Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 359
________________ ३३८ पुण्यावकथाकोशम् सार्धैश्चतुः ४५०० सहस्त्रैर्यो मितः पुण्यास्त्रवाह्वयः । ग्रन्थः स्थेयान् [त्] सतां चित्ते चन्द्रादिवत्सदाम्बरे ||३|| कुन्दकुन्दान्वये ख्याते ख्यातो 'देशिगणाग्रणीः । अभूत् संघाधिपः श्रीमान् पद्मनन्दी त्रिरात्निकः ||४|| वृषभाधिरूढो गणपो गणोद्यतो विनायकानन्दित चित्तवृत्तिकः । उमासमालिङ्गित ईश्वरोपमस्ततोऽप्यभूत् माघ [घ] वनन्दिपण्डितः ॥५॥ सिद्धान्तशास्त्रार्णवपारदृश्वा मासोपवासी गुणरत्नभूषः । शब्दादिवार्थी विबुधप्रधानो जातस्ततः श्रीवसुनन्दिसूरिः ||६|| दिनपतिरिव नित्यं भव्य पद्माधिबोध सुरगिरिरिव देवैः सर्वदा सेव्यपादः । जलनिधिरिव शश्वत् सर्वसत्त्वानुकम्पी गणभृनि शिष्यो मौलिनामा तदीयः ॥७॥ [ ६-१६, ५७ : है । वे पद्मनन्दी मुनीन्द्र फैली हुई अतिशय निर्मल कीर्तिसे विभूषित, वंदनीय एवं वादीरूप हाथियों को परास्त करनेके लिए सिंहके समान थे ||२|| साढ़े चार हजार ४५०० श्लोकों प्रमाण यह पुण्यास्रव ग्रन्थ सत्पुरुषों के हृदयमें निरन्तर इस प्रकारसे स्थिर रहे जिस प्रकार कि आकाशमें चन्द्र आदि निरन्तर स्थिर रहते हैं ||३|| सुप्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परा में प्रसिद्ध श्रीमान् पद्मनन्दी त्रिरात्रिक (?) हुए । शिगण में मुख्य और संघके स्वामी थे ॥ ४॥ - उनके पश्चात् वे मार्घा[घ] वनन्दी पण्डित हुए जो महादेवकी उपमाको धारण करते थे जिस प्रकार महादेव वृषभाधिरूढ़ अर्थात् बैलके ऊपर सवार हैं उसी प्रकार ये भी वृषभाधिरूढ़ - श्रेष्ठ धर्म में निरत- थे, महादेव यदि प्रमथादि गणोंके स्वामी होनेसे गणप ( गणाधिपति) हैं तो ये भी मुनिसंघ के नायक होनेसे गणप (संघके स्वामी) थे, महादेव जहाँ उन प्रमथादि गणों के विषय में उद्यत रहते हैं वहाँ ये भी संघके विषय में उद्यत (पवलशील) रहते थे, जिस प्रकार महादेवकी चित्तवृत्तिको विनायक (गणेशजी ) आनन्दित करते हैं उसी प्रकार इनकी चित्तवृत्तिको भी विनायक (विघ्न) आनन्दित करते थे विघ्नों के उपस्थित होनेपर वे हर्षके साथ उनके दूर करने में प्रयत्नशील रहते थे, तथा महादेव जैसे उमा (पार्वती) से आलिंगित थे वैसे ही ये भी उमा (कीर्ति)से आलिंगित थे । इस प्रकार वे सर्वथा महादेव के समान थे ||५|| उक्त माधवनन्दीसे सिद्धान्तशास्त्ररूपी समुद्र के पारंगत, महीने - महीने का उपवास करनेवाले, गुणरूप रत्नोंसे विभूषित तथा पण्डितों में प्रधान श्री वसुनन्दी सूरि इस प्रकारसे प्रादुर्भूत हुए जिस प्रकार कि शब्द से अर्थ प्रादुर्भूत होता है ||६|| वसुनन्दीके शिष्य मौलि नामक गणी (आचार्य) हुए। वे निरन्तर भव्य जीवोंरूप कमलों के प्रफुल्लित करने में सूर्य के समान तत्पर रहते थे, देव जिस प्रकार मेरु पर्वतके पादों (सानुओं) की Jain Education International 。 १. जपफश चतुः सहस्रर्यो । २ ज प ब श पुण्याश्रवाह्वयः । ३. प स्तेयान् । ४. व देविगणा । ५. फ बभूव । ६. श वृषभादिरूढो । ७. फ ब पद्माब्धिबोधी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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