेगनामा सुतो भूत् । प्रवृद्धः सन्नेकदा सिद्धकूटं गतः । तत्र जिनवन्दनानन्तरं चारणं नत्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं स्वातीतभवान् पृष्टवान् । मुनिः कथितप्रकारेणैव कथितवान् । पुनः सोऽप्राक्षीन्मम जननीचरः रविप्रभः वास्ते इति । सोऽवोचद्भविष्यानुरूपादेवीगर्भे तिष्ठति, सापि हारपुरचन्द्रप्रभजिनालये दर्शनवाञ्छ्या वर्तते इति श्रुत्वा सोऽयं मनोवेगो गर्भस्थमातृचरजीवव्यामोहेनात्रानीतवानिति निरूप्य मुनिर्गगनेन गतो भविष्यदत्तादयः स्वपुरमाजग्मुः । भविष्यानुरूपा क्रमेण सुप्रभकनकप्रभसोमप्रभसूर्यप्रभाख्यान पुत्रान् लेभे । सुरूपा धरणिपालं सुतं" धारिणी सुतां चालभत । सुप्रभादीन शिक्षयन् भविष्यदत्तः संतिष्ठते स्म ।
अग्निमित्रके वापिस न आनेका कारण पूछा। मुनिने उत्तरमें कहा कि उसने उस उपहारको वेश्याके साथ खा डाला है। इसीलिए वह भयके कारण वापिस नहीं आया है। फिर भी अब वह पाँच दिनमें यहाँ आ जावेगा। तत्पश्चात् उसके वापिस आनेपर राजाने उसे और उसकी पत्नीको भी कारागारमें बन्द कर दिया। उन्हें कारागारमें स्थित देखकर सुवंकने सुदर्शन मुनिके पास दीक्षा ग्रहण कर ली तथा सुव्रता आर्यिकाके समीपमें केशिनीने भी दीक्षा ले ली। सुर्वक आयुके अन्तमें शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गमें इन्दुप्रभ नामका देव हुआ और वह केशिनी उसी स्वर्ग में रविप्रभ नामका देव हुई। इसी विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें एक अम्बरतिलक नामका नगर है। उसमें पवनवेग नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम विद्युद्वेगा था। वह इन्दुप्रभ देव सौधर्म स्वर्गसे च्युत होकर इनके मनोवेग नामका पुत्र हुआ। वह वृद्धिंगत होकर एक समय सिद्ध कूटके ऊपर गया था। वहाँ जाकर उसने जिन भगवान्की वन्दना की। तत्पश्चात् उसने चारण मुनिको नमस्कार करके उनसे धर्मश्रवण किया । अन्तमें उसने उनसे अपने पिछले भवोंके सम्बन्धमें पूछा । जैसा कि पूर्व में निरूपण किया जा चुका है तदनुसार ही मुनिने उसके पूर्व भवोंका निरूपण कर दिया। फिर उसने उनसे पूछा मेरी माताका जीव जो रविप्रभ देव हुआ था वह इस समय कहाँपर है ? मुनि बोले कि वह इस समय भविष्यानुरूपा रानीके गर्भमें स्थित है । उस भविष्यानुरूपाके इस समय हरिपुरस्थ चन्द्रप्रभ जिनालयके दर्शन करने की इच्छा है । यह सुनकर वह यह मनोवेग विद्याधर गर्भ में स्थित अपने माताके जीवके मोहसे भविष्यानुरूपाको यहाँ ले आया है। इस प्रकार निरूपण करके वे चारण मुनि आकाशमार्गसे चले गये। इधर भविष्यदत्त आदि सब अपने नगरमें आ गये। भविप्यानुरूपाके क्रमशः सुप्रभ, कनकप्रभ, सोमप्रभ
और सूर्यप्रभ नामके पुत्र उत्पन्न हुए। दूसरी पत्नी सुरूपाके धरणिपाल नामका पुत्र और धारिणी नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । तब भविष्यदत्त सुप्रभ आदि उन पुत्रोंको शिक्षा देते हुए स्थित था ।
१. ज फ वेश्यया सह भक्षितं । २. ज सौधर्मेद्रेःप्रभ। ब सौधर्मेन्दुप्रभा । ३. प देवीगृहे । ४. ज सोपि । ५. ज प फ श दर्शन वांछां । ६. ज सूर्यप्रभाद्याललेभे प सूर्यप्रभाष्यापुत्रान्ल्लेभे । ७. श सुरूपा सुरूपं
धरणीपालसुतं ज प फ सुरूपा धरणिपालसुतं ।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यrader कोशम्
[ ५-२, ३५ :
एकदा तत्पुरोद्यानं विपुलमतिविपुलबुद्धी भट्टारकौ समागतौ । वनपालकाद्विबुध्य भूपालादयो वन्दितुमादुः । अभिवन्द्य धर्मश्रवणानन्तरं भविष्यदत्तोऽपृच्छत् स्व-भविष्यानुरूपयोः पुण्यातिशयहेतुं तथा परस्परं स्नेहस्य चाच्युतेन्द्रस्य स्वस्योपरि स्नेहस्य चारिंजयस्य राजस्य (?) राक्षसस्य वैरहेतुं स्वस्य भविष्यानुरूपाया उपरि मोहस्य कमलयो दौर्भाग्य हेतुम् । विपुलमतिः कथयति स्म - श्रत्रैव द्वीपे ऐरावतार्थखण्डे सुरपुरे राजा वायुकुमारो देवी लक्ष्मीमती मन्त्री वज्रसेनो भार्या श्रीः । तद्दुहिता कीर्ति सेना वज्रसेनेन स्वभागिनेयाय दत्ता । स तां नेच्छतीति स्वपितुर्गृहे श्रीपञ्चमीविधानं कुर्वती तस्थौ । तत्रैव वैश्योऽतीवेश्वरो धनदत्तो भार्या नन्दिभद्रा पुत्रो नन्दिमित्रः । ते धनदत्तादयो मिथ्यादृष्टयोऽपरजैनवैश्यधनमित्रेण संबोध्याणुव्रतानि ग्राहिताः । एकदा ग्रीष्मेऽनेकोपवासपारणायां घर्मजलेनार्द्रीभूतसर्वाङ्गं समाधिगुप्तमुनि नन्दिभद्रा विलोक्य जुगुप्सां चक्रे । तत्र दुर्भगनामकर्मार्जति स्म । स नन्दिमित्रः समाधिगुप्तमुनिवरान्ते तपसाच्युतेन्द्रोऽजनि । कीर्तिसेना श्रीपञ्चम्या उद्यापनं कृत्वा तत्पुरबहिर्वृक्ष कोटरे स्थितं तमेव समाधिगुप्तमुनिं वन्दितुं पित्रा समं विभूत्या जगाम । तन्मार्गे कौशिकनामा तापसः पञ्चाग्निं साधयन् स्थितः । स केनचित्प्रशंसितो वज्रसेनोऽयं मूर्खः पशुप्रख्यः प्रशंसार्हो न भवतीति निनिन्द । तदा तापसोऽत्यन्तकुपितोऽपि किं
१९६
एक दिन उस नगर के उद्यानमें विपुलमति और विपुलबुद्धि नामके दो मुनि आकर विराजमान हुए | वनपालसे उनके शुभागमनको जानकर भूपाल राजा आदि उनकी वन्दना के लिए गये । सबने वन्दना करके उनसे धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् भविष्यदत्तने उनसे अपने और भविष्यानुरूपा के विशेष पुण्य, दोनोंके पारस्परिक स्नेह, अच्युतेन्द्र के द्वारा अपने ऊपर प्रगट किये गये स्नेह, राजा अरिंजय और राक्षसके वैर, भविष्यानुरूपा के ऊपर विद्यमान अपने मोह और कमलश्री के दुर्भाग्यके भी कारणको पूछा । तदनुसार विपुलमति बोले- इसी द्वीपके ऐरावत क्षेत्रस्थ आर्यखण्ड में सुरपुर नामका नगर है । उसमें वायुकुमार नामका राजा राज्य करता था | रानीका नाम लक्ष्मीमती था । इस राजा के वज्रसेन नामका मन्त्री था। उसकी पत्नीका नाम श्री और पुत्रीका नाम कीर्तिसेना था । वज्रसेनने इस पुत्रीका विवाह अपने भानजेके साथ कर दिया था । परन्तु वह उसे नहीं चाहता था । इसलिए वह अपने पिताके घरपर ही रहती हुई श्री पञ्चमी (श्रुतपञ्चमी) व्रतका पालन कर रही थी। उसी नगर में एक धनदत्त नामका अतिशय धनवान् सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम नन्दिभद्रा था । उनके एक नन्दिमित्र नामका पुत्र था । वे धनदत्त आदि मिथ्यादृष्टि थे | उन्हें धनमित्र नामके एक दूसरे जैन सेठने समझाकर अणुव्रत ग्रहण करा दिये थे । एक दिन ग्रीष्म ऋतु अनेक उपवासोंको करके समाधिगुप्त मुनि पारणा के लिए आये थे । उनका सब शरीर पसीने से तर हो रहा था । उनको देखकर नन्दिभद्राको घृणा उत्पन्न हुई । इससे उसके दुर्भग नामकर्मका बन्ध हुआ । उधर उसका पुत्र नन्दिमित्र इन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज के समीपमें तपश्चरण करके अच्युत स्वर्गका इन्द्र हुआ था । कीर्तिसेना श्रुतपञ्चमीत्रतका उद्यापन करके नगरके बाहिर वृक्ष के खोते में स्थित उन्हीं समाधिगुप्त मुनिकी वन्दना के लिये विभूतिपूर्वक पिता के साथ जा रही थी । उस मार्ग में एक कौशिक नामका तापस पञ्चामि तप कर रहा था । उसकी जब किसीने प्रशंसा की तब वज्रसेनने कहा कि यह मूर्ख पशुके समान अज्ञानी है, वह प्रशंसा के योग्य नहीं है; इस प्रकार वज्रसेनने उसकी निन्दा की । इससे उस तापसको क्रोध तो
१ ब राजस्यु । २ ज प
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-२, ३५ ] ५. उपवासफलम् २
१९७ चित्कर्तुमशक्तः। स तु तूष्णीं स्थितः। तं कुपितं ज्ञात्वा धनमित्रकीर्तिसेनाभ्यां प्रियवचनैरुपशान्ति नीतः। स धनमित्रः कीर्तिसेनाकृतपञ्चम्युपवासेऽत्यन्तं मुमोद तां प्रशशंस। सधनदत्तो मृत्वा धनपतिः श्रेष्ठी जातो नन्दिभद्रा कमलश्रीर्जाता वज्रसेनोऽरिजयोऽभूत. कौशिको राक्षसो बभूव । धनमित्रो जैनोऽपि परिणामवैचित्र्याद्विरोधको भूत्वा ममार । तथाप्युपवासानुमोदजातपुण्येन त्वं जातोऽसि, कीर्तिसेना भविष्यानुरूपाभूदिति स्नेहादिकारणं निरूपितम् । विचार्य गृहाणेति (?) स कीर्तिसेनायाः भर्ता बन्धुदत्तोऽभूदिति कथितेsतोतभवस्वरूपे भविष्यदत्तो जहर्ष, तद्विधानविधिक्रमं तदुद्यापनक्रमं च पृच्छति स्म । मुनिना कथितस्तत्क्रमः समयानन्तरमेव नागकुमारकथायां कथितो ज्ञातव्योऽयं तु विशेषः नागकुमारकथायां शुक्लपञ्चम्यामुपवासः कथितोऽयं कृष्णपञ्चम्यामिति । इति श्रुत्वा भविष्यदत्तो वनितादियुक्तस्तद्विधि स्वीकृत्यानुष्टायोद्यापनं कृत्वा बहुकालं राज्यं विधाय स्वनन्दनसुप्रभाय राज्यं वितीर्य वहुभिः पिहितास्रवान्तिके दीक्षितो धनपतिरपि । कमलश्रीभविष्यानुरूपादयः सुव्रतार्जिकासकाशे दीक्षिताः । यथोक्तं तपो विधाय प्रायोपगमनसंन्यासविधिना भविष्यदत्तमुनिः शरीरं विहाय सर्वार्थसिद्धि जगाम । धनपत्यादयोऽपि स्वपुण्ययोग्यस्थलेबहुत हुआ, परन्तु वह कर कुछ नहीं सकता था, इसीलिए वह उस समय चुपचाप ही स्थित रहा। उसे क्रोधित देखकर धनमित्र और कीर्तिसेनाने प्रिय वचनोंके द्वारा शान्त किया। उस धनमित्रने कीर्ति सेनाके द्वारा किये गये पञ्चमी-उपवासकी अतिशय अनुमोदना करते हुए उसकी बहुत प्रशंसा की। वह धनदत्त मरकर धनपति सेठ हुआ है, नन्दिभद्रा कमलश्री हुई है, वज्रसेन अरिंजय हुआ है, तथा कौशिक तापस राक्षस हुआ है। धनमित्र यद्यपि जैन था, फिर भी परिणामोंकी विचित्रतासे वह विरोधी होकर मरा और उपवासकी अनुमोदना करनेसे प्राप्त पुण्यके प्रभावसे तुम हुए हो । कीर्तिसेना भविष्यानुरूपा हुई है। इस प्रकार तुम्हारे द्वारा पूछे गये उन स्नेह आदिके कारण का मैंने निरूपण किया है। तुम विचार कर [ उस पञ्चमीत्रतको ] ग्रहण करो। वह कीर्तिसेनाका पति बन्धुदत्त हुआ है। इस प्रकार मुनिके द्वारा प्ररूपित अपने पूर्व भवोंके स्वरूपको सुनकर भविष्यदत्तको बहुत हर्ष हुआ। फिर उसने उन मुनिराजसे उस पञ्चमीव्रतके अनुष्ठानकी विधि तथा उसके उद्यापनके क्रमको भी पूछा । तब मुनिराजने जिस प्रकारसे उसके क्रमका निरुपण किया वह पीछे नागकुमारकी कथामें कहा जा चुका है, अतएव उसको वहाँ से जानना चाहिये । विशेष इतना ही है कि नागकुमारकथामें जहाँ शुक्ल पञ्चमीको उपवासका निर्देश किया गया है वहाँ इस व्रतविधानमें उसे कृष्ण पञ्चमीको जानना चाहिये। इस प्रकार उक्त व्रतके विधानादिको सुनकर भविष्यदत्तने पत्नियों आदिके साथ उस व्रतको ग्रहण कर लिया । फिर विधिपूर्वक पालन करके उसने उसका उद्यापन भी किया। भविष्यदत्तने बहुत समय तक राज्य किया। तत्पश्चात् उसने अपने पुत्र सुप्रभको राज्य देकर पिहितास्रव मुनिके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। साथमें धनपति सेठने भी दीक्षा धारण कर ली। कमलश्री और भविष्यानुरूपा आदि सुत्रता आयिकाके निकटमें दीक्षित हो गईं। भविष्यदत्त मुनिने उक्त क्रमसे तपश्चरण करके प्रायोपगमन (स्व-परवैयाव्रत्य की अपेक्षासे रहित) संन्यासको ग्रहण किया। इस क्रमसे वह शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्ध विमानमें देव उत्पन्न हुआ। धनपति आदि भी अपने अपने पुण्यके अनु
१. पत्यन्त मुमोद फ शत्यन्तानुमोद । २. ज प्रशसंसे ब प्रसंस। ३. ब ‘स कीर्तिसेनायाः भर्ता बधुदत्तोऽभूदिति' नास्ति । ४ श 'च' नास्ति । ५. फ 'इति' नास्ति ।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९८
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-२, ३५ : त्पन्नाः । कमलश्रीभविष्यानुरूपे शुक्रमहाशुक्रेदेवौ जातौ । तत. भागत्यात्रैव पूर्वविदेहे राजपुत्रौ भूत्वा मुक्ति ययतुः। इति परकृतोपवासानुमोदेन वैश्य एवंविधो जातो यः स्वयं त्रिशुद्धया करोति स किं न स्यादिति ॥२॥
[३६-३७ ] अपि कुथितशरीरो राजपुत्रोऽतिनिन्द्यो व्यजनि मनसिजातश्चोपवासात्तदैव । नृसुरगतिभवं शं चारु भुक्त्वा स मुक्त उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्धया ।।३।। जगति विदितकीर्ती रोहिणी दिव्यमूर्तिविगतसकलशोकाशोकभूपस्य रामा। अजनि सदुपवासाजातपुण्यस्य पाका
दुपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्ध था ॥४॥ अनयोवृत्तयोः कथे रोहिणीचरित्रे यात इति कथ्यते । अत्रैवार्यखण्डे अङ्गदेशचम्पा. पुरेशमघवश्रीमत्योः पुत्राः श्रीपालगुणपालावनिपालवसुपालश्रीधरगुणधरयशोधर-रणसिंहाश्चेत्यष्टौ । तेभ्यो लघ्वी रोहिणी सातिशयरूपा नन्दीश्वराष्टम्यां कृतोपवासा जिनालये जिनासार योग्य स्थानों में उत्पन्न हुए। कमलश्री और भविप्यानुरूपा शुक्र और महाशुक्र स्वर्गमें देव हुई । वहाँसे च्युत होकर वे दोनों इसी द्वीपके पूर्व विदेहमें राजपुत्र होते हुए मुक्तिको प्राप्त हुए । इस प्रकार दूसरेके द्वारा किये गये उपवासकी अनुमोदनासे वह धनमित्र वैश्य जब इस प्रकारको विभूतिको प्राप्त हुआ है तब भला जो मन, वचन व कार्यकी शुद्धिपूर्वक उसका स्वयं आचरण करता है वह वैसा नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा ॥ ३५ ॥
जो राजपुत्र दुर्गन्धित शरीरसे संयुक्त होता हुआ अतिशय निन्दनीय था वह उपवासके प्रभावसे उसी समय कामदेवके समान सुन्दर शरीरवाला हो गया और फिर मनुष्य एवं देवगतिके उत्तम सुखको भोगकर मुक्तिको भी प्राप्त हुआ है । इसीलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥३॥
पूतिगन्धा उत्तम उपवाससे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे अशोक राजाकी रोहिणी नामकी पत्नी हुई है। दिव्य शरीरको धारण करनेवाली उस रोनीकी कीर्ति लोकमें विदित थी तथा वह सब प्रकार के शोकसे रहित थी। इसीलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥४॥
इन दोनों पद्योंकी कथायें रोहिणीचरित्रमें आई हैं। तदनुसार यहाँ उनका कथन किया जाता है-इसी आर्यखण्डके भीतर अङ्गदेशमें चम्पापुर है । उसमें मघवा राजा राज्य करता था । रानीका नाम श्रीमती था। इन दोनोंके श्रीपाल, गुणपाल, अवनिपाल, वनपाल, श्रीधर, गुणधर, यशोधर और रणसिंह ये आठपुत्र थे। उनसे छोटी एक रोहिणी नामकी पुत्री श्री जो अतिशय रूपवती थी। वह अष्टाह्निक पर्वमें अष्टमीके दिन उपवासको करके जिनालयमें गई।
१. श रोहिणे चरित्रे । २. ज प फ तत् कथ्यते श तत्कथिते ।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४
१९९ भिषेक पूजादिकं विधायागत्य आस्थानस्थस्य पितुर्गन्धोदकादिकमदत्त । पितापृच्छत् हे पुत्रि, किमिति म्लानवदना शृङ्गाररहिता च । तयोक्तं ह्यः' उपोषितेति । तर्हि गच्छ पारणार्थमिति तां प्रस्थाप्य तद्यौवनश्रियं सलजभावेन गच्छन्त्या लुलोके । ततः स्वमन्त्रिणोऽप्राक्षीत् सुतायाः को वरो योग्य इति । तत्र मतिसागरो ब्रूते सिन्धुदेशाधिपतिर्भूपालो योग्योऽप्रतिमरूपत्वात् । श्रुतसागरोऽवदत् पल्लवाधिपतिरकीर्तिः सर्वगुणयुक्तवान् । विमलबुद्धिरुवाच सुराष्ट्र शो जितशत्रुरनुपमगुणाधार इति । स एव योग्यः । सुमतिरुक्तवान् स्वयंवरविधिः श्रेयान् , स एव कर्तव्य इति । तत्सर्वैरभ्युपगतम् । ततः स्वयंवरशालां विधाय सर्वान् क्षत्रियानाजह्वौ मघवा । तेऽपि समागत्य यथोचितासने उपविविशुः । सातिशयशृङ्गारान्चिता रोहिणी धात्रिकायुक्ता रथमारुह्य स्वयंवरशालायां विवेश । तत्र धात्रिका क्षत्रियान् दर्शयितुमारभत । हे पुत्रि, सुकोशलाधिपमहामण्डलेश्वरश्रीवर्मणः सुतोऽयं महेन्द्रः, अयं वङ्गाधिपोऽङ्गदः, अयं डाहलाधिपो वज्रबाहु इत्यादिनानाक्षत्रियदर्शनानन्तरमेकस्मिन् प्रदेशे दिव्यासनस्थमशोककुमारमभीयं धात्रिकयोच्यते हे पुत्रि, हस्तिनापुरेशकुरुवंशोद्भववीतशोकविमलयोः पुत्रोऽयमशोकः सर्वगुणेश इति । ततस्तया माला तस्य निक्षिप्ता । तदा महेन्द्रस्य उसने वहाँ जिन भावान्का अभिषेक और पूजन आदि की। पश्चात् जिनालयसे वापिस आकर उसने सभा भवनमें बैठे हुए अपने पिताके लिए गन्धोदक आदि दिया। तब उसके पिताने पूछा कि हे पुत्री ! तेरा मुख मुरझाया हुआ क्यों है तथा तूने कुछ शृंगार भी क्यों नहीं किया है ? उसने उत्तर दिया कि मेरा कलका उपवास था. इसलिए. शृङ्गार नहीं किया है। इसपर पिताने कहा कि तो फिर जाकर पारणा कर । इस प्रकार उसे भवनके भीतर भेजते हुए राजाने लज्जाके साथ जाती हुई उसके यौवनकी शोभाको देखकर मन्त्रियोंसे पूछा कि इसके लिए कौन-सा वर योग्य होगा ? तब उनमें से मतिसागर नामका मन्त्री बोला कि सिन्धु देशका राजा भूपाल इसके लिए योग्य होगा, क्योंकि उसकी सुन्दरता असाधारण है। दूसरा श्रुतसागर मन्त्री बोला कि पल्लव देशका राजा अर्ककीर्ति सब ही गुणोंसे सम्पन्न है, अतएव वह इस पुत्रीके लिए योग्य वर है। विमलबुद्धि ने कहा कि सुराष्ट्र देशका स्वामी जिनशत्रु अनुपम गुणोंका धारक है, इसलिए वही इसके लिए योग्य वर दिखता है । अन्तमें सुमति मन्त्री बोला कि पुत्रीके लिए योग्य वर देखनेके लिए स्वयंवर की विधि ठीक प्रतीत होती है, अतएव उसे ही करना चाहिए । सुमतिकी इस योग्य सम्मतिको उन सभीने स्वीकार कर लिया। तब इस स्वयंवर विधिको सम्पन्न करने के लिए स्वयंवरशालाका निर्माण कराकर मघवा राजाने समस्त राजाओंके पास आमन्त्रण भेज दिया । तदनुसार वे राजा आकर स्वयंवरशालामें यथायोग्य आसनोंपर बैठ गये। उस समय अनुपम वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित रोहिणी धायके साथ रथपर चढ़कर आयी और स्वयंवरशालाके भीतर प्रविष्ट हुई। वहाँपर धायने राजा भोंका परिचय कराते हुए रोहिणीसे कहा कि हे पुत्री ! यह सुकोशल देशके स्वामी महामण्डलेश्वर श्रीवर्माका पुत्र महेन्द्र है, यह वंग देशका राजा अंगद है, यह डाहल देशका स्वामी वज्रबाहु है, इत्यादि अनेक राजाओंका परिचय कराती हुई वह धाय एक स्थानपर दिव्य आसनके ऊपर बैठे हुए अशोककुमारको देखकर बोली कि हे पुत्री ! यह हस्तिनापुरके
१. व अद्य । २. श प्र स्थाप्ययोवनश्रियं । ३. ब रो विचिन्त्याभावत सिंधु । ४. श युक्तवान् । ५. ब गुणाधारों स । ६. ब स्वयंवरयिधिः स कर्तव्य । ७. ज प फ श डाहाल । ८. बमवीक्ष्य। ९. श
सर्वगणेशेति ।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-४, ३७ मन्त्रिणा दुर्मतिनोक्तं हे नाथ, त्वं महामण्डलेशपुत्रोऽतिरूपवान् युवा च । त्वां विहायाशोकस्य माला निक्षिप्ता कन्यया । कन्या किं न जानाति । परं (?) किंतु मघवता पूर्व तस्य प्रतिपन्नेति तत्संमतेन (?) तया तस्य माला निक्षिप्ता। तत उभौ रणे हत्वा कन्या स्वीकर्तव्येति । तदा महामतिमन्त्रिणोक्तमिमं मन्त्रं किं दातुमर्हसि, दुर्मतित्वाददासि । पूर्व सकलचक्रवर्तिपुत्रेणार्ककीर्तिना सुलोचना स्वयंवरे किं लब्धाऽतोऽयं मन्त्रो न युक्त इति । तथापि रणाग्रहं न तत्याज महेन्द्रः । सर्वे क्षत्रियास्तस्यैव मिलिताः । तथापि महामतिर्बभाण-स्वयंवरधर्म ईदृश एव, युद्धमनुचितमथ च योत्स्यध्वं तर्हि तदन्तिकं कन्यायाचनाय मन्त्री प्रेषणीय स्तद्वचनेन दत्ता चेद्दत्ता, नो चेत् यूयं यजानीत तत्कुरुत इति । तद्वचनेन तत्रातिविचक्षणो दूतः प्रेषितः । स च गत्वा तदने उक्तवान् युवयोमहेन्द्रादयो रुष्टास्तस्मात्कन्यां महेन्द्राय समय॑ सुखेन जीवथस्तन्निमित्तं मा म्रियेथामिति । अशोकोऽवदत् हे दृत, स्वयंवरे कन्या यस्य मालां निक्षपति स एव तस्याः स्वामीति, स्वयंवरधर्म ईगेव । अतो मे बाणमुखाग्नौ ते स्वामिन एव पतङ्गाः पतितुमिच्छन्ति चेत्पतन्तु, किं नष्टम् । दृश्यत एव रणे तत्प्रतापो याहीति तं विससर्जाशोकः । स गत्वा यथावत्कथितवान् महेन्द्रादीनाम् । ततस्ते संग्रामकुरुवंशी राजा वीतशोक और विमलाका पुत्र अशोक है जो समस्त गुणोंका स्वामी है । तब रोहिणीने उसके गलेमें माला डाल दी। उस समय महेन्द्रके मन्त्री दुर्मतिने उससे कहा कि हे नाथ ! तुम महामण्डलेश्वरके पुत्र होकर अतिशय सुन्दर और तरुण हो। फिर भी इस कन्याने तुम्हारी उपेक्षा करके अशोकके गलेमें माला डाली है। क्या कन्या इस बातको नहीं जानती है ? परन्तु मघवाने उसे अशोकके विषयों पहिले ही कह रक्खा था। इस प्रकार उसकी सम्मतिसे ही कन्याने अशोकके गलेमें माला डाली है । इसलिए तुम उन दोनों ( मघवा और अशोक ) को युद्धमें मारकर कन्याको ग्रहण कर लो। तब महामति नामक मन्त्रीने उससे कहा कि क्या तुम्हें ऐसी सम्मति देना योग्य है ? तुम केवल दुष्ट बुद्धिसे ही वैसी सम्मति दे रहे हो । पहिले भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिने भी सुलोचनाके कारण जयकुमारके साथ युद्ध किया था, परन्तु क्या वह सुलोचना उसे स्वयंवरमें प्राप्त हो सकी थी ? नहीं। इसलिए यह विचार योग्य नहीं है । फिर भी महेन्द्रने युद्ध के दुराग्रहको नहीं छोड़ा। उस समय सब राजा उसीके पक्षमें सम्मिलित हो गये । तब फिरसे भी महामति मन्त्रीने कहा कि स्वयंवरकी पृथा ही ऐसी है। अतः उसके लिए युद्ध करना अनुचित है। फिर भी यदि युद्ध करना है तो मघवाके पास कन्याको माँगने के लिए मन्त्रीको भेजना योग्य होगा। उसके कहनेसे यदि वह कन्याको दे देता है तो ठीक है । अन्यथा तुम जो उचित समझो, करना । तदनुसार वहाँ एक अतिशय निपुण दूतको भेजा गया । दूतने उन दोनोंके पास जाकर कहा कि तुम दोनोंके ऊपर महेन्द्र आदि रुष्ट हुए हैं। इसलिए तुम कन्याको महेन्द्र के लिए देकर सुखसे जीवनयापन करो। उसके कारण तुम मृत्युके मुखमें प्रविष्ट मत होओ। दूतके इन वचनोंको सुनकर अशोक बोला कि हे दूत ! स्वयंवरमें कन्या जिसके गलेमें माला डालती है वही उसका स्वामी होता है, ऐसा ही स्वयंवरका नियम है । इसलिए मेरे बाणोंके मुखरूप अग्निमें तेरे स्वामी ही यदि पतंगा बनकर गिरना चाहते हैं तो गिरें, इसमें हमारी क्या हानि है ? उनके पराक्रमको मैं युद्ध में ही देखूगा, जाओ तुम । यह उत्तर देकर अशोकने
१. श 'न' नास्ति । २. श स्तथैव। ३. पश संसमl । ४. श अतोमेवाग्नौ। ५. फ किन नष्टं ब कि न दृष्टं । ६.ज प श जाहीति ।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४
२०१ भेरीनादपुरःसरं संनह्य रणावनौ तस्थुः । ततोऽशोकमघवादयोऽपि व्यूह-प्रतिव्यूहक्रमेण तस्थुः । रोहिणी जिनालये मन्निमित्तं पितभोंमध्ये कस्यचिन्मरणं भवति चेदाहारशरीरनिवृत्तिरिति संन्यासेन तस्थौ। इत' उभयोबलयोर्महायुद्धे प्रवृत्ते बहुषु मृतेषु वृहद्वेलायां महेन्द्रबलं नष्टुं लग्नम् । स्वबलभङ्गं दृष्ट्वा महेन्द्रः स्वयं युयुधे । तच्छस्त्रमुखेनावर्तमान स्ववलं वीक्ष्य अशोकेन स्वीकृतो महेन्द्रस्तत उभौ त्रिलोकचमत्कारि युद्धं चक्रतुः । वृहद्वेलायां महेन्द्रोऽपससार । ततश्चोलपाण्डयचेरमादिभिर्वेष्टितोऽशोकस्तदा रोहिणीभ्रातृश्रीपालादिभिरपसारिताश्चोलादयस्ततः पुनमहेन्द्रोऽवृणीत श्रोपालादीन् , महायुद्धे तेऽपसारिता महेन्द्रेण । पुनरशोकस्तमवृणोत् महायुद्धे, महेन्द्रस्य च्छत्रध्वजौ चिच्छेद सारथिनं च जघान, हे महेन्द्र स्वशिरः पतद्रत रक्षति ब्रुवन् तस्य कण्ठाय बाणं मुमोच । स तत्कण्ठे लग्नस्ततो मूच्र्छया पपात महेन्द्रस्तच्छिरो गृहणन् अशोको मघवता निवारितः। उन्मूच्छितो महेन्द्रो महामतिना शत्रोः स्वशिरो मा देहीत्यपसारितः। ततो जयदुन्दुभिनादं जयपताकोद्भवनं च चकार मघवा । तद्विपक्षभूतेषु केचिद्दीक्षां बभ्रुः, केचित्स्वदेशं ययुः । इतोऽशोकरोहिण्यो
उस दूतको वापिस भेज दिया। उसने जाकर महेन्द्र आदिसे अशोकके उत्तरको ज्यों का-त्यों कह दिया । तब वे युद्धकी भेरीको दिलाते हुए सुसज्जित होकर युद्ध भूमिमें जा पहुँचे। तत्पश्चात् अशोक और मघवा आदि भी व्यूह और प्रतिव्यके कमसे रणभूमिमें स्थित हो गये । उधर रोहिणी, मेरे निमित्तसे युद्धमें यदि पिता और पतिमें-से किसीका मरण होता है तो मैं आहार और शरीरसे मोह छोड़ती हूँ, इस प्रकारके संन्यासके साथ मन्दिरमें जाकर स्थित हो गई। उन दोनों सेनाओंमें घोर युद्ध प्रारम्भ होनेपर बहुत-से सैनिक मारे गये । इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर महेन्द्रकी सेना भागने लगी। तब अपनी सेनाको भागते हुए देखकर महेन्द्र स्वयं युद्धमें प्रवृत्त हुआ। उसके शस्त्रोंके प्रहारसे अपनी सेनाको भागती हुई देखकर अशोकने स्वयं महेन्द्रका सामना किया। तब उन दोनों में तीनों लोकोंको आश्चर्यान्वित करनेवाला युद्ध हुआ । इस प्रकार बहुत समय बीतनेपर महेन्द्र भाग गया। तब चोल, पाण्ड्य और चेरम आदि राजाओंने उस अशोकको घेर लिया। यह देखकर रोहिणीके भाई श्रीपाल आदिने उक्त चोल आदि राजाओंको पीछे हटा दिया । तब उन श्रीपाल आदिका सामना महेन्द्रने फिरसे किया
और उनके साथ घोर युद्ध करके उसने उन्हें पीछे हटा दिया। यह देख अशोकने फिरसे महेन्द्रका सामना करके महायुद्ध में उसके छत्र और ध्वजाको नष्ट कर दिया व सारथीको मार डाला। तत्पश्चात् हे महेन्द्र ! अब तू अपने गिरते हुए शिरकी रक्षा कर, यह कहते हुए अशोकने उसके कण्ठको लक्ष्य करके बाण छोड़ दिया । वह जाकर महेन्द्र के कण्ठमें लगा। इससे वह मूर्छित होकर गिर पड़ा। उस समय अशोकने उसके शिरको ग्रहण करना चाहा । परन्तु मघवाने उसे ऐसा करनेसे रोक दिया । जब महेन्द्रकी मूर्छा दूर हुई तब महामति मन्त्रीने समझाया कि अब तुम शत्रुके लिए अपना शिर मत दो। इस प्रकार समझाकर उसने महेन्द्रको युद्धसे विमुख किया। तब मघवाने जयभेरीकी ध्वनिके साथ विजयपताका फहरा दी । उसके शत्रुओंमेंसे कितनोंने दीक्षा धारण कर ली और कितने ही अपने देशको वापिस चले गये। इधर अशोक और रोहिणीका
१. प फ श इति । २. प वहुमित्रेसु श बहुमतेपु । ३ प फ श वृणीतं ब ब्रणोत ।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७: महाविभूत्या विवाहोऽभूत् ।
कतिपयदिनैरशोकस्तया स्वपुरमियाय । पिता संमुखमाययो। तं नत्वा विभूत्या पुरं विवेश। मात्रा पुण्याङ्गताभिश्च निक्षिप्तशेषाक्षतादीन स्वीकृत्य सहागतरोहिणीभ्रात्रे श्रीपालाय स्वभगिनीं प्रियङ्गसुन्दरीं दत्त्वा तं स्वपुरं प्रस्थाप्याशोको युवराजः सुखेन तस्थौ । एकदा वीतशोको राजातिशुभ्रमभ्रं विलीनं विलोक्य वैराग्यं जगाम । अशोकाय राज्यं दत्त्वा सहस्रराजपुत्रैर्यमधरस्य पार्श्व दीक्षितः, मुक्तिं च ययौ । इतो राज्यं 'कुर्वतोऽशोकरोहिण्योः पुत्रा वीतशोक-जितशोक-नएशोक विगतशोक-धनपाल-स्थिरपाल-गुणपालाश्चेति सप्त, पुत्र्यो वसुंधरी-अशोकवती-लक्ष्मीमती-सुप्रभाश्चेति चतस्रः, ततो लोकपालाख्यो नन्दन इति द्वादशापत्यानां माता बभूव रोहिणी ।
एकदाशोकरोहिण्यौ स्वभवनस्योपरिमभूमौ एकासने चोपविश्य दिशमवलोकयन्तौ तस्थतुः। तदा बहवः स्त्रियः पुरुषाश्च जठराताडनपूर्वमाक्रन्दनं कुर्वन्तो राजमार्गेण जग्मुः । तथाविधान् तान् रोहिणी लुलोकेऽपृच्छच्च स्वपण्डितां वासवदत्तां किमिदमपूर्वनाटकमिति । तदनु सा रुरोष ववाद च हे पुत्रि, रूपादिगर्वण त्वमेवं वदसि । रोहिण्योक्तं मातः किमिति कुप्यसि, ममेदं किमुपदिष्टं त्वयाहं व्यस्मरमिति कुप्यसि। तयोक्तं पुत्रि, सर्वथा त्वमिदं
महाविभूतिके साथ विवाह सम्पन्न हो गया।
अशोक कुछ दिन वहींपर रहा। तत्पश्चात् वह रोहिणीके साथ अपने नगरको वापिस गया। उस समय पिता उसको लेनेके लिए सम्मुख आया। तब अशोक पिताको प्रणाम करके विभूतिके साथ पुरके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस समय माता एवं अन्य पवित्र ( सौभाग्यशालिनी) स्त्रियोंके द्वारा फेंके गये शेषाक्षतोंको अशोकने सहर्ष स्वीकार किया। फिर उसने साथमें आये हुए रोहिणीके भाई श्रीपालके लिए अपनी बहिन प्रियंगुसुन्दरीको देकर उसे अपने नगरको वापिस भेज दिया। इस प्रकार वह अशोक युवराज सुखपूर्वक स्थित हुआ। एक समय अतिशय धवल मेघको नष्ट होता हुआ देखकर वीतशोक राजाके लिए वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने अशोकके लिए राज्य देते हुए एक हजार राजपुत्रों के साथ यमधर मुनिके पासमें जाकर दीक्षा ले ली । अन्तमें वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। इधर राज्य करते हुए अशोक और रोहिणीके वीतशोक, जितशोक, नष्टशोक, विगतशोक, धनपाल, स्थिरपाल और गुणपाल ये सात पुत्र तथा वसुंधरी, अशोकवती, लक्ष्मीमती और सुप्रभा ये चार पुत्रियाँ हुई। अन्तमें उनके एक लोकपाल नामका अन्य पुत्र हुआ । इस प्रकार रोहिणी बारह सन्तानोंकी माता हुई ।
एक समय अशोक और रोहिणी दोनों अपने भवनके ऊपर एक आसनपर बैठे हुए दिशाओंका अवलोकन कर रहे थे। उस समय बहुत-सी स्त्रियाँ और पुरुष अपने उदरको ताड़ित करके रोते हुए राजमार्गसे जा रहे थे। उन सबको वैसी अवस्थामें देखकर रोहिणीने वासवदत्ता नामकी अपनी चतुर धायसे पूछा कि यह कौन-सा अपूर्व नाटक है ? यह सुनकर धायको क्रोध आ गया। वह बोली कि हे पुत्री ! तू रूप आदिके अभिमानसे इस प्रकार बोल रही है। इसपर रोहिणी बोली कि हे माता ! क्रोध क्यों करती हो ? क्या तुमने मुझे इसका उपदेश दिया है और मैं भूल गई हूँ, इसलिए क्रोध करती हो ? तब उस धायने पूछा कि हे पुत्री ! क्या तू इसे सर्वथा
१. ब कुवातोरशोक । २. ब अशोकमती । ३. ब इति प्रसिद्धो द्वादशपत्यानां । ४. श एकरोहिण्यौ ।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४
२०३ न जानासि । तयोक्तम् 'न'। 'तदार्यभावं विलोक्य पण्डितावोचत् पुत्रि, कश्चिदेतेषां मृत इत्येते शोकं कुर्वन्तीति । तदानीमेव लोकपालकुमारः प्रमादेन प्रासादाद्भूमौ पतितस्तदा सर्वेऽपि शोक चक्रर्मातापितरो तूष्णीं तस्थतुः। तदा नगरदेवतया स बालोऽन्तराले हंसतल्पेन धृतः । तदर्शनेन जनानन्दो ऽभून्मातापित्रोश्च । द्वितीयदिने तन्नगरोद्याने रूप्यकुम्भस्वर्णकुम्भौ मुनी आगतौ'। वनपालकाद्विवुध्यानन्दभेरीरवपुरःसरं राजा सपरिवारो वन्दितुं निःससार । समय॑ वन्दित्वा धर्मश्रुतेरनन्तरं नरेशः पृच्छति स्म 'अस्मिन्नगर अतीतदिने जनानां शोकः किमभूद्रोहिणी देवी शोक किं न जानाति, केन पुण्येनाहं जातः, तथा मदपत्यातीतभवाश्च के' इति । तत्र रूप्यकुम्भः प्राह शोककारणम् -- एतन्नगरस्य पूर्वस्यां दिशि द्वादशयोजनेषु गतेषु नीलाचलो नाम गिरिरस्ति । तच्छिलाया उपरि पूर्व यमधरमुनिरातापनेन तस्थौ । तन्माहात्म्येन तत्रत्यभिल्लस्य मृगमारेः पापद्धिर्न मिलतीति स भिल्लस्तं द्वेष्टि । एकदा स मासोपवासपारणायां तत्समीपस्थामभयपुरी चर्यार्थ ययौ । तदा तेनातापनशिला खदिराङ्गारैर्धमिता । तदागमं विलोक्य ते नाङ्गारा अपसारितास्तथाविधां तां विलोक्य मुनिगृहीतप्रतिज्ञ इति संन्यासमादायारुरोह । तदुपसर्गे समुत्पन्न केवलस्तदैव मुक्तिमुपजगाम । ही नहीं जानती है ? रोहिणीने उत्तर दिया कि नहीं। तब उसकी सरलताको देखकर पण्डिताने कहा कि हे पुत्री ! इनका कोई मर गया है, इसलिए ये शोक कर रहे हैं। उसी समय लोकपाल कुमार असावधानीके कारण छतपरसे नीचे गिर गया । तब सब लोग पश्चात्ताप करने लगे। परन्तु माता और पिता दोनों ही चुपचाप बैठे रहे । उस समय नगरदेवताने उस लोकपालको बीचमें ही कोमल शय्याके ऊपर ले लिया था। यह देखकर लोगोंको तथा माता-पिताको भी बहुत आनन्द हुआ। दूसरे दिन उस नगरके उद्यानमें रूप्यकुम्भ और स्वर्णकुम्भ नामके दो मुनि आये। वनपालसे इस शुभ समाचारको जानकर राजाने आनन्दभेरी दिला दी। वह स्वयं परिवारके साथ उनकी वन्दनाके लिए निकल पड़ा। उद्यानमें पहुँचकर उसने उनकी पूजा और वन्दना की । तत्पश्चात् धर्मश्रवण करके उसने उनसे निम्न प्रश्न किये -- पिछले दिन इस नगरके जनोंको शोक क्यों हुआ, रोहिणी रानी शोकको क्यों नहीं जानती है, और मैं किस पुण्यके फलसे उत्पन्न हुआ हूँ। साथ ही उसने अपने पुत्रोंके अतीत भवोंके कहने की भी उनसे प्रार्थना की । तब रूप्यकुम्भ मुनिने प्रथमतः लोगोंके शोकका कारण इस प्रकार बतलाया--- इस नगरकी पूर्व दिशामें बारह योजन जाकर नीलाचल नामका पर्वत है। पूर्वमें उस पर्वतकी एक शिलाके ऊपर यमधर मुनि आतापनयोगसे स्थित थे। उनके प्रभावसे वहाँ रहनेवाले मृगमारि नामक भीलको शिकार नहीं मिल रही थी। इससे मृगमारिको उनके ऊपर क्रोध आ रहा था। एक दिन यमधर मुनि एक मासके उपवासके बाद पारणाके लिए उक्त पर्वतके समीपमें स्थित अभयपुरीमें गये थे। उस समय अवसर पाकर उस भीलने उस आतापनशिलाको खैर आदिके अंगारोंसे संतप्त कर दी। फिर उसने मुनिराजको वापिस आते हुए देखकर शिलाके ऊपरसे उन अंगारोंको हटा दिया । मुनिराजने उस शिलाके ऊपर आतापनयोगकी प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। इसलिए वे उसे संतप्त देखकर सन्यासको ग्रहण करते हुए उसके ऊपर चढ़ गये। इस भयानक उपसर्गको जीतनेसे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे तत्काल मुक्त हो गये । उधर उस भीलको सातवें दिन उदुम्बर
१. ज प फ श तत्तदायभावं [ तदृजुभावं ] २. श तदिदानीमेव । ३. ज जनानादो” । ४. ज फ ब श द्यानं । ५. श आगती मुनि । ६. ब भवांश्च इति ज प फ श भवाश्च [भवाश्च के इति । ७. प रौप्यकुंभप्राह श रोप्य कुम्भः प्राह । ८. व पूर्व म यम । ९. ब "द्विन्निमिलतीति श० दि स मिलतीति ।
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७: स मिल्लः सप्तमदिने उत्पन्नोदुम्बरकुष्ठेन कुथितशरीरो मृत्वा सप्तमावनि जगाम । ततो निर्गत्य प्रसस्थावरादिषु भ्रमित्वाऽत्र पुरै गोपालाम्बरगान्धार्योस्तनुजो दण्डकोऽभूत । स परिभ्रमन नीलाचलं गतस्तत्र दावाग्निना मृतः । तच्छुद्धिं प्राप्य तद्वान्धवाः संभूय रुदन्तस्तत्रागुरिति जनानां शोककारणम् ।।
- इदानी रोहिण्याः शोकाभावकारणं कथ्यते- अत्रैव हस्तिनापुरे पूर्व वसुपालो नाम राजाभूद्राशी वसुमती श्रेष्ठी धनमित्रो भार्या धनमित्रा तनुजातिदुर्गन्धा दुर्गन्धाभिधा । तां न कोऽपि परिणयति । अपरो वणिक सुमित्रो वनिता वसुकान्ता पुत्रः श्रीषणः सप्तव्यसनाभिभूतः । एकदा चोरिकायां चण्डपासकैः धृतो राजवचनेन शूले प्रवणार्थ नीयमानो धनमित्रेण दृष्ट्वा भणितो मत्पुत्री परिणेष्यसि चेत् मोचयामि त्वाम् । स वभाण म्रिये, न परिणेप्यामि । तदा वन्धुजनाग्रहेण तत्परिणयनमभ्युपगतं तेन । श्रेष्ठिना भूपं विज्ञाप्य मोचितस्तां परिणीय तदुर्गन्धं सोदुमशक्तो रात्रौ पलाय्य गतः। मातापितृभ्यां तस्या भणितं पुत्रि, त्वं धर्म कुर्विति । भिक्षाभाजोऽपि तद्धस्ते स्वर्णादिकमपि नेच्छन्ति । एकदा संयमश्रीः क्षान्तिका चर्यामार्गेण तद्गृहमागता । सा तां' स्थापयामास । इयं व्याधिता न भवति, सहजदुरकोढ़ उत्पन्न हो गया। इससे उसके समस्त शरीरमेंसे दुर्गन्ध आने लगी। तब वह मरणको प्राप्त होकर सातवें नरक गया। फिर वह वहाँसे निकलकर अनेक त्रस-स्थावर योनियोंमें परिभ्रमण करता हुआ इसी पुरमें ग्वाला अम्बर और गान्धारीक दण्डक पुत्र हुआ था। वह घूमता हुआ नीलाचल पर्वतके ऊपर गया और वहाँ वनाग्निके मध्यमें पड़कर मर गया। तब उसकी खबर पाकर कुटुम्बी जन एकत्रित होकर रोते हुए वहाँ गये। यह उनके शोकका कारण है।
अब मैं रोहिणीके शोक न होनेके कारणको बतलाता हूँ- इसी हस्तिनापुरमें पहिले एक वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। वहींपर एक धनमित्र नामका सेठ रहता था। उसकी स्त्रीका नाम धनमित्रा था। इनके अतिशय दुर्गन्धित शरीरवाली एक दुर्गन्धा नामकी पुत्री थी। उसके साथ कोई भी विवाह करनेके लिए उद्यत नहीं होता था। वहींपर एक सुमित्र नामका दूसरा सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम वसुकान्ता था। इनके एक श्रीषेण नामका पुत्र था जो सात व्यसनोंमें रत था । एक समय वह चोरी करते हुए कोतवालों के द्वारा पकड़ लिया गया था। वे उसे राजाज्ञाके अनुसार शूलीपर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे। मार्गमें धनमित्रने देखकर उससे कहां कि यदि तुम मेरी पुत्रीके साथ विवाह कर लेते हो तो मैं तुम्हें छुड़ा देता हूँ। इसपर उसने उत्तर दिया कि मैं मर जाऊँगा, परन्तु आपकी पुत्रीके साथ विवाह नहीं करूँगा। किन्तु तत्पश्चात् बन्धुजनोंके आग्रहसे श्रीपेणने धनमित्रकी पुत्रीके साथ विवाह करना स्वीकार कर लिया। तब सेठने राजासे प्रार्थना करके उसे मुक्त करा दिया। इसके पश्चात् उसने दुर्गन्धाके साथ विवाह तो कर लिया, परन्तु वह उसके शरीरकी दुर्गन्ध को न सह सकनेके कारण रातमें वहाँ से भाग गया। तब माता पिताने दुर्गन्धासे कहा कि हे पुत्री! तू धर्मका आचरण कर। उसके शरीरसे इतनी अधिक दुर्गन्ध आती थी कि जिससे अन्यकी तो बात ही क्या, किन्तु भिखारी तक उसके हाथसे सोना आदि भी लेना पसन्द नहीं करते थे। एक दिन उसके घरपर चर्यामार्गसे संयमश्री नामकी आर्यिका आई। दुर्गन्धाने उनका पडिगाहन किया। उस समय आर्थिकाने विचार किया कि यह रुग्ण नहीं है, किन्तु स्वभावतः
१. फ कुथितशरीरे । २. श गोपुरे । ३. ५ चण्डिपासिकै तो ब चण्डपासकैतो श चण्डिपासकैतो। ४. श मागत्य । ५. ब 'ता' नास्ति । ६. ज व्याधिता न चेति भवति ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ]
५. उपवासफलम् ३-४
२०५
भिगन्धेति पुलविकारः कश्चिदेवंविध इत्येतद्धस्ते स्थितौ दोषो नास्तीति स्वं निर्विचि - कित्सा गुणं प्रकाशयन्ती सा तस्थौ । सा तस्या नैरन्तर्य चकार । तदनु सा तां प्रार्थयति स्म अर्ज, मां मा त्यज, त्वत्प्रसादात्सुखिती भवामीति । ततः सा तत्कृपया तत्रैव तस्थौ ।
एकदा तत्पुरोद्यानं पिहितास्रवमुनिराजगाम । वनपालकात्तदागमनमवगम्य राजादयो वन्दितुं निःस्रुर्वन्दित्वा धर्ममाकर्ण्य पुरं प्रविविशुः । दुर्गन्धापि तयार्जिकया गत्वा ववन्दे । तदनु पप्रच्छ केन पापेनाहमेवंविधा जातेति । मुनिराह - सुराष्ट्रदेशे गिरिनगरे राजा भूपालो देवी सुरूपवती श्रेष्ठी गङ्गदत्तो भार्या सिन्धुमती । एकदा वसन्ते उद्यानं गच्छता राज्ञा गङ्गदत्त आहूतः । स गृहात्सवनितो निःसरन् चर्यार्थ संमुखमागच्छन्तं गुणसागर मुनिं ददर्श स्थापितवांश्च । राजभयाद्वानितां वभाण हे प्रिये, मुनिं चर्या कारयेति । सा पतिभयान्न किमप्युवाच । तस्य परिवेषणार्थ तस्थौ । श्रेष्ठो गतः । सा मम जलक्रीडाविघ्नकरोऽयमस्य ' जानामीति वाजिनिमित्तं मेलितं कटुकं तुम्बमदत्त । स तद् गृहीत्वा वसतिकां ययौ । तत्र महति दाघे समुत्पन्ने संन्यासेन मृत्वाच्युतं जगाम । राजा पुरं प्रविशंस्तद्विमानं निर्गच्छल्लु
दुर्गन्धमय शरीरसे संयुक्त है । इसके शरीर सम्बन्धी पुद्गलका कुछ विकार ही इस प्रकारका है । इस कारण इसके हाथसे आहार ग्रहण करनेमें कोई दोष नहीं है । इस प्रकारका विचार करके वे आर्यिका निर्विचिकित्सा गुणको प्रगट करती हुई वहाँ स्थित हो गई । तब दुर्गन्धाने उन्हें निरन्तराय आहार दिया । तत्पश्चात् उसने उनसे प्रार्थना की कि हे आर्थिके ! मुझे न छोड़िये, आपके प्रसादसे मैं सुखी होऊँगी । इसपर वे उसके ऊपर दयालु होकर वहींपर ठहर गईं ।
एक समय उस नगर के उद्यानमें पिहितास्रव मुनि आये । वनपालसे उनके आगमन के समाचारको जान करके राजा आदि उनकी वन्दना के लिए निकले। उनकी वन्दना के पश्चात् वे धर्मश्रवण करके नगर में वापिस आये । संयमश्री आर्थिक के साथ जाकर दुर्गन्धाने भी उनकी वन्दना की । तत्पश्चात् उसने उनसे पूछा कि मैं किस पापके फलसे इस प्रकारकी हुई हूँ। मुनि बोले -- सुराष्ट्र देशके भीतर गिरिनगर है । वहाँ भूपाल नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम सुरूपवती । था इसी नगर में एक गंगदत्त नामका सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम सिन्धुमती था । एक बार वसन्त ऋतुके समयमें उद्यानको जाते हुए राजाने गंगदत्त को बुलाया । वह पत्नीके साथ घरमेंसे निकल ही रहा था कि इतने में उसे चर्या के लिए सम्मुख आते हुए गुणसागर मुनि दिखायी दिये । तब उसने उनका पडिगाहन किया और राजाके भयसे अपनी पत्नीसे कहा कि, हे प्रिये ! तुम मुनिको आहार करा दो। इसपर वह पतिके भयसे कुछ भी नहीं बोली और मुनिको परोसने के लिए ठहर गई । सेठ राजाके साथ उद्यानको चला गया। इधर सिन्धुमतीने 'यह मुनि मेरी जलक्रीड़ा में बाधक हुआ है, मैं इसे देखती हूँ' इस प्रकार सोचकर घोड़े के लिए मँगायी गयी कड़वी बड़ी मुनिके लिए दे दी। मुनि उक्त तूंबड़ीका भोजन करके वसतिकाको चले गये। इससे उनके शरीर में अतिशय दाह उत्पन्न हुई । तब उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया । अन्तमें संन्यासपूर्वक शरीरको छोड़कर वे अच्युत स्वर्गको प्राप्त हुए । उधर उद्यानसे वापिस आकर नगर के भीतर प्रवेश करते हुए राजाने उनके विमानको निकलते हुए देखा । तत्र
१. व विघ्नकरो अस्य ।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७ :
गुण
लोके । कोऽयं मुनिमृतेति [ मुनिर्मृत इति ] पप्रच्छ । कश्चिदाह-मासोपवासपारणायां सागरमुने: सिन्धुमत्या अश्वार्थ कृतं कटुकं तुम्बं दत्तम् स मृत इति । तदनु श्रेष्ठी दीक्षितः । राजा कर्णनासिकाछेदं कृत्वा गर्दभमारोप्य तां निःसारयामास । सा कुण्ठिनी कुथितशरीरा मृत्वा षष्ठनरके गता । नरकादागत्यारण्ये शुनी जाता, दावाग्निना ममार, तृतीयनरकं गता । ततः कौशाम्ब्यां शकरी बभूव । श्रजीर्णेन मृत्वा कोशलदेशे नन्दिग्रामे मूषिकाऽजनि । तृषायां मृत्वा जलूका वभूव । जलं पातु प्रविष्टा [ष्ट] महिषीशरीरे लग्ना । आकृष्टरुधिरभारेण धर्मे पतिता काकैर्भक्षिता मृता उज्जयिन्यां चण्डाली जज्ञे, जीर्णज्वरेण ममाराहिच्छत्रनगरे रकगृहे रासभी व्यजनि । ततोऽपि मृत्वाऽत्र हस्तिनापुरे ब्राह्मणगृहे कपिला गौर्जाता कर्दमे मग्ना मृतात्वं जाताऽसीति निशम्य दुर्गन्धा पुनः पृच्छति स्म -- - हे नाथ, दुर्गन्धगमनोपायं कथय । [स] कथयति स्म - - हे पुत्र, सप्तविंशतिमे दिने रोहिगीनक्षत्रमागच्छति । तस्मिन्नुपवासः कर्तव्यः । तदुपवासक्रमः - कृत्तिकायां स्नात्वा जिनमभ्यच्यैकभक्तं ग्राह्यम् । भुक्वात्मादि (?) साक्षिक उपवासो ग्राह्यः । स च मार्गशीपेमासे प्रारम्भणीयंस्तद्दिने जिनाभि
s
उसने किसी से पूछा कि ये कौन-से मुनि मरणको प्राप्त हुए हैं ? यह सुनकर किसीने कहा कि एक मासका उपवास पूर्ण करके गुणसागर मुनि पारणा के लिए गये थे । उन्हें सिन्धुमतीने घोड़े के लिये तैयारकी गई कडुबी तूंबड़ी दे दी। इससे उनका स्वर्गवास हो गया है। इस घटना से दीक्षा धारण कर ली । उधर राजाने सिन्धुमतीके कान और नाक कटवा लिये तथा उसे गधेके ऊपर चढ़ाकर नगरसे बाहिर निकलवा दिया। तत्पश्चात् सिन्धुमतीको कोढ़ निकल आया । इससे उसका शरीर दुर्गन्धमय हो गया । वह मरकर छठे नरक में पहुँची । वहाँ से निकलकर वह वनमें कुत्ती हुई और वनाग्निसे जलकर मर गई । फिर वह तृतीय नरकको प्राप्त हुई । वहाँ से निकलकर वह कौशाम्बी नगरी में शूकरी हुई। तलश्चात् अजीर्णसे मरकर वह कोशल देशके अन्तर्गत नन्दिग्राम में चुहिया हुई । इस पर्याय में वह प्यास से पीड़ित होकर मरी और जलूका (गों व ) हुई । वहाँ उसने जल पीनेके लिए आयी हुई भैंसके शरीर में लगकर उसका रक्तपान किया । उस रक्तके बोझसे धूपमें गिर जानेपर उसे कौओंने खा लिया । तब वह मरकर उज्जयिनी पुरीमें चाण्डालिनी हुई। फिर वह जीर्ण ज्वरसे मरकर अहिछत्र नगर में धोबीके घरपर गधी हुई। तत्पश्चात् मरणको प्राप्त होकर वह यहाँ हस्तिनापुरमें एक ब्राह्मणके घरपर कपिला गाय उत्पन्न हुई । वह कीचड़ में फँसकर मरो और फिर तू हुई है । इस प्रकार अपने पूर्व भवों की परं पराको सुनकर दुर्गन्धाने उनसे फिर पूछा कि हे नाथ ! मेरे इस शरीर की दुर्गन्धके नष्ट होने का क्या उपाय है ? इसपर मुनिने कहा कि हे पुत्री ! सत्ताईसवें दिन रोहिणी नक्षत्र आता है । उस दिन . उपवास कर। इस उपवासका क्रम इस प्रकार है— कृत्तिका नक्षत्र के समय में स्नान करके जिन भगवान् की पूजा करनी चाहिये । तत्पश्चात् एकाशनकी प्रतिज्ञा लेकर भोजन करे और स्वयं या अन्य किसीके साक्षीमें उपवासका नियम ले ले । इस उपवासको मार्गशीर्ष माससे प्रारम्भ करना
१. व कोयं मृतेपि पप्रच्छ । २ व प्रतिपाटोज्यम् । शमुनिः । दवाग्निना । ५. द्वितीय । ६. शजका ७ स्खलितो जातः । ९ व प्रारंभनीय
३. ज व अरण्यशुनी । ४. ब सप्तविंशतिदिनं । ८ श अतोऽग्रे 'ग्राह्यः पर्यन्तः पाठः
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ]
५. उपवासफलम् ३-४
२०७
घेकादिकं कृत्वा धर्मध्यानेनैव स्थातव्यम्, पारणा है' जिनपूजनादिकं विधाय यथाशक्ति पात्रदानं च, तदनु पारणा कर्तव्या । स च रोहिणीविधानविधिरुत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्चेति त्रिविधः । सप्त वर्षाणि यो विधीयते स उत्कृष्ट, पञ्च वर्षाणि मध्यमः, त्रीणि वर्षाणि जघन्यः ।
तदुद्यापनक्रमः कथ्यते - तस्मिन्नेव मासे रोहिणीनक्षत्रे जिनप्रतिमां कारयित्वा प्रतिष्ठाप्य पञ्चपञ्चसंख्यकं वृतादिकलशैर्जिनाभिषेकं कृत्वा पञ्चतण्डुलपुञ्जः पञ्चप्रकारपुष्पैः पञ्चभाजनस्थनैवेद्यः पञ्चदीपैः पञ्चाङ्गधूपैः पञ्चप्रकारफलैर्जिनं पूजयित्वा पञ्चसंख्यासंख्याकोपकरणैः समेताः प्रतिमा वसतये देयाः, पञ्चाचार्येभ्यः पञ्च पुस्तकानि यथाशक्ति साधूनां पूजार्जिकाभ्यो वस्त्राणि श्रावकश्राविकाभ्यः परिधानं च देयम्, शक्त्यनुसारेणाभयघोषणान्नदानादिना प्रभावना कार्या, तद्दिवसे वसतो पञ्चवर्ण तण्डुलैरर्धतृतीयौ द्वीपो विलिख्य पूजतोयाविति । यस्योद्यापने शक्तिर्नास्ति स द्विगुणं प्रोषधं कुर्यात् । एतत्फलेनेहापि सुखं लभेरन् भव्या इति निशम्य पूतिगन्धा एतद्विधानं जग्राह ।
पुनस्तं पृच्छति स्म पूतिगन्धा -- मद्विधः कोऽपि संसारे दुर्गन्धदेहो जातो नो वा । मुनिराह - कलिङ्गदेशे महाटव्यां गजो ताम्रकर्णश्वेतकर्णौ करिणीनिमित्तं युद्ध्वा मृतौ मूषकचाहिये । उस दिन जिन भगवान्का अभिषेक व पूजनादि करके धर्मध्यानमें कालयापन करना चाहिये । फिर पारणाके दिन जिनपूजनादिके साथ पात्रदान करके तत्पश्चात् पारणा करे । वह रोहिणी व्रत की विधि उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन प्रकारकी है। उनमें उक्त व्रतका सात वर्ष तक पालन करनेपर वह उत्कृष्ट, पाँच वर्ष तक पालन करनेपर मध्यम और तीन वर्ष तक पालनेपर जघन्य होता है ।
अब उसके उद्यापनकी विधि बतलाते हैं- उसी मार्गशीर्ष माह में रोहिणी नक्षत्र के होनेपर जिनप्रतिमाका निर्माण कराकर उसकी प्रतिष्ठा कराना चाहिये । तत्पश्चात् पाँच पाँच संख्या में घी आदि कलशोंसे जिन भगवान्का अभिषेक करके पाँच अक्षतपुंजों, पाँच प्रकार के पुष्पों, पाँच पात्रों में स्थित नैवेद्यों, पाँच द्वीपों, पंचांग धूपों और पाँच प्रकारके फलोंसे जिनपूजन करना चाहिये । साथ ही पाँच उपकरणों सहित प्रतिमाओंको वसतिका के लिए देना चाहिये । इसके अतिरिक्त पाँच आचार्योंके लिए पाँच पुस्तकोंको, यथाशक्ति साधुओं को पूजा (अर्ध ), आर्यिकाओंके लिए वस्त्र और श्रावक-श्राविकाओंके लिए परिधान ( धोती आदि पहिरनेके वस्त्र ) को भी देना चाहिये । अन्तमें जैसी जिसकी शक्ति हो तदनुसार अभयकी घोषणा करके आहारदानादिके द्वारा धर्मप्रभावना भी करना चाहिये । उस दिन जिनालय में पाँच वर्णके चावलोंसे अढ़ाई द्वीपोंकी रचना करके पूजन करना चाहिये। जो व्रती उद्यापन करने में असमर्थ हो उसे उक्त व्रतका पालन नियमित समयसे दुगुणे काल तक करना चाहिये । इस व्रत के फलसे भव्यं जीव परलोक में तो सुख प्राप्त करते ही हैं, साथमें वे उसके फलसे इस लोक में भी सुख पाते । इस प्रकार रोहिणी व्रत के विधानको सुनकर पूतिगन्धाने उसे ग्रहण कर लिया ।
पश्चात् पूतिगन्धाने उनसे पुनः प्रश्न किया कि इस संसार में मेरे समान दूसरा भी कोई ऐसे दुर्गन्धयुक्त शरीरसे सहित हुआ है अथवा नहीं ? मुनि बोले - कलिंग देशके भीतर एक महावन में ताम्रकर्ण और श्वेतकर्ण नामके दो हाथी थे । वे हथिनी के निमित्तसे परस्पर
१. पारणा । २. श विधाय' नास्ति । ३ श प्रतिमा । ४. व प्रतिपाटोऽयम् । श जिनपूजनं पूजयित्वा । ५. व वस्त्राणि श्रावकाभ्यः परि । ६. पफश लभेत् ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७:
मार्जारौ बभूवतुः । तत्र मार्जारेणाखुर्हतः सन् नकुलेऽभून्मार्जारोऽहिनकुलेन हतोऽपि अहिः कुर्कुटो ऽजनि नकुलो मत्स्यः । तदनु पारापतौ बभूवतुः, विद्युता मम्रतुरत्रैव हस्तिनापुरे राजा सोमप्रभो रामा कनकप्रभा पुरोहितो रविस्वामी रमणो सोमश्रोस्तस्याः सोमशर्मसोमदत्ती यमलकोवजनिशम् । तयोः क्रमेण वनिते सुकान्तालक्ष्मीमत्यौ । मृते तत्पितरि राज्ञा कनिष्ठः पुरोहितो विहितः । स राजमान्यो भूत्वा तस्थौ । सोमशर्मा मद्रनितया यातीति विबुध्य सोमदत्तो दिगम्बरोऽजनि सकलागमधरो भूत्वा एकविहारी जातो विहरन्नेकदा हस्तिनापुर वहिः प्रदेशमागतः । तदा सोमप्रभो नृपो मगधेशनिकटे मदनावलीनाम्नीं तत्कन्यां व्यालसुन्दरं च हस्तिनं याचितुं स्वविशिष्ट॑मयापयद्दास्यति नो वेति स्वयमपि प्रस्थानमकार्षीत् । तदा स तं मुनिमद्राक्षीत् । तत्तपोग्रहणं विज्ञाय तत्पदं सोमशर्मणे दत्तम् तं पृष्टवान् नृपः प्रस्थाने क्रियमाणे श्रमणो दृष्टः, किं क्रियते इति । सोमशर्मा भ्रातरं विज्ञाय जन्मान्तरवैरभावेनावदत् इममपशकुनकारकं दिशाबलिं कृत्वा गन्तव्यम् । एतत् श्रुत्वा नृपो पापमिति भणित्वा श्रोत्ररन्ध्रे करयुगेन पिधाय तस्थौ । तदा विश्वदेवः शाकुनिको वृते हे पुरोहित,
लड़े और मरकर चूहा एवं बिलाव हुए, इनमें चूहेको बिलावने मार डाला । वह मरकर नेवला हुआ । उधर वह चिलाव मरकर सर्प हुआ । इस सर्पको उस नेवलेने मार डाला । वह मरकर कुक्कुट (मुर्गा ) हुआ और वह नेवला समयानुसार मरणको प्राप्त होकर मत्स्य हुआ । तत्पश्चात् वे दोनों मरकर कबूतर हुए । यहीं हस्तिनापुर में किसी समय सोमप्रभ राजा राज्य करता था । रानीका नाम कनकप्रभा था । इस राजाके यहाँ रविस्वामी नामका पुरोहित था । इसकी पत्नीका नाम सोमश्री था । वे दोनों कबूतर बिजली के निमित्तसे मरकर इस सोमश्री के सोमशर्मा और सोमदत्त नामके दो युगल पुत्र हुए थे । इन दोनोंकी स्त्रियोंका नाम क्रमशः सुकान्ता और लक्ष्मीमती था । जब इनका पिता मरा तब राजाने छोटे पुत्र ( सोमदत्त ) को पुरोहित बनाया । तब वह राजमान्य होकर स्थित हुआ । पश्चात् सोमशर्मा मेरी पत्नी के साथ संभोग करता है, यह जानकर उस सोमदत्तने जिनदीक्षा ले ली । वह समस्त आगमका ज्ञाता होकर एक-विहारी हो गया । इस प्रकार से विहार करता हुआ वह एक समय हस्तिनापुरके बाह्य प्रदेश में आया । इसी समय सोमप्रभ राजाने मगध देशके राजाके पास उसकी कन्या मदनावली और व्याल सुन्दर हाथीको माँगने के लिए अपने विशिष्ट (दूत) को भेजा । साथमें 'वह देगा कि नहीं' इस सन्देह के वश होकर राजाने स्वयं भी प्रस्थान किया । उस समय राजाने जाते हुए मार्गमें उन सोमप्रभ मुनिको देखा । उधर सोमप्रभ राजाने सोमदत्तको दीक्षित हो गया जानकर पुरोहितका पद सोमशर्मा के लिए दे दिया था । उस समय प्रस्थान करते हुए राजाने जब सोमदत्त मुनिको देखा तब उसने सोमशर्मा पुरोहितसे पूछा कि प्रस्थानके समयमें यदि दिगम्बर मुनि दिखें तो क्या करना चाहिये ? यह सुनकर सोमशर्माने सोमदत्त मुनिको अपना भाई जानकर जन्मान्तरके द्वेषवश राजा से कहा कि इसे अपशकुन कारक समझकर दिशाओंके लिये बलि दे देना चाहिये और तत्पश्चात् आगे गमन करना चाहिये । इस बात को सुनकर राजाने 'यह पाप है' कहते हुए अपने कानोंके छेदों को दोनों हाथों से आच्छादित कर लिया। उस समय विश्वदेव नामक शकुन शास्त्र के जानकारने उससे
१. व कुक्कुटोश कुर्कटो । २. ज फस जमलका । ३. व मदनवाली नामां । ४. ज प श स्ववशिष्ट । ५ ज मह्यापयद्वास्यति । ६. फ स्वयमेवापि । ७. ज प व श्रवणो । श्रवण दृष्टः किं क्रियते । ८. प गत्वा । ९. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श विश्वदेवशकुनिको व्रत |
८. व दृष्टः किं क्रियमाणो
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ]
५. उपवासफलम् ३-४
२०६
कस्मिन् शास्त्रे क्षपणकोऽपशकुन इति भणितम्, कथय कथयेति । तदा तूष्णीं स्थिते तस्मिन् विश्वदेवो वभाण - देव, दिगम्बरदर्शनं श्रेयोऽर्थ भवति । उक्तं च शकुनशास्त्रे -
श्रमणस्तुरगो राजा मयूरः कुञ्जरो वृषः । प्रस्थाने वा प्रवेशे वा सर्वे सिद्धिकराः स्मृताः ॥
देव, त्वमत्रैव तिष्ठ, पञ्चरात्रे स विशिष्टः कन्याकरिभ्यां नागच्छति चेदहं शाकुनिको न भवामि । ततो राजा तत्रैव शिबिरं विमुच्य तस्थौ । तथैव स आगतस्तदा राजा संतुष्टो विश्वदेवं पुरोहितं चकार, पुरं प्रविवेश । सोमशर्मा कुपितस्तं मुनिं रात्रौ मारयति स्म । मुनिः सर्वार्थसिद्धि ययौ । स राजा मुनिघातकं केनापि प्रकारेण विबुध्य गर्दभारोहणादिकं कृत्वा निर्धाटितवान्। स महादुःखेन मृत्वा सप्तमावनं जगाम ततो निःसृत्य स्वयंभूरमणे महामत्स्यो ऽभूदनन्तरं पष्ठ नरकं ययौ । ततो महाटव्यां सिंहो भूत्वा पञ्चमीं धरामवाप । ततो व्याघ्रोऽजनि मृत्वा चतुर्थनरकमियाय । ततो दृष्टिविषो जातः तृतीयनरकं प्राप्तः । ततो भेरुण्डो भूत्वा द्वितीयनरकं जगाम । ततोऽपि शुकरो जातो मृत्वा प्रथमावनो जातः । ततो मगधदेशे सिंहपुरेशसिंह सेन- हेमप्रभयोः पुत्रो बभूव । सोऽतिदुर्गन्धदेह इति दुर्गन्ध कुमार
पूछा कि हे पुरोहित ! दिगम्बर साधुका दर्शन अपशकुन कारक है, यह किस शास्त्र में कहा गया है; मुझे शीघ्र बतलाओ । इसपर जब वह सोमशर्मा चुप रहा तत्र विश्वदेवने राजासे कहा कि हे देव ! दिगम्बर साधुका दर्शन कल्याणकारी होता है । शकुनशास्त्र में भी ऐसा ही कहा गया हैदिगम्बर साधु, घोड़ा, राजा, मोर, हाथी और बैल; ये सब प्रस्थान और प्रवेशके समयमें कल्याणकारी माने गये हैं ।
फिर विश्वदेव बोला कि हे राजन् ! आप यहाँपर ही स्थित रहिए । यदि वह दूत पाँच दिनके भीतर मदनाचली और उस हाथीके साथ वापिस नहीं आता है तो मुझे शकुनका ज्ञाता ही नहीं समझना । तब राजा वहीं पर पड़ाव डालकर स्थित हो गया । तत्पश्चात् जैसा कि विश्व - देवने कहा था, तदनुसार ही वह दूत राजपुत्री और उस हाथीको साथ लेकर वहाँ आ पहुँचा । इससे राजा को बहुत सन्तोष हुआ । तब वह विश्वदेवको पुरोहित बनाकर नगर के भीतर प्रविष्ट हुआ | इस घटना से सोमशर्माको बहुत क्रोध आया । इससे उसने रातमें उन सोमदत्त मुनिको मार डाला । इस प्रकारसे शरीर को छोड़कर सोमदत्त मुनि सर्वार्थसिद्ध विमानको प्राप्त हुए । जब राजाको यह किसी प्रकारसे ज्ञात हुआ कि सोमशर्माने मुनिकी हत्या की है तब उसने गर्दभारोहण आदि कराकर उसे देशसे निकाल दिया । तब वह महान् कष्टके साथ मरकर सातवें नरकको प्राप्त हुआ । पश्चात् वहाँ से निकलकर वह स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ । वह भी मरकर छठे नरक में गया । तत्पश्चात् वह महावनमें सिंह हुआ और मरकर पाँचवें नरकमें गया । वहाँ से निकलकर वह व्याघ्र हुआ और फिर मरकर चौथे नरक में गया । तत्पश्चात् ह दृष्टिविष सर्प होकर तीसरे नरक में गया। फिर उसमेंसे निकलकर वह भेरुण्ड पक्षी हुआ और मरकर दूसरे नरकमें गया । तत्पश्चात् वह शूकर हुआ और मरकर पहिले नरक में गया । वहाँ से निकलकर वह मगधदेशमें सिंहपुर के राजा सिंहसेन और हेमप्रभाका पुत्र हुआ है । शरीर से
१. फ वृद्धिकराः ।
२७
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१.
पुण्यानवकथाकोशम् संशया वृद्धि जगाम । एकदा तत्पुरसमीपे विमलवाहन केवली तस्थौ। तद्वन्दनार्थ राजादयोऽपि निर्ययुः । तत्रासुरकुमारान् विलोक्य पूतिगन्धो मूर्च्छितोऽभूत् । राज्ञा हेतौ पृष्टे केवली प्राक्तनी कथां हस्त्यादिभवादिकां कथयति स्म । असुरैरनेकधा नरके योधित इति तद्दर्शनेन मूच्छित इति । पूतिगन्धो दुःखापहारोपायं पप्रच्छ । केवली रोहिणीविधानमचीकथत्। स तं सप्त वर्षाणि कृत्वा व्रतमाहात्म्येन सुगन्धदेहोऽभूदिति सुगन्धकुमाराभिधोऽभूत् । सिंहसेनस्तस्मै राज्यं दत्त्वा विमलवाहनान्तिके दीक्षितः मुक्तिं जगाम । सुगन्धकुमारो बहुकालं राज्यं विधाय विनयाख्यतनयाय राज्यमदत्त, समयगुप्ताचार्यान्ते तपो विधायाच्युते जने।
ततोऽत्रैव द्वीपे पूर्व विदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीशविमलकीर्ति-पदमश्रियोनन्दनोऽर्ककीर्तिरजनि, मेघसेनमित्रेण वृद्धिं ययौ, सर्वकलाकुशलोऽभूत् । एकदा तत्पुरमुत्तरमथुरायाः सकाशाद्वसुदत्तलक्ष्मीमत्यौ स्वपुत्रमुदितनागते । दक्षिणमथुराया धनमित्र-सुभद्रे स्वपुत्रीगुणवत्या सहागते । तत्र मुदितगुणवत्योविवाहोऽभूत् । वेदिकायां गुणवतीमभीक्ष्य अतिशय दुर्गन्ध निकलनेके कारण उसका नाम अतिदुर्गन्धकुमार प्रसिद्ध हुआ। समयानुसार वह वृद्धिको प्राप्त हुआ।
एक समय उस नगरके समीपमें विमलवाहन नामके केवली आकर विराजमान हुए। तब राजा आदि भी उनकी वन्दनाके लिए निकले। वहाँ असुरकुमारोंको देखकर वह पूतिगन्धकुमार मूर्छित हो गया। यह देखकर राजाने केवलीसे उसके मूर्छित हो जानेका कारण पूछा । तदनुसार केवलीने उपर्युक्त हाथी आदिके भवोंसे सम्बन्ध रखनेवाली पूर्वोक्त कथाको कहकर यह बतलाया कि पूतिगन्धकुमार चूँकि चिरकाल तक नरकोंमें रहकर असुरकुमारोंके द्वारा अनेक बार लड़ाया गया था, अतएव उनको देखकर यह मूर्छित हो गया है। तत्पश्चात् पूतिगन्धने केवलीसे अपने दुःखके नष्ट होने का उपाय पूछा । उसका उपाय केवलीने रोहिणीव्रतका अनुष्ठान बतलाया । तब पूतिगन्धकुमारने उक्त व्रतका सात वर्ष तक पालन किया। इसके प्रभावसे उसका दुर्गन्धमय शरीर सुगन्ध स्वरूपसे परिणत हो गया। इससे अब उसका नाम सुगन्धकुमार प्रसिद्ध हो गया। उधर सिंहसेन राजाने उसके लिए राज्य देकर विमलवाहन केवलीके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। सुगन्धकुमारने बहुत समय तक राज्य किया। तत्पश्चात् उसने विनय नामक पुत्रके लिए राज्य देकर समयगुप्ताचार्यके समीपमें दीक्षा ले ली। फिर वह तरश्चरण करके अच्युत स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ।
इसी जम्बूद्वीपके अन्तर्गत पूर्व विदेहमें एक पुष्कलावती नामका देश है। उसके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी पुरीमें विमलकीर्ति नामक राजा राज्य करता था । रानीका नाम पद्मश्री था । उपयुक्त अच्युत स्वर्गका वह देव वहाँ से च्युत होकर इन दोनों के अकीति नामका पुत्र हुआ। वह अपने मेघसेन मित्रके साथ क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होकर समस्त कलाओं में पारंगत हो गया। एक समय उस पुर ( पुण्डरीकिणी ) में उत्तर मथुरासे वसुदत्त और लक्ष्मीमती अपने पुत्र मुदितके साथ आये तथा दक्षिण मथुरासे धनमित्र और सुभद्रा अपनी पुत्री गुणवतीके साथ आये। वहाँपर मुदित और गुणवतीका परस्पर विवाह सम्पन्न हुआ। उस समय
१. ज प श सोतिदुर्गन्धकुमारसंज्ञया फ सोऽतिदुर्गन्ध देहेतिदुर्गन्धकुमारसंज्ञया । २. प प पृष्ट ब श इष्टः। ३.फश लक्ष्मीमत्योः । ४. फ शगतेन दक्षिण । ५. जप शमभीष्य ब मवीक्ष्य ।।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ] ५. उपवासफलम् ३-४
२११ मेघसेनो राजात्मजमवदत्-हे मित्र, त्वां मित्रं प्राप्यापि ममेयं न स्याच्चेत् किं ते मित्रत्वेन । ततस्तदर्थ रविकीर्तिहठात्तामहरत् । वणिजामाकोशवशेन पुत्रं सुमित्रं' निःसारयामास विमलकीर्तिः । अर्ककीर्तिर्वीतशोकपुरमगात् । तत्र राजा विमलवाहनो देवी सुप्रभा तत्पुग्यो जयावतो वसुकान्ता सुवर्णमाला सुभद्रा सुमतिः सुव्रता सुनन्दा विमलाश्चेत्यष्टौ । तत्पित्रा पूर्वमवधिशानिनः पृष्टा मत्पुत्रीणां को वरो भवेदिति । तैरवादि यश्चन्द्रकवेध्यं विध्यति स भवेत् । ततस्तेन स्वयंवरमण्डपः कृतः, चन्द्रकवेध्यं च स्थापितम् ,राजन्य कंचमिलितम् । न च केनापि तद्विद्धम् । अर्ककीर्तिर्विव्याध, ताः परिणीय सुखेन तस्थौ।।
___एकदा विमलनगं निर्वाणभूमिवन्दनार्थ राजादयो जग्मुः । तत्र यत्कर्तव्यं तत्कृत्वा रात्री तत्रैव सुप्ताः । तत्रार्ककीति चित्रलेखा विद्याधरी निनाय, सिद्धकूटाग्रेऽस्थापयत् । तं किमिति निनायेत्युक्ते तत्र विजयाधं उत्तरश्रेण्यौ मेघपुरेशवायुवेग-गगननवल्लभयोस्तनुजावीतशोका। एकदा मन्दिरं गतेन तत्पित्रा दिव्यज्ञानिनः पृष्टा मत्पुच्या वरः कः स्यात् । यद्दर्शनात् सिद्धकूटकवाट उद्घटिष्यति सस्यादिति उक्त तथाविधः खेचरस्तत्र कोऽपि नास्तीति तत्कन्यासख्यार्क
मेघसेनने वेदीके ऊपर गुणवतीको देखकर राजपुत्र ( अर्ककीर्ति ) से कहा कि हे मित्र ! तुम जैसे मित्रको पा करके भी यदि मुझे यह कन्या नहीं प्राप्त हो सकी तो तुम्हारी मित्रतासे क्या लाभ हुआ ? यह सुनकर अर्ककीर्तिने मेघसेनके लिए उस कन्याका अपहरण कर लिया। तब वैश्योंके चिल्लानेपर विमलकीर्तिने उस मित्रके साथ अपने पुत्र अर्ककीर्तिको भी निकाल दिया । इस प्रकार वह अर्ककीर्ति वीतशोकपुरको चला गया। वहाँ विमलवाहन राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सुप्रभा था। उनके जयावती, वसुकान्ता, सुवर्णमाला, सुभद्रा, सुमति, सुव्रता, सुनन्दा और विमला नामकी आठ पुत्रियाँ थीं । इनके पिताने पहिले अवधिज्ञानी मुनियों से पूछा था कि मेरी इन पुत्रियोंका वर कौन होगा। उत्तरमें उन्होंने बतलाया था कि जो चन्द्रक वेध्यको वेध सकेगा वह तुम्हारी इन पुत्रियोंका पति होवेगा। इसपर राजाने स्वयंवरमण्डपको बनवाकर चन्द्रकवेध्यको भी स्थापित कराया। इससे स्वयंवरमण्डपमें राजाओंका समूह जमा हो गया। परन्तु उसमें से उस चन्द्रक वेध्यको कोई भी नहीं वेध सका । अन्तमें अर्ककीर्तिने उसको वेधकर उन पुत्रियोंके साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार वह सुखपूर्वक कालयापन करने लगा।
__एक समय राजा आदि निर्वाण क्षेत्रकी वन्दना करनेके लिए विमल पर्वतपर गये। वहाँ आवश्यक जिनपूजनादि कार्योंको करके वे रातमें वहींपर सो गये। उनमेंसे अर्ककीर्तिको चित्रलेखा विद्याधरीने ले जाकर सिद्धकूटके शिखर पर स्थापित किया। उसको वहाँ ले जानेका कारण निम्न प्रकार है- वहाँ विजयार्ध पर्वतके ऊपर उत्तर श्रेणीमें मेघपुर नामका एक नगर है । वहाँ वायुवेग नामक राजा राज्य करता था। रानीका नाम गगनवल्लभा था। इनके एक वीतशोका नामकी पुत्री थी। एक दिन उसके पिताने मन्दर पर्वतपर जाकर किसी दिव्यज्ञानीसे पूछा था कि मेरी पुत्रीका वर कौन होगा। उत्तरमें उक्त दिव्यज्ञानीने यह बतलाया था कि जिसके दर्शनसे सिद्धकूट चैत्यालयका द्वार खुल जावेगा वह तुम्हारी पुत्रीका वर होगा। परन्तु वहाँ इस प्रकारका कोई भी विद्याधर नहीं था। इसीलिए उक्त कन्याकी सखी अर्ककीर्तिको सुनकर उसे वहाँ ले गई।
१. फश सुमित्र। २. ब सुमति । ३. प विध्यति । ४. फ °विव्याध तां ब विवाध्यताः श विवुध तां ।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२ पुण्यानवकथाकोशम्
[५-४,३७ : कीर्तिमाकर्ण्य से नीतस्तस्य दर्शनात्स कवाट उद्जघटे 'तां परिणीय तत्रानेकविद्याः साधयित्वा तां तत्रैव निधाय वीतशोकपुरमागच्छन् अार्यखण्डस्थमञ्जनगिरिपुरमवाप। तत्र राजा प्रभञ्जनः, कान्ता नीलाञ्जना, पुत्र्यो मदनलताविद्युल्लतासुवर्णलताविद्युत्प्रभामदनवेगाजयावतीसुकान्ताश्चेति सप्त उद्यानवनात्पुरं प्रविशन्त्यस्युटितबन्धनं मारयितुमागतं हस्तिनं वीक्ष्य नष्टे परिजने हाहा-नादं चक्रिरे । तन्नादं श्रुत्वार्क कीर्तिगजं बवन्ध, ता अवृणीत । ततो वीतशोकपुरं गत्वा मित्रादीनां मिलितः । ततः स्वपुरं गत्वादृश्यवेषेण स्थित्वा राजकीयमण्डपस्थपूगीफलान्यजालेण्डिकाः, पत्राण्यर्कपत्राणि, मृगनाभिकाश्मीरजादिकं गृथम् , स्त्रीणां श्मश्रुकूर्चान् , पुरुषाणां कुचान् , हस्तिनः शूकरानश्वान गर्दभान् , पानीयं गोमूत्रम् , वह्नि शीतलमित्यादि नानाविनोदास्तत्र विधाय राजादीनां कौतुकमुत्पादयांचकार । ततोऽन्येद्युभिल्लो भूत्वा पुरजीवधनं गृहीत्वा ययौ ।गोपालकोलाहलाद्राशा प्रेषितं बलं मायया पातितवान् । श्रुत्वा कोपेन राजास्वयं निर्जगाम, तेन महायुद्धं चकार । तदा मेघसेनोऽकथयत्ते पुत्रोऽयमर्ककीर्तिरिति श्रुत्वा विमलकीर्ति हर्ष स्वमूर्त्यानत नन्दनमालिलिङ्ग। महाविभूत्या पुरं प्रविष्टौ । रविकीर्तिः प्राक्परिणीताः स्त्रियः आनीय सुखेन तस्थौ ।
उसके दर्शनसे वह द्वार खुल गया । इसलिए अर्ककीर्तिने उस वीतशोकाके साथ विवाह कर लिया। पश्चात् उसने वहाँ अनेक विद्याओंको सिद्ध किया। फिर वह वीतशोकाको वहींपर छोड़कर वीतशोकपुर आते हुए आर्यखण्डस्थ अंजनगिरिपुरको प्राप्त हुआ। वहाँके राजाका नाम प्रभंजन
और रानीका नाम नीलांजना था । इनके मदनलता, विद्युल्लता, सुवर्णलता, विद्युत्प्रभा, मदनवेगा, जयावती और सुकान्ता नामकी सात पुत्रियाँ थीं। एक समय वे उद्यान-वनसे आकर नगरमें प्रवेश कर ही रही थीं कि इतनेमें एक हाथी बन्धनको तोड़ कर उनकी ओर मारनेके लिए आया । उसे देखकर सेवक आदि सब भाग गये। तब वे हा-हाकार करने लगीं। उनके आक्रन्दनको सुनकर अर्ककीर्तिने उस हाथीको बाँध लिया और उन कन्याओंके साथ विवाह कर लिया। तत्पश्चात् वह वीतशोकपुरमें जाकर मित्रादिकोंसे मिला । फिर उसने अपने नगर ( पुण्डरीकिणी ) में जाकर
और गुप्तरूपमें स्थित रहकर राजाके मण्डप या हडप्पमें स्थित सुपाड़ी फलोंको बकरीकी लेंडी, पानोंको अकौवाके पत्ते, कस्तूरी एवं केसर आदिको विष्ठा, स्त्रियों के दाढ़ी-मूंछ, पुरुषोंके स्तन, हाथियोंको शूकर, घोड़ोंको गधे, पानीको गोमूत्र और अग्मिको शीतल बनाकर अनेक प्रकारके विनोद कार्य किये। इनको देखकर राजा आदिको बहुत आश्चर्य हुआ। तःपश्चात् दूसरे दिन उसने भीलके वेषमें नगरके जीवधन ( पशुधन ) का अपहरण कर लिया। तब ग्वालों के कोलाहलसे इस समाचारको जानकर उसके प्रतीकारके लिए राजाने जो सेना भेजी थी उसको अर्ककीर्तिने मायासे नष्ट कर दिया। इसपर राजाको बहुत क्रोध आया। तब उसने स्वयं जाकर उसके साथ घोर युद्ध किया । पश्चात् मेघसेनने राजाको बतलाया कि यह तुम्हारा पुत्र अर्ककीति है। इस बातको सुनकर राजा विमलकीर्तिको बहुत हर्ष हुआ। तब उसने शरीरसे नम्रीभूत हुए अपने उस पुत्रका आलिंगन किया। फिर वे दोनों महाविभूतिके साथ नगरमें प्रविष्ट हुए । इसके पश्चात् अर्ककीर्ति अपनी पूर्वविवाहित पत्नियोंको ले आया और सुखसे रहने लगा।
१. ब तत्कन्या सार्ककीत्तिः। २. श 'स' नास्ति। ३. ज कवाटोद्घटि शकबाटोघटे । ४. श आर्याखण्ड । ५. ज पब राजकीयहडपस्थ । ६. ज प नंत।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-४, ३७ ]
५. उपवासफलम् ३-४
I
यदा स्वशिरसि दर्पणदृष्ट्या पलितं निरीक्ष्य तस्मै स्वपदं दत्त्वा विमलकीर्तिः सुव्रतान्ते दीक्षितः मोक्षमियाय । अर्ककीर्तिः सकलचक्रवर्ती बभूव । बहुकालं राज्यं विधाय स्वतनयं जितशत्रु राज्ये नियुज्य चतुःसहस्रभव्यैः शीलगुप्ताचार्य सकाशे दीक्षितो ऽच्युतेन्द्रो भूत्वा संप्रति वर्तते स्वर्गे । सोऽग्रे तस्मादागत्यास्मिन् हस्तिनापुरे वीतशोकनरेन्द्रात्मजोऽशोकः भविष्यति । त्वमत्र पुण्यमुपायं स्वर्गे अमरीभूत्वागत्य चम्पापुरे मघवतः पुत्री रोहिणी भूत्वा तस्याग्रवल्लभा भविष्यसीति श्रुत्वा पूतिगन्धा पिहितास्रवं नत्वा स्वगृहं विवेश । रोहिणी विधिमुद्यान्य सुगन्धदेहा जाता । तदार्जिकानिकटे तपो विधाय संन्यासेन तनुं विहायेशाने तदच्युतेन्द्र प्रतिबद्धविमाने सुवर्णचित्रा देवी वभूव । अच्युतेन्द्र आगत्य त्वं जातोऽसि । साप्येत्य रोहिणी जाता । रोहिणीविधानप्रभवपुण्येन शोकं न जानाति ।
इदानीं तवापत्यभवान् शृणु । उत्तरमथुरेशसूरसेनविमलयोः सुता पद्मावती । तत्रैव विप्रोऽग्निशर्मा भार्या सावित्री पुत्राः शिवशर्माग्निभूतिश्रोभूति-वायुभूतिविशाखभूति सोमभूतिसुभूतयश्चेति सप्त । एकदा पाटलिपुत्रं दानार्थ गतास्तत्पति सुप्रतिष्ठ-कनकप्रभयोः पुत्रः सिंह
किसी समय विमलकीर्ति राजा दर्पण में अपना मुख देख रहा था । उस समय उसे अपने शिरके ऊपर श्वेत बाल दिखा । उसे देखकर उसके हृदय में वैराग्यभाव जागृत हुआ । तब उसने अर्ककीर्तिके लिए राज्य देकर सुव्रत मुनिके निकटमें दीक्षा ग्रहण कर ली । अन्तमें वह तपको करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। उधर अर्ककीर्ति सकलचक्रवर्ती ( छह खण्डों का अधिपति ) हो गया । उसने बहुत समय तक राज्य किया । तलश्चात् उसने अपने पुत्र जितशत्रुको राज्य देकर चार हजार भव्य जीवोंके साथ शीलगुप्ताचार्य मुनिके पासमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वह शरीर को छोड़कर अच्युतेन्द्र हुआ है । वह इस समय स्वर्ग में ही है । भविष्य में वह वहाँसे आकरके इस हस्तिनापुरमें वीतशोक राजाका पुत्र अशोक होगा और तू यहाँ पुण्यका उपार्जन करके स्वर्ग में देवी होगी । फिर वहाँ से आ करके चम्पापुरमें मघवा राजाकी पुत्री रोहिणी होती हुई उस अशोककी पटरानी होगी । इस प्रकार वह पूतिगन्धा पिहितास्रव मुनिसे उपर्युक्त वृत्तान्तको सुनकर उन्हें नमस्कार करती हुई अपने घरको वापिस गई । वह रोहिणी उपवासविधिका उद्यापन करके सुगन्धित शरीरवाली हो गई। फिर उसने पूर्वोक्त आर्याके निकटमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वह तपश्चरणपूर्वक संन्यासके साथ शरीरको छोड़कर ईशान स्वर्गके अन्तर्गत उस अच्युतेन्द्र से सम्बद्ध विमान में देवी हुई । वह अच्युतेन्द्र आकर तुम हुए ही और वह देवी आकर रोहिणी हुई है । रोहिणीत अनुष्ठान उपार्जित पुण्यके प्रभावसे यह शोकको नहीं जानती है ।
२१३
अब मैं तुम्हारे पुत्रोंके भवों को कहता हूँ, सुनो। उत्तर मथुरा में सूरसेन नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम विमला था । इनके एक पद्मावती नामकी पुत्री थी। इसी नगर में एक अग्निशर्मा नामका ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नीका नाम सावित्री था। इनके शिवशर्मा, अग्निभूति, श्रीभूति, वायुभूति, विशाखभूति, सोमभूति और सुभूति नामके सात पुत्र थे । वे एक समय भिक्षा माँगने के लिए पाटलीपुत्र गये थे । वहाँ उस समय सुनतिष्ठ नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाव कनकप्रभा था । इनके एक सिंहस्थ नामका पुत्र था । इसको देने के लिए
I
१. ज स्वर्गे तस्मादागत्यास्मिन् श स्वर्गे सो तस्मदाग त्यास्मिन्
२. पफश पाटली० ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानवकथाकोशम्
[ ५-४, ३७ : रथस्तस्मै दातुं पद्मावती केनापि तत्रानीता, तयोविवाहविभूत्यतिशयमालोक्य किमस्माकं भिक्षाभोजनानां जीवितेनेति वैराग्येण सीमंधरान्तिके दीक्षिताः समाधिना सौधर्म गताः । पूर्वोक्तपूतिगन्धापितुर्दासोपुत्रो भल्वातकः पिहितास्रवसमीपे जैनो भूत्वावसाने सौधर्म गतः तस्मादागत्य पूर्वोक्ताः सप्त, भल्वातकचरश्च क्रमेण तवाष्टौ पुत्रा जाताः ।
इदानी पुत्रीणां भवानव पूर्वविदेहविजया दक्षिणश्रेण्यामलकानगरीशमरुदेवकमलश्रियोः पुन्यः पद्मावती पनगन्धा विमलश्री श्रीः] विमलगन्धा चेति चतस्रस्ताभिर्गगनतिलकचैत्यालये समाधिगुप्तमुनिनिकटे श्रीपञ्चम्युपवासो गृहीतस्तदुद्यापनमकृत्वैव विद्युता मृत्वा दिवि देव्यो भूत्वागत्य ते पुत्र्यो जाता इति निशम्याशोकस्तो नत्वा पुरं विवेश । पुत्रीः श्रीपालपुत्रभूपालाय दत्त्वा बहुकालं राज्यं कृत्वा मेघविलयं विलोक्य निर्विण्णो वीतशोकं स्वपदे निधाय श्रीवासुपूज्यतीर्थकरसमवसरणे बहुभिर्दीक्षां बभार गणधरो बभूव । रोहिणी कमलश्रीक्षान्तिकान्ते दीक्षिता विशिष्टं तपोविधायाच्युते देवोजज्ञे। अशोकमुनिनिर्वाणं जगाम । तत्प्रभृत्यत्रत्या भव्या रोहिणीविधानोद्यापने वासुपूज्यप्रतिमापीठेऽशोकरोहिण्योकोई उस पद्मावती पुत्रीको वहाँ ले आया था। इन दोनोंके विवाह के ठाट-वाटको देखकर उक्त शिवशर्मा आदि सातों ब्राह्मण पुत्रोंने विचार किया कि देखो हम लोग भीख माँगकर उदरपूर्ति करते हैं, हमारा जीना व्यर्थ है। इस प्रकार विचार करते हुए उन्हें वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ। तब उन सबने सीमन्धर स्वामीके समीपमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वे समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गको प्राप्त हुए। पूर्वोक्त पूतिगन्धाके पिताके एक भल्यातक नामका दासीपुत्र था । यह पिहितास्रव मुनिके समीपमें जैन हो गया था। वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ था। इस प्रकार पूर्वोक्त सात ब्राह्मणपुत्र और यह भल्वातक ये आठों वहाँसे च्युत होकर क्रमसे तुम्हारे आठ पुत्र हुए हैं।
अब अपनी पुत्रियोंके भवोंको सुनो-यहींपर पूर्वविदेहमें स्थित विजया पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें अलका पुरी है वहँपर मरुदेव राजा राज्य करता था । रानीका नाम कमलश्री था। इनके पद्मावती, पद्मगन्धा, विमलश्री और विमलगन्धा नामकी चार पुत्रियाँ थीं। उन चारोंने गगनतिलक चैत्यालयमें समाधिगुप्त मुनिके पासमें पञ्चमीके उपवासको ग्रहण किया था। किन्तु वे नियमित समय तक उसका पालन और उद्यापन नहीं कर सकीं। कारण यह कि उन चारोंकी मृत्यु अकस्मात् बिजलीके गिरनेसे हो गई थी। फिर भी वे उस प्रकारसे मरकर स्वर्गमें देवियाँ हुई और तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर वे तुम्हारी पुत्रियाँ हुई हैं। इस प्रकार अपने सब प्रश्नों के उत्तरको सुनकर वह अशोक उन दोनों मुनियोंको नमस्कार करके नगरमें वापिस आ गया। उसने इन पुत्रियोंको श्रीपालके पुत्र भूपालके लिए देकर बहुत समय तक राज्य किया । एक समय वह विखरते हुए मेघको देखकर भागोंसे विरक्त हो गया। तब उसने अपने पदपर वीतशोक पुत्र को प्रतिष्ठित करके श्री वासुपूज्य जिनेन्द्रके समवसरणमें बहुतोंके साथ दीक्षा ले ली। वह वासुपूज्य तीर्थंकरका गणधर हुआ। रोहिणीने कमलश्री आर्यिकाके पास दीक्षित होकर बहुत तप किया । अन्तमें वह शरीरको छोड़कर अच्युत स्वर्गमें देव हुई। अशोक मुनि मुक्तिको प्राप्त हुए । उसी समयसे लेकर यहाके भव्य जीव रोहिणीव्रतविधिके उद्यापनके समय वासुपूज्य
१. फ 'केनापि' नास्ति । २. [भवान् शृणु । अत्रैव] | ३. फ विदेहे । ४. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शत्यत्रतभव्या ।
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५
२१५ रूपं द्वादशापत्यविशिष्टं कुर्वन्ति तच्चरित्रपुस्तकानि च ददतीति । एवं पूतिगन्धो राजपुत्रो दुर्गन्धा वैश्यपुत्री च भोगाकाङ्क्षया नियतकालं प्रोषधं विधायैवंविधौ जातावन्यो भव्यः कर्मक्षयहेतोर्यः करोत्यनियतकालं प्रोषधं स किं न स्यादिति ॥३-४॥
[३८] अभवदमरलोके दीक्षितो वल्भनायानशनजनितपुण्याद्देवकान्तामनोशः । विगतसुकृतवैश्यो नन्दिमित्राभिधान
उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्धया ॥५॥ अस्य कथा भद्रबाहुचरित्रेऽन्तर्गता इति तन्निरूप्यते-अत्रैवार्यखण्डे पुण्ड्रवर्धनदेशे कोटिकनगरे राजा पद्मधरो रानी पद्मश्रीः पुरोहितः सोमशर्मा ब्राह्मणी सोमश्रीः। तस्याः पुत्रोऽभूत्तदुत्पत्तिलग्नं विशोध्य सोमशर्मा वसतो ध्वजमुद्भावितवान् मत्पुत्रो जिनदर्शनमान्यो भविष्यतीति । ततस्तं भद्रबाहुनाम्ना वर्धयितुं लग्नः, सप्तवर्षानन्तरं मौजीबन्धनं कृत्वा वेदमध्यापयितुं च । एकदा भद्रबाहुबटुकैः सह नगराद्वंहिएक्रीडार्थ ययौ । तत्र वट्टस्योपरि वधारणे केनचित् द्वौ, केनचित् त्रय उपर्युपरि धृताः। भद्रबाहुना त्रयोदश धृताः । तदवसरे जिनेन्द्रकी प्रतिमाके समीपमें वेदीपर आठ पुत्र और चार पुत्रियोंके साथ अशोक व रोहिणीकी आकृतियोंको कराते हैं तथा उनके चरित्रकी पुस्तकोंको लिखाकर प्रदान करते हैं । इस प्रकार पूतिगन्ध राजपुत्र और दुर्गन्धा वैश्यपुत्री ये दोनों भोगोंकी अभिलाषासे नियत समय तक प्रोषधको करके इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुए हैं। फिर भला जो भव्य जीव कर्मक्षयकी अभिलाषासे उक्त व्रतका अनियत समय तक परिपालन करता है वह क्या अनुपम सुखका भोक्ता नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ ३-४ ॥
नन्दिमित्र नामका जो पुण्यहीन वैश्य भोजनके लिए दीक्षित हआ था वह उपवाससे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें देवांगनाओंका प्रिय ( देव ) हुआ है। इसीलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥ ५ ॥
इसकी कथा भद्रबाहुचरित्रमें आई है। उसका यहाँ निरूपण किया जाता है. इसी आर्यखण्डमें पुण्ड्वर्धन देशके भीतर कोटिक नामका नगर है। वहाँ पद्मधर नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम पद्मश्री था। इस राजाके यहाँ सोमशर्मा नामका एक पुरोहित था । उसकी पत्नीका नाम सोमश्री था । उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। सोमशर्माने उसके जन्ममुहूर्तको शोधकर ‘मेरा पुत्र जैनोंमें संमान्य होगा' यह प्रगट करनेके लिए जिनमन्दिरके ऊपर ध्वजा खड़ी कर दी थी। उसने उसका नाम भद्रबाहु रक्खा । भद्रबाहु क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होने लगा। सोमशर्माने सात वर्षके पश्चात् उसका मौंजीवन्धन ( उपनयन ) संस्कार किया। तत्पश्चात् वह उसे वेदके पढ़ानेमें संलग्न हो गया। एक समय भद्रबाहु बालकोंके साथ गेंद खेलनेके लिये नगरके बाहर गया । वहाँ उन सबने वट्टक ( वर्तक- एक प्रकारका खिलौना ) के ऊपर वट्टक रखनेका निश्चय किया । तदनुसार उनमें से किसीने दो और किसीने तीन वट्टक ऊपर-ऊपर रक्खे ।
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श यैवंतिधा जाता अन्यो। २. ज फ ब श मनोजः। ३. ब भद्रवाहचरिते वर्तत इति । ४. जद्वहिवट ब हिर्बट ।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-५, ३८ जम्बूस्वामिमोक्षगतेरनन्तरं विष्णु-नन्दिमित्र-अपराजितगोवर्धन-भद्रबाहुनामानः पञ्च श्रुतकेवलिनो भविष्यन्तीति जिनागमसूत्रं चतुर्थः केवली गोवर्धननामानेकसहस्रयतिभिर्विहरंस्तत्रागत्य तं लुलोके । सोऽष्टाङ्गनिमित्तं वेत्ति । तं विलोक्यायं पश्चिमश्रुतकेवली भविष्यतीति बुबुधे | तत्समुदायालोकनात्सर्वे बटुकाः पलायिताः। स आगत्य गोवर्धनं ननाम । मुनिना पृष्टस्त्वं किमाख्यः, कस्य पुत्र इति । सोऽवदत् पुरोहितसोमशर्मणः पुत्रोऽहं भद्रबाहुनामा । पुनर्मुनिनोक्तं मत्समीपेऽध्येष्यसे । तेन ओमिति भणिते तद्धस्तं धृत्वा स एव तत्पितुः गृहं ययौ। तं विलोक्य सोमशर्मासनादुत्थाय संमुखमागत्य मुकुलितकर श्रासनमदादपृच्छच्च स्वामिन् , किमित्यागमनम् । मुनिबंभाण तव पुत्रोऽयं मत्समीपेऽध्येष्ये इत्युक्तवान् । त्वं भणसि चेदध्यापयिष्यामि । द्विजोऽव तायं जैनदर्शनोपकारक एव स्यादित्युत्पन्नमुहूर्तगुणो विद्यते, सोऽन्यथा किं भवेदयं भवद्भ्यो दत्तो यजानन्ति तत्कुर्वन्त्विति तेन समर्पितः । तदा माता यतिपादयोर्लग्नाऽस्य दीक्षा मा प्रयच्छन्तु । मुनिरुवाचाध्याप्य तवान्तिकं प्रस्थापयामीति श्रद्धेहि भगिनि । ततस्तं नीत्वा मुनिसावासादिना श्रावकैः समाधानं कारयित्वा सकलशास्त्राण्यध्यापितवान् । स च सकलदर्शनानां सारासारतां विबुध्य दीक्षां ययाचे । गुरुरवोचत्
परन्तु भद्रबाहुने उन्हें एकके ऊपर दूसरे और दूसरेके ऊपर तीसरे, इस क्रमसे तेरह वर्तक रख दिये । जम्बू स्वामीके मोक्ष जाने के पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुतकेवली होंगे; यह आगमवचन है। जिस समय उक्त भद्रबाहु आदि बालक खेल रहे थे उस समय वहाँ अनेक सहस्र मुनियोंके साथ विहार करते हए गोवर्धन नामके चौथे श्रुतकेवली आये। वे अष्टांग निमित्त के ज्ञाता थे। उन्होंने भद्रवाहुको देखकर यह निश्चित किया कि यह अन्तिम श्रुतकेवली होगा। उनके इस संघको देखकर वे सब बालक भाग गये, परन्तु भद्रबाहु नहीं भागा। उसने आकर गोवर्धन श्रुतकेवलीको नमस्कार किया। तब उन्होंने उससे पूछा कि तुम्हारा क्या नाम है और तुम किसके पुत्र हो ? उसने उत्तर दिया कि मैं सोमशर्मा ब्राह्मणका पुत्र हूँ व नाम मेरा भद्रबाहु है । तब मुनिने फिरसे पूछा कि तुम मेरे पास पढ़ोगे? उसने कहा कि 'हाँ, पढूँगा'। इसपर वे स्वयं ही उसका हाथ पकड़कर उसके पिताके पास ले गये । उन्हें आते हुए देखकर सोमशर्मा अपने आसनसे उठकर उनके आगे गया। उसने उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए आसन दिया और फिर इस प्रकारसे आनेका कारण पूछा । तब मुनिने कहा कि यह तुम्हारा पुत्र मेरे पास पढ़नेके लिए कहता है। यदि तुम्हें यह स्वीकर है तो मैं उसे पढ़ाऊँगा । यह सुनकर सोमशर्मा बोला कि यह जैन सिद्धान्तका उपकार करेगा, यह इसके जन्म मुहूर्तसे सिद्ध है। वह भला असत्य कैसे हो सकता है ? हम इसे आपके लिये देते हैं। आप जैसा उचित समझें, करें । यह कहकर उसने उन गोवर्धन मुनिके लिये भद्रबाहुको समर्पित कर दिया। उस समय भद्रबाहुकी माताने मुनिके पाँवोंमें गिरकर उसने भद्रबाहुको दीक्षा न दे देनेकी प्रार्थना की। तब गोवर्धन मुनिराजने कहा कि हे बहिन ! मैं पढ़ाकर इसे तेरे पास भेज दूंगा, तू इतना विश्वास रख । इस प्रकार गोवर्धन श्रुतकेवली भद्रबाहुको अपने साथ ले गये । फिर उन्होंने उसके भोजन और निवास आदिकी व्यवस्था श्रावकोंसे कराकर उसे पढ़ाना प्रारम्भ
१. ब मोक्षगतेऽनंतरं । २. प फ ब विष्णुनंदिअपराजित श विष्णुकुमारनंदिराजित। ३. फ 'असिवासादिना।
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
:५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५
२१७ स्वं नगरं गत्वा तत्र पाण्डित्यं प्रकाश्य मातापितरावभ्युपगमय्यागच्छेति विससर्ज । सच गत्वा मातापितरौ प्रणम्य तदनेगुरोर्गुणप्रशंसां चकार । द्वितीयदिने पद्मधरराजस्य भवनद्वारे पत्रमवलम्ब्य द्विजादिवादिनः सर्वान् जिगाय, तत्र जैनमतं प्रकाश्य मातापितरावभ्युपगमय्य गत्वा दोक्षितः । श्रुतकेवलिभूत आचार्य कृत्वा गोवर्धनः संन्यासेन दिवं गतः । भद्रबाहुस्वामी स्वामिभक्तः तपस्वियुक्तो विहरन स्थितः ।।
तत्रान्या कथा। तथाहि-पाटलिपुत्रनगरे राजा नन्दो बन्धु -सुबन्धुकाविशकटालाख्यचतुर्भिमन्त्रिभिः राज्यं कुर्वन् तस्थौ। एकदा नन्दस्योपरि प्रत्यन्तवासिनः संभूयागत्य देशसीम्नि तस्थुः । शकटालेन नृपो विज्ञप्तः-प्रत्यन्तवासिनः समागताः, किं क्रियते । नन्दोऽब्रूत त्वमेवात्र दतस्त्वद्भणितं करोमि । शकटालोऽवोचच्छत्रवो बहवो दानेनोपशान्ति नेयाः, युद्धस्यानवसर इति । राज्ञोक्तं त्वत्कृतमेव प्रमाण द्रव्यं प्रयच्छ । ततः शकटालो द्रव्यं दत्त्वा तान् व्याघोटितवान् । अन्यदा राजा भाण्डागारं द्रष्टुमियाय । द्रव्यमपश्यन् क गतं द्रव्यमित्यपृच्छत् । भाण्डागारिकोऽवत शकटालोऽरिभ्योऽइत्त । ततः कुपितेन राज्ञा सकुटुम्बः कर दिया । इस प्रकारसे वह समस्त शास्त्रोंमें पारंगत हो गयो । तत्पश्चात् उसने समस्त दर्शनोंकी सारता व असारताको जानकर गुरुसे दीक्षा देनेकी प्रार्थना की । इसपर गोवर्धन मुनीन्द्रने कहा कि तुम पहिले अपने नगरमें जाकर अपनी विद्वत्ताको दिखलाओ और तत्पश्चात् माता-पिताकी स्वीकारता लेकर आओ। तब तुम्हें हम दीक्षा दे देंगे। यह कहकर उन्होंने भद्रबाहुको अपने घर भेज दिया। तदनुसार भद्रबाहुने जाकर माता-पिताको प्रणाम कर उनके समक्ष अपने गुरुके सद्गुणोंकी खूब प्रशंसा की। पश्चात् दूसरे दिन उसने पद्मधर राजाके भवनके द्वारपर पत्रको लगाकर ब्राह्मणादि सब वादियोंको वादमें जीत लिया। इस प्रकार उसने जैन धर्मकी भारी प्रभावना की। फिर वह माता-पिताकी स्वीकारता लेकर उन गोवर्धन मुनिके पास गया और दीक्षित हो गया। अन्तमें वे गोवर्धन श्रुतकेवली भद्रबाहुको श्रुतकेवलीरूप आचार्य बनाकर संन्यासके साथ स्वर्गवासी हुए। तब वे गुरुभक्त भद्रबाहु स्वामी साधुओंके साथ विहार करते हुए स्थित हुए।
यहाँ एक दूसरी कथा है जो इस प्रकार है-किसी समय पाटलिपुत्र नगरमें नन्द नामका राजा राज्य करता था। उसके ये चार मंत्री थे- बन्धु, सुबन्धु, कावि और शकटाल । एक समय कुछ म्लेच्छ देशके निवासी एकत्रित होकर आक्रमण करनेके विचारसे नन्द राजाके देशकी सीमापर आकर स्थित हो गये। तब शकटालने राजासे निवेदन किया कि अपने देशपर आक्रमण करने के लिये म्लेच्छ देशके निवासी यवन उपस्थित हुए हैं, इसके लिये क्या उपाय किया जाय ? यह सुनकर नन्द बोला कि इस विषयमें तुम ही प्रवीण हो, तुम जो कहोगे वही किया जावेगा। तब शकटालने कहा कि शत्रु बहुत हैं, उन्हें धन देकर शान्त करना चाहिये । कारण कि अभी युद्धके लिये उपयुक्त समय नहीं है । इसपर राजाने कहा कि तुम्हारा कहना योग्य ही है, उन्हें द्रव्य देकर शान्त करो। तब शकटालने उन्हें द्रव्य देकर वापिस कर दिया । दूसरे समय राजा अपने खजानेको देखने के लिये गया। वहाँ जब उसे सम्पत्ति नहीं दिखी तब उसने पूछा कि यहाँकी सब सम्पत्ति कहाँ चली गई है ? इसके उत्तरमें कोषाध्यक्षने कहा कि शकटालने उसे शत्रुओंको
१. ज फ ब प पद्मधर श पसंधर । २. ब श्रुत केवली भूत्तमा० । ३. ब अत्राअन्या। ४. प फ श
दत्तवान् व्योघोटितवान् ज दत्तवान् व्याधुटितवान् । ४. फ श दत्तं ।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
पुण्यानवकथाकोशम्.
[५-४, ३७ शकटालो भूमिगृहे निक्षिप्तः। सरावप्रवेशमात्रद्वारेण स्तोकमोदनं जलं प्रतिदिनं दापयति नरेशः । तमोदनं जलं च दृष्ट्वा शकटालोऽब्रूत कुटुम्बमध्ये यो नन्दवंशं निवेशं कर्तुं शक्नोति स इममोदनं जलं च गृहीयादिति । सर्वैस्त्वमेव शक्तो गृहाणेति सर्वसंमते स एवं भुङ्क्ते पानीयं च पिबति । स एव स्थितोऽन्ये मृताः।
इतः पुनः प्रत्यन्तवासिनां बाधायां नन्दः शकटालं सस्मार उक्तवांश्च शकटालवंशे को ऽपि विद्यत इति । कश्चिदाहान्नं जलं च कोऽपि गृह्णाति । ततस्तमाकृष्य परिधानं दत्त्वा उक्तवानरीनुपशान्ति नयेति । स केनाप्युपायेनोपशान्ति निनाय । राशा मन्त्रिपदं गृहाणेत्युक्ते शकटालस्तदुल्लङध्य सत्कारगृहाध्यक्षतां जग्राह । एकदा पुरबाह्यऽटन् दर्भसूची खनन्तं चाणक्यद्विज लुलोके । तदनु तमभिवन्द्योक्तवान् किं करोषि । चाणक्योऽब्रूत विद्धोऽहमनया, ततो निर्मूलमुन्मूल्य शोषयित्वा' दग्ध्वा प्रवाहयिष्यामि। शकटालोऽमन्यत अयं नन्दनाशे समर्थ इति तं प्रार्थयति स्म त्वयाग्रासने प्रतिदिनं भोक्तव्यमिति । तेनाभ्युपगतम् । ततः शकटालो महादरेण तं भोजयति । एकदाऽध्यक्षस्तस्य स्थानचलनं चकार । चाणक्योऽवदत् दे डाली है । यह सुनकर नन्दने क्रोधित होकर शकटालको उसके कुटुम्बके साथ तलघरके भीतर रख दिया। वह उसे वहाँ सकोरा मात्रके जाने योग्य छेदमें से प्रतिदिन थोड़ा-सा भात और जल दिलाने लगा। उस अल्प भोजनको देखकर शकटकाल बोला कि कुटुम्बके बीचमें जो कोई भी नन्दके वंशको समूल नष्ट कर सकता हो वह इस भोजन और जलको ग्रहण करे। इसपर सबने कहा कि इसके लिए तुम ही समर्थ हो। इस प्रकार सबकी सम्मतिसे वह उस अन्न-जलका उपयोग करने लगा। तब एक मात्र वही जीवित रहा, शेष सब मरणको प्राप्त हो गये ।
इधर उन म्लेच्छोंने जब फिरसे नन्दके राज्यमें उपद्रव प्रारम्भ किया तब उसे शकटालका स्मरण हुआ। उस समय उसने पूछा कि क्या कोई शकटालके वंशमें अभी विद्यमान है । इसपर किसीने उत्तर दिया कि कोई अन्न और जलको ग्रहण तो करता है। तब शकटालको वहाँ से निकाल कर उसे पहिननेके लिए वस्त्र (पोशाक) दिये। फिर नन्दने उससे कहा कि तुम इन शत्रुओंको शान्त करो । इसपर शकटालने जिस किसी भी प्रकारसे उन्हें शान्त कर दिया। तब राजाने उससे पुनः मंत्रीके पदको ग्रहण करनेके लिए कहा । परन्तु शकटालने इसे स्वीकार नहीं किया । तब वह उसकी इच्छानुसार अतिथिगृहका अध्यक्ष बना दिया गया। एक दिन शकटालने नगरके बाहर घूमते हुए चाणक्य ब्राह्मणको देखा । वह उस समय काँसको खोदकर फेक रहा था। शकटालने नमस्कार करते हुए उससे पूछा कि यह आप क्या कर रहे हैं ? चाणक्यने उत्तर दिया कि इस काँसके अग्रभागसे मेरा पाँव विध गया है, इसलिए मैं इसे जड़-मूलसे उखाड़कर सुखाऊँगा और तत्पश्चात् नदीमें प्रवाहित कर दूंगा । इस उत्तरको सुनकर शकटालको विश्वास हुआ कि यह व्यक्ति नन्दके नष्ट करने में समर्थ है । तब उसने उससे प्रार्थना की कि आप प्रतिदिन हमारे अतिथि-गृहमें उच्च आसनपर बैठकर भोजन किया करें । चाणक्यने इसे स्वीकार कर लिया । तबसे शकटाल उसे आदरके साथ भोजन कराने लगा। एक दिन अध्यक्षने उसके स्थानका परिवर्तन कर दिया। इसे देखकर
१.ज प सन्मते एव क श सम्मते एव । २. ज तमभिवाद्योक्तवान् ब तमभिवाह्योक्तवान । ३. प ततो निर्मूल्य शोषयित्वा श ततो निर्मूल्य मुन्मूल्य शोषयित्वा । ४. फ श दग्धा। ५. ब मन्यतोऽयं । ६. फ श ऽध्यक्षस्य।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-५, ३८ ] ५. उपवासफलम् ५
२१९ स्थानचलनं किमिति विहितम् । अध्यक्ष उबाच राशो नियमोऽयमग्रासनमन्यस्मै दातव्यमिति। ततो मध्यमासनेऽपिभोक्त लग्नः । ततोऽप्यन्ते उपवेशितः। स तत्रापि भुङ्क्ते,कोपं न करोति । अन्यदा भोक्तुं प्रविशन् चाणक्योऽध्यक्षेण निवारितो राज्ञा तव भोजनं निषिद्धमहं किं करोमि । ततश्चाणक्यः कुपितः पुरान्निःसरन्नवदद्यो नन्दराज्यार्थी स मत्पृष्ठं लगतु । ततश्चन्द्रगुप्ताख्यः क्षत्रियोऽतिनिस्वः किं नष्टमिति लग्नः । स प्रत्यन्तवासिनां मिलित्वोपायेन नन्दं निर्मूलयित्वा चन्द्रगुप्तं राजानं चकार । स राज्यं विधाय स्वापत्यबिन्दुसाराय स्वपदं दत्त्वा चाणक्येन दीक्षितः। चाणक्यभट्टारकस्य इत ऊर्ध्वं भिन्ना कथाराधनायां ज्ञातव्या । बिन्दुसारोऽपि स्वतनयाशोकाय स्वपदं वितीर्य दीक्षितः। अशोकस्यापत्यं कुनालोऽजनि । स बालः पठन् यदा तस्थौ तदाशोकः प्रत्यन्तवासिनां उपरि जगाम । पुरे व्यवस्थितप्रधानान्तिकं राजादेशं प्रास्थापयत् । कथम् । उपाध्यायाय शालिकूरं च मसिं च दत्त्वा कुमारमध्यापयतामिति । स च वाचकेनान्यथा वाचितः । ततः उपाध्यायं शालिकूरं मसिं च भोजयित्वा कुमारस्य लोचने उत्पाटिते । अरीन् जित्वा आगतो नृपः कुमारं वोक्ष्यातिशोकं चकार । दिनान्तरैस्तं चन्द्राननाख्यया कन्यया परिणायितवान् । तदपत्यं संप्रति-चन्द्रगुप्तोऽभूत् ।
चाणक्यने पूछा कि यह स्थान परिवर्तन क्यों किया गया है ? इसके उत्तरमें अध्यक्षने कहा कि राजाका ऐसा नियम (आदेश) है कि आगेका आसन किसी दूसरेके लिए दिया जाय । तत्पश्चात् चाणक्य मध्यम आसनके ही ऊपर बैठकर भोजन करने लगा। तत्पश्चात् उसे अन्तिम (निकृष्ट) आसनके ऊपर बैठाया गया । तब भी वह क्रोध न करके वहीं बैठकर खाने लगा। इसके पश्चात् दूसरे दिन जब चाणक्य भोजनगृहके भीतर प्रवेश कर रहा था तब अध्यक्षने उसे रोकते हुए कहा कि राजाने आपके भोजनका निषेध किया है, मैं क्या कर सकता हूँ । इससे चाणक्यको अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ। तब उसने नगरसे बाहर निकलते हुए कहा कि जो व्यक्ति नन्दके राज्यको चाहता हो वह मेरे पीछे लग जावे । यह सुनकर चन्द्रगुप्त नामका क्षत्रिय उसके पीछे लग गया। वह अतिशय दरिद्र था। इसीलिए उसने सोचा कि इसका साथ देनेसे मेरी कुछ भी हानि होनेवाली नहीं है । तब चाणक्यने म्लेच्छोंसे मिलकर प्रयत्नपूर्वक नन्दको नष्ट कर दिया और उसके स्थानपर चन्द्रगुप्तको राजा बना दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्तने कुछ समय तक राज्य किया। तत्पश्चात
चात् उसने अपने पुत्र चिन्दसारको राज्य देकर चाणक्यके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। आगे चाणक्य भट्टारककी कथा भिन्न है उसे आराधना कथाकोशसे जानना चाहिए। फिर उस बिन्दुसारने भी अपने पुत्र अशोकके लिए राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अशोकके कुनाल नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । जब वह बालक पढ़ रहा था तब अशोक म्लेच्छोंके ऊपर आक्रमण करने के लिए गया था। वहाँ से उसने नगरमें स्थित प्रधान के लिए यह राजाज्ञा भेजी कि उपाध्यायके लिए शालि धानका भात ओर मसि (स्निग्ध पदार्थ) देकर कुमारको शिक्षग दिशाओ। इस लेख को बाँचनेवालेने विपरीत (च मसि दत्त्वा कुमारमन्धापयताम् = भातके साथ भस्म देकर कुमारको अन्धा करा दो) पढ़ा। तदनुसार उपाध्यायके लिए शालि धानका भात और राख खिलाकर कुमारके नेत्रों को निकलवा लिया गया । तत्पश्चात् जब शत्रुओंको जीतकर अशोक वापिस आया और उसने कुमारको अन्धा देखा तो उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ। कुछ दिनोंमें उसने कुमारका विवाह चन्द्रानना नामकी कन्याके साथ करा
...१. ब लग्नतु। २. फ शालिकूरमसि ।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
पुण्यात्रकथाकोशम्
तं राज्ये निधायाशोको दीक्षितः । संप्रति चन्द्रगुप्तो राज्यं कुर्वन् तस्थौ ।
एकदा तदुद्यानं कश्चिदवधिबोधमुनिरागतो वनपालात्तदागतिं ज्ञात्वा संप्रति- चन्द्रगुप्तो वन्दितुं ययौ । वन्दित्वोपविश्य धर्मश्रुतेरनन्तरं स्वातीतभवान् पृष्टवान् । मुनिः कथयत्यत्रैवार्य खण्डेऽवन्तीषु वैदेशेनगरे राजा जयवर्मा राशी धारिणी । तन्नगरनिकटस्थपलासग्रामे वैश्यदेवि पृथिव्योः पुत्रो नन्दिमित्रः पुण्यहीनो बह्नाशीति पितृभ्यां निर्द्धाटितो "वैदेशपुरमियाय । तत्र नगरादद्बहिर्वटवृक्षतले उपविष्टस्तत्र तस्मात् पूर्व काष्ठकूटाख्यः काष्ठविक्रयोपजीवी काष्ठभारमुत्तार्य विश्रमन् तस्थौ । तं विलोक्य नन्दिमित्रोऽबूत एतद्भा
चतुर्गुणं भारं प्रतिदिनमानयामि, मे भोजनं दास्यसि । तेनोक्तं दास्यामि, ततस्तं काष्ठभारं " तन्मस्तके निधाय गृहे जगाम । स्वभार्या जयघण्टां शिशिष्येऽस्य । कदाचिदप्युदरपूरं ग्रासं मा देहीति । तस्य रखायामनागोदनादिकं (?) स्तोकं दत्वातिस्थूलकाष्ठभारानानाययति । काष्ठकूटस्तान् विक्रोय द्रव्यं चिचाय, स्वयं काष्ठानि नानयति, तेनैवानाययति' । एकदा पर्वणि जयघण्टा एतत्प्रसादेन में श्रीर्जाताऽस्य कदाचिदपि परिपूर्णो ग्रासो न दत्तो थे भुक्तामिति पायसघृतशर्करादिकं तस्य यथेष्टमदत्त तांबूलं च । ततोऽसौ दिया । उसके संप्रति चन्द्रगुप्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। उसको राज्य देकर अशोकने दीक्षा ले
। संप्रति चन्द्रगुप्त राज्य करने लगा ।
[ ५-५, ३८ :
एक समय वहाँ उद्यानमें कोई अवधिज्ञानी मुनि आये । वनपालसे उनके आगमनको जानकर संप्रति चन्द्रगुप्त उनकी वन्दना के लिए गया । बन्दना करके उसने धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् उसने उनसे अपने पूर्व भवों को पूछा। मुनि बोले- इसी आर्यखण्ड के भीतर अवन्ति देश में वैदिश (विदिशा ?) नगर में राजा जयवर्मा राज्य करता था। रानीका नाम धारिणी था । इसी नगर के पास में एक पलासकूट नामका गाँव है । वहाँ एक देविल नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम पृथिवी था । इनके एक नन्दिमित्र नामका पुत्र था जो पुण्यहीन था । वह मात्रा में बहुत अधिक भोजन किया करता था । इसलिए माता-पिता ने उसे घर से निकाल दिया था । तब वह वैदिशपुर गया । वहाँ जाकर वह नगरके बाहर एक वट वृक्ष के नीचे बैठ गया । उसके पहुँचनेके पूर्वमें वहाँ एक काष्ठकूट नामका लकड़हारा लकड़ियोंके बोझको उतारकर विश्राम कर रहा था । उसको देखकर नन्दिमित्र बोला कि यदि तुम मुझे प्रतिदिन भोजन दिया करोगे तो मैं इससे चौगुना लकड़ियोंका बोझ लाया करूँगा । काष्टकूटने इस बातको स्वीकार कर लिया, तदनुसार वह उस लकड़ियोंके बोझको नन्दिमित्र के सिरपर रखकर घरको गया । उसने अपनी स्त्री जयघंटाको सीख दी कि तुम इसको कभी भी पूरा पेट भोजन नहीं देना । तदनुसार उसकी स्त्री उसे थोड़ा भोजन देने लगी । इस प्रकार काष्ठकूट भारी लकड़ियोंके गट्टोंको मँगाने और उन लकड़ियोंको बेचकर धनसंचय करने लगा। अब वह स्वयं लकड़ियों को न लाकर उसीसे मँगाया करता था । एक बार त्योहारके समय जयघण्टा ने सोचा कि इसके प्रसादसे मुझे सम्पत्ति प्राप्त हुई है । परन्तु मैंने इसे कभी भी पूर्ण भोजन नहीं दिया । आज इसे इच्छानुसार भोजन कराना चाहिए । यह सोचकर उसने उस दिन नन्दिमित्रके लिए उसकी इच्छानुसार खीर, घी और शक्कर आदि देकर
१. फ वंदेश' ब वैदेस श वैदिश । २. ब पलालकूट । ३. व वैदेश श वैदिश ं । ४. श ' भारं ' नास्ति । ५ ब ततः काष्ठभारं । ६. ज प श शिशिष्ये व सतिक्षे । ७ ब रत्रायामारनालोदनादिकं । ८. श काष्ठकूटस्थात्तान् । ९. ज तेनैत्रानययति ब तेनैवनययति ।
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५–५, ३८ ]
५. उपवासफलम् ५.
२२१
सुस्थो भूत्वा काष्ठकूटं वस्त्रादिकं याचितवान् । तदा तेन स्ववनिता पृष्टास्याद्य किं भोक्तुं दत्तम् । तया कथिते स्वरूपे तदनु स तां किमस्यैवंविधो ग्रासो दत्त इति दण्डैदण्डैर्जघान । नन्दिमित्रो मन्निमित्तमिमां ताडितवानयमित्यस्य गृहे स्थातुमनुचितमिति निर्जगाम । महाकाष्ठभारमानीय तद्विक्रयंस्तस्थौ । लघूनप्यन्यभारान् विक्रीत्वा [ क्रीत्वा ] जना गच्छन्ति, तद्भारवार्तामपि न कुर्वन्ति । मध्याह्न बुभुक्षाक्रान्त उद्विग्नो यावदास्ते तावद्विनयगुप्तो मुनिर्मासोपवासी चर्यार्थ प्रविष्टस्तं विलोक्यायं मत्तो वस्त्रादिहीनः क यातीत्यवलोकयामीति भारं तत्रैव निक्षिप्यं तत्पृष्ठे लग्नः । स मुनी राज्ञा स्थापितः, पादप्रक्षालनादिकं कृत्वायं कश्चित् श्रावक इति दास्या तत्पादौ प्रक्षाल्य दिव्यभोजनं दत्तम् । मुनेनैरन्तर्ये सति पञ्चाश्चर्याणि जातानि विलोक्य नन्दिमित्रोऽमन्यतायं देवोऽहमप्येतद्विधो भवामीति तेन सार्धं गुहायां गतः, तत्रोक्तवान्- हे नाथ, मां त्वत्सदृशं कुरु । तं भव्यमल्पायुषं ज्ञात्वा मुनिस्तं दीक्षां दत्तवान् । उपवासं चक्रे पञ्चनमस्कारान् पठितवांश्च । पारणा हेऽ हम स्थापयामीति श्रावकाणां संभ्रमं वीक्ष्य कपोतलेश्या परिणतः । प्रातः कीदृशः क्षोभो
अन्तमें पान भी दिया, तब उसने सन्तुष्ट होकर काष्ठकूटसे वस्त्र आदि माँगे । उस समय काष्ठकूटने अपनी स्त्री से पूछा कि आज इसे तूने खानेके लिए क्या दिया है ? इसके उत्तर में उसने यथार्थ बात कह दी। इससे क्रोधित होकर काष्ठकूटने यह कहते हुए कि तूने उसे ऐसा उत्तम भोजन क्यों दिया है, उसे डण्डोंसे खूब मारा । यह देखकर नन्दिमित्रने विचार किया कि काष्ठकूटने इसे मेरे कारण मारा है, इसलिए अब इसके घरमें रहना योग्य नहीं है। बस यही सोचकर वह उसके घर से निकल गया । फिर वह एक लकड़ियोंके भारी गट्टेको लाया और उसे बेचने के लिए बैठ गया । ग्राहकजन छोटे भी गट्ठों को खरीदकर चले जाते थे, परन्तु इसके गट्ठेके विषय में कोई बात भी नहीं करता था । इस तरह दोपहर हो गये। तब वह भूख से व्याकुल हो उठा । इतने में वहाँ से विनय - गुप्त नाम के एक मासोपवासी मुनि चर्याके लिए निकले। उन्हें देखकर उसने विचार किया कि मेरे पास तो पहिननेके लिए फटा-पुराना वस्त्र भी है, परन्तु इसके पास तो वह भी नहीं है । देखूँ भला यह किधर जाता है । यह सोचता हुआ वह लकड़ियोंके गट्टे को वहीं पर छोड़कर उनके पीछे लग गया । उन मुनिराजका पडिगाहन राजाने करके उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया । नन्दिमित्रको देखकर उसने समझा कि यह कोई श्रावक है । इसलिए उसने दासीके द्वारा उसके पाँव धुलवाकर उसे भी दिव्य भोजन दिया। मुनिका निरन्तराय आहार हो जानेपर राजाके यहाँ पञ्चाश्चर्य हुए | उनको देखकर नन्दिमित्रने समझा कि यह कोई देव है । इसके साथ रहने से मैं भी इसके समान हो जाऊँगा । यही सोचता हुआ वह उनके साथ गुफामें चला गया । वहाँ पहुँचकर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामिन्! मुझे भी आप अपने समान बना लीजिए। तब भव्य और अल्पायु जानकर विनयगुप्त मुनिने उसे दीक्षा दे दी । उस दिन नन्दिमित्र उपवासको ग्रहण करके पंचनमस्कार मंत्रका पाठ करता रहा । पारणाके दिन 'मैं उन्हें आहार दूँगा, मैं उन्हें आहार दूँगा' इस प्रकार श्रावकों के बीचमें विवाद आरम्भ हो गया । उसे देखकर नन्दिमित्रके परिणाम कापोत
१. बक्रस्थंडिले तस्थौ । २. प श भारा । ३. व निधाय । ४. ब मुनिस्तं दीक्षांचक्रे । ५. ब पाठितवांश्च । ६. फ पारणाह्नेहं ।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-५, ३८ भविष्यतीति क्षोभनिमित्तं द्वितीयमुपवासं चकार । त्रिरात्रपारणायां राजश्रेष्ठ यादय भागत्य ववन्दिरे बभणुश्वाहमहं स्थापयिष्यामि । तदा नन्दिमित्रो बभाषेऽद्याप्युपोषितोऽहम् । श्रेष्ठयादिभिरुक्तमेवं न कर्तव्यम् । तेनोक्तं कृतमेव । तदा राजसभायां श्रेष्ठिना नूतनतपस्विगुणव्यावर्णनं कृतम् । तदा देवी प्रातरहं स्थापयिष्यामीति महात्रिरात्रोपवासपारणायां सकलान्तःपुरेण तत्र गता, गुरुशिष्यो क्यन्दे। तदा नन्दिमित्रो मेऽद्याप्युपवासशक्तिर्विद्यते, यदा राजा आगमिष्यति तदा पारणां करोमोति मनसि संचिन्त्योक्तवान् स्वामिन्नद्याप्युपोषितोऽहम् । तदा देवी तत्पादयोर्लग्नोपवासो न कर्तव्य इति । सोऽवोचत् गृहोतोपवासस्य त्यजनं किं करोमि । गुरुरप्यवोचत् त्यजनमनुचितमिति । देवो व्याघुटय जगाम । नन्दिमित्रः पञ्चनमस्कारान् भावयन् तस्थौ । रात्रिपश्चिमयामे गुरुणोक्तं हे नन्दिमित्र, तेऽन्तर्मुहूर्तमेवायुरिति संन्यासं गृहाण । प्रसाद इति भणित्वा नन्दिमित्रो गुरूक्तसंन्यासक्रमेण तनुं तत्याज सौधर्मे देवो जज्ञे। इतो नन्दिमित्रो मुनिः कालं कृतवानिति राजादय आगत्य सुवर्णादिवृष्टिं कुर्वन्तस्तत्क्षपकंयावत्प्रभावयन्ति तावत्स देवो नभोऽङ्गणं स्वपरिवारविमानादिभिर्व्याप्य स्वयं सकलदेवीसमूहेन परिवृतो विमाने तस्थौ। नन्दिमित्रस्य गृहस्थकालीनं स्वरूपं कृत्वा
लेश्या जैसे हुए । कल इसके आश्रयसे श्रावकोंमें कैसा क्षोभ होता है, यह देखने के लिए उसने दूसरा उपवास ग्रहण कर लिया। तीसरे दिन पारणाके निमित्तसे राजसेठ आदिने जाकर उसकी बन्दना करते हुए कहा कि 'मैं पडिगाहन करूँगा, मैं पडिगाहन करूँगा'। इसपर वह नन्दिमित्र बोला मैंने आज भी उपवास किया है । तब सेठ आदिने कहा कि ऐसा न कीजिए । इसके उत्तरसे उसने कहा कि मैं तो वैसा कर ही चुका हूँ। तत्पश्चात् सेठने राजदरबार में नवीन तपस्वीके गुणोंका वर्णन किया। उसे सुनकर रानीने विचार किया कि प्रातःकालमें मैं उनको आहार दूंगी। इसी विचारसे वह तीन दिनके उपवासके पश्चात् पारणाके समय समस्त अन्तःपुरके साथ वहाँ गई । उसने गुरु और शिष्य दोनोंकी वंदना की। उस समय नन्दिमित्रने मनमें विचार किया कि आज भी मैं उपवास करने में समर्थ हूँ, जब राजा आवेगा तब मैं पारणा करूँगा; यही सोचकर उसने कहा हे स्वामिन् ! आज भी मेरा उपवास है । तब रानीने उसके पाँवोंमें गिरकर कहा कि अब उपवास न कीजिए । इसपर उसने उत्तर दिया कि ग्रहण किये हुए उपवासको मैं कैसे छोड़ दूँ । गुरुने भी कहा कि ग्रहण किये हुए उपवासको छोड़ना योग्य नहीं है । तब रानी वापिस चली गई। उधर वह नन्दिमित्र पंचनमस्कार मंत्रके पदोंका चिन्तन करता हुआ स्थित रहा। तत्पश्चात् रात्रिके अन्तिम पहर में गुरुने कहा हे नन्दिमित्र ! अब तेरी अन्तमुहूर्त मात्र ही आयु शेष रही है, इसलिए तू संन्यासको ग्रहण कर ले । तब उसने प्रसाद मानकर गुरुके कहे अनुसार विधिपूर्वक संन्यास ग्रहण कर लिया। इस प्रकार वह संन्यासके साथ शरीरको छोड़कर सौधर्म स्वर्गमें देव उत्पन्न हुआ। इधर राजा आदि नन्दिमित्र मुनिके स्वर्गवासको जानकर वहाँ सुवर्णादिकी वर्षा द्वारा क्षपककी प्रभावना कर रहे थे और उधर इसी समय उस देवने अपने परिवारके साथ वहाँ पहुँचकर विमानोंसे आकाशको व्याप्त कर दिया था । स्वयं समस्त देवियों के साथ विमानमें स्थित था । तब वह नन्दिमित्रके गृहस्थ अवस्थाके वेषमें क्षपकके आगे नृत्य करता हुआ यह बोल रहा था---
१. ज बभुणुश्चाफ वभाणुश्चा प श बभाणश्चा। २. प तदा। ३. ज प त्यजतुम। ४. ज
भावयान् श 'भावयन्' नास्ति । ५. ज प श विमानेन ।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२३
:५-५, ३८]
५. उपवासफलम् ५ क्षपकस्याने नृत्यन्नवदत् -
पिच्छह पिच्छह श्रोदनमुंडं अच्छरमझगयं रमणिज्ज।
जेण व तेण व कारणएणं पव्वइदव्वं होइ नरेणं ॥ इति । एतदर्शनेन सकलजनकौतुकमासीत् । विदिततवृत्तान्ता भव्याः केचिद्दीक्षिताः, केचिद्विशेषाणुव्रतानि जगृहुः । जयवर्मा स्वतनयश्रीवर्मणे राज्यं दत्त्वा बहुभिस्तन्मुनिनिकटे दीक्षितः। सर्वेऽपि यथोचितां गतिं ययुः । नन्दिमित्रचरो देवो देवलोकादागत्य त्वं जातोऽ. सोति निशम्य संप्रति-चन्द्रगुप्तो जहर्ष । तं नत्वा पुरं विवेश सुखेन तस्थौ।
एकस्यारात्रे पश्चिमयामे षोडश स्वप्नान् ददर्श कथम् । रवेरस्तमनम् १, कल्पद्रुमशाखाभङ्गम् २, आगच्छतो विमानस्य व्याघुटनम् ३, द्वादशशीष सर्पम्४, चन्द्रमण्डलभेदम्५, कृष्णगजयुद्धम्६, खद्योतम्७, शुष्कमध्यप्रदेशतडागम्ब, धूमं ६, सिंहासनस्योपरि मर्कटम्१०, स्वर्णभाजने तैरीयीं भुआनंश्वानम् ११, गजस्योपरि मर्कटम् १२, कंचारमध्ये कमलम् १३, मर्यादोल्लंघितमुदधिम् १४, तरुणवृषभैर्युक्तं रथम् १५, तरुणवृषभारूढान् क्षत्रियांश्च १६, ततोऽपरदिनेs. नेकदेशान् परिभ्रमन् संघेन सह भद्रबाहुः स्वामी आगत्य तत्पुरं चर्यार्थ प्रविष्टः श्रावकगृहे सर्वर्षान् दत्त्वा स्वयमेकस्मिन् गृहे तस्थौ । तत्रात्यव्यक्तों बालोऽवदत् 'वोलह वोलह' इति । आचार्योऽपृच्छत् केती वरिस' इति । बालो 'बारा वरिस' इत्यब त। ततो अलाभेन सूरिरुद्यानं ( मलमें देखिये ) अर्थात् देखो देखो ! जो नन्दिमित्र केवल भोजनके निमित्तसे दीक्षित हुआ था वह अब रमणीय देव होकर अप्सराओंके मध्यमें स्थित है। इसलिए मनुष्यको जिस किसी भी कारणसे संन्यास लेना ही चाहिए। ____ इस देवको देखकर सब ही जनोंको आश्चर्य हुआ। नन्दिमित्रके उक्त वृत्तान्तको जानकर कितने ही भव्य जीव दीक्षित हो गये और कितनोंने विशेष अणुव्रतोंको ग्रहण कर लिया । जयवर्मा राजाने अपने पुत्र श्रीवर्माके लिए राज्य देकर उक्त मुनिराजके ही निकटमें बहुत जनोंके साथ दीक्षा ले ली। ये सब ही यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए । नन्दिमित्रका जीव जो देव हुआ था वह स्वर्गसे च्युत हो कर तुम हुए हो । इस प्रकार अपने पूर्व भवोंके वृत्तान्तको सुनकर सम्प्रति चन्द्रगुप्तको बहुत हर्ष हुआ। वह मुनिको नमस्कार करके नगरमें वापिस गया और सुखसे रहने लगा।
उसने एक दिन रात्रिके अन्तिम पहरमें इन पोलह स्वप्नोंको देखा- (१) सूर्यका अस्त होना, (२) कल्पवृक्षकी शाखाका टूटना, (३) आते हुए विमानका वापिस होना, (४) बारह सिरोंसे युक्त सर्प, (५) चन्द्रमण्डलका भेद, (६) काले हाथियोंका युद्ध, (७) जुगुन , (८) मध्य भागमें सूखा हुआ तालाब, (९) धुआँ, (१०) सिंहासनके ऊपर स्थित बन्दर, (११) सुवर्णकी थालीमें खीर खाता हुआ कुत्ता, (१२) हाथीके ऊपर स्थित बन्दर, (१३) कचरेमें कमल, (१४) मर्यादाको लाँघता हुआ समुद्र, (१५) जवान बैलोंसे संयुक्त रथ और (१६) जवान बैलोंके ऊपर चढ़े हुए क्षत्रिय । तत्पश्चात् दूसरे दिन अनेक देशोंमें विहार करते हुए भद्रबाहु स्वामी संघके साथ वहाँ आये और आहार के लिए उस नगरके भीतर प्रविष्ट हुए । वे सब ऋषियोंको विविध श्रावकोंके घर भेजकर स्वयं भी एक श्रावकके घरपर स्थित हुए। वहाँपर अतिशय अव्यक्त बोलनेवाला एक बालक बोला कि जाओ जाओ । इसपर आचार्यने पूछा कि कितने वर्ष ? बालकने उत्तर दिया 'बारह वर्ष'।
१. जपन्नवदति बद्वदति । २ प श. पिछ ओदन ब पेछह ओदन। ३. ब कारणेणं । ४. ब नरोणेति । ५. ज प श प्रवेश । ६. ज ब कत्वार । ७. ब दिनेकदेशान् । ८. ब तत्राप्यव्यक्तो। ९. श
वरस । १०. ब बारस ।
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रकथाकोशम्
[ ५-५, ३८:
। संप्रति चन्द्रगुप्तस्तदागमनं विज्ञाय सपरिजनो वन्दितुं ययौ । वन्दित्वा स्वप्नफलमप्राक्षीत् । मुनिरब्रवीत् मुनिरब्रवीत् अग्रेदुःख त्वया स्वप्ने दृष्टम् । तथाहि दिनपत्यस्तमनं वस्तुप्रकाशक परमागम स्वस्तिमनं सूचयति १ । सुरद्रुमशाखाभङ्गोऽद्यास्तमन (?) प्रभृति - क्षत्रियाणां राज्यं विहाय तपोऽभावं बोधयति २ । आगच्छतो विमानस्य व्याघुटनम् अद्यप्रभृत्यत्र सुरचारणादीनाम् आगमनाभावं ब्रूते ३ । द्वादशशीर्षः सर्पो द्वादशवर्षाणि दुर्भिक्षं वदति ४ । चन्द्रमण्डलभेदो जैनदर्शने संघादिभेदं निरूपयति ५ । कृष्णगजयुद्धमितोऽत्राभिलषितवृष्टेरभावं गमयति ६ । खद्योतः परमागमस्योपदेशमात्रावस्थानं निगदति ७ । मध्यमप्रदेशशुष्कतडागमार्थखण्डमध्यदेशे धर्मविनाशमाचष्टे । धूमो दुर्जनादीनामाधिक्यं भणति
२२४
सिंहासनस्थो मर्कटोऽकुलीनस्य राज्यं प्रकाशयति १० । सुवर्णभाजने पायसं भुञ्जानः श्वा राजसभायां कुलिङ्गपूज्यतां द्योतयति ११ । गजस्योपरि स्थितो मर्कटो राजपुत्राणामकुलीन सेवां बोधयति १२ । कचारस्थं कमलं रागादियुक्ते तपोविधानं मनयति १३ । मर्यादाच्युतउदधिः षष्ठांशातिक्रमेण राज्ञां सिद्धादायग्रहणमाविर्भावयति १४ । तरुणवृषभयुक्तो
इसे अन्तराय मानकर आचार्य भद्रबाहु आहार ग्रहण न करके उद्यानमें वापिस चले गये । उधर संप्रति चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के आगमनको जानकर परिवार के साथ उनकी वंदना के लिए गया । वंदना करनेके पश्चात् उनसे पूर्वोक्त स्वप्नों के फलको पूछा । मुनि बोले- भविष्य में इस दुःषमा कालकी जैसी कुछ प्रवृत्ति होनेवाली है उस सबको तुमने इन स्वप्नोंमें देख लिया है । यथा- (१) तुमने जो अस्त होते हुए सूर्य को देखा है वह यह सूचना करता है कि अब समस्त वस्तुओं को प्रकाशित करनेवाला परमागम (द्वादशांग श्रुत) नष्ट होनेवाला है । (२) कल्पवृक्षकी शाखा टूटने से यह ज्ञात होता है कि अब क्षत्रिय जन राज्यको छोड़कर तपको ग्रहण नहीं करेंगे । ( ३ ) आते
विमानका लौटना यह बतलाता है कि आजसे यहाँ देवों एवं चारण ऋषियों का आगमन नहीं होगा । (४) बारह सिरोंसे संयुक्त सर्पसे यह विदित होता है कि यहाँ बारह वर्ष तक दुर्भिक्ष रहेगा । (५) चन्द्रका भेद यह प्रगट करता है कि अब जैन दर्शन में संघ, गण एवं गच्छ आदिका भेद प्रवृत्त होगा । (६) काले हाथियों का युद्ध यह सूचित करता है कि अबसे यहाँ अभीष्ट वर्षाका अभाव रहेगा। (७) जुगुनूके देखने से यह प्रकट होता है कि सकल श्रुतका अभाव हो जानेपर अब यहाँ उसका कुछ थोड़ा-सा उपदेश मात्र अवस्थित रहेगा । (८) मध्य भागमें सूखा हुआ तालाब कहता है कि अब आर्यखण्डके मध्य भागमें धर्मका नाश होगा । ( ९ ) धूमका दर्शन दुर्जन आदिकों की अधिकताको सूचित करता है । (१०) सिंहासन के ऊपर स्थित बन्दरके देखनेसे सूचित होता है कि अब कुलहीन राजाका राज्य प्रवृत्त होगा । ( ११ ) सुवर्णकी थाली में खीरको खानेवाला कुत्ता यह बतलाता है कि अब राजसभा में कुलिंगियोंकी पूजा हुआ करेगी । (१२) हाथी के ऊपर स्थित बन्दरके देखने से सूचित होता है कि अब राजपुत्र कुलहीन मनुष्यों की सेवा किया करेंगे । (१३) कचरामें स्थित कमल यह बतलाता है कि अब तपका अनुष्ठान राग-द्वेषसे कलुषित मनुष्य किया करेंगे | (१४) मर्यादाको लाँघनेवाले समुद्रके देखनेसे प्रगट होता है कि राजा लोग जो अब तक
१. ब त्यस्तमनं त्वया स्वप्ने दृष्टं यत्तत् सकल । २. ब शीर्षसर्वो । ३. श निवदति । ४ ब दुर्जनाधिक्यं । ५. श मर्कटो राजपुत्राणामकुलीनसेवां बोधयति । ६. व कत्वारस्थं । ७ ब सिद्धादयग्रहण मावि श सिद्धादाय मावि ।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५
२२५ रथो बालानां तपोविधानं वृद्धत्वे तपोऽतिचारं निश्चाययति १५ । तरुणवृषभारूढाः क्षत्रियाः क्षत्रियाणां कुधर्मरति प्रत्याययन्ति १६ । इति श्रुत्वा संप्रविचन्द्रगुप्तः स्वपुत्रसिंहसेनाय राज्यं दत्वा निःक्रान्तः।
भद्रबाहुस्वामी तत्र गत्वा बालवृद्धयतीनाह्वाययात स्म, बभाषे च तान् प्रति-अहो यो यतिरत्र स्थास्यति तस्य भङ्गो भविष्यति इति निमित्तं वदति, तस्मात्सर्वैर्दक्षिणमागन्तव्यमिति । रामिल्लाचार्यः स्थूलभद्राचार्यः स्थूलाचार्यस्त्रयोऽप्यतिसमर्थश्रावकवचनेन स्वसंधेन समं तस्थुः। श्रीभद्रबाहुादशसहस्रयतिभिर्दक्षिणं चचाल, महाटव्यां स्वाध्यायं ग्रहोतुं निशिहियापूर्वकं कांचिद् गुहां विवेश । तत्रात्रैव निषोत्याकाशवाचं शुश्राव । ततो निजमल्पायुर्विबुध्य स्वशिष्यमेकादशाङ्गधारिणं विशाखाचार्य संघाधारं कृत्वा तेन संघं विससर्ज । संप्रति चन्द्रगुप्तःप्रस्थाप्यमानोऽपि द्वादश वर्षाणि गुरुपादावाराधनीयावित्यागमथुतेर्न गतोऽन्ये गताः। स्वामी संन्यासं जमाहाराधनामाराधयन् तस्थौ। संप्रति-चन्द्रगुप्तो मुनिरुपवासं कुर्वन् तत्र तस्थौ। तदा स्वामिना भणितो हे मुनेऽस्मदर्शने कान्तारचर्यामा!ऽस्ति । ततस्त्वं कतिपयपादपान्तिकं चर्यार्थ याहि । गुरुवचनमनुल्लङ्घनीयमन्यत्रायुक्तादिति छठे भागको कर(टैक्स)के रूपमें ग्रहण किया करते थे वे अब उक्त नियमका उलंघन करके इच्छानुसार करको ग्रहण किया करेंगे । (१५) जवान बैलोंसे युक्त रथ यह बतलाता है कि अब बालक तपका अनुष्ठान करेंगे और वृद्धावस्थामें उस तपको दूषित करेंगे । (१६) जवान बैलोंके उपर चढ़े हुए क्षत्रियोंको देखकर यह निश्चय होता है कि अब क्षत्रिय जन कुधर्मसे अनुराग करेंगे । इस प्रकार उन स्वप्नोंके फलको सुनकर संप्रति चन्द्रगुप्तने अपने पुत्र सिंहसेनके लिए राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली।
___ भद्रबाहु स्वामीने उद्यानमें पहुँचकर बाल व वृद्ध सब मुनियोंको बुलाया और कहा कि जो मुनि यहाँ रहेगा उसका तप नष्ट होगा, यह निमित्तज्ञानसे निश्चित है । इसलिए हम सब दक्षिणकी
ओर चलें। उस समय रामिल्लाचार्य, स्थूलभद्राचार्य और स्थूलाचार्य ये तीन आचार्य किसी समर्थ श्रावकका वचन पाकर अपने-अपने संघके साथ वहींपर रहे । परन्तु श्रीभद्रबाहु आचार्य बारह हजार मुनियों के साथ दक्षिणकी ओर चले गये । वे वहाँ स्वाध्यायको सम्पन्न करनेके लिए एक महावनके भीतर निशीथिका (स्वाध्याय भूमि) पूर्वक किसी गुफामें प्रविष्ट हुए । वहाँ उन्हें 'यहीं पर ठहरो' यह आकाशवाणी सुनाई दी। इससे भद्रबाहुने यह निश्चय किया कि अब मेरी आयु बहुत थोड़ी शेष रही है। तब उन्होंने ग्यारह अंगोंके धारक अपने विशाखाचार्य नामक शिष्यको संघका नायक बनाकर उसके साथ संघको आगे भेज दिया। उस संघके साथ वे संप्रति चन्द्रगुप्तको भी भेजना चाहते थे। परन्तु उसने यह आगमवाक्य सुन रक्खा था कि बारह वर्ष तक गुरुके चरणोंकी सेवा करनी चाहिए । इसलिए एक वही नहीं गया, शेष सब चले गये । उधर भद्रबाहुने संन्यास ग्रहण कर लिया। तब वे आराधनाओंकी आराधना करते हुए स्थित रहे । संप्रति चन्द्रगुप्त उस समय उपवास करता हुआ उनके पासमें स्थित था। उस समय भद्रबाहु स्वामीने संप्रति चन्द्रगुप्तसे कहा कि हे मुने ! हमारे दर्शनमें--जैनागममें -कान्तार चर्याका मार्ग है-वनमें आहार ग्रहण करनेका विधान है। इसलिए तुम कुछ वृक्षों के पास तक चर्या के लिए जाओ। यदि वह अयोग्य नहीं
१. बनां तपो विद्धि वृद्धे व्रतातिचारं । २. फ काचिद्गुहायां श काचिद्गुहां । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श मार्गेऽस्ति । ४. ब मलंघनीय ।
२९
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ५-५, ३८
वचनाज्जगाम । तदा तश्चित्तपरीक्षणार्थ यक्षी स्वयमदृशीभूत्वा सुवर्णवलयालंकृत हस्तगृहीतaghi सूपसर्पिरादिमिश्रं शाल्योदनं दर्शयति स्म । मुनिरस्य ग्रहणमयुक्तमित्यलाभे गतः । गुरोरन्ते प्रत्याख्यानं गृहीत्वा स्वरूपं निरूपितवान् | गुरुस्तत्पुण्यमाहात्म्यं विबुध्य भद्रं कृतम् इत्युवाच । अपरस्मिन् दिनेऽन्यत्र ययौ । तत्र रसवतीभाण्डानि हेममयं भाजनमुदककलशादिकं ददर्श । अलाभेनागतो गुरोः स्वरूपं निरूपितवान् । स च भद्रं भद्रमिति वभाण । अन्यस्मिन् दिनेऽन्यत्र ययौ । तत्रैकैव स्त्री स्थापयति स्म । तदा त्वमेकाहमेक इति जनापवादभयेन स्थातुमनुचितमिति भणित्वालाभे निर्जगाम । अन्येद्युरन्यत्राट । तत्र तत्कृतं नगरमपश्यत् । तत्रैकस्मिन् गृहे चर्या कृत्वागतो गुरोः स्वरूपं कथितवान् । स बभाण समीचीनं कृतम् । एवं स यथाभिलाषं तत्र चर्या कृत्वागत्य स्वामिनः शुश्रूषां कुर्वन् वसति स्म । स्वामी कतिपयदिनैर्दिवं गतः । तच्छरीरमुच्चैः प्रदेशे शिलायाम् उपरि निधाय तत्पादौ गुहाभित्तौ विलिख्याराधयन् वसति स्म । विशाखाचार्यादयश्चोलदेशे सुखेन तस्थुः । इतः
है तो गुरुके वचनका उलंघन कभी नहीं करना चाहिए, यह सोचकर संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि उनकी आज्ञानुसार चर्या के लिए चले गये । उस समय उनके चित्तकी परीक्षा करनेके लिए एक यक्षीने स्वयं अदृश्य रहकर सुवर्णमय कड़ेसे विभूषित हाथमें कलछी ली और उसे दाल एवं घी आदि से संयुक्त शालि धानका भात दिखलाया । उसको देखकर मुनिने विचार किया कि इस प्रकारका आहार लेना योग्य नहीं है । इस प्रकार वे बिना आहार लिए ही वापिस चले गये । इस प्रकार वापिस जाकर उन्होंने गुरुके पास में उपवासको ग्रहण करते हुए उनसे उपर्युक्त घटना कह दी । गुरु चन्द्रगुप्तके पुण्य माहात्म्यको जानकर उनसे कहा कि तुमने यह योग्य ही किया है। दूसरे दिन चन्द्रगुप्त आहारके निमित्त दूसरी ओर गये। उधर उन्हें रसोई, बर्तन, सुवर्णमय थाली और पानीका घड़ा आदि दिखा । [ परन्तु पडिगाहन करनेवाला वहाँ कोई नहीं था ।] इसलिए वे दूसरे दिन भी बिना आहार ग्रहण ही वापिस आ गये । आजकी घटना भी उन्होंने गुरुसे कह दी । इसपर गुरुने कहा कि बहुत अच्छा किया । तत्पश्चात् तीसरे दिन वे किसी दूसरी ओर गये । वहाँ उनका पडिगाहन केवल एक ही स्त्रीने किया । तत्र चन्द्रगुप्त मुनिने उससे कहा कि तुम अकेली हो और इधर मैं भी अकेला हूँ, ऐसी अपस्था में हम दोनोंकी ही निन्दा हो सकती है । इसलिए यहाँ रहना योग्य नहीं है | यह कहकर बिना आहार किये ही वे वापिस चले गये । चौथे दिन वे और दूसरे स्थान में गये । वहाँ उन्होंने उस यक्षीके द्वारा निर्मित नगरको देखा। वहाँ एक घरपर वे आहार करके आ गये । आज निरन्तराय भोजन प्राप्त हो जानेका भी वृत्तान्त उन्होंने गुरुसे कह दिया । गुरुने भी कह दिया कि अच्छा किया। इस प्रकार वे इच्छानुसार कभी उपवास रखते और कभी वहाँ आहार ग्रहण करके आ जाते। इस प्रकार संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि गुरुदेवकी सेवा करते हुए वहाँ स्थित रहे । कुछ ही दिनों में भद्रबाहु स्वामी स्वर्गवासी हो गये । चन्द्रगुप्त मुनिने उनके निर्जीव शरीरको किसी ऊँचे स्थानमें एक शिला के ऊपर रख दिया । फिर वे गुफाकी भित्तिके ऊपर गुरुके चरणों को लिखकर उनकी आराधना करते हुए वहाँ स्थित रहे। उधर विशाखाचार्य आदि चोलदेशमें
१. ब ंमदर्शी भूत्वा । २. फ चट्टकेन ब चट्टकेन । ३. ब सूपसप्यादि श सूर्पसर्पि- रादि । ४. फ मित्यलाभेन । ५. व गुरुः । ६. व अन्यत्रेयाय । श 'स' नास्ति, व प्रतौ त्वस्ति ।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. उपवासफलम् ५
५-५, ३८]
२२७ पाटलीपुत्रे ये स्थिता रामिल्लादयस्तत्र महादुर्भिक्षं जातम् , तथापि श्रावका ऋषिभ्योऽतिविशिष्टमन्नं ददति । एकदा चर्या कृत्वागमनावसरे रङ्कः कस्यचिदृषेरुदरं विपाटयोदनो भक्षितः। ऋषेरुपद्रवं वीक्ष्य श्रावकैराचार्या भणिता ऋषयो रात्री पात्राणि गृहीत्वा गृहमागच्छन्तु, तान्यशनेन भृत्वा वयं प्रयच्छामो वसतौ निधाय योग्यकाले द्वारं दत्त्वा गवाक्षप्रकाशेन परस्परं हस्तनिक्षेपणं कृत्वा चर्या कुर्वन्त्विति, तदभ्युपगम्य तथा प्रवर्तमाने सत्येकस्यां रात्रौ दीर्घकायं वेतालाकृति पिच्छकमण्डलुपाणि कुक्कुरादिभयेन गृहीतदण्डं यतिं विलोक्य कस्याश्चिद् गर्भिण्याः भयेन गर्भपातोऽभूत् । तमनर्थ विलोक्योपासकैर्भणितं श्वेतं कम्बलं घटिकास्वरूपं लिङ्ग कटिप्रदेशं च झम्पितं यथा भवति तथा स्कन्धे निक्षिप्य गृहं गच्छन्त्वन्यथानर्थ इति । तदप्यभ्युपगतम् । तथा प्रवर्तमाना अर्धकर्पटितीर्थाभिधा जाताः । एवं ते सुखेन तथैव तस्थुः ।।
___ इतो द्वादशवर्षान्तरं दुर्भितं गतमिदानी विहरिष्याम इति विशाखाचार्याः पुनरुत्तरापथमागच्छन् गुरुनिषद्यावन्दनार्थं तां गुहामवापुः। तावत्तत्रातिष्ठद्यों गुरुपादावाराधयन् संप्रति-चन्द्रगुप्तो मुनिद्वितीयलोचाभावे प्रलम्बमानजटाभारः संघस्य संमुखमाट ववन्दे
जाकर वहाँ सुखपूर्वक स्थित हुए। ____ इधर पाटलिपुत्रमें यद्यपि भारी दुर्भिक्ष प्रारम्भ हो गया था तो भी वहाँ रामिल्ल आदि तीन आचार्योंके संघ स्थित थे उनके लिए श्रावक जन विशिष्ट भोजन दे ही रहे थे। एक दिन जब कोई एक मुनि आहार लेकर वापिस आ रहे थे तब कुछ दरिद्र जनोंने उनके पेटको फाड़कर तद्गत अन्नको खा लिया था। इस प्रकार मुनिके ऊपर आये हुए उपद्रवको देख कर कुछ श्रावकोंने उन आचार्योंसे कहा कि हे मुनिजनो ! आप लोग पात्रोंको लेकर हम लोगोंके घरपर रातमें आवें। तब हम लोग उन पात्रोंको भोजनसे भरकर दे दिया करेंगे। आप लोग उनको वसतिकामें ले जावें और फिर वहाँ भोजनके योग्य समयमें द्वारको बंद करके झरोखोंके प्रकाशमें एक दूसरेके हाथमें देकर उस भोजनको ग्रहण कर लिया करें । मुनिजन इसे स्वीकार करके तदनुसार प्रवृत्ति करने लगे। एक दिनकी बात है कि एक साधु, जिसका कि शरीर लम्बा था, एक हाथमें पीछी और कमण्डलुको तथा दूसरे हाथमें कुत्तों आदिके भयसे दण्डको लेकर जा रहा था। उसकी वेताल जैसी आकृतिको देखकर किसी गर्भवती स्त्रीका गर्भपात हो गया । इस अनर्थको देखकर श्रावकोंने कहा कि श्वेत कंबलकी घड़ी करके उसे अपने कन्धेके ऊपर इस प्रकारसे डाल लीजिए कि जिससे लिंग और कटि भाग ढंक जाय। इस प्रकारसे श्रावकके घर जानेपर ऐसा अनर्थ नहीं हो सकेगा, अन्यथा उसकी सम्भावना बनी ही रहेगी। इस बातको भी उन सबने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार प्रवृत्ति करनेसे उनका नाम अर्धकपटितीर्थ प्रसिद्ध हो गया। इस प्रकारसे वे वहाँ उसी प्रकार सुखसे स्थित रहे ।
इधर बारह वर्षके बाद जब वह दुर्भिक्ष नष्ट हो गया तब विशाखाचार्य आदिने दक्षिणसे उत्तरकी ओर फिरसे विहार करने का विचार किया। तदनुसार उत्तरकी ओर आते हुए वे मार्ग में भद्रबाहुकी नसियाकी वंदना करनेके लिए उस गुफामें पहुँचे । तब तक वहाँपर जो संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि गुरुके चरणोंकी आराधना करते हुए स्थित थे तथा दूसरी बार केशलुं च न करनेसे जिनका जटाभार
१. ब निक्षपणं । २. ज प कमण्डल । ३. व प्रदेशे । ४. ज प श तदभ्युपगतं व तदप्यभ्युपगतां । ५.
श निषिद्या। ६. फ शत्तत्र तिष्ठद्यो । ७. ज प जटाभार ।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५-५, ३८ः संघम् । 'अत्रायं कन्दाद्याहारेण स्थित इति न केनापि प्रतिवन्दितः। संघो गुरोर्निषद्याक्रिया चक्रे उपवासं च । द्वितीया पारणानिमित्तं कमपि ग्रामं गच्छन्नाचार्यः संप्रति-चन्द्रगुप्तेन निवारितः स्वामिन् , पारणां कृत्वा गन्तव्यमिति । समीपे ग्रामादेरभावात् क्व पारणा भविष्यतीति गणी बभाण । सा चिन्ता न कर्तव्येति संप्रति-चन्द्रगुप्त उवाच । ततो मध्याह्ने कौतुकेन संघस्तत्प्रदर्शितमार्गेण चर्यार्थ चचाल । पुरो नगरं लुलोके, विवेश, बहुभिः श्रावकैर्महोत्साहन स्थापिता ऋषयः । सर्वेऽपि नैरन्तर्यानन्तरं गुहामाययुः। कश्चिद् ब्रह्मचारी तत्र कमण्डलु विसस्मार। तामानेतुं डुढौके। तन्नगरं ने लुलोक इति विस्मयं जगाम, गवेषयन् झाड़ें तामपश्यत् । गृहीत्वागत्याचार्यस्य स्वरूपमकथयत् । ततः सूरिः संप्रतिचन्द्रगुप्तस्य पुण्येन तत्तदैव भवतीत्यवगम्य तं प्रशंसयामास । तस्य लोचं कृत्वा प्रायश्चित्तमदत्त, स्वयमप्यसंयतदत्तमाहारं भुक्तवानिति संघेन प्रायश्चित्तं जग्राह ।।
इतो दुर्भिक्षापसारे रामिल्लाचार्यस्थूलभद्राचार्यावालोचयामासतुः । स्थूलाचार्योs. तिवृद्धः स्वयमालोचितवांस्तत्संघस्य कम्बलादिकं त्यक्तं न प्रतिभासत इति नालोचयति ।
बढ़ रहा था, उन्होंने संघके सन्मुख आकर उसकी वंदना की। परन्तु यह यहाँ कन्दमूलादिका आहार करते हुए स्थित रहा है, ऐसा सोचकर संघके किसी भी मुनिने उनकी वंदनाके उत्तरमें प्रतिवंदना नहीं की । उस संघने वहाँ भद्रबाहुके शरीरका अग्निसंस्कार करते हुए उस दिन उपवास रक्खा । दूसरे दिन जब विशाखाचार्य पारणाके निमित्तसे किसी गाँवकी ओर जाने लगे तब संप्रति चन्द्रगुप्तने उन्हें रोकते हुए कहा हे स्वामिन् ! पारणा करने के पश्चात् विहार कीजिए । इसपर विशाखाचार्यने कहा कि जब यहाँ पासमें कोई गाँव आदि नहीं है तब पारणा कहाँपर हो सकती है ? इसके उत्तरमें चन्द्रगुप्तने कहा कि उसकी चिन्ता नहीं कीजिए । तत्पश्चात् मध्याह्नके समयमें चन्द्रगुप्तके द्वारा दिखलाये गये मार्गसे वह संघ आश्चर्य पूर्वक चर्याके लिए निकला। आगे जाते हए उसे एक नगर दिखाई दिया । तब वह उसके भीतर प्रविष्ट हुआ। वहाँ बहुत-से श्रावकोंने उन मुनियोंका बड़े उत्साहके साथ पडिगाहन किया। इस प्रकार वे सब निरन्तराय आहार करके वहाँसे उस गुफामें वापिस आ गये। उस संघका एक ब्रह्मचारी वहाँ कमण्डलु भूल आया था। वह उसे लेनेके लिए फिरसे वहाँ गया । परन्तु उसे वह नगर नहीं दिखा । इससे उसे बहुत आश्चर्य हुआ। फिर उसने उसे खोजते हुए एक झाड़के नीचे देखा । तब वह उसे लेकर वापिस गुफामें आया । उसने उस नगरके उपलब्ध न होनेकी बात गुरुसे कही। इससे विशाखाचार्यने समझ लिया कि वह नगर संप्रति चन्द्रगुप्तके पुण्य के प्रभावसे उसी समय हो जाया करता है । इस घटनाको जानकर विशाखाचार्यने संप्रति चन्द्रगुप्तकी बहुत प्रशंसा की। पश्चात् उन्होंने संप्रति चन्द्रगुप्त मुनिका केशढुंच करके उन्हें प्रायश्चित्त दिया तथा अव्रतीके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण करनेके कारण संघके साथ स्वयं भी प्रायश्चित्त लिया ।
इधर दुर्भिक्षके समाप्त हो जानेपर रामिल्लाचार्य और स्थूलभद्राचार्यने आलोचना करायी। स्थूलाचार्य चूँकि अतिशय वृद्ध हो चुके थे अतएव उन्होंने स्वयं आलोचना कर ली। उनके संघके
१. ब अयमत्र । २. शनिषिद्या । ३. ब 'च' नास्ति । ४. ज प श कथमपि । ५. फ श चन्द्रगुप्तोवाच । ६. श 'न' नास्ति। ७. ब लुलोके । ८. ज व्याटे प श्याटे ब श झाटे ( अस्पष्टम् ) । ९. श
किंबलादिकं । १०. ज ब त्यक्तुं ।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-५, ३८] ५. उपवासफलम् ५
२२२ पुनः पुनर्भणन्नाचार्यो रात्रावेकान्ते हतः । स्थूलाचार्यो दिवं गतः इति सर्वैः संभूय 'संस्कारितः। तहषयस्तथैव तस्थुः । तत्रागता विशाखाचार्यादयः प्रतिवन्दना न कुर्वन्तीति तदा तैः केवली भुङ्क्ते, स्त्रीनिर्वाणमस्तीत्यादि विभिन्न मतं कृतम् । तैः पाठितो कस्यचिद्राशः पुत्री स्वामिनी । सा सुराष्ट्रा [] देशे वलभीपुरेशवप्रपादाय दत्ता। सा तस्यातिवल्लभा जाता। तया स्वगुरवस्तत्रानायिताः। तेषामागमने राक्षा सममर्धपथं ययौ। राजा तान् विलोक्योक्तवान्- देवि, त्वदीया गुरवः कीदृशा न परिपूर्ण परिहिता नापि नग्नाः इति । उभयप्रकारयोर्मध्ये कमपि प्रकारं स्वीकुर्वन्तुं चेत्पुरं प्रविशन्तु, नोचेद्यान्त्वित्युक्ते तैः श्वेतः साटको वेष्टितस्ततः स्वामिनीसंशया श्वेतपटा बभूवुः। स्वामिन्याः पुत्री जक्खलदेवी श्वेतपटैः पाठिता। सा करहाटपरेशभपालस्यातिप्रिया जज्ञे। सापि स्वगरून् स्वनिकटमानयामास । तेषामागतो तया राजा विशप्तो मदीया गुरवः समागताः त्वयापथं निर्गन्तव्यमिति । तदुपरोधेन निर्गतो वटतले स्थितान् दण्डकम्बलयुतानालोक्य भूपाल उवाच देवि, त्वदीया गुरवो गोपालवेषधारिणो यापनीया इति । राजा तानवज्ञाय पुरं साधुओंने कंबल आदिको नहीं छोड़ा था, और आलोचना भी नहीं करना चाहते थे । जब स्थूलाचार्यने इसके लिए उनसे अनेक बार कहकर कंबल आदिके छोड़ देनेपर बल दिया तब रात्रिके समय एकान्त स्थानमें उनकी हत्या कर दी गई । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर स्थूलाभद्राचार्य स्वर्गमें पहुँचे। तब सबने मिलकर उनका अग्निसंस्कार किया। फिर वे साधु उसी प्रकार कंबल आदिके साथ स्थित रहे। जब वहाँ विशाखाचार्य आदि पहुँचे तब उन्होंने इनके पास कंबल आदिको देखकर उनकी वंदना के उत्तरमें प्रतिवंदना नहीं की। यह देखकर उन सबने 'केवली भोजन किया करते हैं, स्त्रीको भी मोक्ष प्राप्त होता है' इत्यादि प्रकार भिन्न मतको प्रचलित किया । उनने किसी राजाकी पुत्री स्वामिनीको पढ़ाया। वह सुराष्ट्रदेशस्थ वल्लभीपुरके राजा वप्रपादको दी गई थी। वह उसके लिए अतिशय स्नेहकी भाजन हुई। उसने अपने उन गुरुओंको वल्लभीपुरमें बुलाया । तदनुसार उनके वहाँ आ जानेपर वह उनके स्वागतार्थ राजाके साथ आधे मार्ग तक गई। उन सबको देखकर राजाने कहा कि प्रिये ! ये तुम्हारे गुरु कैसे हैं ? वे न तो पूर्णरूपसे वस्त्र ही पहिने हुए हैं
और न नग्न भी हैं। ये यदि उक्त दोनों मार्गों में से एक मार्ग स्वीकार कर लेते हैं तब तो पुरके भीतर प्रवेश कर सकते हैं, अन्यथा वापिस जावें। यह कहनेपर उन सबोंने श्वेत वस्त्रको पहिन लिया। तब स्वामिनीकी इच्छानुसार उनका नाम श्वेतपट (श्वेताम्बर) प्रचलित कर दिया गया । स्वामिनीके एक जक्खलदेवी नामकी पुत्री थी। उसको श्वेताम्बरोंने पढ़ाया था । वह करहाटपुरके राजा भूपालकी अतिशय प्यारी पत्नी हुई। उसने भी अपने गुरुओंको अपने पास बुलाया । तदनुसार जब वे वहाँ आ पहुंचे तब उसने राजासे प्रार्थना की कि मेरे गुरु यहाँ आये हुए हैं, आपको आधे मार्ग तक जाकर उनका स्वागत करना चाहिए । तब उसके आग्रहसे राजा उनका स्वागत करनेके लिए नगरसे बाहर निकला। उस समय वे दण्ड और कम्बलको लेकर एक वट-वृक्षके नीचे स्थित थे । उनको ऐसे वेशमें स्थित देखकर राजाने रानीसे कहा कि हे देवि ! ये तुम्हारे गुरु तो ग्वाले जैसे वेषको धारण करनेवाले हैं, अतः यापनीय (हटा देनेके योग्य) हैं। इस प्रकारसे वह
१. ब इति संभूय सर्वेः सं । २. प ते पाठिता श तैठिता। ३. ज फ श सुरथदशे प सुरथादेशे ।
४. ब स्वीकुर्वन्ति । ५. ज जरकल श जखल । ६. श तदुरोधेन । ७. श कमल ।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
पुण्यालवकथाकोशम्
[ ५-५, ३८
विवेश । तेषां तयोक्तं भवादृशामत्र वर्तनं नास्तीति निर्ग्रन्यैः भवितव्यम् । ततस्ते स्वमतावलम्बनेनैव जाल्पसंघाभिधानेन निर्ग्रन्थाजनिषतेति (?) संप्रति चन्द्रगुप्तोऽतिविशिष्तपो विधाय संन्यासेन दिवं जगाम । एवं कापोतलेश्यापरिणामेन कृतोपवासो नदिमित्रः स्वर्गादिसुखेोऽभूद्य विशुद्धया करोति स किं न स्यादिति ॥५॥
[ ३६ ]
इह हि नृपतिपुत्री प्रोषधाज्जातपुण्यानरसुरगतिभोगान् दीर्घकालं सिषेवे । अजनि तदनु विष्णोर्जाम्बवत्याह्वया स्त्री उपवसनमतोऽहं तत्करोमि विशुद्धया ॥ ६॥
अस्य कथा - द्वारवत्यां राजानौ बलनारायणौ । तावेकदोर्जयन्ते स्थितं श्रीनेमिनाथं वन्दितुमीयतुस्तं पूजयित्वा स्तुत्वा च स्वकोष्ठे उपविष्टौ । तत्र हरेर्देवी जाम्बवती वरदत्तगणधरं नत्वा पप्रच्छ स्वातीतभवान् । स आह- अत्रैव जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे पुष्कलावतीविषये वीतशोकपुरे वैश्यदेविलदेवलमत्योर्यशस्विनी सुता जाता प्रधानपुत्र सुमित्राय दत्ता । मृते तस्मिन् दुःखिता जिनदेवेन सम्यक्त्वं ग्राहिता । त्यक्तसम्यक्त्वा मृत्वा आनन्द
3
राजा उनकी अवज्ञा करके नगर में वापिस चला गया । तब जक्खलदेवीने उनसे कहा कि आप जैसों का इस वेषमें यहाँ निर्वाह होना सम्भव नहीं है । अतएव आप दिगम्बर हो जावें । ऐसा कहने पर वे अपने अभिप्रायको न छोड़ते हुए दिगम्बर हो गये । इससे उनका संघ जाल्पसंघ नामसे प्रसिद्ध हुआ । संप्रति चन्द्रगुप्त घोर तपश्चरण करके संन्यासके साथ मरणको प्राप्त हुआ और स्वर्ग गया । इस प्रकार कापोतलेश्यारूप परिणामसे उपवासको करके जब वह नन्दिमित्र स्वर्गादिके सुखका भोक्ता हुआ है तब जो भव्य जीव विशुद्ध परिणामोंसे उस उपवासको करेगा वह क्या वैसे सुखका भोक्ता नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ ५ ॥
यहाँ बन्धुषेण राजाकी पुत्री बन्धुयशा उपवास करके उससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभाव से चिरकाल तक मनुष्य और देवगतिके भोगोंको भोगकर अन्तमें कृष्णकी जाम्बवती नामकी पत्नी हुई है । इसलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको कहता हूँ || ६ ||
I
इसकी कथा इस प्रकार है- द्वारवती नगरी में बलदेव और कृष्ण ये दोनों भाई राज्य करते थे । एक समय वे दोनों ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर स्थित श्री नेमिनाथ जिनेन्द्रकी वंदना करने के लिए गये । उनकी वंदना और स्तुति करके वे दोनों अपने (मनुष्य के) कोठे में बैठ गये । वहाँपर कृष्णकी पत्नी जाम्बवतीने वरदत्त नामक गणधरको नमस्कार करके उनसे अपने पूर्व भवों को पूछा । गणधर बोले- इसी जम्बूद्वीप के भीतर अपर विदेह में पुष्कलावती देशस्थ वीतशोकपुर में एक देविल नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम देवलमती था । उनके एक यशस्विनी नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । उसका विवाह मंत्रीके पुत्र सुमित्र के साथ कर दिया गया । परन्तु वह मर गया था । इसलिए वह बहुत दु:खी हुई । तब जिनदेवने सदुपदेश देकर उसके लिए सम्यक्त्व ग्रहण करा दिया ।
१. ज प श संप्रतिचन्द्रोतिविशिष्टं व संप्रतिचन्द्रोतिविशेषं । २. व वलगोविंदो । ३. व स्थितं तं श्रीं । ४. ज प श जंबवती । ५. ब द्वीपपूर्वविदेहे । ६. व देविदेवत्यो । ७. ब मृता ।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
५-७, ४०] ५. उपवासफलम् ७
२३१ पुरेशान्तरस्य भार्या मेरुनन्दना बभूव पुत्राणामशीति लेभे। चतुःसहस्रवर्षाणि भोगाननुभूयार्तेन मृत्वा चिरं भ्रमित्वा जम्बूद्वीपैरावतविजयपुरेशबन्धुषेणबन्धुमत्योर्दुहिता बन्धुयशा जाता । श्रीमत्यार्जिकया प्रोषधं ग्राहिता, कन्यैव मृता धनदत्तस्य वल्लभा स्वयंप्रभा बभूव । ततो जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीशवज्रमुष्टिसुप्रभयोः सुमति
र्जाता। सुदर्शनार्जिकान्ते दीक्षिता। अनन्तरं ब्रह्मेन्द्रस्य देवी भूत्वागत्या विजयार्धदक्षिणश्रेणौ जम्बूपुरेशजम्बवसिंहचन्द्रयोः त्वं जातासि । अत्र तपसा देवो भूत्वा आगत्य मण्डलेश्वरो भविष्यसि, तपसा मुक्तश्च । इति बाला विवेकहीनापि प्रोषधेनैवंविधा जाता, विवेकी किं न स्यादिति ॥६॥
[४०] इह ललितघटाख्या मांससेवादियुक्ता मृतिसमयगृहीताच्चोपवासाद्विशुद्धात् । अगमदमलसौख्यां चारुसर्वार्थसिद्धिम्
उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्धया ॥७॥ अस्य कथा- अत्रैव वत्सदेशे कौशाम्ब्यां राजा हरिध्वजो देवी वारुणो पुत्राः
परन्तु उसने उसे छोड़ दिया। अन्तमें वह मरकर आनन्दपुरके राजा अन्तरकी मेरुनन्दना नामकी स्त्री हुई। उसने अस्सी पुत्रोंको प्राप्त किया। वह चार हजार वर्ष तक भोगोंको भोगकर आर्तध्यानके साथ मृत्युको प्राप्त हुई । इसलिए वह अनेक योनियोंमें चिर काल तक परिभ्रममण करती हुई इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रके भीतर विजयपुरके स्वामी बन्धुषेण और बन्धुमतीके बन्धुयशा नामकी पुत्री हुई। उसे श्रीमती आर्यिकाने प्रोषध ग्रहण कराया। वह कुमारी अवस्थामें ही मरणको प्राप्त होकर धनदत्तकी स्वयंप्रभा नामकी प्रिय पत्नी हुई। तत्पश्चात् वह जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह सम्बन्धी पुष्कलावती देशके भीतर जो पुण्डरीकिणी नगरी अवस्थित है उसके स्वामी वज्रमुष्टि
और सुप्रभाकी सुमति नामकी पुत्री हुई। उसने सुदर्शना आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। फिर वह समयानुसार मृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मेन्द्रकी देवी हुई। वहाँसे च्युत होकर विजयार्ध पर्वतकी दक्षिणश्रेणीके अन्तर्गत जम्बूपुरके स्वामी जम्बव और सिंहचन्द्राकी पुत्री तू हुई है । अब तू यहाँ तप करके देव और फिर वहाँसे च्युत होकर मण्डलेश्वर होगी। अन्तमें उसी पर्यायमें तपश्चरण करके मुक्ति को भी प्राप्त करेगी। इस प्रकार विवेकसे रहित वह कन्या भी जब प्रोषधके प्रभावसे इस प्रकार वैभवको प्राप्त हुई है तब भला जो भव्य विवेकपूर्वक उस प्रोषधका पालन करेंगे वे क्या वैसे वैभवको नहीं प्राप्त होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ६ ॥
ललितघट इस नामसे प्रसिद्ध जो श्रीवर्धन आदि कुमार यहाँ मांस भक्षण आदि व्यसनोंमें आसक्त थे वे सब मरणके समयमें ग्रहण किये गये निर्मल उपवासके प्रभावसे उत्तम सुखके स्थानभूत सुन्दर सर्वार्थसिद्धि विमानको प्राप्त हुए हैं। इसलिए मैं मन, वचन व कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥ ७ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है- इसी वत्स देशके भीतर कौशाम्बी पुरीमें हरिध्वज नामका राजा
१. ब भार्या नंदना। २. फ शजिकया पाश्र्वे प्रोषधं ब श्रीमत्यायिकाया प्रौषधं । ३. फ सुमती जाता। ४. ब गत्वात्र । ५. ज प जम्बु । ६. ब विवेकहीणा प्रो ।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-७, ४० श्रीवर्धनादयो द्वात्रिंशदन्ये 'प्रधानपुत्राः पञ्चशताः । एते परस्परं सखायः सर्वेऽप्येकत्रैव यान्त्यायान्ति तिष्ठन्ति । सर्वे ललिता इति ललितघटेति जनेनोक्ताः। एकदा श्रीकान्तनगं पापी गताः । तत्र मृगेभ्यो बाणान् यदा विसर्जयन्ति तदा सर्वेषां धनूषि मोटितानि । ते सर्वेऽपि पतिताः उत्थाय किमिदं कौतुकमिति गवेषयन्तोऽभयघोषमुनिं ददृशुः । अनेनैतत् कृतमिति तत्र केचित् कुपिताः अनर्थ कुर्वाणाः श्रीवर्धनेन निवारिताः। ततस्ते मुनि नेमुः । स धर्मवृद्धिरस्त्वित्युवाच । श्रीवर्धनो धर्ममप्राक्षीत् , मुनिर्निरूपयामास । स तं श्रुत्वानन्तरं निजायुःप्रमाणं पृष्टवान् कुमारः । मुनिरब्रवीत् युष्माकं सर्वेषां मासमेकमायुः । कथमेतन्निश्चय इति चेत्स्वपुरं गच्छतां भवतां मार्ग निरुद्धयानेकस्फटाभिर्भयानकः सर्पः स्थास्यति । स भवत्तर्जनेनादृश्यो भविष्यति । ततोऽग्रे मार्गे उपविष्टं मर्त्यशिशुं द्रक्ष्यय । स च भवद्दर्शनेन प्रवृद्धयातिभयानकराक्षसरूपेण भवतो गिलितुमागमिष्यति । सोऽपि तर्जनेनादृश्यः स्यात् । पुरं प्रविश्य राजमार्गेण स्वभवनगमने काचिदन्धा प्रासादोपरिभूमौ स्थित्वा बालकामेध्यं भूमौ निक्षेप्स्यति । तत् श्रीवर्धनोत्तमाङ्गे पतिष्यति । तथा भवतां मातर आगामिन्यां रात्री
राज्य करता था । रानी का नाम वारुणी था। उनके श्रीवर्धन आदि बत्तीस पुत्र थे । बत्तीस ये राजपुत्र तथा पांच सौ मन्त्रिपुत्र इनमें परस्पर मित्रता थी। वे सब एक ही स्थानमें जाते-आते व ठहरते थे। चूंकि वे सब ही सुन्दर थे, इसलिए मनुष्य उन सबको 'ललितघट' नामसे सम्बोधित करने लगे थे। वे सब एक दिन शिकारके विचारसे श्रीकान्त पर्वतपर गये। वहाँ जाकर उन सबने जब मृगोंके ऊपर बाण छोड़े तब उनके धनुष चूर्ण-चूर्ण हो गये और वे सब गिर गये । पश्चात् वे उठकर इस आश्चर्यजनक घटनाकी खोज करने लगे। उस समय उन्हें एक अभयघोष नामके मुनि दिखाई दिये । उनमें से कितनोंके मनमें विचार आया कि यह कृत्य इसीने किया है । इससे वे क्रोधित होकर मुनिका अनिष्ट करनेके लिए उद्यत हो गये। परन्तु श्रीवर्धनने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया । तब उन सबने मुनिको नमस्कार किया। मुनिने सबको धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया। श्रीवर्धनके पूछनेपर मुनिने धर्मकी प्ररूपणा की। धर्मश्रवण करनेके पश्चात् श्रीवर्धनकुमारने उनसे अपनी आयुके प्रमाणको पूछा । मुनिने कहा कि तुम सबकी आयु अब एक मास प्रमाण ही शेष रही है । यदि तुम इस बातका निश्चय करना चाहते हो तो इन घटनाओंको देखकर कर सकते हो- जब तुम सब अपने नगरको वापिस जाओगे तब तुम्हें बीचमें अनेक फणोंसे भयानक सर्प तुम्हारे मार्गको रोककर स्थित मिलेगा। परन्तु वह आप लोगोंकी भर्त्सनासे दृष्टिके ओझल हो जावेगा । उसके आगे तुम सब मार्गमें बैठे हुए एक मनुष्य बालकको देखोगे। वह तुम लोगोंको देखकर वृद्धिगत होता हुआ भयानक राक्षसके रूपमें तुम सबको निगलनेके लिए आवेगा। परन्तु वह भी तुम्हारी भत्सेनासे दृष्टिके ओझल हो जावेगा । तत्पश्चात् नगरके भीतर प्रवेश करके जब तुम राजमार्गसे अपने भवनको जाओगे तब कोई अन्धी स्त्री महलके उपरिम भागसे बालकके मलको पृथ्वीपर फेकेगी और वह श्रीवर्धनकुमारके सिरपर पड़ेगा । तथा अगली रातको आप लोगोंकी मातायें यह स्वप्न देखेंगी कि आप लोगोंको राक्षसने खा लिया है । बस,
१.५ फश श्रीवर्धमानाक्ष्यो । २. श त्रिद्वाशदन्ये । ३. व प्रधानादिपुत्राः । ४. ब सर्वेप्येकत्रैव यांति ।
५. ब फ लालिता। ६. श पापाडौं । ७. फ बाणानि यदा । ८.ज स्पटभिश स्फाटिभि । ९ ब भवद्दर्शनेना ।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ५-८, ४१] ५. उपवासफलम् ८
२३३ भवन्तो राक्षसेन गिलिता इति स्वप्नं विलोकिष्यन्ते । एतदर्शनेन मद्वचः सत्यं जानीथेति मुनिप्रतिपादितं निशम्य सकौतुकहृदयाः पुरं चलिताः, तथैव सर्वे विलुलोकिरे, स्व-स्वपितरावभ्युपगमय्य तन्मुनिनिकटे दिदीक्षिरे, संन्यासे गृहीत्वा यमुनातीरे प्रायोपगमनेन तस्थुः, मासावसाने अकालवृष्टी सत्यां तन्नदीपूरेण गताः, समाधिना सर्वार्थसिद्धि ययुरिति । ते तथाविधा अप्यवसानेऽनशनेन तथाविधा जाताः, अन्यो यो जिनभक्तः शक्त्या विशुद्ध्या च करोत्यनशनं स किं न स्यादिति ॥७॥
[४१] श्वपचकुलभवो ना भूरिदुःखी च कुष्ठी व्यभवदमरदेही दिव्यकान्तामनोजः । अनशनसुविधायी स्वस्य देहावसाने
उपवसनमतोऽहं तत्करोमि त्रिशुद्धया ॥८॥ अस्य कथा- जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिण्यां राजानौ वसुपालश्रीपाली। तत्पुरबहिः शिवंकरोद्याने भीमकेवलिनः समवशरणमस्थात् । तत्र खचरवती. सुभगा-रतिसेना-सुसीमाश्चेति चतस्रो व्यन्तरकान्ता आजग्मुः । केवलिनं पप्रच्छुरस्माकं इन सब घटनाओंको देखकर मेरे वचनको तुम सत्य समझ लेना। इस प्रकार मुनिके कथनको सुनकर वे आश्चर्यान्वित होते हुए नगरकी ओर गये। मार्गमें जाते हुए उन सबने जैसा कि मुनिने कहा था उन सभी घटनाओंको देख लिया। इससे विरक्त होकर उन सबने अपने-अपने माता-पिताकी स्वीकृति लेकर उन मुनिके निकटमें दीक्षा धारण कर ली । तत्पश्चात् वे संन्यासको ग्रहण करके प्रायोपगमन (स्व-परवैयावृत्तिका त्याग) के साथ यमुना नदीके तटपर स्थित हुए। ठीक एक मासके अन्तमें वे असमयमें हुई वर्षा के कारण वृद्धिको प्राप्त हुए यमुनाके प्रवाहमें बह गये । इस प्रकार समाधिके साथ मरणको प्राप्त होकर वे सब सर्वार्थसिद्धि विमानमें देव हुए । इस प्रकार वे मांस भक्षणादिमें आसक्त होकर भी अन्तमें ग्रहण किये उपवासके प्रभावसे जब वैसी समृद्धिको प्राप्त हुए हैं तब दूसरा जो जिनभक्त जीव अपनी शक्तिके अनुसार विशुद्धिपूर्वक उपवासको करता है वह क्या वैसी समृद्धिको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥ ७ ॥ ___ जो मनुष्य चाण्डालके कुलमें उत्पन्न होकर अतिशय दुःखी और कोढ़ी था वह उपवासको करके उसके प्रभावसे अपने शरीरको छोड़ता हुआ देव पर्यायको प्राप्त हुआ। तब वह देवांगनाओंके लिए कामदेवके समान सुन्दर प्रतीत होता था। इसीलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको करता हूँ ॥ ८ ॥
इसकी कथा इस प्रकार है- जम्बूद्वीपके भीतर पूर्व विदेहमें एक पुष्कलवती नामका देश व उसमें पुण्डरीकिणी नगरी है । वहाँ राजा श्रीपाल और वसु पाल राज्य करते थे। एक समय उस नगरके बाहर शिवंकर उद्यानमें भीम नामक केवलीका समवसरण स्थित हुआ। वहाँ खचरवती (सुखावती), सुभगा, रतिसेना और सुसीमा नामकी चार व्यन्तर देवियाँ आई। उन्होंने केवलीसे पूछा कि
१. ब विलोकयिष्यन्ते । २. श गमने । ३. ज़ प ब अप्यवसनेन फ अप्यवसानेन । ४. फ दिव्यकान्तो मनोज्ञः, श दिव्यंकान्तो मनोजः ।
Jain Education Internationao
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[५.८,४१ : वरः को भवेदिति । तैर्निरूपितं पूर्वमत्र पुरे चण्डाख्यश्चाण्डालोऽजनि यो विद्युद्वेगचौरेण समं वसुपालराजेन लाक्षागृहे निक्षिप्य मारितः। तत्सुतोऽर्जुनः उदुम्बरकुष्ठेन कुथितदेहो बन्धुभिर्वर्जितः सन् सुरगिरौ कृष्णगुहायां संन्यासेन तिष्ठति । स पञ्चमदिने वितनुभूत्वा भवतीनां पतिः स्यादिति । तच्छृ त्वा तास्तत्रेयुस्तस्य हे अर्जुन, पञ्चमदिने त्वमस्माकं पतिर्भविष्यसीति भीमभट्टारकै निरूपितमिति त्वं परीषहपीडितोऽपि संकलेशं मा कुर्विति संबोधयन्त्यस्तस्थुः । तदा तत्र क्रीडार्थ कुबेरपालनामा राजपुत्रः समागतस्ताः विलोक्य चुकोपो [ पा] यं चाण्डालः कुष्ठीत्यथो एनं निकृष्टं विहाय मयि रतिं कुरुत । ताभिरुक्तम्वयं देव्यस्त्वं मर्त्य इति कथमिदं ब्रूषे, यदि त्वं भोगार्थी धर्मपरो भव, वयं च किं सौधर्मादिष्वतिविशिष्टा बहवो [ बढ्यो ] हि देव्यो भविष्यन्ति । ततः स जगाम । ततो नागदत्ताख्यश्रेष्ठिन: पुत्रो भवदत्तास्यः आगतस्तेन तादृष्टास्तथा चोक्तम् । ताभिरपि तथोक्तम् । तदनु स कामज्वरेण मृत्वा तत्पित्रा कारितनागभवने उत्पलास्यो व्यन्तरोऽभूत् । सोऽर्जुनस्तासां वह्नीनां सुरदेवनामा देवोऽजनि, सपरिवारो भीमभट्टारकं वन्दितुमाययौ । तं दृष्ट्वा तद्वृत्तमवगम्य तस्समवसरणस्थाः प्रोषधरता अजनिषत । इत्यनेकप्राणिघाती चाण्डाल उपवासेन सुरो हमारा पति कौन होगा ? केवलीने कहा कि इसी नगरमें पहले एक चण्ड नामका चाण्डाल उत्पन्न हुआ था। उसे वसुपाल राजाने विद्यद्वेग चोरके साथ लाखके घरमें रखकर मार डाला था। उसके एक अर्जुन नामका पुत्र था। उसके शरीरमें उदुम्बर कुष्ठ रोग हो गया था। इससे कुटुम्बी जनोंने उसे घरसे निकाल दिया था। वह घरसे निकलकर इस समय सुरगिरि पर्वतके ऊपर कृष्ण गुफामें संन्यासके साथ स्थित है । वह पाँचवें दिन शरीरको छोड़कर तुम्हारा पति होगा। इसको सुनकर वे चारों व्यन्तर देवियाँ उस सुरगिरि पर्वतपर गई और उससे बोलीं कि हे अर्जुन ! तुम पाँचवे दिन शरीरको छोड़कर हम लोगोंके पति होओगे, यह हमें भीम केवलीने बतलाया है । इसलिए तुम परीषहसे पीड़ित हो करके भी संक्लेश न करना । इस प्रकारसे उसे सम्बोधित करती हुई वे चारों उसीके पास स्थित हो गई । उस समय कुबेरपाल नामका राजपुत्र वहाँ क्रीड़ाके लिये आया। उनको देखकर उसने क्रोधके आवेशमें कहा कि यह चाण्डाल कोढ़ी है, इसलिए इस निकृष्टको छोड़कर तुम मुझसे अनुराग करो । उनने उत्तर दिया कि हम देवियाँ हैं और तुम हो मनुष्य, इसलिए तुम यह असम्बद्ध बात क्यों बोलते हो ? यदि तुम भोगोंकी अभिलाषा रखते हो तो धर्ममें निरत हो जाओ । इससे हम लोगोंकी तो बात ही क्या, तुम्हें सौधर्मादि स्वर्गों में हमसे भी विशिष्ट देवियाँ प्राप्त हो सकेगी। तब वह वहाँसे चला गया। तत्पश्चात् वहाँ नागदत्त सेठका पुत्र भवदत्त आया । उसने भी उनको देखकर वैसा ही कहा। तब उन सबने उसे भी वही उत्तर दिया जो कि कुबेरपालके लिए दिया था। तत्पश्चात् वह कामज्वरसे मरकर अपने पिताके द्वारा बनवाये गये नागभवनमें उत्पल नामका व्यन्तर हुआ। वह अर्जुन उन बहुत-सी देवियोंका सुरदेव नामका देव उत्पन्न हुआ। वह परिवारके साथ भीमकेवलीकी वंदनाके लिये आया। उसको देखकर और उसके वृत्तान्तको जानकर भीमकेवलीकी समवसरण सभामें स्थित कितने ही जीव प्रोषधमें निरत हो गये । इस प्रकार अनेक प्राणियोंकी हिंसा करनेवाला वह चाण्डाल उपवासके प्रभावसे जब देव
१. श पटं बदध्वा त्वद्वंशोग्रवंशो। २. श नृत्य एवं रंग। ३. शं पुरिमत्तारं० । ४. ज ०मुद्रूत फ मुद्धृत० ब मुवृत० ५. ब सुकुंतलान् उत्पादय श स्वकुलंतनुत्पाट्य । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श प्रगाख्यं ।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१, ४२ ]
जज्ञेऽन्यो भव्यः किं न स्यादिति ॥ ८ ॥
६. दानफलम् १
उपवासफलाख्यक पद्यमिदं वसुसंख्यमितं प्रपठेदिहे यः । स भवेदमरो वरकीर्तिधरो नरनाथपतिश्च स मुक्तिपतिः ॥५॥ इति पुण्यास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्यरामचन्द्रमुमुक्षुविरचिते उपवासफल व्यावर्णनो नामाष्टकं समाप्तम् ॥५॥
[ ४२ ]
श्रीश्रीषेण नृपालः सुरमरगतिजं दाता सुतनुकस्तजाये चानुमोदाद् द्विजवरतनुजा दानस्य सुमुनेः । भुक्त्वा दीर्घ हि सौख्यं वितनुस्वगुणका जाताः सुविदितास्तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥१॥
अस्य कथा - अत्रैव भरते आर्यखण्डे मलयदेशे रत्नसंचयपुरेशः श्रीषेणो देव्यौ सिंहनन्दितानिन्दिताख्ये । तयोः क्रमेण पुत्राविन्द्रोपेन्द्रौ । तत्रैव विप्रः सात्यको भार्या जम्बू पुत्री सत्यभामा । एवं सर्वे सुखेन तस्थुः । श्रत्र कथान्तरम् । तथाहि - मगधदेशे अचलग्रामे विप्रो धरणीजडो भार्या अग्निला पुत्रौ चन्द्रभूत्यग्निभूती । तद्दासीपुत्रः कपिलोऽतिप्राशो उत्पन्न हुआ है तब अन्य भव्य जीव क्या उसके फलसे समृद्धिको प्राप्त नहीं होगा अवश्य होगा ||८||
जो जीव उपवासके फलकी प्ररूपणा करनेवाले इस आठ संख्यारूप पद्य (आठ कथामय प्रकरण ) को पढ़ेगा वह देव और उत्तम कीर्तिका धारक चक्रवर्ती होकर मुक्तिको प्राप्त होगा ||५||
२३५
इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षुके द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थ में उपवास के फलको बतलानेवाला अष्टक समाप्त हुआ ||५|
मुनके लिये आहार देनेवाला श्री श्रीषेण राजा सुन्दर शरीरसे संहित होता हुआ देव और मनुष्य गतिके लम्बे सुखको भोगकर शरीर से रहित सिद्धों के आठ गुणोंसे संयुक्त हुआ है - मुक्त हुआ है | तथा उसकी दोनों पत्नियों और उस ब्राह्मणपुत्री (सत्यभामा) ने भी उक्त मुनिदानकी अनुमोदन से देव व मनुष्य गतियोंके सुखको भोगा है । यह भली-भाँति विदित है । इसलिये निर्मल गुणोंके धारक भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥ १॥
इसकी कथा इस प्रकार है - इसी जम्बूद्वीप के भीतर भरतक्षेत्रगत आर्यखण्ड में मलय नामका देश है । उसके अन्तर्गत रत्नसंचयपुर में श्रीषेण नामका राजा राज्य करता था। उसके सिंहनन्दिता और अनिन्दिता नामकी दो पत्नियाँ थी । उन दोनोंके क्रमसे इन्द्र और उपेन्द्र नामके दो पुत्र हुए । उसी नगर में एक सात्यक नामका ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नीका नाम जम्बू और पुत्रीका नाम सत्यभामा था । ये सब वहाँ सुखपूर्वक स्थित थे । यहाँ एक दूसरी कथा है जो इस प्रकार है- मगध देशके अन्तर्गत अचल गाँवमें धरणीजड़ नामका एक ब्राह्मण रहता था उसकी पत्नीका नाम अमिला था। इनके चन्द्रभूति और अभिभूति नामके दो पुत्र थे । उसके एक कपिल नामका दासीपुत्र भी था जो अतिशय बुद्धिमान् और
।
१. ब प्रपवेदिह । २. फ सुमुक्तिपतिः व स मुक्तिपति । ३. ज वर्णनाष्टकं समाप्तं व वर्ण नाष्टकं समाप्तः: पश वर्ण नामाष्टकं । ४. ब श्रीश्रीषेणनृ । ५. फ सात्यकी ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
पुण्यात्र कथाकोश
[ ६–१, ४२ :
रूपवांश्च । स तत्पुत्रवेदाध्ययनकाले सर्ववेदादिकं शिशिक्षे । तच्छास्त्रपरिज्ञानं ज्ञात्वा धरणीजडेन निर्धाटितः । स यज्ञोपवीतादियुतो भूत्वा रत्नसंचयं पुरमागतः । सात्यकस्तं गुणिनं रूपाधिकं च दृष्ट्वा तस्मै सत्यभामामदत्त । सा तं ब्राह्मणानुष्ठाने शिथिलमति कामिनं च विलोक्य तत्कुले संदिग्धचिन्ता वर्तते । कतिपयदिनैर्धरणीजडस्तस्य समृद्धि श्रुत्वा द्रव्येच्छया तदन्तमागतस्तेन मत्तात इति सर्वत्र प्रभावितः । स तद्गृहे सुखेन स्थितः । एकदा भर्तरि बहिर्गते तया द्रव्यं पुरो व्यवस्थाप्य पृष्टः श्वशुरः कपिलस्य का जातिरिति । तेन यथावत्कथिते सा राजभवनं गत्वा राज्ञस्तदकथयत् । राजा तत्स्वरूपं विचार्य गर्दभारोहणादिकं कारयित्वा तं स्वदेशान्निर्धाटितवान् । सा राजभवने एव तिष्ठति स्म । एकदा राजभवनमनन्तगत्यरिंजयभट्टारकौ चारणौ चर्यार्थमागतौ, राज्ञा स्था-स्थापितावतिविशुद्ध दत्तम् । तत्र देव्यौ ब्राह्मणी चानुमोदं चक्रुः ।
एकदानन्तमतीविलासिनी निमित्तमिन्द्रोपेन्द्रौ योद्धुं लग्नौ पित्रा निवारितावपि युद्धं न त्यक्तवन्तौ । तदा विषपुष्पमाघ्राय राजा देव्यौ ब्राह्मणी च मनुः । मुनिदत्ता हारफलेनानुमोदकलेन च तत्र नृपो धातकीखण्डपूर्वमन्दरस्योत्तमभोगभूमावार्यो जशे । सिंहनन्दिता
सुन्दर था। ब्राह्मग जब अपने पुत्रोंको वेद आदि पढ़ाता तब वह भी उसे सुना करता था । इससे वह वेदादिका अच्छा ज्ञाता हो गया था । उसके शास्त्र ज्ञानको देखकर धरणीजड़ने उसे अपने घर से निकाल दिया था । तब वह यज्ञोपवीत आदिको धारण करके रत्नसंचयपुरमें आया । सात्यकने उसे गुणी और सुन्दर देखकर उसके साथ अपनी पुत्री सत्यभामाका विवाह कर दिया । वह ब्राह्मणके योग्य क्रियाकाण्ड में शिथिल होकर अतिशय कामी था । उसकी ऐसी प्रवृत्तिको देखकर सत्यभामाके मनमें उसके कुलके विषय में सन्देह उत्पन्न हुआ । कुछ दिनोंके पश्चात् धरणीजड़ उसकी वृद्धिको सुनकर धनकी इच्छा से उसके पास आया । उसने 'यह मेरा पिता है' कहकर सब लोगों में प्रसिद्ध कर दिया । इस प्रकार धरणीजड़ उसके घरपर सुखसे रहने लगा । एक दिन जब पति बाहर गया था तब सत्यभामाने ससुर धरणीजड़के सामने धनको रखकर उससे पूछा कि कपिलकी जाति कौनसी है ? इसके उत्तर में उसने यथार्थ वृत्तान्त कह दिया । तब सत्यभामाने राजभवनमें जाकर उसके वृत्तान्तको राजासे कहा । राजाने इस घटनापर विचार करके कपिलको गधे के ऊपर सवार कराया और नगर में घुमाते हुए देशसे निकाल दिया । सत्यभामा राजभवनमें ही रही । एक दिन अनन्तगति और अरिंजय नामके दो चारणमुनि चर्याके निमित्तसे राजभवनमें आये । राजाने पड़िगाहन करके उनको अतिशय विशुद्धिपूर्वक आहारदान दिया। उसकी दोनों रानियों और उस ब्राह्मणी ( सत्यभामा ) ने इस आहारदानकी अनुमोदना की ।
एक समय इन्द्र और उपेन्द्र नामके दोनों राजपुत्र अनन्तमती वेश्या के निमित्त से परस्पर युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये । राजाने उन्हें इसके लिए बहुत रोका । परन्तु दोनोंने युद्ध के विचारको नहीं छोड़ा। तब राजा, दोनों रानियों और उस ब्राह्मणी सत्यभामाने विषपुष्पको सूँघकर अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया । मुनियोंके लिये दिये गये उस दानके प्रभावसे वह राजा धातकी - खण्डद्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी उत्तम भोगभूमिमें आर्य हुआ । उक्त दानकी अनुमोदना करने से सिंह
१. ज प श शिशिष्ये । २ ज तच्छास्त्रं परिज्ञानं ज्ञात्वा श तच्छास्त्रपरिज्ञात्वा । ३. फ रूपादिकं । ४. व शिथिलमति ं । ५. श भवनं गत्यं । ६. श 'वितिविशुद्धया । ७. ब- प्रतिपाठोऽयम् । शद्धया तद्दानं ।
०
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१, ४२ ]
६. दानफलम् १
तस्यार्या बभूव । अनिन्दिता तत्रैवार्यो जातो द्विजनन्दना तस्यैवार्या जाता। पानकाङ्गतूर्याङ्गभूषणाङ्गज्योतिरङ्गगृहाङ्गभाजनाङ्गदीपाङ्गमाल्याङ्गभोजनाङ्गवस्त्राङ्गाश्चेति दशविधकल्पतरुफलोपभुञ्जाना व्याधिदुः खरहितास्त्रिपल्योपमकालं दिव्यसुखमन्वभूवन् । ततः श्रीषेणचर श्रयुत्वा सोध श्रीप्रभविमाने श्रीप्रभनामा देवोऽभूत् । ततः आगत्यात्रैव भरते विजयार्धदक्षिणश्रेणौ रथनूपुरेशार्क कीर्तिर्राश्ममालयोः सुतोऽमिततेजोऽभिधोऽभूद्विद्याधरचक्री च बहुकलं राज्यं विधाय तपसानतकल्पे नन्दभ्रमणविमाने मणिचूडनामा देवोऽजनि । ततोऽवतीयत्र द्वीपे 'पूर्वविदेहवत्सकाचं ती विषयप्रभाकरीपुरीशस्तिमितसागरवसुंधर्योर्नन्दनोऽपराजितो बलदेवो बभूव । बहुकालं राज्यं विधाय तपसाच्युते जातः । ततः आगत्यात्रैव द्वीपे पूर्वविदेहमङ्गलावतीविषय रत्नपुरेशतीर्थंकर कुमार क्षेमंधर महाराज हेमचित्रयोर्नन्दनो वज्रायुधोऽभूत् । सकलचक्रवर्ती दीर्घकालं राज्यं कृत्वा तपसा उपरिमाधस्तनग्रैवेयके सौमनसविमानेऽहमिन्द्रोऽजनि । ततोऽवतीर्यात्रैव द्वीपे पूर्वविदेह पुष्कलावती विषय पुण्डरीकिण्यां तीर्थकृत्कुमारो राजा देवी मनोहरी तन्नन्दनो मेघरथो जज्ञे । महामण्डलेश्वरः । तदनु तपसा सर्वार्थसिद्धौ भूत्वागत्य गर्भावतरणकल्याणपुरःसरं कुरुजाङ्गलदेशनन्दिता उस आर्य की आर्या हुई । अनन्दिताका जीव उसी भोगभूमिमें आर्य तथा उक्त ब्राह्मणपुत्री इस आर्य की आर्या हुई । ये सब वहाँ पानकांग, तूयोग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग; माल्यांग, भोजनांग और वस्त्रांग; इन दस प्रकारके कल्पवृक्षोंके फलको भोगते हुए दिव्य सुखका अनुभव करने लगे । उनकी आयु तीन पल्य प्रमाण थी । वे व्याधि आदिके दुख सर्वथा रहित थे । पश्चात् वह श्रीषेण राजाका जीव मरकर सौधर्म स्वर्ग के भीतर श्रीप्रभ विमान में श्रीप्रभ नामका देव हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें स्थित रथनूपुरके राजा अर्ककीर्ति और रश्मिमालाका अमिततेज नामका पुत्र हुआ जो विद्याधरोंका चक्रवर्ती था । उसने बहुत समय तक राज्ज किया । तत्पश्चात् वह तपके प्रभावसे आनत स्वर्ग में नन्दभ्रमण विमानके भीतर मणिचूड नामका देव हुआ । फिर वहाँ से च्युत होकर वह इसी जम्बूद्वीपके भीतर पूर्व विदेह में जो वत्सकावती देश व उसके भीतर प्रभाकरी पुरी है उसके स्वामी स्तिमितसागर और वसुन्धरी अपराजित नामका पुत्र हुआ जो बलदेव था । उसने बहुत समय तक राज्य करके अन्तमें तपको स्वीकार किया । उसके प्रभावसे वह अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । फिर वहाँ से आकर वह इसी द्वीप के पूर्व विदेह में मंगलावती देशस्थ रत्नपुरके स्वामी क्षेमंधर महाराजा और हेमचित्रा के वज्रायुध नामका पुत्र हुआ । क्षेमंकर महाराज तीर्थंकर थे । वज्रायुधने सकल चक्रवर्ती होकर बहुत काल तक राज्य किया । तत्पश्चात् वह तपश्चरण करके उसके प्रभाव से उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयक में सौमनस विमानके भीतर अहमिन्द्र हुआ । फिर वहाँसे चयकर वह इसी द्वीपके पूर्वं विदेहमें स्थित पुष्कलावती देश के अन्तर्गत पुण्डरीकिणी पुरीमें तीर्थंकर कुमार अभ्ररथ (घनरथ) राजा और मनोहरी रानीके मेघरथ नामका पुत्र उत्पन्न हुआ । वह महामण्डलेश्वर था । तत्पश्चात् वह तपश्चरण करके उसके प्रभावसे सर्वार्थसिद्धिमें देव हुआ । वहाँसे च्युत होकर वह गर्भावतरण कल्याणपूर्वक कुरु
२३७
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श अनन्दिता । २. ब भोजनांगदीपांगमा ल्यांगवस्त्रांगभाजनांगाख्यदर्श । ३. ब बहुकालं राज्यानंतरं तपसा अनंतकल्पनंद । ४. फ पूर्वविदेहे । ५. ब कछावती । ६. जफ पूर्वविदेहे । ७. विषये । ८. ब क्षेमंकर । ९. बरोभ्रमरथो ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-१, ४२ हस्तिनापुरनरेशविश्वसेनैरयोनन्दनः श्रीशान्तिनाथस्तीर्थकरश्चक्री कामश्च जातो मुक्तश्च । सिंहनन्दितादयोऽप्युभयगतिसौख्यं भुक्त्वा मुक्तिमापुः इति दानफलोल्लेखनमेवात्रं कृतम् । चिस्तरतः शान्तिचरिते इयं कथा मया निरूपितेत्यत्र न निरूप्यते । सा तत्र ज्ञातव्या। एवं सकहत्तदानो मिथ्यादृष्टिरपि तत्फलेन द्वादशभवान् सुखमन्वभून्मुक्तिं च जगाम । सद्दृष्टियों दानं ददाति स किं मुक्तिवल्लभो न स्यादिति ॥१॥
[४३] ख्यातः श्रीवज्रजको विगलिततनुका जाताः सुवनिता तस्य व्याघ्रो वराहः कपिकुलतिलकः क्रूरो हि नकुलः। भुक्त्वा ते सारसौख्यं सुरनरभुवने श्रीदानफलत
स्तस्मादानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥२॥ अस्य कथा श्रादिपुराणे प्रसिद्धति तदेव निरूप्यते । अत्रैव द्वीपेऽपरविदेहे गन्धिलविषये विजया?त्तरश्रेणावलकापुरेशातिबलमनोहर्योः पुत्रो महाबलः । तं राज्ये नियुज्यातिबलस्तपो विधाय केवली भूत्वा मोक्षं गतः । महाबलो विद्याधरचक्री महामति-संभिन्नमतिशतमति-स्वयंबुद्धाख्यमन्त्रिभी राज्यं कुर्वन् तस्थौ। एकदा तदास्थानलीलां विलोक्य जांगल देशके अन्तर्गत हस्तिनापुरके राजा विश्वसेन और रानी ऐराका पुत्र शान्तिनाथ तीर्थंकर हुआ । यह चक्रवर्ती के साथ कामदेव होकर मोक्षको प्राप्त हुआ । इस प्रकार यहाँ केवल दानके फलका उल्लेख मात्र किया गया है। विस्तारसे इस कथाका निरूपण मैंने शान्तिचरित्रमें किया है, इसीलिये उसकी विशेष प्ररूपणा यहाँ नहीं की जा रही है । इसको वहाँ से जान लेना चाहिये। इस प्रकारसे एक बार दान देनेवाला वह मिथ्यादृष्टि भी श्रीषेण राजा जब उसके फलसे बारह भवोंमें सुखको भोगकर मुक्तिको प्राप्त हुआ है तब जो सम्यग्दृष्टि भव्य जीव दान देता है वह क्या मुक्तिकान्ताका प्रिय नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥१॥
प्रसिद्ध वज्रजंघ राजा, उसकी पत्नी (श्रीमती), व्याघ्र, शूकर, बानर कुलमें श्रेष्ठ बंदर और दुष्ट नेवला; ये सब मुनिदानके फलसे देवलोक और मनुष्यलोकमें उत्तम सुखको भोगकर अन्तमें शरीरसे रहित (सिद्ध) हुए हैं। इसीलिये निर्मल गुणोंके धारक भव्य जीवोंको उत्तम पात्रके लिए दान देना चाहिये ॥२॥
इसकी कथा आदिपुराणमें प्रसिद्ध है। वहाँ से ही उसका निरूपण किया जाता है- इसी जम्बूद्वीपमें अपरविदेह क्षेत्रके भीतर गन्धिला देशके मध्यमें विजयाध पर्वत है। उसकी उत्तर श्रेणीमें एक अलकापुर नामका नगर है । उसमें अतिबल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम मनोहरी था। इन दोनोंके एक महाबल नामका पुत्र था । उसको राज्यके कार्यमें नियुक्त करके अतिबलने दीक्षा ले ली । वह तपश्चरण करके केवलज्ञानी होता हुआ मोक्षको प्राप्त हुआ। महाबल विद्याधरोंका चक्रवर्ती था। उसके महामति, संभिन्नमति, शतमति और स्वयम्बुद्ध नामके चार मन्त्री थे। इनकी सहायतासे वह राज्यकार्य करता था। एक समय महाबल राजाके सभाभवनकी छटाको देखकर स्वयम्बुद्ध मन्त्री बोला कि हे राजन् ! यह तुम्हारा सौन्दर्य आदि सब
१.ब पुरेश। २. ल्लेखनामवात्र । ३. ज प श सात्र । ४. फ सदृष्टिीवो यो। ५. ज फ ब जाता। ६. ज प ब श महाबलो तं । ७. जप सतमति श सततमति ।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ]
६. उपवासफलम् २
२३९
स्वयं बुद्धोऽब्रूत एतत्ते रूपादिकं धर्मजनितमिति धर्मः कर्तव्यः । इतरे शून्यवादिनो बभणुः सति धर्मिणि धर्माश्चिन्त्यन्ते । पूर्व परलोकिना जीवेन भवितव्यं पश्चात्परलोकचिन्तया । जीव एव नास्तीति किं धर्मेण । तान् प्रति तर्कवादेन स्वयंबुद्धो जीवसिद्धि विधाय श्रुतदृष्टानुभुक्त [ भूत् ] कथाजीवास्तित्वे दृष्टान्तेनाह - शृणुत हे सभ्याः, पूर्वमस्याम्नायेऽरविन्दो ब्राम राजाभूदेवी विजया पुत्री हरिश्चन्द्रकुरुविन्दो | एकदा अरविन्दस्य महान् दाघज्वरो जातः । स हरिश्चन्द्रं प्रार्थयति स्म पुत्र मां शीतलप्रदेशं नयेति । पुत्रस्तच्छीतल क्रियाकरणार्थ जलवर्षिणीं विद्यां प्रेषितवान् । सापि तमुपशान्ति नानैषीत् । एवं स यदा दुःखेन तिष्ठति तदा गृहको किले परस्परं युद्धं चक्रतुः । तत्रैकस्याः क्षतजबिन्दुस्तस्योपरि पपात । ततः किंचित्सुखमवाप । तस्य पूर्वमेव रौद्रपरिणामेन विभङ्गमुत्पन्नम् । तेन मृगावासं परिज्ञाय पुत्रं प्रार्थितवान् अस्मिन्नरण्ये मृगास्तिष्ठन्ति । तेषां रुधिरेण वापिकां पूरय । तत्र जलक्रीडायां सुखं स्यान्नान्यथेति । पितृभक्त्या स तत्र जगाम, तान् धरमाणो मुनिना निवारितः, उक्तं च - ते तातोऽल्पायुर्मृत्वा नरकं यास्यति, वृथा किं पापसंग्रहं करिष्यसि । कुमारोऽवोचत्
1
धर्मके प्रभावसे उत्पन्न हुआ है । इसलिए तुम्हें धर्म करना चाहिये । स्वयम्बुद्धके इस उपदेशको सुनकर दूसरे शून्यवादी मन्त्री बोले कि धर्मीके होनेपर धर्मोंका विचार करना योग्य है । पहिले परलोक से सम्बन्ध रखनेवाला जीव (धर्मी) सिद्ध होना चाहिये । तत्पश्चात् परलोक के सुख-दुखका विचार करना उचित माना जा सकता है । परन्तु जब जीव ही नहीं है तब भला धर्म करने से क्या अभीष्ट सिद्ध होगा ? इसपर स्वयम्बुद्धने प्रथमतः उन लोगों के लिए युक्तिपूर्वक जीवकी सिद्धि की । तत्पश्चात् उसने दृष्टान्तके रूपमें जीवके अस्तित्वको प्रगट करनेवाली एक देखी, सुनी और अनुभवमें आयी हुई कथाको कहते हुए सदस्योंसे उसके सुनने की प्रार्थना की। वह बोला
पहिले इस महाबल राजाके वंशमें एक अरविन्द नामका राजा हो गया है। उसकी पत्नीका नाम विजया था । इनके हरिश्चन्द्र और कुरुविन्द नामके दो पुत्र थे । एक समय अरविन्द के लिए दाहज्वर उत्पन्न हुआ। तब उसने हरिश्चन्द्र से प्रार्थना की कि हे पुत्र ! मुझे किसी ठण्डे स्थानमें ले चलो | तब पुत्रने उसके शीतलतारूप कार्यको सम्पन्न करने के लिए जलवर्षिणी विद्याको भेजा । परन्तु वह उसके दाहज्वरको शान्त नहीं कर सकी । इस प्रकार जब वह अरविन्द दुखका अनुभव करता हुआ स्थित था तब वहाँ दो छिपकलियाँ परस्पर लड़ रही थीं। उनमें से एक के क्षत शरीर से रुधिरकी बूँद निकलकर अरविन्दके शरीर के ऊपर जा गिरी। इससे उसे कुछ शान्ति प्राप्त हुई । रौद्र परिणामके कारण उसे विभंगज्ञान पहिले ही उत्पन्न हो चुका था । इससे उसने मृगोंके रहने के स्थानको जान करके पुत्रसे प्रार्थना की कि इस ( अमुक ) वनमें मृग रहते हैं, उनके रुधिरसे तुम एक वापिकाको पूर्ण करो । उसमें जलक्रीड़ा करनेसे मुझे सुख प्राप्त हो सकता है। इसके बा मुझे किसी प्रकारसे सुख नहीं हो सकता है । तब पिताकी भक्ति से वह पुत्र उस वनमें जाकर मृगों को पकड़ने लगा । उसे इससे रोकते हुए मुनि बोले कि तुम्हारे पिता की आयु अतिशय अल्प शेष रही है । वह मरकर नरक जानेवाला है । ऐसी अवस्था में तुम व्यर्थ पापका संग्रह क्यों करते हो ? इसे सुनकर कुमारने कहा कि मेरा पिता बहुत ज्ञानी है, वह भला नरक में क्यों जायगा ?
१. फ श्रुतं दृष्ट्वानुभुक्तकथा । २. ब दीर्घज्वरो । ३ ब प्रतिपाठाऽयम् । जपफश क्षतजलबिन्दु |
४. ब ' ततः' नास्ति ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्याकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ मत्पितैवंविधो ज्ञानी किं नरकं यास्यति । मुनिरुवाच- पापहेतुमेव जानाति, न पुण्य हेतुम् । ने गत्वा पृच्छ 'ताटव्यामन्यत् किं तिष्ठति' इति । यदि मां जानाति तर्हि त्वत्पिता ज्ञानी । तेन पृष्टः स न जानाति । तदा पुत्रेण लाक्षारसेन वापिका पूरिता । स तत्र क्रीडयितुं विवेशानन्देन तत् पिबति स्म । लाक्षारसं विज्ञाय तेनाहं छिद्रित इति च्छुरिकया तं मारयितुं धावन् स्वयं स्वस्याश्छुरिकाया उपरि पतितो मृतो नरकं गत इति सर्वे पौरवृद्धाः प्रतिपादयन्ति ।
तथान्योऽयेतत्संताने दण्डकाख्यो नृपोऽभूत्, देवी सुन्दरी पुत्रो मणिमाली । दण्डको मृत्वा स्वभाण्डागारेऽहिरभूत् । स मणिमालिनमेव तत्र प्रवेष्टुं प्रयच्छत्यन्यस्य खादितुं धावति । मणिमालिनैकदा रतिचारणाख्योऽवधिबोधस्तद्वृत्तान्तं पृष्टः । तेन यथावृत्कथिते तेनागत्याहि: संबोधितोऽणुव्रतानि जग्राहायुरन्ते सौधर्म गतः । स आगत्य दिव्यवस्त्राभरणैर्मणिमालिनं पूजयामास । एतत्कण्ठादिप्रदेशस्थानि तान्यभरणानि किं न भवन्ति ।
दृष्टानुभुक्त [ भूत ] कथामवधारयन्तु तथा ह्यस्य पितृपितामहः सहस्रवलः स्वतनयं शतबलं स्वपदे निधाय दीक्षितो मोक्षमुपजगाम । शतबलोऽपि स्वपुत्रातिबलाय राज्यं दत्त्वा
२४०
तत्पश्चात् मुनि बोले कि वह केवल पापके कारणको ही जानता है, पुण्यके कारणको नहीं जानता । तुम जाकर उससे पूछो कि उस वनमें और क्या है यदि वह मुझे जानता है तो समझो कि तुम्हारा पिता ज्ञानी है। तब पुत्रने जाकर पिता से वैसा ही पूछा । परन्तु वह इसे नहीं जानता था । ऐसी स्थिति में पुत्रने एक वापिकाको बनवाकर उसे रुधिर के स्थान में लाख के रससे भरवा दिया । तब अरविंद क्रीड़ा करनेके लिए उसके भीतर प्रविष्ट हुआ । परन्तु जब उसने उसका आनन्द के साथ पान किया तो उसे ज्ञात हो गया कि यह रुधिर नहीं है, किन्तु लाखका रस है । तब पुत्रकी इस धोखा - देहीसे क्रोधित होकर वह उसे छूरीसे मारने के लिए दौड़ा, किन्तु ऐसा करते हुए वह स्वयं ही अपनी उस छूरीके ऊपर गिरकर मर गया और नरकमें जा पहुँचा । इस वृत्तान्तको नगरके सब ही वृद्ध जन कहा करते हैं ।
इसके अतिरिक्त इसकी वंशपरम्परा में दण्डक नामका एक दूसरा भी राजा भी हो गया है । उसकी पत्नीका नाम सुन्दरी था। इनके एक मणिमाली नामका पुत्र था । दण्डक मरकर अपने भाण्डागारमें सर्प हुआ था । वह केवल मणिमालीको ही उसके भीतर प्रवेश करने देता था और दूसरेके लिए वह काटने को दौड़ाता था। एक बार मणिमालीने इस घटना के सम्बन्ध में किसी रतिचारण नाम अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा । मुनिने उसके पूर्वोक्त वृत्तान्तको कह दिया । उसको सुनकर मणिमालीने भण्डागार में जाकर उस सर्पको सम्बोधित किया । इससे सर्पने अणुव्रतों को ग्रहण कर लिया । वह आयु अन्तमें मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ । उसने आकर मणिमालीकी दिव्य वस्त्राभरणों से पूजा की । इस महाबल के कण्ठ आदि स्थानों में सुशोभित ये आभूषण क्या वे ही नहीं हैं ? अर्थात् ही हैं।
इसके अतिरिक्त आप लोग इस देखी और अनुभवमें आयी हुई कथाके ऊपर भी विश्वास करें - महाबल राजाके प्रपितामह सहस्राबलने अपने पुत्र शतबलको राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर थी। वे मुक्तिको प्राप्त हुए हैं। पश्चात् शतबल भी अपने पुत्र अतिचल के लिए राज्य देकर
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श 'न' नास्ति । २. व प्रतिपाठोऽयम् । श 'तदा' नास्ति । ३. ब धावदयं स्वयं । ४, जपफश तथान्येप्येत । ५. श 'नृपो' नास्ति । ६. प यथा दृष्टानुभुक्तकथमव' ।
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २ निष्क्रान्तो माहेन्द्रस्वर्गेऽजनि । अतिबलोऽप्येतस्मै राज्यं दत्वा दीक्षितवान् । भस्य कुमारकाले वयं चत्वारोऽप्यनेन मन्दरं क्रीडितमैम। तत्र जिनालयाजिनं पूजयित्वा निर्गच्छन् महेन्द्रकल्पजोऽमुं विलोक्योक्तवान् 'मन्नता त्वम्' इति, दिव्यवस्त्रादिकमदत्त । स एतैरपि दृधः । किं च त्वत्पितुः केवलपूजार्थं जातदेवागमो ऽस्माभिः सर्वैरपि दृष्टः । इत्यनेकधा जीवसिद्धिं कृत्वा महाबलदत्तजयपत्रं जग्राह । महाबलस्तथापि धर्म नागच्छत्यतिवृद्धोऽजनि । एकदा स्वयं बुद्धो मन्दरमियाय । तत्र जिनालयान् पूजयित्वा स्वपुरगमनमना यदाभूत्तदा तत्रैव पूर्वविदेहे. सीताया उत्तरतटस्थकच्छाविषयारिष्टपुरस्थयुगंधरतीर्थकरसमवसरणात्तत्रादित्यगति-अरिंजयचारणावतीरें । तौ नत्वा मन्त्री पप्रच्छ-महाबलः किमिति धर्म न गृहाति । मुनिराहातीतभवं कथयामि-अत्रैव विषये आर्यखण्डे सिंहपुरेशश्रीषेणसुन्दोः पुत्रौ जयवर्मा-श्री. वर्माणौ । प्रव्रजता श्रीषेणेन जयवर्मा धीमान् न भवतीति श्रीवर्मा राजा कृतः। जयवर्मा वैराग्येण स्वयंप्रभाचार्यान्ते दीक्षितः । केशान् बिलाभ्यन्तरे निक्षिपन् सर्पदष्टोऽजनि । तदवसरे विभृत्या विमानमारुह्य गच्छन्तं महीधरखेचरं विलुलोके। तपःप्रभावेनाहं विद्याधरो दीक्षित हो गया था। वह मरणको प्राप्त होकर माहेन्द्र स्वर्गमें देव हुआ। अतिबलने भी इसके लिए (महाबलके लिए) राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली है। इसकी कुमारावस्थामें हम चारों ही इसके साथ क्रीड़ा करनेके लिए मन्दर पर्वतके ऊपर गये थे। वहाँ जिनालयमें-से जब यह जिनपूजा करके आ रहा था तब महेन्द्र स्वर्गका वह देव इसको देखकर बोला कि तुम मेरे नाती हो । फिर उसने इसे दिव्य वस्त्रादि दिये । उक्त देवको इन सबने भी देखा था। इसके अतिरिक्त जब तुम्हारे पिताको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था तब उनकी पूजाके लिए आते हुए देवोंको हम सबने ही देखा था ।
उक्त प्रकारसे स्वयम्बुद्ध मंत्रीने अनेक युक्तियोंके द्वारा जीवकी सिद्धि करके महाबलके द्वारा दिये गये जयपत्र ( विजयके प्रमाणपत्र ) को प्राप्त किया। किन्तु फिर भी महाबल धर्ममें दृढ़ नहीं हुआ। वह अनुक्रमसे अतिशय वृद्ध हो गया था। एक समय स्वयम्बुद्ध मन्दर पर्वतपर गया । वह जिनालयों की पूजा करके जैसे ही अपने नगरकी ओर आनेको उद्यत हुआ वैसे ही युगंधर तीर्थकरके समवसरणसे आदित्यगति और अरिंजय नामके दो चारण ऋषि आकाशमार्गसे नीचे आये। उस समय युगंधर तीर्थकरका समवसरण पूर्वविदेहके भीतर सीता नदीके उत्तर तटपर स्थित कच्छा देशमें अरिष्टपुरको सुशोभित कर रहा था । उनको नमस्कार कर स्वयम्बुद्धने पूछा कि प्रभो ! महावल धर्मको ग्रहण नहीं कर रहा है, इसका कारण क्या है। उत्तरमें मुनि बोले कि मैं महाबलके पूर्व भवके वृत्तान्त कहता हूँ-- इसी देशमें आर्यखण्डके भीतर एक सिंहपुर नामका नगर है। उसमें श्रीषेण नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम सुन्दरी था। उनके जयवर्मा और श्रीवर्मा नामके दो पुत्र थे। इनमें बड़ा पुत्र जयवर्मा बुद्धिहीन था। इसीलिए श्रीषेणने दीक्षा लेते समय जयवर्माको राजा न बनाकर श्रीवर्माको राजा बनाया था। इससे विरक्त होकर जयवर्मा स्वयम्प्रभाचार्यके समीपमें दीक्षित हो गया । उसे बालोंको बिलके भीतर रखते समय सर्पने काट लिया था। इसी समय एक महीधर नामका विद्याधर विमानमें बैठकर विभूतिके साथ वहाँसे जा रहा था। उसे देखकर महा
१.प मंदिरं। २. क्रीडितुं गत्वा मम तत्र फश क्रीडितुं गत्वान्वैम तत्र । ३. फ श जातः देवागमो। ४. बं स्वपुरमागमनाय यदाभूत्तदात्रैव । ५. ब शरणातत्रा । ६. श सिंहिपुरेश । ७. श ऽजने । ८. ब मगधर। ९. ब एतत्तपः ।
Jain Education Inational
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-२,४३ : भविष्यामीति कृतनिदानो महाबलोऽभूदिति भोगांस्त्यक्तुं न शक्नोति । किं चातीतरात्रौ स्वप्ने ऽद्राक्षीत्। किमित्युक्ते महामत्यादिभिस्त्रिभिधृत्वातिकुथितकर्दमे मजितम् , त्वयाकृष्य संस्नाप्य सिंहासने उपवेश्य पूजितं चात्मानं तव कथयितुं त्वामवलोकयन्नास्ते। यावत्स न कथयति तावत्त्वमेव कथय यथा स धर्म गृहीष्यति । किं च तस्य मास एवायुरिति श्रुत्वा तौ नत्वा संगम्य मन्त्री तथैवाकथयत्तदातिवैराग्यपरो जज्ञे। स्वपुत्रमतिबलं स्वपदे निधाय सर्वजिनालयेष्वष्टाह्निकी पूजां विधाय सिद्धकूटं गत्वा परिजनं विसृज्य स्वरांबुद्धोपदेशक्रमेण केशानुत्पाटय प्रायोपगमनसंन्यासनेन द्वाविंशतिदिनैः शरीरं विहायशाननाके स्वयंप्रभविमाने ललिताङ्गनामा महर्द्धिको देवोऽभूत् । तस्य स्वयंप्रभाकनकमालाकनकलताविद्युल्लताख्याश्वतस्रो महादेव्यस्तस्य द्विसागरोपमायुमध्ये पञ्च-पञ्चपल्येषु तासु बहीषु गतास्ववसाने पञ्चपल्यायुषि स्थिते या स्वयंप्रभा देवी बभूव सा तस्यातिवल्लभा जाता। तया सुखेन तस्थौ । षण्मासायुषि स्थिते मरणचिह्न सति महादुःखी बभव । देवैः संबोधितः सन् समचित्तेन तनुं
बलने निदान किया कि इस तपके प्रभावसे मैं विद्याधर होऊँगा । इसी निदानके कारण वह महाबल होकर विषयभोगोंको छोड़नेके लिए असमर्थ हो रहा है । परन्तु आज रात्रिमें उसने स्वप्नमें देखा है कि उसे महामति आदि तीन मन्त्रियोंने पकड़कर दुर्गन्धयुक्त कीचड़में डुबा दिया है। उसमेंसे निकालकर तुमने उसे स्नान कराते हुए सिंहासनपर बैठाया और पूजा की। अपने इस स्वप्नके वृत्तान्तको सुनानेके लिए वह तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। जब तक वह उस स्वप्नके वृत्तान्तको तुम्हें नहीं सुनाता है तब तक तुम उसके पहिले ही उस स्वप्नके वृत्तान्तको कह देना। इससे वह दृढ़तापूर्वक धर्मको ग्रहण कर लेगा। अब उसकी आयु केवल एक मासकी ही शेष रही है। इस वृत्तान्तको सुनकर स्वयम्बुद्धने उन दोनों मुनियोंको नमस्कार किया और अपने नगरको वापिस चला गया। वहाँ पहुँचकर उसने महाबल राजासे उस स्वप्नके वृत्तान्तको उसी प्रकारसे कह दिया। इससे वह अतिशय वैराग्यको प्राप्त हुआ। तब उसने अपने पुत्र अतिबलको राजपदपर प्रतिष्ठित किया और फिर सर्व जिनालयोंमें जाकर अष्टाहिक पूजा की। तत्पश्चात् सिद्धकूटके ऊपर जाकर उसने परिजनको विदा किया और स्वयम्बुद्धके उपदेशानुसार केशलोंच करते हुए दीक्षा ले ली। दीक्षाके साथ ही उसने प्रायोपगमन सन्यासको भी ग्रहण कर लिया। इस प्रकारसे वह बाईस दिनमें शरीरको छोड़कर ईशान कल्पके अन्तर्गत स्वयंप्रभ विमानमें ललितांग नामका महद्धिक देव हुआ। उसके स्वयंप्रभा, कनकमाला, कनकलता और विद्युल्लता ये चार महादेवियाँ थी। आयु उसकी दो सागरोपम प्रमाण थी । इस बीच पाँच-पाँच पल्योंकी आयुमें उसकी वे बहुत-सी देवियाँ मरणको प्राप्त हो गई। अन्तमें जब उसकी पाँच पल्य मात्र आयु शेष रह गई तब स्वयंप्रभा नामकी जो देवी उत्पन्न हुई वह उसे अतिशय प्यारी हुई। उसके साथ वह सुखपूर्वक स्थित रहा। तत्पश्चात् छह मास प्रमाण आयुके शेष रह जानेपर जब मरणके चिह्न दिखने लगे तब वह बहुत दुःखी हुआ। उसकी वैसी अवस्था देखकर सामानिक देवोंने उसे सम्बोधित किया। तब वह समचित्त होकर-विषादको
१.पश मथितं। २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सर्वजिनालये अष्टाह्निकी। ३. प सन्न सम फ सनसम
श सन्तसम।
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४३
: ६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २ विहायागत्यात्रैव पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये उत्पलखेटपुरेशवज्रबाहु-वसुंधर्योः पुत्रो वज्रजवोऽजनि । स्वयंप्रभागत्य तद्विषय एव पुण्डरोकिणीशवज्रदन्त लक्ष्मीमत्योः सुता श्रीमती जाता, प्राप्तयौवना सुखेन स्थिता।
एकदास्थानस्थो वजूदन्तो द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां विज्ञप्तः-देव, ते पितुर्यशोधरभट्टारकतीर्थकरपरमदेवस्य केवलं समुत्पन्नम् , श्रायुधागारे चक्रमुत्पन्नमिति च । तदैव कयाचिद्विक्षप्तो देव, देवागमावलोकनात् श्रीमती मूञ्छिता जातेति। तस्याः शीतलक्रियया प्रतीकारं कुरुतेति प्रतिपाद्य समवस्मृति जगाम चक्री, तद्वन्दनानन्तरं विशुद्धयतिशयेन देशावधियुक्तो जझे, तदनु दिग्विजयं चकार । इतः श्रीमती मौनेन स्थिता। तत्पण्डितयैकान्ते मौनकारणं पृष्टा सावोचदहं देवागमनदर्शनेन पूर्वभवान्' स्मृत्वा मौनेन स्थिता। पण्डितया तान् भवान् कथयेत्युक्ते सा स्वातीतभवानाह-हे पण्डिते, धातकीखण्डद्वोपपूर्वमन्दरापरविदेहगन्धिलविषयपाटलीग्रामे वैश्यनागदत्तवसुमत्योः पुत्रा नन्दि-नन्दिमित्र-नन्दिसेन-वरसेन-जयसेनाख्याः पश्च, पुज्यौ मदनकान्ता-श्रीकान्तेऽहमष्टमी यदा गर्भे स्थिता पिता मृत उत्पत्त्यनन्तरं भ्रातरो भगिन्यौं च, कतिपयदिनर्मातजननी च, कतिपयवर्षानन्तरं जनन्यपि। ततोऽहं
छोड़कर-मरा और फिर इसी पूर्वविदेहके भीतर पुष्कलावती देशमें स्थित उत्पलखेट पुरके राजा वज्रबाहु और वसुंधरीके वज्रजंघ नामक पुत्र हुआ। और वह स्वयंप्रभा देवी उस ईशान कल्पसे च्युत होकर उसी पुष्कलावती देशके भीतर स्थित पुण्डरीकिणी पुरके राजा वज्रदन्त एवं रानी लक्ष्मीमतीके श्रीमती नामकी पुत्री हुई। वह क्रमशः यौवन अवस्थाको प्राप्त होकर सुखपूर्वक स्थित थी।
एक समय वज्रदन्त राजा सभाभवनमें बैठा हुआ था। उस समय दो पुरुषोंने आकर निवेदन किया कि हे देव ! आपके पिता यशोधर भट्टारक तीर्थकरको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है। तथा आयुधशालामें चन्द्ररत्न भी उत्पन्न हुआ है। उसी समय किसी स्त्रीने आकर प्रार्थना की कि हे देव ! देवोंके आगमनको देखकर श्रीमती मूर्छित हो गई है । तब वज्रदन्त राजा उससे शीतोपचार क्रियाके द्वारा श्रीमतीकी मूर्छाको दूर करने के लिए कहकर समवसरणको चला गया। वहाँ यशोधर जिनेन्द्रकी वंदना करनेके पश्चात् विशुद्धिकी अधिकतासे उस वज्रदन्त चक्रवर्तीको देशावधिज्ञान प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् उसने दिग्विजय किया । इधर श्रीमतीने मौन धारण कर लिया। तब पण्डिताने उससे एकान्तमें इस मौनके कारणको पूछा । उत्तरमें श्रीमतीने कहा कि देवोंके आगमनको देखकर मुझे पूर्वभवोंका स्मरण हुआ है। इसीसे मैंने मौनका आश्रय लिया है । तब पण्डिता बोली कि तो फिर तुम उन भवों का वृत्तान्त मुझे सुनाओ। इसपर उसने अपने पूर्व भवोंका वृत्तान्त इस प्रकारसे कहा- हे पण्डिते ! धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरु सम्बन्धी अपरविदेहमें एक गन्धिला देश है। उसमें एक पाटली नामका गाँव है। वहाँपर एक नागदत्त नामका वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम वसुमती था। इनके नन्दी, नन्दिमित्र, नन्दिसेन, वरसेन और जयसेन नामके पाँच पुत्र और मदनकान्ता व श्रीकान्ता नामकी दो पुत्रियाँ थीं । इनके पश्चात् जब मैं आठवीं पुत्री माताके गर्भमें आयी तब पिताका मरण हो गया । तत्पश्चात् मेरा जन्म होनेपर वे सब भाई और दोनों बहिनें भी मर गई । इसके पश्चात् कुछ ही दिनोंमें
१. श श्रीमतिमंछिता । २. ब पूर्वभन् ि । ३. ज प श मौन स्थिता । ४. फ मृतः । ५. प भ्रातरी
भगिन्यो श भ्रातरौ भगिनी ।
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
पुण्याखव कथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
निर्नामिका चारणचरिताटवीं प्रविश्य तन्मध्यस्थमम्बरतिलकगिरिं चटितवती । तत्र पञ्चशतचारणैः स्थितं पिहितास्रवयोगिनमपश्यम् । तं नत्वापृच्छं केन पापेनाहम् ईदृग्विधा जातेति । स आह- अत्रैव पलालकूटग्रामे ग्रामकूटकदेविलवसुमत्योः सुता नागश्रीः । सा स्वक्रीडाप्रदेशनकटस्थवटतरुकोटरस्थं समाधिगुप्तमुनिं परमागमघोषं सोढुमशक्ता तन्निवारणार्थ कुथित सारमेयकलेवरं तद्वटतले चिक्षेप । मुनिना दृष्ट्ट्रोक्तं हे पुत्रि, श्रात्मनोऽनन्तं दुःखं कृतं त्वयेति । तदनु सा तदपसार्य मुनिपादयोर्लग्ना नाथ, क्षमस्व क्षमस्वेति । आयुरन्ते मृत्वा त्वं जातासि । तदुपशमपरिणामेन मनुष्यत्वं लब्धं त्वयेति निरूपिते स्वयोग्यानि व्रतानि अग्रहोषम्, कनकावलिमुक्तावलिप्रभृत्युपवासविधानमकार्षम्, श्रायुरन्ते तनुं त्यक्त्वा श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गदेवस्य स्वयंप्रभाख्या देवी जाताहम् । मे यदा परमासायुरवस्थितं तदा ललिताङ्गस्तस्मात्प्रच्युतः कोत्पन्न इति न जाने । इह यदि तमेव वरं लभेयं तदा भोगानुपभुञ्जीय, नान्यथा इति कृतप्रतिज्ञा तद्विमानस्थे स्वस्य तस्य च रूपे पटे विलिस्य विलोकयन्ती तस्थौ । वज्रदन्तचक्री षट्खण्डधरां प्रसाध्यागत्य पुरं स्वभवनं प्रविष्टः । तदागमनदने
I
मेरी माताकी माता और फिर थोड़े ही वर्षोंमें माता भी कूच कर गई। तब निर्नामिका नामकी एक मैं ही शेष रही । एक समय मैं चारणचरित नामके वनमें प्रविष्ट होकर उसके बीच में स्थित अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर चढ़कर गई । वहाँ मैंने पाँच - सौ चारण ऋषियोंके साथ विराजमान पिहितानव मुनिको देखा। उनको नमस्कार करके मैंने पूछा कि मैं किस पापके कारण इस प्रकार की हुई हूँ ? मुनि बोले- इसी देश के भीतर पलालकूट नामके गाँवमें एक देविल नामका ग्रामकूट ( गाँव का मुखिया ) रहता था । उसकी स्त्रीका नाम वसुमती था । इनके एक नागश्री नामकी पुत्री भी। एक बार नागश्रीने अपने क्रीड़ास्थानके पास में स्थित वटवृक्ष के खोते में विराजमान समधिगुप्त मुनको देखा। वे उस समय परमागमका पाठ कर रहे थे । नागश्रीको यह सहन नहीं हुआ । इसलिए उसे रोकनेके लिए उसने एक कुत्तेके सड़े-गले दुर्गन्धित शरीरको उस वटवृक्ष के नीचे डाल दिया । उसको देखकर मुनिने कहा कि हे पुत्री ! ऐसा करके तूने अपने लिए अनन्त दुःखका भाजन बना लिया है । यह सुनकर नागश्रीने वहाँ से उक्त कुत्तेके मृत शरीरको हटा दिया। तत्पश्चात् उसने मुनिके पाँवों में गिरकर इसके लिए बार-बार क्षमा प्रार्थना की। वही आयुके अन्तमें मरकर तू उत्पन्न हुई है । पीछे शान्त परिणाम हो जानेसे तूने मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर लिया है । इस प्रकार मुनिके कहने पर मैंने (निर्नामिकाने) अपने योग्य व्रतोंको ग्रहण कर लिया । साथ ही मैंने कनकावली और मुक्तावली आदि उपवासों को भी किया । इस प्रकारसे आयुके अन्त में शरीर को छोड़कर मैं श्रीप्रभ विमानमें ललितांग देवकी स्वयंप्रभा नामकी देवी हुई थी। जब मेरी आयु छह महीने शेष रही थी तब ललितांग वहाँ से च्युत हो गया । वह कहाँपर उत्पन्न हुआ है, यह मैं नहीं जानती हूँ । इस जन्ममें यदि वही वर प्राप्त हो जाता है तो मैं भोगोंका उपभोग करूँगी, अन्यथा नहीं । इस प्रकार से प्रतिज्ञा करके वह श्रीमती श्रीप्रभ विमानमें स्थित रहनेके समय के अपने और ललितांग देवके चित्रोंको पटपर लिखकर उन्हें देखती हुई समय बिताने लगी ।
उधर वज्रदन्त चक्रवर्ती छह खण्ड स्वरूप पृथिवीको स्वाधीन करके अपने नगर में आया
१. श तन्निवार्णार्थं । २. ब नाथ क्षमस्वेति । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । शलभते । ४. ब-प्रतिपाठोयम् ।शबिर |
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २
पण्डिता पटमादाय जगाम । चक्रिणा सहागतेषु क्षत्रियेषु कोऽप्यमुं विलोक्य जातिस्मरः स्यादिति धिया सर्वजन सेव्यमहापूर्तजिनालयस्यैकस्मिन् प्रदेशे तमवलम्ब्य स्वयं तिरोहितावलोकयन्ती तस्थौ । इतः श्रीमती पितरं नत्वा तन्निकटे उपविष्टा । तां म्लानाननामवलोक्य
२४५
बाण हे पुत्र तवेश्वरेर्णे ते मेलापको भविष्यति, त्वं चिन्तां मा कुरु । कथं ज्ञायत इति चेत्तव मम चैक एव पिहितास्रवो गुरुः संजातः । कथमित्युक्ते चक्री तद्वृत्तान्तमाह
अहं पूर्व पञ्चमे भवे अत्रैव पुण्डरीकिण्यामर्धचक्रिणः पुत्रश्चन्द्र कीर्तिरभवम्, सखा जयकीर्तिः । उभौ श्रावकव्रतेनैव प्रीतिवर्धनोद्याने चन्द्रसेनाचार्यान्ते संन्यासेन कालं कृत्वा माहेन्द्रे जातौ । ततोऽवतीर्य पुष्करार्धपूर्वमन्दरपूर्व विदेहमङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुरेशश्रीधर मनोहर्योश्चन्द्र कोर्तिचर श्रागत्य श्रीवर्माभिधो बलदेवः पुत्रोऽजनि । इतरस्तस्यैव श्रीमत्या देव्या विभीषणाख्यः सुतो वासुदेवोऽभूत् । तौ स्वपदे निधाय श्रीधरः सुधर्ममुनिनिकटे दीक्षितः मुक्तिमवाप । मनोहरी पुत्रमोहेन ने दीक्षिता, समाधिना ईशाने श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गदेवो जातः । इतो बलदेवनारायणौ राज्यं कुर्वन्तौ स्थितौ । मृते वासुदेवे बलो ग्रहिलोऽजनि । जननीचर ललिताङ्गदेवेन संबोधितः सन् स्वतनयं भूपालं स्वपदे नियुज्य दशऔर भवन में प्रविष्ट हुआ। जिस दिन वह चक्रवर्ती वापिस आया उसी दिन पण्डिता उस चित्रपटको लेकर गई । चक्रवर्तीके साथमें आये हुए राजाओं में से शायद इसे देखकर किसीको जातिस्मरण हो जाय, इस विचार से वह पण्डिता समस्त जनोंसे आराधनीय महापूत नामक जिनालय में पहुँची । वह वहाँ उस चित्रपटको एक स्थानमें टाँगकर गुप्तस्वरूपसे उसे देखती हुई वहीं पर स्थित हो गई। इधर श्रीमती पिताको नमस्कार करके उसके पास में आ बैठी । उसके मलिन मुखको देखकर चक्रवर्ती बोला कि हे पुत्री ! तेरे पतिका मिलाप अवश्य होगा, तू इसके लिए चिन्ता मत कर । यह आपको कैसे ज्ञात हुआ, इस प्रकार पुत्रीके पूछनेपर वज्रदन्तने कहा कि तेरे और मेरे भी गुरु वही एक पिहितास्रव रहे हैं । तब उसने फिरसे भी पूछा कि यह किस प्रकारसे ? इसपर चक्रवर्तीने उस वृत्तान्त को इस प्रकारसे कहा
1
मैं इस भव पूर्व पाँच भवमें इसी पुण्डरीकिणी नगरीमें अर्धचक्रीका पुत्र चन्द्रकीर्ति था । मेरे मित्रका नाम जयकीर्ति था । हम दोनों श्रावक के व्रत का पालन करते हुए प्रीतिवर्धन नामक उद्यानके भीतर चन्द्रसेन आचार्यके समीपमें संन्यासके साथ मरणको प्राप्त होकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुए। फिर वहाँ से च्युत होकर चन्द्रकीर्तिका जीव पुष्करार्द्ध द्वीप के पूर्व मन्दर सम्बन्धी पूर्वविदेह में मंगलावती देशके भीतर जो रत्नसंचयपुर नामका नगर है उसके राजा श्रीधर और रानी मनोहरी के श्रीवर्मा नामका पुत्र हुआ, जो कि बलभद्र था । दूसरा ( जयकीर्तिका जीव) उसीकी दूसरी रानी श्रीमती विभीषण नामका पुत्र हुआ, जो कि वासुदेव (नारायण) था । श्रीधर राजाने इन दोनों को अपने पदपर प्रतिष्ठित करके दीक्षा ग्रहण कर ली । वह तपश्चरण करके मुक्ति को प्राप्त हुआ । मनोहरीने पुत्र के प्रेमवश दीक्षा नहीं ली, वह समाधिके साथ मरणको प्राप्त होकर ईशान कल्पके अन्तर्गत श्रीप्रभ विमानमें देव हुई । इधर बलदेव और नारायण दोनों राज्य करते हुए स्थित रहे । आयु के अन्त में जब नारायणकी मृत्यु हुई तब बलदेव बहुत व्याकुल हुआ। उस समय वह उन्मत्तं के समान व्यवहार करने लगा । तब भूतपूर्व उसकी माता के जीव ललितांग देवने आकर उसे सम्बो
१. ब महापूर्ण जिना । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । तावद्वरेण । ३. ज फश महेंद्री ब महेंद्रे । ४. जप बलदेबो । ५. श 'न' नास्ति ।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : सहस्रराजभिः युगंधरान्तिके' प्रव्रज्याच्युतेन्द्रो जातस्तेन कृतोपकारस्मरणार्थ स ललिताङ्गदेवः प्रीतिवर्धनविमानेन स्वकल्पं नीत्वा पूजितः। स ललिताङ्गः ततश्च्युत्वात्रैव द्वीपे मङ्गला. वतीविषये विजया|त्तरश्रेण्यां गन्धर्वपुरेशवासवप्रभावत्योः सुतो महीधरो जातस्तं राज्ये निधाय वासवो बहुभिररिंजयान्ते दीक्षितः क्रमेण मुक्तिमगमत् । प्रभावती पद्मावतीक्षान्तिकाभ्यासे प्रवज्याच्युते प्रतीन्द्रोऽभूत् । पुष्करार्धे पश्चिममन्दरपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये प्रभाकरीपुर्या विनयंधरभट्टारकस्य कैवल्योत्पत्तौ सर्वे देवास्तत्पूजार्थमागताः, महीधरोऽपि तन्मन्दरस्थजिनालयपूजार्थ गतोऽच्युतेन्द्रण तं दृष्ट्रोक्तं हे महीधर, मां जानासि । नेत्युक्ते त्वं यदा मनोहरी जातासि तदा ते पुत्रः श्रीवर्माहम् । त्वं च ललिताङ्गो भूत्वा मां संबोधितवांस्ततोऽहमच्युतेन्द्रोऽभवम् । त्वं तत्र नीत्वा पूजितोऽसि । सोऽहमच्युतेन्द्र इति । ततो महीधरो जातिस्मरो भूत्वा स्वसुतं महीकम्पं स्वपदे निधाय जगन्नन्दनान्तिके दीक्षितः प्राणतेन्द्रोऽभूत् । ततः आगत्य धातकीखण्डे पूर्वमन्दरापरविदेहगन्धिलविषये ऽयोध्याधिपजय. वर्मसुप्रभयोः पुत्रोऽजितंजयोऽभूत् । तं राज्ये निधाय जयवर्माऽभिनन्दनान्तिके प्रव्रज्य मुक्तिमाप। सुप्रभा सुदर्शनार्जिकान्ते तपसाच्युते देवोऽभूत् । अजितंजयोऽभिनन्दन केवलिनं
धित किया । इससे प्रबोधको प्राप्त होकर उसने अपने पुत्र भूपालको राजाके पदपर प्रतिष्ठित करते हुए युगंधर तीर्थंकरके निकटमें दस हजार राजाओंके साथ दीक्षा ले ली। अन्तमें वह शरीरको छोड़कर अच्युत स्वर्गमें इन्द्र हुआ । उसे जब ललितांगके द्वारा किये गये उपकारका स्मरण हुआ तव वह ईशान कल्पमें जाकर उस ललितांग देवको प्रीतिवर्धन विमानसे अपने कल्पमें ले आया । वहाँ उसने उसकी पूजा की। वह ललितांग देव वहाँसे च्युत होकर इसी जम्बूद्वीपके भीतर मंगलावती देशमें स्थित विजयाध पर्वतकी दक्षिणश्रेणिगत गन्धर्वपुरके राजा वासव और रानी प्रभावतीके महीधर नामका पुत्र हुआ। उसको राज्य देकर वासव राजाने अरिंजय मुनिके समीपमें दीक्षा ले ली। वह क्रमसे मुक्तिको प्राप्त हुआ। प्रभावती रानी पद्मावती आर्यिकाके निकटमें दीक्षित होकर अच्युत कल्पमें प्रतीन्द्र हुई। पुष्करार्धद्वीपके पश्चिम मेरु सम्बन्धी पूर्वविदेहमें जो वत्सकावती देश है उसके भीतर स्थित प्रभाकरी पुरीमें विनयंधर भट्टारकके केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर सब देव उनकी पूजाके लिए आये । महीधर भी उस मेरु पर्वतके ऊपर स्थित जिनालयोंकी पूजाके लिए गया था । उसको देखकर अच्युतेन्द्रने पूछा कि हे महीधर ! तुम क्या मुझे जानते हो ? महीधरने उत्तर दिया कि नहीं। इसपर अच्युतेन्द्रने कहा कि जब तुम मनोहरी हुए थे तब तुम्हारा पुत्र मैं श्रीवर्मा था । तुमने ललितांग होकर मुझे सम्बोधित किया था। इससे मैं अच्युतेन्द्र हुआ हूँ। मैंने अच्युत कल्पमें ले जाकर तुम्हारी पूजा की थी। मैं वही अच्युतेन्द्र हूँ । इस पूर्व वृत्तान्तको सुनकर महीधरको जातिस्मरण हो गया। तब उसने अपने पुत्र महीकम्पको राज्य देकर जगन्नन्दन नामक मुनिराजके समीपमें दीक्षा ले ली। वह मरकर प्राणतेन्द्र हुआ। वहाँ से च्युत होकर वह धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मेरु सम्बन्धी अपरविदेहगत गन्धिला देशमें जो अयोध्यापुरी है उसके राजा जयवर्मा और रानी सुप्रभाके अजितंजय नामका पुत्र हुआ। उसको राज्य देकर वह जयवर्मा अभिनन्दन मुनिके पासमें दीक्षित हो गया। अन्तमें वह मुक्तिको प्राप्त हुआ । रानी
१. ब युगंधरीतिके। २. ज ब श विषय । ३ जप बश विषय। ४. ज प ब श विषया।
५. ब यो भवत् ।
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३] ६. दानफलम् २
२४७ पूजयित्वा पिहितपापास्रवोऽभूदिति पिहितास्वाभिधोऽभूत् सकलचक्री च । तेनैवाच्युतेन्द्रण संबोधितः सन् स्वसुतं स्वपदे व्यवस्थाप्य विंशतिसहस्रराजपुत्रैर्मन्दर धैर्यान्तिके दीक्षितश्चारणोऽजनि । पञ्चशतचारणैरम्बरतिलकगिरौ स्थितस्त्वया निर्नामिकया वन्दितः । सोऽन्युतेन्द्र आगत्य यशोधरतीर्थकद्वसुमत्योरहं जातो ललिताङ्गो भूत्वा मां बलदेवं संबोधितवानिति पिहितास्रवो ममापि गुरुः । श्रीप्रभविमाने यो यो ललिताङ्गः समुपजातः स समयाच्युतेन्द्रण तत्र नीत्वा पूजितः इति । त्वदीयं ललिताङ्गमभ्यन्तरीकृत्य द्वाविंशतिललिताङ्गाः पूजिताः। त्वमपि जानासि । किं च पिहितास्रवभट्टारकस्य केवलनिर्वाणपूजे [ पूजने ] त्वया मया ललिताङ्गादिसवः सुरैरम्बरतिलकगिरौ विहिते अपरमपि साभिज्ञानम् । त्वदीयो ललिताङ्गस्त्वं स्वयंप्रभा ब्रह्मेन्द्रो लातवेन्द्रोऽहमव्युतेन्द्र इत्यस्माभिः सर्वैः संभूय युगंधरतीर्थकृच्चरितं तद्गणधरः पृष्ठः । स श्राह
जम्बूद्वीपपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये सुसीमानगरेशाजितंजयस्य प्रधानममितगतिर्भार्या सत्यभामा पुत्रौ प्रहसितविकसितौ शास्त्रमदोद्धतौ। तत्पुरमागतं मतिसागरमुनि वन्दितुं गतो राजा ! तो तेन सह गत्वा मुनिना वादं चक्रतुः । पराजितौ भूत्वा तत्र दीक्षिती।
सुप्रभा सुदर्शना आर्यिकाके समीपमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे अच्युत स्वर्गमें देव हुई । अजितंजय अभिनन्दन केवलीकी पूजा करके पापास्रवसे रहित हुआ। इसलिए उसका नाम पिहितास्रव हुआ, वह क्रमसे सकल चक्रवर्ती हुआ। तत्पश्चात् उसी अच्युतेन्द्रसे सम्बोधित होकर उसने अपने पुत्रको राज्य देकर बीस हजार राजकुमारोंके साथ मन्दरधैर्य ( मन्दरस्थविर ) नामक मुनिराजके समीपमें दीक्षा ले ली। वह चारण ऋद्धिका धारी हो गया। जब वह पाँच सौ चारणमुनियों के साथ अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर स्थित था तब तूने निर्नामिकाके भवमें उसकी वंदना की थी। वह अच्युतेन्द्र वहाँसे आकर यशोधर तीर्थकर और वसुमतीका पुत्र में हुआ हूँ। पिहितास्रवने ललितांगके भवमें मुझ वलदेवको सम्बोधित किया था, इसलिए वह पिहितास्रव जैसे तेरा गुरु है वैसे ही मेरा भी गुरु हुआ। उस श्रीप्रभ विमानमें जो जो ललितांग देव हुआ उस उसकी मैंने अच्युतेन्द्रके रूपमें वहाँ ले जाकर पूजा की थी। तेरे ललितांगको गर्भित करके मैंने बाईस ललितांगोंकी पूजा की है। यह तू भी जानती है। और क्या तुझे यह स्मरण है कि जब पिहितास्रव भट्टारकको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था तब तूने, मैंने और ललितांग आदि सब देवोंने अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर उनकी पूजा की थी। यह अन्य भी एक अभिज्ञान ( चिह्न ) है- उस समय तेरा ललितांग, तू स्वयंप्रभा, ब्रह्मन्द्र, लान्तवेन्द्र और मैं अच्युतेन्द्र; इस प्रकार हम सबने मिलकर युगंधर तीर्थकरके चरित्रके विषयमें उनके गणधरसे पूछा था, जिसके उत्तरमें उन्होंने यह कहा था
जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देश है । उसके अन्तर्गत सुसीमा नगरीमें अजितंजय राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सत्यभामा था । इनके प्रहसित और विकसित नामके दो पुत्र थे, जो शास्त्र विषयक ज्ञानके मदमें चूर रहते थे । राजाके मन्त्रीका नाम अमितगति था। एक समय राजा नगरमें आये हुए मतिसागर नामक मुनिकी वंदना करनेके लिए गया। उसके साथ जाकर उन दोनों पुत्रोंने मुनिसे शास्त्रार्थ किया, जिसमें वे पराजित हुए । इससे विरक्त
१. श पूज । २. श ललितांगस्तं । ३. फ तद्गुणधरः । ४. ज प श विदेह । ५. जप का विषय ।
६. ज प ब गतराजेन गत्वा श गतौ राजा तेन सह गत्वा ।
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
पुण्याखवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ : समाधिना महाशुक्रं गतौ। तस्मादुत्तीर्य धातकीखण्डापरमन्दरपूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरोकिणीपुरेशधनंजयस्य द्वे देव्यो जयावतीजयसेने। तयोः क्रमेण महाबलातिबलौ सुतो बलदेववासुदेवी जातो । तौ राजानौ कृत्वा धनंजयस्तपसा मोक्षं ययौ। तौ महामण्डलिकार्ध चक्रिणी भूत्वा सुखेन तस्थतुः । अतिबले मृते महाबलः समाधिगुप्तमुनिसमीपे तपसा प्राणते पुष्पचूडाख्यो देवो जशे । ततः समेत्य धातकीखण्डपूर्वमन्दरपूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये प्रभावतीपुरीशमहासेनवसुंधर्योः सुतो जयसेनो भूत्वा राज्ये स्थितः सकलचक्रवर्ती जशे बहुकालं राज्यं विधाय सीमंधरान्तिके तपसा षोडशभावनाः संभाव्य प्रायोपगमनेनोपरिमप्रैवेयकं गतः। ततः प्रागत्य पुष्करार्धपश्चिममन्दरपूर्वविदेहे मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुरेशाजितंजयवसुमत्योर्गर्भावतराणादिकल्याणपुरःसरमयं युगंधरस्वामी जातः। इति निरू. पितं स्मरसि नो वा। श्रीमती बभाणं स्मरामि सर्वम् , कि तु मवल्लभः क्वोत्पन्न इति प्रतिपाद्यतामित्युक्ते उत्पलखेटपुरेशवज्रबाहु-मद्भगिनीवसुंधर्योः पुत्रो वज्रजङ्घनामा जातः । वज्रबाहुरपि ममावलोकनार्थ प्रातरत्रागमिष्यति, वज्रजवोऽप्यागमिष्यति । स पण्डितया
होकर उन दोनोंने वहींपर दीक्षा ले ली । वे दोनों आयुके अन्तमें समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर महाशुक्र कल्पमें देव हुए । तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर वे घातकीखण्ड द्वीपके पूर्व विदेहमें जो पुष्कलावती देश है उसके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी पुरके राजा धनञ्जयकी जयावती और जयसेना नामकी दो रानियोंके क्रमशः महाबल और अतिबल नामके पुत्र हुए। वे क्रमसे बलदेव
और नारायण पदके धारक थे । राजा धनञ्जयने उन्हें राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। अन्तमें वह तपके प्रभावसे मुक्तिको प्राप्त हुआ। वे दोनों मण्डलीक और अर्धचक्री होकर सुखपूर्वक स्थित रहे । पश्चात् अतिबलका मरण हो जानेपर महाबलने समाधिगुप्त मुनिके पासमें दीक्षा ग्रहण कर ली । वह तपके प्रभावसे प्राणत स्वर्गमें पुष्पचूड नामका देव हुआ। तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर धातकीखण्ड द्वीपके पूर्व मन्दर सम्बन्धी पूर्व विदेहमें जो वत्सकावती देश है उसमें स्थित प्रभावती पुरके राजा महासेन और रानी वसुंधरीके जयसेन नामक पुत्र हुआ। वह क्रमशः राजा और फिर सकलचक्रवर्ती हुआ । बहुत समय तक राज्य करनेके पश्चात् उसने सीमंधर स्वामीके निकटमें दीक्षित होकर दर्शनविशुद्धि आदि सोलह भावनाओंका चिंतन किया। अन्तमें वह प्रायोपगमन संन्यासपूर्वक उपरिम अवेयकमें अहमिन्द्र हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुष्करार्धद्वीपके पश्चिम मन्दर सम्बन्धी पूर्वविदेहमें जो मंगलावती देश है उसके अन्तर्गत रत्नसंचय पुरके राजा अजितंजय और रानी वसुमतीके गर्भावतरण आदि कल्याणकोंके साथ ये युगंधर स्वामी हुए हैं। इस प्रकार जो उक्त गणधरने उस समय कहा था उसका तुझे स्मरण आता है कि नहीं ? इसके उत्तरमें श्रीमतीने कहा कि इस सबका मुझको स्मरण है । परन्तु मेरा वह प्रियतम कहाँपर उत्पन्न हुआ है, यह मुझे बतलाइये । इस प्रकार श्रीमतीके पूछनेपर वज्रदन्तने कहा कि वह उल्पलखेट पुरके राजा वज्रबाहु और मेरी बहिन (रानी) वसुंधरीके वज्रजंघ नामका पुत्र हुआ है । वज्रबाहु भी मुझसे मिलनेके लिए यहाँ कल प्रातःकालमें आवेगा । साथमें वज्रजंघ भी आवेगा। उसे
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जातो ततो तो। २. फ पुष्पचूलाख्यो। ३. ज प व श विदेह । ४. ज प बश
विषय । ५. श श्रीमतिर्बभाण । ६. ज प श वसुंदर्योः।
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. दानफलम् २
२४९ नीतं पटं विलोक्य जातिस्मरो भूत्वा पण्डितायाः पूर्वभववृत्तान्तं प्रतिपादयिष्यति । पण्डितापीमां शुद्धिं गृहीत्वागमिष्यतीति । त्वं कन्यामाटं गच्छात्मानं भूषयेति प्रतिपाद्य कन्या विसर्जिता । द्वितीयदिने वासवदुर्दन्ता[र्दान्ता] ख्यौ खेचरौ तं जिनगेहमागतो। विचित्रचित्रपटमालोक्य वासवो जनविस्मयोत्पादनार्थ मायया मूछितोऽभूत् । जनेन किमित्युक्ते उन्मूछितः सन् स्वमूर्छाकारणमाह-अच्युतेऽहं देवोऽभवमियं मम देवी, तस्मादागत्य क्वोत्पन्नेति न जाने, एतदर्शनेन पूर्वभवं स्मृत्वा मूर्छितोऽभवम् । पण्डिताच्युतस्वर्गनामग्रहणे उपहास्यं कृत्वा 'याहि, ते वल्लभयं न भवत्यन्यामवलोकयस्व' इति । तावद्वज्रबाहुरागत्य बहिः शिबिरं विमुच्य स्थितः। वज्रजङ्घस्तं जिनालयं द्रष्टुमियाय । तं पटं ददर्श, मूर्छितो जातिस्मरो बभूव । पण्डिताया हृदि स्थितमबबीत् । सापि तत्स्वरूपं तस्य निवेद्यागत्य श्रीमत्याः कुमारवृत्तान्तमकथयत् । वज्रदन्तचक्री संमुखं गत्वा वज्रबाहुं महाविभूत्या पुरं प्रवेशितवान् । प्राघूर्णकक्रियानन्तरं वजजङ्घश्रीमत्योर्विवाहं चकार । वनजङ्घानुजामनुंधरी श्रीमत्यग्रजायामिततेजसे ययाचे चक्रो । वजूबाहुस्तयोविवाहं कृतवान् इति । परस्परस्नेहेन कियन्ति दिनानि तत्र स्थित्वा वज बाहुः पुत्रेण स्नुषया पण्डितया च स्वपुरं जगाम । कियत्सु
पण्डिताके द्वारा ले जाये गये चित्रपटको देखकर जातिस्मरण हो जावेगा। तब वह पण्डितासे अपने पूर्व भवोंके वृत्तान्तको कहेगा । पण्डिता भी उसकी इस खोजको लेकर वापिस आ जावेगी । तू कन्यागृहमें जाकर अपनेको सुसज्जित कर । यह कह कर वज्रदन्तने उसे वहाँसे विदा कर दिया।
दूसरे दिन वासव और दुर्दान्त नामके दो विद्याधर उस महापूत जिनालयमें पहुँचे। उनमें वासव उस विचत्र चित्रपटको देखकर लोगों को आश्चर्यचकित करने के लिए कपटपूर्वक मर्छित हो गया । जब उसकी मूर्छा दूर हुई तब लोगोंने उससे इसका कारण पूछा । तब उसने अपनी मर्छाका कारण इस प्रकार बतलाया- मैं अच्युत स्वर्गमें देव हुआ था। यह मेरी देवी है । वह उस स्वर्गसे आकर कहाँपर उत्पन्न हुई है, यह मैं नहीं जानता हूँ। इसको देखकर पूर्वभवका स्मरण हो जानेके कारण मुझे मूर्छा आ गई थी। अच्युत स्वर्गका नाम लेनेपर पण्डिताने उसकी हँसी करते हुए कहा कि जा, यह तेरी प्रियतमा नहीं है; अन्य किसी स्त्रीको देख। इसी समय वज्रबाहुने आकर नगरके बाहर पडाव डाला। उसका पुत्र वज्रजंघ उस जिनालयका दर्शन करने के लिए गया। उसने जैसे ही उस चित्रपटको देखा वैसे ही उसे जातिस्मरण हो जानेसे मूर्छा आ गई। पण्डिताने उससे इस सम्बन्धमें जो कुछ भी पूछा उसका उसने ठीक-ठीक उत्तर दिया । तब पण्डिताने भी उससे श्रीमतीके वृत्तान्तको कह दिया। तत्पश्चात् पण्डिताने वापिस आकर श्रीमतीसे वज्रजंघके वृत्तान्तको सुना दिया । फिर वज्रदन्त चक्रवर्ती वज्रबाहुके सम्मुख जाकर उसे बड़ी विभूतिके साथ नगरके भीतर ले
आया। उसने बनबाहुका खूब अतिथि-सत्कार किया । तत्पश्चात् उसने वज्रजंघके साथ श्रीमतीका विवाह कर दिया। फिर वज्रदन्तने श्रीमतीके बड़े भाई अमिततेजके लिए वज्र बाहुसे बज्रजंघकी छोटी बहिन अनुन्धरीको माँग।। तदनुसार वज्र वाहुने अमिततेजके साथ अनुन्धरीका विवाह कर दिया । इस प्रकार वज्रबाहु परस्पर स्नेहके साथ कुछ दिन वहाँपर रहकर पुत्र, पुत्रवधू और पण्डिता
१. ज प दुईताख्यौ ब दुईत्ताख्यो । २. ब पटं विलोक्य । ३. ब देवोऽभूवं इयं । ४. ब मूछितो भूवं । ५. श माकथयन् । Jain Education InRational
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
दिनेषु पण्डितां पुण्डरीकिण्यां प्रस्थाप्य सुखेन तस्थौ । श्रीमती वीरबाहुप्रभृतीनि पुत्रयुगलानि एकपञ्चाशल्लेभे । तेषां विवाहादिकं कृत्वा वज्रबाहुस्तिष्ठन् एकदा मेघं विलीनं विलोक्य वज्रजङ्घाय राज्यं दत्त्वा सर्वैर्नप्तृभिः पञ्चशतक्षत्रियैश्च दमधरान्तिके दीक्षितो मोक्षं गतः । इतो वज्रदन्तचक्रधरोऽप्येकदास्थाने आसितः । तस्मै कमलमुकुलं वनपालकेन दत्तम् । तत्र पुष्पमध्ये मृतषट्पदविलोकनाच्चकी वैराग्यं जगामामिततेज आदिपुत्रसहस्रेण राज्यनिवृत्तौ कृतायाममिततेजसः पुत्राय वज्रजङ्घभागिनेयाय पुण्डरीकाख्याय राज्यं दत्त्वा सहस्र पुत्रैर्विंशतिसहस्रमुकुटबद्धैः पटिसहस्र स्त्रीभिर्यशोधरभट्टारकपादमूले दीक्षितो मोक्षं गतः । अन्ये स्वयोग्यां गतिं ययुः । इतः प्रत्यन्तवासिनः पुण्डरीक बालकम गणयन्तस्तदेशस्य atri कर्तु लग्नाः । तनिवारणार्थं लक्ष्मीमती वज्रजङ्घस्य लेखार्थं विजयार्धगन्धव पुरेशयो"श्चिन्तागतिमनोगत्याख्ययोर्वियच्चरयोर्हस्ते ऽयापयत् । तमवधार्य तत्तपोग्रहणे विस्मयं कृत्वा वज्रजङ्घस्तदैव चातुरङ्गेण निर्गतः । पुण्डरीकिण्यां गच्छन् सर्प सरस्तटे विमुच्य स्थितः । तत्र चर्यामार्गेणागतौ दमवरसागर सेनाख्यौ चारणौ संस्थाप्य श्रीमतीवज्रजङङ्घौ
के साथ अपने नगरको चला गया । तत्पश्चात् कुछ ही दिनोंमें वज्रबाहुने पण्डिताको पुण्डरीकणी नगरीमें वापिस भेज दिया । इस प्रकार वह सुखपूर्वक कालयापन करने लगा । समयानुसार श्रीमतीको वीरबाहु आदि इक्यावन युगल पुत्र (१०२) प्राप्त हुए । उनके विवाह आदिको करके वज्रबाहु सुखपूर्वक स्थित था । एक दिन उसे देखते-देखते नष्ट हुए मेघको देखकर भोगों से वैराग्य हो गया । तब उसने वज्रजंधके लिए राज्य देकर समस्त नातियों और पाँच सौ क्षत्रियोंके साथ दमधर मुनिके पासमें दीक्षा ग्रहण कर ली । वह कमको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त हुआ ।
इधर एक दिन वज्रदन्त चक्रवर्ती सभाभवनमें स्थित था, तब वनपालने आकर उसे कुछ विकसित एक कमलकी कलीको दिया । उसमें मरे हुए भ्रमर को देखकर वज्रदन्त चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया । तब उसने पुत्रोंको राज्य देना चाहा । किन्तु उसके अमिततेज आदि हजार पुत्रों में - से किसी ने भी राज्य को लेना स्वीकार नहीं किया । तब उसने अमिततेजके पुत्र पुण्डरीक (अपने नाती) को, जो कि वज्रजंघका भानजा था, राज्य देकर एक हजार पुत्रों, बीस हजार मुकुटबद्धों और साठ हजार स्त्रियों के साथ यशोधर भट्टारकके चरणसांनिध्य में दीक्षा ग्रहण कर ली । अन्तमें वह मोक्षको प्राप्त हुआ । अन्य जन अपने-अपने पुण्यके योग्य गतिको प्राप्त हुए। इधर अनार्य देशवासी (अथवा समीपवर्ती ) शत्रु पुण्डरीक बालकको कुछ भी न समझकर उसके देश में उपद्रव करने लगे । उसको रोकनेके लिए लक्ष्मीमतीने विजयार्ध पर्वतस्थ गन्धर्वपुर के राजा चिन्तागति और मनोगति नामके दो विद्याधरोंके हाथमें एक लेख ( पत्र ) देकर वज्रजंघके लिये भेजा । उक्त लेखको पढ़कर जब वज्रजंघको वज्रदन्त चक्रवर्तीके दीक्षा ग्रहण कर लेनेका समाचार ज्ञात हुआ तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ । तब वह चतुरंग सेना के साथ उसी समय निकल पड़ा । वह पुण्डरीकिणी पुरीको जाता हुआ मार्ग में सर्प सरोवर के किनारे डेरा डालकर स्थित हुआ। उस समय वहाँ दमवर और सागरसेन नामके दो चारणमुनि चर्यामार्गसे आहारके निमित्त
१. फ एकन्नपंचाशल्लेभे ५१ ( पश्चात् संशोधितोऽयं पाठस्तत्र ) । २. व सर्वन्तु प्रभूत्यभिः श सर्वैर्नृश पुरेशयोचिन्ता । ६. प फ ब यापयन् ।
तृभिः । ३. फ आसीनस्तस्मै । ४. श कमलं मुकुलं । ५ ७. जफ सर्प प श सष्पं ।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३] ६.दानफलम् २
२५१ दानमदाताम् पञ्चाश्चर्याणि लेभाते । तदा तदरण्यवासिनो व्याघ्र-वराह-वानर-नकुलाः समागत्य मुनी नत्वा समीपे तस्थुः । वनजङ्घः तौ नत्वा पप्रच्छ - एते मे मन्त्रि-पुरोहित-सेनापतिराजश्रेष्ठिनः क्रमेण मतिवरानन्दाकम्पन-धनमित्रनामानः । एतेषामुपरि स्नेहस्य कारणं किमेतेषां व्याघ्रादीनां गतेरुपशमस्य च हेतुः कः, भवतोरुपरि मे मोहकारणं किम्, इत्युक्ते दमधर आह
जम्बूद्वीपपूर्वविदेहवत्सकावतीविषये प्रभाकरीपुर्या राजातिगृध्रो महालोभी स्वनगरनिकटस्थाद्रौ बहुद्रव्यं दध्र, रौद्रध्यानेन मृत्वा पङ्कप्रभां गतः, ततः आगत्य तन्नगे व्याघ्रोऽभूत् । तदा तत्पुरे प्रीतिवर्धनो राजा प्रत्यन्तवासिनामुपरि गच्छन् पुरबाह्ये विमुच्य स्थितः। तदा तत्पुरबाह्ये मासोपवासी पिहितास्रवमुनिवृक्षकोटरे तस्थौ। तत्पारणाहे तं राजानं कश्चिन्नैमित्तको विज्ञप्तवान्-देव, यद्ययं मुनिस्तव गृहे पारणां करिष्यति तव महानर्थलाभो भविष्यति। ततो राजा नगरमार्ग कर्दमं कृत्वोपरि षुष्पाणि विकारितवान् । मुनिगरं प्रवेष्टुं नायातीति तच्छिबिरे चाँ प्रविष्टः । राजा तं व्यवस्थाप्य नैरन्तर्यानन्तरं पञ्चाश्चर्याणि प्राप्तवान्। तदा मुनिर्बभाषेऽस्मिन् नगे बहुद्रव्यं रक्षन् व्याघ्र आस्ते । स
आये। तब श्रीमती और वज्रजंघने उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया। इससे वहाँ पञ्चाश्चर्य हुए । उस समय उस वनमें निवास करनेवाले व्याघ्र, शूकर, बन्दर और नेवला ये चार पशु आये
और उन दोनों मुनियोंको नमस्कार कर उनके समीपमें बैठ गये । पश्चात् वज्रजंघने मुनियोंको नमस्कार करके पूछा कि मतिवर, आनन्द, अकम्पन और धनमित्र नामके जो ये मेरे मन्त्री, पुरोहित, सेनापति और राजसेठ हैं इनके ऊपर मेरे स्नेहका कारण क्या है; इन व्याघ्र आदिकों के क्रूरताको छोड़कर शान्त हो जानेका कारण क्या है; तथा आप दोनोंके ऊपर मेरे अनुरागका भी कारण क्या है ? इन प्रश्नोंका उत्तर देते हुए दमवर मुनि बोले
जम्बद्वीपके पूर्व विदेहमें वत्सकावती देशके भीतर प्रभाकरी नामकी एक नगरी है । वहाँका राजा अतिगृद्ध बहुत लोभी था । उसने अपने नगरके समीपमें स्थित एक पर्वतके ऊपर बहुत-सा द्रव्य गाड़ रक्खा था । वह रौद्र ध्यानसे मरकर पङ्कप्रभा पृथिवी (चौथे नरक) में गया । फिर वह वहाँसे निकलकर उसी पर्वतके ऊपर व्याघ्र हुआ। उस समय उस नगरका राजा प्रीतिवधेन अनाये देशवासियों ( शत्रुओं) के ऊपर आक्रमण करनेके लिए जा रहा था। वह नगरके बाहिर पड़ाव डालकर स्थित हुआ। उस समय एक मासका उपवास करनेवाले पिहितास्रव मुनि उस नगरके बाहिर एक वृक्षके खोतेमें स्थित थे। जब उनका उपवास पूरा होकर पारणाका दिन उपस्थित हुआ तब किसी ज्योतिषीने आकर उस राजासे प्रार्थना की कि हे राजन् ! यदि ये मुनि आपके घरपर पारणा करेंगे तो आपको महान् धनका लाभ होगा। यह ज्ञात करके प्रीतिवर्धनने नगस्के मार्गम कीचड़ कराकर उसके ऊपर फूलोंको बिखरवा दिया। उक्त कीचड़ और फूलोंके कारण मुनिका नगरके भीतर जाना असम्भव हो गया था, अतएव वे प्रीतिवर्धन राजाके डेरेपर चर्याके लिए आ पहुँचे, राजाने उन्हें निरन्तराय आहार दिया। आहार हो जानेके पश्चात् उसके डेरेपर पञ्चाश्चर्य हुए । उस समय मुनि पिहितास्रवने कहा कि इस पर्वतके ऊपर बहुत-सा द्रव्य है। उसकी रक्षा व्याघ्र कर
१.प लेभे फ श लेभेते । २. ज पब श विषय । ३. ज महाबलोभी।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
पुण्यावकथाकोशम्
[६-२,४३ :
त्वदीयप्रयाणभेरीरवमाकर्ण्य जातिस्मरोऽभूत् । स क इत्युक्ते प्राक्तनी कथां कथयामास। स व्याघ्रः संन्यासं गृहीत्वा तिष्ठति , द्रव्यं ते दर्शयिष्यति । राजा श्रुत्वा संतुतोष, मुनि नत्वा तत्र जगाम । तं शार्दूलं संबोधितवांस्तेन दर्शितं द्रविणं च जग्राह । व्याघ्रोऽपादशदिनैरीशाने दिवाकरप्रभविमाने दिवाकरप्रभदेवोऽजनि । प्रीतिवर्धनकृतदानानुमोदजनितपुण्येन तन्मन्त्रिपुरोहितसेनापतयो जम्बूद्वीपोत्तरकुरुषु जाताः प्रीतिवर्धनस्तन्मुनिनिकटे तपसा निवृत्तः । मन्त्रिचरार्य ईशाने काञ्चनविमाने कनकप्रभो देवो जातः। सेनापत्यार्यस्तत्रैव प्रभंकरविमाने प्रभाकरदेवोऽभूत्। परोहितार्यो रषितविमाने प्रभञ्जनदेवो जातः। ते चत्वारोऽपि देवास्त्वं यदा ललिताङ्गो जातोऽसि तदा त्वदीया परिवारदेवा जाता। स दिवाकरप्रभदेवस्तत आगत्य मतिसागरश्रीमत्योरयं मतिवरोऽभूत् । स प्रभाकरदेवोऽवतीर्यापराजितार्यवेगयोरकम्पनोऽयं जातः। स कनकप्रभदेवोऽवतीर्य श्रुतकीर्तिर कीर्त्य नन्तमत्योरानन्दोऽयं जातवान् । स प्रभञ्जन आगत्य धनदेवधनदत्तयोर्धनमित्रोऽयमजनि । त्वमतोऽष्टमभवेऽत्रैव भरते यदादितीर्थकरो भविष्यसि तदायं मतिवरो भरतः अयमकम्पनो बाहुबली अयमानन्दो वृषभसेनः, अयं धनमित्रोऽनन्तवीर्य इति चत्वारस्तव पुत्राश्चरमाङ्गा भविष्यन्ति ।
रहा है। उसे तुम्हारे प्रस्थान कालीन भेरीके शब्दको सुनकर जातिस्मरण हो गया है । वह कौन है, इसका सम्बन्ध बतलानेके लिए उन्होंने पूर्वोक्त कथा कही । वह व्याघ्र इस समय संन्यास लेकर स्थित है । वह तुम्हें उस सब धनको दिखला देगा । यह सुनकर प्रीतिवर्धन राजाको बहुत सन्तोष हुआ। वह उन मुनिको नमस्कार करके उस पर्वतके ऊपर गया । वहाँ उसने उक्त व्याघ्रको सम्बोधित किया। तब व्याघ्रने उस धनको दिखला दिया, जिसे प्रीतिवर्धन राजाने ग्रहण कर लिया। व्याघ्र अठारह दिनोंमें मरकर ईशान स्वर्गके अन्तर्गत दिवाकरप्रभ विमानमें दिवाकरप्रभ देव हुआ। प्रीतिवर्धन राजाके द्वारा किये गये आहारदानकी अनुमोदना करनेसे जो पुण्य प्राप्त हुआ उसके प्रभावसे उसके मन्त्री, पुरोहित और सेनापति ये तीनों जम्बूद्वीपके उत्तरकुरुमें आर्य हुए । राजा प्रीतिवर्धन उक्त मुनिराजके समीपमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे मुक्तिको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् प्रीतिवर्धनके मन्त्रीका जीव वह आर्य ईशान कल्पके अन्तर्गत काञ्चन विमानमें कनकप्रभ नामका देव हुआ। सेनापतिका जीव आर्य उसी स्वर्गके भीतर प्रभंकर विमानमें प्रभाकर देव हुआ। पुरोहितका जीव आर्य रुषित विमानमें प्रभंजन देव हुआ। जब तुम ललिताङ्ग देव थे, तब ये चारों ही देव तुम्हारे परिवारके देव थे। पश्चात् वह दिवाकरप्रभ देव स्वर्गसे च्युत होकर मतिसागर और श्रीमतीके यह तुम्हारा मन्त्री मतिवर हुआ है। वह प्रभाकर देव वहाँ से च्युत होकर अपराजित और आर्यवेगाके यह अकम्पन सेनापति हुआ है। वह कनकप्रभ देव वहाँ से च्युत होकर श्रुतकीर्ति और अनन्तमतीके यह आनन्द पुरोहित हुआ है । वह प्रभंजन देव वहाँसे आकर धनदेव और धनदत्ताके यह धनमित्र सेठ हुआ है। तुम ( वज्रजंघ ) इस भवसे आठवें भवमें इसी भरत क्षेत्रके भीतर जब प्रथम तीर्थकर होओगे तब यह मतिवर भरत, यह अकम्पन बाहुबली, यह आनन्द वृषभसेन और यह धनमित्र अनन्तवीर्य; इन नामोंसे प्रसिद्ध तुम्हारे चरमशरीरी चार पुत्र होवेंगे ।
१ज प श निबत्तः । २. प श 'ते' नास्ति ब 'त'। ३. श श्रुतकीत्तिरनंतरमत्यो ।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३
६. दानफलम् २
इदानों व्याघ्रवराहादीनां भवानाहात्रैव विषये हस्तिनापुरे वैश्यधनदत्तधनमत्योः सुत उग्रसेनश्वोरिकायां तलवरैर्हस्तपादप्रहारैर्हतः सन् क्रोधकषायेन मृत्वायं व्याघ्रोऽभवत् । अत्रैव विषये विजयपुरे वणिक्-आनन्दवसन्तसेनयोः सुतो हरिकान्तो महामानी कमपि न नमति । कैश्चित् धृत्वा मातापित्रोः पादयोः पातितोऽभिमानेन शिलायां स्वशिर हत्य मृतोऽयं वराहो जातः । अत्रैव विषये धान्यपुरे वणिक्-धनदत्तव सुदत्तयोः सूनुर्नागदत्तो मायावी स्वभगिन्या श्राभरणानि वेश्यानिमित्तं नीत्वानयामीत्युक्त्या स्थितो मृत्वायं वानरोऽजनि । अत्रैव विषये सुप्रतिष्ठपुरे कश्चित्पूरिकादिविक्रयी महालोभी वणिगभूत् । तेनैकदा राज्ञा कार्यमाणचैत्यालयनिमित्तं मृत्तिकाकृष्णीभूताः सुवर्णेटका नीयमानाः कस्मैचिद्वाहकाय पूरिका दत्त्वैकेष्टिका पादप्रक्षालनार्थ गृहीता । सुवर्णमयीं तां ज्ञात्वा प्रतिदिनं तद्धस्ते पूरिकाभिरेकैकां गृह्णाति । एकदा स्वतनयाय इष्टका ग्रहणं निरूप्य ग्रामान्तरं गतः । सापुत्रेण न गृहीता । स लोभी स्वगृहमाजगामेष्टिका न गृहीतेति पुत्रं यष्टिभिर्जघान स्वपादयोरुपरि शिलां चिक्षेप, मोटितौ पादौ । तद्वेदनया मृत्वायं नकुलो जातः । इमे भव्यता
२५३
अब व्याघ्र और शूकर आदि के भव कहे जाते हैं - इसी देश के भीतर हस्तिनापुरमें वैश्य वह चोरीमें पकड़ा गया था । उसे कोवह क्रोधके वशीभूत होकर मरा और यह
धनदत्त और धनमती के एक उग्रसेन नामका पुत्र था । वालोंने लातों और घूँसोंसे खूब मारा। इस प्रकारसे व्याघ्र हुआ है ।
इसी देशके भीतर विजयपुर में वैश्य आनन्द और वसन्तसेना के हरिकान्त नामका एक पुत्र था जो बड़ा अभिमानी था । वह किसीको नमस्कार नहीं करता था । कुछ लोगोंने पकड़कर उसे माता-पिता के चरणोंमें डाल दिया। तब उसने अभिमान से अपने शिरको पत्थर पर पटक लिया । इस प्रकारसे वह मरकर यह शूकर हुआ है ।
इसी देशके भीतर धान्यपुरमें वैश्य धनदत्त और वसुदत्ता के एक नागदत्त नामका पुत्र था, जो बहुत पी था । वह वेश्या के निमित्त अपनी बहिन के आभूषणों को ले गया था । जब वह उन्हें मांगती तो 'लाता हूँ' कहकर रह जाता । वह मरकर यह बन्दर हुआ है ।
इसी देश के भीतर सुप्रतिष्ठपुर में कोई पूरी आदिका बेचनेवाला वैश्य (हलवाई) रहता था । वह बहुत लोभी था । वहाँ राजा सुवर्णमय ईंटोंके द्वारा एक चैत्यालय बनवा रहा था ये ईंटे बाह्यमें मिट्टीके समान काली दिखती थीं, पर थीं वे सोनेकीं । एक दिन उन ईंटों को ले जाते हुए किसी मज़दूर को देखकर उक्त हलवाईने उसे पूरियाँ दीं और पाँव धोनेके निमित्त एक ईंट ले ली । फिर वह उसे सुवर्णकी जानकर उक्त मज़दूरके हाथमें प्रतिदिन पूरियाँ देता और एक एक ईंट मँगा लेता था। एक दिन वह अपने पुत्रसे ईंटको ले लेनेके लिये कहकर किसी दूसरे गाँवको गया था । परन्तु पुत्रने उस ईंटको नहीं लिया था। जब वह लोभी घर वापिस आया और उसे ज्ञात हुआ कि लड़के ने ईंट नहीं ली है तो इससे क्रोधित होकर उसने पुत्रको लाठियोंके द्वारा मार डाला तथा स्वयं अपने पाँवोंके ऊपर एक भारी पत्थरको पटक लिया । इससे उसके पाँव मुड़ गये । इस प्रकार वह बहुत कष्ट से मरा और यह नेवला हुआ है । ये चारों अपने भव्यत्व गुणके
1
१. ज ब वणिक्सानंद पवणिकराआनंद । २. ब पतितो । ३. ज नीत्वानेनयामी व नीत्वा न जामामी | ४. बभूता सुवर्णैका । ५. श केष्टिका ब कष्टका । ६. ब तदिष्टका । ७. ब° मेष्टका ।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
२.
वशेनोपशान्ता जाताः । एतद्दानानुमोदेन त्वया सहोभयगति सौख्यमनुभूये त्वं यदा तीर्थकरो भविष्यसि तदै पुत्रा श्रनन्ताच्युतवीरसुवीराख्याश्चरमाङ्गा स्युरिति । आवां तवान्त्यपुत्रयुगलमित्यावयोरुपरि युवयोर्मोहो वर्तते इति निरूप्य गतौ मुनी ।
वज्रजङ्घः पुण्डरीकस्य राज्यं स्थिरीकृत्य स्वपुरे बहुकालं राज्यं कुर्वन् तस्थौ । एकस्यां रात्रौ शय्यागृहाधिकारी सूर्यकान्तधूपघटे कालागरुं निक्षिप्य गवाक्षमुद्घाटयितुं विस्मृतस्तद्धूमेन मम्रतुः श्रीमतीवज्रजङ्घौ मुनिदानफलेनात्रैवोत्तरकुरुषु दम्पती जाती । व्याघ्रादयोऽपि तहानानुमोदजनितपुण्येन तच्छय्यागृहे तेनैव धूमेन मृत्वा तत्रैवार्या जाताः । इतस्तच्छरीरसंस्कारं कृत्वा तत्सुतं वज्रबाहुं तत्पदे व्यवस्थाप्य मतिवरादयस्तपसाऽधोग्रैवेयके जाताः । इतो भोगभूमौ तौ दम्पती सूर्यप्रभाख्यकल्पामरदर्शनेन जातिस्मरौ जातौ । तदैव तत्र चारणावतीर्यौ । तौ नत्वा वज्रजङ्घार्यो बभाण - भवतोरुपरि किं मे मोहो वर्तते । तत्र प्रीतिंकरवारण आह - यदा त्वं महाबलो जातोऽसि तदा ते मन्त्री स्वयं बुद्धस्तपसा सौधर्मे जातः । ततः श्रागत्यात्रैव पूर्वविदेहे पुण्डरीकिणीशप्रिय सेनसुन्दर्योः प्रीतिकरोऽहं जातो मदनुजोऽयं प्रीतिदेवस्तपसा चारणाववधिवोधौ च भूत्वा त्वां
२५४
प्रभावसे इस समय शान्तिको प्राप्त हुए हैं । इस आहार दानकी अनुमोदनासे ये चारों तुम्हारे साथ दोनों गतियों के सुखको भोगकर जब तुम तीर्थकर होओगे तब ये तुम्हारे अनन्त, अच्युत, वीर और सुवीर नामके चरमशरीरी पुत्र होवेंगे। हम दोनों चूँकि तुम्हारे अन्तिम पुत्रयुगल हैं, इसलिए हम दोनोंके ऊपर भी तुम दोनोंको मोह है । इस प्रकारसे उक्त वृत्तान्तको कहकर वे दोनों मुनि - राज चले गये ।
वज्रघ पुण्डरीक के राज्यको स्थिर करके अपने नगर में वापिस आ गया । उसने बहुत समय तक राज्य किया । एक दिन रातमें शयनागार की व्यवस्था करनेवाला सेवक सूर्यकान्त मणिमय धूपघट में कालागरुको डालकर खिड़कीको खोलना भूल गया । उसके धुएँसे उस शयनागारमें सोये हुए श्रीमती और वज्रजंघ मर गये । वे मुनिदान के प्रभावसे इसी जम्बूद्वीप के उत्तरकुरुमें आर्य दम्पती ( पति-पत्नी ) हुए। उधर वे व्याघ्र आदि भी उपर्युक्त शयनागार में उसी धुएँक द्वारा मरकर उस मुनिदानकी अनुमोदना करनेसे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे उसी उत्तरकुरुमें आर्य हुए। इधर मतिवर आदिने वज्रजंघ और श्रीमतीके शरीरका अग्नि-संस्कार करके वज्रजंधके पुत्र वज्रबाहुको राजाके पदपर प्रतिष्ठित किया । तत्पश्चात् वे जिनदीक्षा लेकर तपके प्रभावसे अधोग्रैवेयक में देव हुए। इधर भोगभूमिमें उस युगल ( वज्रजंघ और श्रीमती के जीव ) को सूर्यप्रभ नामक कल्पवासी देवके देखनेसे जातिस्मरण हो गया । उसी समय वहाँ दो चारण मुनि आकाश मार्गसे नीचे आये । उनको नमस्कार करके वज्रजंघ आर्य बोला कि आप दोनों के ऊपर
1
मुझे मोह क्यों हो रहा है ? इसके उत्तरमें उनमें से प्रीतिंकर मुनि बोले कि जब तुम महाबल हुए थे तच तुम्हारा मन्त्री स्वयंबुद्ध तपके प्रभावसे सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । फिर वहाँ से आकर इसी पूर्व विदेहमें पुण्डरीकिणी पुरके राजा प्रियसेन और रानी सुन्दरीके मैं प्रीतिंकर हुआ हूँ ? यह प्रीतिदेव नामका मेरा छोटा भाई है । तपके प्रभावसे हम दोनों को चारण ऋद्धि और अवधि
I
१. फ उभयसौख्यं । २. प ब देते । पुत्रा फ तदैव ते पुत्रा श तदैति पुत्रा । ३. व च्युतवीरारक्षाश्चरमांगा । ४. ज अत्रैवार्या ।
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
:६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २
२५५
सम्यक्त्वं ग्राहयितुमागतो। तदनु तान् षडपि सम्यक्त्वं ग्राहयित्वा गतौ यती। त्रिपल्यावसाने पडपि शरीरत्यागं कृत्वा ईशाने श्रीप्रभविमाने वजूजङ्घार्यः श्रीधरो देवो जातः, श्रीमत्यार्या स्वयंप्रभविमाने स्वयंप्रभदेवः, व्याघ्रायश्चित्राङ्गदविमाने चित्राङ्गदेवः, वराहार्यो नन्दविमाने मणिकुण्डलदेवः, वानरार्यो नन्द्यावर्तविमाने मनोहरदेवः, नकुलार्यः प्रभाकरविमाने मनोरथदेवो जात इति संबन्धः।
एकदा श्रीप्रभाचले प्रीतिकरमुनेः कैवल्योत्पत्तौ श्रीधरदेवादयस्तं वन्दितुमाजग्मुः । वन्दित्वा श्रीधरोऽपृच्छत् महामत्यादयः क्वोत्पन्ना इति । केवली बभाण-द्वौ निगोदं प्रविष्टी, शतमतिः शर्करायामजनि । ततः श्रीधरस्तं तत्र गत्वा संबोधितवान् । स नारकस्तस्मानि:सृत्य पुष्करार्धपूर्वविदेहे मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुरेशमहोधरसुन्दर्योः सूनुर्जयसेनोऽ. भूत् । स च विवाहे तिष्ठन् तेनैव श्रीधरदेवेन संबोध्य प्रवाजितः समाधिना ब्रह्मेन्द्रो जातः । श्रीधरदेव आगत्यात्रैव पूर्वविदेहे वत्सकावतीविषये सुसीमानगरेशसुदृष्टिसुन्दर्योः पुत्रः सुविधिर्जातः । तदा तत्र सकलचक्री अभयघोषस्तत्सुतां मनोरमां परिणीतवान् । स स्वयंप्रभदेव आगत्य तस्य नन्दनः केशवो बभूव । तद्विषय एव मण्डलिकविभीषणप्रियदत्तयोः स ज्ञान प्राप्त हुआ है । हम तुम्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करानेके लिये यहाँपर आये हैं। तत्पश्चात् वे दोनों मुनिराज उन छहोंको सम्यग्दर्शन ग्रहण कराकर वापिस चले गये। तीन पल्य-प्रमाण आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त होकर उन छहोंमें वज्रजंघ आर्यका जीव ईशान स्वर्गके भीतर श्रीप्रभ विमानमें श्रीधर देव, श्रीमती आर्याका जीव स्वयंप्रभ विमानमें स्वयंप्रभ देव, व्याघ्र आर्यका जीव चित्राङ्गगद विमानमें चित्राङ्ग देव, शूकर आर्यका जीव नन्द विमानमें मणिकुण्डल देव, बानर आर्यका जीव नन्द्यावर्त विमानमें मनोहर देव और नेवला आर्यका जीव प्रभाकर विमानमें मनोरथ देव हुआ। इस प्रकार इन सबका परस्पर सम्बन्ध जानना चाहिये ।
एक समय श्रीप्रभ पर्वतके ऊपर प्रीतिकर मुनिके लिए केवलज्ञानके प्राप्त होनेपर वे श्रीधर आदि देव उनकी वन्दनाके लिये आये। वन्दना करनेके पश्चात् श्रीधर देवने केवलीसे पूछा कि महाबलके मंत्री महामति आदि कहाँपर उत्पन्न हुए हैं ? इसपर केवलीने कहा कि उनमें से दो ( महामति और संभिन्नमति ) तो निगोद अवस्थाको प्राप्त हुए हैं और एक शतमति शर्कराप्रभा पृथिवी (दूसरा नरक)में नारकी हुआ है । तब श्रीधरदेवने वहाँ जाकर उसको सम्बोधित किया। वह नारकी उक्त पृथिवीसे निकल कर पुष्करार्ध द्वीपके पूर्व विदेहमें जो मंगलावती देश है उसके अन्तर्गत रत्नसंचयपुरके राजा महीधर और रानी सुन्दरीके जयसेन नामका पुत्र हुआ है। वह अपने विवाहके लिए उद्यत ही हुआ था कि इतनेमें उसी श्रीधर देवने आकर उसको फिरसे सम्बोधित किया। इससे प्रबुद्ध होकर उसने दीक्षा ले ली। पश्चात् वह समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर ब्रह्मेन्द्र हुआ। वह श्रीधरदेव स्वर्गसे च्युत होकर पूर्व विदेह के भीतर वत्सकावती देशमें स्थित सुसीमा नगरीके राजा सुदृष्टि और रानी सुन्दरीके सुविधि नामका पुत्र हुआ। उस समय वहाँ अभयघोष नामका सकल चक्रवर्ती था । सुविधिने उक्त चक्रवर्तीको पुत्री मनोरमाके साथ विवाह कर लिया। वह स्वयंप्रभदेव (श्रीमतीका जीव ) स्वर्गसे आकर उस सुविधिके केशव नामका
१. ब 'श्रीप्रभविमाने' नास्ति । २. ज प ब श विदेह । ३. ज प बश विषय । ४. जप बश विदेह । ५. ज पब श विषय । ६. ब अभयघोषसुतां । ७. ब आगत्य वरदत्ततस्यां नंदनः ।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्रवकथाकोशम्
२५६
[६-२,४३ : चित्राङ्गद आगत्य वरदत्तनामा पुत्रोऽजनि । स मणिकुण्डलः समेत्य तत्रैव विषये मण्डलिकनन्दिसेनानन्तमत्योरपत्यं वरसेनोऽभूत् । तत्रैव विषये मण्डलिकरतिसेनचन्द्रमत्योः स मनोहरदेव आगत्य चित्राङ्गदनामा सुतो जज्ञे । तद्विषय एवं मण्डलिकप्रभञ्जनचित्रमालयोः स मनोरथोऽवतोर्य शान्तमदननामा पुत्रोऽभूत् । वरदत्तादयश्चत्वारोऽपि सुविधेमित्राणि भूताः।
एकदाभयघोषचक्री सुविध्यादिराजभिविमलवाहनं जिनं चन्दितुमियाय। तद्विभूतिदर्शनेन संसारसुखविरक्तो भूत्वा पञ्चसहस्रस्वपुत्रैर्दशसहस्रस्त्रीभिरष्टादशसहस्रक्षत्रियैर्दीक्षितो मुक्तिमुपजगाम । सुविध्यादयः षडपि विशिष्टाणुव्रतधारिणो जाताः। स्वायुरन्ते सुविधिः संन्यासेन मृतः सन्नच्युतेन्द्रो जशे। केशवादयः पञ्चापि दीक्षिताः । केशवोऽच्युते प्रतीन्द्रोऽ. जनि । इतरे तत्रैव सामानिका जज्ञिरे । ततोऽच्युतेन्द्र आगत्यात्रैव पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीशतीर्थकर कुमारवजूसेनश्रीकान्तयोरपत्यं वजनाभिर्जातः । स प्रतीन्द्रोऽवतीर्य तत्रैव कुबेरदत्तराजश्रेष्ठ यनन्तमत्योरपत्यं धनदेवोऽजनि । वरदत्तचरादिसामानिका आगत्य तयोरेव वजसेनश्रीकान्तयोरपत्यानि विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजिता जज्ञिरे । तथा
पुत्र हुआ। वह चित्रांगद ( व्याघ्रका जीव ) देव उसी देशके मण्डलीक राजा विभीषण और प्रियदत्ताके वरदत्त नामका पुत्र हुआ । वह मणिकुण्डल देव (शूकरका जीव ) स्वर्गसे च्युत होकर उसी देशके मण्डलीक राजा नन्दिसेन और रानी अनन्तमतीके वरसेन नामका पुत्र हुआ । वह मनोहर ( बंदरका जीव ) देव वहाँ से आकर उसी देशके मण्डलीक राजा रतिसेन और रानी चन्द्रमतीके चित्रांगद नामका पुत्र हुआ। वह मनोरथ देव ( नेवलेका जीव ) स्वर्गसे अवतीर्ण होकर उसी देशके मण्डलीक राजा प्रभंजन और रानी चित्रमालाके शान्तमदन नामका पुत्र हुआ। वे वरदत्त आदि चारों ही सुविधिके मित्र थे।
___ एक समय अभयघोष चक्रवर्ती सुविधि आदि राजाओंके साथ विमलवाहन जिनेन्द्रकी वन्दना करनेके लिए गया। वह उनकी विभूतिको देखकर संसारके सुखसे विरक्त हो गया। तब उसने पाँच अपने हजार पुत्रों, दस हजार स्त्रियों और अठारह हजार अन्य राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। अन्तमें वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ। उन सुविधि आदि छहोंने विशिष्ट अणुव्रतोंको धारण कर लिया था। उनमें सुविधि अपनी आयुके अन्तमें संन्यासके साथ मरणको प्राप्त होकर अच्युतेन्द्र हुआ। शेष केशव आदि पाँचों दीक्षित हो गये थे। उनमें केशव तो अच्युत कल्पमें प्रतीन्द्र हुआ और शेष चार वहींपर सामानिक देव उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् वह अच्युतेन्द्र उक्त कल्पसे आकर इसी जम्बूद्वीपके पूर्व विदेहमें जो पुष्कलावती देश है उसके भीतर स्थित पुण्डरीकिणी नगरीके राजा तीर्थकरकुमार वज्रसेन और रानी श्रीकान्ताके वज्रनाभि नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। वह प्रतीन्द्र भी स्वर्गसे अवतीर्ण होकर उसी नगरीमें राजसेठ कुबेरदत्त और अनन्तमतीके धनदेव नामका पुत्र हुआ। वरदत्त आदि जो सामानिक देव हुए थे वे भी स्वर्गसे च्युत होकर राजा वज्रसेन और रानी श्रीकान्ता इन्हीं दोनोंके विजय, वैजयन्त,
१. ब समैत्य । २. ब नामा नंदनोऽभूत् । ३. ज प श विशिष्टानुव्रत । ४. ज प य श विषय ।
५. फ ब श वैजयन्तापराजिता ।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५७
: ६-२, ४३ ] ग्रैवेयकादागत्य मतिवरचराद्यहमिन्द्रास्तयोरेवापत्यानि बाहुमहाबाहु पीठमहापीठा अजनिषत । वज्रसेनो वज्रनाभेः स्वपदं वितीर्य सहस्रराजतनयैराम्रवने परिनिष्क्रमण कल्याणमवाप । एकदा वज्रनाभिरास्थाने स्थितो द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां विज्ञप्तः । कथम् । ते जनकः केवली जातः, आयुधागारे चक्रमुत्पन्नमिति च । ततः केवलिपूजां विधाय साधितषट्खण्डो बभूव । स धनदेवो गृहपतिरत्नं बभूव । वज्रनाभिश्चक्री विजयादीनात्मसमानान् कृत्वा बहुकालं राज्यं कृत्वा स्वतनयवजूदत्ताय राज्यं दत्त्वा पञ्चसहस्रस्वपुत्रैर्विजयादिभिर्भ्रातृभिर्धनदेवेन च षोडशसहस्रमुकुटबद्धैः पञ्चाशत्सहस्रवनिताभिः स्वजनकान्ते दीक्षितः । षोडशभावनाभिस्तीर्थ करत्वं समुपार्ज्य श्रीप्रभावले प्रायोपगमनविधिना' तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धिं जगाम । विजयादयोऽपि ते दशापि तत्र सुखेन तस्थुः ।
०
तदेदं भरत क्षेत्रं जघन्यभोगभूमिरूपेण वर्तते । किमस्यैकरूपं प्रवर्तनं नास्ति । नास्ति । कथमित्युक्ते ब्रवीमि -- अस्मिन् भरते उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालौ वर्तेते । तयोश्य प्रत्येकं षट् कालाः स्युः । तत्रापीयमवसर्पिणी । अस्यां चाद्यः सुषमसुषमश्चतस्रः कोटी काटयः जयन्त और अपराजित नामके पुत्र उत्पन्न हुए । मतिवर आदि जो ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए थे वे भी वहाँसे आकर उन्हीं दोनों के बाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नामके पुत्र उत्पन्न हुए । वज्रसेन वज्रनाभिको अपना पद देकर आम्रवनमें एक हजार राजकुमारों के साथ दीक्षित होता हुआ दीक्षा कल्याणकको प्राप्त हुआ ।
एक दिन जब वज्रनाभि सभाभवनमें स्थित था तब दो पुरुषांने आकर क्रमसे निवेदन किया कि तुम्हारे पिताको केवलज्ञान प्राप्त हुआ है तथा आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । इस शुभ समाचारको सुनकर वज्रनांभिने पहिले केवली की पूजा की और तलश्चात् छह खण्डस्वरूप पृथिवीको जीत कर उसे अपने स्वाधीन किया । तब वह धनदेव उस वज्रनाभि चक्रवर्तीका गृहपतिरत्न हुआ । वज्रनाभि चक्रवर्तीने उन विजय आदि भ्राताओं को अपने समान करके बहुत काल तक राज्य किया । तत्पश्चात् वह अपने पुत्र वज्रदत्तको राज्य देकर अन्य पाँच हजार पुत्रों, विजयादि भाइयों, धनदेव, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं और पचास हजार स्त्रियोंके साथ अपने पिता ( वज्रसेन तीर्थंकर) के पास दीक्षित हो गया । तत्पश्चात् उसने दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंके द्वारा तीर्थंकर नामकर्मको बाँधकर प्रायोपगमन संन्यासको ग्रहण कर लिया । इस प्रकारसे वह शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्धि विमानको प्राप्त हुआ । विजय आदि वे दश जीव भी वहीं पर ( सर्वार्थसिद्धि में ) सुख से स्थित हुए ।
उस समय इस भरत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि जैसी प्रवृत्ति चल रही थी । क्या भरत क्षेत्र के भीतर एक-सी प्रवृत्ति नहीं रहती है, ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर उसका उत्तर यहाँ 'नहीं' के रूपमें देकर उसका स्पष्टीकरण इस प्रकारसे किया गया है - इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दो काल प्रवर्तमान रहते हैं । उनमें से एक-एकके छह विभाग हैं । उनमें भी इस समय यह अवसर्पिणी काल चालू है । इस अवसर्पिगीके प्रथम विभागका नाम सुखमसुखमा है ।
६. दानफलम् २
१. ब वज्रनाभये । २. ज प तनये: रंभावने फ तनयैराम्रवनो श तनयैः रंभावनो । ३. व खंडोभूत् । ४. ब मात्मसमान् । ५. व विजयादिभ्रातभि । ६. श षोडशमुकुट । ७. ब प्रायोपगमरणविधिना । दहं भरतं । ९. बवत । १०. प प्रवर्तनं नास्ति कथं । ११. ज प श सुखमसुखमश्चतस्रः को ब सुखमसुखमः कालश्चव । रिकोडा कोडिसागरतस्रः को ।
०
८.
Jain Education Internationa
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८ पुण्यानवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ : सागरोपमप्रमितः । तत्कालादौ मनुष्याः षटसहस्रधनुरुत्सेधाः त्रिपल्योपमजीवनाः बालार्कनिभतेजसः पानकाङ्ग-तूर्याङ्ग-भूषणाङ्ग-ज्योतिरङ्ग-गृहाङ्ग-भाजनाङ्ग-दीपाङ्ग-माल्याङ्ग-भोजनाङ्गवस्त्राङ्गाश्चेति दशविधकल्पवृक्षफलोपभोगिनः त्रिदिनान्तरितबंदरप्रमाणाहाराः विगतभ्रातृभगिनीसंकल्पाः युग्मोत्पत्तिकाः परस्परं स्त्रीपुरुषभावजनितसांसारिकसौख्याः उत्पन्नदिनाद्यकविंशतिदिनजनितयौवनाः व्याधिजरेटवियोगानिष्टसंयोगादिक्लेशविवर्जिताः। स्त्रियो नवमासायुषि गर्भधारिण्यः प्रसूत्यनन्तरं जृम्भं कृत्वा त्यक्तशरीरभारा देवगतिं यान्ति, पुरुषाश्च तुतानन्तरं तथा दिवं गच्छन्ति ।
अनन्तरं सुषमो द्वितीयः कालः त्रिकोटीकोटयः सागरोपमप्रमितः । तदादौ चतुःसहस्रधनुरुच्छ्रितिः द्विपल्योपममायुः पूर्णेन्दु वर्णपञ्चविंशद्दिनजनितयौवनाः द्विदिनान्तरिताक्षप्रमाणाहाराश्च भवन्ति जनाः'। शेषं पूर्ववत् । अनन्तरं सुषमदुःषमो द्विकोटीकोटीसागरोपमप्रमाणस्तृतीयः कालः। तदादौ द्विसहस्रदण्डोत्सेधः प्रियङ्गुश्यामवर्णः
उसका प्रमाण चार कोड़ाकोड़ि सागरोपम है । इस कालके प्रारम्भमें मनुष्यों के शरीरकी ऊँचाई छह हजार धनुष ( तीन कोस ) और आयु तीन पल्योपम प्रमाण होती है। उनके शरीरकी कान्ति उदयको प्राप्त होते हुए नवीन सूर्यके समान होती है। वे पानकांग, तूर्यांग, भूषणांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भाजनांग, दीपांग, माल्यांग, भोजनांग और वस्त्रांग इन दस प्रकारके कल्पवृक्षोंके फलको भोगते हैं। वे तीन दिनके अन्तरसे बेरके बराबर आहारको ग्रहण किया करते हैं। युगलस्वरूपसे उत्पन्न होनेवाले उनमें भाई-बहिनकी कल्पना न होकर पति-पत्नी जैसा व्यवहार होता है। जन्म-दिनसे लेकर इक्कीस दिनोंमें वे यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । उन्हें व्याधि, जरा, इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगादिका क्रेश कभी नहीं होता है। वहाँ जब नौ महिना प्रमाण आयु शेष रह जाती है तब स्त्रियाँ गर्भको धारण करती और प्रसूतिके पश्चात् जंभाई लेकर शरीरको छोड़ती हुई देवगतिको प्राप्त होती हैं। पुरुष भी उसी समय छौंक लेकर मरणको प्राप्त होते हुए स्त्रियोंके ही समान स्वर्ग ( देवगति ) को प्राप्त होते हैं ।
तत्पश्चात् सुखमा नामका दूसरा काल प्रविष्ट होता है। उसका प्रमाण तीन कोड़ाकोडि सागरोपम है। उसके प्रारम्भमें शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुष ( दो कोस ) और आयु दो पल्योपम प्रमाण होती है। उस समयके नर-नारी पूर्णमासीके चन्द्रमाके समान कान्तिवाले होते हैं । वे जन्म-दिनसे लेकर पैंतीस दिनों में यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। उनका भोजन दो दिनके अन्तरसे बहेड़े के बराबर होता है। शेष वर्णन पूर्वोक्त सुखमसुखमाके समान है। इसके पश्चात् सुखमदुखमा नामका तीसरा काल प्रविष्ट होता है। इसका प्रमाण दो कोड़ाकोडि सागरोपम है । इसके प्रारम्भमें शरीरकी ऊँचाई दो हजार धनुष ( एक कोस ) और वर्ण प्रियंगुके
१. व-प्रतिपाठोऽयम् । शपमजिक्निा। २. ब गृहांगमाल्यांगभाजनांगभोजनांगदोपांगवस्त्रांगश्चेति । ३. वदरि। ४. ज प श वियोगाद्यनिष्ट । ६. ब जंभां । ६. ज प श सुखमो ब सुपुमो। ७. ब कोटीकोटिसागरोप। ८. ब धनुरुत्सृति । ९. ब वर्णः । १०. ब यौवन । ११. ब प्रमाणाहरश्च भवति जनः ।
१२. ब कोटी कोट्यसागरो । १३. फ दण्डोत्सेधाः । १४. फ वर्णाः ।
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २
२५९ एकपल्यायुः 'एकोनपञ्चाशदिनजनितयौवनः दिनान्तरितामलकप्रमाणाहारश्च भवति जनः । अन्यत्पूर्ववत् । द्वाचत्वारिंशत्सहस्रवयूँनैककोटीकोटीसागरोपमप्रमितश्चतुर्थकालो दुःषम सुषमनामा । तदादौ पञ्चशतचापोत्सेधः पूर्वकोटिरायुः प्रतिदिनभोजी पञ्चवर्णयुतश्च जनो भवति । एकविंशतिसहस्रवर्षप्रमितो दुःषमनामा पञ्चमकालः। तदादौ सप्तहस्तोत्सेधः विंशत्युत्तरशतवर्षायुः प्रतिदिनमनियतभोजी मिश्रवर्णश्च जनः स्यात् । ततोऽतिदुःषमनामा षष्ठः कालः तन्मान एव । तदा जना नग्ना मत्स्याद्याहारा धूमश्यामा द्विहस्तोत्सेधाः 'विंशतिवर्षायुषश्च स्युः। तदन्ते एककरोत्सेधः पञ्चदशाददायुश्च स्याजनः । यद् द्वितीयकालस्यादौ वर्तनं तत्प्रथमकालस्यान्ते । एवं यदुत्तरोत्तरकालादौ वर्तनं तत्पूर्वपूर्वस्यान्ते द्रष्टव्यम्।
तत्र तृतीयकालस्यान्तिमपल्याष्टमभागेऽवशिष्टे कुलकराः स्युः चतुर्दश। तथाहिप्रतिश्रुतिनामा प्रथमकुलकरो जातः स्वयंप्रभादेवीपतिः, अष्टशताधिकसहस्त्रदण्डोत्सेधः, पल्यदशमभागायुः, कनकवर्णः। तत्काले ज्योतिरङ्गकल्पद्रुमभङ्गात् चन्द्रार्कदर्शनाद्भीतिं गतं समान होता है। आयु उस कालमें एक पल्योपम प्रमाण होती है। उस कालमें मनुष्य उनं. चास दिनोंमें यौवन अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं। आहार उनका एक दिन के अन्तरसे आँवलेके बराबर होता है। शेष वर्णन पूर्वके समान है । दुखमसुखमा नामका चौथा काल ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है। उसके प्रारम्भमें मनुष्य पाँच सौ धनुष ऊँचे, एक पूर्वकोटि प्रमाण आयुके भोक्ता, प्रतिदिन भोजन करनेवाले और पाँचों वर्णोंवाले होते हैं । दुखमा नामक पाँचवें कालका प्रमाण इक्कीस हजार वर्ष है। उसके प्रारम्भमें मनुष्य सात हाथ ऊँचे, एक सौ बीस वर्ष प्रमाण आयु के भोक्ता, प्रतिदिन अनियमित ( अनेक बार ) भोजन करनेवाले और मिश्र वर्णसे सहित होते हैं। तत्पश्चात् अतिदुखमा नामका छठा काल प्रविष्ट होता है। उसका प्रमाण भी पाँच कालके समान इक्कीस हजार वर्ष है। उस समय मनुष्य नग्न रहकर मछली आदिकोंका आहार करनेवाले, धुएंके समान श्यामवर्ण, दो हाथ ऊँचे और बीस वर्ष प्रमाण आयुके भोक्ता होते हैं। इस कालके अन्तमें मनुष्योंके शरीरकी ऊँचाई एक हाथ प्रमाण और आयु पन्द्रह वर्ष प्रमाण रह जाती है। जो प्रवृत्ति-उत्सेध व आयु आदिका प्रमाणद्वितीय ( आगेके ) कालके प्रारम्भमें होता है वही प्रथम कालके अन्तमें होता है। इस प्रकारसे जो आगे-आगेके कालके प्रारम्भमें प्रवृत्ति होती है वहीं पूर्व पूर्व कालके अन्तमें होती है, यह जान लेना चाहिए।
उनमेंसे तृतीय कालमें जब पल्यका अन्तिम आठवाँ भाग शेष रह जाता है तब चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं । वे इस प्रकारसे - सर्वप्रथम प्रतिश्रुति नामका पहिला कुलकर हुआ । उसकी देवीका नाम स्वयंप्रभा था। उसके शरीरकी ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्यके दसवें भाग (2) प्रमाण थी। उसके शरीरका वर्ण सुवर्णके समान था। उसके समयमें ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेसे चन्द्र और सूर्य देखनेमें आने लगे थे। उनके
१. ब एकोन्नपंचा। २. ज फ यौवनाः प यौवना। ३. फ हाराश्च भवंति जनाः। ४ ज प ब श दुःखमसुखम । ५. ज प ब श दुःखमः। ६. प श हस्तोत्सेधविश । ७. ज ब श दुःखमप दुखम । ८. श पंचविशति । ९. प फ यदुत्तरकालादौ श यदत्तरकादौ। १०. श 'प्रथम' नास्ति ।
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ : जनं प्रतिबोधितवान् हा-नीत्या शिक्षितवांश्च । अनन्तरं पल्योपमाशीत्येकभागे गते सन्मतिनामा द्वितीयः कुलकरोऽभूत् यशस्वतीपतिः, त्रिशताधिकसहस्रदण्डोत्सेधः, पल्यशतकभागायुः स्वर्णाभः निवारिततारकादिदर्शनजनितप्रजाभयः, तथैव शिक्षितवांश्च । ततः पल्याष्टशतैकभागे गते क्षेमंकरो जातः सुनन्दाप्रियः, अष्टशतदण्डोत्सेधः, पल्यसहस्रकभागायुः, निवारितव्यालजनितभयः, कनककान्तिः प्रवर्तितहा-नीतिश्च । अनन्तरं पल्याष्टसहस्रकभागे व्यतिक्रान्ते क्षेमंधरोऽजनि विमलाकान्तः, पञ्चसप्तत्यधिकसप्तशतधनुरुत्सेधः, पल्यदशसहस्रकभागायुः, कनकाभः, दीपादिप्रज्वालनेन निरस्तान्धकारः, तथैव निवारितप्रजादोषः । ततः पल्याशीतिसहस्रकभागेऽतीते सीमंकरोऽभूत् मनोहरीदेवीवल्लभः, सार्धसप्तशतशरासनोत्सेधः, पल्यलक्षकभागायुः, हिरण्यच्छविः, कृतकल्पद्रुममर्यादः, तथैव प्रवर्तितनीतिः । अनन्तरं
देखनेसे आयोंके हृदयमें भयका संचार हुआ तब उनको भयभीत देखकर प्रतिश्रुति कुलकरने समझाया कि ये सूर्य-चन्द्र प्रतिदिन ही उदित होते हैं, परन्तु अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके प्रकाशमें वे दीखते नहीं थे। अब चूँकि वे ज्योतिरंग कल्पवृक्ष प्रायः नष्ट हो चुके हैं, अतएव ये देखनेमें आने लगे हैं। इनसे डरनेका कोई कारण नहीं है । इस कुलकरने उन्हें 'हा' नीतिका अनुसरण कर शिक्षा ( दण्ड ) दी थी। इसके पश्चात् पल्यका अस्सीवाँ भाग (2) बीतनेपर सन्मति नामका दूसरा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी देवीका नाम यशस्वती था । उसके शरीरकी ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष, और आयु पल्यके सौवें भाग (0) प्रमाण और वर्ण सुवर्णके समान था । ज्योतिरंग कल्पवृक्षोंके सर्वथा नष्ट हो जानेपर जब आर्योंके लिए ताराओं आदिको देखकर भय उत्पन्न हुआ तब उनके उस भयको इस कुलकरने दूर किया था। प्रजाजनको इसने भी 'हा' इस नीतिका ही अनुसरण करके शिक्षा दी थी। इसके पश्चात् पल्यका आठ सौवाँ भाग (0) बीत जानेपर क्षेमंकर नामका तीसरा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम सुनन्दा था। उसके शरीरकी ऊँचाई आठ सौ धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके हजारवें भाग (क ) प्रमाण थी। इसके समयमें सादिकोंका स्वभाव कर हो गया था, अतएव प्रजाजन उनसे भयभीत होने लगे थे। क्षेमकरने संबोधित करके उनके इस भयको दूर किया था। इसने भी 'हा' इसी दण्डनीतिकी प्रवृत्ति चालू रक्खी थी। इसके पश्चात् पल्यका
आठ हजारवाँ भाग (००) बीतनेपर क्षेमंधर नामका चौथा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम विमला था । उसके शरीरकी ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके दस हजारवें भाग ( ) प्रमाण थी । इसने प्रजाजनके लिए दीपक आदिको जलाकर अन्धकारके नष्ट करनेका उपदेश दिया था। प्रजाके दोषको दूर करनेके लिए इसने भी 'हा' इसी नीतिका आलम्बन लिया था। इसके पश्चात् पल्यका अम्सी हजारवाँ भाग (ट ) बीतनेपर सीमंकर नामका पाँचवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम मनोहरी था। उसके शरीरकी ऊँचाई साढ़े सात सौ धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके लाखवें भाग (क ) प्रमाण थी। इसने कल्पवृक्षोंकी मर्यादा करके प्रजाजनके कल्पवृक्षों सम्बन्धी विवादको दूर किया था। दण्डनीति इसके समयमें भी 'हा' यही चालू रही।
१. ज श स्व नि' प स्वर्णाभणनि व सुभिः नि । २. व व्यालमृगजनितभयः ।
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२,. ४३ ] ६. दानफलम् २
२६१ पल्याष्टलक्षकभागे गते सीमंधरो जातो यशोधारिणीपतिः, पञ्चविंशत्यधिकसप्तशतबाणा. सनोत्सेधः, पल्यदशलक्षकभागायुः, हाटकाभः, सीमाव्याजे कृतशासनः', प्रदर्शितहा-मानीतिः। अनन्तरं पल्याशीतिलौकभागे गते विमलवाहनो जातः सुमतिदेव्याः पतिः, सप्तशतदण्डोत्सेधः, पल्यकोट्येकभागजीवितः, हेमकान्तिः, कृतवाहनारोहणोपदेशः, प्रवर्तितहा-मानीतिश्च । अनन्तरं पल्याष्टकोट्येकभागेऽतीते चक्षुष्मानजनि धारिणीपतिः, पञ्चसप्तत्यधिकषटशतचापोत्सेधः, पल्यदशकोट येकभागजीवितः, प्रियङ्गुवर्णः, कृतोत्पन्नशिशुदर्शनभयापहारस्तथैव शिक्षितजनश्च । अनन्तरं पल्याशीतिकोट येकभागेऽतीते यशस्वी जातः कान्तमालाप्रियः, सार्धषट्शतचापोत्सेधः, पल्यशतकोटयेकभागजीवितः, प्रियङ्गुवर्णः, कृतसंज्ञाव्यवहारः, तथैव शिक्षितजनश्च । अनन्तरं पल्याएशतकोटयेकभागेऽतिक्रान्ते जातोऽभिचन्द्रः
इसके पश्चात् पल्यका आठ लाखवाँ भाग (१००) बीत जानेपर सीमंधर नामका छठा कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियाका नाम यशोधारिणी था। इसके शरीरकी ऊंचाई सात सौ पच्चीस धनुष, वर्ण सुवर्णके समान और आयु पल्यके दस लाखवं भाग ( 66 ) प्रमाण थी। उसने सीमाके व्याजमें शासन किया, अर्थात् उसके समयमें जब कल्पवृक्ष अतिशय बिरल होकर थोड़ा फल देने लगे तब उसने उनको अन्य वृक्षादिकोसे चिह्नित करके प्रजाजनके झगड़ेको दूर किया था। इसने अपराधको नष्ट करनेके लिए 'हा' के साथ 'मा' नीति ( खेद है, अब ऐसा न कहना) का भी आश्रय लिया था। इसके पश्चात् पल्यका अस्सी लाखवाँ भाग ( ००००) बीत जानेपर विमलवाहन नामका सातवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। उसकी देवीका नाम सुमति था। उसके शरीरकी ऊँचाई सात सौ धनुष, वर्ण सुवर्ण जैसा और आयु पल्यके करोड़वें भाग ( २०८०००) प्रमाण थी। उसने हाथी आदि वाहनोंके ऊपर सवारी करनेका उपदेश दिया था। दण्डनीति इसने भी 'हा-मा' स्वरूप ही चालू रखी थी। इसके पश्चात् पल्यका आठ करोड़वाँ भाग ( ८००००००) बीत जानेपर चक्षुप्मान् नामका आठवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी प्रियतमा का नाम धारिणी था। उसके शरीरकी ऊँचाई छह सौ पचत्तर धनुष, वर्ण प्रियंगुके समान और आयु पल्यके दस करोड़वें भाग ( १०००००) प्रमाण थी। इसके समयमें आयोकी सन्तानके उत्पन्न होनेपर उसका मुख देखने को मिलने लगा था। उसको देखकर उन्हें भय उत्पन्न हुआ। तव चक्षुष्मानने संबोधित करके उनके इस भयको नष्ट किया था। इसने भी प्रजाजनको शिक्षा देने के लिये 'हा-मा' नीतिका ही उपयोग किया था । पश्चात् पल्यका अम्सी करोड़वाँ भाग बीत जानेपर (2000००००) यशम्बी नामका नौवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। उसकी प्रियाका नाम कान्तमाला था । उसके शरीरकी उँचाई साढ़े छह सौ धनुष, वर्ण प्रियंगु जैसा
और आयु पल्यके सौ करोड़ भाग (१०००००००००) थी। उसने व्यवहारके लिए बालकोंके नाम रखनेका उपदेश दिया था । आयोंको शिक्षा देनेके लिये वह भी 'हा-मा' इस नीतिका ही उपयोग किया करता था । इसके पश्चात् पल्यका आठ सौ करोड़वाँ भाग बीत जाने पर अभिचन्द्र नामका
१. ब सीमान्याजेकृतशासनप्र श सीमाव्याजेकृतमाशनः । २. ब जीवनः। ३. श यशरवीकामजातः । ४. श सार्द्धषट्चापों । ५. फक्रांतेऽभिचंन्द्रो जातः ।
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ : श्रीमतीपतिः, पञ्चविंशत्यधिकषटशतबाणासनोत्सेधः, पल्यकोटिसहस्रकभागजीवितः, सुवर्णवर्णश्चन्द्रादिदर्शनेन बालक्रीडाकृतोपदेशः, प्रकाशितहा-मा-नीतिश्च । ततः पल्याष्टसहस्त्रकोटयेकभागे गते चन्द्राभोऽभूत प्रभावतीपतिः, चन्द्रवर्णः, षट्शतधनुरुत्सेधः, पल्यकोटिदशसहस्रकभागायुः, 'कृतपितापुत्रादिव्यवहारः, हा-मा-धिक्नीत्या कृतजनदोषनिराकरणः । अनन्तरं पल्याशीतिसहस्रकोटयेकभागेऽतिक्रान्ते जातो मरुहेव अनुपमापतिः, पञ्चसप्तत्यधिकपञ्चशतचापोत्सेधः, पल्यकोटिलौकभागायुः, कनकाभः । तदा वृष्टौ सत्यां नदनापसमदादिके जाते प्रदर्शिततत्तरणोपायः.तथैव कृतप्रजादोषनिराकरणः। अनन्तरं पल्याप्रक लक्षकोटयेकभागेऽतिक्रान्ते प्रसेनजिज्जातः । स च प्रस्वेदलवादिताङ्गः, सार्धपञ्चशतधनुरुत्सेधः, पल्यकोटिदशलक्षकभागायुः, प्रियङ्गुकान्तिः। तस्य तत्पित्रा अमितमतिनामवरकन्यया विवाहः कृतः । तदक्तम
प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम् ।
विवाहविधिना धीरः प्रधानविधिकन्यया ॥१॥ इति । दसवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। उसकी देवीका नाम श्रीमती था। इसके शरीरकी उँचाई छह सौ पच्चीस धनुष, वर्ण सुवर्ण जैसा तथा आयु पल्यके हजार करोड़ भाग प्रमाण थी। इसने चन्द्र आदिको दिखलाकर बालकोंके खिलानेका उपदेश दिया था तथा शिक्षा देनेके लिये 'हा-मा' इस नीतिका ही उपयोग किया था। उसके पश्चात् पल्यका आठ हजार करोड़वाँ भाग बीत जानेपर चन्द्राभ नामका ग्यारहवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ, उसकी देवीका नाम प्रभावती था। उसकी शरीर-कान्ति चन्द्रमाके समान, उँचाई छह सौ धनुष और आयु पल्यके दस हजार करोड़वें भाग प्रमाण थी। इसने आर्योंमें पिता और पुत्र आदिके व्यवहारको प्रचलित किया था । यह आर्योके द्वारा किये गये अपराधको नष्ट करनेके लिये 'हा-मा' के साथ 'धिक' का भी उपयोग करने लगा था । इसके पश्चात् पल्यका अस्सी हजार करोड़वाँ भाग बीत जानेपर मरुदेव नामका बारहवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ था। उसकी प्रियाका नाम अनुपमा था । उसके शरीरकी उँचाई पाँच सौ पचत्तर धनुष, कान्ति सुवर्णके समान और आयु पल्यके एक लाख करोड़वें भाग प्रमाण थी । उसके समयमें वर्षा प्रारम्भ हो गई थी। इसलिये नद, नदी एवं उपसमुद्र आदि भी उत्पन्न हो गये थे। मरुद्देवने उनसे पार होनेका उपाय बतलाया था। उसने भी 'हा-मा-धिक्' नीतिके अनुसार प्रजाके दोषों को दूर किया था। इसके पश्चात् पल्यका आठ लाख करोड़वाँ भाग बीत जानेपर प्रसेनजित् नामका तेरहवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। पसीनेकी बूंदोंसे भीगे हुए शरीरको धारण करनेवाला वह साढ़े पाँच सौ धनुष ऊँचा था। उसकी आयु पल्यके दस लाख करोड़वं भाग प्रमाण और शरीरकी कान्ति प्रियंगुके समान थी। उसके पिताने उसका विवाह अमितमति नामकी उत्तम कन्याके साथ किया था। कहा भी है। (ह० पु० ७-१६७ )--
धीर मरुद्देव कुलकर पसीनेके कणोंसे विभूषित अपने पुत्र प्रसेनजित्के विवाहका आयोजन प्रधान कुलकी कन्याके साथ करके [ आयुके पूर्ण हो जानेपर मरणको प्राप्त हुआ ] ॥१॥
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श कृतः पिता । २. ब पल्याशीतिकोटय कभागे। ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श प्रदर्शिततरणो । ४. फ अमितगतिनाप्रवरकन्यया ( पश्चात् संशोधितः ) ब अमितमतिः । नामः वरवरकन्याया। ५. ह० पु० (७-१६७ ) प्रधानकुलकन्यया ।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
: ६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २ स चैक एवोत्पन्नस्तत्प्रभृतियुग्मोत्पत्तिनियमाभावः । तदुक्तम् -
एकमेवासृजत् पुत्र प्रसेनजितमत्र सः ।।
युग्मसृष्टेरिहेवोर्ध्वमितोऽभ्युपनिनीषया' ॥२॥ इति । स च स्नानादिकृतोपदेशः तथैव शिक्षितजनः। अनन्तरं पल्याशीतिलक्षकोट येकभागे व्यतिक्रान्तेऽभून्नाभिराजो मरुदेवीकान्तः, पञ्चविंशत्युत्तरपञ्चशतचापोत्सेधः, पूर्वकोटिरायुः, सुवर्णकान्तिः तथैव शिक्षितप्रजः। तदा सर्वे कल्पपादपा गताः। नाभिराजस्य प्रासाद एवोवृतः । तदैवोत्पन्नशिशुनालनिकर्तनेन नाभिः प्रसिद्धिं गतः। स नाभिराजो मरुदेव्या सह सुखेन तस्थौ ।
___ इतः सर्वार्थसिद्धौ वज्रनाभिचराहमिन्द्रस्य षण्मासायुः स्थितं यदा तदा कल्पलोके घण्टानादो ज्योतिषां सिंहनादो भवनेषु शङ्खनादो व्यन्तराणां भेरीरवोऽभूत् । सर्वेषां सुराणां हरिविष्टराणि प्रकम्पितानि मुकुटाश्च नम्रीभूताः। तदा सर्वेऽपि स्वबोधेन बुबुधिरे भरते "मरुदेवीगर्भे श्रादितीर्थकरोऽवतरिष्यतीति । चतुर्णिकायदेवैरागत्य तत्कारणेन शचीपतिस्तत्पित्रोः स्थित्यर्थं विनीताखण्डमध्यप्रदेशे अयोध्याभिधं सर्वरत्नमयं पुरमकार्षीत् । तौ द्वौ
वह प्रसेनजित् भी युगलके रूपमें उत्पन्न न होकर अकेला ही उत्पन्न हुआ था। उस समयसे युगलस्वरूपमें उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं रहा । कहा भी है
इसके आगे यहाँ युगलस्वरूप सृष्टिको नष्ट करनेकी ही इच्छासे मानो मरुदेवने प्रसेनजित् नामके एक मात्र पुत्र को ही उत्पन्न किया था ॥२॥
प्रसेनजित्ने प्रजाजनको स्नान आदिका उपदेश किया था। पूर्वके अनुसार इसने भी प्रजाजनोंको शिक्षा देनेमें 'हा-मा-धिक' इसी नीतिका उपयोग किया था। इसके पश्चात् पल्यका अस्सी लाख करोड़वाँ भाग बीत जानेपर नाभिराज नामका चौदहवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी पत्नीका नाम मरुदेवी था । उसके शरीरकी उँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष, कान्ति सुवर्णके समान और आयु एक पूर्वकोटि प्रमाण थी । नाभिराजने भी प्रजाको पूर्वके समान 'हा-मा-धिक' नीतके ही अनुसार शिक्षित किया था। उस समय कल्पवृक्ष सब ही नष्ट हो चुके थे, केवल नाभिराजका प्रासाद ही शेष रहा था। उस समय उत्पन्न हुए बालकोंके नालके काटनेका उपदेश करनेसे वह 'नाभि' इस नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ। वह नाभिराज मरुदेवीके साथ सुखसे स्थित था ।
इधर सर्वार्थसिद्धिमें जब भूतपूर्व वज्रनाभिके जीव उस अहमिन्द्रकी आयु छह मास शेष रह गई तब कल्पलोक ( स्वर्ग ) में घण्टेका शब्द, ज्योतिषी देवोंमें सिंहनाद, भवनवासियोंमें शंखका शब्द और व्यन्तर देवोंके यहाँ भेरीका शब्द हुआ। उस समय सब ही देवोंके सिंहासन कम्पित हुए और मुकुट झुक गये । इससे उन सभीने अपने अवधिज्ञानसे यह जान लिया कि भरत क्षेत्रमें मरुदेवीके गर्भ में आदि जिनेन्द्र अवतार लेनेवाले हैं। इसी कारण चारों निकायोंके देवोंके साथ आकर इन्द्रने भगवान्के माता-पिता ( मरुदेवी और नाभिराज ) के रहनेके लिये विनीता खण्डके मध्य भागमें अयोध्या नामके नगरकी रचना की, जो सर्वरत्नमय था । तत्पश्चात्
१. ब वोर्द्धमितोत्पपतिनीषया। ह. पु. तो व्यपनिनीषया। २. श कल्याणपादपा । ३. ज प श प्रसाद । ४. प फ श एवोद्धृतः । ५. श नालिनि । ६. ब 'सह' नास्ति । ७. ज प श मरुद्देवी ।
८. बणेन च सचीपति । ९. ब 'द्वौ' नास्ति ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : तत्र विभूत्या व्यवस्थाप्य स्वं यतं धनदं न्ययोजयत् प्रतिदिनं त्रिसंध्यं तद्गृहे पञ्चाश्चर्यकरणे । पद्मादिसरोनिवासिन्यः श्रीह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्याख्या देव्यस्तीर्थकृन्मातुःशृङ्गारकृती, रुचकगिरिनिवासिन्यो विजया वैजयन्ता जयन्ता अपराजिता नन्दा नन्दोत्तरा आनन्दा नन्दिवर्धना चेत्यष्टौ पूर्णकुम्भाधाने, सुप्रतिष्ठा सुप्रणिधा सुप्रबोधा यशोधरा लक्ष्मीमती कीर्तिमती वसुंधरा चित्रा चेत्यष्टौ दर्पणधारणे, इला सुगा पृथ्वी पद्मावती काञ्चना नवमी सीता भद्रा चेत्यष्टौ गानेऽलम्बुषामित्रकेशी गुण्डरीकावारुणीदर्पणाश्रीह्रीधृतयश्चेत्यौ चामरधारणे, चित्राकाञ्चनचित्राशिरःसूत्रामाणयश्चेति चतस्रो दोपोज्ज्वालनेन, रुचकारुचकाशारुचकान्तिरुचकप्रभाश्चेति चतस्रश्तोर्थजातोत्सवकर्मणि रसवतीकरणे ताम्बूलदाने शय्यासनाधिकारे, अन्यनगनिवासिन्यः सुमाला-मालिनी-सुवर्णदेवी-सुवर्णचित्रा-पुष्पचूला-चूलावतीसुरा-त्रिशिरसादयो देव्यो यथानियोगं न्ययोजयत् । एवं सुखेन षण्मासेषु गतेषु मरुदेवी" पुष्पवती जसे, अनेकतीर्थोदककृतचतुर्थस्नाना स्वधा सुप्ता गजेन्द्रादिपोडशस्वप्नानपश्यत राज्ञो निरूपिते तेन तत्फले कथिते संतुष्टा सुखेन तस्थौ । आपाढकृष्णद्वितीयायां सोऽहमिन्द्रस्तदगर्भवतीणों देवाः संभय समागत्य गभोवतरणकल्याणं क्रत्वा स्वलोकंजम्मः अमरीकत इन्द्रने नाभिराज और मरुदेवी इन दोनोंको विभतिके साथ उस नगरके भीतर प्रतिष्ठित किया। साथ ही उसने उनके घरपर प्रतिदिन तीनों संध्याकालोंमें पंचाश्चर्य करने के लिये अपने यक्ष कुबेरको नियुक्त कर दिया। उसने पद्म और महापद्म आदि तालाबोंमें निवास करनेवाली श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी नामकी देवियोंको तीर्थंकरकी माता के शृङ्गारकार्यमें; रुचक पर्वतपर रहनेवाली विजया, वैजयन्ता, जयन्ता, अपराजिता, नन्दा, नन्दोत्तरा, आनन्दा और नन्दिवर्धना इन आठ देवियों को पूर्ण कलशके धारण करने में; सुप्रतिष्ठा, सुप्रणिधा, सुप्रबोधा, यशोधरा, लक्ष्मीमती, कीर्तिमती, वसुंधरा और चित्रा इन आठ देवियों को दर्पणके धारण करनेमें; इला, सुरा, पृथ्वी, पद्मावती, कांचना, नवमी, सीता और भद्रा इन आठ देवियों को गानों; अलंबुषा, मित्रकेशी, पुण्डरीका, वारुणी, दर्पणा, श्री, ही और धृति इन आठ देवियोंको चँवर धारण करनेमें; चित्रा, कांचनचित्रा, शिरःसूत्रा और माणि इन चार देवियों को दीपक जलाने में रुचका, रुचकाशा, रुचकान्ति और रुचकप्रभा इन चार देवियों को तीर्थकरका जन्मोत्सव कर्म करने, रसोई करने, पान देने एवं शय्या व आसनके अधिकारमें; तथा अन्य पर्वतोपर रहनेवाली सुमाला, मालिनी, सुवर्णदेवी, सुवर्णचित्रा, पुष्पचूला, चूलावती, सुरा और त्रिशिरसा आदि देवियों को भी नियोगके अनुसार कार्यों में नियुक्त किया । इस प्रकार सुखपूर्वक छह महिनोंके बीत जानेपर मरुदेवी पुष्पवती हुई। उस समय उसने अनेक तीर्थोके जलसे चतुर्थ स्नान किया। वह जब पतिके साथ शय्यापर सोयी हुई थी तब उसने हाथी आदि सोलह स्वप्नोंको देखा । इनके फलके विषयमें उसने राजासे पूछा । तदनुसार नाभिराजने उसके लिये उन स्वप्नों का फल बतलाया, जिसे सुनकर वह बहुत सन्तुष्ट हुई। इस प्रकार सुखसे स्थित होनेपर आषाढ़ कृष्णा द्वितीयाके दिन वह अहमिन्द्र देव उसके गर्भ में अवतीर्ण हुआ। तब देवोंने
१. ब विजय। २. फ ब वर्धनाश्चेत्यष्टौ। ३. व 'प्रबोधा' नास्ति। ४. ब लक्ष्मीमती वसुंधरा कीर्तिमती वसुंधरो चित्रा। ५. फ चित्राश्चेत्यष्टौ। ६.फ भद्राश्चेत्यष्टौ। ७. बचियात्रिशिर:स्तत्रामानयश्चेति । ८. ज प श सह्यासना । ९. प फ श अन्धनाग” व अन्यानग। १०.फ श न्ययोजयन ।
११. ज प श मरुद्देवी। १२. ब ययुः ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
६–२, ४३]
६. दानफलम् २
२६५
शुश्रूषया सुखेन नवमासावसाने चैत्रकृष्णनवम्यां त्रिलोकगुरुमसूत मरुदेवो' । तदैव सौधर्मादयः स्ववाहनाधिरूढाः समागुः, तदम्बिकाग्रे मायाशिशुं कृत्वा तं कुमारं सुराद्रौ - मेरो पाण्डुकवने ईशान कोणस्थपाण्डुकशिलायां निन्युः । तं तत्रोपवेश्याष्ट्रयोजनोत्सेधैरनेक कोटी घटैः सौधर्म - ईशानी क्षीराब्धिक्षीरेण जन्माभिषवं चक्रतुः । अनन्तरं विभूष्यानीय मातापित्रोः समयं तदग्रे शक्रो ननति (?) स्म । ततो वृषो धर्मस्तेन भातीति तं वृषभनामानं कृत्वा देवाः स्वर्लोकं जग्मुः । स वृषभनाथो निःस्वेदत्व-निर्मलत्व- शुभ्ररुधिरत्व-प्रथम संहननत्व-प्रथमसंस्थानत्व-सुरूपत्व-सुगन्धत्य--सुलक्षणत्वानन्तवीर्यत्व-प्रियहितवादित्वा स्य सहजदशातिशय
तस्त्रिज्ञानधारी ववृधे ।
एकदा नाभिराजो ग्रासाभावादुपक्षीणशक्तिकाः प्रजा गृहीत्वागत्य तं नत्वा विज्ञप्तवान्हे नाथ, यथा प्रजानां ग्रासो भवति तथा कुर्विति । ततो देवः स्वयंभूतपुण्ड्रेक्षुदण्डान् यन्त्रेण निपीड्य रसपानोपायं कथितवान् । तथा कृते संतृप्ताभिः प्रजाभिरागत्य तस्य प्रणम्योक्तं देव,
आकर गर्भकल्याणका महोत्सव किया । तत्पश्चात् वे वापिस स्वर्गलोक चले गये । मरुदेवी उन देवियों के द्वारा की जानेवाली सेवाके साथ नौ मास सुखपूर्वक रही । अन्तमें चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उसने तीन लोकके प्रभु भगवान् आदिनाथको उत्पन्न किया । इसको जानकर सौधर्म इन्द्र आदि अपने अपने वाहनों पर चढ़कर उसी समय अयोध्या नगरीमें आ पहुँचे। वे देवेन्द्र भगवान् की माताके आगे मायामयी बालकको करके तीर्थंकर कुमारकों मेरुपर्वतके ऊपर स्थित पाण्डुकवन के भीतर ईशान कोणस्थ पाण्डुक शिला के ऊपर ले गये । उसके ऊपर भगवान्को विराजमान करके सौधर्म और ईशान इन्द्र क्षीरसमुद्र के दूधसे आठ योजन ऊँचे अनेक करोड़ कलशों के द्वारा जन्माभिषेक किया। तत्पश्चात् तीर्थंकर कुमार को वस्त्राभूषणोंसे विभूषित करके सौधर्म इन्द्रने माता पिता को समर्पित किया और वह उनके आगे नृत्य करने लगा । वे भगवान् चूँकि वृष (धर्म) से शोभायमान थे, इसीलिये उनका नाम वृषभ रखकर वे सब देव स्वर्गलोकको चले गये। वे वृषभनाथ भगवान् निःस्वेदत्व ( पसीना न आना ), निर्मलता, शुभ्ररुधिरत्व (रक्तकी धवलता), वज्रर्षभनाराचसंहनन, समचतुरस्र संस्थान, सुरूपता ( अनुपम रूप ), सुगन्धित शरीर, सुलक्षणत्व ( एक हजार आठ उत्तम लक्षणों का धारण करना ), अनन्तवीर्यता ( शारीरिक बलकी असाधारणता ) और हित मित मधुर भाषण; इन स्वाभाविक दस अतिशयोंको जन्मसे ही धारण करते थे । साथ ही वे मति, श्रुत और अवधि इन तीन ज्ञानों को भी जन्मसे ही धारण करते थे । वे क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुए ।
एक दिन भूख से व्याकुल दुर्बल प्रजाजन नाभिराजके पास आये। तब नाभिराज उन सबको लेकर भगवान् वृषभनाथके,पास पहुँचे । उनने नमस्कारपूर्वक भगवान् से प्रार्थना की कि हे नाथ ! जिस प्रकारसे प्रजाजनोंकी भूख आदिकी बाधा दूर हो, ऐसा कोई उपाय बतलाइये । तब वृषभदेवने उन्हें भूख की बाधाको नष्ट करने के लिए यह उपाय बतलाया कि गन्ना और ईखके दण्ड जो स्वयमेव उत्पन्न हुए हैं उनको कोल्हू में पेलकर रस निकालो और उसका पान करो । तदनुसार प्रवृत्ति करने पर प्रजाको बहुत सन्तोष हुआ । तब प्रजाजनोंने आकर प्रणाम करते हुए भगवान् से कहा कि आपका वंश
१. शमरुदेवी । ९. फश मायामयी शिशुं । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सुरेन्द्रः । ४. श तत्रोपविश्याष्ट। ५. ब शक्रे नर्नाति स्म ।
I
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६ पुण्यानवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : त्वदीयो वंश इक्ष्वाकुवंशो भवत्विति । तथा भवत्विति स्वाम्यभ्युपजगाम । स सुवर्णवर्णो वृषभध्वजलाञ्छितः पञ्चशतदण्डोन्नतश्चतुरशीति लक्षपूर्वायर्यावत् सुखमास्ते तावत्तद्यौवनामभिवीय शकादिभिर्विशनो देव, स्वस्य विवाहोऽभ्युपगन्तव्यः। स्वामी चारित्रमोहोदयेनाभ्यपजगाम । ततः कच्छ-महाकच्छतनुजाभ्यां यशस्वती-सुनन्दाभ्यां विवाहं स्थापितः । ततस्ताभ्यां सुखेन तस्थौ । यो निधिरक्षको व्याघ्रो दिवाकरप्रभदेवो मतिवरोऽधोग्रैवेयकजो बाहुः सर्वार्थसिद्धिजः स प्रागत्य यशस्वत्या भरतनामा पुत्रो जातः । मन्त्री आर्यः कनकप्रभदेवः मानन्दो प्रैवेयकजः पोठः सर्वार्थसिद्धिजो भरतानुजो वृषभसेनोऽभूत् । यः पुरोहित आयः प्रभञ्जनदेवो धनमित्रोऽधोवेयकजः महापोठः सर्वार्थसिद्धिजो वृषभसेनानुजोऽनन्तवीर्योsजनि । यो व्याघ्रो भोगभूमिजश्चित्राङ्गददेवो वरदत्तोऽच्युत कल्पजो विजयः सर्वार्थसिद्धिज सोऽपि भरतानुजोऽनन्तोऽभूत् । यो वराह आर्यो मणिकुण्डलदेवो वरसेनोऽच्युतस्वर्गजो वैजयन्तः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि भरतानुजोऽच्युतोऽजनि । यो मर्कटचरार्यो मनोहरदेवश्चित्राङ्गदोऽच्युतस्वर्गजो जयन्तः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि तदनुजो वीरो बभूव । यो नकुलार्यो मनोरथदेवः शान्तमदनाच्युतकल्पजोऽपराजितः सर्वार्थसिद्धिजः सोऽपि तदनुजः सुवीरों 'इक्ष्वाकु' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध हो । इस बातको भगवान्ने 'तथा भवतु' कहकर स्वीकार कर लिया । भगवान्का वर्ण सुवर्ण जैसा था। उनका चिह्न बैलका था। वे पाँच सौ धनुष ऊँचे और चौरासी लाख वर्ष पूर्व प्रमाण आयुके धारक थे। इस प्रकार वे भगवान् सुखपूर्वक स्थित थे । इस बीचमें उनकी यौवन अवस्थाको देखकर इन्द्रादिकोंने प्रार्थना की कि हे देव ! अपना विवाह स्वीकार कोजिये । इसपर भगवान्ने चारित्रमोहके वशीभूत होकर उसे स्वीकार कर लिया। तब कच्छ और महाकच्छ राजाओंकी यशस्वती और सुनन्दा नामकी पुत्रियोंके साथ उनका विवाह करा दिया। वे उन दोनोंके साथ सुखसे काल व्यतीत करने लगे। खजानेका रक्षक जो अतिगृद्ध राजाका जीव व्याघ्र हुआ और फिर क्रमशः दिवाकरप्रभ देव, मतिवर मन्त्री, अधोग्रैवेयकका अहमिन्द्र, बाहु ( वज्रनाभिका अनुज ) व सर्वार्थसिद्ध में अहमिन्द्र हुआ था वह आकर यशस्वतीके भरत नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा प्रीतिवर्धनके मन्त्रीका जीव जो क्रमसे आर्य ( भोगभूमिज ), कनकप्रभ देव, आनन्द पुरोहित, ग्रैवेयकका अहमिन्द्र, पीठ और फिर सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ था वह भरतका लघुभ्राता वृषभसेन हुआ । जो पुरोहितका जीव आर्य, प्रभंजन देव, धनमित्र, अधोग्रैवेयकका अहमिन्द्र, महापीठ और सर्वार्थ सिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह वृषभसेनका लघुभ्राता अनन्तवीर्य हुआ। जो व्याघ्रका जीव भोगभूमिज, चित्रांगद देव, वरदत्त, अच्युत कल्पका देव, विजय और सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता अनन्त हुआ। जो शूकरका जीव आर्य, मणिकुण्डल देव, वरसेन, अच्युत कल्पका देव, वैजयन्त और सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता अच्युत हुआ। जो बन्दरका जीव आर्य, मनोहर देव, चित्रांगद, अच्युत स्वर्गका देव, जयन्त और सर्वासिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी उसका लघुभ्राता वीर हुआ। जो नेवलाका जीव भोगभूमिमें आर्य, मनोरथ देव, शान्तमदन, अच्युत कल्पमें देव, अपराजितका देव और अन्तमें सर्वार्थसिद्धिका
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श तावत्तद्योवन । २. ब मवीक्ष्य । ३. ब अतोऽग्रेऽग्रिम 'सोऽपि तदनुजः' पर्यन्त: पाठ. स्खलितोऽस्ति । ४. श कल्पयोऽपराजितः । ५. श वीरो ब सुवरो।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
६–२, ४३ ]
६. दानफलम् २
जातः । इत्यादिभरतानुजा नवनवतिकुमारा जज्ञिरे । ततो ब्राह्मी कुमारी च । यः सेनापतिरार्यः प्रभाकर देवोऽकम्पनोऽधोग्रैवेयकजः सुबाहुः सर्वार्थसिद्धिः सोऽवतीय नन्दानन्दनो बाहुबली जज्ञे' । पूर्व वज्रजङ्घानुजा पुण्डरीकस्य माता सा उभयगति सुखमनुभूय बाहुबलनोऽनुजा सुन्दरी वभूव । एवमेकोत्तरशतपुत्रा द्वे पुत्र्यौ वृषभस्य जाते ।
एकदा पुत्र्यावुभयपार्श्वयोरुपवेश्यैकस्या दक्षिणपाणिना प्रकारादिवर्णान् श्रपरस्या वामहस्तेनैकं दहमित्याद्यङ्कांचं दर्शितवान् । भरतादीन् सर्वकलाकुशलान् कृत्वा सुखेनातिष्ठत् । पुनरेकदा नाभिराजः प्रजा गृहीत्वा विशप्तवान् -- देव, इक्षुरसपानेन बुभुक्षा न याति स्वामिन्नपरोपायं कथय । ततः स्वामी अष्टादशकोटी कोटी सागरोपमकालं नष्टं कर्मभूमिवर्तनां ग्रामादिरूपां क्षत्रियादिवर्णरूपां सस्यादिजीवनोपायरूपां दर्शितवांश्च । तदा 'स्वामिना क्रियते स्म' इति कृतयुगमुच्यते इति सकलसृष्टौ कृतायां विंशतिलक्षपूर्वकुमारकालेऽतिक्रान्ते शक्रादिभिः संभूयाषाढकृष्णप्रतिपदि तस्य राज्यपट्टो बद्धः । स च सोमप्रभास्य क्षत्रियकुमाराय राज्याभिषेक कृत्वा राज्यपट्टे बबन्ध ते वंशः कुरुवंशो भवत्विति हस्तिनापुरं ददौ । अकम्पदेव हुआ था वह भी भरतका लघुभ्राता सुवीर हुआ । इनको आदि लेकर निन्यानवे लघुभ्राता हुए। इसके पश्चात् भगवान् ऋषभदेवके ब्राह्मी नामकी पुत्री भी उत्पन्न हुई । जो सेनापतिका जीव भोगभूमिका आर्य, प्रभाकर देव, अकम्पन, अधोग्रैवेयकका देव, सुबाहु और फिर सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र हुआ था वह भी वहाँ से च्युत होकर नन्दा रानीका पुत्र बाहुबली उत्पन्न हुआ । पूर्वमें वज्रजंघकी छोटी बहिन जो पुण्डरीककी माता थी वह दोनों गतियों के सुखको भोगकर बाहुबलीकी सुन्दरी नामकी छोटी बहिन उत्पन्न हुई । इस प्रकार वृषभनाथ के एक सौ एक पुत्र और दो पुत्रियाँ उत्पन्न हुई ।
एक समय भगवान् वृषभदेवने उन दोनों पुत्रियों को अपने दोनों ओर बैठाकर उनमें से एक के लिए दाहिने हाथ से लिखकर अकारादि वर्णोंको तथा दूसरीके लिए बायें हाथ से लिखकर इकाई और दहाई आदि अंकोंको दिखलाया । साथ ही उन्होंने भरत आदि पुत्रों को भी समस्त कलाओं में निपुण कर दिया । इस प्रकार वे भगवान् सुखसे स्थित हुए ।
फिर किसी एक समय नाभिराज प्रजाको साथ लेकर भगवान् ऋषभदेव के पास आये । उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की कि हे देव ! केवल ईखके रससे भूखकी पीड़ा शान्त नहीं होती है। अतएव हे स्वामिन् ! उक्त पीड़ाको शान्त करनेके लिए दूसरा भी कोई उपाय बतलाइये । इसपर ऋषभदेवने जिस कर्मभूमि व्यवस्था के नष्ट होनेके पश्चात् अठारह कोड़ा कोड़ि सागरोपम काल बीत चुका था उसकी प्रवृत्तिको बतलाते हुए ग्राम-नगर आदिकी रचना; क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णों की व्यवस्था, तथा जीवनके साधनभूत धान्य आदिकी उत्पत्तिका भी उपदेश दिया । उस समय ऋषभदेवने चूँकि युग (सृष्टि) की रचनाका उपदेश किया था, इसीलिए वे 'कृतयुग' अर्थात् युगके प्रवर्तक कहे जाते हैं । इस प्रकार समस्त सृष्टिकी रचना में उनका बीस लाख पूर्व प्रमाण कुमारकाल बीत चुका था । उस समय इन्द्रादिकोंने एकत्रित होकर आषाढ़ कृष्णा प्रतिपदा के दिन उन्हें राज्यपट्ट बाँधा था । तब उन्होंने सोमप्रभ नामक क्षत्रियकुमारके लिए राज्याभिषेक करके राज्यपट्टको बाँधा तथा 'तुम्हारा वंश कुरुवंश हो' यह कहते हुए उसे हस्तिनापुर दिया इसके साथ १. फश जज्ञिरे । २. श रूपवेश्येकस्या । ३. शमित्याद्यकं च । ४ ज अष्टादशकोटीसा । ५. श राज्यपदं । ६: ज प बबन्धः । ७. फ हस्तिनागपुरं ।
२६७
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : नाय राज्यपर्ट बद्ध्वा त्वद्वंश उग्रवंशो भवत्विति वाणारसी [वाराणसी दत्तवानित्यादिराजवंशांश्चकार, हा मा-धिक-नीत्या प्रजाः शिक्षयंस्त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि राज्यं कुर्वन् स्थितः ।
___ एकदा शकस्तद्वैराग्योत्पादनायान्तर्मुहूर्तावशेषायुषं स्वनर्तकी नीलंजसा तदने नर्तयति स्म । नृत्यरङ्ग एवादृशीभूतायास्तस्या मृतिमवगम्यातिवैराग्यं जगाम । लौकान्तिकसुराः समागत्य देव, समीचीनं कृतमिति बभणुः । स्वामी भरताय अयोध्यापुरम्, बाहुबलिने पौदनपुरमदत्त, वृषभसेनाय पुरिमतालपुरमुद्वृत्तकुमारेभ्यः काश्मीरदेशं दत्त्वा मङ्गलमजनानन्तरं मङ्गलभूषणालंकृतो भूत्वा सुरनिर्मितां सुदर्शनशिबिकामारुह्य भूचरादितदुद्धरणक्रमेण गत्वा सुरनिर्मितं मण्डपं प्रविश्य षण्मासोपवासप्रत्याख्यानपूर्वकं पूर्वाभिमुखमुपविश्य कच्छादिचतुःसहस्रः क्षत्रियैः 'नमः सिद्धेभ्यः' इत्युक्त्वा पञ्चमुष्टिभिः स्वकुन्तलानुत्पाटन्य चैत्र कृष्णनवम्यां निर्ग्रन्थो भूत्वा षण्मासान् प्रतिमायोगेन तस्थौ। तन्निष्क्रमणभूः प्रयागाख्यं तीर्थमभूत् । देवाः परिनिष्क्रमणकल्याणपूजां विधाय तत्केशान् क्षीरसमुद्र निक्षिप्य स्वर्लोकं ययुः । नाथः षण्मासप्रतिमायोगेनास्थात् । मासद्वयानन्तरं कच्छादयो जलं पातुं फलादिक
ही उन्होंने अकम्पनके लिए राज्यपट्ट बाँधकर 'तुम्हारा वंश उग्रवंश हो' यह कहते हुए उसे वाराणसीको दे दिया। उन्होंने 'हा-मा और धिक' की नीतिसे प्रजाको शिक्षा देते हुए तिरेसठ लाख पूर्व तक राज्य किया।
एक समय इन्द्रने भगवान्को विरक्त करनेके लिए अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष आयुवाली अपनी नीलंजसा नामकी नर्तकीको उनके आगे नृत्य करनेके लिए नियुक्त किया। वह नृत्य करते करते रंगभूमिमें ही अदृश्य हो गई। इस प्रकार उसके मरणको जानकर वे भगवान् अतिशय विरक्त हुए । उस समय लौकान्तिक देवोंने आकर उनके वैराग्यकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे देव ! आपने यह बहुत ही उत्तम कार्य किया है। तब ऋषभदेवने भरतके लिए अयोध्यापुर, बाहुबलीके लिए पौदनपुर, वृषभसेनके लिए पुरिमतालपुर और शेष कुमारोंके लिए काश्मीर देश दिया। फिर वे मंगलस्नानके पश्चात् मंगलभूषणोंसे अलंकृत होकर देवोंके द्वारा रची गई सुदर्शन नामकी पालकीपर आरूढ हुए । उस पालकीको यथाक्रमसे भूमिगोचरी आदि ( विद्याधर और देव) ले गये । इस प्रकार जाकर वे भगवान् देवनिर्मित मण्डपके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ वे पूर्वाभिमुख स्थित होकर व छह महिनेके उपवासका नियम लेकर चैत्र कृष्णा नवमीके दिन 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहते हुए निर्ग्रन्थ ( समस्त परिग्रहसे रहित दिगम्बर ) हो गये- उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली । उनके साथ कच्छादिक अन्य चार हजार क्षत्रियोंने भी जिनदीक्षा ले ली। दीक्षा लेते समय उन्होंने पाँच मुष्टियोंसे अपने बालोंका लोच किया व प्रतिमायोगसे स्थित हो गये। इस प्रकार वे छह महीने तक प्रतिमायोगसे स्थित रहे । उनका वह दीक्षास्थान 'प्रयाग' तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस समय समस्त देवोंने आकर उनके दीक्षाकल्याणककी पूजा की। पश्चात् वे सब देव उनके बालों को क्षीरसमुद्र में प्रवाहित करके स्वर्गलोकको वापिस चले गये । भगवान् तो छह महिने तक बरावर प्रतिमायोगसे स्थित रहे । किन्तु कच्छादिक राजा दो महिने के पश्चात् प्यास
१. श पटं । २. श नृत्य एव रंग । ३. श पुरिमत्तार । ४. ज मुवत फ मुद्धृत ब मुद्धृत ।
५. ब सुकुंतलान् उत्पाटय श स्वकुलंतनुस्पाटय । ६. ब -प्रतिपाठोऽयम् । श प्र गाख्यं ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६–४, ४३ ]
६. दानफलम् २
खादितुं लग्नाः । वनदेवताभिर्निवारितास्ततो भौतिकादिनानावेषधारिणो जज्ञिरे ।
ततः कियद्दिनेषु कच्छ महाकच्छात्मजो नमि-विनमी तत्पादयोर्लग्नौ ' नाथावाभ्यां कमपि देशं देहि' इति । तदा तदुपसर्गनिवारणार्थमागत्य धरणेन्द्रस्तयोर्वभाण - -नाथो युवाभ्यां विजयार्ध राज्यं दापितवान् श्रागच्छतं मया तत्रेति तत्र नीत्वा तौ राजानौ चकार इति । स्वामी प्रतिज्ञावसाने हस्तावुद्धृत्य यं नगरादिकं चर्यार्थ प्रविशति तत्पतयः कन्यादिकं ददति स्म, न च विधिना ग्रासम् । भरतराजोऽपि गत्वा तत्पादयोः पपात वभाण च - स्वामिन्, किमित्येवं तिष्ठसि स्वपुरमागत्य पूर्ववद्राज्यं कुरु । तदा तन्मौनमालोक्य भरतोऽपि विषण्णचित्तः स्वपुरमितः । नाथः पण्मासालाभे सति वैशाखशुक्ल द्वितीयायाम् अपराह्न हस्तिनापुरवहिरुद्याने प्रतिमायोगेन स्थितः । तद्रात्रिपश्चिमयामे सोमप्रभभ्राता श्रेयान् कल्पतरुस्वगृहप्रवेशादिनाना शुभ स्वप्नानपश्यत् । सोमप्रभाय निरूपिते सोऽवोचत् कोऽपि महात्मा ते गृह प्रविश्यति । ततस्तृतीयायां मध्याह्न जनाश्चर्यमुत्पादयन् चर्यार्थ राजभवन संमुखमागच्छन्तं विलोक्य सिद्धार्थद्वारपालकः सोमप्रभायाकथयत् 'स्वामी आगच्छन्नास्ते इति श्रुत्वा सोमप्रभश्रेयांसौ संमुखमागतौ । तं वीक्ष्य पूर्वभवस्मरणवशेन तन्मार्ग परिज्ञाय श्रेयान् स्थापयामास ।
२६९
और भूखसे पीड़ित होकर जल पीने और फल आदिक खानेमें संलग्न हो गये । यह देखकर वनदेवताओं ने उन्हें दिगम्बर वेषमें स्थित रहकर उसके प्रतिकूल आचरण ( फलादिभक्षण ) करने से रोक दिया । तब वे भौतिक आदि अनेक वेषोंके धारक हो गये ।
तत्पश्चात् कुछ दिनों में कच्छ और महाकच्छके पुत्र नमि और विनमिने आकर भगवान् के चरणोंमें प्रणाम करते हुए प्रार्थना की कि हे स्वामिन्! हम दोनों को कोई भी देश प्रदान कीजिए । तब उनके इस उपसर्गको दूर करनेके लिए वहाँ घरणेन्द्र आया । उसने उन दोनों कुमारोंसे कहा कि स्वामीने तुम दोनोंके लिए विजयार्धका राज्य दिया है, तुम मेरे साथ वहाँ चलो । इस प्रकार उन दोनोंको वहाँ ले जाकर उसने उन्हें राजा बना दिया । प्रतिज्ञा के अन्तमें भगवान् हाथों को उठाकर आहारके लिए जिस नगर आदि में प्रविष्ट होते उनके अधिपति उन्हें कन्या आदि देने को उद्यत होते, परन्तु विधिपूर्वक भोजन कोई नहीं देता था । राजा भरत भी गया और उनके चरणों में गिरकर बोला कि हे स्वामिन् ! आप इस प्रकार से क्यों स्थित हैं, अपने नगर में आकर पहिलेके समान राज्य कीजिए | परन्तु जब भगवान् ने कुछ उत्तर नहीं दिया तब उनके मौनको देखकर उसे बहुत खेद हुआ । अन्तमें वह अपने नगर में वापिस चला गया । इस प्रकार वे भगवान् आहार के लिए छह महिने तक घूमे । परन्तु उन्हें विधिपूर्वक वह प्राप्त नहीं हुआ । तत्पश्चात् वे वैशाख शुक्ला द्वितीया के दिन अपराह्न काल में हस्तिनापुर नगर के बाहरी उद्यानमें प्रतिमायोग से स्थित हुए । उसी दिन रात्रिके पिछले प्रहरमें सोमप्रभ राजाके भाई श्रेयांसने अपने घर में कल्पवृक्ष के प्रवेश आदि रूप अनेक शुभ स्वप्न देखे । तत्पश्चात् उसने इन स्वप्नोंका वृत्तान्त सोमप्रभसे कहा । उत्तर में सोमप्रभ ने कहा कि तुम्हारे घरमें कोई महात्मा प्रवेश करेगा । पश्चात् तृतीया के दिन मध्याह्न कालमें वे भगवान् लोगोंको आश्चर्यान्वित करते हुए आहार के लिए राजभवन के सम्मुख आये । उन्हें देखकर सिद्धार्थ द्वारपालने सोमप्रभसे कहा कि हे राजन् ! ऋषभदेव स्वामी राजभवन की ओर आ रहे हैं । यह सुनकर सोमप्रभ और श्रेयांस दोनों भाई भगवान् के संमुख आये। उन्हें देखते ही श्रेयांसको
१. श आगच्छं । २. फ अपराहे । ३. फ हस्तिनागपुर । ४. व प्रवेक्ष्यति । ५. श संमुखमास्ते ।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
gurraasथाको शम्
[ ६-२, ४३ :
ततो नवविधपुण्य- सप्तगुणयुक्तो भूत्वा 'पुरुपरमेश्वरायाहारदानमदत्त | नाथोऽञ्जलित्रय मिक्षुरसं गृहीत्वा क्षयदानमभणत्, तदा पञ्चाश्चर्याणि जातानि । सा तृतीया अक्षयतृतीया जाता । श्रीवृषभनाथः श्रेयसा चर्या कारित इति भरतः श्रुत्वा संतोषेण श्रेयसः समीपं जगाम । ताभ्यां पुरं राजभवनं च प्रवेशितः सिंहासने उपवेशितः । तदनु भरतोऽप्राक्षोत् कथं त्वया स्वामिनश्चित्तं विबुद्धम् | श्रेयानाह - श्रतः पूर्वमष्टमभवे स्वामी वज्रजङ्घो नाम राजाभूदहं तदा तस्य श्रीमती नाम देवी । तदावाभ्यां सर्पसरोवरतटे चारणयुगलाय दानं दत्तम् । तत्फलेन स राजा भोगभूमिजः श्रीधरदेवः सुविधिनरेन्द्रोऽच्युतो वज्रनाभिश्चक्री, सर्वार्थसिद्धजः, इदानीं वृषभनाथोऽजनि । श्रीमती आर्या, स्वयंप्रभदेवः, केशवः प्रतीन्द्रो धनदेवः सर्वार्थसिद्धिजः, इदानोमहं श्रेयान् जातो मुनिस्वरूपदर्शनेन जातिस्मरोऽभूवमिति तन्मार्ग बुद्धवानिति कथिते भरतः संतुष्टः तं प्रशंस्य कतिपयदिनैः स्वपुरमागतः ।
इतो वृषभनाथो वर्षसहस्रं तपश्चरणं चकार । पुरिमतालपुरोधाने वटवृक्षतले ध्यानविशेषेण घातिकर्मक्षयेण फाल्गुनकृष्णैकादश्यां कैवल्योऽभूत् । तदां स्फाटिकमहोधरोद्भूत.
1
जातिस्मरण हो गया । इससे उसने आहारकी विधिको जानकर भगवान्का पड़िगाहन किया । तत्पश्चात् उसने दाताके सात गुणोंसे संयुक्त होकर आदिनाथ भगवान्को नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया । भगवान्ने तीन अंजुलि प्रमाण ईखके रसको लेकर इस दानको अक्षयदान बतलाया । उस समय श्रेयांसके घरपर पंचाश्चर्य हुए। तबसे वह तृतीया अक्षयतृतीया के नामसे प्रसिद्ध हुई । श्रेयांसने श्री ऋषभदेवको आहार कराया है, यह जानकर भरतको बहुत सन्तोष हुआ । इससे वह श्रेयांसके समीप गया । तब सोमप्रभ और श्रेयांस दोनोंने उसे नगरमें ले जाकर राजभवन के भीतर प्रविष्ट कराते हुए सिंहासनपर बैठाया । उस समय भरतने श्रेयांससे पूछा कि तुमने भगवान् के अभिप्रायको कैसे जाना ? श्रेयांस बोला - इस भवसे पहिले आठवें भवमें भगवान् वज्र जंघ नामके राजा और मैं उनकी श्रीमती नामकी पत्नी था । उस भवमें हम दोनोंने सर्पसरोवरके किनारे दो चारण मुनियोंके लिए आहार दिया था । उससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभाव से वह राजा क्रमसे भोगभूमिका आर्य, श्रीधर देव, सुविधि राजा, अच्युत इन्द्र, वज्रनाभि चक्रवर्ती, सर्वार्थसिद्धिका अहमिन्द्र और इस समय ऋषभनाथ हुआ है। तथा वह श्रीमतीका जीव क्रमसे आर्या, स्वयंप्रभ देव, सुविधिका पुत्र केशव, अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र, धनदेव, सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र और फिर वहाँ से च्युत होकर इस समय मैं श्रेयांस राजा हुआ हूँ । मुझे मुनिके स्वरूपको देखकर जातिस्मरण हो गया था । इससे मैंने श्रीमतीके भवमें दिए गये आहारदानका स्मरण हो जानेसे उसकी विधिको जान लिया था । इस वृत्तान्तको सुनकर भरतको बहुत सन्तोष हुआ । तब उसने श्रेयांस की बहुत प्रशंसा की । फिर वह कुछ दिनों में अपने नगर में वापिस आ गया ।
यहाँ वृषभनाथने एक हजार वर्ष तक तपश्चरण किया । पश्चात् जब वे पुरिमतालपुर के उद्यान में वट वृक्ष के नीचे ध्यानविशेष (शुक्ल ध्यान) में स्थित थे तब उन्हें घातिया कर्मोंके क्षीण हो जाने से फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त हो गया । उस समय वे भगवान् स्फटिक मणिमय
१. श गुणभूत्वा गुरुपरमे । २. फप्रावेशित: । ३. श ' केशवः' नास्ति । ४. व तन्मार्गमबुद्ध इति । ५. ज कैवल्यंऽभूत्तदा व केवलाभूत्तदा ।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
६.दानफलम् २
: ६-२, ४३ ]
२७१ कोटयादित्यबिम्बवद्विस्फुरायमानशरीरः'पञ्चसहस्रधनुराकाशे स्थितः। धनद आसनकम्पनेन विबुध्यागत्यैकादशभूमिकोपेतं तत्समवसरणं चकार। काश्च ता भूमिका इति उल्लेखमात्रेण कथयामि । क्षितेः पञ्चसहस्रदण्डान्तराले चतुर्दिशासु प्रत्येकं विंशतिसहस्रसोपानयुक्तां सद्वृत्तां हरिनीलशिलां चकार । तस्या उपरि सर्वरत्नमयचतुर्गोपुरयुक्तः शालोऽस्थात् । तदन्तभूमौ पञ्च-पञ्चप्रासादान्तरिता जिनालयास्तस्थुः । ततः सुवर्णमयी चतुर्गोपुरयुता वेदी स्थिता । ततोऽन्तर्जलखातिकास्थात् । ततोऽपि तथा हैमी वेदिका, ततोऽन्तर्वल्लीवनम् , ततोऽन्तस्तथा तपनीयशालस्ततोऽन्तरुपवनम्, ततोऽन्तःसुवर्णमयो वेदो,ततोऽन्तर्ध्वजास्ततोऽन्तो रजतमयशालस्ततोऽन्तःसुरद्रुमास्ततोऽन्तहैं मो वेदी ततोऽन्तर्भवनानि, ततोऽन्तर्विहायःस्फाटिकस्य शालः, ततोऽन्तर्वादशकोष्ठकाः, ततोऽन्तर्विहायःस्फाटिकवेदी, ततोऽन्तः पीठत्रयम् तत उपरि सिंहासनत्रयम् , तस्योपरि केवली तञ्चतुरङ्गुलान्तरेणास्पृशन्नुपविशति, शालं प्रति वेदी प्रति दिशासु चत्वारि गोपुराणि,तानि प्रत्येकमष्टमङ्गल नवनिधि-शततोरणेयतानि भवन्ति । बाह्यशालस्थगोपुरं सुवर्णमयं ततः षड़ रूप्यमयानि । ततो रत्नमिश्रितरूप्यमये द्वे गोपुरे । बाह्यगोपुरत्रये ज्योतिष्काः द्वयोर्यक्षाः द्वयो गाः, द्वयोः कल्पवासिनस्तिष्ठन्ति । बाह्यगोपुरापर्वतके ऊपर उदित हुए करोड़ सूर्योंके बिम्बके समान तेजपुंजको धारण करनेवाले शरीरसे संयुक्त होकर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष ऊपर जाकर आकाशमें स्थित हुए। उस समय कुबेरका आसन कम्पित हुआ। इससे उसने भगवान्के केवलज्ञानकी उत्पत्तिको जानकर ग्यारह भूमियोंसे संयुक्त उनके समवसरणकी रचना की। वे ग्यारह भूमियाँ कौन-सी हैं, इसका यहाँ उल्लेख मात्र किया जाता है। उसने पृथिवीसे पाँच हजार धनुषके अन्तरालमें चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशामें बीस हजार सीढ़ियोंसे सहित एक गोल इन्द्रनीलमणिमय शिलाका निर्माण किया। उसके ऊपर चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त एक सर्वरत्नमय कोट था। उसके मध्यकी भूमिमें पाँच पाँच प्रासादोंसे व्यवहित जिनालय स्थित थे। उसके आगे चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त एक सुवर्णमयी वेदिका थी। उसके आगे जलसे परिपूर्ण खातिका स्थित थी। इसके आगे भी उसी प्रकारकी सुवर्णमय वेदिका, उसके आगे लतावन, उसके आगे एक वैसा ही सुवर्णमय कोट, उसके आगे उपवन, उसके आगे सुवर्णमयो वेदिका, उसके आगे ध्वजायें, उसके आगे चाँदीका कोट, उसके आगे कल्पवृक्ष, उसके आगे सुवर्णमयी वेदी, उसके आगे भवन, उसके आगे आकाशस्फटिकमणिका कोट, उसके आगे बारह कोठे और उसके आगे आकाशस्फटिकमणिमयी वेदी स्थित थी। इस वेदीके भीतर तीन पीठ व अन्तिम पीठके ऊपर तीन सिंहासन स्थित थे। सिंहासनके ऊपर चार अंगुलके अन्तरालसे उस सिंहासनको न छूते हुए केवली भगवान् विराजमान थे। प्रत्येक शाल और वेदीकी पूर्वादिक दिशाओंमें चार-चार गोपुरद्वार थे। उनमेंसे प्रत्येक गोपुरद्वार आठ मंगलद्रव्यों, नौ निधियों और सौ तोरणोंसे सहित थे। सबसे बाहिरके कोटमें स्थित गोपुरद्वार सुवर्णमय और इससे आगेके छह रजतमय थे । आगेके दो गोपुरद्वार रत्नोंसे मिश्रित चाँदीके थे। बाहिरी तीन गोपुरद्वारोंपर रक्षक स्वरूपसे ज्योतिप्क देव, आगेके दो गोपुरद्वारोंपर यक्ष, आगेके दो गोपुरद्वारोंपर नागकुमार देव और अन्तिम दो गोपुरद्वारोंपर कल्पवासी देव स्थित रहते हैं। बाह्य
१. शस्फुरायमानपञ्च । २. ब इत्युक्ते उल्लेख। ३. श कथयामीक्षते । ४. ज निधिशतोरण। ५. श मिश्रत । ६. श ज्योतिकादयो जक्षाः ।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
दन्तर्मार्ग 'मानस्तम्भोऽस्थात् । द्वितीय-तृतीयगोपुराभ्यां अन्तर्मार्गे खं स्थितम् । चतुर्थगोपुरादन्तर्मार्गस्य पार्श्वयोर्नृत्यशाले धूपघटाभ्यां युते स्थिते । ततः खम्, ततो यथोक्ते शाले, ततः स्तूपा नव, ततः खमिति । चतुर्दिशास्ववं ज्ञातव्यमन्यत्सर्वं समवसरणग्रन्थे बोद्धव्यमिति । परमेश्वरस्य चक्रेश्वरी यक्षी गोमुखो यक्षो बभूच |
गव्यूतिशतचतुष्टय सुभिक्षता गगनगमनमप्राणिवधता भुक्त्यभावता उपसर्गाभावता चतुरास्यता सर्वविद्येश्वरता अच्छायता' अपच्मकम्पता समप्रसिद्धनखकेशताश्चेति दशघातिक्षयजा अतिशयाः । सर्वार्धमागधीभाषा सर्वजनमैत्री सर्वर्तुकफलदाङघियुता समा मही तथा रत्नमयी च विहारानुकूलो मारुतः मरुत्कुमाराणां धूल्याद्युपशान्तिनयनं तडित्कुमाराणां गन्धोदकवर्षणं पुरः पृष्टतश्च पादन्यासे सप्तसप्तकमलकरणं पृथिव्या हर्षः जनमोदनं गगननिर्मलता सुराणां परम्पराह्नानं धर्मचक्रम् अष्टमङ्गलानीति चतुर्दश देवोपनीता अतिशयाः । देहजा दश, घातिक्षयजा दश, देवोपनीता चतुर्दश इति चतुस्त्रिंशदतिशयाः । सिंहासन छत्रत्रय
गोपुरद्वारके आगे मार्गके मध्य में मानस्तम्भ स्थित था। दूसरे और तीसरे गोपुरद्वारोंके आगे मार्ग के मध्य में केवल आकाश स्थित था- वहाँ अन्य कुछ नहीं था । चतुर्थ गोपुरद्वारके आगे मार्गके मध्य में दोनों ओर दो दो धूपघटोंसे संयुक्त दो नृत्यशालाएँ थीं । उनके आगे आकाश, उससे आगे पूर्वोक्त शालोंके समान दो शाल (कोट), आगे नौ स्तूप और फिर आगे केवल आकाश था । यह क्रम चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में जानना चाहिये । अन्य सब वर्णन समवसरणग्रन्थसे जानना चाहिये । भगवान् आदिनाथ के चक्रेश्वरी यक्षी और गोमुख नामका यक्ष था ।
१ चार सौ कोशके भीतर सुभिक्षता, २ आकाश में गमन ३ प्राणिहिंसाका अभाव, ४ भोजनका अभाव, ५ उपसर्गका अभाव, ६ चार मुखोंका होना, ७ समस्त विद्याओंका आधिपत्य, ८ शरीर की छाया का अभाव, पलकों का न झपकना और १० नख व केशों का समान रहना - उनकी वृद्धि न होना; ये दश अतिशय तीर्थंकर केवलीके घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होते हैं ।
१ सर्व अर्धमागधी भाषा, २ सब जनों में मित्रभाव, ३ वृक्षोंका सब ऋतुओं के फलफूलों से संयुक्त हो जाना, ४ पृथिवीका सम व रत्नमय होना, ५ विहारके अनुकूल वायुका संचार, ६ वायुकुमार देवों के द्वारा धूलि और कण्टक आदिका दूर करना, ७ विद्युत्कुमार देवोंके द्वारा गन्धोदकी वर्षा करना, ८ पादनिक्षेप करते समय आगे पीछे सात सात कमलोंका निर्माण करना, पृथिवीका हर्षित होना, १० जनोंका हर्षित होना, ११ आकाशका निर्मल हो जाना, १२ देवोंका एक दूसरेका बुलाना, १३ धर्मचक्र और १४ आठ मंगल द्रव्य; ये चौदह तीर्थंकर केवली के देवोपनीत अतिशय प्रगट होते हैं । इस प्रकार भगवान् आदिनाथके उस समय दस शारीरिक, दस घातिया कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुए और चौदह देवोपनीत; ऐसे चौंतीस अतिशय
१. प श अतोऽग्रे 'मानस्तम्भोऽस्यात् द्वितीयतृतीयगोपुराभ्यां अन्तर्मार्ग' इत्येतावानयं पाठः पुनरपि लिखतोऽस्ति । २. श यक्षा । ३. ब गमनताऽप्राणिवधता शगमनाप्राणिवधता । ४. ब अछायता श आछायता । ५. श सर्वार्थअर्द्ध । ६. धूल धूप ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २
२७३ दुन्दुभि-पुष्पवृष्टि चामर-प्रभावलय-भाषाशोकाख्याष्टभिः प्रातिहाथैर्युतो बभूव । देवाः समागत्य समय॑ यथास्वमुपविष्टाः। तत्पुरेशवृषभसेनो विभूत्यागत्य संसारभूधरवज्रपातं समभ्यर्च्य स्तुत्वा स्वतनयानन्तसेनाय राज्यं दत्त्वा प्रव्रज्य प्रथमगणधरोऽभूत्।।
__इतोऽयोध्यायां सामन्तादिवृतो भरत आस्थाने आसितस्त्रिभिः पुरुषैरागत्य विज्ञप्तः 'अनन्तसुन्दरी देवी पुत्रं प्रसूता, आयुधागारे चक्रं समुत्पन्नम् , अादिदेवो ज्ञानातिशयं प्राप्तः' इति । तत्र संतानवृद्धी राज्याभिवृद्धिश्च धर्मजनितेति विचार्य पुरन्दरलीलया वन्दितुं गतः, त्रिलोकेश्वरचूडामणि-विचित्ररत्नरश्मिविधृतेन्द्रचापश्री-श्रीपादद्वयमभ्यर्च्य स्तुत्वा गणधरादीनभिवन्द्य स्वकोष्ठे उपविष्टः। सोमप्रभ-श्रेयांसौ जयाय राज्यं दत्वा भरतानुजोऽनन्तवीर्योऽपि प्रव्रज्य गणधरा बभूवुः । ब्राह्मी-सुन्दर्यो कुमार्यावेव बहुनारीभिर्दीक्षिते आर्याणां मुख्ये जाते। भरतराजो दिव्यध्वनिश्रवणामृतरसास्वादसंतुष्ट आगत्य पुत्रजातकर्म चक्रपूजां च कृतवान् , सुमुहूर्ते विजयप्रयाणभेरोनादपूरिताखिलाशावदनः षडङ्गबलपदधातोत्थधूलीपटलप्रगट हुए थे। इसके अतिरिक्त वे भगवान् सिंहासन, तीन छत्र, दुन्दुभी, पुष्पवृष्टि, चामर, भामण्डल, दिव्यध्वनि और अशोक वृक्ष; इन आठ प्रातिहार्योंसे सहित हुए थे। उस समय सब प्रकारके देव आये और भगवान् की पूजा करके यथायोग्य स्थानपर बैठ गये । उस समय उस पुर (पुरिमतालपुर ) का स्वामी वृषभसेन विभूतिके साथ भगवान् वृषभदेवके समवसरणमें आया । उसने वहाँ संसाररूप पर्वतको नष्ट करने के लिये वज्रपातके समान उन जिनेन्द्रकी पूजा व स्तुति करके अपने अनन्तसेन नामक पुत्रके लिये राज्य दे दिया और स्वयं दीक्षा ले ली। वह आदिनाथ जिनेन्द्रका प्रथम गणधर हुआ।
इधर भरत अयोध्यापुरी में सामन्त आदिसे वेष्टित होकर सभाभवनमें बैठा हुआ था। उस समय तीन पुरुषोंने आकर महाराज भरतके लिये क्रमशः 'अनन्त सुन्दरी रानीके पुत्र उत्पन्न हुआ है, आयुधशालामें चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है, तथा आदिनाथ भगवान्को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है' ये तीन शुभ समाचार सुनाये । इसपर भरतने विचार किया कि सन्तानकी वृद्धि और राज्यकी वृद्धि धर्मके प्रभावसे हुई है। इसीलिये वह सर्वप्रथम इन्द्रके समान ठाट-वाटसे जिनेन्द्रकी वंदना करने के लिये गया। उसने समवसरणमें जाकर तीनों लोकोंके स्वामियोंके-इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तीके- चूड़ामणिके समान तथा अनेक प्रकारके रत्नोंकी किरणोंसे इन्द्रधनुषकी शोभाको उत्पन्न करनेवाले श्री आदिनाथ जिनेन्द्र के चरणोंकी पूजा और स्तुति की। फिर वह गणधरादिकोंकी वन्दना करके अपने कोठेमें बैठ गया।
राजा सोमप्रभ और श्रेयांस जयके लिये राज्य देकर दीक्षित हो गये। भरतके छोटे भाई अनन्तवीर्यने भी जिनदीक्षा ले ली । ये तीनों भी भगवान् आदिनाथके गणधर हुए। ब्राह्मी
और सुन्दरी नामकी दोनों पुत्रियाँ भी कुमारी अवस्थामें ही अन्य बहुत-सी स्त्रियों के साथ दीक्षित हो गयीं । वे दोनों आर्यिकाओंमें प्रमुख हुई।
महाराज भरत दिव्यध्वनिके सुननेरूप अमृत-रसके आस्वादनसे सन्तुष्ट होकर अयोध्या में वापिस आये । उस समय उन्होंने पुत्रजन्मका उत्सव मनाते हुए चक्ररत्नकी पूजा भी की। तत्पश्चात् उन्होंने शुभ मुहूर्तमें दिग्विजयके लिये प्रयाण करते हुए जो भेरीका शब्द कराया उससे १. फ स्वकोष्ठके । २. फ ब गणधरो। ३. श कुमारायवेव ।
Jain Education Inational
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
पटलितादित्यमण्डलो गत्वा गङ्गातीरे निवेशित शिबिरः स्थितः । स तत्तीरेण गत्वा गङ्गासागर संगमे श्रवासितः । ततः समुद्राभ्यन्तरावासिमागधद्वीपाधिप- मागधामरसाधनोपायः क इति सचिन्तो यावदास्ते तावत्पश्चिमरात्रियामे स्वप्नं दृष्टवान् । कथम् । रथमारुह्य सागरं प्रविशन् द्वादशयोजनानि गत्वा रथः स्थास्यति, ततस्तदावासं प्रति वाणं विसर्जयेति । प्रातस्तथा कृते स शरं नामाङ्कितमवलोक्य कृताक्षेपः मन्त्रिभिरुपशान्ति नीतः उपायनपुरस्वरमागत्य चक्रिणं दृष्टवान् । तेनापि भृत्यत्वं संग्राह्य प्रेषितः । ततो लवणोदध्युपसमुद्रयोमध्यस्थितोपवनेन पश्चिमं गत्वा वैजयन्तगोपुरं प्रविश्य वरतनुद्वीपाधिपं वरतनुं तथैव साधयित्वा ततः पश्चिमं गत्वा सिन्धुसागर संगमे विमुच्य प्रभासद्वोपाधिपं प्रभासं तथा साधयित्वा ततः सिन्धुतटीमाश्रित्योत्तरं गत्वा विजयार्धस्यानतिदूरे विमुच्य स्थितश्चक्री । कृतकमालविजयार्थी साधयित्वा सेनापतिः स्वबलं पश्चिमम्लेच्छखण्डं प्रतिस्थाप्य स्वयमश्वरत्नमारुह्य पश्चिमाभिमुखं कृत्वा दण्डरत्नेन तमिस्रगुहाद्वारमाताज्य कशयाश्वं प्रताडय पश्चिमम्लेच्छखण्डं गतः । इत उद्घाटिते द्वारे ततो महोप्माणो निर्गताः षण्मासैरुपशान्ति गताः । तदनु
२७४
संमस्त दिङ्मण्डल शब्दायमान हो उठा। तब गमन करती हुई छह प्रकारकी सेनाके पाँवोंके घातसे जो धूलिका पटल उठा था उससे सूर्यमण्डल भी ढक गया था। इस प्रकारसे गमन करते हुए उन भरत महाराजका कटक गंगा नदीके किनारे ठहर गया । पश्चात् वे उस गंगा के किनारे से गये व जहाँ वह समुद्र में गिरती है वहाँ पहुँचकर स्थित हो गये । वहाँपर उन्हें समुद्र के भीतर अवस्थित मागध द्वीपके स्वामी मागघ देवके जीतने की चिन्ता उत्पन्न हुई । वे इसके लिये कुछ उपाय खोज रहे थे । इस बीच रात्रिके पिछले पहर में उन्होंने स्वप्न में देखा कि कोई उनसे कह रहा है कि रथपर चढ़कर समुद्र के भीतर प्रवेश करो, वहाँ बारह योजन जानेपर रथ ठहर जावेगा, तब वहाँसे उस मागघ देवके निवासस्थानकी ओर बाणको छोड़ो। फिर प्रातः काल होने पर महाराज भरत पूर्वोक्त स्वप्न के अनुसार रथमें बैठकर बारह योजन समुद्र के भीतर गये और जहाँ वह अवस्थित हुआ वहींसे उन्होंने बाण छोड़ दिया । उस नामांकित बाणको देखकर मागध देवने क्रोधावेश में महाराज भरतकी निन्दा की । परन्तु मन्त्रियोंने समझा-बुझाकर उसे शान्त कर दिया । तब वह भेंट के साथ आकर चक्रवर्ती से मिला । चक्रवर्ती भरतने भी उसे सेवक बनाकर अपने स्थानको वापिस भेज दिया । तत्पश्चात् भरत चक्रवर्ती लवणसमुद्र और उपसमुद्रके मध्य में स्थित उपवनके सहारे पश्चिम की ओर जाकर वैजयन्त गोपुरद्वार के भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ से उन्होंने मागध देवके समान वरतनु द्वीपके स्वामी वरतनु देवको वश में किया । फिर वे पश्चिम की ओर जाकर सिन्धु नदी और समुद्रके संगमपर पड़ाव डालकर स्थित हुए । यहाँ से उन्होंने प्रभास द्वीपके स्वामी प्रभास देवको भी उसी प्रकारसे सिद्ध किया । तत्पश्चात् वे' सिन्धु नदीके सहारे चलकर उत्तरकी ओर गये और विजयार्धके पास पड़ाव डालकर स्थित हुए । उधर सेनापतिने कृतकमाल और विजयार्ध इन दो देवोंको जीतकर अपनी सेनाको पश्चिम म्लेच्छखण्डकी ओर भेजा और स्वयंने अश्वरत्नपर चढ़कर व उसके मुखको पश्चिमकी ओर करके दण्डर से तमिस्रगुफा के द्वारको ताड़ित किया । तत्पश्चात् वह शीघ्रतापूर्वक लगामसे घोड़े को ताड़ित कर पश्चिम म्लेच्छखण्डकी ओर चल दिया। इधर द्वारके खुल जानेपर उससे निकली हुई
१. ज आवसितः | २. शनीताः ।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २
२७५ पश्चिमम्लेच्छखण्डराजानो युद्ध जित्वा सेनापतिना पानीय तस्य दर्शिताः। चक्रिणा तथैव मुक्ताः । गुहाभ्यन्तरेण काकिणीरत्नलिखितचन्द्रार्कप्रकाशेनोत्तरमध्यम्लेच्छखण्डं प्रविश्य चर्मरत्नस्योपरि शिबिरं विमुच्य उपरिच्छत्ररत्नं धृतम्'। उभयमपि मिलित्वा कुक्कुटाण्डाकारेण स्थितम् । सेनापतिना सह चिलातावर्तप्रभृतिम्लेच्छराजानो युद्धं कृतवन्तः, नष्ठा स्वकुलदेवता मेघकुमारान् शरणं प्रविष्टाः। तैरागत्य चक्रवर्तिन उपसर्गः कृतः । तद्भेदयितुमशक्का गत्वा सेनापतिना युद्धवन्तः। तेन सर्वे महा-आहवे निर्जिताः, तेषां राज्यचिह्नानि गृहीत्वा मेघनादः कृतः, ततश्चक्रवर्तिना मेघेश्वर इति जयस्य नाम कृतम् । त्रीण्यप्युत्तराणि म्लेच्छखण्डानि साधयित्वा विद्याधरानपि । तदा नमि-विनमी स्वपुत्री सुभद्रां दत्त्वा भृत्यौ जाती। हिमवत्कुमारमपि साधयित्वा वृषभगिरौ नाम निक्षिप्य नाटयमालं साधयित्वा काण्डप्रपातगुहाद्वारमुद्घाटय तस्मानिर्गत्यार्यखण्डे प्रविष्टः । ततः पूर्व म्लेच्छखण्डं साधयित्वा कैलासे वृषभजिनं स्तुत्वा षष्टिसहस्राब्दैरयोध्यां प्राप्तः।
पुरप्रवेशे क्रियमाणे चक्रं न प्रविशति । किमिति पृष्टे प्रधानरुक्तं तव भ्रातरो नाद्यापि भाषण गर्मी छह महीनों में शान्त हुई। इस बीचमें सेनापतिने युद्ध में पश्चिम म्लेच्छखण्डके राजाओंको जीत लिया और तब उन्हें लाकर चक्रवर्तीके सामने उपस्थित कर दिया। भरत चक्रवर्तीने उन्हें सेवक बनाकर उसी प्रकारसे छोड़ दिया। फिर उसने काकिणी रत्नके द्वारा लिखे गये चन्द्र और सूर्योंके प्रकाशकी सहायतासे उत्तरके मध्यम म्लेच्छखण्डके भीतर प्रवेश किया। वहाँ उसने समस्त सेनाका डेरा चर्म रत्नके ऊपर डाला और फिर उसके ऊपर छत्र रत्नको धारण किया। इस प्रकार दोनोंके मिलनेपर उसका आकार मुर्गीके अण्डेके समान हो गया। वहाँपर चिलात और आवर्त आदि म्लेच्छ राजाओंने सेनापतिके साथ खूब युद्ध किया। अन्तमें वे रणभूमिसे भाग कर अपने कुलदेवतास्वरूप मेघकुमार देवोंकी शरणमें पहुँचे । तब उक्त देवताओंने आकर चक्रवर्तीकी सेनाके ऊपर बहुत उपसर्ग किया । परन्तु जब वे उस चर्म रत्न और छत्र रत्नके भेदनेमें समर्थ नहीं हुए तब वे सेनापतिके साथ युद्ध करनेमें तत्पर हुए। उसने उन सबको महायुद्धमें जीत लिया । तब उसने उनके राज्यचिह्नोंको छीनकर मेघ जैसा गर्जन किया। इससे चक्रवर्तीने जयकुमारका नाम मेघेश्वर प्रसिद्ध किया। इस प्रकारसे उसने तीनों उत्तर म्लेच्छखण्डोंको जीतकर तत्पश्चात् विजयार्ध पर्वतस्य विद्याधरोंको भी वशमें कर लिया। तब नमि और विनमि अपनी पुत्री सुभद्राको देकर सेवक हो गये। इसके पश्चात् भरत चक्रवर्तीने हिमवत्कुमार देवको भी जीतकर वृषभगिरि पर्वतके ऊपर अपना नाम लिखा । फिर उसने नाट्यमाल देवको वशमें करके काण्डप्रपात ( खण्डप्रपात ) गुफाके द्वारको खोला और उसमेंसे निकलकर आर्यखण्डमें आ गया । पश्चात् पूर्व म्लेच्छखण्डको जीतकर वह कैलाश पर्वतके ऊपर गया। वहाँ उसने ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति की। इस प्रकार दिग्विजय करके वह साठ हजार वर्षोंमें अयोध्या वापिस आया।
महाराज भरत चक्रवर्ती जब नगरके भीतर प्रवेश करने लगे तब उनका चक्ररत्न वहीं रुक गया । भरतके द्वारा इसका कारण पूछे जानेपर मन्त्रियोंने कहा कि आपके भाई आज भी आपकी
१. ब धृत्वा । २. ज फ कुकृटांडाकारेण । ३. ब विनमी स्वभाग्नेयाय स्वभद्रां । ४. ब नाम । ५. श नाट्यमालां ।
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[६-२,४३ : सेवां मन्यन्ते इति न प्रविशतीति । श्रुत्वा बहिरावास्य तदन्तिकं राजादेशाः प्रेषिताः । बाहुबलिनं विनान्ये तानवधार्य पितसमीपे दीक्षिताः। बाहुबलिनोक्तं मम बाणदर्भशय्यायां शयितश्चेत्करुणया किंचिद्दीयते, नान्यथा । ततो युद्धार्थी निर्गत्य स्वदेशसीम्नि स्थितः । इतरोऽपि रुषागतः । अभ्यर्णयोः सैन्ययोः प्रधानैदृष्टि जल-मल्लयुद्धानि कारितो। बाहुबलो युद्धत्रयेऽपि चक्रिणं जित्वा तं प्रणम्य क्षमितव्यं विधाय स्वनन्दनं महाबलिनं तस्य समय स्वयं भरतेन निवार्यमाणोऽपि कैलासे वृषभसमीपं गत्वा दीक्षितः। कतिपयदिनैः सकलागमं परिज्ञायैकविहारी जातोऽटव्यां प्रतिमायोगे स्थितः । वल्ली वल्मोकादिभिर्वेष्टितं तं वीक्ष्य वल्यादिकं विद्याधर्योऽपसारितवन्त्यस्तद्योगसंवत्सरावसाने भरतो वृषभजिनसमवसृति गच्छन्नद्राक्षीजिनं नत्वा पृष्टवान् 'बाहुबलिमुनेः केवलं किमिति नोत्पद्यते' इति । जिन पाह-'अहो, त्यक्तायामपि चक्रिणोऽवनौ तिष्ठामीति तन्मनसो मनाग मानकषायो न गच्छतीति केवलं नोत्पद्यते। श्रत्वा चक्री तत्र जगाम, तत्वादयोलग्नोऽनेकविन्यालापैस्तत्कषायमपसारयांचकार। ततस्तदैव स केवली बभूव स्वयोग्यसमवसरणादिविभूतिभाक् । सेवाको स्वीकार नहीं करते हैं, इसीलिये यह चक्ररत्न नगरके भीतर प्रविष्ट नहीं हो रहा है। यह सुनकर भरत चक्रवर्तीने सेनाको नगरके बाहिर ठहरा दिया और भाइयों के समीपमें दूतोंको भेज दिया। तब बाहुबलीको छोड़कर शेष भाइयोंने भरतकी आज्ञाके विषयमें विचार करके पिता ( आदिनाथ भगवान् ) के समीपमें दीक्षा धारण कर ली। परन्तु बाहुबलीने दूतसे कह दिया कि यदि भरत मेरे बाणोंरूप दर्शों (कुशों-कासों) की शय्यापर सोता है तो मैं दयासे कुछ दे सकता हूँ, अन्यथा नहीं। तत्पश्चात् वह युद्ध की अभिलाषासे निकल कर अपने देशकी सीमापर स्थित हो गया। उधर भरत भी बाहुबलके उत्तरसे क्रोधको प्राप्त होकर युद्ध करनेके लिये आ गया। इस प्रकार दोनों सेनाओंके सम्मुख होनेपर मन्त्रियोंने उन दोनोंके बीचमें दृष्टियुद्ध, जल युद्ध और मल्लयुद्ध इस प्रकारके युद्धोंको निर्धारित किया। सो बाहुबलीने इन तीनों ही युद्धोंमें चक्रवर्ती भरतको पराजित कर दिया। फिर भी उसने भरतको नमस्कार करके उससे क्षमा करायी। इस घटनासे बाहुबलीको वैराग्य हो चुका था। इससे उसने अपने पुत्र महाबलीको भरतके आधीन करके स्वयं उसके द्वारा रोके जानेपर भी कैलास पर्वतके ऊपर जाकर ऋषभ जिनेन्द्रके समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली। वह कुछ ही दिनोंमें समस्त आगममें पारंगत होकर एकविहारी हो गया । वह किसी वनमें जब प्रतिमायोगसे स्थित हुआ तब उसका शरीर बेलों और बांबियोंसे घिर गया । उसकी इस अवस्थाको देखकर कभी-कभी विद्याधरियाँ उन बेलों आदिको हटा दिया करती थीं । इस प्रकारसे पूरा एक वर्ष बीत गया । अन्तमें जब भरतने ऋषभ जिनेन्द्र के समवसरणमें जाते हुए बाहुबलीको ऐसे कठिन प्रतिमायोगमें स्थित देखा। तब उसने जिनेन्द्रको नमस्कार करके पूछा कि बाहुबली मुनिको अब तक केवलज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न हुआ है ? इस प्रश्नको सुनकर जिन भगवान्ने उत्तर दिया कि यद्यपि बाहुबलीने पृथिवीका परित्याग कर दिया है, फिर भी 'मैं भरत चक्रवर्तीकी पृथ्वीपर स्थित हूँ' यह किंचित् मानकषाय उसके मनमें अभी तक बनी हुई है। वह कषाय जब तक नष्ट नहीं होती है तब तक उसे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । यह सुनकर भरत चक्रवर्ती बाहुबली मुनिके समीप गये और उनके चरणों में गिर गये। फिर उन्होंने विनयसे परिपूर्ण सम्भाषणके द्वारा बाहुबलीकी उस कषायको दूर कर दिया। तत्पश्चात् बाहुबली मुनिको उसी
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३ ]
६. दानफलम् २
एव ।
भरतो महाबलिनं पौदनेशं कृत्वायोध्यायामष्टादशकोटिवाजिभिः चतुरशीतिलक्षमातङ्गैस्तत्प्रमाणै रथैः चतुरशीतिकोटिपदातिभिः द्वात्रिंशत्सहस्र मुकुटवद्धैस्तत्प्रमाणाङ्गरक्षक- यक्षनायकैः आर्यखण्डस्थभूभुजां पुत्र्यो द्वात्रिंशत्सहस्रास्तत्प्रमाणा विद्याधरराजपुत्र्यः तत्प्रमाणा म्लेच्छराजसुता इति पण्णवतिसहस्रान्तः पुरेण सार्धं [ सार्धं ] त्रिकोटिबन्धुभिर्युतस्य सार्धं [ सार्धं ] त्रिकोटयो धेनवः षष्ठ्युत्तरत्रिशतं शरीरवैद्याः कल्याणमित्रामृत गर्भ सुधाकल्प संज्ञकाहारपानक खाद्यस्वाद्यकरा महानसिकास्तत्प्रमाणा सुदर्शनं चक्रं सुनन्दः खड्गो दण्डरत्नं चेमानि त्रीणि तदस्त्रगेहे जातानि । निधयो नव । ते किनामानः किमाकाराः किंप्रमाणाः किंप्रदा इति चेत्, शकटाकृतयश्चतुरक्षाष्टचक्रका प्रयोजनोत्सेधा नवयोजनविस्तारा द्वादशयोजनायामाः प्रत्येकं सहस्रयक्षरक्षितश्चतुर्दशरत्नान्यपि । अभिलषितपुस्तकप्रदः कालनिधिः, स्वर्णादिपञ्चलोहदो महाकालो निधिः व्रीह्यादिधान्यख्याद्यौषधद्रव्यप्रदः सुरभिमाल्यादिदचं पाण्डुकनिधिः, कवचखङ्गादिसकलशस्त्रदो माणवको 'निधिः, भाजनशयनासनवस्तुदो नैसर्पो निधिः, सकलरत्नदः सर्वरत्ननिधिः, सकलवाद्यदः शङ्खनिधिः, समस्तवस्त्रदः पद्मनिधिः, समस्तभूषणदः पिङ्गलनिधिः,
२७७
समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया, जिसके प्रभावसे समवसरणादि विभूति भी उन्हें प्राप्त हो गई । भरतने महाबलीको पोदनपुरका राजा बनाया । तत्पश्चात् वह अयोध्या में सुखपूर्वक स्थित हुआ । उसके पास चक्रवर्तीकी विभूतिमें अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, इतने ही रथ, चौरासी करोड़ पदाति, बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा, उतने ही अंगरक्षक श्रेष्ठ यक्ष; आर्यखण्ड में स्थित राजाओं की पुत्रियाँ बत्तीस हजार, इतनी ही विद्याधर राजाओं की पुत्रियाँ व उतनी ही म्लेच्छ राजाओं की पुत्रियाँ, इस प्रकार समस्त छयानचे हजार अन्तःपुरकी स्त्रियाँ; साढ़े तीन करोड़ कुटुम्बी जन, साढ़े तीन करोड़ गायें, तीन सौ साठ शरीरशास्त्रके जानकर वैद्य; तथा कल्याणमित्र, अमृतगर्भ और अमृतकल्प नामके आहार, पानक, खाद्य व स्वाद्य इन भोजनविशेषोंको तैयार करनेवाले उतने ही रसोइये थे । उसके चौदह रत्नोंमेंसे सुदर्शन चक्र, सुनन्द खड्ग और दण्ड रत्न ये तीन रत्न उसकी आयुधशाला में उत्पन्न हुए थे। जिनका आकार गाड़ी के समान होता है, जिनके चार अक्ष ( धुरी) व आठ पहिये होते हैं; जो आठ योजन ऊँची, नौ योजन विस्तृत व बारह योजन आयत होती हैं, तथा जो प्रत्येक एक हजार यक्षोंसे रक्षित होती हैं; ऐसी नौ निधियाँ थीं । इन नौ निधियों के साथ उसके चौदह रत्न भी थे । उक्त नौ निधियोंमें, ° कालनिधि अभिलषित पुस्तकोंको देनेवाली, २ महाकालनिधि सुवर्ण आदि पाँच प्रकारके लोह ( धातुओं) को देनेवाली, ३ पाण्डुकनिधि ब्रीहि आदि धान्यविशेषों, सोंठ आदि औषध द्रव्यों तथा सुगन्धित माला आदिको देनेवाली, ४ माणवकनिधि कवच एवं खड्ग आदि समस्त शस्त्रोंको देनेवाली, ५ नैसर्पनिधि भाजन, शय्या एवं आसनरूप वस्तुओं को देनेवाली, ६ सर्वरत्ननिधि समस्त रत्नों को देनेवाली, ७ शंखनिधि समस्त बाजों को देनेवाली, पद्मनिधि समस्त वस्त्रों को देनेवाली और ९ पिंगलनिधि समस्त आभूषणों को देनेवाली थी। इन निधियोंके समान जिन
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श षष्टयुत्तरशतं । २. ज कल्याणामित्ता ंश कल्याणनाम्निता । ३. श स्वादकरा । ४. प तदत्र गेहे । ५. ज किमाकार: किप्रमाणः । ६. श यक्षरता । ७. ज सुरभिमाल्यादिदो व ब 'सुरभि' इत्यादिपाठो नास्ति । ८. ज श मांणको ।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ : एते नव निधयः। चर्मच्छत्ररत्ने चूडामण्याख्यं मणिरत्नंचिन्तामण्याख्यं काकिणीरत्नम् एतानि श्रीगृहजानि । अयोध्याभिधं सेनापतिरत्नम् अजितंजयाख्यमश्वरत्नम् , विजयापर्वताभिधं गजरत्नम् , भद्रतुण्डाख्यं स्थपतिरत्नमिमानि रत्नानि स्वपुरजानि। बुद्धिसमुद्राख्यं पुरोहितरत्नं कामवृष्टयाभिधं गृहपतिरत्नं सुभद्रा स्त्रीरत्नमिमानि विजयार्धजानि। वज्रतुण्डा शक्तिः सिंहाटकः कुन्तः लोहवाहिनी शस्त्री मनोजकः कणयः [पः] भूतमुखं खेटं वज्रकाण्डं धनुः अमोघाख्याः शराः अभेद्यं कवचं द्वादशयोजननादा जनानन्दाख्या द्वादशभेर्यः जयघोषसंज्ञाः पटहा द्वादश गम्भीरावर्ताख्याः शङ्खाश्चतुर्विंशतिः वीराङ्गदौ कटको द्वासप्ततिः सहस्र संख्यानि पुराणि पण्णवतिकोटिग्रामाः पञ्चनवतिसहस्र द्रोणाः चतुरशीतिसहस्राणि पत्तनानि षोडशसहस्राणि खेटकानि अन्तर्वीपाः षट्पञ्चाशत् षोडशसहस्राणि संवाहनानि एककोटी स्थाल्यः कुक्षिनिवासाः सप्तशताः अष्टशतकक्षाः नन्दभ्रमणश्चमूनिवासः क्षितिसारसाल. वेष्टितं निवासगृहं वैजयन्ती सिंहद्वारं सर्वतोभद्रम् श्रास्थानमण्डपो दिकस्वस्तिकः गिरिकूट दिगवलोकनगृहं वर्धमानमीक्षणागारः धर्मान्तकं धारागृहं वर्षाकालगृहं गृहकूटं शय्यागृह पुष्करावती कुवेरकान्तं भाण्डागारं सुवर्णधाराख्यं कोष्टागारं सुररम्यं वस्त्रगृहं मेघाख्यं मजनगृहम् अवतंसो हारः तडित्प्रभे कुण्डले पादुके विषमोचके अनुत्तरं सिंहासनम् अतुला. ख्यानि द्वात्रिंशच्चामराणि गृहसिंहवाहिनी शय्या रविप्रभं छत्रं नभोवलम्बा द्वाचत्वारिंशत् चौदह रत्नोंकी भी रक्षा वे यक्ष करते थे उनमें-से सुदर्शन चक्र, सुनन्द खड्ग और दण्ड इन तीन रत्नोंका निर्देश ऊपर किया जा चुका है । चर्म, छत्र, चूड़ामणि नामका मणिरत्न और चिन्तामणि नामका काकिणीरत्न, ये चार रत्न श्रीगृहमें उत्पन्न हुआ करते हैं । अयोध्य नामका सेनापतिरत्न अजितंजय नामका अश्वरत्न, विजयार्धपर्वत नामका गजरत्न और भद्रतुण्ड नामका स्थपतिरत्न, ये चार रत्न अपने नगरमें उत्पन्न होते हैं। बुद्धिसमुद्र नामका पुरोहितरत्न, कामवृष्टि नामका गृहपतिरत्न और सुभद्रा नामका स्त्रीरत्न, ये तीन विजयाध पर्वतपर उत्पन्न होते हैं। वज्रतुण्डा शक्ति, सिंहाटक भाला, लोहवाहिनी छुरी, मनोजब (मनोवेग ) कणप ( शस्त्रविशेष ), भूतमुख नामका खेट ( शस्त्रविशेष ), वज्रकाण्ड नामका धनुष, अमोघ नामके बाण, अभेद्य कवच, बारह योजन पर्यन्त शब्दको पहुँचानेवाली जनानन्दा नामकी बारह भेरियाँ, जयघोष नामके बारह पटह ( नगाड़ा), गम्भीरावर्त नामके चौबीस शंख, वीरांगद नामके दो कड़े, बहत्तर हजार पुर, छयानबै करोड़ गाँव, पंचानबै हजार द्रोण, चौरासी हजार पत्तन, सोलह हजार खेटक (खेड़े ), छप्पन अन्तीप, सोलह हजार संवाहन, एक करोड़ थाली, सात सौ कुक्षिनिवास, आठ सौ कक्षायें, नन्दभ्रमण ( नन्दावर्त ) नामका सेनानिवास, क्षितिसार कोटसे घिरा हुआ वैजयन्ती नामका निवासगृह, सर्वतोभद्र नामका सिंहद्वार, दिकम्वस्तिक नामका सभामण्डप, गिरिकूट नामका दिगवलोकन(दिशाओंका दर्शक ) गृह, वर्धमान नामका प्रेक्षागृह, गर्मीकी बाधाको नष्ट करनेवाला धारागृह, [वर्षाकालके लिए उपयोगी ] गृहकूट नामका वर्षाकालगृह, पुष्करावती ( पुष्करावर्त ) नामका शयनागार, कुबेरकान्त नामका भांडागार, सुवर्णधार ( वसुधारक ) नामका कोष्ठागार ( कोठार ), सुररम्य वस्त्रगृह, मेघ नामका स्नानगृह, अवतंस नामका हार, बिजली जैसी कान्तिवाले तडित्प्रभ नामके दो कुण्डल, विषमोचक खड़ाऊँ, अनुत्तर सिंहासन, अतुल (अनुपम ) नामके बत्तीस चामर,
१.फ निधयः चक्रखड़गदण्डरत्नानि चर्मछत्ररत्ने ।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३] ६. दानफलम् २
२७९ पताका द्वात्रिंशत्सहस्त्रनाट यशाला तदन्तिकेऽष्टादशसहस्रम्लेच्छराजानः एकलक्षकोटिहलानि अजितंजयो रथोऽभूदित्यादिनानाविभूत्यालंकृतो भरतः सुखेनास्थात् ।
एकदा[स सत्पात्राय सुवर्णादि दातुमना बभूव। महर्षयःस्वर्णादिकं न गृह्णन्ति,गृहस्थेषु पात्रपरीक्षार्थ राजाङ्गणं धान्यादिप्ररोहैः पुष्पादिभिश्च संछन्नं कृत्वा त्रिवर्णजान् नरानाहाययति स्म। तत्रातिनास्तत्प्ररोहादीनामपरि नागताः.बहिरेव स्थिताः।चक्री पप्रच्छ-पतेऽन्तः किमिति' न प्रविशन्ति । ततः केनचित्तन्निकटं गत्वोक्तं 'किमिति राजगेहं न प्रविशथ' इति । ऊचुस्ते मार्गशुद्धिर्नास्तीति । श्रुत्वा तेन चक्री पुनर्विज्ञप्तो देवैवं वदन्ति । ततो मार्गशुद्धि विधायान्तःप्रवेश्य तेषां व्रतदाढर्थ विलोक्य जहरे । तदनु 'यूयं रत्नत्रयाराधकाः' इति भणित्वा रत्नत्रयाराधकत्वद्योतकं यज्ञोपवीतं तत्कण्ठे चिक्षेप । 'ब्रह्मा आदिदेवो येषां ते ब्राह्मणाः' इति व्युत्पत्त्या ब्राह्मणान् कृत्वा तेषां ग्रामादिकमदत्त ।।
एकदा चक्री जिनं पप्रच्छ-ब्राह्मणा अग्रे कीदृशाः स्युः। स्वामी वभाण-शीतलभट्टारकजिनान्तरेजैनद्वेष्याः स्युः। श्रुत्वा चक्रो स्वप्रतिष्ठा पुनर्नाशयितुमनुचितमिति विषण्णोगृहसिंहवाहिनी नामकी शय्या, रविप्रभ ( सूर्यप्रभ ) छत्र, आकाशमें फहरानेवाली बयालीस पताकायें बत्तीस हजार नाट्यशालाये, उसके समीपमें अठारह हजार म्लेच्छ राजा, एक लाख करोड़ हल और अजितंजय नामका रथ था । इस तरह अनेक प्रकारकी विभूतिसे सुशोभित वह भरतचक्रवर्ती सुखसे कालयापन कर रहा था।
एक समय महाराज भरतके मनमें किसी उत्तम पात्रके लिए स्वर्णादिके देनेकी इच्छा हुई। उस समय उन्होंने विचार किया कि महर्षि तो सुवर्णादिको ग्रहण करते नहीं है, अत एव किन्हीं गृहस्थों को ही उसे देना चाहिए। इस विचारसे उन्होंने उन गृहस्थों में से योग्य गृहस्थोंकी परीक्षा करनेके लिए राजांगणको धान्य आदिके अंकुरों और फूलों आदिसे आच्छादित कराकर तीनों वर्णांके मनुष्यों को बुलाया। तब उनमें से जो अतिशय जिनभक्त थे-अहिंसावतका पालन करते थे-वे उन अंकुरों आदिके ऊपरसे नहीं आये, किन्तु बाहिर ही स्थित रहे । तब चक्रवर्तीने पूछा कि ये लोग भीतर प्रवेश क्यों नहीं कर रहे हैं ? इसपर किसी राजपुरुषने उनके पास जाकर पछा कि आप लोग राजभवनके भीतर क्यों नहीं प्रविष्ट हो रहे हैं ? इसके उत्तरमें वे बोले कि मार्ग शुद्ध न होनेसे हम लोग भीतर नहीं आ सकते हैं। यह सुनकर उक्त राजकर्मचारीने चक्रवर्तीसे निवेदन किया कि वे लोग मार्ग शुद्ध न होनेसे भवनके भीतर नहीं आ रहे हैं। तब भरतने मार्गको शुद्ध कराकर उन्हें भवनके भीतर प्रविष्ट कराया । इस प्रकार उनके व्रतकी दृढ़ताको देखकर भरतको बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् उसने 'आप लोग रत्नत्रयके आराधक हैं' यह कहते हुए उनके कण्ठमें रत्नत्रयकी आराधकताका सूचक यज्ञोपवीत डाल दिया। फिर उसने 'ब्रह्मा अर्थात् आदिनाथ जिनेन्द्र जिनके देव हैं वे ब्राह्मण हैं' इस निरुक्तिके अनुसार उन्हें ब्राह्मण बनाकर उनके लिए गाँव आदिको दिया ।
एक बार भरत चक्रवर्तीने जिन भगवान्से पूछा कि मेरे द्वारा स्थापित ये ब्राह्मण भविष्यमें कैसे होंगे ? जिन भगवान् बोले- शीतलनाथ तीर्थकरके पश्चात् ये जैन धर्मके द्वेषी बन जावेंगे।
१. शब किन। २. श गत्वोक्तमिति । ३. ब प्रविशतेति । ४. ब तत्कंधे। ५. ब आदिदेवो देवता येषां । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जिनान्तरे द्वेष्यः । ७. श चक्री प्रतिष्टां।
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८० पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : ऽभूत्। कैलासेऽतीतानागतवर्तमानचतुर्विंशतितीर्थकृजिनालयान् मणिसुवर्णमयान् कारयित्वा तत्र नामवर्णोत्सेधयक्षयकोलाञ्छनान्विताः प्रतिमा स्थापितवान् । अयोध्यामागत्य द्वारे द्वारे चतुर्विंशतितीर्थकरप्रतिमाः प्रतिष्ठापितवान् । ता वन्दनमाला जाताः । वाह्यालीदेशे मन्दरस्योपरि पञ्चपरमेष्टिप्रतिमाः प्रतिष्ठाप्याश्चमनुचटित्वा प्रदक्षिणीकरणे 'जय अरिहंत' इति पुष्पाणि निक्षिपति । स कालेन जनेन खन्तः ( ? ) कृतः । एवं धर्मैकमूर्तिर्भूत्वा सुखेन राज्यं कुर्वन् तस्थौ।
इतो वृषभेश्वरः वृषभसेन १ कुम्भ २ दृढरथ ३ शतधनुः ४ देवशर्म ५ धनदेव ६ नन्दन ७ सोमदत्त ८ सुरदत्त । वायुशमे १० यशोबाहु
त ८ सरदत्त । वायशर्म १० यशोबाह ११ देवमार्ग १२ कोतल १३ अग्निदेव अग्निगत १५ चित्राग्नि १६ हलधर १७ महीधर १८ महेन्द्र १६ वासुदेव २० वसंधर २१ अचल २२ मेरुधर २३ मेरुभूति २४ सर्वयशः २५ सर्वयश २६ सर्वगुप्त २७ सर्वप्रिय २८ 'सर्वदेव २६ सर्वविजय ३० विजयगुप्त ३१ जयमित्र ३२ विजयी ३३ अपराजित ३४ वसुमित्र ३५ विश्वसेन ३६ सुषेण ३७ सत्यदेव ३८ देवसत्य ३: सत्यगुप्त ४० सत्यमित्र ४१ शमंद ४२ विनीत ४३ संबर ४४ मुनिगुप्त ४५ मुनिदत्त ४६ मुनियज्ञ ४७ मुनिदेव ४८ गुप्तयज्ञ ४६ मित्रयक्ष ५० स्वयंभू ५१ भगदेव ५२ भगदत्त ५३ भगफल्गु ५४ मित्रफल्गु ५५ प्रजापति ५६ इस बातको सुनकर भरत चक्रवर्तीको बहुत खेद हुआ। उसने अपने द्वारा ही प्रतिष्ठित किये हुए उनको नष्ट करना उचित नहीं समझा। उस समय उसने कैलास पर्वतके ऊपर अतीत, अनागत
और वर्तमान इन तीनों कालोंके चौबीस तीर्थंकरोंके मणि व सुवर्णमय जिनभवनोंको बनवाकर उनमें इन तीर्थंकरोंके नाम, वर्ण, शरीरकी उँचाई, यक्ष-यक्षी और चिह्नोंसे सहित प्रतिमाओंको स्थापित कराया। फिर उसने अयोध्यामें आकर प्रत्येक द्वारपर चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाओंको प्रतिष्ठित कराया। वे सब प्रतिमायें वन्दनमाला बन गई थीं। इसके साथ ही उसने बाह्य वीथीप्रदेशमें मन्दरके ऊपर पाँचों परमेष्ठियों की प्रतिमाओंको प्रतिष्ठित कराया। पश्चात् घोड़ेके ऊपर चढ़कर प्रदक्षिणा करते समय उसने 'जय अरहन्त' कहते हुए पुष्पों की वर्षा की। तदनुसार उक्त वन्दनमालाकी पद्धति लोगोंमें अब तक प्रचलित है [ भरतने वन्दनाके लिये जो वह माला निर्मित करायी थी वह वन्दनमाला कहलायी, जो आज भी पृथिवीपर वन्दनमालाके नामसे रूढ है ] । इस प्रकार वह भरत चक्रवर्ती धर्मकी अनुपम मूर्ति होकर सुखसे राज्य करता हुआ स्थित था।
भगवान् वृषभेश्वरने १ वृषभसेन २ कुम्भ ३ दृढरथ ४ शतधनु ५ देवशर्मा ६ धनदेव ७ नन्दन ८ सोमदत्त ६ सुरदत्त १० वायुशर्मा ११ यशोबाहु १२ देवमार्ग १३ देवाग्नि १४ अग्निदेव १५ अग्निगुप्त १६ चित्राग्नि १७ हलधर १८ महीधर १६ महेन्द्र २० वासुदेव २१ वसुंधर २२ अचल २३ मेरुधर २४ मेरुभूति २५ सर्वयश २६ सर्वयज्ञ २७ सर्वगुप्त २८ सर्वप्रिय २९ सर्वदेव ३० सर्वविजय ३१ विजयगुप्त ३२ जयमित्र ३३ विजयी ३४ अपराजित ३५ वसुमित्र ३६ विश्वसेन ३७ सुषेण ३८ सत्यदेव ३६ देवसत्य ४० सत्यगुप्त ४१ सत्यमित्र ४२ शर्मद ४३ विनीत ४४ संवर ४५ मुनिगुप्त ४६ मुनिदत्त ४७ मुनियज्ञ ४८ मुनिदेव ४९ गुप्तयज्ञ ५० मित्रयज्ञ ५१ स्वयंभू
१. श 'यक्ष' नास्ति । २. श अतोऽग्रेऽग्रिम 'प्रतिमाः' पदपर्यन्तः पाठः स्वलितो जातः । ३. फ तावद्वन्दनमा। ४. ब प्याश्वान् चटित्वा। ५. ब अरहंत । ६. श जनेनरवंतः ब जनेन रेवंतः । ७. ब देवशर्म: धनदेवः श देवसर्म धनदेवः ।
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-२, ४३] ६. दानफलम् २
२८१ सर्वसह' ५७ वरुण ५८ धनपाल ५२ मेघवाहन ६० तेजोराशि ६१ महावीर ६२ महारथ ६३ विशाल ६४ महोज्ज्वल ६५ सुविशाल ६६ वज्र ६७ वज्रशाल ६८ चन्द्रचूड़ ६६ मेघेश्वर ७० महारथै ७१ कच्छ ७२ महाकच्छ ७३ नमि ७४ विनमि ७५ बल ७६ अतिबल ७७ वज्रबल ७८ नन्दि ७६ महाभोग ८० नन्दिमित्र८१ महानुभाव ८२ कामदेव ८३ अनुपमाख्यै ८४ श्चतुरशीतिगणधरैः, सार्धसप्तशताधिकचतुःसहस्रपूर्वधरैः, सार्धशताधिकचतुःसहस्रः शिष्यकैः, नवसहस्रावधिज्ञानिभिः, विंशतिसहस्रकेवलिभिः, विंशतिसहस्र-षट्शताधिकै क्रियिकर्द्धिप्राप्तः, सार्धसप्तशताधिकद्वादशसहस्रविपुलमतिभिः, तावद्भिरेव वादिभिः, सात्रिलक्षार्यिकाभिः, त्रिलक्षश्रावकैः, पञ्चलक्षश्राविकाभिः, असंख्यातदेव-देवीभिः, बहुकोटितिर्यग्भिश्च सहस्रवर्षशुन्यैकलक्षपूर्वाणां विहृत्य कैलाशे योगनिरोधं कतुमारब्धवान् ।
इतश्चक्री स्वप्ने मेरुं सिद्धशिलापर्यन्तं प्रवृद्ध ददर्शान्येऽपि तत्कुमारा अर्ककीर्त्यादयः सूर्यादिकमुपरि गच्छन्तं लुलोकिरे । प्रातः पृष्टेन पुरोहितेनोक्तम्-एते स्वप्ना आदिजिनमुक्ति सूचयन्ति । तत् श्रुत्वा भरतायः कैलाशं गत्वा वृषभं समभ्यया॑नम्य तन्मौनं विलोक्य विषण्णा बभूवुः। चतुर्दश दिनानि तत्र पूजादिकं कुर्वन्तः स्थिताः । स्वामी चतुर्दशदिनोगनिरोधं कृत्वा माघकृष्णचतुर्दश्यां निवृत्तः। भरतः शोकं कुर्वन् वृषभसेनादिभिः संबोधितः
भग ५२ भगदेव ५३ भगदत्त ५४ फल्गु ५५ मित्रफल्गु ५६ प्रजापति ५७ सर्वसह ५८ वरुण ५६ धनपाल ६० मेघवाहन ६१ तेजोराशि ६२ महावीर ६३ महारथ ६४ विशाल ६५ महोज्ज्वल ६६ सुविशाल ६७ वज्र ६८ वज्रशाल ६६ चन्द्रचूड ७० मेघेश्वर ७१ महारथ ७२ कच्छ ७३ महाकच्छ ७४ नमि ७५ विनमि ७६ बल ७७ अतिबल ७८ वज्रबल ७६ नन्दी ८० महाभोग ८१ नन्दिमित्र ८२ महानुभाव ८३ कामदेव और ८४ अनुपम नामके चौरासी गणधरों, चार हजार साढ़े सात सौ ( ४७५०) पूर्वधरों, चार हजार डेढ़ सौ ( ४१५०) शिक्षकों, नौ हजार ( ९००० ) अवधिज्ञानियों, बीस हजार (२०००० ) केवलियों, बीस हजार छह सौ (२०६००) विक्रियाऋद्धिधारकों, बारह हजार साढ़े सात सौ (१२७५०) विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानियों, उतने (१२७५० ) ही वादियों, साढ़े तीन लाख (३५००००) आर्यिकाओं, तीन लाख (३०००००) श्रावकों, पाँच लाख (५०००००) श्राविकाओं, असंख्यात देव-देवियों और बहुत करोड़ तिर्यञ्चोंके साथ एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व तक विहार करके कैलाश पर्वतके ऊपर योगनिरोध करना प्रारम्भ किया।
इधर चक्रवर्ती भरतने स्वप्नमें मेरुको सिद्धशिला पर्यन्त बढ़ते हुए देखा तथा अन्य अर्ककीर्ति आदि उसके पुत्रोंने भी सूर्यादिको ऊपर जाते हुए देखा । प्रातः कालके होनेपर उसने परोहितसे इन स्वप्नोंका फल पूछा । पुरोहितने कहा कि ये स्वप्न आदिनाथ भगवान्की मुक्तिको सचित करते हैं। यह सुनकर भरतादिक कैलाश पर्वतके ऊपर गये । वहाँ उन सबने वृषभ जिनेन्द्रकी पूजा व नमस्कार करके जब उन्हें मौनपूर्वक स्थित देखा तब वे खेदखिन्न हुए। वे चौदह दिन तक भगवान् जिनेन्द्रकी पूजा आदि करते हुए वहींपर स्थित रहे । आदिनाथ जिनेन्द्रने चौदह दिनमें योगनिरोध करके माघ कृष्ण चतुर्दशीके दिन मुक्ति प्राप्त की। उस समय भरतको बहुत
१. श सर्वस। २. प श महाज्वल ब महोज्वाल। ३. श महारव। ४. श निमि ७४ विनिमि । ५. ज प शैष्यकै: ब शैक्षकः ।
Jain Education Internaal
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यावकथाकोशम्
[ ६-२, ४३ :
परमनिर्वाणकल्याणपूजां कृत्वा स्वपुरमागतः । इन्द्रादयोऽपि स्वर्लोकं गताः । वृषभसेनादयो यथाक्रमेण मोक्षं गताः । ब्राह्मी सुन्दरी अच्युतं गते । श्रन्ये स्व-स्वपुण्यानुरूपां गतिं ययुः । भरतः पञ्चलक्षनवनवतिसहस्रनव शतनवनवतिपूर्वाणि व्यशीतिलक्षनवनवतिसहस्रनवरातनवनवति पूर्वाङ्गाणि त्र्यशीति लक्षैकोनचत्वारिंशत्सहस्रवर्षाणि राज्यं कुर्वन् तस्थौ । स्वशिरसि पलितमालोक्य स्वसुतायार्ककीर्तये राज्यं वितीर्य कैलाशे श्रष्टाह्निकी पूजां विधाय परिजनं व्याघोट यास्मद्गुरुरेव गुरुरिति मनसि धृत्वा स्वयमेव बहुभिर्दीक्षितः, तदैव केवली जज्ञे, भव्य पुण्यप्रेरणयै कैलक्ष पूर्वाणि विहृत्य कैलाशे निर्वृतः । तस्य सप्तसप्ततिलक्ष पूर्वाणि कुमारकालः, मण्डलिककालः सहस्रवर्षाणि, विजयकालः षष्टिसहस्रवर्षाणि, राज्यकालः पञ्चलक्षनवनवतिसहस्र नवरात नवनवतिपूर्वाणि त्र्यशीतिलक्षनवनवतिसहस्रनवशत नवनवतिपूर्वाङ्गाणि त्र्यशीतिलक्षै कोनचत्वारिंशत्सहस्रवर्षाणि संयमकालो लक्षपूर्वाणीति । भरतस्यायुपश्चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि । देवादयस्तन्निर्वाणपूजां विधाय स्वस्थानं गताः । इति व्याघ्रादयोऽपि दानानुमोदेनैवंविधा जाताः, किं ये स्वयं सत्पात्रदानं कुर्वन्ति ते न स्युरित्यादिपुराणसंक्षेपकथा । विस्तरतो महापुराणे ज्ञातव्यमिति ॥ २॥
२८२
शोक हुआ । तब उसने वृषभसेनादिकोंसे सम्बोधित होकर उत्कृष्ट निर्वाणकल्याणककी पूजा की । फिर वह अपने नगर में वापिस आया । इन्द्रादिक भी स्वर्गलोकको चले गये । तत्पश्चात् वृषभसेन गणधर आदि भी यथाक्रमसे मोक्षको प्राप्त हुए। ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों अच्युत कल्पको प्राप्त हुई । अन्य सब अपने-अपने पुण्यके अनुसार गतिको प्राप्त हुए । भरत चक्रवर्ती पाँच लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे पूर्व, तेरासी लाख निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबै पूर्वाङ्ग और तेरासी लाख उनतालीस हजार वर्ष तक राज्य करता हुआ स्थित रहा । तलश्चात् उसने एक समय अपने शिरके ऊपर श्वेत बालको देखकर अपने पुत्र अर्ककीर्तिको राज्य दे दिया और कैलाश पर्वतपर जाकर अष्टकी पूजा की । फिर उसने कुटुम्बी जनको वापिस करके 'हमारा गुरु ( पिता ) ही गुरु है ' ऐसा मनमें स्थिर किया और स्वयं ही बहुतों के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । वह उसी समय केवली हो गया । वे भरत केवली भव्य जीवोंके पुण्यकी प्रेरणा से एक लाख पूर्व तक बिहार करके कैलाश पर्वतसे मुक्तिको प्राप्त हुए । भरत चक्रवर्तीका कुमारकाल सतत्तर लाख पूर्व, मण्डलीककाल एक हजार वर्ष, दिग्विजयकाल साठ हजार वर्ष राज्यकाल पाँच लाख निन्यानयै हजार नौ सौ निन्यानचै पूर्व, तेरासी लाख निन्यानौ हजार नौ सौ निन्यानत्रै पूर्वाङ्ग और तेरासी लाख उनतालीस हजार वर्ष; तथा संयमकाल एक लाख पूर्व प्रमाण था । भरतकी आयु चौरासी लाख पूर्व (कुमारकाल ७७००००० ०० पूर्व + मण्डलीककाल १००० वर्ष + दिग्विजयकाल ६०००० वर्ष + राज्यकाल ५६६६६६ पूर्व८३६६६६९ पूर्वाङ्गव ८३३१००० वर्ष + संयमकाल १००००० पूर्व = ८४००००० पूर्व ) प्रमाण थी । भरतके मुक्त हो जानेपर देवादिकोंने उनके निर्वाणकी पूजा की । फिर वे अपने स्थानको चले गये । इस प्रकार व्याघ्र आदि भी जब दानकी अनुमोदना से इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुए हैं तब जो स्वयं सत्पात्रदान करते हैं वे क्या ऐसी विभूतिको नहीं प्राप्त होवेंगे ? अवश्य होयेंगे। इस प्रकार यह आदिपुराणकी संक्षिप्त कथा है । विस्तारसे उसे महापुराणसे जानना चाहिए ॥ २ ॥
१. ज लक्षैकान्नव चत्वारिं प श लक्षंकोन्नचत्वारिं । २. श प्रेरणायैक । ३ ज परतः श्वायुषः श्चतुळ व भारतस्य आयुश्चतु ं ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८३
: ६-४, ४५ ]
६. दानफलम् ३-४
[४४-४५] कि भाषे दानजातं सुखगुणदफलं लोके च ददतुर्यन्मोदात्सारसौख्यं दिवि भुवि विमलं पारापतयुगम् । सेवित्वा मुक्तिलाभं सुखगुणनिलयं जात्यादिरहितं तस्मादानं हि देयं विमलगुणगणभव्यैः सुमुनये ॥३॥ जातः श्रेष्ठी कुबेरो नव-सुनिधिपतिः कान्तोत्तरपदः पूर्व श्रीशक्तिसेनः सकृदपि सुगुणः ख्यातः सुददिता । किं भाषे दानसौख्यं ददतगुणवतो जीवस्य विमलं ।
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥४॥ अनयोवृत्तयोः कथे सुलोचनाचरित्रे जातेति तदतिसंक्षेपेण निगद्यते-अत्रैवार्यखण्डे कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनापुरे राजा जयो देवी सुलोचना। तौ दम्पती एकदास्थाने आसितौ । तत्र राजा खे गच्छद्विद्याधरयुगं विलोक्य हा प्रभावतीति विजल्पन् मूर्छितोऽभूत्तद्देवी सुलोचनापि पारापतयुगं दृष्ट्वा हा रतिवरेति भणित्वा मूच्छिता जाता। शीतक्रियया परिजनेनोन्मूर्छितावन्योन्यमुखमवलोकयन्तौ तस्थतुः । तदा जनकौतुकमभूत् । तदा सुलोचना बभाण
लोकमें जिस दानसे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे दाताकोसुख और अनेक उत्तम गुणोंकी प्राप्ति होती है उस दानके फलके विषयमें भला क्या कहा जाय ? अर्थात् उसका फल वचनके अगोचर है । उस दानकी अनुमोदनासे कबूतर और कबूतरी स्वर्गमें व पृथ्वीपर भी उत्तम सुखको भोगकर अन्तमें उस मोक्षको प्राप्त हुए हैं, जो उत्तम सुख एवं अनेक गुणोंका स्थानभूत तथा जन्म-मरणादिके दुखसे रहित है। इसलिए निर्मल गुणोंके समूहसे सहित भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे उत्तम मुनिके लिए दान देवें ॥३॥
पूर्वमें जिस शक्तिसेनने एक बार ही मुनिके लिए आहारदान दिया था वह उत्तम गुणोंसे सुशोभित एवं नवनिधियोंका स्वामी प्रसिद्ध कुबेरकान्त सेठ हुआ है । दाताके सात गुणोंसे संयुक्त जीवको दानके प्रभावसे जो निर्मल सुख प्राप्त होता है उसके विषयमें क्या कहा जाय ? अर्थात् वह अनुपम सुखको देनेवाला है। इसीलिए निर्मल गुणोंके समूहसे सहित भव्य जीवों को मुनि आदि उत्तम पात्रके लिए दान अवश्य देना चाहिए ॥४॥
__इन दोनों पद्यों की कथाएँ सुलोचनाचरित्रमें आयी हैं। उन्हें यहाँ अतिशय संक्षेपसे कहा जाता है-- इसी आर्य खण्डमें कुरुजांगल देशके भीतर हस्तिनापुरमें जयकुमार राजा राज्य करता था । रानीका नाम सुलोचना था । एक दिन वे दोनों पति-पत्नी सभाभवन में बैठे हुए थे । वहाँ जयकुमार आकाशमें जाते हुए विद्याधरयुगलको देखकर 'हा प्रभावती' कहता हुआ मूर्छित हो गया। उधर रानी सुलोचना भी एक कबूतर युगलको देखकर 'हा रतिवर' यह कहती हुई मूर्छित हो गई। सेवक जनके द्वारा शीतलोपचार करनेपर जब उनकी वह मूर्छा दूर हुई तब वे दोनों एक दूसरेका मुख देखते हुए स्थित रहे । इस घटनाको देखकर दर्शक जनको बहुत आश्चर्य हुआ । पश्चात् सुलोचना बोली कि हे नाथ ! मैं रतिवरका स्मरण करके मूर्छित हो गई
१. प ब ददित्तु । २. ज प ब जात इति ।
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-४, ४५ : हे नाथाहं रतिवरं स्मृत्वा मूर्छिताभूवम् , स रतिवरः क्व' इति जातोऽस्ति । स जजल्पाहमेव । ततो बभाण राजा-देवि, प्रभावती बुध्यसे । देव्यहमेवेत्यत । तया जयोऽवोचत्-प्रिये, श्रावयोर्भवानेतेषां कथय । तदाकथयत् सा। कथमित्युक्ते अत्रैव पूर्वविदेहपुष्कलावतीविषये मृणालपुरे राजा सुकेतुः तत्र वैश्यः श्रीदत्तो भार्या विमला, पुत्री रतिकान्ता', विमलायाः भ्राता रतिवर्मा, वनिता कनकधीः, पुत्रो भवदेवः दीर्घग्रीव इति जनेनोएग्रीव इत्युच्यते । स स्वमामं रतिकान्तां याचितवान् । मातुलोऽभणत्-त्वं व्यवसायहीन इति न ददामि। उष्ट्रग्रीवोऽवोचत्- यावदहं द्वीपान्तराद् द्रव्यं समुपाया॑गच्छामि तावत् रतिकान्ता कस्यापि न दातव्या । द्वादश वर्षाणि कालावधिं दत्त्वा द्वीपान्तरं गतः। कालावध्यतिक्रमेऽशोकदेवजिनदत्तयोः पुत्राय सुकान्ताय दत्ता। स आगतः सन् तद्वत्तान्तमवगम्य तन्मारणार्थ भृत्यान् संगृहीतवान् । रात्रौ तद्गृहे वेष्टिते सुकान्तः सवनितः पलायितः।
शोभानगरेशप्रजापालो वनिता देवश्रीः, भृत्यः शक्ति सेनः सहस्रभटः । स राक्षा उत्कृष्टः
थी। वह रतिवर कहाँपर उत्पन्न हुआ है ? यह सुनकर जयकुमार बोला कि वह रतिवर मैं ही हूँ। तत्पश्चात् राजा जयकुमारने भी पूछा कि हे देवि ! क्या तुम प्रभावतीको जानती हो ! इसके उत्तरमें रानी सुलोचनाने कहा कि वह प्रभावती मैं ही हूँ। तब जयकुमारने उससे कहा कि हे प्रिये ! हम दोनोंके पूर्व भवोंका वृत्तान्त इन सबको सुना दो। तत्पश्चात् उसने उन पूर्व भवोंको इस प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया- इसी जम्बूद्वीपमें पूर्व विदेहके अन्तर्गत पुष्कलावती देशमें स्थित मृणालपुरमें सुकेतु राजा राज्य करता था। वहाँ श्रीदत्त नामका एक वैश्य था। उसकी पत्नीका नाम विमला था । इन दोनोंके एक रतिकान्ता नामकी पुत्री थी । विमलाके एक रतिवर्मा नामका भाई था। उसकी पत्नीका नाम कनक श्री था। इन दोनों के एक भवदेव नामका पुत्र था । उसकी गर्दन लम्बी थी, इसलिए लोग उसको उष्ट्रग्रीव ( ऊँट जैसी लम्बी गर्दनवाला ) कहा करते थे । उसने अपने मामा (श्रीदत्त) से अपने लिए रतिकान्ताको माँगा । इसपर मामाने कहा कि तुम उद्योगहीन हो--कुछ भी व्यापारादि काम नहीं करते हो ---इस कारण मैं तुम्हारे लिए पुत्री नहीं दूंगा । तब उष्ट्रग्रीवने कहा कि मैं धनके उपार्जनके लिए द्वीपान्तरको जाता हूँ। जब तक मैं वहाँसे वापिस नहीं आऊँ तब तक तुम रतिकान्ताको अन्य किसीके लिए नहीं देना । इस प्रकार कहकर और बारह वर्षकी कालमर्यादा करके वह द्वीपान्तरको चला गया। परन्तु जब निर्धारित कालकी मर्यादा समाप्त हो गई और उष्ट्रग्रीव वापिस नहीं आया तब श्रीदत्तने उस रतिकान्ताका विवाह अशोकदेव और जिनदत्ताके पुत्र सुकान्तके साथ कर दिया। इधर जब उष्ट्रग्रीव वापिस आया और उसने इस वृत्तान्तको सुना तब उसने सुकान्तकी हत्या करनेके लिए सेवकोंको इकट्ठा किया । उन सबने जाकर रातमें सुकान्तके घरको घेर लिया । तब सुकान्त किसी प्रकारसे रतिकान्ताके साथ उस घरसे निकलकर भाग गया ।
इधर शोभानगरमें प्रजापाल राजा राज्य करता था । रानीका नाम देवश्री था । प्रजापालके एक शक्तिसेन नामका सेवक था जो हजार योद्धाओंके बराबर बलशाली था। राजाने उसे ऊँचा पद
१. ज श 'क' । २. ब जातोसि । ३. ब प्रभावति । ४. श रभिकान्ता। ५. श शोभागनगरेश ।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४
२८५ कृतः प्रजाबाधानिवारणार्थ धनगाटव्यां रम्यातटसरस्तटे स्थानान्तरे व्यवस्थापितः । सुकान्तस्तं शरणं प्रविष्टः । उष्ट्रग्रीवः तत्पृष्ठतः प्राप्य तच्छिबिराद् बहिः स्थित्वोक्तवान्मदीयोऽरिरत्र प्रविष्टो हे शिबिरस्थाः समर्पयध्वम् , नो चेत् यूयं जानीथ । तदा सहस्रभटः सचापो निर्गत्योक्तवान्– अहं सहस्रभटो मां शरणं प्रविष्टं याचसे, किं त्वत्सामर्थ्यम् । सोऽवोचदह कोटीभटः । सहस्रभटो वभाण- सहस्रभटः कोटिभटेन सह युद्ध्वा मृतः इति ख्याति करोमि, संनद्धो भव । उष्टग्रोवस्ततोऽपससार । सुकान्तरतिकान्ते तन्निकटे तत्रैव स्थिते।
एकदा अमितगतिनाम्नो जङ्घाचारणान् स्थापितवान् शक्तिसेनः पञ्चाश्चर्याण्यवाप। तत्सरोऽन्यस्मिन् तटे विमुच्य स्थितो मेरुदत्तश्रेष्ठी तं दानपतिं द्रष्टुमागतः। तेन भोक्तु प्रार्थितः स बभाण-भोये ऽहं यदि मेभणितं करोषि । ततोते ततस्ते]नाभाणिऽहं करिष्येभणत्[भणतु] । श्रेष्ठी बभाण- त्वयैवं भणितव्यमेतदानप्रभावेण भाविभवे तव पुत्रो भविष्यामीति। शक्तिसेन उवाच-किमिदं तवोचितम् । स बभाणोचितम् । तदा तेनेदं निदानमकारि । तद्वनिताटवीश्रीस्तयाप्येतद्दानानुमोदजनित पुण्येनैतद्वनिता भविष्यामीति निदानप्रदान कर उत्कृष्ट करते हुए प्रजाकी बाधाको दूर करने के लिये धन्नगा नामकी अटवी ( वन ) में रम्यातट सरोवरके किनारे स्थानान्तरित किया था। वह सुकान्त वहाँ से भागकर इसकी शरणमें आया था । उधर अष्ट्रग्रीव भी उसका पीछा करके वहाँ आया और शक्तिसेनके शिबिर (छावनी) के बाहर स्थित हो गया। वह बोला कि हे शिबिरमें स्थित सैनिको ! आपके शिबिरमें मेरा शत्रु प्रविष्ट हुआ है । उसे मुझे समर्पित कर दीजिए । यदि आप उसे मेरे लिए समर्पित नहीं करते हैं तो फिर आप जानें । यह सुनकर सहस्रभट धनुषके साथ बाहर निकला और बोला कि मैं सहस्रभट हूँ, तुममें कितना बल है जो तुम मेरी शरणमें आये हुए अपने शत्रुको माँग रहे हो । इसके उत्तरमें जब उष्ट्रग्रीवने यह कहा कि मैं कोटिभट हूँ तब वह सहस्रभट बोला कि तो फिर तैयार हो जा, मैं 'सहस्रभट कोटिभटके साथ युद्ध करके मर गया [कोटिभट सहस्रभटके साथ युद्ध करके मर गया]' इस प्रसिद्धिको करता हूँ। तत्पश्चात् उष्ट्रग्रीव वहाँसे भाग गया। सुकान्त और रतिकान्ता दोनों वहींपर सहस्रभटके समीपमें स्थित रहे।
एक समय शक्तिसेनने अमितगति नामके जंघाचारण मुनिका पड़िगाहन किया- उन्हें आहार दिया । इससे उसके यहाँ पंचाश्चर्य हुए। उसी सरोवरके दूसरे किनारेपर पड़ाव डालकर एक मेरुदत्त नामका सेठ स्थित था। वह उस प्रशस्त दाताको देखने के लिये वहाँ आया। तब शक्तिसेनने उससे अपने यहाँ भोजन करनेकी प्रार्थना की। इसपर मेरुदत्तने कहा यदि तुम मेरा कहना करते हो तो मैं तुम्हारे यहाँ भोजन कर लूंगा। उत्तरमें शक्तिसेनने कहा कि मैं आपका कहना करूँगा, कहिये । यह सुनकर सेठ बोला कि तुम यों कहो कि मैं इस दानके प्रभावसे आगामी भवमें तुम्हारा पुत्र होऊँगा। इसपर शक्तिसेन बोला कि क्या तुम्हारे लिए यह उचित है ? मेरुदत्तने उत्तरमें कहा कि हाँ, यह उचित है। तदनुसार तब शक्तिसेनने वैसा निदान कर लिया। उसकी स्त्री जो अटवीश्री थी उसने भी 'इस दानकी अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके
१. ब राजो दुष्टः कृत प्रजाश राज उत्कृष्टः कृतः प्रजा। २. ब धन्नाटव्यां रम्यां तटे सरस्तटे । ३. श प्रविष्टः । ४. [कोटिभट सहस्रभटेन सह युद्ध्वा मृतः । ५. ५ ख्यातं । ६. श स्वकांत । ७. बनाम्ने । ८. श प्राथितः भोक्षे । ९. श करोति । १० श पुण्येनैव तद्वनिता
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-४, ४५ : मकारि । श्रेष्ठिवनिताधारिण्या[ण्य]प्येतदानानुमतजनितपुण्यप्रभावेन मेरुदत्तस्यैव भार्या भवेयमिति निदानमकार्षीत् । इति निदाने सति श्रेष्ठो बुभुजे । कालान्तरे मृत्वा तत्रैव विषये पुण्डरीकिणीपुरे प्रजापालो नरेशः, कनकमाला देवी, तन्नन्दनो लोकपालः । तत्प्रजापालराजस्य कुबेरमित्रनाम-राजश्रेष्ठी बभूव । धारिणी तच्छष्टिनी धनवती जाता। स शक्तिसेनस्तयोः सुतः कुबेरकान्तनामाजनि। साटवीश्रीः कुबेरमित्रभगिन्याः कुबेरमित्रायाः समुद्रदत्तवनितायाः प्रियदत्ताभिधा सुता बभूव । सहस्रभटमरणमाकर्ण्य स उष्ट्रग्रीवः सुकान्तरतिकान्तयोर्गृहं ज्वालयामास । तत्पोरैः सोऽपि तत्रैव विनिक्षिप्तः। दम्पती रतिवररतिवेगाख्यं कुबेरमित्रश्रेष्टिगृहे कपोतमिथुनमभूत् । उष्ट्रग्रीवः पुण्डरीकिणीसमीपजम्बूग्रामे मार्जारो उजनि । तत्पारापतयुगं कुबेरकान्तकुमारस्यातिप्रियं जातम् । तेनैव सार्धं पपाठ।
एकदा श्रेष्ठिभवनपश्चिमदेशवयुद्यानं सुदर्शनाख्यश्चारणः समागतः । तं कपोतयुगेन सह गत्वा श्रेष्ठिपुत्रो ववन्दे । धर्मश्रुतेरनन्तरमेकपत्नीव्रतमाददौ । तन्न कोऽपि वेत्ति । तद्विवाहनिमित्तं श्रेष्ठी गुणवती-यशोव [म] त्याख्य राज्ञः कुमार्यो, प्रियदत्तामन्येषामपि इभ्यानां पञ्चोत्तरशतकन्याः; एवमष्टोत्तरशतकुमार्यो याचितः प्राप्ताश्च। विवाहोद्यमे क्रियमाणे कपोताभ्यां प्रभावसे मैं इसकी पत्नी होऊँगी' ऐसा निदान कर लिया। सेठकी पत्नी धारिणीने भा 'इस दानकी अनुमोदनासे उत्पन्न पुण्य के प्रभावसे मैं मेरुदत्तकी ही पत्नी होऊँगी' ऐसा निदान कर लिया । तब वैसा निदान कर लेनेपर मेरुदत्त सेठने शक्तिसेनके यहाँ भोजन कर लिया। फिर वह (मेरुदत्त) कुछ समयके पश्चात् मरकर उसी देशके भीतर पुण्डरीकिणी पुरमें प्रजापाल राजाके यहाँ कुबेरमित्र नामका राजसेठ हुआ। उपर्युक्त प्रजापाल राजाकी पत्नीका नाम कनकमाला और पुत्रका नाम लोकपाल था । धारिणी मरकर कुबेरमित्र राजसेठकी धनवती नामकी पत्नी हुई । वह शक्तिसेन मरकर उन दोनोंके कुबेरकान्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। और वह शक्तिसेनकी पत्नी अटवीश्री कुबेरमित्रकी बहिन और समुद्रदत्तकी पत्नी कुबेरमित्राके प्रियदत्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उधर उष्ट्रग्रीवको जैसे ही सहस्रभटके मरनेका समाचार मिला वैसे ही उसने सुकान्त और रतिकान्तके घरको अग्निसे प्रज्वलित करके भस्मसात् कर दिया। यह देखकर उस नगरके निवासियोंने उसे भी उसी अग्निमें फेंक दिया। तब सुकान्त और रतिकान्ता दोनों इस प्रकारसे मरकर कुबेरमित्र सेठके घरपर रतिवर और रतिवेगा नामका कबूतरयुगल ( कबूतर-कबूतरी) हुआ। और वह उष्ट्रग्रीव मरकर पुण्डरीकिणी पुरके समीपमें स्थित जम्बूगाँवमें बिलाव हुआ। वह कबूतरयुगल कुबेरकान्त कुमारके लिये अतिशय प्यारा हुआ, वह उसीके साथ पढ़ने लगाकुबेरकान्तके पास सीखने लगा।
एक समय सेठके भवनमें पिछले भागमें स्थित उद्यानमें एक सुदर्शन नामके चारण मुनि आये। कुबेरकान्तने उस कबूतरयुगलके साथ जाकर उन मुनिराजकी वन्दना की। तत्पश्चात् उसने उनसे धर्मश्रवण करके एकपत्नीव्रतको ग्रहण किया। परन्तु इस बातको कोई जानता नहीं था। इसीलिये कुबेरमित्रने उसके विवाह के लिये गुणवती और यशोमती ( यशश्वती ) नामकी दो राजकुमारियों, अपनी भानजी ( समुद्रदत्तकी पुत्री ) प्रियदत्ता और अन्य धनिकोंकी एक सौ पाँच; इस प्रकार एक सौ आठ कन्याओंकी याचना की जो उसे प्राप्त भी हो गई। तत्पश्चात् वह
१. प समुद्रदत्तेभ्यवनि ब समुद्रदत्तस्यः वनि श समुद्रदत्तसवनि । २. श दम्पति । ३. श कुमार्या ।
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४
२८७ लिखित्वा दर्शितं कुमारस्यैकपत्नीव्रतमिति । तदनु भातापितृभ्यां पृष्टेनो [नौ] मिति' भणितम् । ततः श्रेष्ठी विषण्णोऽभूत् । सर्वासु मध्ये का प्रिया भविष्यतीति परीक्षानिमित्तं तत्पुरबहिःस्थशिवंकरोद्यानमध्यवर्तिजगत्पाल चक्रेश्वरकारितजिनालये पूजां कारितवान् , तहिनेऽष्टोत्तरशतकुमारीणां गुणवती यशोमतीप्रभृतीनामुपवासं कर्तुं च निरूपितवान् । तदा राजादीनां कौतुकोत्पादकमभिषेकादिकं चकार' जागरणं च । प्रातरष्टोत्तरशतस्वर्णपात्रेषु पायसं परिविष्टम् । तस्योपरि सुवर्णवर्तुलेषु भृत्वा घृतं निधायैकस्मिन् वर्तुलके रत्नं निक्षिप्तम् । तत्प्रमाणभाजनेषु वस्त्राभरणविलेपनादिकं निधाय तानि सर्वाणि भाजनानि यक्षाने निधाय श्रेष्ठी कन्यानामतैकैकपायसभाजनं वस्त्रादिभाजनं गृहीत्वा गच्छथ, सु दर्शनसरस्तटे भुक्त्वा शृङ्गारं कृत्वागच्छथेति। ताः सर्वाः कुवेरकान्तायास कास्तन्नाम्ना बुभुजिरे शृङ्गारं चक्रुः, समागत्य स्व-स्वपितृसमीपे उपविविशुः । तदा श्रेष्ठी बाणैकस्मिन् वर्तुलके रत्नं स्थितम् , तत्कस्या हस्तमागतम् । प्रियदत्तयोक्तम्- माम, मद्धस्तमागतं गृहाण । ततः स श्रेष्ठी बुबुधे इयमस्य प्रिया स्यादिति । देव, मत्पुत्रस्यैकपत्नीव्रतमिति स्वस्य स्वस्य कुमार्यो यस्मै-कस्मैचिद्दीयन्तामिति । राज्ञोक्तमस्य पुण्यमूतरेकपत्नीव्रतकारणं नास्तीति नानाप्रकारैनि
उसके विवाहकी तैयारी भी करने लगा। यह देखकर उस कबूतरयुगलने लिखकर दिखलाया कि कुमार कुबेरकान्तके एकपत्नीव्रत है। तत्पश्चात् जब माता-पिताने इस सम्बन्धमें उससे पूछा तब उसने इसका 'हाँ'में उत्तर दिया । इससे सेठको बहुत खेद हुआ। फिर उसने इन एक सौ आठ कन्याओंमें कुबेरकान्तको अतिशय प्रिय कौन होगी, इसकी परीक्षा करनेके लिये उस नगरके बाहरी भागमें शिवंकर उद्यानके भीतर जो जगत्पाल चक्रवर्तीके द्वारा निर्मापित चैत्यालय स्थित था उसमें जाकर पूजा करायी । उसने उस दिन गुणवती और यशोमती आदि उन एक सौ आठ कन्याओंके लिये उपवास करनेके लिये भी कहा । उस समय उसने राजा आदिको आश्चर्यान्वित करनेवाला अभिषेक आदि कराया और जागरण भी कराया। प्रातःकाल हो जानेपर फिर उसने एक सौ आठ सुवर्णपात्रोंमें खीरको परोसा और उसके ऊपर सुवर्णकी कटोरियोंमें भरकर घीको रक्खा । उनमेंसे एक कटोरीमें उसने एक रत्नको रख दिया। तत्पश्चात् कुबेरमित्रने उतने (१०८) ही पात्रोंमें वस्त्र, आभरण और विलेपन आदिको रखकर उन सब पात्रोंको यक्षके आगे रख दिया और उन सब कन्याओंसे कहा कि तुम सब एक एक खीरके पात्र और एक एक वस्त्रादिके पात्रको लेकर जाओ तथा सुदर्शन तालाबके किनारेपर भोजन करके व वस्त्राभरणोंसे विभूषित होकर वापिस आओ। वे सब कुबेरकान्तमें आसक्त थीं, इसलिये उन सबने उसके नामसे भोजन व शृंगार किया। तत्पश्चात् वे वहाँ से वापिस आकर अपने अपने पिताके समीपमें बैठ गई। उस समय कुबेरमित्र सेटने उनसे पूछा कि एक घीके पात्रमें एक रत्न था, वह किसके हाथमें आया है ? यह सुनकर प्रियदत्ताने उत्तर दिया कि हे मामा ! वह रत्न मेरे हाथमें आया है । वह यह है, इसे ले लीजिये । तब सेठने जान लिया कि यह कुबेरकान्तकी प्रिया होगी। तत्पश्चात् कुबेरमित्र सेठने राजाको लक्ष्य करके कहा कि हे देव ! मेरे पुत्रके एकपत्नीव्रत है, अत एव आप अपनी अपनी पुत्रियोंको
१.श पप्टेतनोमिति। २.ब यशोवती। ३. ब पायसभाजनं च गहीत्वा। ४. ज तन्नात्मा पतन्नाना।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-४,
वारितोऽपि तद्वतंन त्यक्तवान् । तदा कन्या अब्रुवत' देवास्मिन् भवेऽयमेव भर्ता, नान्य इत्यस्माकं प्रतिज्ञेति अमित मत्यनन्तमत्यार्थिकाभ्यासे प्रियदत्तां विनान्या दीक्षिताः । राजादयस्तासां वन्दनादिकं कृत्वा पुरं प्रविविशुः । कुवेरकान्तप्रियदत्तयोर्विवाहोऽभूत् । पूर्वभवमुनिदानफलेन तदुद्यानवृक्षाः सर्वेऽपि कल्पवृक्षा वभूवुः, गृहे नव निधानानि च । तन्नाद्भुतम् धर्मफलेन विभूतय इति । एवं कुबेरकान्तः सुखेन तस्थौ ।
प्रजापालः किंचिद्वैराग्य हेतुमवाप्य लोकपालं स्वपदे निधाय श्रेष्ठिनः समर्प्य दशसहस्रक्षत्रियादिभिरमितगतिचारणान्तिके दीक्षितो मुक्तिमवाप । इतः श्रेष्ठी लोकपालस्य यथेष्टं प्रवर्तितुं न प्रयच्छतीति सर्वेषां यूनां मन्त्रिणां तस्योपरि द्वेषो बभूव । तै राज्ञः पुटपुटिकां या ददाति' बकुलमाला विलासिनी सा विशिष्टभूषणादिकं दत्त्वा प्रार्थिता- ईषन्निद्रावस्थायां राजा यथा शृणोति तथा त्वं बभाण 'श्रेष्ठी वयोवृद्धो गुणाधिकस्तं त्वसिहासनाध उपवेशितुमनुचितम्' इति । तया प्रस्तावं ज्ञात्वा तथा भणिते राज्ञा स्वप्नमेव मत्वा प्रातरागतः श्रेष्ठ भणितो यदाहमाह्वयामि तदागच्छेति । ततः कुबेरमित्रः स्वगृह एव स्थितः । इतो राजा
२८८
जिस किसी भी कुमारको दे दीजिये । इसपर राजाने कहा कि इस पुण्यमूर्तिके एकपत्नीव्रत
का कोई कारण नहीं है । इसीलिये उसने अनेक प्रकारसे कुबेरकान्तको उक्त एकपत्नीव्रत से विमुख करनेका प्रयत्न किया, परन्तु उसने उस व्रतको नहीं छोड़ा। तब उन कन्याओंने कहा कि हे देव ! इस भवमें हमारा पति यही है, और दूसरा कोई नहीं; यह हम लोगोंकी प्रतिज्ञा है । ऐसा कहते हुए उनमेंसे एक प्रियदत्ताको छोड़कर शेष सबने अमितमती और अनन्तमती आर्यिकाओं के समीपमें जाकर दीक्षा ग्रहण कर ली । तब राजा आदि उन सबकी बन्दना आदि करके नगर में प्रविष्ट हुए । इस प्रकार कुबेरकान्त और प्रियदत्ताका विवाह हो गया । पूर्व भवमें मुनिराज के लिये दिये गये उस दानके प्रभावसे उसके उद्यानके सब ही वृक्ष कल्पवृक्ष हो गये तथा घरमें नौ निधियाँ भी प्रादुर्भूत हुई । सो यह कुछ आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि, धर्म के फलसे अनेक प्रकारकी विभूतियाँ हुआ ही करतीं हैं। इस प्रकारसे वह कुबेरकान्त सुखसे स्थित हुआ । प्रजापाल राजाने किसी वैराग्यके निमित्तको पाकर लोकपालको अपने पदके ऊपर प्रतिष्ठित कर दिया और उसे सेठको समर्पित करते हुए दस हजार क्षत्रियों (राजाओं) आदि के साथ अमितगति चारण मुनिराजके पासमें दीक्षा ले ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ । इधर कुबेरमित्र सेठ लोकपालको इच्छानुसार नहीं प्रवर्तने देता था, इसलिए सच युवक मन्त्रियोंका सेठ के ऊपर द्वेषभाव हो गया । तब उन सबने जो बकुलमाला नामकी वेश्या राजाके लिए पुटपुटिका (?) दिया करती थी उसको विशिष्ट भूषण आदि देकर कहा कि रातमें जब राजा कुछ निद्रित अवस्था में हो तब तुम जिस प्रकारसे वह सुन सके उस प्रकारसे यह कहना कि सेठ तुमसे अवस्था में वृद्ध और गुणोंमें अधिक है, इसलिए उसको अपने सिंहासनके नीचे बैठाना योग्य नहीं है । तदनुसार उसने प्रस्तावको जानकर उसी प्रकार से कह दिया । राजाने इसे स्वप्न ही माना । प्रातः काल होनेपर जब सेठ आया तब राजाने उससे कहा कि जब मैं आपको बुलाऊँ तब आया कीजिये । तब उसके कथनानुसार सेठ कुबेरमित्र अपने घरपर ही रहने लगा । इधर राजा
१. ब अश्रुता । २. श भवर्यम भर्त्ता । ३. श कुबेरकान्तः एवं ।
५. ज वयोवृद्धो । ६. व सिंहासना अथ उप ।
I
४५ :
४. ब पटुपुटिकायां ददाति ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-४, ४५ ] ६. दानफलम् ३-४
२८९ नववयोभिः प्रधानर्यथेष्टमटितुं लग्नः। एकस्यां रात्रौ राज्ञः शिरः प्रणयकल हेन वसुमत्या राश्या पादेनाहतम् । राजा प्रातरास्थाने मन्त्रिणोऽपृच्छत्- मच्छिरो येन पादेनाहतं तत्पादस्य किं कर्तव्यम् । सर्वैः संभूयोक्तम् ‘से पादः छेदनीयः' इति । श्रुत्वा नृपो विषण्णोऽभूत्, श्रेष्ठिनमाहूय तच्छास्ति पृष्टवान् । सोऽवोचत्-- गुरुपादश्चेत्पूजनीयो वनितापादश्चेन्नूपुरादिनालंकरणीयो बालकपादश्चेत्स वालो मोदकादिना प्रीणनीय इति । श्रुत्वा नृपः संतुतोष । तस्य प्रतिदिनमागन्तुं निरूपितवान् । एवं स श्रेष्ठो राजमान्यः सुखेन स्थितः।
___ एकस्मिन् दिने श्रेष्ठिनः केशान् विरलयन्ती धनवती पलितमालोक्य श्रेष्ठिनोऽदर्शयत् । स च तद्दर्शनेन वैराग्यं जगाम । कुबेरकान्तं लोकपालस्य समर्प्य बहुभिर्वरधर्मभट्टारकान्ते तपसा निर्वृतः।
इतः कुवेरकान्तप्रियदत्तयोः पुत्राः कुबेरदत्त-कुबेरमित्र-कुबेरदेव-कुबेरप्रिय-कुबेरकन्दाः पञ्च जज्ञिरे। एकस्मिन् दिने कुबेरकान्तश्रेष्ठी तानेवामितगतिजङ्घाचारणान् स्थापितवान् , पञ्चाश्चर्यायवाप। तत्पष्पवष्टयादिकं दृष्टा तौ कपोतावानन्दं कुर्वन्ताववलोक्य कुबेरकान्तोऽव्रत 'हे रतिवररतिवेगे, एतत्पुण्यसहस्रकभागो भवद्भ्यां दत्तः' इति । तदा तौ तुष्टौ नवीन अवस्थावाले मन्त्रियोंके साथ घूमने-फिरने में लग गया। एक दिन रातमें वसुमती रानीने प्रणयकलहमें राजाके शिरको पैरसे ताड़ित किया । तब राजाने सबेरे सभागृहमें आकर मन्त्रियोंसे पूछा कि जिस पैरसे मेरे शिरमें ठोकर मारी गई है उस पैरके विषयमें क्या किया जाय ? उत्तरमें सब मन्त्रियोंने मिलकर कहा कि उस पैरको छेद डालना चाहिये । यह उत्तर सुनकर राजाको बहुत विषाद हुआ। तत्पश्चात् राजाने सेठ कुबेरमित्रको बुलाकर उससे भी उपर्युक्त अपराधविषयक दण्डके सम्बन्धमें पूछा। सेठने उत्तरमें कहा कि आपके शिरको ताड़ित करनेवाला वह पैर यदि गुरुका है तब तो वह पूजनेके योग्य है, यदि वह पत्नीका है तो नपुर (पैजन) आदिके द्वारा अलंकृत करनेके योग्य है, और यदि वह बालकका है तो फिर उस बालकको लड्डू आदि देकर प्रसन्न करना चाहिये । सेठके इस उत्तरको सुनकर राजाको बहुत सन्तोष हुआ। अब उसने सेठको प्रतिदिन सभागृहमें आनेके लिए कह दिया। इस प्रकारसे वह कुबेरमित्र सेठ राजासे सम्मानित होकर सुखसे रहने लगा।
एक दिन सेठकी पत्नी धनवतीने उसके बालोंको विखेरते हुए एक श्वेत बालको देखकर उसे सेठको दिखलाया। उसे देखकर सेठ कुबेरमित्रको वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उसने अपने पुत्र कुबेरकान्तको लोकपालके लिये समर्पित करके वरधर्म भट्टारकके पासमें बहुतोंके साथ दीक्षा धारण कर ली । अन्तमें वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ।
इधर कुबेरकान्त और प्रियदत्ताके कुबेरदत्त, कुबेरमित्र, कुबेरदेव, कुबेरप्रिय और कुबेरकन्द नामके पाँच पुत्र उत्पन्न हुए। एक दिन कुबेरकान्त सेठने उन्हीं अमितगति नामके जंघाचारण मुनिका आहारार्थ पड़िगाहन किया । उनका निरन्तराय आहार हो जानेपर उसके यहाँ पंचाश्चर्य हुए। उन पुष्पवृष्टि आदिरूप पंचाश्चर्यों को देखकर पूर्वोक्त कबूतरयुगलको बहुत आनन्द हुआ। उनके आनन्दको देखकर कुबेरकान्तने उनसे कहा कि हे रतिवर और रतिवेगे ! इस आहारदानसे जो मुझे पुण्य प्राप्त हुआ है उसका हजारवाँ भाग मैं आप दोनोंको देता हूँ।
१. फ राज्ञः प्रणय', २. व सव्व: भूयोक्तं स । ३. श विरलती । ४. फ निर्वृत्तः । ५. ज तामेवा ।
Jain Education Internat३७
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यावकथाकोशम्
[ ६-४, ४५ :
तत्पादयोर्लग्नौ । स तयोर्योग्यान्याभरणानि कारयति स्म। एकदा तैर्विभूषितौ' विमलजलानदीतीरे वालुकानामुपरि क्रीडन्तौ स्थितौ । तदा दिव्यविमानेन खे गच्छत् विद्याधरयुगलमालोक्य श्रेष्ठिदत्तपुण्यफलेन भाविभवे ईदृशौ खेचरौ भविष्याव इति कृतनिदानावेकदा जम्बूग्रामे चैत्यालयाग्रे जननिक्षिप्ताक्षतान् भक्षयन्तौ श्रतिष्ठताम् । तेन बिडालेन रतिचरो
धृतः । तं मार्जारं रतिवेगा मस्तके चञ्च्वा हन्ति स्म । तदा स रतिवरं विमुच्य रतिवेगां धृतवान् । सा जनेन मोचिता । तौ कण्ठगतासू वसतिं प्रवेश्यायिकास्ताभ्यां पञ्चनमस्कारान् ददुः । रतिवरो मृत्वा तद्विषयविजयार्धदक्षिणश्रेणी सुसीमानगराधिपादित्यगतिशशिप्रभोः हिरण्यवर्मनामा पुत्रोऽभूदतिरूपवान् । रतिवेगा वितनुर्भूत्वा तद्गिरेरुत्तरश्रेण्यां भोगपुर पति वायुरथस्वयंप्रभयोः प्रभावती सुता जाता सहस्रकुमारीणां ज्यायसी । ते हिरण्य
२९०
प्रभावत् साधितसकलविद्ये प्राप्तयौवने जाते। एकदा वायुरथ उवाच 'पुत्रि, सकलविद्या - धरयुवसु ते को वियच्चरः प्रतिभाति, तेन ते विवाहं करिष्यामि' इति । प्रभावती न्यगदत् यो मां गतियुद्धे जयति सः, नान्यः । तद्भगिनीभिरप्येतस्या वरोऽस्माकं वरो नो चेत्तप इत्युक्तम् ।
इससे सन्तुष्ट होकर वे दोनों उसके पैरोंमें गिर गये । उसने उन दोनों को योग्य आभरणों से विभूषित किया । वे दोनों उन आभरणोंसे विभूषित होकर किसी एक दिन विमलजला नदी के किनारे बालुका के ऊपर क्रीड़ा कर रहे थे । उस समय वहाँ से एक विद्याधरयुगल ( विद्याधर व उसकी पत्नी ) दिव्य विमानसे आकाशमें जा रहा था । उसको देखकर कबूतरयुगलने यह निदान किया कि सेठके द्वारा दिये गये पुण्यके प्रसादसे हम दोनों आगेके भवमें इस प्रकार के विद्याधर होंगे । तत्पश्चात् वे दोनों एक दिन जम्बूग्राम में स्थित चैत्यालयके आगे जनोंके द्वारा फेंके गये चावलोंको चुगते हुए स्थित थे । उसी समय उस बिलावने आकर रतिवरका गला पकड़ लिया । तब उस बिलाव को देखकर रतिवेगाने अपनी चोंचसे उसके मस्तक के ऊपर प्रहार किया । इससे क्रोधित होकर उस बिलाचने रतिवरको छोड़कर उस रतिवेगाको पकड़ लिया । परन्तु लोगोंने देखकर उसे उस बिलाचके पंजेसे छुड़ा दिया । इस प्रकारसे मरणासन्न अवस्था में उन दोनोंको चैत्यालय के भीतर प्रविष्ट कराकर आर्यिकाने पञ्चनमस्कार मन्त्रको दिया । उसके प्रभावसे रतिवर मृत्युके पश्चात् उसी देशमें स्थित विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणी में सुसीमा नगरके स्वामी आदित्यगति और शशिप्रभा हिरण्यवर्मा नामका अतिशय रूपवान् पुत्र हुआ । और वह रतिवेगा कबूतरी शरीरको छोड़कर उसी विजयार्ध पर्वतकी उत्तर श्रेणी में स्थित भोगपुर के राजा वायुरथ और रानी स्वयंप्रभा के प्रभावती नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । वह उनकी एक हजार कुमारियोंमें सबसे बड़ी थी । हिरण्यवर्मा और प्रभावती ये दोनों समस्त विद्याओंको सिद्ध करके यौवन अवस्थाको प्राप्त हुए। एक समय वायुरथ उस प्रभावतीको युवती देखकर बोला कि हे पुत्र ! समस्त विद्याधर युवकों में से कौन-सा विद्याधर युवक तेरे लिए योग्य प्रतिभासित होता है, उसके साथ मैं तेरा विवाह कर दूँगा । इसके उत्तर में प्रभावती बोली कि जो मुझे गतियुद्ध में जीत लेगा वह मुझे योग्य प्रतीत होता है, दूसरा नहीं । उसकी बहिनों ने भी कहा कि इसका जो पति होगा वही हम सबका भी पति होगा, और यदि यह सम्भव नहीं हुआ तो हम तपको स्वीकार करेंगी । इसपर
१. तो विभूषितौ । २. ब प्रतिपाठोऽयम् । श प्रविश्यायिका । ३ ज प श भोगपतिपुरवायु । ४. व युवसु तेषु को । ५. श 'तेन' नास्ति । ६. श प्रभावंती ।
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-४, ४५] ६. दानफलम् ३.४
२९१ तदा वायुरथः सुराद्रिनिकटे सकलवियञ्चरान् मेलितवान् तत्स्वयंवरार्थम् । पाण्डुकवने स्थित्वा मक्तां रत्नमालां सौमनसवने संस्थित्वा मोचनानन्तरं मेरुं त्रिःपरीत्य यः प्रथम रत्नमालां गृह्णाति स जयतीति घोषयित्वा प्रभावत्या तदा तस्मिन् गतियुद्धे बहवः खेचरा जिताः। तदनु हिरण्यवर्मणा सा जिता, ततस्तया तस्य माला निक्षिप्ता। जगदाश्चर्यमभूत् । हिरण्यवर्मा प्रभावत्यादिसहस्रकुमारीरवृणीत, जगदाश्चयविभूत्या सुखेनातिष्ठत् । ___ आदित्यगतिस्तस्मै स्वपदं वितीर्य निष्क्रान्तो मुक्तिमितः। हिरण्यवर्मोभयश्रेण्यौ साधयित्वा वियञ्चराधिपो भूत्वा महाविभूत्या प्रभावत्या समं सुखमन्वभूत् । दानानुमोदजनितपुण्यफलेन प्रभावती सुवर्णवर्मादिकान् पुत्रानलभत । बहुकालं राज्यं कृत्वा कदाचित्पुण्डरी. किणीं जिनगृहवन्दनार्थ हिरण्यवर्मप्रभावत्यौ गते । तत्पुरदर्शनेनैव जातिस्मरे अजनिष्टाम । स्वपुरं गत्वा सुवर्णवर्मणे राज्यं दत्त्वा हिरण्यवर्मा गुणधरचारणान्तिके बहुभिर्दीक्षितश्चारणोऽजनि सकलश्रुतधरश्च । प्रभावती बहीभिः सुशीलार्जिकाभ्यासे दीक्षिता। एकदा गुणधरमुनिः ससमुदायः शिवंकरोद्यानवनेऽवतीर्णवान् । तत्र पुण्डरीकिण्यां गुणपालो नृपो वनिता कुबेरकान्तश्रेष्ठिपुत्री कुबेरश्रीः । स राजा सपरिजनो वन्दितुं निर्गतो वन्दित्वा वायुरथने उसके स्वयंवरके लिये सुराद्रि (मेरु) के निकट समस्त विद्याधरोंको आमन्त्रित किया। उसने घोषणा की कि पाण्डुक वनमें स्थित होकर छोड़ी गई रत्नमालाको सौमनस वनमें स्थित होकर जो छोड़ने के पश्चात् मेरुकी तीन प्रदक्षिणा करके उस रत्नमालाको सबसे पहिले ग्रहण कर लेता है वह विजयी होगा। तदनुसार प्रभावतीने उस समय उस गतियुद्धमें बहुत-से विद्याधरोंको पराजित कर दिया। तत्पश्चात् हिरण्यवर्माने उसे इस युद्धमें जीत लिया। तब उसने हिरण्यवर्माके गलेमें वरमाला डाल दी। यह देखकर सब लोगोंको बहुत आश्चर्य हुआ। इस प्रकारसे हिरण्यवर्माने उन प्रभावती आदि एक हजार कुमारिकाओंको वरण कर लिया। फिर वह संसारको आश्चर्यान्वित करनेवाली विभूतिके साथ सुखसे स्थित हुआ।
आदित्यगति उसके लिये राज्य देकर दीक्षित हो गया और मुक्तिको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् हिरण्यवर्मा दोनों ही श्रेणियोंको स्वाधीन करके समस्त विद्याधरोंका स्वामी हो गया । वह महती विभूतिसे संयुक्त होकर प्रभावतीके साथ सुखका अनुभव करने लगा। प्रभावतीने उस दानकी अनुमोदनासे प्राप्त हुए पुण्यके प्रभावसे सुवर्णवर्मा आदि पुत्रों को प्राप्त किया। इस प्रकार हिरण्यवर्माने बहुत समय तक राज्य किया। किसी समय वह हिरण्यवर्मा और प्रभावती दोनों जिनगृहकी वंदना करनेके लिये पुण्डरीकिणी पुरीको गये। उस पुरीके देखनेसे ही उन दोनोंको जातिस्मरण हो गया। तब वह हिरण्यवर्मा अपने नगरमें वापिस गया और सुवर्णवर्माको राज्य देकर गुणधर नामक चारणमुनिके निकटमें बहुतोंके साथ दीक्षित हो गया। वह चारण ऋद्धिसे संयुक्त होकर समस्त श्रुतका धारक हुआ। उधर प्रभावतीने भी बहुत-सी स्त्रियोंके साथ सुशीला आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ले ली। एक दिन गुणधर मुनि संघके साथ शिवंकर उद्यान-वनमें आये । वहाँ पुण्डरीकिणी पुरीमें गुणपाल नामका राजा राज्य करता था। रानीका नाम कुबेरश्री था जो कुबेरकान्त सेठकी पुत्री थी। वह राजा सेवक जनोंके साथ सपरिवार मुनिकी वंदनाके लिये
१. श श्रेष्ठी। २. बवने समं स्थित्वा । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श गुणधरचरणांतिके । ३. ब सुशीलायिकाभ्यासे । ४. श श्रेष्ठीपुत्री। ५. ज श कुबेरश्री। ६. श 'वन्दितुं' नास्ति ।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ६-४, ४५ : धर्ममाकर्ण्य हिरण्यवर्ममुने रूपातिशयमालोक्याचार्यमनुप्राक्षीत् --अयंकः किमिति दीक्षितवान्। स निरूपितवान्-कुबेरकान्त श्रेष्ठिगृहे यः स्थितो रतिवराख्यः कपोतः स मुनिदानानुमोदजनितपुण्यफलेन विद्याधरचक्री हिरण्यवर्मायं जातः । इमां पुण्डरीकिणीं विलोक्य जातिस्मरो भूत्वा दीक्षितः इति । श्रुत्वा राजा धर्मफलेऽतिश्रद्धापरोऽजनि, तथान्येऽपि। तदा सा सुशीलाजिकापि स्वसमूहेन तद्वनैकस्मिन् प्रदेशे स्थिता । तामपि वन्दित्वा राजा पुरं प्रविष्टः ।
सा प्रियदत्ता मुनिसमूहं वन्दित्वागत्यार्यिकासमूहमवन्दत । तदा प्रभावती तां ज्ञात्वा पृच्छति स्म प्रियवचनेन हे प्रियदत्ते, सुखेन स्थितासि । प्रियदत्ताभणत्-हे आर्ये, कथं मां जानासि । प्रभावती स्वस्वरूपं प्रतिपाद्य पुनः पृच्छति स्म कुबेरकान्तः श्रेष्ठी कास्ते । प्रियदत्ता कथति स्म-हे प्रभावति, एकदा मया दिव्यरूपार्जिका चर्या कारयित्वा पृष्टा-विशिष्टरूपा का त्वम् , तारुण्ये किं दीतितासि । सा निरूपयति स्म-विजयार्धदक्षिणश्रेण्यां गन्धारपुरेशगन्धराजमेघमालयोः सुताहं रतिमाला, तत्रैव मेघपुरेशरतिवर्मणः प्रियाभूवम् । एकदा मद्वल्लभो मयात्र जिनालयान् वन्दितुमागतस्तदा मया ते पतिर्दृष्टः। तदनु मया मत्पतिः पृष्टः कोयमिति । निकला । वंदना करनेके पश्चात् धर्मश्रवण करके जब उसने हिरण्यवर्मा मुनिके अतिशय सुन्दर रूपको देखा तब आचार्यसे पूछा यह कौन है और किस कारणसे दीक्षित हुआ है ? इसके उत्तरमें आचार्य बोले कि कुबेरकान्त सेठके घरपर जो रतिवर नामका कबूतर था वह मुनिदानको अनुमोदनासे उत्पन्न हुए पुण्यके फलसे यह विद्याधरोंका चक्रवर्ती हिरण्यवर्मा हुआ है। इसने पुण्डरीकिणी पुरीको देखकर जातिस्मरण हो जानेके कारण दीक्षा ग्रहण कर ली है । इस वृतान्तको सुनकर वह राजा धर्मके फलके विषय में दृढ़श्रद्धालु हो गया। इसी प्रकार अन्य जनोंकी भी उस धर्मके विषयमें अतिशय श्रद्धा हो गई। उस समय वह सुशीला आर्यिका भी अपने संघके साथ उसी वनके भीतर एक स्थानमें स्थित थी। उसकी भी वंदना करके वह गुणपाल राजा अपने नगरके भीतर प्रविष्ट हुआ।
कुबेरकान्त सेठकी पत्नी प्रियदत्ता भी उस मुनिसंघकी वंदना करनेके लिये गई थी। उसने मुनिसंघकी वंदना करके उस आर्यिकासंघकी भी वंदनाकी। उस समय प्रभावतीने देखकर प्रियवचनों के द्वारा उससे पूछा कि हे प्रियदत्ता ! तुम सुखसे तो हो । तब प्रियदत्ता बोली कि हे आर्ये ! आप मुझे कैसे जानती हैं ? इसपर प्रभावतीने वह सब पूर्वोक्त वृत्तान्त कह दिया । तत्पश्चात् उसने पूछा कि कुबेरकान्त सेठ कहाँपर हैं ? उत्तरमें प्रियदत्ता बोली--हे प्रभावती ! एक समय मैंने अतिशय दिव्य रूपको धारण करनेवाली एक आर्यिकाको आहार कराकर उनसे पूछा कि ऐसे अनुपम रूपकी धारक तुम कौन हो और इस यौवन अवस्थामें किस कारण दीक्षित हुई हो ? तब वह मेरे प्रश्न के उत्तरमें बोली-विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक गन्धारपुर है । वहाँपर एक गन्धराज नामका राजा राज्य करता है । रानीका नाम मेघमाला है। मैं इन्हीं दोनोंकी पुत्री हूँ। मेरा नाम रतिमाला है। उसी पर्वतके ऊपर स्थित मेघपुरके राजा रतिवर्मा के साथ मेरा विवाह हुआ था। एक दिन मेरा पति मेरे साथ यहाँ जिनालयोंकी वंदना करनेके लिये आया था। उस समय मैंने तुम्हारे पति ( कुबेरकान्त ) को देखा । तत्पश्चात् मैंने अपने पतिसे
१. बर्यमप्राक्षीत् । २. श कुबेरकान्ति । ३. ब सुशीलार्यिकापि । ४. ब रूपायिकाचर्यां ।
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
६–४, ४५ ]
६. दानफलम् ३-४
रतिवर्मणोक्तं मन्मित्रं कुबेरकान्त श्रेष्ठीति । तदन्वहं तस्यासक्ता जाता । तत्संयोगार्थ जिनपूजानन्तरं वने क्रीडनावसरेऽहं मायया हा नाथ, मां सर्पोऽखाददिति विजल्प्य मूर्च्छया पतिता । तदा स विहलो भूत्वा स्वयं निर्विषां कर्तुं लग्नो न चोत्थिताहम् । तदा कुवेरकान्तसमीपमानोयोक्तवान्- मित्रेमां निर्विषां कुरु । तदा कुवेरकान्तो मत्पति कांचिन्मूलिकामानेतुं मेरुं प्रस्थापितवान् स्वयं मामभिमन्त्रयितुं लग्नः । एकान्ते तमेकमवलोक्योक्तं मया - श्रेष्ठिन् न में सर्पो लग्नः, तवानुरक्ताहम् त्वया मेलनोपायमकरवम् त्वत्संभोगदानेन मां रक्ष | कुबेरकान्तोऽभणद् भगिनि षण्ढकोऽहमिति त्वं शीलवती भवेति भणित्वा गतः । श्रागतेन मत्पतिनाहं स्वपुरं गता । पुनरेकदा पुत्रेण सह रथमारुह्य जिनालयं गच्छन्तीं त्वामलोके । तदा स्वपतिमहमपृच्छमियं केति । सोऽवोचन्मम मित्रवल्लभा प्रियदत्ता । मयोक्तम्- ते सखा नपुंसकः, कथं तस्यापत्यम् । रत्तिवर्मामणत्तस्यैकपत्नीव्रतमिति वनिताभिद्वेषेण तथा षण्ढः भण्यते । तदाहमात्मनिन्दां कृत्वा स्वपुरं गता । एकदा वर्षवर्धन दिनरात्री पौरस्य महारागेण प्रवर्तमानेऽहं स्वदुश्चेष्टितं स्मृत्वा विषण्णा स्थिता । भर्त्रा कारणे पृष्ठे मया यथावन्निरूपिते सोऽव्रत- संसारिणां दुःपरिणतिर्भवति,
२९३
पूछा कि यह कौन है । इसपर रतिवर्माने कहा कि यह मेरा मित्र कुबेरकान्त सेठ है । तत्पश्चात् मैं उसके विषय में आसक्त हो गई। फिर उसके साथ मिलापकी अभिलाषासे जिनपूजा के पश्चात् वनमें क्रीड़ाके अवसरपर मैंने कपटपूर्वक पतिसे कहा कि हे नाथ ! मुझे सर्पने काट लिया है । यह कहकर मैं मूर्छासे गिर गई । तब मेरा पति व्याकुल होकर स्वयं ही मुझे निर्विष करने में उद्यत हुआ । परन्तु मैं नहीं उठी । तत्र वह मुझे कुबेरकान्तके पास लाकर उससे बोला कि हे मित्र ! इसे सर्प विष से मुक्त करो | तब कुबेरकान्तने मेरे पतिको किसी जड़ीको लानेके लिये मेरु पर्वतके ऊपर भेजा और स्वयं मेरे ऊपर मन्त्रका प्रयोग करने लगा। जब मैंने उसे एकान्तमें अकेला पाया तब मैंने उससे कहा कि हे सेठ ! मुझे सर्पने नहीं काटा है । किन्तु मैं तुम्हारे विषय में अनुरक्त हुई हूँ । इसीलिये मैंने तुम्हारा संयोग प्राप्त करनेके लिये यह उपाय रचा है । तुम मुझे अपना संभोग देकर मेरी रक्षा करो। इसपर कुबेरकान्त बोला कि हे बहिन ! मैं तो नपुंसक हूँ, इसलिये तू शीलवती रह- उसको भंग करने का विचार मत कर। ऐसा कहकर वह चला गया। इसके पश्चात् जब मेरा पति वापिस आया तब मैं उसके साथ अपने नगर में वापिस चली गई। तत्पश्चात् एक समय मैंने पुत्र के साथ रथपर चढ़कर जिनालयको जाती हुई तुम्हें देखा। उस समय मैंने पतिसे पूछा कि यह कौन स्त्री है ? तब उसने उत्तर दिया कि यह मेरे मित्रकी पत्नी प्रियदत्ता है । इसपर मैंने कहा कि तुम्हारा मित्र तो नपुंसक है, फिर उसके पुत्र कैसे हो सकता है । यह सुनकर रतिवर्माने कहा कि उसके एकपत्नीव्रत है, इसीलिये स्त्रियाँ उसे द्वेषबुद्धि वश नपुंसक कहा करती हैं । यह सुनकर मैं आत्मनिन्दा करती हुई अपने नगरको गई । एक समय बाढ दिवसकी रात में पुरवासी जनकी अतिशय रागपूर्ण प्रवृत्तिके होनेपर मुझे अपनी दुष्ट प्रवृत्तिका स्मरण हो आया । इससे मुझे बहुत विषाद हुआ । तब मेरी उस खिन्न अवस्थाको देखकर पति ने इसका कारण पूछा। उस समय मैंने उससे अपने पूर्व वृत्तान्तको ज्योंका-त्यों कह दिया ।
१. श कांचिनमूलिका । २. ब तमेवमवलो । ३. प श्रेष्ठिन् मे । ४. ब लग्नस्तावरवताहं । ५. जप पंडोह पंडुको । ६. ब मलोक्ये । ७. ज प ब तथा भण्यते ।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२.९४
guraanarsोशम्
[ ६-४, ४५ :
,
किमद्भुतम् संक्लेशं मा कुरु । मयोक्तं प्रातरवश्यं मया तपो गृह्यते । तेनोक्तं किं नष्टम्, मयापि गृह्यते । ततोऽपरदिने पुत्रं राज्ये नियुज्य द्वौ बहुभिदक्षितौ इति तपोहेतुः । तदा sarvaरकान्तः शृण्वन् स्थितो निर्गत्य तां नत्वा स्वसुतं कुबेरप्रियं गुणपालनृपस्य समर्प्य कुबेरदत्तादिचतुर्भिः पुत्रैरन्यैश्च दीक्षितो मुक्तिमगमदिति निरूप्य तां प्रणत्य पुरं प्रविष्टा ।
तदा स मार्जारो मृत्वा तत्र पुरे तलवरनायकभृत्यो विद्युद्वेगनामा भूत्वा स्थितः । स स्वजुनितायाः प्रियदत्तया समं गतायाः किमिति कालक्षेपोऽभूदिति रुष्टः, तया स्वरूपे निरूपिते स जातिस्मरो जज्ञे । तौ स्ववैरिणौ ज्ञात्वा प्रिये, मे तौ दर्शयेति तया तत्र गत्वा araवलोकितवान् दिवा । रात्रावुच्चाय नीत्वा पितृवने एकत्र बन्धयित्वा ज्वलच्चितायामचिक्षिपदवदच्च सोऽहं भवदत्तो येन युवां पूर्वं शोभागनगरे दग्ध्वा मारितौ, जम्बूग्रामे भक्षयित्वा मारिताविति । तदा तौ तपस्विनौ समचित्तं विभाव्य तनुं विहाय हिरण्यवर्मा
इसपर मेरे पति रतिवर्मा ने कहा कि संसारी प्राणियों की ऐसी दुष्प्रवृत्ति हुआ ही करती है, इसमें आश्चर्य क्या है ? तुम व्यर्थ में संक्लेश न करो । तब मैंने पति से अपना निश्चय प्रगट किया कि मैं सबेरे अवश्य ही तपको ग्रहण करूँगी । इसपर उसने कहा कि क्या हानि है, मैं भी तेरे साथ तपको ग्रहण कर लूँगा । तत्पश्चात् दूसरे दिन पुत्रको राज्यकार्यमें नियुक्त करके हम दोनोंने बहुतों - के साथ दीक्षा ग्रहण ली है । यही मेरे दीक्षा लेनेका कारण है । इस प्रकार प्रियदत्ता जब प्रभावती से सुरूपा आर्यिकाका वृत्तान्त कह रही थी तब सेठ कुबेरकान्त ( मेरा पति ) अन्तर्गृह के भीतर यह सब सुनता हुआ स्थित था । सो वहाँसे निकलकर उसने उस आर्यिकाको नमस्कार किया और फिर अपने पुत्र कुबेरप्रियको गुणपाल राजाके लिये समर्पित करके कुबेरदत्त आदि अपने चार पुत्रों तथा अन्य बहुत-से जनोंके साथ दीक्षा धारण कर ली । वह मुक्तिको प्राप्त हो चुका है । इस प्रकार अपने पति कुबेरकान्तके वृत्तान्तको कहकर और फिर आर्यिका प्रभावतीको नमस्कार करके प्रियदत्ता अपने नगर के भीतर प्रविष्ट हुई।
वापिस आने में कुछ
उस समय वह बिलाव मरकर उसी पुरमें प्रमुख कोतवालका विद्युद्वेग नामका अनुचर होकर स्थित था । एक दिन उसकी स्त्री प्रियदत्ता के साथ गई थी । उसे विलम्ब हो गया । तब विद्युद्वेगने रुष्ट होकर उससे विलम्बका कारण पूछा। इसपर उसकी स्त्रीने आर्थिक पास सुने हुए हिरण्यवर्मा और प्रभावती आदिके सब वृत्तान्तको कह दिया । उसे सुनकर विद्युद्वेगको जातिस्मरण हो गया। इससे उसने हिरण्यवर्मा और प्रभावती को अपने पूर्व भवका शत्रु जान लिया । तब उसने अपनी स्त्रीसे कहा हे प्रिये ! वे दोनों (हिरण्यवर्मा और प्रभावती) कहाँ हैं, मुझे दिखलाओ। इस प्रकार वह स्त्रीके साथ जाकर उन्हें दिनमें देख आया । पश्चात् रातमें वह उन दोनों को उठाकर श्मशान में ले गया । वहाँ उसने उन्हें इकट्टा बाँधकर जलती हुई चितामें पटक दिया । फिर वह बोला कि मैं वही भवदत्त हूँ जिसने कि पूर्व जन्म में तुम दोनों को शोभानगरमें जलाकर मार डाला था तथा जम्बूग्राममें भी मारकर खा लिया था । उस समय उन दोनों तपस्वियोंने इस भयानक उपसर्गको सहन करते हुए समताभावपूर्वक शरीरको छोड़
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श प्रियदत्ताया । २. ब तावलोकितवान् ।
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-५, ४६] ६. दानफलम् ५
२९५ मुनिः सौधर्मे कनकविमाने सौधर्मेन्द्रस्यान्तः पारिषद्यः कनकप्रभनामा देवो जातः, प्रभावती कनकप्रभदेवस्य कनकप्रभाख्या देवी जाता। तत्र तो सुखेन स्थितौ । ततोऽवतीर्य स देवोऽयं मेघेश्वरोऽभूत् , सा देवी आगत्याहं सुलोचना जातेति सकृन्मुनिदानेन शक्तिसेनस्तथाविधोऽभूत् , पारापतौ तदनुमोदमात्रेण तथाविधौ जज्ञाते किं यस्त्रिशुद्धया तद्ददाति सततं स तथाविधो न स्यादिति ॥३-४॥
[४६] किं न प्राप्नोति देही जगति खलु सुखं दाता बुधयुतो रूढः श्रेष्ठी सुकेतुर्जितभयकुपितोऽजैषोत् स भुवने । दानाद्देवोपसर्ग तदनु सुतपसा मोक्षं समगमत्
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥५॥ अस्य कथा- अत्रैव द्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिण्यां राजा वसुपालस्तत्रातीव जैनो वैश्यः सुकेतुः भार्या धारिणी । स एकदा व्यवहारार्थ द्वीपान्तरं गच्छन् शिवकरोद्याने नागदत्तश्रेष्ठिकारितनागभवननिकटे विमुच्य स्थितः मध्याह्नकाले तन्निमित्तं
दिया । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर हिरण्यवर्मा मुनि सौधर्म स्वर्गके भीतर कनक विमानमें सौधर्मेन्द्रकी अभ्यन्तर परिषदका कनकप्रभ नामका पारिषद देव हुआ और वह प्रभावती वहींपर उस कनकप्रभ देवकी कनकप्रभा नामकी देवी हुई। इस प्रकार वे दोनों उस स्वर्गमें सुखपूर्वक स्थित हुए। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह देव तो यह मेघेश्वर (जयकुमार) हुआ है और वह देवी आकर मैं सुलोचना हुई हूँ। इस प्रकार एक बार मुनिके लिए आहारदान देनेके कारण जब वह शक्तिसेन इस प्रकारकी विभूतिसे संयुक्त हुआ है तथा वे दोनों कबूतर व कबूतरी भी उक्त दानकी अनुमोदना करने मात्रसे ही ऐसी विभूतिसे युक्त हुए हैं तब फिर भला जो मन, वचन व कार्यकी शुद्धिपूर्वक उत्तम पात्रके लिए आहारादि निरन्तर देता है वह वैसी विभूतिसे संयुक्त नहीं होगा क्या ? अवश्य होगा ॥४॥
सत्पात्रदान करनेवाला दाता मनुष्य विद्वानोंसे संयुक्त होकर कौन-से सुखको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् वह सब प्रकारके सुखको प्राप्त होता है। देखो, लोकमें सुप्रसिद्ध उस सुकेतु सेठने भय और क्रोधको जीतकर देवकृत उपसर्गको भी जीता और फिर अन्तमें वह उत्तम तपश्चरण करके मोक्षको भी प्राप्त हुआ। इसलिए निर्मल गुणोंके समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंका कर्तव्य है कि वे उत्तम मुनिके लिए दान देव ॥५॥
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी द्वीपके भीतर पूर्व विदेहमें स्थित पुष्कलावती देशके अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नगर है । वहाँ वसुपाल नामका राजा राज्य करता था। वहींपर दृढ़तापूर्वक जैन धर्मका पालन करनेवाला एक सुकेतु नामका वैश्य रहता था। उसकी पत्नीका नाम धारिणी था । एक समय वह व्यवहारके लिए- व्यापारके लिए-द्वीपान्तरको जाते हुए नागदत्त सेठके द्वारा बनवाये गये नागभवनके समीपमें स्थित शिवंकर उद्यानके भीतर पड़ाव डालकर ठहर
१. प श परिषद्यः ब परिषद्य। २. श शतत फ एतत्पदमेव तत्र नास्ति । ३. ब तो जैर्यत्स। ४. बतं निमितं।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९६
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-५, ४६ :
धारिणी गृहाद्रवतीं तत्र निनाय । सोऽतिथिसंविभागव्रतयुत इति यतिमार्गान्वेषणं कुर्वन् तस्थौ । तदा गुणसागरमुनिः प्रतिज्ञावसाने तत्र चर्यार्थमागतः । स यथोक्तवृत्त्या स्थापयामास, नैरन्तर्यानन्तरं पञ्चाश्चर्याणि लेभे । तत्र तदधिकपरिणामवशेन सार्धत्रिकोटिरत्नानि तदावासाग्रे गलितानि । तानि नागदत्तो मम नागभवनाग्रे गलितानीति संजग्राह । ततः पुनः तत्रैवागत्य स्थितानि । पुनः संगृहीतवान् पुनर्गतानि । ततो रुष्टो नागदत्त इमानि स्फोटयिष्यामीत्येकेन रत्नेन शिलां जघान । ततस्तद्व्याघुटयागत्य तल्ललाटे लग्नम् | ततो देवैरुपहास्येन मणिनागदत्त इत्युक्तः । ततः कोपेन गत्वा स वसुपालं विज्ञप्तवान्- देव मया भवनाम्ना नागभवनं कारितम्, तदग्रे रत्नवृष्टिर्जाता, तानि त्वया स्वभाण्डागारे स्थापनीयानि । राजाबूत - मम कारणं नास्ति । तदा स तत्पादयोर्लग्नस्तदुपरोधेन नृपस्तथा चकार । तानि तत्रैव गत्वा स्थितानि । तदा राजा विचारयामास किमिति रत्नवृष्टिर्बभूव । कश्चिदबूतसुकेतुश्रेष्ठकृतगुणसागरमुनिदानप्रभावेनेमानि गलितानि । श्रुत्वा राजा मया अपरीक्षितं कृतमिति कृतपश्चात्तापः सुकेतुमाह्राययति स्म । तदनु सुकेतुः पञ्चरत्नानि कल्पतरुकुसुमानि च गृहीत्वा जगाम राजानं ददर्श । राजाब्रूत - यन्मयापरीक्षितं कृतं तत्क्षमित्वा स्वगृहे सुखेन गया । मध्याह्नके समयमें उसकी पत्नी धारिणी उसके लिए घरसे भोजन लायी । सेठ अतिथिसंविभाग व्रतका धारी था । इसलिए वह चर्याके लिए मुनिकी प्रतीक्षा करने लगा । उसी समय एक गुणसागर नामके मुनि अपनी प्रतिज्ञाको पूरी करके वहाँ चर्याके लिए आये । सेठने यथोक्त विधिसे पड़िगाहन करके उन्हें आहार दिया । उनका निरन्तराय आहार हो जानेपर वहाँ पंचाश्चर्य हुए । सेठ के अतिशय निर्मल परिणामोंके कारण उसके निवासस्थानके आगे साढ़े तीन करोड़ रत्न गिरे | उन्हें नागदत्तने यह कहकर कि 'ये मेरे नागभवन के आगे गिरे हैं' ग्रहण कर लिया । परन्तु वे रत्न फिरसे भी वहीं आकर स्थित हो गये । तब नागदत्तने उन्हें फिरसे उठा लिया । परन्तु वे फिर भी न रह सके और वहीं जा पहुँचे । यह देखकर नागदत्तको क्रोध आ गया । तब उसने उनको फोड़ डालनेके विचारसे एक रत्नको शिलाके ऊपर पटक दिया । परन्तु वह उस शिलासे टकराकर वापिस आया और नागदत्तके मस्तक में लग गया । यह दृश्य देखकर देवोंने उसका उपहास करते हुए मणिनागदत्त नाम रख दिया । तत्पश्चात् नागदत्तने क्रोध के साथ वसुपाल राजाके पास जाकर उससे प्रार्थना की कि हे देव ! मैंने आपके नामसे जो नागभवन बनवाया है उसके आगे रत्नों की वर्षा हुई है । उन रत्नोंको मँगवाकर आप अपने भाण्डागार में रखवालें । इसपर राजाने कहा कि मेरे लिए उन्हें भाण्डागार में रखवा लेनेका कोई कारण नहीं है। यह उत्तर सुनकर नागदत्त राजाके पैरोंमें गिर पड़ा । तब उसके अतिशय आग्रहसे राजाने वैसा ही किया । परन्तु वे रत्न फिर उसी स्थानपर वापिस जाकर स्थित हो गये । तब राजाने विचार किया कि रत्नवृष्टि किस कारणसे हुई है । इसपर किसीने कहा कि सुकेतु सेठने गुणसागर मुनिके लिए आहार दिया है, उसके प्रभावसे ये रत्न बरसे हैं। यह सुनकर राजाने कहा कि मैंने यह बिना विचारे कार्य किया है । इससे उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ । तब उसने सुकेतु सेठको बुलाया । तदनुसार सुकेतुने पाँच रत्न और कल्पवृक्षके फूलोंको ले जाकर राजाका दर्शन किया। राजा उससे बोला कि मैंने जो अज्ञानता वश यह कार्य किया है उसके लिए मुझे क्षमा करो और अपने घरपर सुखसे रहो । यह
१. ब चर्यार्थ गतः । २ ब त्रिकोटीनि रत्नानि । ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श स जग्राह । ४. श स्तदपराधे नृप । ५. ब माह्वयति स्म ।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६–५, ४६ ]
६. दानफलम् ५
२९७
तिष्ठ । श्रेष्ठी वभाण - ममापि त्वं स्वामी, न किं रत्नानाम् । यदि प्रयोजनमस्ति तर्हि गृहाण । नृप उवाच- - त्वद्गृहे स्थितानि किं मदीयानि न भवन्ति, यदा प्रयोजनं तदानयिष्यामि । श्रेष्ठी महाप्रसाद इति भणित्वा इदानीं किं द्वीपान्तर रामनेनेति स्वगृहं प्रविश्य सुखेन तस्थौ । राजा यः सुकेतुं शंसति तस्य प्रसन्नो भवति । मणिनागदत्तस्तु तं द्वेष्टि ।
एकदास्थानमध्ये राजा सुकेतुं प्रशशंस । तदसहमानो जिनदेवश्रेष्ठी वभाण देव, किमस्य रूपं गुणमैश्वर्यं वा त्वया स्तूयते । यदि रूपगुणैस्तर्हि स्तूयताम्, यदि श्रियं तनेन मां धनवादं कारयित्वा यो जयति स स्तूयताम् । तदा सुकेतुरबत - किमैश्वर्य गर्वेण, तूष्ण तिष्ठ | जिनदेव उवाच - - पुरुषेण काचित् ख्यातिः कर्तव्या, मया प्रार्थितोऽसि सर्वथा मया सह वादं कुरु । सुकेतुरभणज्जैनस्य नोचितम् । तथापि जिनदेव आग्रहं न [ना] त्याक्षोत्' । तदनु तदुपरोधेनाभ्युपजगाम सुकेतुः । तदनु 'यो जयति स इतरस्याः श्रियः स्वामी भवति' इति प्रतिज्ञापत्रं विलिख्य राजहस्ते दत्त्वोभौ स्वगृहे जग्मतुः स्वद्रव्यं चतुष्पथे राशीकारयामासतुः । राजादिभिस्तौ परीक्ष्य सुकेतवे जयपत्रं दत्तम् । तदा जिनदेवोऽभणत् मया
सुनकर सेठ बोला कि तुम इन रत्नोंके ही स्वामी नहीं हां, बल्कि मेरे भी स्वामी हो । यदि आवश्यकता हो तो उनको ले लीजिए । इसपर राजाने सेठसे कहा कि क्या तुम्हारे घरमें स्थित रहकर वे रत्न मेरे नहीं हो सकते हैं ? जब मुझे आवश्यकता होगी उन्हें मँगा लूँगा । इसपर सेठने कहा कि यह आपकी महती कृपा है । तत्पश्चात् अब द्वीपान्तर जानेसे कुछ प्रयोजन नहीं रहा, यह सोचकर वह सुकेतु सेठ अपने घरमें प्रविष्ट होकर वहाँ ही सुखपूर्वक स्थित हो गया । अब जो भी मनुष्य सेठ सुकेतु की प्रशंसा करता उसपर राजा - प्रसन्न रहता । परन्तु मणिनागदत्त उस सेठसे द्वेष
करता था ।
एक समय राजाने राजसभा के बीच में सेठ सुकेतुकी प्रशंसा की। उसे जिनदेव सेठ सहन नहीं कर सका । वह बोला- हे देव ! आप क्या सुकेतुके रूपकी प्रशंसा करते हैं, या गुणकी प्रशंसा करते हैं, या लक्ष्मीकी प्रशंसा करते हैं ? यदि आप रूप और गुणोंके कारण उसकी प्रशंसा करते हैं तो भले ही करिये, परन्तु यदि लक्ष्मी के आश्रयसे उनकी प्रशंसा करते हैं तो मेरे साथ उसका धनवाद कराकर - मेरे और उसके बीच धनकी परीक्षा कराकर - जिसकी उसमें विजय हो उसकी प्रशंसा कीजिए। इस धन विषयक विवादको देखकर सुकेतुने जिनदेवसे कहा कि तुम लक्ष्मीका अभिमान क्यों करते हो, चुप बैठो न । इसपर जिनदेवने कहा कि मनुष्यको किसी न किसी प्रकारसे कुछ कीर्ति अवश्य कमानी चाहिए । इसीलिए मैं तुमसे यह प्रार्थना करता हूँ कि तुम सब ही प्रकारसे मेरे साथ धनके सम्बन्धमें वाद करो । यह सुनकर सुकेतुने कहा कि किसी भी जैन व्यक्ति के लिए ऐसा करना योग्य नहीं है । परन्तु फिर भी जिनदेवने अपने दुराग्रहको नहीं छोड़ा। तब उसके अतिशय आग्रहसे सुकेतुको उसे स्वीकार करना पड़ा । तत्पश्चात् उन दोनोंने यह प्रतिज्ञापत्र लिखकर राजाके हाथमें दे दिया कि हम दोनोंमेंसे इस विवाद में जो भी विजयी होगा वह दूसरे की भी समस्त सम्पत्तिका स्वामी होगा । फिर उन दोनोंने अपने अपने घर से धनको लाकर चौराहेपर ढेर कर दिया। तत्पश्चात् राजा आदिने उस धनके विषयमें उन दोनों की परीक्षा करके सुकेतु के लिए विजयपत्र प्रदान किया । तब जिनदेव बोला कि वास्तव में विजय मेरी
१. श न त्यांक्षीत् ।
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
२९८
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[६-५, ४६ : जितम् । कथमित्युक्ते सुकेतुं सखायं प्राप्यानन्तसंसारकारकं महामोहरिपुमजयमिति । तदनु सुकेतुना निवार्यमाणोऽप्यदीक्षत । सुकेतुस्तल्लक्ष्मी तत्पुत्राय दत्त्वा दानादिकं कुर्वन् सुखेन तस्थौ।
तत्प्रभा द्रष्टुमशक्तो मणिनागदत्तः स्वनागालये तपश्चरणपूर्वकं नागानारराध । पूर्वमर्जुनास्यं मातङ्गं संबोधयन्तीयंक्षीईष्ट्रवा कामज्वरेण मृतस्तत्पुत्रस्तन्नागालये उत्पलदेवो जातः, इत्युपवासकथाकथने कथितम् । स प्रसन्नो भूत्वोक्तवान्- हे नागदत्त, किं कायक्लेशं करोषि । स उवाच- त्वामाराधयामि । किमिति । यया श्रिया सुकेतु वादं कृत्वा जयामि तां मे देहि । देवो बभाण- त्वं पुण्यहोनस्ते श्रियं दातुन शक्नोमि । वणिगवोचत्-पुण्यहीन इति त्वामाराधितवान् , अन्यथा किं तवाराधनया । सुरोऽवत लक्ष्मी विहायान्यं ते [न्यत्ते ] भणितं करोमि । तर्हि सुकेतुं मारय। निर्दोष मारयितुं नायाति, कमर्पि दोषं तस्मिन् व्यवस्थाप्य मारयामि । केनाप्युपायेन मारय, तेन मृतेनालम् । देवोऽभणत्
हुई है। कारण यह कि मैंने सुकेतु जैसे मित्रको पाकर अनन्त संसारके कारणभूत मोहरूपी महान् शत्रुको जीत लिया है । तत्पश्चात् उसने सुकेतुके रोकनेपर भी दीक्षा ग्रहण कर ली । तब सुकेतुने जिनदेवकी समस्त सम्पत्ति उसके पुत्रके लिए दे दी और वह स्वयं दानादि कार्योंको करता हुआ सुखसे स्थित हुआ।
इधर मणिनागदत्त सुकेतुके प्रभावको नहीं देख सकता था। इसलिए उसने अपने नागभवनमें जाकर तपश्चरणपूर्वक नागोंकी आराधना की । पहिले किसी अर्जुन नामके चाण्डालको सम्बोधित करती हुई यक्षियोंको देखकर नागदत्तका पुत्र (भवदत्त) कामज्वरसे पीड़ित होता हुआ मर गया था और उसी नागभवनमें उत्पल देव हुआ था, यह उपवासफलंकी कथा (५-८, ४१) में वर्णित है । उस समय उक्त उत्पल देव प्रसन्न होकर बोला कि हे नागदत्त ! यह कायक्लेश तुम किसलिए कर रहे हो ? नागदत्त बोला कि यह सब तुम्हारी आराधना-प्रसन्नता के लिए कर रहा हूँ। तत्पश्चात् उन दोनों में इस प्रकारसे वातालाप हुआ--
उत्पल-मेरी आराधना तुम किसलिए कर रहे हो ?
नागदत्त-जिस लक्ष्मीके द्वारा मैं सुकेतुसे विवाद करके उसे परास्त कर सकूँ उस लक्ष्मीको तुम मुझे प्रदान करो।
उत्पल-तुम पुण्यसे रहित हो, इसलिए मैं तुम्हें वैसी लक्ष्मी देने के लिए समर्थ नहीं हूँ ।
नागदत्त-पुण्यहीन हूँ, इसीलिए तो मैंने तुम्हारी आराधना की है। अन्यथा, तुम्हारी आराधनासे मुझे प्रयोजन ही क्या था ।
उत्पल-लक्ष्मी देनेकी बातको छोड़कर और जो कुछ भी तुम कहोगे उसे मैं परा करूँगा।
नागदत्त-तो फिर तुम सुकेतुको मार डालो ।
उत्पल-सुकेतु निर्दोष है, अतः वह मारनेमें नहीं आ सकता है; इसलिए उसके विषयमें कुछ दोषारोपण करके उसे मार डालता हूँ।
१. ज सहायं । २. फ ब प्यदीक्षित । ३. [ तत्प्रभावं]। ४. ज वासकथने । ५. श 'स' नास्ति ।
६.श हीनस्ते तव श्रियं । ७. बन्यंस्ते। ८. श किमपि ।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
६. दानफलम् ५
२९९ तमुहं मर्कटवेषमाददे, मां शृङ्खलया बद्ध्वा सुकेतुनिकटं नय । स यदा 'किमित्ययं वानर श्रानीतः' इति पृच्छति तदा त्वमेवं भण "अहं वनं गतस्तत्रामुं वानरमपश्यम् । 'किमवलोकसे' इति स्पष्टमबूत । मयोक्तम्-धानरो मनुष्य इव वषे। अयमब त-नाहं वानरः । किं तर्हि । पुण्यदेवता । मे विरूपकः स्वभावोऽस्ति । स क इत्युक्ते यो मे स्वामी स्यात्तेन दत्तं प्रेषणं सर्व करोमि । प्रेषणं न ददाति चेन्मारयामीति कमपि नाश्रयामि, वने तिष्ठामीत्यनेन भणिते मया त्वदन्तिकमानीतो यदि प्रेषणं दातुं शक्तोऽसि तर्हि स्वीकुरु, नोचेन्मुञ्चामि" इति । तत्र नीत्वा तथोक्तवान् नागदत्तस्तं सुकेतः स्वीचकार ।
स प्रेषणं याचितवान् । सुकेतुरभणत् अस्मात्पुराद् बहिरनेकजिनालययुतं रत्नमयं परं करु। करोमि, मां मुञ्च । मुक्तः श्रेण्ठिना स बहिर्गत्वा जनकौतकं तथाविधं परं क्रत्वा पुनरागत्य प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठी बभाण-यावदहं राजसमीपं गत्वागच्छामि तावत्तिष्ठात्रैवेति निरूप्य राजसमोपं गत्वोक्तवान् श्रेष्ठी-देव, मया बहिः पुरं कारितम्, तत्र त्वं राज्यं कुरु । राजा न्यगदत्-त्वत्पुण्योदयेन तत्पुरं जातम् , तत्र त्वमेव राज्यं कुरु । 'प्रसादः' इति
नागदत्त-किसी भी उपायसे उसे तुम मार डालो, उसका मर जाना ही मेरे लिए पर्याप्त है।
उत्पल -तो फिर मैं बन्दरके वेषको ग्रहण कर लेता हूँ, तुम मुझे उस वेषमें साँकलसे बाँधकर सुकेतुके पास ले चलना । जब वह तुमसे पूछे कि इस बन्दरको यहाँ किस लिए लाये हो, तब तुम इस प्रकार उत्तर देना- मैं वनमें गया था। वहाँ मैंने जैसे ही इस बन्दरको देखा वैसे ही इसने मुझसे स्पष्ट शब्दोंमें कहा कि तुम क्या देखते हो। इसपर मैंने कहा कि बन्दर होकर तुम मनुष्यके समान बोलते हो। तब यह बोला कि मैं बन्दर नहीं हूँ, किन्तु पुण्यदेवता हूँ । मेरा स्वभाव विपरीत है । वह यह कि जो भी मेरा स्वामी होता है उसके द्वारा दी गई समस्त आज्ञाको मैं शिरोधार्य करता हूँ। परन्तु यदि वह आज्ञा नहीं देता है तो फिर मैं उसे मार डालता हूँ। इसीलिए मैं किसीके आश्रित नहीं रह पाता हूँ, वनमें रहता हूँ। इसके इस प्रकार कहनेपर मैं इसे तुम्हारे पास ले आया हूँ । यदि तुम इसे आज्ञा देनेमें समर्थ हो तो ग्रहण कर लो, अन्यथा छोड़ देता हूँ । इस प्रकार उस उत्पलके कहे अनुसार नागदत्त उसे बन्दरके वेषमें सुकेतुके पास ले गया और फिर उसने सेठसे वैसा ही सब कह दिया । तब सुकेतुने उसे स्वीकार कर लिया।
तब वहाँ स्थित होकर उत्पलने उस बन्दरके वेषमें सेठसे आज्ञा माँगी। इसपर सेठने कहा कि इस नगरके बाहर अनेक जिनालयोंसे संयुक्त रत्नमय नगरका निर्माण करो । यह आज्ञा पाकर उसने कहा कि ठोक है मैं वैसा करता हूँ, मुझे छोड़ दीजिये। इसपर सेठने उसे छोड़ दिया। तब उसने बाहर जाकर लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाले वैसे ही नगरका निर्माण कर दिया । वहाँसे वापस आकर उसने पुनः सेठसे आज्ञा माँगी। तब सेठने कहा कि जब तक मैं राजाके पास जाकर वापस नहीं आता हूँ तब तक यहींपर बैठो। यह कहकर सेठ राजाके पास गया और उससे बोला कि हे देव ! मैंने इस नगरके बाहर एक अन्य नगरका निर्माण कराया है, आप वहाँपर रहकर राज्य करें । इसपर राजाने कहा कि तुम्हारे पुण्यके उदयसे ही उस नगरकी रचना हुई है, इसलिये वहाँपर तुम ही राज्य करो। तब सेठ 'यह आपकी बड़ी कृपा है' कहकर अपने
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
पुण्यास्त्रवकथाकोशम्
[ ६-५, ४६ :
भणित्वा श्रेष्ठी स्वगृहमागतः । वानरोऽव्रत स्वामिन् प्रेषणं देहि । श्रेष्ठी बभाण - सर्व नगरमाय तेन मां तत्पुरं प्रवेशय । वानरः तथा तं प्रवेशयामास । श्रेष्ठी धारिण्या सह राजभवने भद्रासने उपविवेशे । पुनर्वानरः प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठी बभाण - महागङ्गोदकमानीय धारिणी सहितस्य मे राज्याभिषेकं कृत्वा राज्यपट्टे बध्ना [घ्नी] हि। स तथा चकार, पुनः प्रेषणं ययाचे । तदा श्रेष्ठयवोचन्नागदत्तप्रभृति सर्वजनानां गृहाणि दत्त्वा गृहेष्वक्षयं धनधान्यादिकं कृत्वागच्छ । स तथा कृत्वागतः, पुनः प्रेषणं ययाचे । श्रेष्ठयव्रत - मे राजभवनाग्रे महास्तम्भं कृत्वा तन्मूले तन्मानां शृङ्खलां कृत्वा शृङ्खलाये कुण्डलिकां निक्षिप्य तत्र स्वशिरः प्रप्लुत्य तच्चटनोत्तरणं कुर्वन् तिष्ठ यावदहं 'पूर्यते' इति भणामि । स द्वि-त्रिदिनानि तथा कुर्वन् तस्थौ । श्रेष्ठी 'पूर्यते' इति यदा न भणति तदा नष्वा गतः । सुकेतुर्बहुकालं राज्यं कृत्वा स्वशिरः पलितमालोक्य स्वपुत्रं तत्र व्यवस्थाप्य वसुपालादात्मानं मोचयित्वा मणिनागदत्तादिभिर्बहुभिर्भीमभट्टारकान्ते प्रव्रज्य मोक्षं गतः । धारिणी तपसाच्युते देवो जातः । मणिनागदत्तादयो यथायोग्यां गतिं ययुः । तत्पुरं तन्निर्गमनदिने एवादृश्यं जातम्
घरपर वापस आ गया । उस समय उस बन्दरने सेठसे कहा कि हे स्वामिन्! अब मुझे अन्य आज्ञा दीजिये । तदनुसार सेठने उसे आज्ञा दी कि समस्त नगर को बुलाकर उसके साथ तुम मुझे उसे नवनिर्मित नगर के भीतर ले चलो । तब बन्दर उसी प्रकारसे उसे उस नगर के भीतर ले गया । नगर में प्रविष्ट होकर सुकेतु सेठ अपनी पत्नी धारिणीके साथ राजभवनमें गया और भद्रासनपर बैठ गया । इसके पश्चात् बन्दरने फिरसे आज्ञा माँगी । इसपर सेठने कहा कि महा गंगा के जलको लाकर धारिणीके साथ मेरा राज्याभिषेक करो और राज्यपट्ट बाँधो । तदनुसार उस बन्दर ने वैसा ही किया । तत्पश्चात् उसने सेठसे अन्य आज्ञा माँगी । इसपर सेठने आज्ञा दी कि नागदत्त आदि समस्त मनुष्यों को घर देकर और उन सब घरोंमें अक्षय धन-धान्यांदिको करके वापस आओ । तदनुसार बन्दर वह सब करके वापस आ गया। वापस आनेपर उसने फिरसे अन्य आज्ञा माँगी । इसपर सेठने कहा कि मेरे राजभवन के सामने एक बड़े खम्भेको बनाकर उसके मूल में उसके ही बराबर साँकल बनाओ और फिर उस साँकलके अन्तमें कुण्डलिका (गोल कड़ा) को बनाकर उसमें अपने शिरको फँसा दो तथा बार-बार तब तक चढ़ो उतरो जब तक मैं 'बस, रहने दो' न कह दूँ | तदनुसार बन्दरने दो तीन दिन तक वैसा ही किया । परन्तु सेठने जब 'बस, रहने दो' नहीं कहा तब वह बन्दर वेषधारी उत्पल देव भागकर चला गया ।
पश्चात् सुकेतुने बहुत समय तक राज्य किया । एक समय उसे अपने सिरके ऊपर श्वेत बालको देखकर भोगोंसे विरक्ति हो गई । तब उसने अपने पुत्रको राज्य देकर वसुपाल राजासे विदा ली और मणिनागदत्त आदि बहुत जनोंके साथ भीम भट्टारकके समीपमें दीक्षा ले ली । अन्तमें वह तप करके मुक्तिको प्राप्त हुआ । उसकी पत्नी धारिणी तपके प्रभावसे अच्युत कल्पमें देव हो गई । मणिनागदत्त आदि यथायोग्य उस नगरसे बाहर निकला उसी दिन वह नगर
गतिको प्राप्त हुए। जिस दिन सेठ सुकेतु अदृश्य हो गया । इस प्रकार जब सुकेतु सेठ
१. श नगरं ।। हूय तेन नगरजनेत सह मां । २. ब उपवेशा । ३. प श सर्वे । ४ ब तन्मानं ।
५. ब पपस्य ।
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
६.दानफलम् ६
: ६-६, ४७ ]
३०१ इति । एवं सकृद्दानेन सुकेतुर्देवानामपि दुर्जयो जज्ञे मुक्तिं च लेभे किमन्यो न स्यादिति ॥५॥
[४७] 'श्रीमानारम्भकाख्यो द्विजकुलविमलश्चारुप्रवचनो दत्तादानादनूनं सुखममलमलं दैवं नृभवजम् । भुक्त्वाभूच्चक्रवर्ती जितरिपुगणकः ख्यातो हि सगरः
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥६।। अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डे पद्मपुरे विप्रः शङ्खदारुकस्तदपत्यमारम्भको महाविद्वान् बहनध्यापयन् स्थितो भद्रमिथ्यादृष्टिः। स एकदा चर्यार्थमागतं महामुनि स्थापयामास । तदानजनितपुण्येन भोगभूमौ जातः, ततः स्वर्गे उत्पन्नस्ततः आगत्य धातकीखण्डे चक्रपुरेशहरिवर्मगान्धार्योः पुत्रो व्रतकीर्तिर्जातः, तपसा दिविजः, तस्मादागत्य जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे मङ्गलावतीविषये रत्नसंचयपुराधिपाभयघोष-चन्द्राननयोरपत्यं पयोबलो भूत्वा तपसा प्राणते संजातः । ततश्च्युत्वास्मिन् भरते पृथ्वीपुरेश्वरजयंधर-विजययोरपत्यं जयकीर्तिभूत्वा तपसानुत्तरे स जातः। ततः आगत्यात्रैवायोध्यायां राजा जितशत्रुरजितनाथस्य पिता, तद्भ्राता विजयसागरो भार्या विजयसेना, तयोः सगरनामा पुत्रोऽजनि द्वितीयः सकलचक्रवर्ती, एक ही बार मुनिको दान देनेके कारण देवोंसे भी अजेय होकर मोक्षको प्राप्त हुआ है तब निरन्तर दान देनेवाला भव्य जीव क्या अनुपम सुखका भोक्ता न होगा ? अवश्य होगा ॥५॥
निर्मल ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न होकर मधुर भाषण करनेवाला श्रीमान् आरम्भक नामका ब्राह्मण मुनिके लिये दिये गये दानके प्रभावसे देव और मनुष्य भव सम्बन्धी महान् निर्मल सुखका भोक्ता हुआ और तत्पश्चात् वह समस्त शत्रुसमूहको जीतनेवाला सगर नामसे प्रसिद्ध द्वितीय चक्रवर्ती हुआ। इसलिये निर्मल गुणसमूहके धारक भव्य जीवोंको मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥६॥
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर पद्मपुरमें एक शंखदारुक नामका ब्राह्मण रहता था। उसके एक आरम्भक नामका पुत्र था जो बहुत विद्वान् था। वह भद्रमिथ्यादृष्टि बहुत-से शिष्यों को पढ़ाता हुआ कालयापन कर रहा था । एक समय उसने चर्याके लिए आये हुए महामुनिको विधिपूर्वक आहार दिया। उस दानसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे वह भोगभूमिमें और तत्पश्चात् स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। इसके बाद वह स्वर्गसे च्युत होकर धातकीखण्डद्वीपके अन्तर्गत चक्रपुरके राजा हरिवर्मा और रानी गान्धारीके व्रतकीर्ति नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। फिर वह तपके प्रभावसे स्वर्गमें देव हुआ। वहाँ से आकर वह जम्बूद्वीप सम्बन्धी पूर्वविदेहके अन्तर्गत मंगलावती देशमें स्थित रत्नसंचयपुरके राजा अभयघोष और रानी चन्द्राननाके पयोबल नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् वह तपको स्वीकार करके उसके प्रभावसे प्राणत स्वर्गमें देव हुआ। फिर वहाँ से च्युत होकर इस भरत क्षेत्रमें पृथिवीपुरके राजा जयंधर और रानी विजयाके जयकीर्ति नामका पुत्र हुआ। तत्पश्चात् मुनि होकर वह तपके प्रभावसे अनुत्तरमें अहमिन्द्र हुआ। फिर वहाँसे च्युत होकर अयोध्या नगरीमें राजा जितशत्रु-अजितनाथ तीर्थकरके पिता–के भाई विजयसागर और विजयसेनाके सगर नामका पुत्र हुआ । वह द्वितीय चक्रवर्ती था। सगर चक्र
१. श श्रीमन्नारंभ। २. प दत्वादाना, ब श दत्वा दाना । ३. ज सुखममलं देवं । ४. ज प श विषय । ५. ब नुत्तरे संभूय तत आ।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[ ६-६, ४७ : भरतवत् राज्यं कुर्वन् तस्थौ। तस्य षष्टिसहस्राः पुत्रा जाताः। ते प्रतिदिनं चक्रिणं प्रेषणं याचन्ते स्म । चक्री मे दुःसाध्यं नास्तीति तदुपरोधेन कैलाशस्य परितो जलखातिका खनन्त्विति प्रेषणमदत्त । चक्रवर्तिप्रेषणात्कैलाशस्य परितो खातिका दण्डरत्नेन खनित्वा तबृहत्पुत्रो जाह्नवी [जन: तस्य पुत्रो भागीरथः अपरोऽपि कश्चन भीमरथः, उभौ दण्डरत्नं गृहीत्वा गङ्गाजलानयनार्थ जग्मतुः। अत्र प्रस्तावे दण्डरत्नरभसा ऋद्धधरणेन्द्रणेतरे मारिताः।
पूर्व कश्चन सगरप्रतिपादितपञ्चनमस्कारवशात् सौधर्म संपन्नस्तेन चासनकम्पात् शात्वागत्य विप्रवेषेण प्रतिबोधितः सन् भागीरथाय राज्यं समर्प्य प्रव्रज्य मोक्षं गतः सगरः । भागीरथेनैकदा धर्माचार्या अभिवन्द्य पृष्टाः मम पितृभिः कथं समुदायकर्मोपार्जितमिति। ऊचुस्ते-अवन्तीग्रामे कुटुम्बिनः षष्टिसहस्रा जाताः । एकः कुम्भकारः। मुनिनिन्दां कुर्वन्तः कुम्भकारेण निवारितास्ते कुम्भकारे ग्रामान्तरे गते सर्वे भिल्लारिताः सन्तः शङ्खा बभूवुस्ततः कपर्दिका इत्यादि भवान्तरं भ्रमित्वा पश्चादयोध्याबाह्य गिंजाइका जाताः। स कुम्भकारः
वर्तीने भरत चक्रवर्तीके समान बहुत समय तक राज्य किया। उसके साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे प्रतिदिन चक्रवर्तीसे आदेश माँगते थे । परन्तु वह चक्रवर्ती कहता कि मेरे लिए दुःसाध्य कुछ भी नहीं है-सब कुछ सुलभ है, अतएव तुम लोगोंको आज्ञा देनेका कुछ काम नहीं है । परन्तु जब उन पुत्रोंने इसके लिये बहुत आग्रह किया तब उसने उन्हें कैलाश पर्वतके चारों ओर जलसे परिपूर्ण खाईके खोदनेकी आज्ञा दी। तब चक्रवर्तीकी आज्ञानुसार उन सबने कैलाश पर्वतके चारों ओर दण्ड-रत्नसे खाईको खोद दिया। तत्पश्चात् सगर चक्रवर्तीका जह्न नामका- जो ज्येष्ठ पुत्र था उसका पुत्र भागीरथ और दूसरा कोई भीमरथ ये दोनों दण्ड-रत्नको लेकर गंगाजल लेनेके लिए गये। इस बीचमें उस दण्ड-रत्नके वेगसे क्रोधको प्राप्त हुए धरणेन्द्रने अन्य सब पुत्रोंको मार डाला।
पूर्वमें कोई सगर चक्रवर्तीके द्वारा दिये पंचनमस्कार मन्त्रके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ था। उसका उस समय आसन कम्पित हुआ । इससे वह चक्रवर्तीके पुत्रोंके मरणको जानकर ब्राह्मणके वेषमें उस सगर चक्रवर्तीको सम्बोधित करने के लिए आया । तदनुसार उससे सम्बोधित होकर सगर चक्रवर्तीने भागीरथके लिए राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। वह तपश्चरण करके मुक्तिको प्राप्त हुआ।
एक समय भागीरथने धर्माचार्यकी वन्दना करके उनसे पूछा कि मेरे पिताओं ( पिता व पितृव्यों ) ने किस प्रकारके समुदायकर्मको उपार्जित किया था ? इसके उत्तर में वे बोले-- अवन्ती ग्राममें साठ हजार कुटुम्बी ( कृषक ) उत्पन्न हुए थे। वहाँ एक कुम्हार भी था । एक समय उन सबने मिलकर मुनिकी निन्दा की। उस कुम्हारने उन्हें मुनिनिन्दासे रोका था । कुम्हारके किसी अन्य गाँवमें जानेपर उन सबको भीलोंने मार डाला था। इस प्रकारसे मृत्युको प्राप्त होकर वे शंख और कौड़ी आदि अनेक भवोंमें परिभ्रमण करके तत्पश्चात् अयोध्याके बाहर
१. ब श सहश्राः । २. श खातिका। ३. फ़ रसभात् । ४. फ सौधर्म संपन्न । ५. व प्रतिपाठोऽयम् ।
शचार्योंभिवंद्य पृष्टो । ६. ब सहस्रजाताः । ७. ब वाह्ये गंजायिकः श बाह्ये गिंजाइका ।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-७, ४८]
६.दानफलम् ७ किनरो भूत्वा तस्मादागत्यायोध्यायां मण्डलेश्वरो जातः । तदगजपादेन हताः सन्तस्तापसत्वं प्राप्य ततो ज्योतिर्लोके उत्पद्य तस्मादागत्य चक्रवर्तिनोऽपत्यानि बभूवुः। स मण्डलेश्वरस्तपसा स्वर्गे जातः, तस्मादागत्य त्वं जातोऽसि । श्रुत्वा स्वपुत्राय राज्यं दत्त्वा भागीरथो मुनिरभूत् मोक्षं च गतः इति मिथ्याष्टिरपि विप्रः सकृन्मुनिदानेनैवंविधोऽभूत् सदृष्टिर्दानपतिः किं न स्यादिति ॥ ६॥
[४८ ) भुक्त्वा भो भोगभूमौ सुरकुजजनितं सौख्यं च दिविज देत्तादाहारदानात् द्विजवरतनयो मूर्खावपि ततः । जातौ सुग्रीवबन्धू नलतदनुजको रामस्य सचिवौ
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥ ७॥ अस्य कथा-- अत्रैवार्यखण्डे किष्किन्धपर्वतस्थकिष्किन्धपुरे राजा कपिकुलभवः सुग्रीवः, तद्भातरौ नल-नोलौ । ते सुग्रीवादयो रामस्य भृत्याः। रामरावणयोः सीतानिमित्तं युद्धे सति नल-नीलाभ्यां रामसेनापतिभ्यां रावणस्य सेनापती हस्त-प्रहस्तौ हतौ । तौ ताभ्यां
गिंजाई (एक प्रकार क्षुद्र बरसाती कीड़े ) हुए। और वह कुम्हार किंनर होकर वहाँसे आया और उसी अयोध्या में मण्डलेश्वर हुआ। उसके हाथोके पैरके नीचे दबकर वे सब गिंजाईकी पर्यायसे मुक्त होकर तापस हुए । तत्पश्चात् वे ज्योतिर्लोकमें उत्पन्न होकर वहाँसे च्युत हुए और अब सगर चक्रवर्तीके पुत्र हुए हैं। वह मण्डलेश्वर मरकर तपके प्रभावसे स्वर्ग में गया और फिर वहाँसे आकर तुम हुए हो । इस सब पूर्व वृत्तान्तको सुनकर भागीरथ अपने पुत्रको राज्य देकर मुनि हो गया और मोक्षको प्राप्त हुआ। इस प्रकार वह (आरम्भक) मिथ्यादृष्टि भी ब्राह्मण एक बार मुनिके लिए दान देकर जब चक्रवर्तीकी विभूतिको प्राप्त हुआ
और अन्तमें मोक्ष भी गया है तब भला सम्यग्दृष्टि भव्य जीव उस दानके प्रभावसे क्या वैसी विभूतिको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य प्राप्त होगा ॥६॥
ब्राह्मणके दो मूर्ख पुत्र मुनिके लिए दिये गये आहारदानके प्रभावसे भोगभूमिमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न सुखको और तत्पश्चात् स्वर्गके सुखको भोगकर सुग्रीवके नल और उसके छोटे भाई (नील) के रूपमें बन्धु हुए हैं जो रामचन्द्र के मन्त्री थे । इसीलिए उत्तम गुणोंके समहसे संयुक्त भव्य जीवोंको मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥७॥ ___ इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्यखण्डके भीतर किष्किन्ध पर्वतके ऊपर स्थित किष्किन्धपुरमें बानरवंशी सुग्रीव नामका राजा राज्य करता था। उसके नल और नील नामके दो भाई थे। वे सुग्रीव आदि रामचन्द्रके सेवक थे । जब सीताहरणके कारण रामचन्द्र और रावणके बीच में युद्ध प्रारम्भ हुआ था तब नल और नीलने रामचन्द्रके सेनापति होकर रावणके सेनापति हस्त और प्रहस्तको मार डाला था। उन्होंने उन्हें इस भवके विरोधसे मार डाला था
१. ब दत्वाहार। २. श मूर्षावापि । ३. फ बन्धो। ४. ज प श किविकंधपर्वतस्थकिविकधपुरे ब किष्कंधर्वतस्थकिष्कंधपरे । ५. ब प्रतिपाठोऽयम् । श हस्तप्रहस्तौ तौ।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-८, ४९ : तद्भवविरोधवशेन जन्मान्तरविरोधवशेन वा हतावित्युक्ते जन्मान्तरविरोधवशेनेत्याह । तथाहि- अत्रैव भरते कुशस्थलग्रामे भ्रातरौ मूर्खविप्रो इन्धक-पल्लवनामानी जाती। जैनसंसर्गात् मुनिकृताहारदानौ अपरभ्रातृकुटुम्बियुगलेन सह कृतारम्भौ सिद्धादायदाने झकटके ताभ्यां मारितौ मध्यमभोगभूमौ जातौ। ततः स्वर्गे जातो, तस्मादागत्य नल-नीलो जाती। इतरौ कालारारण्ये शशावित्यादि, परिभ्रम्य तापसत्वेन ज्योतिर्लोके उत्पद्य तस्मादागत्य विजयार्धदक्षिणश्रेण्यामग्निकुमाराश्चिन्योर्हस्त-प्रहस्तौ जाताविति सम्यक्त्वविवर्जितौ मूर्खा. वप्युभयगतिसुखमनुभूय सकृन्मुनिदानफलेन चरमदेहिनौ महाविभूतियुक्तौ वभवतुः, सदृष्टयो दानपतयः किं तथाविधा न स्युरिति ॥ ७॥
[ ४९ ] विप्रो यो दत्तदानौ शममरकुजजं देवं च पृथु तत् संजातौ चारुकीर्ती जितसकलरिपू वीरौं सुविदितौ । सेवित्वा रामपुत्रौ तदनु लव-कुशौ बुद्धाखिलमतौ तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥ ८ ॥
अथवा जन्मान्तरके विरोधसे, इन प्रश्नके उत्तरमें यहाँ जन्मान्तर विरोधको कारण बतलाया है जो इस प्रकार है- इसी भरतक्षेत्रके भीतर कुशस्थल ग्राममें इन्धक और पल्लव नामके दो मूर्ख ब्राह्मण उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंने किसी जैनके संसर्गसे मुनिके लिए आहार दान दिया था। वहींपर दो अन्य भी कृषक बन्धु थे। उनके साथ इन्धक और पल्लवने खेतीका आरम्भ किया। उसमें राजाके लिये कर (टैक्स ) देनेके विषयमें परस्पर झगड़ा हो गया, जिसमें उन दोनों कुटुम्बी भाइयोंने इन दोनोंको ( इन्धक-पल्लको) मार डाला। इस प्रकारसे मरकर वे मुनिदानके प्रभावसे मध्यम भोगभूमिमें उत्पन्न हुए। इसके पश्चात् वे स्वर्ग गये और फिर वहाँसे आकर नल और नील उत्पन्न हुए। उधर वे दोनों कृषक भाई कालंजर वनमें खरगोश आदिके भवोंमें परिभ्रमण करते हुए तापस होकर ज्योतिर्लोकमें उत्पन्न हुए और फिर वहाँ से च्युत होकर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणिमें अग्निकुमार और अश्विनीके हस्त व प्रहस्त नामके पुत्र हुए। इस प्रकार सम्यक्त्वसे रहित और मूर्ख भी वे दोनों ब्राह्मण एक बार मुनिदानके प्रभावसे दोनों गतियोंके सुखको भोगकर महाविभूतिसे संयुक्त चरमशरीरी होते हुए जब मुक्तिको प्राप्त हुए हैं तब क्या उस मुनिदानके प्रभावसे सम्यग्दृष्टि जीव वैसी विभूतिसे संयुक्त न होंगे ? अवश्य होंगे ॥ ७ ॥
जिन दो ब्राह्मणोंने मुनिके लिए दान दिया था वे भोगभूमिमें कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न सुखको तथा देवगतिके विपुल सुखको भोगकर तत्पश्चात् लब व कुश नामसे प्रसिद्ध रामचन्द्रके दो वीर पुत्र हुए। समस्त शत्रुओंको जीत लेनेके कारण उनकी पृथिवीपर निर्मल कीर्ति फैली । इसीलिए निर्मल गुणों के समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको निरन्तर उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिये ॥८॥
१. ब हताविद्युक्ते । २. शश्विन्यौहस्तः । ३. फ पृथु तं । ४. फ ब कीत्तिजित। ५. फ
'रिपुर्वीरौ । ६. श बुध्वाखिलमतो।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-८, ४१]
६. दानफलम् ८ अस्य कथा- अत्रैवायोध्यायां राजानौ बल-नारायणौ रामलक्ष्मणौ। रामस्य देवी सीता । तस्या गर्भसंभूतौ सत्यां पूर्व यदा पितृवचनपालनार्थ भरताय राज्यं दत्त्वा वनप्रवेशं कृतवन्तौ तदा सा रावणेन चोरयित्वा नीता । रामलक्ष्मणाभ्यां तं निहत्य सानीता। रावणस्य गृहे स्थिता सीता रामस्य स्वगृहे 'निधातुमनुचितमिति प्रजाभिरुक्ते रामेणाटव्यां त्याजिता। तत्र हस्तिधरणार्थ समागतपुण्डरीकिणोपुरोशवज्रजोन जैनीति भगिनोभावेन स्वपुरं नीता । तत्र लवाङकुशास्ययोः पुत्रयोर्युगमसूत। तौ वज्रजङ्घकृतविवाहौ निजभुजप्रतापेन साधितनानाभूभुजौ प्रत्येकं महामण्डलेश्वरपदव्यालंकृतौ । नारदात् पिता-पितव्यावधिगम्यायोध्यामागत्य तौ युद्धे "जिग्यतुस्तदा सकौतुकाभ्यां पिता-पितृव्याभ्यां नारदात् पुत्राविति प्रबुध्य पुरं प्रवेशितौ युवराजभूतौ सुत्रमासतुः। विभीषणादिप्रधानवचनेन रामेण सीताया अग्निप्रवेशे दिव्यो दत्तः । सा तेन विशुद्धा भत्वा तत्रैव महेन्द्रोद्यानस्थसकलभषणमुनिसमवसरणे पृथ्वीमतिक्षान्तिकाभ्यासे दीक्षिता। रामः सपरिचारस्तां निवर्तयितु
___ इसकी कथा इस प्रकार है- यहाँ ही अयोध्यापुरीमें राम और लक्ष्मण नामकें दो राजा राज्य करते थे। वे दोनों क्रमसे बलभद्र और नारायण पदके धारक थे। रामचन्द्रकी पत्नीका नाम सीता था । उसके गर्भाधान होनेके पूर्व जब राम और लक्ष्मण पिताके वचनकी रक्षा करनेके लिए भरतको राज्य देकर वनको गये थे तव रावण उस सीताको चुराकर ले गया था। उस समय राम और लक्ष्मण रावणको मारकर सीताको वापिस ले आये थे । इसकी निन्दा करते हुए प्रजाजन यह कह रहे थे कि सीता जब रावणके घरमें रह चुकी है तब राजा रामचन्द्रके लिए उसे वापस लाकर अपने घरमें रखना योग्य नहीं था। इस निन्दाको सुनकर रामचन्द्रने उसे त्यागकर वनमें भिजवा दिया। उस समय वह गर्भवती थी। उक्त वनमें जब पुण्डरीकिणीपुरका राजा वज्रजंघ हाथीको पकड़नेके लिए पहुँचा तब उसने वहाँ सीताको देखा। सीता चूँकि जैन धर्मका पालन करनेवाली थी, अतएव वज्रजंघ उसे धर्मबहिन समझकर अपने नगरमें ले आया। वहाँपर उसने लव और अंकुश नामके युगल पुत्रोंको उत्पन्न किया। ये दोनों पुत्र जब वृद्धिको प्राप्त हो गये तब वज्रजंघने उनका विवाह कर दिया । उन दोनोंने अपने बाहुबलसे अनेक राजाओंको जीत लिया था। इससे वे दोनों 'महामण्डलेश्वर के पदसे विभूषित हुए। पश्चात् वे नारदसे अपने पिता रामचन्द्र और चाचा लक्ष्मणका परिचय पाकर अयोध्या आये। वहाँ उन्होंने पिता और चाचासे युद्ध करके उसमें विजय प्राप्त की। उनके पराक्रमको देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मणको बहुत आश्चर्य हुआ । परन्तु जब नारदने उन्हें यह बतलाया कि ये तुम्हारे ही पुत्र हैं तब वे दोनों लव और अंकुशको नगरके भीतर ले गये। वहाँ वे युवराज होकर सुखपूर्वक रहने लगे।
पश्चात् विभीषण आदि प्रधान पुरुषोंके कहनेसे रामचन्द्रने सीताको अपनी निर्दोषिता प्रमाणित करनेके लिये अग्निप्रवेश विषयक दिव्य शुद्धिका आदेश दिया। तदनुसार सीताने अग्निप्रवेश करके अपनी निदोषता प्रगट कर दी । तत्पश्चात् उसने वहींपर महेन्द्र उद्यानके भीतर स्थित सकलभूषण मुनिके समवसरणमें पृथ्वीमति आर्यिकाके समीपमें दीक्षा ले ली। तब राम
१. ज निस्थातु प श निना। २. श हस्तिधारणार्थ । ३. प श समागतं । ४. ज पितृव्यावगगम्या फ ब पितापितृव्याववगम्या । ५. श जिज्यतु । ६. व निवत्तियितुं ।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
३०६
[ ६-८, ४९ : समवसृति जगाम जिनदर्शनेन गलितमोहस्तं समय॑ स्वकोष्ठे उपविष्टः ।
___ तदा विभीषणो रामादीनामतीतभवानपृच्छत्, लवाङ्कशयोः पुण्यातिशयहेतुमप्राक्षोत् । केवली कथितवांस्तावत् लवाङ्कशयोर्भवान् । तथाहि-अत्रैवार्यखण्डे काकन्यां राजारतिवर्धनसुदर्शनयोरपत्ये प्रीतिंकर-हितकरौ जातौ । राजपुरोहितः सर्वगुप्तः, भार्या विजयावली । स एकदा राज्ञा धृत्वा निगले निक्षिप्तः । विज्ञापननिमित्तमागतया विजयावल्या राजरूपं दृष्ट्वोक्तम् 'मामिच्छ'।तेनोक्तम् 'भगिनी त्वम्'। मनसि कुपिता गता। कतिपयदिनेषु सर्वगुप्तं मुक्त्वा तस्मै पूर्व पदं दत्तम् । तया कथितम् 'मे शोलं खण्डयितुं लग्नो राजा' इति । ततोऽपकारद्वयमवधार्य सर्वे आत्मनि मेलयित्वा रात्रौ राजभवने वेष्टिते त्रयोऽपि मध्येऽन्तःपुरं कृत्वा खड्गबलेन निर्गताः, काशिपुराधिपकाशिपुना संगृहोताः। कियत्काले गते तेन प्रेषितबलेन सह स्वपुरमागत्य युद्धे तं बन्धयित्वा स्वीकृतं राज्यं रतिवर्धनेन । प्रजापालनं विधाय त्रिभिरपि तपो गृहीतम् । पुत्रौ दुर्धरानुष्ठानेनोपरिग्रैवेयकं गतौ, तस्मादागत्य शाल्मलीपुरे विपरामदेवस्याउसे लौटानेके लिए परिवारके साथ समवसरणमें गये । परन्तु सकलभूषण जिनके दर्शनमात्रसे उनका वह सीताविषयक मोह दूर हो गया और तब वे जिन देवकी पूजा करके अपने कोठेमें बैठ गये ।
उस समय विभीषणने केवली जिनसे रामादिकोंके पूर्व भवों तथा लव और अंकुशके पुण्यातिशयके कारणको पूछा । तदनुसार केवलीने प्रथमतः लव और अंकुशके पुण्यातिशयका कारण इस प्रकार बतलाया- इसी आर्यखण्डके भीतर काकन्दी नगरीमें राजा रतिवर्धन और रानी सुदर्शनाके प्रीतिकर और हितंकर नामके दो पुत्र थे। उक्त राजाके पुरोहितका नाम सर्वगुप्त और उसकी पत्नीका नाम विजयावली था । एक समय राजाने उस पुरोहितको पकड़वा कर बन्धनमें डाल दिया । तब राजासे प्रार्थना करने के लिए पुरोहितकी पत्नी विजयावली उसके पास आयी । परन्तु वह राजाकी सुन्दरताको देखकर मुग्ध होती हुई उससे बोली कि मुझे स्वीकार करो। यह सुनकर राजाने कहा कि तुम मेरी बहिन हो, तुम्हें मैं कैसे स्वीकार करूँ ? इसपर वह मनमें क्रोधित होकर वापस चली गई। कुछ दिनोंके पश्चात् राजाने सर्वगुप्तको छोड़कर उसके लिये पहिलेका पद दे दिया। तब विजयावलीने पतिसे कहा कि राजा उस समय मेरा शील भंग करनेको उद्यत हो गया था। यह सुनकर पुरोहितने विचार किया कि राजाने प्रथम तो मुझे बन्धनमें डाला और फिर पत्नीके शीलको भंग करना चाहा, इस प्रकार इसने दो अपराध किये हैं। यह सोचकर उसने सबको अपनी ओर मिलाकर उनकी सहायतासे रातमें राजभवनको घेर लिया। तब राजा और उसके दोनों पुत्र ये तीनों बीचमें अन्तःपुरको करके तलवारके बलसे बाहर निकल गये । तब उनका काशिपुरके राजा काशिपुने स्वागत किया। तत्पश्चात् कुछ कालके वीत जानेपर राजा काशिपुरके द्वारा भेजे गये सैन्यके साथ अपने नगरमें आकर रतिवर्धनने युद्धमें उस सर्वगुप्त पुरोहितको बाँध लिया और अपने राज्यको वापस प्राप्त कर लिया। फिर वह कुछ समय तक राज्य करके दोनों पुत्रोंके साथ दीक्षित हो गया। उनमेंसे दोनों पुत्र दुर्धर तप करके उपरिम गैवेयकमें गये । वहाँसे च्युत होकर वे दोनों शाल्मलीपुरमें ब्राह्मण रामदेवके वसुदेव
१. व स्तमभ्यर्च्य । २. ब निगलो । ३. प श का शिपुराधिपं । ४. ज प कासिपुना सब काशिपुनामं
सं°। ५. बनोपरित[म]z।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-९, ५० ]
६. दानफलम् ९ पत्ये वसुदेव सुदेवौ जातो, पात्रदानेन भोगभूमो संपन्नी, तस्मादीशानं गतौ, तत आगत्य लवाङ्कशौ जाती, इति सकृदपि सत्पात्रदानेन वसुदेव-सुदेवौ द्विजाबेवंविधौ चरमदेहिनौ जाते सदृष्टि-सच्छोलस्तथाविधः किं न स्यादिति ॥८॥
आसीद्यो धारणाख्यः क्षितिभृदनुपमश्चन्द्राख्यनगरे दत्त्वा दानं मुनिभ्यस्तदमलफलतो देवादिकुरुषु । भुक्त्वानूनं च सौख्यं नृ-सुरगतिभवं जातो दशरथ
स्तस्मादानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥६॥ अस्य कथा- अत्रैवायोध्यायां राजा दशरथः। स चैकदा महेन्द्रोद्यानमागतं सर्वभूतहितशरण्यं मुनिं समभ्ययं नत्वोपविश्य स्वातीतभवान् पृच्छति स्म । मुनिराह- अत्रैवार्यखण्डे कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनापुरे राजा उपास्तिः मुनिदाननिषेधात्तिर्यग्गतो असंख्यातभवान् परिभ्रम्य चन्द्रपुरेशचन्द्रधारिण्योः पुत्रो धारणो जातो मुनिदानाद्धातकीखण्डपूर्वमन्दरदेवकुरुत्पन्नः, ततः स्वर्गे, ततो जम्बूद्वीपपूर्वविदेहपुष्कलावत्यां पुण्डरीकिण्यधीशाभयघोष-वसुंधर्योः पुत्रो नन्दिवर्धनो जातः, तपसा ब्रह्मे समुत्पन्नस्तत आगत्य जम्बूद्वीपापरऔर सुदेव नामके पुत्र हुए। तत्पश्चात् मृत्युको प्राप्त होकर वे पात्रदानके प्रभावसे भोगभूमि को प्राप्त हुए । वहाँ से फिर ईशान स्वर्गमें गये और फिर उससे च्युत होकर लव एवं अंकुश हुए। इस प्रकार एक बार सत्पात्र दानके प्रभावसे वे वसुदेव और सुदेव ब्राह्मण जब इस प्रकारके चरमशरीरी हुए हैं तब भला सुशील सम्यग्दृष्टि जीव क्या उक्त सत्पात्रदानके प्रभावसे वैसा नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ ८ ॥
चन्द्र नामके नगरमें जो धारण नामका अनुपम राजा था वह मुनियों के लिए दान देकर उससे उत्पन्न हुए निर्मल पुण्यके प्रभावसे देवकुरुमें उत्पन्न हुआ और तत्पश्चात् मनुष्यगति और देवगतिके महान् सुखको भोगकर दशरथ राजा हुआ है। इसलिए निर्मल गुणों के समूहसे युक्त भव्य जीवोंको निरन्तर मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥९॥
इसकी कथा इस प्रकार है- यहींपर अयोध्या नगरीमें दशरथ नामका राजा राज्य करता था। एक समय उसने महेन्द्र उद्यानमें आये हुए सर्वभूत-हितशरण्य मुनिकी पूजा की और तत्पश्चात् नमस्कारपूर्वक बैठते हुए उसने उनसे अपने पूर्वभवोंको पूछा । मुनि बोले- इसी आर्यखण्डमें कुरुजांगल देशके अन्तर्गत हस्तिनापुरमें उपास्ति नामका राजा राज्य करता था। वह मुनिदानका निषेध करनेके कारण तिर्यंचगतिमें गया और वहाँ असंख्यात भवोंमें घूमा । पश्चात् वहाँसे निकलकर वह चन्द्रपुरके राजा चन्द्र और रानी धारिणीके धारण नामका पुत्र हुआ। फिर वह मुनिके लिये दान देनेसे घातकीखण्ड द्वीपके भीतर पूर्व मेरु सम्बन्धी देवकुरु ( उत्तम भोगभूमि)में उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वहाँ से वह स्वर्ग में गया और फिर वहाँसे भी च्युत होकर जम्बूद्वीपके भीतर पूर्व विदेहके अन्तर्गत पुष्कलावती देशमें स्थित पुण्डरीकिणी पुरके राजा अभयघोष और वसुन्धरीके नन्दिवर्धन नामका पुत्र हुआ। इस पर्यायमें उसने दीक्षा लेकर तपश्चरण किया और उसके प्रभावसे ब्रह्म स्वर्गमें जाकर देव हुआ । पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह जम्बूद्वीपके
१. ब संददृष्टिस्तछोल । २. श पुरेशधारिण्योः चन्द्रपुत्रो ।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-९, ५० : विदेहविजयार्धशशिपुरेशरत्नमालेरपत्यं सूर्यो' जातः ।
एकदा रत्नमालिः सिंहपुराधिपवज्रलोचनस्योपरि चटितः। अत्र प्रस्तावे देवेनैकेन निषिद्धः। किमिति पृष्टे देवोऽवोचत्- अस्मिन् विजयाधं गान्धारनगरीशश्रीभूतेः पुत्रः सुभूतिरभूत् । मन्त्री उभयमन्युः संजातः । राज्ञा कमलगर्भभट्टारकसकाशे गृहीतानि व्रतानि मन्त्रिणा नाशितानि । मन्त्री मृत्वा हस्ती संजातः । स च राज्ञा पट्टवर्धनः कृतः। स हस्ती च कमलगर्भमुनेर्दशनेन जातिस्मरो भूत्वा व्रतान्यादाय सुभूति-योजनगन्ध्योः पुत्रोऽरिंदमोऽभूत् । तन्मुनि समीपे तपसाहं शतारे जातः । श्रीभूतिम॒त्वा मन्दरारण्ये मृगो जातः। काम्भोजविषये भिल्ल कलिंजमो भूत्वा शर्करायामुत्पन्नो मया संबोधितः सन्निदानी रत्नमालिर्जातोऽसीति । श्रुत्वानन्दाय राज्यं दत्त्वा रत्नतिलकमुनिनिकटे सूर्यजेन सह प्रववाज । शुक्र उत्पद्य तस्मादागत्य सर्यजचरस्त्वम् , इतरो जनकः, अरिंदमचरः शतारादागत्य कनकः संजातः। सोऽभयघोष. स्तपसा त्रैवेयके उत्पद्य तस्मादागत्य वयं संजाता इति निरूपिते निशम्य मुनि वन्दित्वा स्वपुरं प्रविष्टः । अपराजितादिपट्टमहादेवीभी रामादिपुत्रैरन्यैश्च बन्धुभिर्महाविभूत्या राज्यं कुर्वन् अपरविदेहमें स्थित विजयाध पर्वतके ऊपर शशिपुरके राजा रत्नमालिके सूर्य (सूर्यज) नामका पुत्र हुआ।
___एक समय रत्नमालिने सिंहपुरके राजा वज्रलोचनके ऊपर चढ़ाई की। किन्तु इस बीचमें उसे एक देवने ऐसा करनेसे रोक दिया। इसका कारण पूछनेपर वह देव बोला- इस विजया पर्वतके ऊपर स्थित गान्धारपुरके राजा श्रीभूतिके एक सुभूति नामका पुत्र था। उस राजाके मन्त्रीका नाम उभयमन्यु था। राजा श्रीभूतिने कमलगर्भ भट्टारकके समीपमें व्रतोंको ग्रहण किया था । किन्तु उस मन्त्रीके प्रभावमें आकर वह उनका पालन नहीं कर सका और वे यों ही नष्ट हो गये । इस पापके प्रभावसे वह मन्त्री मरकर हाथी हुआ । उसे राजाने पट्टवर्धन (मुख्य हाथी) बनाया। उक्त हाथीको कमलगर्भ मुनिके दर्शनसे जातिस्मरण हो गया। तब उसने व्रतोंको ग्रहण कर लिया। वह मरकर राजा सुभूति और रानी योजनगन्धीके अरिन्दम नामका पुत्र हुआ। उसने उन मुनिके समीपमें दीक्षा ले ली। इस प्रकार तपके प्रभावसे वह मरकर शतार स्वर्गमें देव हुआ, जो मैं हूँ । उधर वह श्रीभूति राजा मरकर मन्दरारण्यमें मृग हुआ। तत्पश्चात् वह काम्भोज देशमें कलिंजम भील हुआ। वह समयानुसार मरकर शर्कराप्रभा पृथिवी (दूसरा नरक) में नारकी उत्पन्न हुआ। उसे मैंने जाकर प्रबोधित किया। इससे वह प्रबुद्ध होकर उक्त पृथिवीसे निकला और तुम रत्नमालि हुए हो। इस प्रकार उक्त देवसे अपने पूर्वभवोंका वृत्तान्त सुनकर वह रत्नमालि आनन्दके लिए राज्य देकर सूर्यज पुत्रके साथ रत्नतिलक मुनिके समीपमें दीक्षित हो गया। वह मरकर तपके प्रभावसे शुक्र कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। साथमें वह सूर्यज भी उसी कल्पमें देव हुआ। इसके पश्चात् सूर्यजका जीव उक्त कल्पसे आकर तुम और दूसरा (रत्नमालि) जनक हुआ है। अरिन्दमका जीव, जो शतार स्वर्गमें देव हुआ था, वहाँसे आकर जनकका भाई कनक हुआ है। वह अभयघोष तपके प्रभावसे अवेयकमें उत्पन्न हुआ और फिर वहाँसे च्युत होकर हम (सर्वभूतहितशरण्य) हुए हैं । इस प्रकार उन सर्वभूतहितशरण्य मुनिके द्वारा प्ररूपित अपने पूर्वभवोंको सुनकर राजा दशरथ उन्हें नमस्कार करके अपने नगरमें वापिस आ गया और अपराजिता आदि पट्ट
१. ज प ब श सूर्ययो। २. प सूर्ययेन । ३. ज प्रवद्राजे ।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१०, ५१ ] ६. दानफलम् १०
३०९ स्थितः इति मिथ्यादृष्टिरपि धारणो राजा सत्पात्रदानफलेनैवंविधोऽभूदन्यः सदृष्टिस्ततः किं न स्यादिति ॥२॥
नानाकल्पांघ्रिपैर्ये समलसुखदेश्छन्ना सुकुरवो जातस्तेषु प्रभूतः सुगुणगणयुतो दानात् सुविमलात् । मृत्वा विद्युत्प्रपाताच्छयनतलगतो भामण्डलनृप
स्तस्माहानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥१०॥ अस्य कथा- अत्रैव विजया दक्षिणश्रेण्यां रथनू पुरे सीतादेवीभ्राता विद्याधरचक्रो प्रभामण्डलो राजा सुखेन राज्यं कुर्वस्तस्थौ। इतोऽयोध्यायामिभ्यक.दम्बकाम्बिकयो पुत्राव शोकतिलको जातौ । सीतात्यजनमाकर्ण्य पितापुत्राः द्युतिभट्टारकनिकटे दीक्षिताः, सर्वागमधराश्च भूत्वा त्रयोऽपि ताम्रचूडपुरे चैत्यालयवन्दनार्थ गच्छन्तः पञ्चाशत्योजनविस्तृत सीतार्णवाटवीमध्ये अासन्नप्रावृषि गृहीत योगाः स्वेच्छाविहारं गच्छता प्रभामण्डलेन सोपसर्गा दृष्टाः, तदनु समोपे ग्रामादीन् कृत्वा तेभ्य श्राहारदानं दत्तम् । तेन पुण्यसंग्रहं कृत्वा वहुकालं राज्यं कुर्वन् तस्थौ, एकस्यां रात्रौ स्वशयनतले सुन्दरमालादेव्या सुप्तो विद्युता रानियों, रामादि पुत्रों एवं अन्य बन्धुजनोंके साथ महाविभूतिसे परिपूर्ण राज्यका उपभोग करता हुआ स्थित हो गया। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि भी वह धारण राजा सत्पात्रदानके फलसे जब ऐसा वैभवशाली हुआ है तब क्या उसके प्रभावसे सम्यग्दृष्टि जीव चैसा न होगा ? अवश्य होगा ॥९॥
अनेक उत्तम गुणोंसे संयुक्त भामण्डल राजा शय्यातलपर स्थित होते हुए (सुप्त अवस्था) बिजलीके गिरनेसे मृत्युको प्राप्त होकर निर्मल दानके प्रभावसे उन कुरुओं (उत्तम भोगभूमि) में उत्पन्न हुआ जो कि अत्यन्त निर्मल सुख देनेवाले अनेक 'कल्पवृक्षोंसे व्याप्त हैं । इसलिये निर्मल गुणोंके समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको निरन्तर उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥१०॥
- इसकी कथा इस प्रकार है- यहींपर विजयाध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें स्थित रथनूपुर नगरमें सीता देवीका भाई व विद्याधरोंका चक्रवर्ती प्रभामण्डल राजा राज्य करता हुआ स्थित था। इधर अयोध्या पुरीमें धनी (सेठ) कदम्बक और अम्बिका (उसकी पत्नी) के अशोक और तिलक नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। पिता कदम्बक और वे दोनों पुत्र सीताके परित्यागकी वार्ताको सुनकर द्यतिभट्टारकके निकटमें दीक्षित हो गये। ये तीनों समस्त श्रतके पारगामी होकर ताम्रचूड़ पुरमें स्थित चैत्यालयकी वन्दना करनेके लिये जा रहे थे। मार्गमें पचास योजन विस्तार्ण सीतार्णव नामक वनके मध्यमें पहुँचनेपर वर्षाकाल (चातुर्मास) का समय निकट आ गया। इसलिए उन तीनों मुनियोंने उसी वनके मध्यमें वर्षायोगको ग्रहण कर लिया। उस समय प्रभामण्डल इच्छानुसार घूमता हुआ वहाँ से निकला । वह मुनियोंके इस उपसर्गको देखकर वहींपर निर्मापित ग्रामादिकोंमें स्थित होता हुआ उन्हें आहार देने लगा। इससे उसने बहुत पुण्यका संचय किया। तत्पश्चात् उसने बहुत समय तक राज्य किया। एक दिन रातमें वह अपनी शय्याके ऊपर सुन्दरमाला देवीके साथ सो रहा था। इसी समय अकस्मात् बिजली गिरी और उससे उसकी
१. फ ब सुखदैश्च्युत्वा श सुखदैश्छन्नां । २. फ ताम्रचूलपुर ब ताम्रचूलपुरे। ३. श पञ्चाशत्त. योजन । ४. ब तेन इति पुण्य ।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-११, ५२ :
मृत्वोत्तमभोगभूमावुत्पन्नः, इति रागी सम्यक्त्वहीनो ऽपि मुनिदान फलेनोत्तमभोगभूमिजोऽभूत् सद्दष्टिः किं न स्यादिति ॥१०॥
३१०
[ ५२]
देवी विष्णोः सुसीमा कथमपि भुवने रुद्रस्य तनुजा जाता यक्षादिदेवी वरगुणमुनये भक्तिप्रगुणतः ।
aar' दानात् सुभोगान कुरुषु दिवि भुवि प्रभुज्य विदितांस्तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥११॥
अस्य कथा - अत्रैवार्यखण्डे सुराष्ट्रदेशे द्वारावतीनगर्या राजानौ पद्म कृष्णौ बलनारायणौ । तत्र कृष्णस्याष्टौ पट्टमहादेव्यः । ताश्च का इत्युक्ते सत्य आमा रुक्मिणी जाम्बवती लक्ष्मणा सुसीमा गौरी पद्मावती गान्धारी च । तौ नृपावूर्जयन्तगिरिस्थं श्री नेमिजिनं वन्दितुमातुस्तं समभ्यर्च्य वन्दित्वा स्वकोष्ठे उपविष्टौ धर्ममाकर्णयन्तौ तस्थतुः । तदा यथावसरे सुसीमादेवी वरदत्तगणधरं नत्वा स्वातीत भाविभवांश्च पृष्टवती । स श्राह - - धातकीखण्डे पूर्वमन्दरपूर्वविदेहमङ्गलावतीविषयरत्नसंचयपुरेशो विश्वसेनो देवी अनुंधरी, अमात्यः सुमतिः । राजा अयोध्याधिपपद्मसेनेन युधि निहतः । सुमतिना अनुंधरी प्रतिबोध्य व्रतं ग्राहिता
मृत्यु हो गई । तब वह उपर्युक्त मुनिदान के प्रभावसे उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ । इस प्रकार विषयानुरागी च सम्यक्त्व से रहित होकर भी वह प्रभामण्डल मुनिदानके फलसे जब उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ तब भला सम्यग्दृष्टि जीव उस दानके फलसे कौन-सी विभूतिको प्राप्त नहीं होगा ? वह तो मोक्षसुखको भी प्राप्त कर सकता है ॥ १० ॥
लोकमें क्रूर यक्षिलग्रामकूटकी लड़की यक्षदेवी किसी प्रकार उत्तम गुणोंसे संयुक्त मुनिके लिये अतिशय भक्तिपूर्वक आहारदान देकर उस दान के प्रभावसे कुरुओं (उत्तम भोगभूमि) में, स्वर्गमें और पृथिवीपर उत्तम भोगोंको भोगकर कृष्णकी सुसीमा नामकी पट्टरानी हुई; यह सबको विदित है । इसीलिये उत्तम गुणोंसे युक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥११॥ इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्डके भीतर सुराष्ट्र देशके अन्तर्गत द्वारावती नगरी में पद्म और कृष्ण नामके क्रमशः बलदेव और नारायण राजा राज्य करते थे । उनमें कृष्ण के सत्यभामा, रुक्मिणी, जाम्बवती, लक्ष्मणा, सुसीमा, गौरी, पद्मावती और गान्धारी नामकी आठ पट्टरानियाँ थीं । वे दोनों राजा ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर विराजमान श्री नेमि जिनेन्द्र की वन्दना के लिये गये । वहाँपर उनकी पूजा और वन्दना करनेके पश्चात् वे दोनों अपने कोठे में बैठकर धर्मश्रवण करने लगे । उस समय अवसर पाकर सुसीमा रानीने वरदत्त गणधर को नमस्कार करते हुए उनसे अपने पूर्व व भावी भवों को पूछा । गणधर बोले- धातकीखण्ड द्वीप के भीतर पूर्वमेरु सम्बन्धी पूर्वविदेहमें मंगलावती नामका देश है । उसके अन्तर्गत रत्नसंचयपुर में विश्वसेन नामका राजा राज्य करता था । रानीका नाम अनुन्धरी और मन्त्रीका नाम सुमति था । विश्वसेन राजा युद्धमें अयोध्या के राजा पद्मसेनके द्वारा मारा गया । तच मन्त्री सुमतिने अनुन्धरीको सम्बोधित
१. जप दत्ता श दाता । २. पफश विदितां तस्मा । ३. फ द्वारवती । ४. फ विदेहे । ५. फ
विषये ।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६–१२, ५३ ]
६. दानफलम् १२
आयुरन्ते विजयद्वारवासिविजये यक्षस्य देवी ज्वलनवेगा बभूव । ततो बहु भ्रमित्वा जम्बूद्वीपपूर्वविदेहेर म्यावतीविषयेशालिग्रामे ग्रामकूटकयति देवसेनयोर्यज्ञदेवी जाता । सा एकदा पूजोपकरणेन यक्षं पूजयितुं गता । तत्र धर्मसेनमुनिनिकटे धर्ममाकर्ण्य मुनिभ्य आहारदानमदत्त । विमलाचलमेकदा सखीभिः सह क्रीडितुं गता । अकालवृष्टिभयात् गुहां प्रविष्टा सिंहेन भक्षिता, मृता हरिवर्षे जाता, ततो ज्योतिर्लोके, ततो जम्बुद्वीपपूर्वविदेह पुष्कलावतीविषय वीतशोकपुरेशा शोकश्रीमत्योः श्रीकान्ता जाता कन्यैव जिनदत्तार्थिकान्ते दीक्षया दीक्षिता माहेन्द्रस्य प्रिया भूत्वा त्वं जातासि । इह तपसा कल्पवासिदेवो भूत्वागत्य मण्डलेश्वरो भविष्यसि तपसा मुक्तश्च । हृष्टा सा श्रुत्वा । इति विवेकविकलापि कुटुम्बिनी दानफलेनैवंविधा जातान्यः किं न स्यादिति ॥ ११॥
[ ५३ ]
गान्धारी विष्णुजाया सुर-नरभवजं भुक्त्वा वरसुखं दत्तान्ना' शुद्धभावाच्चिर विगतभवे याभून्नृपवधूः ।
३११
करके उसे व्रत ग्रहण करा दिये । वह आयुके अन्तमें मरकर विजयद्वारके ऊपर स्थित विजय यक्षकी ज्वलनवेगा नामकी देवी उत्पन्न हुई । तत्पश्चात् वह अनेक योनियों में परिभ्रमण करके जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में रम्यावती देशके अन्तर्गत शालिग्राममें ग्रामकूट ( ग्रामप्रमुख ) यक्षिल और देवसेना दम्पतीके यक्षदेवी नामकी पुत्री हुई। एक दिन वह पूजाके उपकरण लेकर यक्षकी पूजाके लिये गई थी । वहाँ उसने धर्मसेन मुनिके निकटमें धर्मश्रवण करके मुनियोंके लिये आहारदान दिया । एक समय वह सखियों के साथ क्रीड़ा करनेके लिये विमल पर्वत पर गई । वहाँ असामयिक वर्षाके भयसे वह एक गुफा के भीतर प्रविष्ट हुई, जहाँ उसे सिंहने खा डाला। इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर वह हरिवर्ष क्षेत्र (मध्यम भोगभूमि) में उत्पन्न हुई । पश्चात् वहाँ से वह ज्योतिर्लोक में गई और फिर वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देशके अन्तर्गत वीतशोकपुरके राजा अशोक और रानी श्रीमतीके श्रीकान्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । रानी श्रीमतीके श्रीकान्ता नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उसने कुमारी अवस्था में ही जिनदत्ता आर्यिका के समीपमें दीक्षा ग्रहण कर ली । उसके प्रभावसे वह शरीरको छोड़कर माहेन्द्र इन्द्रकी वल्लभा हुई । तत्पश्चात्
I
वहाँ से च्युत होकर तुम ( सुसीमा ) उत्पन्न हुई हो । यहाँपर तुम तपको स्वीकार करके उसके प्रभावसे कल्पवासी देव होओगी और फिर वहा से च्युत होनेपर मण्डलेश्वर होकर तपश्चरणके प्रभावसे मुक्तिको भी प्राप्त करोगी । इस प्रकार वरदत्त गणधर के द्वारा निरूपित अपने भवोंको सुनकर सुसीमा को बहुत हर्ष हुआ। इस प्रकार विवेकसे रहित भी वह कुटुम्बिनी (कृषक-स्त्री) जब दान के फलसे इस प्रकारकी विभूतिसे युक्त हुई है तब भला अन्य विवेकी भव्य जीव क्या उसके फलसे वैसी विभूतिसे संयुक्त न होगा ? अवश्य होगा ॥ ११ ॥
जिसने कुछ भवोंके पूर्वमें रुद्रदास राजाकी पत्नी होकर शुद्ध भावसे मुनिके लिए आहार दिया था वह देव और मनुष्य भवके उत्तम सुखको भोगकर कृष्णकी पत्नी गान्धारी हुई ।
१. फ विदेहे । २. फ विषये । ३. फ ब यक्षा देवी । ४. ज़ प द्योतिर्लोके श योतिर्लोके । ५. फ
दत्तान्नं ।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
पुण्यावकथाकोशम्
लोके दानाद्विभाषे किमहमनुपमं सौख्यं तनुभृतां तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भयैः सुमुनये ||१२||
अस्य कथा - अथ गान्धारी तत्र तमेव तथा स्वभवसंवन्धं पृच्छति स्म । स ग्रहवायोध्याधिपरुद्रदासस्य प्रिया विनयश्रीर्वरभट्टारकदानप्रभावेनोत्तरकुरुषूत्पन्ना, ततश्चन्द्रस्य देवी जाता । ततोऽत्रैव विजयार्धोत्तरश्रेणी गगनवल्लभपुरेशविद्युद्वेगविद्युन्मत्योर्विनयश्रीर्जाता, नित्यालोकपुरेशमहेन्द्रविक्रमेण परिणीता । महेन्द्रविक्रमश्चारणान्ते धर्मश्रुतेरनन्तरं हरिवाहनं राज्यस्थं कृत्वा निष्क्रान्तः । विनयश्रीस्तपसा सौधर्मेन्द्रस्य देवी भूत्वा त्वं जातासि तथैव सेत्स्यसि । श्रुत्वा सापि हृष्टा । एवं विवेकरहिता स्त्री बाला सकृत्कृतमुनिदान कले नैवंविधा बभूवान्यः किं न स्यादिति ॥ १२ ॥
[ ५४ ]
गौरी श्रीविष्णुभार्याजनि जनविदिता विख्यातविभवा पूर्व या वैश्यपुत्री दिविज- नृभवजं सौख्यं ह्यनुपमम् । भुक्त्वा दानस्य सुफलात्तदनु बहुगुणा सुधर्मविमला तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥१३॥
लोक प्राणियों को दानके प्रभावसे जो अनुपम सुख प्राप्त होता है उसके विषय में मैं क्या कहूँ ? इसलिए निर्मल गुणों के समूह से संयुक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिए ॥१२॥ इसकी कथा इस प्रकार है - पूर्व कथानक में जिस प्रकार वरदत्त गणधर से सुसीमाने अपने भवको पूछा था उसी प्रकार गान्धारीने भी उनसे अपने पूर्व व भावी भवोंके सम्बन्ध में प्रश्न किया । तदनुसार गणधर बोले- यहींपर अयोध्या नगरीके राजा रुद्रदासके विनयश्री नामकी पत्नी थी । वह उत्तम मुनिदान - पतिके साथ श्रीधर मुनिके लिए दिये गये आहारदान - के प्रभावसे उत्तरकुरु में उत्पन्न होकर तत्पश्चात् ज्योतिर्लोक में चन्द्रकी देवी हुई । फिर वहाँ से च्युत होकर वह यहीं पर विजयार्घ पर्वतकी उत्तर श्रेणिमें गगनवल्लमपुर के राजा विद्युद्वेग और रानी विद्युन्मति विनयश्री नामकी पुत्री उत्पन्न हुई उसका विवाह नित्यालोकपुर के राजा महेन्द्रविक्रमके साथ हुआ । महेन्द्रविक्रमने चारणमुनिसे धर्मश्रवण करके हरिवाहन पुत्रको राज्य दिया और स्वयं दीक्षा ले ली। वह विनयश्री तप ( सर्वभद्र उपवास) को स्वीकार कर उसके प्रभाव से सौधर्म इन्द्रकी देवी हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर यहाँ तुम उत्पन्न हुई हो । सुसीमा के समान तुम भी तीसरे भवमें मोक्षको प्राप्त करोगी। इन उपर्युक्त भत्रको सुनकर गान्धारीको भी बहुत हर्ष हुआ । इस प्रकार जब विवेकसे रहित बाला स्त्री एक बार मुनिको दान देकर उसके फलसे ऐसी विभूतिको प्राप्त हुई है तब भला दूसरा विवेकी जीव क्या उसके फलसे अनुपम विभूतिका भोक्ता न होगा ? अवश्य होगा ॥ १२ ॥
।
[ ६-१३, ५४ :
जो पहले वैश्यकी पुत्री ( नन्दा ) थी वह दानके उत्तम फलसे देवगति और मनुष्यभवके अनुपम सुखको भोगकर तत्पश्चात् निर्मल धर्मको प्राप्त करके बहुत गुणों एवं प्रसिद्ध विभूति से सुशोभित होती हुई श्रीकृष्णकी पत्नी गौरी हुई है, इस बातको सब ही जन जानते हैं । इसलिए निर्मल गुणसमूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिए || १३ |
१. फ किमिह । २. श नृभवं सौख्यं
। ३. ब दानस्य फला ।
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
:६-१४, ५५ ]
६. दानफलम् १४
३१३
अस्य कथा- अथ गौरी तत्र तमेव तथा स्वभवानपृच्छत् । स आह- अत्रैवेभपुरे इभ्यधनदेवस्य वल्लभा यशस्विनी' खे चारणान् दृष्वा जातिस्मरा जाता। कथम् । धातकीखण्डपूर्वमन्दरापरविदेहारिष्टपुरे आनन्दश्रेष्ठिनः पत्नी नन्दा अमितगति-सागरचन्द्रमुनिदानेन देवकुरुषु जाता। तत ईशानेन्द्रस्य देव्यभूवम् , ततोऽहमिति निरूपितं सखीनाम् । ततः सुभद्राचार्यान्ते गृहीतप्रोषधफलेन सौधर्मेन्द्रस्य प्रिया जाता। ततः कोशाम्भ्यां इभ्यसमुद्रदत्तसुमित्रयोरपत्यं धर्ममप्तिर्जाता जिनमतिक्षान्तिकान्ते तपसा शुक्रन्द्रस्य प्रिया भूत्वा त्वं जातासि । तवापि तथैव मुक्तिः । श्रुत्वा हृष्टा सा । एवं विवेकविकलापि स्त्री तथाविधा जातान्यः किं न स्यादिति ॥ १३ ॥
[ ५५ ] दत्त्वा दानं मुनिभ्यो नृसुरगतिभवं भूपालतनुजा सेवित्वा सारसौख्यं तदमलफलतो विष्णोः सुवनिता । जाता पद्मावती सा जिनपदकमले भृङ्गी ह्यमलिना
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ॥ १४ ॥ इसकी कथा इस प्रकार है - सुसीमा और गान्धारीके समान जब गौरीने भी उन वरदत्त गणधरसे अपने भवोंको पूछा तब वे बोले- यहींपर इभ ( इभ्य ) पुरमें स्थित सेठ धनदेवके यशस्विनी नामकी पत्नी थी। एक दिन उसे आकाशमें जाते हुए चारणमुनिको देखकर जातिस्मरण हो गया। तब उसने अपनी सखियोंको बतलाया कि धातकीखण्ड द्वीपमें स्थित पूर्वमेरु सम्बन्धी अपरविदेह के भीतर अरिष्टपुरमें एक आनन्द नामका सेठ रहता था। उसकी पत्नीका नाम नन्दा था । वह अमितगति और सागरचन्द्र मुनियोंको दान देनेसे देवकुरुमें उत्पन्न हुई। वहाँ उत्तम भोगभूमिके सुखको भोगकर तत्पश्चात् ईशान इन्द्र की देवी हुई। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर यहाँ मैं उत्पन्न हुई हूँ। यह कहकर उसने ( यशस्विनीने ) सुभद्राचार्यके निकटमें प्रोषधव्रतको ग्रहण कर लिया। उसके प्रभावसे वह मरणको प्राप्त होकर सौधर्म इन्द्रकी वल्लभा हुई । वहाँ से च्युत होकर वह कौशिम्बी पुरीमें सेठ सनुद्रदत्त और सुमित्राके धर्ममति नामकी पुत्री हुई । उसने जिनमति आर्यिकाके समीपमें जिनगुण नामक तपको ग्रहण किया। उसके प्रभावसे वह शुक्र-इन्द्रकी वल्लभा हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर तुम उत्पन्न हुई हो। तुम भी सुसीमा और गान्धारीके समान तीसरे भवमें मुक्ति को प्राप्त करोगी। उपर्युक्त भवों के वृत्तान्तको सुनकर गौरीको अपार हर्ष हुआ । इस प्रकार विवेकसे रहित भी वह स्त्री जब इस प्रकारको विभूतिको प्राप्त हुई है तब दूसरा विवेकी जीव वैसा क्यों न होगा ? अवश्य होगा ॥१३॥
अपराजित राजाकी पुत्री विनयश्री मुनियोंके लिये दान देकर उसके निर्मल फलसे मनुष्य और देवगतिके श्रेष्ठ सुखका अनुभव करती हुई पद्मावती नामकी कृष्णकी पत्नी हुई जो जिन भगवान्के चरण-कमलों में भ्रमरीके समान अनुराग रखती थी। इसलिए निर्मल गुणसमूहसे संयुक्त भव्य जीवों को उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥१४॥
१. प यशश्विनी ब यसस्विनो श यास्वनी। २. फ ब खेचराणां । ३. ५ बश जातिस्मरो।
४. फ धर्ममती जाता। ५. ज प कंतिकान्ते । Jain Education Interna egal
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४ पुण्यानवकथाकोशम्
[६-१४, ५५ : अस्य कथा-पद्मावत्या तत्र तथैव स स्वभवसंबन्धं पृष्टः सन्नाह-अत्रैवावन्तिपूजयिनीशापराजितविजययोविनयश्रीर्जाता, हस्तिशीर्षपुरेश-हरिपेणेन परिणीता, वरदत्तमुनये दत्तआहारदाना कतिपयदिनैः शय्यागृहे पत्या सह कालागरुप्रवरधूमेन मृता, हैमवते जाता। ततश्चन्द्रस्य देवी बभव । ततो मगधदेश-शाल्मलीखण्डग्रामे ग्रामकूटकदेविल-जयदेव्योः पद्मा जाता, वरधर्मयोगिसकाशे अज्ञातवृक्षफलाभक्षणगृहीतव्रता, एकदा चण्डदा बा]णभिल्लेन तदग्रामजनो बन्दिग्राहं गृहीत्वा स्वपल्लों नीतः । सोऽपि राजगृहेशसिंहरथेन हतः। तत्रत्या जनाः पलाय्याटवीं प्रविष्टाः, किंपाकफलभक्षणान्मृताः । सा व्रतप्रभावेन जीविता स्वग्राम आगत्य बहुकालेन मृता, हैमवते जाता, ततः स्वयंप्रभाचलनिवासिस्वयंप्रभदेवस्य देवी जाता, ततो भरते जयन्तपुरेशश्रीधर-श्रीमत्योर्विमलश्रीर्जाता, भद्रिलपुरेशमेघवाहनाय दत्ता । मेघघोषं सुतं प्राप्य पद्मावतीक्षान्तिकाभ्यासे तपसा सहस्त्रारेन्द्रस्य देवी भत्वा त्वं जातासि, तथैव सेत्स्यसीति । निशम्य सापि हटा । इति विवेकविकला मिथ्यादृष्टिरपि स्त्री सत्पात्र
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी प्रकारसे पद्मावतीने भी उनसे अपने भव पूछे । तदनुसार वरदत्त गणधरने उसके भव इस प्रकार बतलाये - यहींपर अवन्ति देशमें स्थित उज्जयिनी पुरीके राजा अपराजित और रानी विजयाके एक विनयश्री नामकी पुत्री थी जो हस्तिशीर्ष पुरके राजा हरिषेणको दी गई थी। उसने वरदत्त मुनिके लिये आहारदान दिया था। कुछ दिनोंके पश्चात् वह रात्रिमं पतिके साथ शयनागारमें सो रही थी। वहाँ वह कालागरुके धुएँसे पति के साथ मरणको प्राप्त होकर हैमवत क्षेत्र ( जघन्य मार्गभूमि ) में उत्पन्न हुई। फिर वह आयुके अन्तमें मरणको प्राप्त होकर चन्द्रकी देवी हुई। वहाँ से च्युत होकर मगध देशके अन्तर्गत शाल्मलीखण्ड ग्राममें गाँवके मुखिया देविल और जयदेवीके पद्मा नामकी पुत्री उत्पन्न हुई। उसने वरधर्म मुनिके समीपमें अनजान वृक्षके फलोंके न खानेका नियम लिया था। एक समय चण्डदा(बा)ण भीलने उस गाँवके मनुष्योंको पकड़वा कर अपनी भील बस्तीमें बुलाया । तब उन सबके साथ पदमा भी पहुँची। उस भीलको राजगृहके राजा सिंहरथने मार डाला । तब उक्त भीलके द्वारा बन्धनबद्ध किये गये वे सब भागकर एक वनके भीतर प्रविष्ट हुए और वहाँ किंपाक फलों के खानेसे मर गये । परन्तु पद्मा अज्ञात-फल-अभक्षण व्रतके प्रभावसे जीवित रहकर अवने गाँवमें वापस आ गई । वहाँ वह बहुत काल तक रही, तत्पश्चात् मृत्युको प्राप्त होकर हैमवत क्षेत्र ( जघन्य भोगभूमि ) में उत्पन्न हुई । फिर वहाँ से निकलकर स्वयंप्रभ पर्वतके ऊपर स्थित स्वयंप्रभदेवकी देवी हुई । तत्पश्चात् वहाँ से भी च्युत होकर भरतक्षेत्रके भीतर जयन्तपुरके राजा श्रीधर और रानी श्रीमतीके विमलश्री नामकी पुत्री हुई जो भदिलपुरके राजा मेघवाहनके लिए दे दी गई । उसे मेघघोष नामका पुत्र प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वह पद्मावती आर्यिकाके निकटमें दीक्षित होकर तपके प्रभावसे सहस्रार-इन्द्रकी देवी हुई और फिर वहाँ से च्युत होकर तुम हुई हो । सुसीमा आदिके समान तुम भी तीसरे भवमें सिद्धिको प्राप्त करोगी। इस प्रकार अपने भवोंको सुनकर वह पद्मावती भी हर्षको प्राप्त हुई। जब विवेकसे रहित मिथ्यादृष्टि भी स्त्री सत्पात्र
१. ब°संबंधः । २. ब देविलविजयदेव्योः । ३. श अज्ञातवृष । ४. फ चण्डदान । ५. फ तद्धाम
जनो। ६. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श सापि । ७. ब पल्याज्याटवी प्रविष्टः । ८. ब भक्षणान्मूछिता व्रत ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१५
६-१५, ५६]
६. दानफलम् १५ दानेन तथाविधा जातान्यः कि न स्यादिति ॥१४॥
[५६ ] यद्धस्ते शातकुम्भं पतितमपि मली. संभूतममलं संजातः सोऽपि दानाद् दिवि मणिभवने देवीसुरमणः । तस्मादासीत् स धन्यः सुगुणनिधिपतिर्वैश्यो विमलधी
स्तस्माहानं हि देयं विमलगणगणैव्यैः समनये ॥ १५॥ अस्य कथा- अत्रैवार्यखण्डेऽवन्तीविषये उज्जयिन्यां राजावनिपालस्तत्रेभ्यो वैश्यो धनपालो भार्या प्रभावती। तस्या देवदत्तादयः पुत्राः सप्त । ते च केचिदक्षराभ्यास केचिद्व्यवहारं कुर्वन्तस्तस्थुः । अन्यदा प्रभावती चतुर्थस्नानं कृत्वा पत्या सुप्ता रात्रिपश्चिमयामे धवलोत्तुङ्गवृषभ-कल्पवृक्ष-चन्द्रादीनां स्वप्ने स्व-गृहप्रवेशमपश्यत् । 'प्रभाते भर्तुनिरूपिते सोऽवोचत्-ते वैश्यकुलप्रधानं त्यागी स्वकीर्त्या धवलीकृतजगत्त्रयः पुत्रो भविष्यतीति।श्रुत्वा सातिहण गर्भचिह सति नवमासावसाने पत्रमसत। तन्नालं परितम । खनने द्रव्यपूर्णःकटाहो निर्जगाम, तन्मज्जनार्थ खननप्रदेशेऽपि । धनपालेन तत्स्वरूपमवनिपालो विज्ञप्तो बभाण 'त्वत्पुत्रपुण्येन निर्गतं यद् द्रव्यं तस्य स एव स्वामी' इति । तदनु श्रेष्ठी संतुष्टो गृहमागत्य दानसे वैसी विभूतिको प्राप्त हुई है तब क्या अन्य विवेकी भव्य जीव उसके प्रभावसे वैसी विभूतिको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥१४॥
जिसके हाथमेंसे गिरा हुआ निर्मल सोना भी मलिन हो गया वह (अकृतपण्य) भी मुनिदानके प्रभावसे स्वर्गके भीतर मणिमय भवन में उत्पन्न होकर देवियोंके मध्यमें रमनेवाला देव हुआ
और फिर वहाँ से च्युत होकर उत्तम गुणोंसे संयुक्त निर्मल बुद्धिका धारक धन्यकुमार वैश्य हुआ। इसीलिये निर्मल गुणोंके समूहसे संयुक्त भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिये दान देना चाहिये ॥१५॥
इसकी कथा इस प्रकार है- इसी आर्य खण्डके भीतर अवन्ती देशमें उज्जयिनी नामकी नगरी है। वहाँ अवनिपाल नामका राजा राज्य करता था। वहींपर धनपाल नामका एक धनी वैश्य था। उसकी पत्नीका नाम प्रभावती था। उसके देवदत्त आदि सात पुत्र थे । उनमें कुछ तो शिक्षा प्राप्त कर रहे थे और कुछ व्यवसाय करते थे। एक समय प्रभावती चतुर्थस्नान करके पतिके साथ सोई हुई थी। उस समय उसने रात्रिके पिछले प्रहरमें स्वप्नमें उन्नत श्वेत बैल, कल्पवृक्ष और चन्द्र आदिकों को अपने घरमें प्रवेश करते हुए देखा । प्रभात हो जानेपर उसने उक्त स्वप्नोंका वृत्तान्त पतिसे कहा। तब उसने बतलाया कि तुम्हारे वैश्य कुलमें प्रधान, दानी एवं अपनी कीर्तिसे तीनों लोकोंको धवलित करनेवाला पुत्र उत्पन्न होगा। यह सुनकर प्रभावतीको बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् उसके गर्भके चिह्न दिखने लगे। इसके बाद उसके नौ महीने के अन्तमें पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके नालको गाड़नेके लिये जहाँ भूमि खोदी गई थी वहाँ धनसे परिपूर्ण एक कड़ाही निकली। इसी प्रकार उसको नहलानेके लिये खोदे गये स्थानमें भी धन प्राप्त हुआ। इसका समाचार धनपालने अवनिपाल राजाको दिया । इसपर राजाने कहा कि यह तुम्हारे पुत्रके पुण्यसे प्राप्त
हुआ है, इसलिए उसका स्वामी तुम्हारा वह पुत्र ही है। इससे सन्तुष्ट होकर सेठ घर वापस Jain Education Internatnaब -प्रतिपाठोऽयम् । श पुत्राः सप्तति के । २. व पतिनाenly
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : महोत्साहेन तजातकर्म चकार । दशमदिने तत्रत्यविश्वजिनालयेष्वभिषेकादिकं कृत्वा दोनानाथान् स्वर्णादिदानेन प्रीणयित्वा तस्मिन्नुत्पन्ने स्ववर्या धन्या जाता इति तस्य धन्यकुमार इति नाम कृतम् । स धन्यकुमारः स्ववालक्रीडया बन्धून् संतोषयामास । जैनोपाध्यायान्तिकेऽखिलकलाकुशलो जज्ञे । तत्त्यागभोगादिकं विलोक्य देवदत्तादयो बभणुः 'वयमुपार्जका अयं भक्षकः' इति । तत् श्रुत्वा प्रभावत्या श्रेष्ठी भणितो धन्यकुमारं व्यवहारकरणे योजय । ततः श्रेष्ठिनोत्तममुहूर्ते शतद्रव्यं तत्पोत्ये निक्षिप्यापणे उपवेशितः, उक्तं च तस्यैतद् द्रव्यं दत्त्वा किंचिद् ग्राह्यम् , तदपि दत्त्वा किंचिद् ग्राह्यम् , तदपि दत्त्वा किंचिदिति यावद् भोजनकालो भवति तावदित्थं व्यवहारं कृत्वा पश्चाद् गृहीतं वस्तु वण्ठस्य हस्ते दत्वा भोक्तुमागच्छेति निरूप्य श्रेष्ठी गृहं गतः । इतो धन्यकुमारोऽङ्गरक्षकयुतो यावदापणे आस्ते तावच्चतुर्बलीवदयुतं काष्ठभृतं शकट कोऽपि विक्रयितुमानीतवान् । तेन द्रव्येण तत् संजग्राह कुमारस्तदपि दत्त्वा मेषं गृहीतवान् , तमपि दत्त्वा मञ्चकपादकान् जग्राह । ततो गृहमाययौ । तदागमने माता 'पुत्रः प्रथमदिने व्यवहारं कृत्वा समागतः' इति महाप्रभावनां चकार । तां दृष्ट्वा ज्येष्टपुत्रा ऊचुःअयं प्रथमदिन एव शतद्रव्यं विनाश्यागतः । तथापि माताऽस्यैवंविधा प्रभावनां करोत्यस्मासु
आया । फिर उसने अतिशय उत्साह के साथ पुत्रका जन्मोत्सव मनाया। पश्चात् दसवें दिन उसने वहाँके समस्त जिनालयोंमें अभिषेक आदि कराकर दीन और अनाथ जनोंको सुवर्ण आदिका दान दिया। उसके उत्पन्न होनेपर चूँकि सजातीय जन धन्य हुए थे अतएव उसका नाम धन्यकुमार रखा गया। वह धन्यकुमार अपनी बाल-लीलासे बन्धुजनोंको सन्तुष्ट करने लगा। पश्चात् वह जैन उपाध्यायके समीपमें पढ़ करके समस्त कलाओं में कुशल हो गया। उसके दान और भाग आदिको देखकर देवदत्त आदि कहने लगे कि हम लोग तो कमाते हैं और यह धन्यकुमार उस द्रव्यको यों ही उड़ाता-खाता है । यह सुनकर प्रभावतीने सेठसे कहा कि धन्यकुमारको किसी व्यापार कार्यमें लगाओ। तब सेठने शुभ मुहूर्तमें उसके कपड़ेमें सौ मुद्राएँ रखकर उसे दूकानपर बैठाते हुए कहा कि इस धनको देकर उसके बदलेमें किसी दूसरी वस्तुको लेना, फिर उसको भी देकर अन्य वस्तुको लेना, तत्पश्चात् उसको भी देकर और किसी वस्तुको लेना; इस प्रकारका व्यवहार तब तक करना जब तक कि भोजनका समय न हो जावे। इस प्रकारसे व्यवहार करके अन्तमें जो वस्तु प्राप्त हो उसे भृत्यके हाथमें देकर भोजनके लिए आ जाना। इस प्रकार कह कर सेठ घर चला गया। इधर धन्यकुमार अंगरक्षकोंसे संयुक्त होकर दूकानपर बैठा था कि उस समय कोई चार बैलोंसे संयुक्त लकड़ियोंसे भरी हुई गाड़ीको बेचनेके लिये लाया। तब धन्यकुमाग्ने उन सौ मुद्राओंको देकर उस गाड़ीको ख़रीद लिया। फिर उसको देकर उसने बदले में एक मेंदाको ले लिया। तत्पश्चात् उसको भी देकर उसने खाटके चार पायोंको खरीद लिया । फिर वह घर आ गया । उसके घर वापस आनेपर माताने यह विचार करके कि 'पुत्र पहले दिन व्यवसाय करके आया है' उसकी बहुत प्रभावना की । उसको उत्सव मनाते हुए देखकर ज्येष्ठ पुत्रोंने कहा कि यह पहले दिन ही सौ मुद्राओंको नष्ट करके आया है फिर भी माँ इसकी इस प्रकारसे प्रभा
१. बतलोले। २. ज तस्यैव द्रव्यं फ तस्मै तद् द्रव्यं । ३. ज तन् संजग्राह श तन्न मंजबाट ।
४. फ माता तस्यैवंविधां ।
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१५, ५६]
६. दानफलम् १५ महाद्रव्यं समुपाया॑गतेषु संमुखमपि' नालोकते । अहो चित्रम् । तद्वचनमाकर्ण्य माता मनसि निधाय धन्यकुमारादिभ्यो भोजनं दत्त्वा स्वयमपि भुक्त्वा काष्ठपात्रीभृतजले तान् मञ्चकपादान् प्रक्षालयन्ती तस्थौ । ते च पुष्कलीभूताः प्रक्षालनावसरे तज्झम्पनेऽपसृते ततो गलितानि रत्नानि, भूर्जपत्रं च निर्गतं । तानि स्वपुत्राणां दर्शयति स्म । ततस्ते गलितगर्वा बभूवुः । ते कस्य मञ्चकस्य पादास्तत्पत्रं केन कथं लिखितमित्युक्ते श्राह-पूर्व तत्पुरे वसुमित्रनामा श्रेष्ठी बभूवातिपुण्यवान् । तत्पुण्येन तद्गृहे नवनिधानानि जातानि । तेनैकदा तत्रोद्यानमागतोऽवधिज्ञानी मुनिः पृष्टोऽस्मन्नवनिधीनाम् अग्रे कः स्वामी स्यात् । तैरुक्तम्धनपालश्रेष्ठिनः पुत्रो धन्यकुमारः स्वामी भवेत् । तत् श्रुत्वा वसुमित्रः स्वगृहमेत्यैतत्पत्रं लिखितवान् । कथम्। श्रीमन्महामण्डलेश्वरावनिपालराज्ये यो भविष्यति धन्यकुमारो वैश्यकुलतिलकः स मदगृहे एतदेतत्प्रदेशस्थनवनिधीन् गृहीत्वा सुखेन तिष्ठतु। मङ्गलं महाश्रीरिति । एतद्रत्नैः समं मञ्चकपादेषु निक्षिप्य श्रेष्ठी सुखेन स्थितः, स्वायुरन्ते संन्यासेन दिवं ययौ । तस्मिन् गते तद्गृहस्था जना सर्वेऽपि मरकेण मृताः। पश्चाद्यो मृतः स तेनैव मञ्चकेन मातङ्गैःसंस्कारयितुं नीतः। तत्पादांश्चाण्डालहस्तेन धन्यकुमारो जग्राह, तत्पत्रं वाचितवान् । वना कर रही है। और इधर हम बहुत-सा धन कमाकर लाते हैं फिर भी वह हमारी ओर देखती भी नहीं है; यह कैसी विचित्र बात है। उनके इस उलाहनेको सुनकर माताने उसे मनमें रखते हुए धन्यकुमार आदिको भोजन कराया और तत्पश्चात् स्वयं भी भोजन किया। बादमें उसने एक लकड़ीके पात्रमें पानी भरकर उन खाटके पायोंको धोना प्रारम्भ किया। इस क्रियासे वे निर्मल हो गये । धोनेके समयमें मलके दूर हो जानेपर उनसे रत्न गिरे और साथ ही एक भोजपत्र भी निकला । प्रभावतीने इन सबको उन पुत्रों के लिये दिखलाया । इससे उनका अभिमान नष्ट हो गया। वे पाये किसकी खाटके थे और वह पत्र किसने व कैसे लिखा था, इसका वृत्तान्त इस प्रकार है
पहिले उस नगरमें एक अतिशय पुण्यवान् वसुमित्र नामका सेठ रहता था। उसके पुण्योदयसे उसके घरमें नौ निधियाँ उत्पन्न हुई थीं । एक दिन उसके उद्यानमें एक अवधिज्ञानी मुनि आये थे। तब सेठ वसुमित्रने उनसे पूछा था कि हमारी इन नौ निधियोंका स्वामी आगे कौन होगा। इसके उत्तरमें उन्होंने यह कहा था कि उनका स्वामी धनपाल सेठका पुत्र धन्यकुमार होगा। इस उत्तरको सुनकर वसुमित्र सेठने घर आकर यह पत्र लिखा था- श्रीमान् महामण्डलेश्वर अवनिपाल राजाके राज्यमें वैश्यकुलमें श्रेष्ठ जो कोई धन्यकुमार नामका उत्तम पुरुष होगा वह मेरे घरके भीतर अमुक-अमुक स्थानमें स्थित नौ निधियोंको लेकर सुखसे स्थित हो । महती लक्ष्मीसे युक्त उसका कल्याण हो । तत्पश्चात् वह रत्नोंके साथ इस पत्रको खाटके पायोंमें रखकर सुखसे स्थित हो गया। फिर वह आयुके अन्तमें संन्यासके साथ मरणको प्राप्त होकर स्वर्गमें गया। उसके मरनेके पश्चात्. उस घरके सब ही मनुष्य मरी रोग ( प्लेग ) से भर गये उनमें जो सबके पीछे मरा उसे अग्निसंस्कारके लिये चाण्डाल उसी खाटसे स्मशानमें ले गये। उसके पायोंको
१. फ ब सन्मुखमपि । २. ब लोकते हो विचित्रं । ३. ब तज्झंपनोपसृते । ४. ज प श कूचिपत्रं । ५. ब तं । ६. श’ मियुक्तो। ७. फ वैश्यकुले तिलकः। ८. ब प्रदेशस्था नवनिधीन् । ९. ब तत्पादांश्चंडाल
हस्ते धन्य । १०. ब तत्पत्रं च वाचितवान श तत्रत्यं वाचितवान ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : ततस्तद्गृह राजपार्श्वे महाप्रहेण याचितं प्राप्य प्रविश्य निधीन गृहोत्या त्यागादिकं कुर्वन् राजमान्यः स्वकीर्त्या व्यापितजगत्त्रयः सुखेन स्थितः ।
तद्रपाद्यतिशयमालोक्य कश्चिदिभ्यो धनपालस्यावदत्-मत्पुत्रीं धन्यकुमाराय दास्यामि । धनपालोऽबूत- ज्येष्ठाय प्रयच्छ । स बभाण-न, यदाकदाचिद्धन्यायैव दास्यामि, नान्यस्मै। तदवधार्य ते ज्येष्ठभ्रातरस्तं द्वेष्टुं लग्नाः। स न जानाति । एकदा तैरुधानस्थां महावापिकां क्रीडितुं नीतः। स तस्सटे उपविश्य तत्क्रीडामवलोकयंस्तस्थौ । आगत्यैकेन वापिकायां निर्लोठितः णमो अरिहंताणं' इति विजल्पन् पपात । ते तस्योपरि पाषाणादिकं निक्षिप्य 'मृतः' इति संतोषेण जग्मुः। इतः स कुमारः पुण्यदेवताभिस्तज्जलनिर्गमरन्ध्रण निःसारितः, पुरादहिः निर्जगाम, तदसहिष्णुत्वमवगम्य देशान्तरं चचाल । गच्छन्नेकस्मिन् क्षेत्रे हलं खेटयन्तं कृषीवलं लुलोके, 'चिन्तयांचकार- सर्वाणि विज्ञानानि मयाभ्यस्तानि, इदमपूर्वम् , तन्निकटं गत्वा विलोकयन् तस्थौ । पामरस्तद्रपं विलोक्य विस्मयं जगामोक्तवांश्चभो प्रभोऽहं शुद्धः कुटुम्बी, मया दध्योदन आनीतोऽस्ति, भोक्ष्यसे। कुमारोऽब्रूत-भोक्ष्ये । चाण्डालके हाथसे धन्यकुमारन लिया । तत्पश्चात् वह उस पत्रको पढ़कर राजाके पास गया । वहाँ उसने आग्रहपूर्वक राजासे वसुमित्र सेठके घरको माँगा। तदनुसार वह उसकी स्वीकृति पाकर सेठ वसुमित्रके उस घरमें गया और उन निधियोंको प्राप्त करके दानादि सत्कार्योमें प्रवृत्त हुआ। इससे उसने राजमान्य होकर अपनी कीतिसे तीनों लोकोंको व्याप्त कर दिया । इस प्रकार वह सुखसे कालयापन करने लगा।
धन्यकुमारकी लोकातिशायिनी सुन्दरता आदिको देखकर कोई धनिक धनपालके पास आया व उससे बोला कि मैं अपनी पुत्री धन्यकुमारके लिए दूंगा । इसपर धनपालने कहा कि तुम उसे मेरे बड़े पुत्रके लिए दे दो। यह सुनकर आगन्तुक सेठने कहा कि नहीं, जिस किसी भी समयमें सम्भव हुआ मैं अपनी उस पुत्रीको धन्यकुमारके लिए ही दूंगा, अन्य किसी भी कुमारके लिए मैं उसे नहीं देना चाहता हूँ । उसके इस निश्चयको देखकर धन्यकुमारके वे सब बड़े भाई उससे द्वेष करने लगे। परन्तु यह धन्यकुमारको ज्ञात नहीं हुआ। एक समय वे सब उसे उद्यानके भीतर स्थित वावड़ीमें क्रीड़ा करनेके लिए ले गये। धन्यकुमार वहाँ वावड़ीके किनारे बैठकर उनकी क्रीडाको देखने लगा। इसी बीच किसीने आकर उसे वावड़ीमें ढकेल दिया। तब वह णमो अरिहंताणं' कहता हुआ उस वावड़ीमें जा गिरा। तत्पश्चात् उन सबने उसके ऊपर पत्थर आदि फेंके । अन्तमें वे उसे मर गया जानकर सन्तोषके साथ घर चले गये । इधर पुण्य देवताओंने उसे जलके निकलनेकी नाली द्वारा उस बावड़ीसे बाहर निकाल दिया। तब उसने नगरके बाहर जाकर अपने उन भाइयोंकी असहनशीलतापर विचार किया । अन्तमें वह अब यहाँ अपना रहना उचित न समझकर देशान्तरको चला गया। मार्गमें जाते हुए उसने एक खेतपर हलसे भूमिको जोतते हुए किसानको देखा। उसे देखकर धन्यकुमारने विचार किया कि मैंने सब विज्ञानोंका अभ्यास किया है, परन्तु यह तो मुझे अपूर्व ही दिखता है । यही विचार करता हुआ वह उस किसानके पास गया और उसकी भूमि जोतनेकी क्रियाको देखने लगा। उसके सुन्दर रूपको देखकर किसानको बहुत आश्चर्य हुआ। वह धन्यकुमारसे बोला कि हे महाशय ! मैं शुद्ध किसान हूँ। मैं घरसे
१. व 'ते' नास्ति । २. क्रीडतुं । ३. ज ब श नमो। ४. श लुलोके ददर्श चिन्त । ५. फ प्रभोऽहं श भोऽहं।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१५, ५६] ६. दानफलम् १५
३१९ कुटुम्बी तं हलसंनिधौ निधाय पात्रपत्रिकाथै पत्राण्यानेतुं ययौ। तस्मिन् गते कुमारो हलमुष्टिं धृत्वा बलीवर्दी खेटयति स्म । तदा हलमुखेन भूमेरीषद्विदारणे सति स्वर्णभृतः ताम्रकलशो निर्गतः। तं दृष्ट्वा पूर्यते मे एतद्विज्ञानाभ्यासेनायं यद्यमुं पश्येत्तर्हि मेऽनर्थ कुर्यादिति मत्वा मृत्तिकया तं तथैव पिधाय तूष्णी स्थितः। कुटुम्बी पत्राण्यानीय गर्तस्थं नीरकलशं दध्योदनं चाकृष्य तत्पादौ प्रक्षाल्य पत्राणि च, तेषु तस्य भोक्तं परिविवेष । स भुक्त्वा राजगृहमार्ग पृष्ट्वा तेन ययौ । स पामरः कृषस्तं ददर्श, विस्मयं ययौ। अहो तस्येदं द्रव्यं मम ग्रहीतुमनुचितम् इति तत्समर्पणार्थ तत्पृष्ठे लग्नः । कुमारस्तदागमं विलोक्य तरोरध उपविष्टः । स आगत्य तं ननामोवाच- हे नाथ, स्वद्रव्यं विहाय किमित्यागतोऽसि । वैश्योऽवताहं किं द्रव्यणागतः, एवमेवागतस्त्वया दत्तो ग्रासो मे द्रव्यं कथं संजातम् । उवाच पामरो मे पितामहः पिताहं चेदं क्षेत्रमाकार्षीमः', कदाचिन्न निर्गतम् , त्वय्यागते निर्गतमिति त्वदीयं तत्। कुमारोऽभणत्- भवतु मदीयम् , मया तुभ्यं दत्तम् , यत्नेन भुनग्धि त्वम् । तदा 'प्रसादः' इति भणित्या नाथैतन्नाम्नि ग्रामे एतन्नामाहं पामरो यदा मया प्रयोजनं स्यात्तदा मे दही और भात लाया हूँ, खाओगे क्या ? यह सुनकर कुमार बोला कि खा लूंगा। तब वह किसान कुमारको हलके पास बैठाकर पत्तलके लिए पत्तों को लेने चला गया। उसके चले जानेपर कुमारने हलके मुठियेको पकड़कर दोनों बैलों को हाँक दिया। उस समय हलके अग्रभाग (फाल ) से भूमिके कुछ विदोर्ण होनेपर सोनेसे भरा हुआ एक ताँबेका घड़ा निकला । उसे देखकर कुमारने विचार किया कि मेरे इस नवीन विज्ञानके अभ्याससे वश हो, यदि वह किसान इसे देख लेता है तो मेरा अनर्थ कर डालेगा। ऐसा सोचता हुआ वह उसे मिट्टीसे उसी प्रकार ढककर चुपचाप बैठ गया। इतने में किसान पत्तोंको लेकर वापस आ गया। तब उसने गड्ढे में रखे हुए पानीके घड़ेको तथा दही-भातको उठाया और फिर उसके पाँवों व पत्तोंको धोकर उन पत्तोंमें उसे परोस दिया। इस प्रकार कुमारने भोजन करके उससे राजगृहके मार्गको पूछा और उसी मार्गसे आगे चल पड़ा। उधर किसानने जब फिर जोतना शुरू किया तब उसे उस घड़ेको देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने विचार किया कि यह द्रव्य तो उस कुमारका है, उसका ग्रहण करना मेरे लिये योग्य नहीं है। बस यही सोचकर वह किसान उस सुवर्णसे भरे हुए घड़ेको देने के लिए कुमारके पीछे लग गया । धन्यकुमारने जब उसको अपने पीछे आते हुए देखा तब वह एक वृक्षके नीचे बैठ गया। किसानने आकर नमस्कार करते हुए उससे कहा कि हे नाथ! आप अपने धनको छोड़कर क्यों चले आये हैं ? यह सुनकर वैश्य (धन्यकुमार ) बोला कि क्या मैं धनके साथ आया था ? नहीं, मैं तो यों ही आया था। तुमने मुझे भोजन दिया। इससे वह द्रव्य मेरा कैसे हो गया ? इसपर किसानने कहा कि मेरे आजा, पिता और मैं स्वयं इस खेतको जोतते आ रहे हैं, किन्तु हमें यहाँ कभी भी द्रव्य नहीं प्राप्त हुआ है। किन्तु आज तुम्हारे आनेपर वह द्रव्य वहाँ निकला है, इसलिए यह तुम्हारा ही है। यह सुनकर कुमारने कहा कि अच्छा उसे मेरा ही धन समझो 'परन्तु मैं उसे तुम्हारे लिये देता हूँ, तुम उसका प्रयत्नपूर्वक उपभोग करो। इसपर किसानने 'यह आपकी कृपा है' कहकर उसे स्वीकर कर लिया। तत्पश्चात् किसान बोला कि हे स्वामिन् ! मैं अमुक गाँवमें रहनेवाला अमुक नामका किसान हूँ, जब
१. ब क्षेत्रमार्षीमः।
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्याaasaratशम्
३२०
ज्ञापनीय इति विज्ञाप्य व्याघुटितः ।
कुमारोऽग्रे गच्छन्नेकस्मिन् प्रदेशेऽवधिबोधयतिमपश्यत् तं ननाम, धर्मश्रुतेरनन्तरं पृच्छति स्म 'मे भ्रातरो मे किमिति द्विषन्ति, माता स्निह्यति, केन पुण्यफलेनाहमेवंविधो जातः' इति । स श्राह परमेश्वरः - अत्रैव मगधदेशे भोगवती ग्रामे ग्रामपतिः कामवृष्टि, भार्या मृदाना, तत्कर्मकर एकः सुकृतपुण्यः । मृष्टदानाया गर्भसंभूतौ कामवृष्टिमृतो यथा यथा
वर्धते तथा तथा ये केचन प्रयोजका गोत्रजनास्ते मृताः । प्रसूत्यनन्तरं मातुर्माता ममार । ग्रामाधिपः सुकृतपुण्यो बभूव । मृष्टदाना स्वतनयस्याकृतपुण्य इति नाम विधायातिदुःखेन परगृहे पेषणं कृत्वा तं पालयन्ती तस्थौ । अत्र कुमारः पुनस्तं पप्रच्छ 'केन पापफलेन स तथाविधो जातः' इति । स आहात्रैव भूतिलकनगरेऽतीवेश्वरो जैनो वैश्यो धनपतिः । सोऽतिविशिष्ट जिनगेहं कारयति स्म, तत्र बहूनि मणिकनकमयान्युपकरणानि कारितवान् । तद्रत्नादिप्रतिमानां प्रसिद्धिमाकर्ण्य कश्चिद् व्यसनी पुमान् मायया ब्रह्मचारी भूत्वातिकायक्लेशादिना देशमध्ये महाक्षोभं कुर्वन् क्रमेण भूतिलकं प्राप्तो धनपतिना महासंभ्रमेण स्वजिनगृहमानीतस्तं महाग्रहेण जिनालयस्योपकरणरक्षकं कृत्वा श्रेष्ठी द्वीपान्तरं गतः । इतस्तदुपकरणं तेन सर्व भक्षितम् । व्यसनेन जिनप्रतिमाविलोपनोपार्जितपापेन कुष्टमेरे द्वारा आपका कुछ प्रयोजन सिद्ध होता हो तब मुझे आज्ञा दीजिए। इस प्रकारसे प्रार्थना करके वह किसान वापस चला गया ।
[ ६-१५, ५६ :
तचात् कुमारने आगे जाते हुए एक स्थानमें किसी अवधिज्ञानी मुनिको देखकर उन्हें नमस्कार किया । फिर उसने धर्मश्रवण करने के बाद उनसे पूछा कि मेरे भाई मुझसे किस कारण से द्वेष रखते हैं और माता क्यों स्नेह करती है ? इसके अतिरिक्त मैं जो इस प्रकारकी विभूतिको पा रहा हूँ, वह किस पुण्यके फलसे पा रहा हूँ ? इसपर मुनि बोले- यहाँपर ही मगध देशके भीतर एक भोगवती नामका गाँव है । उसमें एक कामवृष्टि नामका ग्रामपति ( गाँवका स्वामी - जमींदार) रहता था । उसकी पत्नीका नाम मृष्टदाना था । कामवृष्टि के एक सुकृतपुण्य नामक सेवक था । मृष्टदाना के गर्भ रहनेपर कामवृष्टिकी मृत्यु हो गई । जैसे जैसे उसका गर्भ बढ़ता गया वैसे वैसे उसके जो सहायक कुटुम्बी जन थे वे भी मरते गये। प्रसूतिके पश्चात् माताकी - माता (नानी) भी मर गई । तब गाँवका स्वामी सुकृतपुण्य हो गया था। उस समय मृष्टदाना अपने नवजात बालकका नाम अकृतपुण्य रखकर दूसरोंके घर पीसने आदिका कार्य करती हुई उसका पालन करने लगी । इस अवसर पर धन्यकुमारने पुनः उनसे पूछा कि वह अकृतपुण्य बालक किस पाप कर्मके फलसे वैसा हुआ था ? इसके उत्तर में वे मुनिराज इस प्रकार बोले- यहीं पर भूतिलक नामके नगरमें जैन धर्मका परिपालक अतिशय संपत्तिशाली एक धनपति नामका वैश्य रहता था । उसने एक अतिशय विशेषता से परिपूर्ण एक जिनभवन बनवाकर उसमें बहुत-से मणिमय एवं सुवर्णमय छत्रचामर आदि उपकरणों को करवाया । उसमें जो रत्नमय सुन्दर प्रतिमाएँ विराजमान की गई थीं उनकी ख्यातिको सुनकर कोई दुर्व्यसनी मनुष्य कपटसे ब्रह्मचारी बन गया । उसके अतिशय कायक्लेश आदिको देखकर देश के भीतर जनताको बहुत क्षोभ ( आश्चर्य ) हुआ। वह क्रमसे परिभ्रमण करता हुआ भूतिलक नगर में आया । तब धनपति सेठ आदर पूर्वक उसे अपने जिनालय में ले गया । तत्पश्चात् उक्त सेठ आग्रहके साथ उसे जिनालयके उपकरणों का रक्षक बनाकर दूसरे द्वीपको चला गया। इस बीच में उसने जिनालयके सब उपकरणों को खा डाला । तत्पश्चात् दुर्व्यसन और
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६–१५, ५६ ]
६. दानफलम् १५
३२१
गलितसर्वशरीरो मुमूर्षुर्यावदास्ते' तावत् श्रेष्ठी समागतः तं विलोक्यायं किमित्यागतो न मृत इति तस्योपरि रौद्रध्यानेन युतो मृत्वा सप्तमावनिं जगाम । ततः स्वयंभूरमणोदधौ महामत्स्यो जज्ञे । ततः पुनः सप्तमपृथ्वीं गतः, इति षट्षष्टिसागरोपमकालं नरकदुःखमनुभूय ततस्त्रस-स्थावरादिषु भ्रमित्वाकृतपुण्योऽभूत् ।
सोsकृतपुण्य एकदा सुकृतपुण्यस्य चणकक्षेत्रं जगामोवाच- हे सुकृतपुण्याहं ते चणकानुत्पाटयिष्यामि, मह्यं किं दास्यसि । तदा तं विलोक्य सुकृतपुण्य एतत्पितुः प्रसादेनाहमेवंविधो जातोऽस्य मे प्रेषणकारणमभूद्विधिवशादिति दुःखो भूत्वा स्वपोतान्निष्कानाकृष्य तस्य दत्तवान् । ते तद्धस्ते पतिता श्रङ्गारा अजनिषत । तदाकृतपुण्यो बभाण- सर्वे -
चणकान् प्रयच्छसि मह्यमङ्गारकान् । तदनु सुकृतपुण्य उवाच - -मदीयानङ्गारान् प्रयच्छ, यावन्नेतुं शक्तोऽसि तावन्तश्चणकान् नय, इत्युक्ते स स्ववस्त्रे पोटलं बन्धयित्वा चणकान् नीतवान् । ते च सच्छिद्रवस्त्रेऽर्धा उद्वरितास्तानवलोक्य मात्रोदितम् - कस्मादिमानानीतवान् । तेन स्वरूपे निरूपिते सा 'मद्भृत्यस्य भृत्यत्वं ते जातम्' इति दुःखिता जज्ञे । ततस्तानेव पाथेयं कृत्वा मातापुत्रौ तस्मान्निर्गत्यावन्तीत्रिषये सीसवाकग्रामे बलभद्रग्रामपतिगृहं प्राप्य
जिनप्रतिमाओं की चोरीसे उपार्जित पापके प्रभावसे उसका समस्त शरीर कोढ़से गलने लगा । इससे वह मरणासन्न हो गया । इसी अवसरपर वह धनपति सेठ भी द्वीपान्तरसे वापस आ गया। उसे देखकर वह मरणोन्मुख कपटी ब्रह्मचारी उसके सम्बन्धमें विचार करने लगा कि यह क्यों यहाँ आ गया, वहीं पर क्यों न मर गया । इस प्रकार रौद्र ध्यानके साथ मरकर वह सातवें नरक में गया । वहाँसे निकलकर वह स्वयम्भुमरण समुद्र के भीतर महामत्स्य उत्पन्न हुआ । तत्पश्चात् वह फिर से भी उसी सातवें नरकमें जा पहुँचा । इस प्रकार वह छ्यासठ सागरोपम काल तक नरकके दुखको भोगकर तत्पश्चात् त्रस व स्थावर आदि पर्यायोंमें परिभ्रमण करता हुआ अन्तमें अकृतपुण्य हुआ । एक समय वह अकृतपुण्य सुकृतपुण्यके चनोंके खेतपर जाकर उससे बोला कि हे सुकृतपुण्य ! मैं तुम्हारी चनोंकी फसलको काट देता हूँ, तुम मुझे क्या दोगे ? उस समय उसको देखकर सुकृतपुण्यने विचार किया कि जिसके पिता के प्रसादसे मैं इस प्रकारका गाँवका प्रमुख हुआ हूँ वही भाग्यवश इस समय मेरी आज्ञाका कारण बन गया है- मुझसे अपेक्षा कर रहा है। इस प्रकार से दुखी होकर सुकृतपुण्य अपनी थैली से दीनारों को निकाल कर उसके लिये दिया । परन्तु वे उसके हाथमें पहुँचते ही अंगार बन गईं । तब अकृतपुण्य उससे बोला कि तुम सबके लिये तो चने देते हो और मेरे लिये अंगारे | इसपर सुकृतपुण्य बोला कि मेरे अंगारोंको मुझे वापस दे दो और जितने तुमसे ले जाते बने उतने चने तुम ले जाओ । सुकृतपुण्यके इस प्रकार कहने पर वह अपने वस्त्रमें पोटली बाँधकर चनोंको घरपर ले गया । परन्तु वे छेदयुक्त वस्त्रसे गिरकर आधे ही शेष रह गये थे । उनको देखकर माताने अकृतपुण्यसे पूछा कि तू इन चनोंको कहाँ से लाया है ? इसपर अकृतपुण्यने उसे बतला दिया कि मैं इन चनोंको सुकृतपुण्यके पाससे लाया हूँ । यह सुनकर उसकी माता ने कहा कि जो सुकृतपुण्य किसी समय मेरा सेवक था उसीकी दासता आज तेरे लिये करनी पड़ी | ऐसा विचार करते हुए उस समय उसे बहुत दुःख हुआ । तत्पश्चात् वह उन्हीं चनों को पाथेय ( मार्गमें खानेके योग्य नाश्ता ) बनाकर पुत्रके साथ उस नगरसे निकल पड़ी और
१. फ शरीरमुमूर्षुर्याव । २. ब रचणकादिकान् । ३. ब वस्त्रे वर्द्धा ओरिता ।
Jain Education Internatio
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : उपविष्टौ । स तां विलोक्य मातः, कस्मादागतासीति पप्रच्छ । सा कथमपि न निरूपितवती, तदा महाग्रहेण पृष्टवान् । तदा तया स्वरूपं कथितम् । स बभाण-त्वं मदगृहे पचनं कुरु, पुत्रोऽयं ते मद्वत्सकान् पालयतु । युवाभ्यां ग्रासावासादिकमहं दास्यामि । तयाभ्युपगतम् । स्वगृहनिकटे तृणकुटीं कृत्वा दत्ता। तावुभौ तत्प्रेषणं कृत्वा तेन दत्तग्रासादिकं सेवित्वा तस्थतुः। तदा बलभद्रस्य सप्त पुत्रास्तान् पायसं भुजानान् प्रतिदिनमालोक्याकृतपुण्यः पायसं स्वमातरं याचते । तदा तं तत्पुत्रास्ताडयन्ति । स तन्मारणाभावं करोति । तस्य पायसवाञ्छया मुखादिकं शोफयुतं जज्ञे । तं शोफयुतं दृष्ट्वा स पामराधिपः पप्रच्छ-हे ऽकृतपुण्य, किमिति शोफोऽभूत् । सोऽवोचत्- पायसाप्राप्तः । तदा स कियद्दुग्धं तण्डुलघृतादिक मदत्तोक्तवांश्चाम्ब, पायसं पक्त्वाद्य स्वगृहेऽकृतपुण्यस्य भोक्तं प्रयच्छ । एवं करोमीति दुग्धादिकं गृहीत्वा स्वगृहं गत्वोक्तवती-पुत्राद्य पायसं भोक्तं तुभ्यं दास्यामः, अरण्याच्छीघ्रमागच्छ । एवं करोमीति भणित्वा वत्सान् गृहीत्वाटवीं ययौ। इतस्तया पायसादिकं पक्वम् । मध्याह्ने स गृहमागतः। तं गृहपालकं धृत्वा जलार्थ गच्छन्ती पुत्रस्य वभाण- यः कोऽपि
अवन्ती देशके अन्तर्गत सीसवाक गाँवमें जा पहुँची । उस गाँवके स्वामीका नाम बलभद्र था । वहाँ जाकर वे दोनों उसके घर पहुँचे व वहींपर बैठ गये। उसको देखकर बलभद्रने पूछा कि हे माता ! तुम कहाँसे आ रही हो ? परन्तु जब वह किसी प्रकारसे भी उत्तर न दे सकी तब उसने उससे बहुत आग्रहके साथ पूछा । इसपर उसने अपनी सच्ची परिस्थिति उसे बतला दी। उसे सुनकर वह बोला कि तुम मेरे घरपर भोजन बनानेका काम करो और यह तुम्हारा पुत्र मेरे बछड़ोंका पालन करे । ऐसा करनेपर मैं तुम दोनोंके लिये भोजन और रहने के लिये स्थान आदि दूंगा। इसे उसने स्वीकार कर लिया। तब बलभद्रने अपने घरके पास एक घासकी झोंपड़ी बनवाकर उसको रहनेके लिए दे दी। इस प्रकार वे दोनों उसकी सेवा करके उसके द्वारा दिये गये भोजन आदिका उपभोग करते हुए वहाँ रहने लगे। उस समय बलभद्रके सात पुत्र थे । उनको प्रतिदिन खीर खाते हुए देखकर अकृतपुण्य अपनी मातासे खीर माँगा करता था। तब बलभद्रके पुत्र उसे मारा करते थे। जब बलभद्र उन्हें मारते देखता तब वह उन्हें उसके मारनेसे रोकता था। खीर खानेकी इच्छा पूर्ण न होने [व उनके द्वारा मार खानेसे ] उसका मुख आदि सूज गया था । उसकी ऐसी अवस्था देखकर बलभद्रने पूछा कि हे अकृतपुण्य ! तेरा मुख आदि क्यों सूज रहा है ? इसपर उसने उत्तर दिया कि खीरके न मिलनेसे मैं खिन्न रहा करता हूँ। तब उसने कुछ दूध, चावल और घी आदिको देकर मृष्टदानासे कहा कि हे माता ! तुम आज घरपर खीर बनाकर अकृतपुण्यको खानेके लिये दो। तब 'ठीक है, मैं ऐसा ही करूंगी' कहकर वह उन चावल आदिको लेकर घर चली गई। वहाँ उसने अकृतपुण्यसे कहा कि हे पुत्र ! आज मैं तेरे लिये खीर खानेको दूंगी, तू जंगलसे जल्दी वापस आ जाना। तब वह 'अच्छा, मैं आज जल्दी आ जाऊँगा' यह कहता हुआ बछड़ों को लेकर जंगलमें चला गया। इधर मृष्टदानाने खीर आदिको बनाकर तैयार कर लिया। दोपहरको अकृतपुण्य घर वापस आ गया। तब मृष्टदाना उसे घरकी देख-भाल रखनेके लिये कहकर पानी लेने के लिये चली गई। जाते-जाते वह अकृतपुण्यसे यह
___१. श ग्रास । २. फ सावोचत् । ३. प फ ब तंदुल । ४. ब दास्याम्यरण्या । ५. ब पकं ।.jainelibr.
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६-१५, ५.६ ] ६. दानफलम् १५
३२३ भिक्षुक आगच्छति तं गन्तुं मा प्रयच्छ, तस्य प्रासं दत्त्वा भोदयावः, इति निरूप्य सा गता।
तावन्मासोपवासस्य पारणाह्ने सुव्रतमुनिस्तद्ग्रामपतिगृहं चर्यार्थमागतस्तं विलोक्याकृतपुण्योऽयं महाभिनुको वस्त्राद्यभावात, तस्मादस्य गन्तुं न ददामि, तस्य संमुखं गत्वोरुवान्-हे पितामह, मदीयमात्रा पायसं पक्वम् , तुभ्यमपि भोक्तं दीयते, तिष्ठ यावन्मन्मातागच्छति । मुनिः स्थातुं मे मार्गो न भवतीति भणित्वा गच्छंस्तेन पादयोधृतः, पितामहात्यपूर्व पायसं भुक्त्वा गच्छ, तब किं नष्टमिति भणन् धृत्वा स्थितः। तावन्मृष्टदाना समागत्य घटमुत्तार्योत्तरीयं स्कन्धे निक्षिप्य हे परमेश्वर, तिष्ठति यथावत्स्थापितवती। बलभद्रगृहादुष्णोदकं भाजनं चानीयातिविशुद्धचेतसा दानमदत्त । अकृतपुण्योऽपि तद्भोजने जहर्ष, 'श्रयं देवोऽद्य मे गृहेऽभुङ्क्तति धन्योऽहम्' भणन्नवलोकयन् तस्थौ । मुनिरक्षीणमहानसद्धिप्राप्त इति सारसवती चक्रधरस्कन्धावारेऽपि भुक्तेतद्दिने न क्षोयते । पुत्रं भोजयित्वा तया सकुटुम्बो बलभद्रो भोजितो विश्वतद्ग्रामजनाय भाजनानि पूरयित्वा रसवतीं ददौ मृष्टदाना।
स वत्सपालो द्वितोयदिने उद्धृतं पायसं भुक्त्वाटवीं ययौ। तत्रैकस्मिन् वृततले
भी कहती गई कि इस बीचमें जो कोई भिक्षुक ( साधु ) आवे उसे जाने न देना, उसके लिये भोजन कराकर तत्पश्चात् हम दोनों खावेगे ।
___ इतनेमें ही मासोपवासके समाप्त होनेपर पारणाके दिन सुव्रत नामके मुनि उस बलभद्रके घरपर चर्याके लिये आये। उन्हें देखकर अकृतपुण्यने विचार किया कि यह तो भिक्षुक ही नहीं, महाभिक्षुक ( अतिशय दरिद्र) है, क्योंकि, इसके पास तो वस्त्र आदि भी नहीं है । इसलिये मैं इसे नहीं जाने देता हूँ। इस विचारके साथ वह उनके सामने गया और बोला कि बाबा, मेरी माँ ने खीर पकायी है, वह तुम्हारे लिए भी खानेको देगी । इसलिये जब तक मेरी माता नहीं आ जाती है तब तक तुम यहींपर ठहरो । परन्तु फिर भी जब मुनि 'मेरे लिए ठहरनेका मार्ग नहीं है' यह कहकर आगे जाने लगे तब उसने उनके दोनों पाँव पकड़ लिये। वह बोला कि बाबा ! अतिशय अपूर्व खीरको खाकर जाओ न, इसमें तुम्हारा क्या नष्ट होता है । यह कहकर वह उन्हें पकड़े ही रहा । इतनेमें मृष्ट दाना भी आ गई । वह घड़ेको उतारकर उत्तरीय वस्त्रको कन्धेके ऊपर डालती हुई बोली- हे परमेश्वर ! ठहरिये, इस प्रकार उसने उनका विधिपूर्वक पड़िगाहन किया और फिर बलभद्रके घरसे उप्ण जल एवं पात्रको लाकर अतिशय निर्मल परिणामोंके साथ उन्हें आहारदान दिया। उनके आहारके समय अकृतपुण्यको भी बहुत हीं हुआ । यह देव मेरे घरपर भोजन कर रहा है, इसलिए मैं धन्य हूँ; यह कहकर वह उनके आहारको देखता हुआ स्थित रहा। वे मुनि अक्षीणमहानस ऋद्धिके धारक थे, इसलिए यदि उस रसोईका उपभोग चन्द्रवर्तीका कटक भी करता तो भी वह उस दिन समाप्त नहीं हो सकती थी। मुनिके आहारके पश्चात् मृष्टदानाने अपने पुत्रको भोजन कराया और तत्पश्चात् कुटुम्बके साथ बलभद्रको भी भोजन कराया। फिर भी जब वह रसोई समाप्त नहीं हुई तब उसने पात्रोंकी पूर्ति करके समस्त गाँवकी जनताके लिये भोजन दिया।
दूसरे दिन वह बछड़ोंका रक्षक ( अकृतपुण्य ) बची हुई खीरको खाकर जंगलमें गया ।
१. श मा मयछ। २. पब श भोक्षाव । ३. प किं तिष्टमिति श कि न तिष्टमिति । ४. ब भोजनानि ।
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : सुष्वाप । वत्साः स्वयं गृहमागताः। तानवलोक्य पुत्रो नागत इति मृष्टदाना रोदिति स्म। तदुपरोधेन बलभद्रो द्वि-त्रै त्यस्तं गवेषयितुं निर्जगाम । वत्सपालो गृहमागच्छन् तं विलोक्य भयेन गिरिं चटितः, इतरो व्याधुटितः। स वत्सपालस्तत्र गुहाद्वारि स्थितः। तत्रं स एव सुव्रतमुनिर्वन्दितुमागतश्रावकाणां व्रतस्वरूपं तत्फलं च कथयस्तस्थौ । वत्सपालो बहिः शृण्वन् स्थितः। तस्य व्रते महती श्रद्धा बभूव । मुनि नत्वा श्रावकाः ‘णमो अरहंताणं' भणित्वा निर्गताः। सोऽपि णमो अरहंताणं' भणन् तत्पृष्ठे दरंदरं गच्छन् व्याघ्र 'णमो अरहंताणं' वदन् मृतः, सौधर्मे महर्द्धिको देवो जशे, भवप्रत्ययबोधेन स्वस्य दानादि. फलं ज्ञात्वा करणीयं च कृत्वा सुखेन तस्थौ। इतः प्रभाते बलभद्रण तन्माता तगिरि गत्वा तत्कलेवरं दृष्टातिशोकं चकार । स सुरः संबोधयामास । तदनुसा जन्मान्तरेऽयं मत्पुत्रो भवत्विति दीक्षिता, समाधिना तत्र कल्पे देवो जाता। बलभद्रस्तपसा तत्कल्पे सुरो जज्ञे । तत्र दिव्यसुखमनभय बलभद्रचरः सुर आगत्य धनपालोऽभत. मृष्टदानाचरी प्रभावती जाता। पूर्व ये च बलभद्र देहजास्ते सांप्रतं देवदत्तादयोऽभूवन् । वत्सपालचरस्त्वं जातोऽसि पूर्व
ति
.
वहाँ जाकर वह एक वृक्षके नीचे सो गया। इस बीचमें बछड़े स्वयं घर आ गये । उनको देखकर साथमें पुत्रके न आनेसे मृष्ट दाना रोने लगी। तब उसके आग्रहसे बलभद्र दो तीन सेवकोंके साथ उसे खोजनेके लिये गया। इधर अकृतपुण्य घरकी ओर ही आ रहा था। वह बलभद्रको आता हुआ देखकर भयके कारण पहाड़के ऊपर चढ़ गया । उधर अकृतपुण्यके न मिलनेसे वह बलभद्र घरपर वापस आ गया । वह अकृतपुण्य पहाड़के ऊपर जाकर एक गुफाके द्वारपर स्थित हो गया। उस गुफाके भीतर वे ही सुव्रत मुनि वन्दनाके लिए आये हुए श्रावकोंको व्रतोंके स्वरूप और उनके फलका निरूपण कर रहे थे। अकृतपुण्य उसको सुनते हुए बाहर ही स्थित रहा । तव उसकी व्रतके विषयमें गाढ़ श्रद्धा हो गई। श्रावक जन धर्मश्रवण करनेके पश्चात् मुनिको नमस्कार करके ‘णमो अरहंताणं' कहते हुए उस गुफासे निकल गये । उधर वह अकृतपुण्य भी 'णमो अरहंताणं' कहता हुआ उनके पीछे दूर दूरसे जा रहा था। इसी बीचमें उसके ऊपर एक व्याघ्रने आक्रमण कर दिया । तब वह 'णमो अरहंताणं' कहता हुआ मरा व सौधर्म स्वर्गमें महद्धिक देव उत्पन्न हुआ। वहाँ वह भवप्रत्यय अवधिज्ञानके द्वारा अपने दान आदिके फलको जानकर कर्तव्य कार्यको करता हुआ सुखपूर्वक स्थित हुआ। इधर सबेरा हो जानेपर उसकी माता (मृष्टदाना) बलभद्र के साथ उस पहाड़के ऊपर गई । वहाँपर उसके निर्जीव शरीरको देखकर उसे बहुत शोक हुआ। उस समय उसे उसी देवने आकर सम्बोधित किया। तत्पश्चात् मृष्टदानाने 'जन्मान्तरमें भी यह मेरा पुत्र हो' इस प्रकारके निदानके साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वह तपके प्रभावसे उसी कल्पमें देवी हुई। बलभद्र भी तपको ग्रहणकर उसके प्रभावसे उसी कल्पमें देव उत्पन्न हुआ। वहाँपर दिव्य सुखको भोगकर बलभद्रका जीव वह देव वहाँ से च्युत होकर धनपाल हुआ है और वह देवी-जो पूर्वभवमें मृष्टदाना थी-वहाँ से आकर प्रभावती हुई है । पूर्वमें जो बलभद्रके पुत्र थे वे इस समय देवदत आदि हुए हैं। और अकृतपुण्यका जीव, जो सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था, वह वहाँसे
१. ब 'तत्र स एव सुव्रत मुनि' इत्यादि 'तस्थौ' पर्यन्तः पाठः स्खलितोऽस्ति । २. फ अरिहंताणं ।
३. प फ अरिहंताणं । ४. ज पूर्वमेव बल प फ श पूर्वजे च बल ।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
: ६–१५, ५६ ]
६. दानफलम् १५
३२५
तन्मारणमति त्वं कृतवान् इति त्वां ते द्विषन्ति इति । निशम्य मुनिं नत्वा ययौ, क्रमेण राजगृहं प्राप्तस्तद्बहिरनेकशुष्क वृक्षसंकीर्णं वनं प्रविष्टः । तद्वनस्वामी वैश्यपुत्रो राजकीयमालाकारिणामधिनायकः कुसुमदत्तः पूर्वं तद्वनं शुष्कमित्युद्विग्नस्तच्छेदनमना अवधिबोधं मुनिं पृच्छति स्म - शुष्कं वनं पुनरुद्भविष्यति नो वा । तेनावादि - कश्चित्पुण्यपुरुष श्रागत्य तत्र प्रवेक्ष्यति, तत्तदैव पुण्यफलाढ्यं भविष्यति । तत्प्रभृति स कुसुमदत्तस्तत्पालयंस्तस्थौ । धन्यकुमारस्तत्प्रविष्टस्तदा शुष्कसरस्यादिकं स्वच्छजलपूर्ण महीरुहादयः पुष्पादियुताश्च जज्ञिरे । स एकस्मिन् सरसि जिनं स्मृत्वा जलं पीत्वैकस्मिन् वृक्षतले उपविवेश । स तदा दृष्ट्वा कुसुमदत्तो मुनीन् मनसि नत्वागत्य तद्वनं प्रविश्य तं विलोक्य नत्वा 'कस्मादागतोऽसि' इति पप्रच्छ । स बभाणाहं वैश्यात्मजो देशान्तरी । इतर उवाचाहमपि वैश्यो जैनो त्वं प्राघूर्णको भव । सोऽभ्युपजगाम । तदा कुसुमदत्तोऽतिसंभ्रमेण स्वगृहं निनायोक्तवांश्च 'मद्भगिनी पुत्रोऽयम्' । तदा तद्वनिता मज्जामातृको भविष्यतीति मज्जन- भोजनादिनाति
3
तस्य चकार । तत्पुत्री पुष्पावती, सात्यासक्ता बभूवैकदा तदग्रे पुष्पाणि सूत्रं च आकर तुम उत्पन्न हुए हो । पूर्वं भवमें चूँकि तुम उनके मारने का विचार रखते थे, इसलिए वे तुमसे इस समय द्वेष करते हैं । इस प्रकार उन अवधिज्ञानी मुनिराजसे अपने पूर्व भवोंके वृत्तान्तको सुनकर धन्यकुमारने उन्हें नमस्कार किया और वहाँ से आगे चल दिया ।
वह क्रमसे आगे चलकर राजगृह नगर में पहुँचा । वहाँ वह नगर के बाहर अनेक सूखे वृक्षोंसे व्याप्त एक वनके भीतर प्रविष्ट हुआ। उस वनका स्वामी एक कुसुमदत्त नामका वैश्यपुत्र था जो राजाके मालियोंका नेता था । पूर्वमें जब यह वन सूख गया था तब उसने खिन्न होकर उसे काट डालने का विचार किया था । उस समय उसने किसी अवधिज्ञानी मुनिसे पूछा था कि यह मेरा सूखा हुआ वन क्या कभी फिरसे हरा-भरा हो सकेगा ? इसके उत्तर में मुनिने बतलाया था कि जब कोई पुण्यशाली पुरुष आकर उसके भीतर प्रवेश करेगा उसी समय वह वन पवित्र फलोंसे परिपूर्ण हो जावेगा । उसी समयसे वह कुसुमदत्त उसका संरक्षण करता हुआ वहाँ स्थित था । इस समय जैसे ही धन्यकुमार आकर उसके भीतर प्रविष्ट हुआ वैसे ही सब सूखे तालाब आदि निर्मल जलसे तथा वृक्ष आदि पुष्पों आदिसे परिपूर्ण हो गये । धन्यकुमारने वहाँ जिन भगवान्का स्मरण करते हुए एक तालाबपर जाकर जल पिया और फिर वह वहीं पर एक वृक्षके नीचे बैठ गया । वह कुसुमदत्त इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर उन मुनिराजको मन-ही-मन नमस्कार करता हुआ आया और उस वनके भीतर प्रविष्ट हुआ । उसने धन्यकुमारको देखकर उसे नमस्कार करते हुए पूछा कि तुम कहाँसे आये हो ? धन्यकुमारने उत्तर दिया कि मैं एक वैश्यपुत्र हूँ और देशान्तर में भ्रमण कर रहा हूँ। यह सुनकर कुमुमदत्त ने कहा कि मैं भी वैश्य हूँ और जैन हूँ, तुम मेरे अतिथि होओ। धन्यकुमारने इस बातको स्वीकार कर लिया । तच कुसुमकान्तने उसे शीघ्रतासे घर ले जाकर कहा कि यह मेरा भगिनीपुत्र ( भागिनेय - भानजा ) है | यह सुनकर कुसुमदत्तकी स्त्रीने यह मेरा जामाता होगा, ऐसा सोचकर उसके स्नान एवं भोजन आदि की समुचित व सन्तोषजनक व्यवस्था की । उसके पुष्पावती नामकी एक
१. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श पूर्वं त्वन्मारणमति त्वं कृतवंतः इति । २. प श पुत्रो । ३ ब प्रतिपाठोऽयम् । श तत्साश्चर्यं ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६ पुण्यानवकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : न्यवत्त'। सोऽतिविशिष्टां मालां सृजति स्म । तदा तत्र श्रेणिको राजा, देवी चेलनी, पुत्री गुणवती । तन्निमित्तं पुष्पावती प्रतिदिनं मालां नयति, तदा तेन सृष्टां मालां निनाय । तदा कुमार्यवोचत्-हे पुष्पावति, द्वि-त्रीणि दिनानि किमिति नागतासि । सावोचत्-मे पितुभगिनीपुत्रः समागतः, तत्संभ्रमेण स्थिता। तां मालामवलोक्य हृष्टा गुणवती बभाषे-केनेयं प्रथिता मालातिविशिष्टा । तया स्वरूपं निरूपितम् । तदा कुमारी 'ते वरोऽत्युत्कृष्टो जातः' इति संतुतोष।
एकदा धन्यकुमारः कस्यचिदिभ्यस्यापण्यं चित्रविचित्रं दृष्ट्वा तत्रोपविष्टस्तदा तस्य महान् लाभोऽजनि । स तत्स्वरूपं विबुध्य मत्पुत्रीं तुभ्यं ददामीति बभाण । अन्यदा शालिभद्रो नाम प्रसिद्धो वैश्यस्तदापणे कुमार उपविष्टस्तदा तस्यापि महान् लाभोऽभूदिति सोऽवोचत् मभगिनीं सुभद्रां तुभ्यं दास्यामीति । अन्यदा राजश्रेष्ठी श्रीकोर्तिः पुरमध्ये घोषणां कारितवान् 'यो वैश्यात्मजः काकिण्या एकस्मिन् दिने सहस्रसुवर्ण प्रयच्छति तस्मै मत्पुत्रीं धनवतीं दास्यामि' इति । सा घोषणा धन्यकुमारेण धृता। अध्यक्षेण समं तत्काकिणी गृहीत्वा तया मालालम्बनतृणानि जग्राह। तानि स मालाकारेभ्योऽदत्त, ततः पुष्पाणि जग्राह, तैरतिविशिष्टा
पुत्री थी, जो धन्यकुमारको देखकर उसके विषयमें अतिशय आसक्त हो गई थी। एक समय उसने धन्यकुमारके आगे कुछ फूलों और धागेको लाकर रक्खा । धन्यकुमारने उनकी एक अतिशय सुन्दर माला बना दी । उस समय राजगृह नगरमें श्रेणिक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम चेलनी था। उनके एक गुणवती नामकी पुत्री थी। उसके लिये पुष्पावती प्रतिदिन माला ले जाया करती थी। उस दिन पुष्पावती धन्यकुमारके द्वारा बनायी हुई मालाको ले गई। उस समय गुणवतीने उससे पूछा कि हे पुष्पावती ! तुम दो तीन दिन क्यों नहीं आयीं ? इसपर पुष्पावतीने कहा कि मेरे पिताका भानजा आया है, उसकी पाहुनगतिमें घरपर ही रही । उस मालाको देखकर हर्षको प्राप्त होती हुई गणवतीने पुनः उससे पूछा कि इस अनुपम मालाको किसने गूंथा है ? तब उसने सब यथार्थ स्थिति उसे बतला दी। इसपर गुणवतीने 'तेरे लिये उत्तम वर प्राप्त हुआ है' यह कहते हुए सन्तोष प्रगट किया।
एक समय धन्यकुमार किसी धनिक सेठकी चित्र-विचित्र (सुसज्जित) दूकानको दखकर वहाँपर बैठ गया । उस समय सेठको बहुत लाभ हुआ । सेठने यह समझ लिया कि इसके मानेसे ही मुझे वह महान् लाभ हुआ है। इसीलिए उसने धन्यकुमारसे कहा कि मैं तुम्हारे लिए अपनी पुत्री देता हूँ। दूसरे दिन वह कुमार शालिभद्र नामक प्रसिद्ध वैश्यकी दूकानपर जा बैठा । उसको भी उस समय उसी प्रकारसे महान् लाभ हुआ। तब उसने भी धन्यकुमारसे कहा कि मैं तुम्हारे लिये अपनी बहिन सुभद्राको दूंगा। एक समय राजसेठ श्रीकीर्तिने नगरके मध्यमें यह घोषणा करायी कि जो वैश्यपुत्र एक कौड़ीके द्वारा एक दिनमें हज़ार दीनारोंको प्राप्त करके मुझे देगा उसके लिये मैं अपनी पुत्री धनवतीको दे दूंगा । उस घोषणाको धन्यकुमारने स्वीकार कर लिया। तब वह अध्यक्षके साथ जाकर उस कौड़ीको ले आया। उससे उसने मालाओंके रखने के साधनभूत तृणोंको खरीदकर उन्हें मालियोंके लिये दे दिया और उनके बदले में उनसे फूलों को ले लिया ।
१. फ ब सूत्रं निधत्त । २. श महल्लाभो ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२७
: ६-१५, ५६ ]
६. दानफलम् १५ मालाः चकार। ता उद्यानक्रीडाथै गच्छता राजकुमाराणामदर्शयत्। तैौल्ये पृष्टे दीनारसहस्त्रं निरूपितवान् । तैरर्थिभिर्दत्तम् । स च श्रेष्ठिनोऽदत्त । स पुत्रीदानमभ्युपजगाम ।
तत्ख्यातिमाकर्ण्य तं च विलोक्य गुणवत्यत्यासक्ता तच्चिन्तया क्षीणविग्रहा जले। अन्यदा कुमारो छूते प्रधानादिपुत्रान् विश्वान् जिगाय । तदा तत्र नृपपुत्रोऽभयकुमारो विज्ञानमदगर्वितः, तमपि चन्द्रकवेध्यं विद्ध्वा जिगाय धन्यकुमारः। ततः सर्वेऽपितं द्विषन्ति, तस्य वधं चिन्तयन्ति । इतो गुणवत्याः कार्यस्य कारणमवधार्य श्रेणिकोऽभयकुमारादिमिरालोचितवान् 'किं तस्मै कन्या दातुमुचितं न वा' इति। अभयकुमारोऽब्रूत-नोचितमशातकुलत्वात् । राजावोचत्- तर्हि कुमारी मरिष्यति । तत्सुत उवाच- यावत्स जीवति तावत् कुमार्या दुःखं तिष्ठति । तं च निरपराधिनं मारयितुं नायाति, किंतूपायेन मारणीयः । स चोपायो तिष्ठते- नगराद् बहिः राक्षसभवनमस्ति, तत् प्रविष्टा पूर्व बहवो मृताः। अतः 'तद्यः प्रवेक्ष्यति तस्य अधराज्यं गुणवती पुत्रीं च दास्यामि'इति पुरे घोषणा क्रियताम् । तां धृत्वा गर्वितः स एव प्रविश्य मरिष्यति । राशातथा कृते सर्वैनिषिद्धोऽपि तद् विवेश । स राक्षसफिर उन फूलोंसे धन्यकुमारने अतिशय श्रेष्ठ मालाएँ बनाकर उन्हें वनक्रीड़ाके लिये जाते हुए राजकुमारोंको दिखलाया । उनको देखकर सजकुमारोंने उनका मूल्य पूछा । धन्यकुमारने उनका, मूल्य एक हज़ार दीनार बतलाया। तदनुसार उतना मूल्य देकर राजकुमारोंने उन मालाओंको खरीद लिया। इस प्रकारसे प्राप्त हुई उन दीनारों को ले जाकर धन्यकुमारने राजसेठ श्रीकीर्तिको दे दिया । तब श्रीकीर्तिने कृत प्रतिज्ञाके अनुसार उसके लिये अपनी पुत्रीको देना स्वीकार कर लिया।
धन्यकुमारकी कीर्तिको सुनकर और उसे देखकर गुणवती उसके विषयमें अतिशय आसक्त होनेके कारण शरीरसे कृश होने लगी । एक बार धन्यकुमारने द्यूतक्रीड़ामें सब ही मन्त्रियों आदिके पुत्रोंको जीत लिया था। तथा वहाँ जो श्रेणिक राजाका पुत्र अभयकुमार अपने विशिष्ट ज्ञानके मदसे उन्मत्त था उसे भी उसने चन्द्रकवेध्यको वेधकर जीत लिया था। इसीलिये वे सब वैरभावके वशीभूत होकर उसके मार डालनेके विचारमें रहते थे। इधर गुणवतीके दुर्बल होनेके कारणको जानकर राजा श्रेणिकने अभयकुमार आदिके साथ विचार किया कि क्या धन्यकुमारके लिए पुत्री गुणवतीको देना योग्य है या नहीं। उस समय अभयकुमारने कहा कि उसके लिए गुणवतोको देना योग्य नहीं है, क्योंकि, उसके कुलके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है । इसपर श्रेणिकने कहा कि वैसी अवस्थामें तो पुत्री मर जावेगी। यह सुनकर अभयकुमारने कहा कि जब तक वह जीता है तब तक कुमारीका दुःख अवस्थित रहेगा, उसके मर जानेपर वह उस दुःखसे मुक्त हो सकती है। परन्तु वह निरपराध है, अतः ऐसी अवस्थामें वह मारनेमें नहीं आता । इसलिए उसे उपायसे मारना उचित होगा। और वह उपाय यह है- नगरके बाहर जो राक्षसभवन है उसमें प्रविष्ट होकर पूर्व समयमें बहुत-से मनुष्य मरणको प्राप्त हो चुके हैं । इसलिए 'जो कोई उस राक्षसभवनमें प्रवेश करेगा उसके लिये मैं आधा राज्य और गुणवती पुत्रीको दूंगा' ऐसी आप नगरमें घोषणा करा दीजिये । उस घोषणाको स्वीकार करके वही अभिमानी उसके भीतर प्रवेश करेगा और मर जावेगा। तदनुसार राजाके द्वारा घोषणा करानेपर सब जनोंके रोकनेपर भी धन्य
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जिगाप धन्यकुमारस्तदा । २. बकुमार्य दुःखेन तिष्ठति । ३. ५ फश निरपराधितं । ४ ब न याति । ५. ब चोपायो तो नगद्वही रा । ६. श प्रबिष्ट्वा । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । शति तस्मादर्धराज्यं ।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-१५, ५६ : स्तदर्शनेनोपशान्ति ययौ, संमुखमागत्य तं नत्वा दिव्यासने उपवेशयांचकारोक्तवान्स्वामिनियन्तं कालं त्वद्भाण्डागारिको भूत्वाऽमुंप्रासादमिदं द्रव्यं च रक्षन् स्थितस्त्वमागतोऽसि, सर्व स्वीकुर्विति । सर्व समर्प्य त्वभृत्योऽहं स्मरणे श्रागच्छामीति विज्ञाप्याशी बभूव । कुमारो रात्रौ तत्रैवास्थात् । गुणवत्यादयः तद्गतिरेवास्माकं गतिरिति प्रतिज्ञया तस्थुः । प्रातस्तस्मानिर्गत्य पुराभिमुखमागच्छन्तं कुमारं विलोक्य राज्ञः पौराणां च कौतुकमासीत् । राजाभयकुमारादिभिरर्धपथमाययौ, स्वराजभवनं प्रवेश्य 'किंकुलो भवान्' इति पप्रच्छ । कुमारोऽब्रूत- उज्जयिन्यां वैश्यात्मजोऽहं तीर्थयात्रिकः । ततो नृपो गुणवत्यादिभिः षोडशकन्याभिस्तस्य विवाहं चकार अर्धराज्यं च ददौ । धन्यकुमारस्तत्प्रासादस्य समन्तात्' पुरं कृत्वा तत्प्रासादे राज्यं कुर्वन् तस्थौ।।
__ इतः उज्जयिन्यां कुमारादर्शने राजादीनां दुःखमभूत् । मातापित्रोः किं प्रष्टव्यम् । तौ सपुत्रौ तन्निधिरक्षकदेवताभिः रात्री निर्धाटितौ। गत्वा पूर्वस्मिन् गृहे स्थितौ । पुरजनानां कौतुकं जातमहो वज्रहृदयोऽयं तथाविधे पुत्रे गते जीवति इति । कतिपयदिनासाभावादन.
कुमार जाकर उस राक्षसभवनके भीतर प्रविष्ट हुआ। परन्तु उसको देखते ही राक्षस शान्त हो गया । तब उसने धन्यकुमारके सामने उपस्थित होकर उसे नमस्कार किया और दिव्य आसनके ऊपर बैठाया । फिर वह धन्यकुमारसे बोला कि हे स्वामिन् ! मैं इतने समय तक आपका भण्डारी होकर इस भवनकी और इस धनकी रक्षा करता हुआ यहाँ स्थित था । अब चूकि आप आ गये हैं, अतएव इस सवको स्वीकार कीजिये । इस प्रकार कहकर उसने उस सब धनको धन्यकुमारके लिये समर्पित कर दिया। अन्तमें वह यह निवेदन करके कि 'मैं आपका सेवक हूँ, आप जब मेरा स्मरण करेंगे तब मैं आकर उपस्थित हो जाऊँगा' यह कहते हुए अदृश्य हो गया । धन्यकुमार रातमें वहींपर रहा। गुणवती आदि उन कन्याओंने उस समय यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जो अवस्था धन्यकुमारकी होगी वही अवस्था हमारी भी होगी। उधर प्रातःकालके हो जानेपर धन्यकुमार उस राक्षस भवनसे निकलकर नगरकी ओर आ रहा था । उसे देखकर राजा और नगर-निवासियोंको बहुत आश्चर्य हुआ। तब राजा श्रेणिक अभयकुमार आदिकोंके साथ उसके स्वागतार्थ आधे मार्ग तक आया। तत्पश्चात् श्रेणिकने उसे अपने राजभवनके भीतर ले जाकर उससे अपने कुलके सम्बन्धमें पूछा । उत्तरमें कुमारने कहा कि मैं उज्जयिनीका रहनेवाला एक वैश्यपुत्र हूँ और तीर्थयात्रा में प्रवृत्त हूँ। तब राजाने गुणवती आदि सोलह कन्याओंके साथ उसका विवाह कर दिया
और साथमें आधा राज्य भी दे दिया । तब धन्यकुमार उस भवनके चारों ओर नगरकी रचना कराकर राज्य करता हुआ वहाँ उस भवनमें स्थित हुआ।
इधर उज्जयिनीमें धन्यकुमारके अदृश्य हो जानेपर- उसके देशान्तर चले जानेपर-राजा आदिकोंको बहुत दुःख हुआ। माता और पिताकी अवस्थाका तो पूछना ही क्या है ? उन निधियोंकी रक्षा करनेवाले देवोंने पुत्रोंके साथ उन दोनोंको रातमें बाहर निकाल दिया । तब वे वहाँसे जाकर अपने पहलेके घरमें रहने लगे। उस समय नगर-निवासियोंको बहुत आश्चर्य हुआ। वे विचार करने लगे कि देखो यह धन्यकुमारका पिता (धनपाल) कितना कठोर हृदय है जो वैसे प्रभावशाली पुत्रके चले जानेपर भी जीवित है। कुछ ही दिनोंके पश्चात् धनपालके लिए भोजन
१. फ तत्प्रासादसमन्तात् । २.प फ ब पृष्टव्यम् । ३. श देवताभि रात्री ।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-१५, ५६ ] ६. दानफलम् १५
३२९ पालो राजगृहपुरस्थस्वभगिनीपुत्रशालिभद्रान्तिके किमप्यपेक्ष्य राजगृहमितो धन्यकुमारप्रासादाग्रे स्थित्वा स शालिभद्रस्य गृहं पृच्छंतस्थौ । अास्थानस्थो धन्यकुमारो राजा तं विलोक्य परिज्ञाय तन्निकटं जगाम, तत्पादयोः पपात । तदा सर्वेऽपि लोकाः किमिदमाश्चर्य मित्यवलोकयन्तस्तस्थुः । तदा धनपालोऽत्र त- भो नराधीशाप्रतिहतप्रतापो भूत्वा चिरं पृथ्वीं पाहि । अहं मन्दभाग्यो वैश्यस्त्वं पृथिवीपतिः इति त्वमेव मे नमस्काराहः इति । धन्यकुमारोऽवोचत्-त्वं मत्पिताहं त्वत्पुत्रो धन्यकुमारो [रः], ततस्त्वमेव नमस्काराहः। तदा परस्परं कण्ठमाश्लिष्य रुदिती, प्रधाननिवारितौ राजभवनं प्रविष्टौ । धन्यकुमारः कथितात्मवृत्तः स्वमात्रादेः स्थिति पृष्टवान् । पिता बभाण- सर्वे जीवन सन्ति, किंतु तन्नास्ति यद्भुज्यते । तदा धन्यकुमारः सर्वेषां यानादिकं प्रस्थापितवान् । तदा प्रभावत्यादयो विभूत्या तत्र ययुः । तदागमनमाकर्ण्य धन्यकुमारोऽतिविभूत्यार्थपथं निर्ययो, मातरं ननाम, भ्रातृनपि । ते लजया अधोमुखा अभूवंस्तदा धन्यकुमारोऽव त-हे भ्रातरो भवत्प्रसादेन मे राज्यं जातमिति यूयं निःशल्या भवन्तु । तदा ते आत्मानं निनिन्दुस्ततो धन्यकुमारः सर्वान् पुरं प्रवेश्य तेभ्यो यथायोग्यं ग्रामादिकं दत्त्वा सुखेन तस्थौ ।
भी दुर्लभ हो गया। तब वह राजगृह नगरमें स्थित अपने भानजे शालिभद्र के पासमें कुछ अपेक्षा करके राजगृह नगरकी ओर गया। वहाँ पहुँचकर वह धन्यकुमारके भवनके सामने स्थित होकर शालिभद्रके घरका पता पूछने लगा। उस समय धन्यकुमार राजा सभाभवनमें बैठा हुआ था। वह पिताको देखकर व पहिचान करके उसके पासमें गया और पाँवोंमें गिर गया। तब सभाभवनमें स्थित सब ही जन इस घटनाको आश्चर्यपूर्वक देखने लगे। उस समय धनपाल बोला कि हे राजन् ! तुम अखण्ड प्रतापके धारी होकर चिर काल तक पृथिवीका पालन करो । मैं एक पुण्य. हीन वैश्य हूँ और तुम राजा हो । इस कारण मेरे लिए नमस्कारके योग्य तुम ही हो । इसपर धन्यकुमार बोला कि तुम मेरे पिता हो और मैं तुम्हारा पुत्र धन्यकुमार हूँ। इसलिए तुम ही मेरे द्वारा नमस्कार करनेके योग्य हो। उस समय वे दोनों एक दूसरेके गले लगकर रो पड़े । तब मन्त्रीगंण उन दोनों को किसी प्रकारसे शान्त करके राजभवनके भीतर ले गये। वहाँ धन्यकुमारने अपना सब वृत्तान्त कहकर पितासे अपनी माता आदिकी कुशलताका समाचार पूछा । उत्तरमें पिताने कहा कि जीते तो वे सब हैं, परन्तु अब वह नहीं रहा है जो खाया जाय- उस जीवनके आधारभूत भोजनका मिलना सबके लिये दुर्लभ हो गया है। यह जानकर धन्यकुमारने सबको ले आनेके लिये सवारी आदिको भेज दिया । तब प्रभावती आदि सब ही कुटुम्बी जन विभूतिके साथ वहाँ जा पहुंचे। उनके आनेके समाचारको जानकर धन्यकुमार महती विभूतिके साथ उन सवको लेने के लिए आधे मार्ग तक गया। वहाँ पहुँचकर उसने पहिले माताको और तत्पश्चात् भाइयों को भी प्रणाम किया। उस समय उन सबने लज्जासे अपना मुख नीचे कर लिया । तब धन्यकुमार बोला कि हे भाइयो ! आप लोगों को कृपासे मुझे राज्यकी प्राप्ति हुई है। इससे आप सब निश्चिन्त होकर रहें । इस स्थितिको देखकर धन्यकुमारके उन भाइयोंको अपने कृत्यके ऊपर बहुत पश्चात्ताप हुआ । तत्पश्चात् धन्यकुमारने सबको नगरके भीतर ले जाकर उनके लिये यथायोग्य
१. बसा। २. ब पृथ्वीपति अहं । ३. प नमस्कारा इति बनमस्काराहं इति । ४. ब जनादिक
श धानादिकं । ५..श भवन्त । Jain Education Internationes
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-१५, ५० :
एकदा सुभद्राया मुखं विरूपकं विलोक्य पप्रच्छ — प्रिये, किं ते मुखस्य वैरूप्यं प्रवर्तते । तयाभाणि - मे भ्राता शालिभद्रो गृहे वैराग्यं भावयन्नास्ते इति मे दुःखं प्रवर्तते । तदा धन्यकुमारोऽवोचत् - हे प्रियेऽहं तं संबोधयामि त्वं दुःखं त्यज । तदा तद्गृहमियाय बभाषे च - शालक, सांप्रतं किमिति मे गृहं नागच्छसि । स उवाचाहं तपोऽभ्यासं कुर्वस्तिष्ठामीति नागच्छामि । धन्यो बभाण - यदि त्वं तपोऽर्थी किमभ्यासेन । वृषभादयस्तदन्तरेणैव तपो जगृहुः । त्वमभ्यासं कुर्वन् तिष्ठाहं तपो गृह्णामीति तस्मान्निर्गत्य स्वगृहमागत्य धनपालाख्यं स्वज्येष्ठपुत्रं स्वपदे निधाय श्रेणिकादिभिः क्षमितव्यं विधाय ' मातापिताभ्रातृशालिभद्रादिभिश्च श्री वर्धमानसमवसरणे दीक्षां बभार, सकलागमधरो भूत्वा बहुकालं तपो विधायावसाने नवमासान् सल्लेखनां कृत्वा प्रायोपगमनविधिना तनुं तत्याज, सर्वार्थसिद्धिं ययौ । धनपालादयो यथायोग्यां गतिं ययुः । इति वत्सपालोऽपि सकृन्मुनिदानानुमोदफलेनैवंविधो जातोऽन्यः किं न स्यादिति ॥ १५ ॥
३३०
[ ५७ ] यासीत्सोमामरस्य द्विजकुलविदिता नारी पतिरता दत्त्वान्नं भर्तु भीतापि सुगुणमुनये भक्त्या जिनपतेः ।
गाँव आदि दिये । इस प्रकार वह सुखसे कालयापन करने लगा ।
एक समय धन्यकुमारने सुभद्रा के मुखको मलिन देखकर उससे पूछा कि प्रिये ! तेरा मुख मलिन क्यों हो रहा है ? इसपर उसने कहा कि मेरा भाई शालिभद्र घर में स्थित रहकर वैराग्यका चिन्तन कर रहा है | इससे मैं दुःखी हूँ । यह सुनकर धन्यकुमारने कहा कि हे प्रिये ! मैं जाकर उसको सम्बोधित करता हूँ, तुम दुःखका परित्याग करो । यह कहकर धन्यकुमार उसके घर जाकर बोला कि हे साले शालिभद्र ! आजकल तुम मेरे घरपर क्यों नहीं आते हो ? उत्तरमें शालिभद्र बोला कि मैं तपका अभ्यास कर रहा हूँ, इसलिए तुम्हारे घर नहीं पहुँच पाता हूँ । इसपर धन्यकुमारने कहा कि यदि तुम तपको ग्रहण करना चाहते हो तो फिर उसके अभ्याससे क्या प्रयोजन है ? देखो ! वृषभादि तीर्थंकरोंने अभ्यासके बिना ही उस तपको स्वीकार किया था । तुम उसका अभ्यास करते हुए यहींपर स्थित रहो और मैं जाकर उस तपको ग्रहण कर लेता हूँ। ऐसा कहता हुआ धन्यकुमार उसके घरसे निकलकर अपने घर आया । वहाँ उसने धनपाल नामके अपने ज्येष्ठ पुत्रको राज्य देकर श्रेणिक आदि जनों से क्षमा माँगी और फिर माता, पिता, भाइयों एवं शालिभद्र आदिके साथ श्री वर्धमान जिनेन्द्रके समवसरणमें जाकर दीक्षा धारण कर ली । उसने समस्त आगम में पारंगत होकर बहुत समय तक तपश्चरण किया । अन्तमें उसने नौ महीने तक सल्लेखना करके प्रायोपगमन संन्यासकी विधि से शरीर को छोड़ दिया। इस प्रकार मरणको प्राप्त होकर वह सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ । धनपाल आदि भी यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए । इस प्रकार बछड़ों को चरानेवाला वह अकृतपुण्य भी जब एक बार मुनिदानकी अनुमोदना करनेसे ऐसी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब क्या दूसरा विवेकी प्राणी वैसी विभूतिको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥ १५ ॥ ब्राह्मण कुल में प्रसिद्ध व पतिमें अनुरक्त जिस सोमदेवकी स्त्रीने पतिसे भयभीत होकर भी जिनेन्द्रकी भक्तिके वश उत्तम गुणोंके धारक मुनिके लिए आहार दिया था वह उसके प्रभावसे
१. श मातापित्रा भ्रातु ।
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-१६, ५७ ]
६. दानफलम् १६
नेमेक्षी' बभूव प्रबलगुणगणा रोगादिरहिता
तस्माद्दानं हि देयं विमलगुणगणैर्भव्यैः सुमुनये ||१६||
३३१
अस्य कथा- - अत्रैवार्यखण्डे सुराष्ट्रविषये गिरिनगरे राजा भूपालस्तत्र विप्रः सोमशर्मा भार्या अग्निला, पुत्रौ सप्तवर्षपञ्चवर्षवयोयुतौ शुभंकर-प्रभंकरनामानौ । ते सोमशर्मादयः सुखेन तस्थुः । एकदा सोमशर्मणो गृहे श्राद्धदिनमागतम् । तद्दिने तेन बहवो विप्राः आमन्त्रिताः । ते च पिण्डदानं कर्तुं जलाश्रयं ययुः । इतो मध्याह्ने ऊर्जयन्तगिरिनिवासी वरदत्तनामा महामुनिर्मासोपवासपारणायां गिरिनगरं चर्यार्थ प्रविष्टो न केनापि दृष्टोऽग्निलया दृष्टो जैनीजनसंसर्गात्तन्मार्ग प्रविबुध्य सा संमुखं गत्वा तत्पादयोः पपात बभाषे च - स्वामिन्नहं ब्राह्मणी, तथापि मन्मातापितृवर्गो जैन' इति मे व्रतशुद्धिर्विद्यते, ततो भाण्डभाजनशुद्धिरप्यस्ति । तस्मान्मे कृपां कृत्वा मे गृहे तिष्ठ परमेश्वर, इति यथोक्तवृत्या स्थापयामास । वरदत्तमुनिस्तु कृपाबहुलत्वात् तद्भक्तिं विलोक्य जहर्ष स्थितवांश्च । ततोऽग्निलानन्देन नवविधपुण्यसप्तगुणान्विता तस्मै श्राहारदानं चकार भर्तृ भयव्यग्रापि । तदवसरे देवगतावायुर्बबन्ध । मुनिनैरन्तर्यानन्तरं गृहान्निर्गच्छन् पिण्डप्रदानादिकं निष्ठाप्य तद्गृहं प्रविशद्भिर्विप्रैर्टः ।
भगवान् नेमि जिनेन्द्रकी यक्षी हुई । वह उत्तम गुणांके समूह से युक्त होकर रोगादिसे रहित थी । इसलिए निर्मल गुणसमूहके धारक भव्य जीवोंको उत्तम मुनिके लिए दान देना चाहिये ||१६||
इसकी कथा इस प्रकार है - इसी आर्यखण्ड में सुराष्ट्र देश के अन्तर्गत गिरिनगर में भूपाल नामका राजा राज्य करता था । उसके यहाँ एक सोमशर्मा नामका पुरोहित था । उसकी स्त्रीका नाम अग्निला था । इनके शुभंकर और प्रभंकर नामके दो पुत्र थे जो क्रमसे सात व पाँच वर्षकी अवस्थावाले थे । वे सब सोमशर्मा आदि सुखसे कालयापन कर रहे थे । एक समय सोमशर्मा के घर श्राद्धका दिन आकर उपस्थित हुआ । उस दिन सोमशर्माने बहुत से ब्राह्मणों को भोजन के लिए निमन्त्रित किया । वे सब पिण्डदान करनेके लिए जलाशय के ऊपर गये । इधर मध्याह्नके समय में ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर रहनेवाले वरदत्त नामके महामुनि एक महीनेके उपवासको समाप्त करके पारणा के दिन आहार के लिए गिरिनगर के भीतर प्रविष्ट हुए । परन्तु उन्हें किसीने नहीं देखा । वे अग्निलाको दिखायी दिये । वह जैनांक संसर्ग में रहनेसे आहारदानकी विधिको जानती थी । इसलिए वह सन्मुख जाकर उनके पाँवों में गिर गई और बोली कि हे स्वामिन् ! मैं यद्यपि ब्राह्मणी हूँ, फिर भी मेरे माता-पिता आदि सब जैन हैं । इसलिए मेरे व्रतशुद्धि है और इसीसे द्रव्यशुद्धि व पात्रशुद्धि भी है । अतएव हे परमेश्वर ! मेरे ऊपर कृपा करके मेरे घर ठहरिये । इस प्रकार उसने शास्त्रोक्त विधिसे उनका पड़िगाहन किया । वरदत्त मुनि दयालु थे, इसलिए वे उसकी भक्तिको देखकर सहर्ष वहाँ ठहर गये । तब सानन्द अग्निलाने पतिकी ओरसे भयभीत होनेपर भी उन्हें सात गुणोंसे युक्त होकर नवधा भक्तिपूर्वक आहारदान किया । इस अवसरपर उसने देवायुको बाँध लिया । मुनिराज आहार लेकर उसके घरसे निकल ही रहे थे कि इतने में पिण्डदानादिको समाप्त कर वे ब्राह्मण जलाशय से आये और सोमशर्मा के घर के भीतर प्रविष्ट हुए। उन सबने जाते
१. श ते मे यक्षी । २. श वयोयुयुतौ । ३. ब पिंड प्रदानं । ४. फ नैकोनापि शकेनापि । ५. व वग्र्गों जैना । ६ ब प्रतिपाठोऽयम् । श तस्मादाहारदानं ।
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ६-१६, ५७ :
तद्दर्शनेन सर्वेऽपि कोपाग्निना प्रज्वलिता ऊचुः सोमशर्मण' [न् ] त्वद्गृहरसवती क्षपणकेनोच्छिष्टा कृतेति विप्राणां भोक्तुमनुचितेति व्याघुटिताः । तदा सोमशर्मा स्वामिनोऽहं श्रीमान् यथेष्टं प्रायश्चित्तं दत्त्वा श्राद्धकार्य क्रियतामिति भणित्वा तत्पादेषु पपात । तमतिभक्तं श्रीमन्तं च दृष्ट्वा केचिद् द्विजा ऊचुः - विप्रवचनेन तावत्सर्वशुद्धमित्यस्य प्रायश्चित्तं दत्त्वा भोक्तुमुचितम् | नो चेत् श्लोकम् -
अजाश्वा मुखतो मेध्या गावो मेध्यास्तु पृष्ठतः । ब्राह्मणाः पादतो मेध्या स्त्रियो मेध्यास्तु सर्वतः ॥
इति स्मृतिवचनादस्य प्रायश्चित्तं दत्त्वाजाश्वमुखस्पर्शेण रसवतीं विशोध्य भोक्तव्यमिति । कैश्चिदवाद्यन्यस्य दोषस्य प्रायश्वित्तमस्त्यस्य दोषस्य यद्यस्ति तर्हि निरूप्यतामिति परस्परं विवादं कृत्वा पादेषु पतितं तं निर्लोठ्य स्व-स्वगृहं जग्मुस्ते । सोमशर्मा गृहं प्रविश्याग्निलां मस्तक केशेषु धृत्वा मे विप्रोत्तमस्यैतस्या जैनात्मजायाः पापिष्ठायाः परिणयनेन एतद्रहु न भवतीति णित्वा दण्डैर्दण्डैर्घोरं जघान, मूच्र्छाप्राप्तां तत्याज, अतिदुःखी बभूव तस्थौ । सा चेतनामवाप्य लघुपुत्रस्य हस्तं धृत्वा बृहत्पुत्रं पृष्ठतो निधाय तन्मुनेरूर्जयन्ते स्थिति जनात्
हुए उन मुनिराजको देख लिया । तब उनके देखनेसे कुपित होकर सब ही ब्राह्मण बोले कि हे सोमशर्मा ! तुम्हारे घर की रसोईको नङ्गे साधुने जूठा कर दिया है, इसलिए वह ब्राह्मणों के खाने योग्य नहीं रही । इस प्रकार कहकर वे सब वापस जाने लगे । तब वह सोमशर्मा बोला कि हे स्वामिनो ! मैं धनवान् हूँ, इसलिए आप लोग मुझे इच्छानुसार प्रायश्चित्त देकर श्राद्ध कार्यको पूरा कीजिये । इस प्रकार कहता हुआ वह उनके पाँचोंमें गिर गया । तब उसको अतिशय भक्त एवं धनवान् देखकर कुछ ब्राह्मण बोले कि ब्राह्मणके कहनेसे सच शुद्ध होता है । इसलिए उसे प्रायश्चित्त देकर भोजन कर लेना उचित है । यदि इसपर विश्वास न हो तो इस श्लोकको देख लीजिये
बकरे और घोड़े मुखसे पवित्र हैं, गायें पिछले भाग ( पूँछ ) से पवित्र हैं, ब्राह्मण पाँवसे पवित्र हैं, और स्त्रियाँ सब शरीर से पवित्र हैं ॥ १७॥
इस स्मृति वचनके अनुसार इसको प्रायश्चित्त देकर बकरे और घोड़के मुख के स्पर्श से रसोईको शुद्ध कराकर भोजन कर लेना चाहिये । यह सुनकर कुछ ब्राह्मण बोले कि अन्य दोषों का प्रायश्चित्त है, परन्तु यदि इस दोषका प्रायश्चित्त है तो उसे दिखलाया जाय । इस प्रकार से वे आपसमें विवाद करते हुए पाँवों में पड़े हुए उस सोमशर्मासे रूठकर अपने-अपने घर चले गये । तब सोमशर्मा घरके भीतर जाकर अग्मिलाके शिरके बालोंको खींचता हुआ बोला कि मुझ जैसे श्रेष्ठ ब्राह्मणके लिए इस अतिशय पापिनी जैन लड़कीके साथ विवाह करनेसे यह कुछ बहुत नहीं हैइससे भी यह अधिक अनिष्ट कर सकती है, ऐसा कहते हुए उसने उसे दण्डोंसे मारना प्रारम्भ किया। इस प्रकारसे मारते हुए उसने उसे तब ही छोड़ा जब कि वह उसकी भयानक मार मूर्छित हो गई। उपर्युक्त घटनासे वह बहुत दुःखी रहा। उधर जब अग्निलाकी मूर्छा दूर हुई तब उसने लोगोंसे यह पूछा कि वे मुनि कहाँपर स्थित हैं । इस प्रकारसे जब उसे यह ज्ञात हुआ कि
-
१. जपफश सोमशर्मण व सोमश । २. ब तमपि भवतं । ३. ब परिणयने । ४. फ ब एतद्बहुन । ५. ब दुःखी भूत्वा तस्थो ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-१६, ५७ ]
६. दानफलम् १६ परिक्षाय तं गिरिं गच्छन्ती मार्गे भिल्ली विलोक्याग्निला 'हेऽम्ब ऊर्जयन्तगिरेर्मार्गः कः' इति पप्रच्छ । भिल्ली बभाण-मातस्तत्र ते किं प्रयोजनम् । तयोक्तम्-किमनेन विचारणेन, तन्मार्ग कथय । पुलिन्दी बभाण-त्वमेकाकिनी बालाभ्यामनेकव्याघ्रादिप्रचरितं गिरिं कथं प्रवेक्ष्यसि। सा बभाण-मदीयो गुरुस्तत्र तिष्ठति, तत्प्रभावेन सर्वे मे सुस्थम्, तन्मार्ग कथय । तया तन्मार्गः कथितः । तेन गत्वा तं गिरिमवाप। तत्र कमपि पुलिन्दं मुनिस्थितस्थान पप्रच्छ । स सबालां तां विलोक्य कपावशेन तँगिरिकटिस्थगुहास्थं तं मुनि दर्शयति स्म । सा तं नत्वा समीपे उपविश्योवाच- स्वामिन् , स्त्रीजन्मातिकष्टमतोऽस्य विनाशकं मे तपो देहि । मुनिर्बभाण-मातस्त्वं रोषेणागतासीत्यव्यक्तापत्यमातेति तपो न प्रकल्पते', अत्र स्थातुमपि लोकापवादभयादतो गत्वा एकस्मिन् तरुतले यावद्भवदीयः कोऽपि समागच्छति तावत्तिष्ठ । सा 'प्रसादः' इति भणित्वा तस्मान्निर्गत्योच्चैःप्रदेशस्थतरुतले उपविष्टा । तत्र पुत्रौ जलं ययाचते । तदा शुरुको तटाको ऽग्निलापुण्यप्रभावेनात्यन्तमृप्रनिर्मलोदकपूर्णो बभूव । ततो"
वे मुनि ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर विराजमान हैं तब वह छोटे लड़केका हाथ पकड़ करके और बड़े लड़केको पीछे करके उस ऊर्जयन्त पर्वतकी ओर चल पड़ी। मार्गमें जाते हुए उसे एक भील स्त्री दिखी । उससे उसने पूछा कि हे माता ! ऊर्जयन्त पर्वतका रास्ता कौन-सा है ? इसपर उस भील स्त्रीने अग्मिलासे पूछा कि हे माता ! तुम्हें उस पर्वतसे क्या प्रयोजन है ? इसके उत्तरमें अग्निलाने कहा कि इस सबका विचार करनेसे तुम्हें क्या लाभ है, तुम तो केवल मुझे उस पर्वतका मार्ग बतला दो । इसपर उस भील स्त्रीने कहा कि तुम अकेली हो और तुम्हारे साथ ये दो बालक हैं, उधर वह पर्वत व्याघ्रादि हिंसक जीवोंसे परिपूर्ण है। उसके भीतर तुम कैसे प्रवेश कर सकोगी ? यह सुनकर अग्निला बोली कि मेरे गुरुदेव वहाँपर विराजमान हैं, उनके प्रभावसे मेरे लिए सब कुछ भला होगा । तुम मुझे वहाँका मार्ग बतला दो । इसपर उसने अग्निलाको वहाँका मार्ग बतला दिया । तब वह उस मार्गसे जाकर ऊर्जयन्त पर्वतपर पहुँच गई । वहाँ जाकर उसने किसी भीलसे उन मुनिके रहनेका स्थान पूछा । भीलने उसके साथ बच्चोंको देखकर दयालुतावश उसे उस पर्वत. के कटिभागमें स्थित एक गुफाके भीतर विराजमान उन मुनिको दिखला दिया । तब वह उनको नमस्कार करके पासमें बैठ गई और बोली कि हे स्वामिन् ! यह स्त्रीकी पर्याय बहुत कष्टमय है, इसलिये मुझे इस पर्यायसे छुटकारा दिला देनेवाले तपको दीजिये। यह सुनकर मुनि बोले कि हे माता ! तुम क्रोधके वश होकर आयी हो व इन अल्पवयस्क अबोध बालकोंकी माता हो, इसलिए तुम्हें दीक्षा देना योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त लोकनिन्दाके भयसे तुम्हारा यहाँ स्थित रहना भी योग्य नहीं है । इसलिए जब तक तुम्हारा कोई सम्बन्धी नहीं आता है तब तकके लिये यहाँसे जाकर किसी एक वृक्षके नीचे ठहर जाओ। इसपर वह उन मुनिका आभार मानती हुई वहाँसे निकलकर किसी ऊँचे प्रदेशमें स्थित एक वृक्ष के नीचे बैठ गई। वहाँपर दोनों पुत्रोंने उससे जल माँगा। उस समय जो तालाब सूखा पड़ा था वह अग्निलाके पुण्यके प्रभावसे अतिशय पवित्र
१. श प्रयोजनं तयोजनं तयोक्तं। २. ब तन्मार्ग। ३. श स्थिति स्थानं। ४. शतगिरिनिकटिनोस्थं । ५. ब सीत्यव्यक्तपतत्यमातेति । ६. ब प्रकल्प्यते । ७. पच्चैप्रदेशस्थाम्रातरु फच्चैप्रदेशस्थं तर जश'च्चप्रदेशस्थाम्रत: । ८. ब याचते । ९.फ टंको। १०. श पूर्णो व ततो।
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[६-१६, ५७: जलं पायितौ। ततः कियद्वेलायामम्ब, बुभुक्षितावित्युक्तवन्तौ। तदा स एव वृक्षः कल्पवृक्षोऽभूत् । ततो यथेष्टं वस्तु भुक्तवन्तौ पुत्रौ। सा तत् कौतुकं वीक्ष्य धर्मफलेऽतिहृष्टा जझे, सुखेन स्थिता तत्र ।
___ इतो गिरिनगरं तदिन एव राजभवनमन्तःपुरगृहाणि सोमशर्मगृहं विहायान्यत्सर्व भस्मीबभूव । सर्वेऽपि जनाः पलाय्य पुराद् वहिस्तस्थुः ऊचुश्चाग्निज्वालामध्यस्थमपि सोमशर्मणो गृहमुद्धृतमहो । तत्र योऽभुक्त' स क्षपणको न भवति । किं तर्हि । कोऽपि देवताविशेषोऽन्यथा किं तद्गृहमुद्वियते । ततस्तद्भुक्तशेषा रसवती पयित्रेति पूर्व ये आमन्त्रिता अन्ये च विप्राः सोमशान्तिकमागत्योचुः- त्वं पुण्यवान् , क्षपणकवेषेण कश्चिद्देवता भुक्तवानित्यतस्त्वद्गृहरसवती पवित्रास्मभ्यं भोक्त प्रयच्छ। ततस्तेन ते विप्रा अन्येऽपि स्वगृहं नीता यथे; भोजिताः। स मनिः परमेश्वरोऽतीणमहानसर्दिप्राप्त इति तस्य क्षीररसदधिनी विहायान्या सर्वापि रसवती परिविष्टेति तद्दिनेऽक्षया बभूव। सर्वेऽपि पौरजनास्तेन भोजिताः। सर्वजनकौतुकमासीत् । सर्वेऽपि मुनिदानरता जज्ञिरे।
निर्मल जलसे परिपूर्ण हो गया । तब उसने उस तालाबसे दोनों बालकोंको जल पिलाया । तत्पश्चात् कुछ समयके बीतनेपर दोनों बालक बोले कि माँ ! हम दोनों भूखे हैं। उस समय वही वृक्ष उनके लिए कल्पवृक्ष बन गया। तब दोनों बालकोंने इच्छानुसार भोज्य वस्तुओंका उपभोग किया । इस आश्चर्यको देखकर अग्निला धर्मके फलके विषयमें अतिशय हर्षको प्राप्त हुई। इस प्रकारसे वह वहाँ सुखसे स्थित थी।
इधर उसी दिन राजभवन, अन्तःपुरगृह ( स्त्रियोंके रहनेके घर ) और सोमशर्माके घरको छोड़कर शेष सारा गिरिनगर अग्निमें जलकर भस्म हो गया। उस समय सब ही जन भागकर नगरके बाहर स्थित होते हुए बोले कि आश्चर्यकी बात है कि अग्निकी ज्वालके बीचमें पड़ करके भी सोमशर्माका घर बच गया है- वह नहीं जला है। उसके घरपर जिसने भोजन किया था वह नग्न साधु नहीं, किन्तु कोई विशिष्ट देव था। यदि ऐसा न होता तो वह सोमशर्माका घर भस्म होनेसे क्यों बचा रहता ? इसलिये उसके भोजन कर लेनेपर शेष रही रसोई पवित्र है । ऐसा विचार करते हुए उनमें-से जिन ब्राह्मणोंको पहले निमन्त्रित किया गया था वे तथा दूसरे भी ब्राह्मण सोमशर्माके घर आकर बोले कि हे सोमशर्मा ! तुम पुण्यशाली पुरुष हो, तुम्हारे यहाँ नग्न साधुके वेषमें किसी देवताने भोजन किया है। इसलिए तुम्हारे घरकी रसोई पवित्र है । तुम उसे हमें खानेके लिए दो। तब सोमशर्माने उन सबको तथा और दूसरे ब्राह्मणोंको भी अपने घर ले जाकर उन्हें इच्छानुसार भोजन कराया। वे मुनि परमेश्वर अक्षीणमहानस ऋद्धि के धारक थे, इसीलिए उस दिन उनके लिए दूध और दहीको छोड़कर शेष जो सब रसोई परोसी गई थी वह सब अक्षय हो गयी थी- चक्रवर्तीके विशाल कटकके द्वारा भी भोजन कर लेनेपर वह नष्ट नहीं हो सकती थी। उस दिन सोमशर्माने सब ही नगरनिवासियों को भोजन कराया। इस घटनासे उस समय सब ही जनोंको आश्चर्य हुआ । इससे सब ही जन मुनिदानमें अनुराग करने लगे।
१. ज यो भुक्त ब भुक्तः। २. फ मुद्धियते व मुद्द्यते । ३. ब-प्रतिपाठोऽयम् । ज क्षीररसदधिना पफ श क्षीररसदधिनी । ४. श विहायात्पा सर्वीपि ।
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
६-१६, ५७ ]
६. दानफलम् १६ द्वितीयदिने सोमशर्मा' हा, मया पापकर्मणा महासती पुण्यमूर्तिनिरपराधा संताडिता क्व गतेति गवेषयांचक्रे, अपश्यन् महाविप्रलापं कृतवान् । तदा केनापि कथितम् 'ते वनिता ऊर्जयन्तं गता' इति । तदनु कतिपयजनैरूजयन्तमांगतस्तदागमनं विलोक्याग्निला पुनरयं मे किंचिद्दःखं दास्यतीति मत्वा पुत्रौ तत्रैव निधाय स्वयं तदर्या पपात । यावत्स तत्र न प्राप्नोति तावत्सा मृत्वा व्यन्तरलोके दिव्यप्रप्रिा]सादोपपादभवन स्थपल्यङ्कस्योपरि स्थितहंसतूलिकयोर्मध्ये ऽन्तमुहर्ते नवयौवनसंपन्ना धातुरहितसुगन्धामलदेहा सहजवस्त्रालङ्कारमाल्यविभूषिताणिमाद्यष्टगुणपुष्टा जैनजनवात्सल्यपरा' सकलद्वोपस्थात्यन्तरम्यनद्यद्रितरुप्रदेशादिषु क्रीडनशीलानेकपरिवारदेवीयुता श्रीमन्नेमिजिनशासनरक्षकाम्बिकाभिधा' यक्षी भूत्वा भवप्रत्ययावधियोधेन देवगत्युत्पत्तिकारणं विबुध्य धर्मानन्दमूर्तिर्जनमनोहररूपाग्निलारूपेण तत्तनयान्तिके तस्थौ । तदा स आगत्य निजवनितां मत्वोक्तवान् - प्रिये,यन्मया पापिष्ठेनापरीक्ष्य कृतं तत्सर्व क्षमस्वागच्छ गृहम् । सा बभाण- तव वनिताहं न भवामि, सा तत्र तिष्ठतीति तत्कलेवरं दर्शयति स्म, स तद् दृष्ट्वाश्रद्दधस्त्वमेव मे वनितेति तद्वस्त्रं दधानमना यावदति
दूसरे दिन सोमशर्माको अपने उस दुष्कृत्यके ऊपर बहुत पश्चात्ताप हुआ। वह विचार करने लगा कि हाय ! मुझ पापीने उस पवित्रमूर्ति महासतीको बिना किसी प्रकारके अपराधके ही मारा है, न जाने वह अब कहाँ चली गई है। इस प्रकारसे पश्चाताप करता हुआ वह उसे खोजने लगा लगा। किन्तु जब वह उसे कहीं नहीं दिखी तब वह अतिशय करुणापूर्ण आक्रन्दन करने लगा। उस समय किसीने उससे कहा कि तुम्हारी स्त्री ऊर्जयन्त पर्वतपर गई है। तब वह कुछ जनोंके साथ ऊर्जयन्त पर्वतपर आया। उसे आता हुआ देखकर अग्निलाने सोचा कि अब यह मुझे फिरसे भी कुछ दुःख देगा । बस, यही सोचकर उसने उन दोनों पुत्रोंको तो वहीं छोड़ा और आप स्वयं उस पर्वतकी दरी ( ? ) में जा गिरी। सोमशर्मा उसके पास पहुँच भी नहीं पाया था कि इस बीचमें वह मर गई और व्यन्तर लोकमें दिव्य प्रासादके भीतर उपपाद-भवन में स्थित शय्याके ऊपर यक्षी उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तके भीतर ही नवीन यौवनसे सम्पन्न हो गई । सात धातुओंसे रहित होकर सुगन्धित व निर्मल शरीरको धारण करनेवाली वह यक्षी स्वाभाविक वस्त्राभरणोंके साथ मालासे विभूषित, अणिमा-महिमादि आठ गुणों ( ऋद्धियों ) से परिपूर्ण, जैन जनोंसे अनुराग करनेवाली; समस्त द्वीपोंमें स्थित अतिशय रमणीय नदी, पर्वत एवं वृक्ष आदि प्रदेशोंमें स्वभावतः क्रीड़ा करने में तत्पर;तथा अनेक परिवार देवियोंसे सहित होकर श्री नेमि जिनेन्द्रकी शासनरक्षक देवी हुई । नाम उसका अम्बिका था। उसने वहाँ जैसे ही भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे अपने देवगतिमें उत्पन्न होनेके कारणको ज्ञात किया वैसे ही वह धर्मके विषयमें अतिशय आनन्दित होती हई जनके मनको आकर्षित करनेवाले वेषको धारण करके अग्निलाके रूपमें आयी और अपने दोनों बच्चोंके पासमें स्थित हो गई । उस समय सोमशर्मा वहाँ आया और अपनी स्त्री समझकर उससे बोला कि हे प्रिये ! मुझ पापीने जो बिना बिचारे तुझे कष्ट पहुँचाया है उसके लिए तू क्षमा कर और अब अपने घरपर चल । इसपर वह बोली कि मैं तुम्हारी स्त्री नहीं हूँ, वह तो वहाँपर स्थित है। यह कहते हुए उसने उसके निर्जीव शरीरको उसे दिखला दिया। परन्तु उसने उसे देखकर भी विश्वास नहीं
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श सोमशर्मणा । २. ज महा । ३. प श गते गवे । ४. ज निधायेयं स्वयं । ५. ज प ब प्रसादो पपातभवन । ६ श हंसभूलकयोर्मध्ये । ७. ज जैनवात्सल्यपरा श जैनवाच्छलपरा । ८. श प्रवेशादिषु । ९ ज श रक्षकांवायिका प रक्षकांवीप का।
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्यानवकथाकोशम्
[६-१६, ५७ : निकटमागच्छति तावत्सा दिव्यदेहा गगनेऽस्थादवदच्च कथमहं त्वद्वनिता। तदा सोऽतिविस्मयं जगाम, पप्रच्छ 'देवि, का त्वम्' इति । तदा तयात्मस्वरूपं निरूप्योक्तमिमौ पुत्रौ गृहीत्वा गृहं गच्छ, सुखेन तिष्ठ । सोऽब्रवीदिदानी मे गृहेण प्रयोजनं' नास्ति । त्वद्गतिरेव मे गतिरित्यहमपि तत्र पतित्वा मरिष्यामि । सावोचदेवं सति वालावपि मरिष्यतस्ततस्त्व. मिमौ गृहीत्वा गृहं याहि । तदा सोऽहमेव जानामोति भणित्वा स्वगृहं जगाम । सगोत्रजानां तौ समय जिनधर्मप्रभावनां कृत्वा वहन् द्विजादिकान् स्ववनितात्रिदशगतिप्राप्तिनिरूपणेनाणुव्रत-महाव्रताभिमुखान् कृत्वा स्वयं गत्वाज्ञानित्वात् तदा पपात ममारास्त्रि कायाः सिंहो वाहनो देवो जज्ञे। तो शुभंकर-प्रभंकरौं महाजैनो भूत्वा बहुकालं चतुर्विधगृहस्थधर्म प्रतिपाल्य श्रीनेमिजिनसमवसरणे दोक्षितौ, विशिष्टतपोविधानेन केवलिनो भूत्वा विहृत्य मोतमुपजग्मतुः । इति पराधीनापि भर्त भोत्या व्य प्रधोरपि ब्राह्मणो सकृन्मुनिदानेन देवी बभूवान्यः स्वतन्त्रः सर्वदा तद्दानशीलः किं न स्यादिति ॥१६।।
किया । वह बोला कि तुम ही मेरी स्त्रो हो। यह कहते हुए वह उसके वस्त्रको पकड़नेके विचारसे जैसे ही उसके बहुत निकटमें आया वैसे ही वह यक्षी दिव्य शरीरके साथ ऊपर आकाशमें जाकर स्थित हो गई और बोली कि मैं कैसे तुम्हारी स्त्री हूँ। इस दृश्यको देखकर सोमशर्माको बहुत आश्चर्य हुआ। तब उसने उससे पूछा कि हे देवी ! तो फिर तुम कौन हो ? इसपर उसने अपना पूर्व वृत्तान्त कह दिया । अन्तमें उसने कहा कि अब तुम इन दोनों पुत्रोंको लेकर घर जाओ और सुखसे स्थित रहो । यह सुनकर वह बोला कि अब मुझे घर जानेसे कुछ प्रयोजन नहीं रहा है। जो अवस्था तेरी हुई है वही अवस्था मेरी भी होनी चाहिये, मैं भी वहाँ गिरकर मरूँगा । इसपर यक्षी बोली कि ऐसा करनेपर ये दोनों बालक भी मर जावेंगे। इसलिए तुम इन दोनों बालकों को लेकर घर जाओ। तब वह 'यह तो मैं भी जानता हूँ' कहकर अपने घर चला गया । वहाँ जाकर उसने उन दोनों बालकोंको अपने कुटुम्बी जनोंके लिए समर्पित करके जैन धर्मकी बहुत प्रभावना की । साथ ही उसने धर्मक प्रभावसे अपनी स्त्रीके यक्षी हो जानेक वृत्तान्तको सुनाकर बहुत-से ब्राह्मणादिकोंको अणुव्रत और महाव्रत ग्रहण करनेके सन्मुख कर दिया। किन्तु वह स्वयं उसी ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर जाकर अज्ञानतावश उसी दरीमें जा गिरा और इस प्रकारसे मरकर उस अम्बिका देवीका वाहन देव सिंह हुआ। तत्पश्चात् वे दोनों शुभंकर और प्रभंकर नामके पुत्र दृढ़ जैनी हुए। उस समय उन दोनोंने बहुत काल तक चार प्रकारके गृहस्थधर्मका परिपालन करके भगवान् नेमि जिनेन्द्र के समवसरणमें दीक्षा ग्रहण कर ली । इस प्रकार विशिष्ट तप करनेसे उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गई। तब वे केवलीके रूपमें विहार करके मोक्षको प्राप्त हुए। इस प्रकार पराधीन और पतिके भयसे विकल भी वह ब्राह्मणी जब एक बार ही मुनिको दान देकर उसके प्रभावसे देवी हुई है तब भला स्वतन्त्र और निरन्तर दान देनेवाला दूसरा भव्य जीव क्या अपूर्व वैभवको नहीं प्राप्त होगा ? अवश्य होगा ॥१६॥
१.श मे गहेण मे प्रयोजनं । २. ब हमे । ३. ब गत्वाजानित्वात् श गत्वाज्ञानत्वम् । ४. प ममारांविकया: सिंहो वाहनो ब ममार अंबिका स्वापिकाया: सिंहगाहनो शममाराविकंयाः मिहोवाहनो।
५. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श शुभंकरविभंकरो।
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्धकार-प्रशस्तिः श्रीमन्तश्चारुगोत्रा जितरिपुगणकाः शक्तितेजोऽधिकाश्च भूत्वा ते मारसौम्या वरयुवतिगणा ज्ञानविज्ञानदताः । पद्यैर्द्विज्ञानसंख्यैर्द दितृफलकथां भावयन्त्यर्थतो ये
भक्त्वा संसारसौख्यं जगति सुविदितं मुक्तिलाभं लभन्ते ॥१६॥ इति पुण्यात्रवाभिधाने ग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनिशिष्यरामचन्द्रमुमुक्षविरचिते
दानफलव्यावर्णनाः पोडशवृत्ताः समाप्ताः ॥६॥ यो भव्याजदिवाकरो यमकरो मारेभपञ्चाननो नानादुःखविधायिकर्मकुभृतो वज्रायते दिव्यधीः । यो योगीन्द्रनरेन्द्रवन्दितपदो विद्यार्णवोत्तीर्णवान् ख्यातः केशवनन्दिदेवयतिपः श्रीकुन्दकुन्दान्वय. ॥१॥ शिप्योऽभूत्तस्य भव्यः सकलजनहितो रामचन्द्रो मुमुक्षआत्या शब्दापशब्दान् सुविशदयशसः पद्मनन्द्याह्वयाद्वै। वन्द्याद वादोभसिंहात् परमयतिपतेः सोऽव्यधाद्भव्यहेतो
ग्रन्थं पुण्यास्रवाख्यं गिरिसमितिमितै ५७ 'दिव्यपद्यैः कथाथैः ॥२॥ जो भव्य जीव ज्ञानकी द्विगुणी संख्या [(५+३) x २] रूप सोलह पद्योंके द्वारा दानके फल की कथा का परमार्थसे विचार करते हैं वे संसारमें लक्ष्मीवान् , कुलीन, शत्रुसमूहके विजेता, अधिक बलशाली, तेजस्वी, कामदेवके समान सुन्दर, उत्तम युवतियोंके समूहसे वेष्टित तथा ज्ञानविज्ञानमें दक्ष होकर प्रसिद्ध संसारके सुखको भोगते हैं और तत्पश्चात् अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त करते हैं ।। १६॥
इस प्रकार के शवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु द्वारा विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें दानके फलको बतलानेवाले सोलह पद्य समाप्त हुए ॥६॥
___ यहाँ आचार्य कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परामें दिव्य बुद्धिके धारक जो केशवनन्दी देव नामके प्रसिद्ध यतीन्द्र हुए हैं वे भव्य जीवांरूप कमलोंके विकसित करने के लिए सूर्य समान, संयमके परिपालक, कामदेवरूप हाथीके नष्ट करनेमें सिंहके समान पराक्रमी और अनेक दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी पर्वतके भेदनेके लिए कठोर वज्र के समान थे। बड़े-बड़े ऋषि और राजामहाराजा उनके चरणोंकी वन्दना करते थे। वे विद्यारूप समुद्र के पार पहुँच चुके थे अर्थात् समस्त विद्याओंमें निष्णात थे ॥१॥ __ उनका भव्य शिष्य समस्त जनों के हितका अभिलाषी रामचन्द्र मुमुक्षु हुआ। उसने पद्मनन्दी नामक श्रेष्ठ मुनीन्द्र के पासमें शब्द और अपशब्दों ( अशुद्ध पदों)को जानकर -- व्याकरण शास्त्रका अध्ययन करके-कथाके अभिप्रायको प्रगट करनेवाले गिरि (७) और समिति (५) के बराबर संख्यावाले अर्थात् सत्तावन पद्योंके द्वारा भव्य जीवोंके निमित्त इस पुण्यास्रव नामक ग्रन्थको रचा
१. पब श मारसाम्या। २. व श ज्ञानदक्षाः। ३.जज्ञास । ४. ब यंत्यथिनो। ५. शत्विा शब्दान । ६. ब मिती दिव्य । ज ५७ संखेयं पर्व लिखिता पश्चाच्च निष्काषिता सा।
४३
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३८
पुण्यावकथाकोशम्
सार्धैश्चतुः ४५०० सहस्त्रैर्यो मितः पुण्यास्त्रवाह्वयः । ग्रन्थः स्थेयान् [त्] सतां चित्ते चन्द्रादिवत्सदाम्बरे ||३|| कुन्दकुन्दान्वये ख्याते ख्यातो 'देशिगणाग्रणीः । अभूत् संघाधिपः श्रीमान् पद्मनन्दी त्रिरात्निकः ||४|| वृषभाधिरूढो गणपो गणोद्यतो विनायकानन्दित चित्तवृत्तिकः ।
उमासमालिङ्गित ईश्वरोपमस्ततोऽप्यभूत् माघ [घ] वनन्दिपण्डितः ॥५॥ सिद्धान्तशास्त्रार्णवपारदृश्वा मासोपवासी गुणरत्नभूषः । शब्दादिवार्थी विबुधप्रधानो जातस्ततः श्रीवसुनन्दिसूरिः ||६|| दिनपतिरिव नित्यं भव्य पद्माधिबोध
सुरगिरिरिव देवैः सर्वदा सेव्यपादः । जलनिधिरिव शश्वत् सर्वसत्त्वानुकम्पी गणभृनि शिष्यो मौलिनामा तदीयः ॥७॥
[ ६-१६, ५७ :
है । वे पद्मनन्दी मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कीर्तिसे विभूषित, वंदनीय एवं वादीरूप हाथियों को परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे ||२||
साढ़े चार हजार ४५०० श्लोकों प्रमाण यह पुण्यास्रव ग्रन्थ सत्पुरुषों के हृदयमें निरन्तर इस प्रकारसे स्थिर रहे जिस प्रकार कि आकाशमें चन्द्र आदि निरन्तर स्थिर रहते हैं ||३|| सुप्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा में प्रसिद्ध श्रीमान् पद्मनन्दी त्रिरात्रिक (?) हुए । शिगण में मुख्य और संघके स्वामी थे ॥ ४॥
-
उनके पश्चात् वे मार्घा[घ] वनन्दी पण्डित हुए जो महादेवकी उपमाको धारण करते थे जिस प्रकार महादेव वृषभाधिरूढ़ अर्थात् बैलके ऊपर सवार हैं उसी प्रकार ये भी वृषभाधिरूढ़ - श्रेष्ठ धर्म में निरत- थे, महादेव यदि प्रमथादि गणोंके स्वामी होनेसे गणप ( गणाधिपति) हैं तो ये भी मुनिसंघ के नायक होनेसे गणप (संघके स्वामी) थे, महादेव जहाँ उन प्रमथादि गणों के विषय में उद्यत रहते हैं वहाँ ये भी संघके विषय में उद्यत (पवलशील) रहते थे, जिस प्रकार महादेवकी चित्तवृत्तिको विनायक (गणेशजी ) आनन्दित करते हैं उसी प्रकार इनकी चित्तवृत्तिको भी विनायक (विघ्न) आनन्दित करते थे विघ्नों के उपस्थित होनेपर वे हर्षके साथ उनके दूर करने में प्रयत्नशील रहते थे, तथा महादेव जैसे उमा (पार्वती) से आलिंगित थे वैसे ही ये भी उमा (कीर्ति)से आलिंगित थे । इस प्रकार वे सर्वथा महादेव के समान थे ||५||
उक्त माधवनन्दीसे सिद्धान्तशास्त्ररूपी समुद्र के पारंगत, महीने - महीने का उपवास करनेवाले, गुणरूप रत्नोंसे विभूषित तथा पण्डितों में प्रधान श्री वसुनन्दी सूरि इस प्रकारसे प्रादुर्भूत हुए जिस प्रकार कि शब्द से अर्थ प्रादुर्भूत होता है ||६||
वसुनन्दीके शिष्य मौलि नामक गणी (आचार्य) हुए। वे निरन्तर भव्य जीवोंरूप कमलों के प्रफुल्लित करने में सूर्य के समान तत्पर रहते थे, देव जिस प्रकार मेरु पर्वतके पादों (सानुओं) की
。
१. जपफश चतुः सहस्रर्यो । २ ज प ब श पुण्याश्रवाह्वयः । ३. प स्तेयान् । ४. व देविगणा । ५. फ बभूव । ६. श वृषभादिरूढो । ७. फ ब पद्माब्धिबोधी ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थकार-प्रशस्तिः
कलाविलासः परिपूर्णवृत्तो दिगम्बरालकृतिहेतुभूतः ।। श्रीनन्दिसूरिमुनिवृन्दवन्द्यस्तस्मादभूच्चन्द्रसमानकीर्तिः ।।८॥ चार्वाकबौद्धजिनसांख्यशि-द्विजानां वाग्मित्ववादिगमकत्वकवित्ववित्तः। साहित्यतर्कपरमागमभेदभिन्नः श्रीनन्दिसूरिगगनाङ्गणपूर्णचन्द्रः ॥६॥
॥ समाप्तोऽयं पुरयास्रवाभिधो ग्रन्थः ।
सेवा किया करते हैं उसी प्रकार वे (देव) इनके भी पादों (चरणों) की सेवा किया करते थे, तथा वे समुद्र के समान निरन्तर समस्त प्राणियोंके ऊपर दया रहते थे ॥७॥
उनके शिष्य मुनिसमूहके द्वारा वंदनीय श्रीनन्दो सूरि आविर्भूत हुए । उनको कीर्ति चन्द्रके समान थी-चन्द्र जहाँ सोलह कलाओंसे विलसित होता है वहाँ वे श्रीनन्दी बहत्तर कलाओंसे विलसित थे, जैसे पूर्णिमाका चन्द्र परिपूर्ण व वृत्त (गोल) होता है वैसे ही वे भी परिपूर्ण वृत्त (चारित्र) से सुशोभित-महाव्रतोंके धारक-थे, तथा चन्द्रमा यदि दिगम्बरकी-दिशाओं व आकाशकी-शोभाका हेतुभूत है तो वे भी दिगम्बरों ( मुनिजनों ) की शोभाके हेतुभूत-उन सबमें श्रेष्ठ-थे ॥८॥
चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य और शिवभक्त ब्राह्मणोंको वामित्व, वादित्व, गमकत्व और कवित्वरूप धन जैसे, तथा साहित्य, तर्क (न्याय) और परमागमके भेदसे भेदको प्राप्त वे श्रीनन्दी सूरिरूप आकाशके मध्यमें पूर्ण चन्द्रमाके समान थे (?) ॥६॥
इस प्रकार पुण्यासूब नामका यह ग्रन्थ समाप्त हुआ
१. प तिहेतु श लक्षतिहेतु। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श कवित्वचित्तः । ३. श गणनांगण । JainEduca४. अतोऽग्रे 'द्वितीयसूत्रेण सह प्रमाणमनुष्टुभां' इत्यधिक पाठ उपलभ्यते ।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________ For Private & Personal use only www.airfelibre