Book Title: Pratima Shatak
Author(s): Yashovijay Maharaj, Bhavprabhsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(३३) कार्यमां पण ते सोगन खानारा उपर विश्वास केम करी शकशे. सारांश ए डे के स्त्रीना हाथमा रहेला नोजनमां वा शिप्योए वोरी लावेला आहारमां आते शुं अन्न हशे के पुरीष? एवो संशय करता विराम पामशे नहीं. १४
हवे स्थितीने उद्देशीने कहे. नव्योन्यग्रगबोधिरपजवनाक् सदृष्टिराराधको, यश्चोक्तश्चरमोईता स्थितिरहो सूर्याजनाम्नोऽस्य या सा कल्पस्थितिवन्न धर्मपरतामत्येति नावान्वया, न्माकाथुममत्र केपि पिशुनैः शब्दांतरैर्वंचिताः॥१५॥
अर्थ-श्री महावीर प्रनुए जे सूर्यानदेवने, जव्य, सुलनबोधि, अपसंसारी, सम्यग्दृष्टि, ज्ञानादिकनो आराधन करनार, अने चरम (अपश्चिम जववालो ) कहेलो, ते सूर्याजदेवनी जे स्थिति बे, ते शुजन्नावना संबंधश्री कल्प (आचार ) स्थितिनी जेम धर्म व्यवहारनी विषयताने नवंघन करती नश्री. तेथी अधिकारमां नीच शब्दांतरथी बेतरायेला कोइपण लोको ज्रममां पडशो नहीं. अर्थात् आ धर्म नथी परंतु स्थिति एवो व्यामोह करशो नहीं. १५
विशेषार्थ-श्रीमहावीर परमात्माए ते सूर्यानदेवने केवो कह्यो ? ते विशेषणोथी कहे. ते सूर्याजदेव जव्य अर्थात् नवसिधिवालो, सुलनबोधि अर्थात् समीपगत बोधिवालो, अल्प संसारी अर्थात् अपनव करनार, सम्यग्दृष्टि अर्थात् समीचीन दृष्टिवालो, ज्ञानादिकनो आराधक अने चरमन्नवी अर्थात् अप